Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग) युधिष्ठिर मीमांसक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +भोम् । संस्कृत व्याकरण-शास्त्र इतिहास [वीन भागों में पूर्ण] प्रथम भाग [इस संस्करण में परिवार तथा परिवर्तन के कारण.८४ पृष्ठ बड़े हैं] --युधिष्ठिर मीमांसक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] प्रकाशकयुधिष्ठिर मीमांसक बहालगढ़, जिला-सोनीपत (हरयाणा) प्राप्ति स्थानरामलाल कपूर ट्रस्ट बहालमढ़ (१३१०२१) (सोनीपत-हरयाणा) प्रकाशनकाल ६४० संस्करण पृष्ठ संख्या परिवर्धन प्रथम भाग अधूरा मुद्रित सं० २००४ ३०० (लाहौर में नष्ट) प्रथम संस्करण सं० २००७ ४५७ १५० पृष्ठ द्वितीय संस्करण सं० २०२० ५८२ १२५ पृष्ठ तृतीय संस्करण सं० २०३० ५८ पृष्ठ प्रस्तुत संस्करण सं०.२०४१ ७२४ द्वितीय भाग प्रथम संस्करण सं० २०१६ द्वितीय संस्करण सं० २०३० ५० पृष्ठ प्रस्तुत संस्करण सं० २०४१ ४८८ ३२ पृष्ठ तृतीय भाग प्रथम संस्करण सं० २०३० १९८ नवीन संस्करण में अनेक प्रकरण बढ़ाये हैं। यह अभी छप रहा है। सम्भवतः यह भाग २५० पृष्ठों से अधिक का होगा। ४०६ मूल्य तीनों भाग एक साथ- 150/ चतुर्थ संस्करण १००० सं० २०४१ वि० सन् १९८४ ई० मुद्रकशान्तिस्वरूप कपूर रामलाल कपूर ट्रस्ट प्रेस बहालगढ़, जिला सोनीपत, (हरयाणा) " Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशंसनम् अमेकेषु शास्त्रेषु कृतभूरिपरिश्रमेण युधिष्ठिर-मीमांसकेन वैदिकवाङमये संस्कृतव्याकरणे च चिरकालं परिश्रमय्य ये विविधाः शोधपूर्णा ग्रन्था विरचिता सम्पादिताश्च, तैरस्य महानुभावस्य पाण्डित्यं शोधकार्यविषयकं प्रावीण्यं च पदे-पदे परिलक्ष्यते । अहमेतादृशस्य युधिष्ठिर-मीमांसकस्य चिरायुष्यं स्वास्थ्य साफल्यं च भगवतो विश्वनाथात् कामये, येनकाकिनानेन विदुषा निष्कारणं प्रारब्धस्य सुरभारत्या रक्षणात्मकं ज्ञान-सत्रं पूर्णतां भजेत् । संचालक के. माधवकृष्ण-शर्मा राजस्थान संस्कृत-शिक्षा विभाग, जयपुर [वि० सं० २०२०] संस्कृत शुभाशंसन का अभिप्राय अनेक शास्त्रों में कृतभूरि-परिश्रम पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने वैदिक वाङ्मय और सस्कृत व्याकरणशास्त्र में चिरकाल तक परिश्रम करके जो विविध ग्रन्थ लिखे वा सम्पादित किए, उनसे इन महानुभाव का पाण्डित्य और शोधकार्य-सम्बन्धी प्रवीणता का परिचय पद-पद पर मिलता है। मैं भगवान् विश्वनाथ से पं० युधिष्ठिर मीमांसक के चिरायुष्य, स्वास्थ्य और कार्य की सफलता की कामना करता हूं, जिससे इस प्रकार के एकाकी असहाय विद्वान् के द्वारा निष्कारण आरम्भ किया गया संस्कृत वाङ्मय की रक्षा करनेवाला ज्ञान-सत्र पूर्ण हो। संचालक के माधवकृष्ण शर्मा. राजस्थान संस्कृत-शिक्षा विभाग, जयपुर [वि० सं० २०२०] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन (प्रथम-संस्करण) .. पं० युधिष्ठिरजी मीमांसक का यह ग्रन्थरत्न विद्वानों के सम्मुख उपस्थित है। कितने वर्ष कितने मास और कितने दिन श्री पण्डितजी को इसके लिये दत्तचित्त होकर देने पड़े, इसे मैं जानता हूं। इस काल के महान् विघ्न भी मेरी प्रांखों से ओझल नहीं हैं। ___ भारतवर्ष में अंग्रेजों ने अपने ढङ्ग के अनेक विश्वविद्यालय स्थापित किए। उनमें उन्होंने अपने ढङ्ग के अध्यापक और महोपाध्याय रक्खे । उन्हें आर्थिक कठिनाइयों से मुक्त करके अंग्रेजों ने अपना मनोरथ सिद्ध किया। भारत अब स्वतन्त्र है, पर भारत के विश्वविद्यालयों के प्रभूत-वेतन-भोगी महोपाध्याय scientific विद्यासंबन्धी और critical तर्कयक्त लेखों के नाम पर महा अन्त और अविद्या-युक्त बातें ही लिखते और पढ़ाते जा रहे हैं। __ऐसे काल में अनेक आर्थिक और दूसरी कठिनाइयों को सहन करते हुए जब एक महाज्ञानवान् ब्राह्मण सत्य की पताका को उत्तोलित करता है, और विद्या-विषयक एक वज्रग्रन्थ प्रस्तुत करके नामधारी विद्वानों के अनृतवादों का निराकरण करता है, तो हमारी आत्मा प्रसन्नता की पराकाष्ठा का अनुभव करती है। भारत शीघ्र जागेगा, और विरोधियों के कुग्रन्थों के खण्डन में प्रवृत्त होगा। ऐसा प्रयास मीमांसकजी का है। श्री ब्रह्मा, वायु, इन्द्र, भरद्वाज आदि महायोगियों तथा ऋषियों के शतशः आशीः उनके लिये हैं। भगवान् उन्हें बल दें कि विद्या के क्षेत्र में वे अधिकाधिक सेवा कर सकें। मैं इस महान् तप में अपने को सफल समझता हैं। इस ग्रन्थ से भारत का एक बड़ी त्रुटि दूर हुई है । जो काम राजवर्ग के बड़े-बड़े लोग नहीं कर रहे है, वह काम यह ग्रन्थ करेगा। इससे भारत का शिर ऊंचा होगा। श्री बाबा गुरुमुसिंहजी का भवन ] पार्यविद्या का सेवक ... अमृतसर कार्तिक शुक्ला १५ सं० २००७ वि० ) . . भगवद्दत्त Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम रूप से . संशोधित परिष्कृत और परिवर्धित प्रस्तुत (चतुर्थ) संस्करण व्याकरण शास्त्र जैसे नीरस विषय के वाङमय पर लिखे गये 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' नामक बृहत्तम ग्रन्थ का मेरे जीवन काल में (३४ वर्षों में) चतुर्थवार प्रकाशित होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि व्याकरण-शास्त्र के विद्वानों और व्याकरणशास्त्र में शोध करनेवाले व्यक्तियों ने इसे बड़े आदर के साथ अपनाया है। मेरे द्वारा पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा निर्धारित भारतीय काल-गणना का प्राश्रयण करने पर भी संस्कृत व्याकरण शास्त्र का एकमात्र साङ्गपूर्ण प्रथम इतिहास ग्रन्थ होने से अनेक विश्वविद्यालयों के प्रायः पाश्चात्त्य काल-गणना को मानने वाले अधि. कारियों को भी व्याकरण विभाग में इसे पाठ्य ग्रन्थ अथवा सहायक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करना पड़ा। यह इस ग्रन्थ के लिये विशेष गौरव की बात है। इस ग्रन्थ का तृतीय संस्करण लगभग ३-४ वर्ष पूर्व समाप्त हो गया था, परन्तु आर्थिक कठिनाइयों के कारण इस के प्रकाशन में कुछ विलम्ब हुा । सहृदय पाठकों को प्रतीक्षा करनी पड़ी । इस के लिये मैं उनसे क्षमा चाहता हूं। . इस इतिहास ग्रन्थ से पूर्व एकमात्र डा० वेल्वाल्कर का 'सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर' नामक एक लघुकाय ग्रन्थ ही अंग्रेजी में छपा था। सं० २००७ में मेरे ग्रन्थ के प्रकाशित होने के पीछे सं० २०१७ में पं० वाचस्पति गैरोला ने अपने 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' में तथा २०२६ में पं० बलदेव उपाध्याय ने 'संस्कृत-शास्त्रों का इतिहास' ग्रन्थ में व्याकरण शास्त्र का संक्षिप्त इतिहास लिखा । इन दोनों ने मेरे ग्रन्थ को ही प्रमुख आधार बनाया। यह पास्परिक तुलना से हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष है । सं० २०२८ में डा० सत्यकाम वर्मा का संस्कृत Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्याकरण का उद्भव और विकास' नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित हा, उस के विषय में आगे दी जा रही तृतीय संस्करण की भूमिका में देखें। मेरा सम्पूर्ण जीवन प्रायः संघर्षमय व्यतीत हुआ। 'लक्ष्मी और सरस्वती का शाश्वतिक वैर' रूप किंवदन्ती मुझ पर भी चरितार्थ रही। विषम आर्थिक कठिनाई से जूझते हुए भी अपनी पत्नी यशोदा देवी के पूर्ण सहयोग के कारण मैं ज्ञान-सत्र को सतत चालू रखने में प्रयत्नशील रहा । आर्थिक कठिनाइयों के साथ-साथ सं० २००७ से अद्य-यावत् अनेकविध राजरोगों से पीड़ित होने, दो वार कष्टसाध्य शल्य-क्रिया (आप्रेशन) होने तथा दोनों वृक्कों (गुर्दो) की कार्यक्षमता प्रायः समाप्त हो जाने के कारण लगभग ८ वर्ष से मेरा स्वास्थ्य निरन्तर गिरता जा रहा है । शारीरिक कार्यक्षमता प्रायः समाप्त हो गई है, परन्तु जैसे किसी मादक-द्रव्य का व्यसनी व्यसन छोड़ने में असमर्थ होता है, उसी प्रकार शुभचिन्तकों एवं परिवारिक जनों के द्वारा कार्य से विरत होने की चेतावनी देने पर भी मुझे विद्यारूपी व्यसन ऐसा लगा हुआ है कि स्वास्थ के अतिक्षीण हो जाने पर भी मैं लगभग ५-६ घण्टे प्रतिदिन ग्रन्थलेखन वा शोधन आदि कार्य में लगा रहा हूं। इस के विना मुझे शान्ति नहीं मिलती । सम्भव है जैसे मादक द्रव्य का व्यसनी मादक द्रव्य के सेवन से कुछ समय के लिये उत्तेजना वा शक्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार मुझे भी जीवन भर विद्याव्यसनी रहने के कारण रग-रग में व्याप्त विद्या-व्यसन कार्य पर बैठते ही सशक्तसा बना देता है। बस केवल अन्तर इतना ही है कि मादक द्रव्य का व्यसन मनुष्य को निन्द्य कर्म में प्रवृत्त करता है और विद्याव्यसन शुभ कर्म में। प्रथम संस्करण के समय प्रथम भाग में केकल ४५७ पृष्ठ थे, परन्तु सतत अध्ययन के कारण इसे में प्रति संस्करण परिवर्धन होता गया। प्रस्तुत चतुर्थ संस्करण में प्रथम भाग की पृष्ठ संख्या ७२४ हो गई है अर्थात् प्रथम भाग में ३४ वर्षों के अध्ययन और मनन से २६७ पृष्ठों की उपयोगी सामग्री का संकलन हुअा है। सं० २०३० में प्रकाशित तृतीय संस्करण से कुछ समय पूर्व (जिन १. यह कठिनाई सं० २०३४ तक रही । उसके पश्चात् इस से लगभग छुटकारा मिल गया । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम रूप से संशोधित परिष्कृत और परिवर्धित का उस समय मुझे परिज्ञान नहीं हुआ था ) तथा उस के पश्चात् पाणिनीय व्याकरण और इतर व्याकरण विषय के अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए । व्याकरण - सम्बन्धी शोध प्रबन्ध छपे हुए और ४ शोध-प्रबन्ध प्रमुद्रित भी देखने को उपलब्ध हुए । इन सब के अध्ययन से अनेक नये तथ्य प्रकाश में आये तथा कतिपय अपनी भूलों का भी परिज्ञान हुआ । इस लिये उन सब का इस संस्करण में यथास्थान समावेश करना और ज्ञात हुई भूलों का परिमार्जन करना आवश्यक था । इस कार्य को मैंने यथाशक्ति करने का प्रयास किया है । पुनरपि मैं अनुभव करता हूं कि इसे जितना अधिक सुन्दर बनाया जा सकता था उतना शारीरिक अस्वस्थता के कारण मैं नहीं बना सका । वर्तमान शारीरिक स्थिति को देखते हुए मैं इस संस्करण को अपने जीवन का अन्तिम संस्करण समझता हूं । इसीलिये शीर्षक में 'अन्तिम रूप से ' शब्द का प्रयोग किया है । आगे दैवेच्छा बलीयसी, उसे कौन जान सकता है। इस संस्करण में जिन ग्रन्थों से विशेष सामग्री संकलित की गई है। उनके नाम इस प्रकार हैं --- १. पाणिनि : ए सर्वे आफ रिसर्च (पाणिनि: अनुसन्धान का सर्वेक्षण) - लेखक जार्ज कार्डीना । प्रकाशन काल १९७६ । श्री जार्ज कार्डोना ने मेरे ग्रन्थ के सन् १९७३ के तृतीय संस्करण का उपयोग किया है । - १४ जुलाई सन् १९८१ में पूना विश्वविद्यालय पूना में आयोजित 'इण्टरनेशनल सेमिनार प्रोन पाणिनि' के अवसर पर आप से भेंट हुई थी । आप बड़े विनीत और सहृदय व्यक्ति हैं । जार्ज कार्डोना ने मेरे संस्कृत व्या० शा ० का इतिहास तथा मेरे द्वारा सम्पादित वा प्रकाशित व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थों के विषय में जो कुछ लिखा है, उसे पाठकों के ज्ञान के लिये संक्षेप से प्रस्तुत संस्करण के तृतीय भाग में दे रहा हूं । 1 1 २. भर्तृहरि विरचित महाभाष्य- दीपिका - इसके दो संस्करण छपे हैं । प्रथम - श्री वी० स्वामीनाथन् एम० ए० एम० लिट० ( तिरुपति' ने सम्पादित किया है और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सन् १९६५ में छपा है । यह संस्करण चतुर्थ प्राह्निक पर्यन्त ही है । द्वितीयश्री पं० काशीनाथ वासुदेव श्रभ्यङ्कर ने सम्पादित किया है। इसे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भण्डारकर प्राच्य शोध प्रतिष्ठान पुणे ने सन् १९६७ में प्रकाशित किया है। श्री स्वामीनाथन् के संस्करण के अधूरा होने से हमने श्री काशीनाथ अभ्यङ्कर के संस्करण का उपयोग किया है। जिस समय मैंने सं० व्या० शास्त्र का इतिहास लिखा था, उस समय रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत) के पुस्तकालय में विद्यमान लिखित प्रतिलिपि का उपयोग किया था। अतः महाभाष्यदीपिका. के जितने भी उद्धरण इस ग्रन्थ में दिये हैं, उन पर इसी हस्तलेख की पृष्ठ संख्या दी थी। तृतीय संस्करण में तत्तत्स्थानों में उद्धत पाठों के पूना संस्करण के पृष्ठों के परिज्ञान के लिये तीसरे भाग के आठवें परिशिष्ट में हस्तलेख और पूना संस्करण दोनों की तुलनात्मक पृष्ठ संख्या छापी थी। इस संस्करण में हस्तलेख की पृष्ठ संख्या के साथ ही पूना संस्करण की पृष्ठ संख्या भी दे दी है। हस्तलेख की पृष्ठ संख्या इसलिये नहीं हटाई कि पाठकों को यह ज्ञात हो कि मैंने महाभाष्यदीपिका के पाठ हस्तलेख के आधार पर ही संगृहीत किये थे। ___ ३-परिभाषा-संग्रह-सम्पादक पं० काशीनाथ बासुदेव अभ्यङ्कर पुणे । प्रकाशक-भण्डारकर प्राच्यशोध प्रतिष्ठान पुणे, सन् १९६७ । इस ग्रन्थ में सभी व्याकरणों के उपलब्ध परिभाषा पाठ और उनकी वृत्तियों का संग्रह है। सं० व्या० शा० का इतिहास के पूर्व संस्करणों में विभिन्न स्थानों में छपी परिभाषावृत्तियों की पृष्ठ संख्या दी थी। प्रस्तुत संस्करण में पूर्व मुद्रित ग्रन्थों की पृष्ठ संख्या के साथ इस संग्रह की पृष्ठ संख्या भी दे दी है, जिस से पुराने संस्करणों के दुर्लभ हो जाने के कारण पाठकों को असुविधा न होवे। . ४-उणादिमणि-दीपिका-रामचन्द्र दीक्षित । मद्रास, सन् १९७२ ५-प्रदीप-व्याख्यानानि- महाभाष्य प्रदीप पर उपलब्ध व्याख्या ग्रन्थों का संकलन । १-६ भाग, षष्ठ अध्याय पर्यन्त पाण्डिचेरि से छपा है । सन् १९७३-१९८२ । '६-स्वर-प्रक्रिया-शेष रामचन्द्र कृत । पूना, सन् १९७४ । __अब हम उन शोध-प्रबन्धों का उल्लेख करेगें जिन्हें विविध Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम रूप से संशोधित परिष्कृत और परिवर्धित विद्वानों ने पीएच० डी० वा विद्यावरिधि उपाधि के लिये लिखा है । इनमें से निम्न मुद्रित शोध-प्रबन्ध हमें उपलब्ध हुए - १ - व्याकरण - वार्तिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन - लेखकपं० वेदपति मिश्र । सन् १९७० । २ - चान्द्रवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम् - लेखक - पं० हर्षनाथ मिश्र । सन् १९७४ । ३ - काशिका सिद्धान्तकौमुद्यो: तुलनात्मकमध्ययनम् - लेखक पं० महेशदत्त शर्मा । सन् १९७४ । ४ - कातन्त्रव्याकरण - विमर्श: - लेखक - पं० जानकीप्रसाद द्विवेद । सन् १९७५ । ५ - काशिका का समालोचनात्मक अध्ययन वीर वेदालङ्कार । सन् १९७७ । ६ – न्यास-पर्यालोचनम् – लेखक - पं० भीमसेन शास्त्री । सन् १६७६ । - लेखक - पं० रघु ७ - पदमञ्जर्याः पर्यालोचनम् - लेखक - पं० तीर्थरामत्रिपाठी । सन् १९८१ । ८- श्रष्टाध्यायीशुक्लयजुर्वेदप्रातिशाख्ययोर्मत- विमर्शः । लेखकपं० विजयपाल आचार्य । सन् १९८३ । 1 अब उन शोध-प्रबन्धों का उल्लेख करते हैं, जो अभी तक छपे नहीं, परन्तु उन की टाइप कापी देखने के लिये उपलब्ध हुई हैं १ - काशिकायाः समीक्षात्मकमध्ययनम् - लेखिका - श्री कुमारी प्रज्ञादेवी प्राचार्या । सन् १९६९ । २ - प्रक्रियाकौमुदी और सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययनलेखिका - कुमारी पुष्पा गान्धी ( अब - श्री पुष्पा खन्ना) एम० ए० । सन् १९७२ । - ३ - - बोपदेव की संस्कृत व्याकरण को देन - लेखिका - श्री शन्नो - देवी एम० ए० । ४- फिट्सूत्राष्टाध्याय्याः स्वरशास्त्राणां तुलनात्मक मध्ययनम्लेखक – पं० धर्मवीर शास्त्री । सन् १९८३ । - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इनके अतिरिक्त निम्न ग्रन्थों से भी प्रस्तुत संस्करण में सहायता प्राप्त हुई १-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग ५) लक्षण साहित्यलेखक-पं० अम्बालाल प्रे० शाह । सन् १९६६ । । २-संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा (आचार्य श्री कालूगणी स्मृति ग्रन्थ)-लेखक =अनेक विद्वान् । सन् १९७७ । हम उपर्युक्त सभी ग्रन्थों के सम्पादक और लेखक महानुभावों के प्रति कृतज्ञ हैं, जिन के ग्रन्थों से प्रस्तुत संस्करण के संशोधन परिष्करण और परिवर्धन में साहाय्य प्राप्त हुआ। ___ इस बार तृतीय भाग में कुछ नई सामग्री जोड़ी है। उन में निम्न तीन अंश विशेष महत्त्वपूर्ण हैं १-समुद्रगुप्त विरचित कृष्ण-चरित-इस ग्रन्थ का थोड़ा सा अंश गोण्डल (काठियावाड़) के वैद्यप्रवर जीवराम कालिदास को उपलब्ध हया था। उस को उन्होंने अपनी टिप्पणियों के साथ सन् १९४१ में छपवाया था । हमने इस कृष्णचरित को व्याडि कात्यायन और पतञ्जलि आदि के प्रकरण में उद्धृत किया है । सम्प्रति यह मुद्रित अंश भी दुर्लभ हो चुका है। कृष्ण-चरित का थोड़ सा उपलब्ध अंश भी भारतीय प्राचीन इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः हम उसे तृतीय भाग में मूल मात्र दे रहे हैं । २. श्री जार्ज कार्डोना द्वारा मेरे 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' तथा व्याकरण विषयक अन्य सम्पादित वा प्रकाशित ग्रन्थों पर लिखी गई टिप्पणियां। ३-अनेक विद्वानों के पत्र-सं० व्या० शा० का इतिहास के लेखन वा परिष्कार आदि के लिये समय-समय पर मुझे अनेक सहृदय विद्वज्जनों ने पत्र द्वारा सुझाव दिये थे। उन्हें मैं इस बार तृतीय भाग में छाप रहा हूं । इन पत्रों में से अनेक पत्रों का उल्लेख मैंने इस इतिहास में अनेक स्थानों पर किया है। इन पत्रों के प्रकाशन से पाठकों को जहां मूल पत्र देखने को उपलब्ध होंगे, वहां पत्र-लेखक सभी स्वर्गत वा विद्यमान महानुभावों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भी मुझे अवसर प्राप्त होगा। पत्र-लेखक महानुभावों में स्व० श्री पं० भगव Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम रूप से संशोशित परिष्कृत और परिवर्धित ७ दत्त जी एवं श्री पं० बी० एच पद्नाभ राव जी प्रात्मकूर (आन्ध्र) का मुझे विशेष सहयोग मिला। _तृतीय भाग में ही सब से अन्त में मैं अपना संक्षिप्त आत्म-परिचय भी छाप रहा हूं। इस में आत्म परिचय के साथ कृतकार्य का विवरण, जिस में साहित्य-साधना और उपलब्ध पुरस्कारों का भी विवरण है, दे रहा हूं। मैंने जीवन में जो कुछ उपलब्ध किया है उस सब का श्रेय मेरे स्वर्गत माता, पिता, गुरुजनों एवं सुहृन्मित्रों को है। जिन के आशीर्वाद एवं सत्प्रेरणाएं मुझे सदा प्राप्त होती रहीं हैं। आर्थिक सहायता- इस ग्रन्थ के मुद्रण में रा० सा० श्री चौ. प्रतापसिंह जी ने अपने 'श्री चौ० नारायण सिंह प्रतापसिंह धर्मार्थ ट्रस्ट' (करनाल) द्वारा १०००-०० एक सहस्र रुपयों की सहायता की है। उसके लिये मैं उनका आभारी हूं। अन्त में मैं श्री प्रोङ्कारजी, जिन्होंने बड़ी तन्मयता से ग्रन्थ के मुद्रण-पत्र देखे तथा श्री पं० शिवपूजनसिंह जी कुशवाह शास्त्री एम० ए०, जिन्होंने सूचियों के निर्माण में सहायता की, का धन्यवाद करता हूं। युधिष्ठिर मीमांसक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (प्रथम संस्करण) भारतीय प्रार्यों का प्राचीन संस्कृत वाङमय संसार की समस्त जातियों के प्राचीन वाङमय की अपेक्षा विशाल और प्राचीनतम है। अभी तक उसका जितना अन्वेषण, सम्पादन और मुद्रण हया है, वह 'उस वाङमय का दशमांश भी नहीं है। अतः जब तक समस्त प्राचीन वाङमय का सुसम्पादन और मुद्रण नहीं हो जाता, तब तक निश्चय ही उसका अनुसन्धान कार्य अधूरा रहेगा। पाश्चात्त्य विद्वानों ने संस्कृत वाङमय का अध्ययन करके उसका इतिहास लिखने का प्रयास किया है, परन्तु वह इतिहास योरोपियन दृष्टिकोण के अनुसार लिखा गया है । उसमें यहूदी ईसाई पक्षपात, विकासवाद और आधुनिक अधूरे भाषाविज्ञान के आधार पर अनेक मिथ्या कल्पनाएं की गई हैं। भारतीय ऐतिहासिक परम्परा की न केवल उपेक्षा की है, अपितु उसे सर्वथा अविश्वास्य कहने की धृष्टता भी की है। हमारे कतिपय भारतीय विद्वानों ने भी प्राचीन भारतीय वाङमय का इतिहास लिखा है, पर वह योरोपियन विद्वानों का अन्ध-अनुकरणमात्र है । इसलिये भारतीय प्राचीन वाङमय का भारतीय ऐतिहासिक परम्परा तथा भारतीय विचारधारा से क्रमवद्ध यथार्थ इतिहास लिखने की महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में सव से पहला परिश्रम तीन भागों में 'वैदिक वाङमय का इतिहास' लिखकर श्री माननीय पं० भगवद्दत्तजी ने किया। उसी के एक अंश की पूर्ति के लिये हमारा यह प्रयास है। १. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इस क्षेत्र में महती गिरावट आई है। शतशः प्राचीन मुद्रित ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये हैं। नये ग्रन्थों का प्रकाशन होना तो दूर रहा, पूर्व मुद्रित ग्रन्थों के पुनः संस्करण भी नहीं हुए। २. देखो-श्री भगवद्दत्तजी कृत 'भारतवर्ष का बृहद् इतिहास' भाग १ पृष्ठ ३४-६८ तक भारतीय इतिहास की विकृति के कारण' नामक तृतीय अध्याय । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका संस्कृत वाङमय में व्याकरण-शास्त्र अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उसका जो वाङमय इस समय का उपलब्ध है, वह भी बहत विस्तृत है। इस शास्त्र का अभी तक कोई क्रमबद्ध इतिहास अंग्रेजी वा किसी भारतीय भाषा में प्रकाशित नहीं हुआ। चिरकाल हुआ सं० १९७२ में डा० बेल्वाल्करजी का 'सिस्टम्स् प्राफ दी संस्कृत ग्रामर' नामक एक छोटा सा निबन्ध अंग्रेजी भाषा में छपा था। संवत १९९५ में बंगला भाषा में श्री पं० गुरुपद हालदार कृत व्याकरण दर्शनेर इतिहास' नामक ग्रन्थ का प्रथम भाग प्रकाशित हुना । उसमें मुख्यतया व्याकरण-शास्त्र के दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन है। अन्त के अंश में कुछ एक प्राचीन वैयाकरणों का वर्णन भी किया गया है। अतः समस्त व्याकरण-शास्त्र का क्रमबद्ध इतिहास लिखने का यह हमारा सर्व प्रथम प्रयास है। इतिहास-शास्त्र की ओर प्रवृत्ति | आर्ष ग्रन्थों के महान् वेत्ता, महावैयाकरण आचार्यवर श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु की, भारतीय प्राचीन वाङमय और इतिहास के उद्भट विद्वान् श्री पं० भगवद्दत्तजी के साथ पुरानी स्निग्ध मैत्री थी।' प्राचार्यवर जव कभी श्री माननीय पण्डितजी से मिलने जाया करते थे, तब वे प्रायः मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। आप दोनों महानुभावों का जब कभी परस्पर मिलना होता था, तभी उनकी परस्पर अनेक विषयों पर महत्त्वपूर्ण शास्त्रचर्चा हुआ करती थी। मुझे उस शास्त्रचर्चा के श्रवण से अत्यन्त लाभ हुआ । इस प्रकार अपने अध्ययन काल में सं० १९८६, १९८७ में श्री माननीय पण्डितजी के संसर्ग में आने पर आपके महान् पाण्डित्य का मुझ पर विशेष प्रभाव पड़ा। और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन तथा उनके इतिहास जानने की मेरी रुचि उत्पन्न हुई, और वह रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। आपकी प्रेरणा से मैंने सर्व प्रथम दशपादी-उणादि-वृत्ति का सम्पादन किया । यह ग्रन्थ व्याकरण के वाङमय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्राचीन है। इसका प्रकाशन संवत् १६६६ में राजकीय संस्कृत महा १. अब दोनों ही स्वर्गत हो चुके हैं । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विद्यालय काशी' की सरस्वती भवन प्रकाशनमाला की ओर से हुआ । ' अध्ययनकाल में व्याकरण मेरा प्रधान विषय रहा । प्रारम्भ से ही इसमें मेरी महती रुचि थी । इसलिये श्री माननीय पण्डितजी ने संवत् १९६४ में मुझे व्याकरणशास्त्र का इतिहास लिखने की प्रेरणा की । आपकी प्रेरणानुसार कार्य प्रारम्भ करने पर भी कार्य की महत्ता, उसके साधनों का अभाव, और अपनी योग्यता को देखकर अनेक बार मेरा मन उपरत हुआ । परन्तु आप मुझे इस कार्य के लिये निरन्तर प्रेरणा देते रहे, और अपने संस्कृत वाङ् मय के विशाल अध्ययन से संगृहीत एतद्ग्रन्थोपयोगो विविध सामग्री प्रदान कर मुझे सदा प्रोत्साहित करते रहे। आपकी प्रेरणा और प्रोत्साहन का ही फल है कि अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हुए भी मैं इस कार्य को करने में कथंचित् समर्थ हो सका । इतिहास को काल गणना इस इतिहास में भारतीय ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार भारतयुद्ध को विक्रम से ३०४४ वर्ष प्राचीन माना है । भारतयुद्ध से प्राचीन आचार्यों के कालनिर्धारण की समस्या बड़ी जटिल है । जब तक प्राचीन युग-परिमाण का वास्तविक स्वरूप ज्ञात न हो जाए, तब तक उसका काल- निर्धारण करना सर्वथा असम्भव है । इतना होने पर भी हमने इस ग्रन्थ में भारतयुद्ध से प्राचीन व्यक्तियों का काल दर्शाने का प्रयास किया है । इसके लिये हमने कृत युग के ४८००, त्रेता के ३६००, द्वापर के २४०० दिव्य वर्षों को सौरवर्ष * मान कर कालगणना की है । इसलिये भारतयुद्ध से प्राचीन प्राचार्यों का इस इति १. वर्तमान ( संवत् २०४१ ) में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। २. अब वह दुष्प्राप्य हो चुका है । ३. श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत 'भारतवर्ष का इतिहास' द्वितीय संस्करण पृष्ठ २०५-२०ε। तथा रायबहादुर चिन्तामणि वैद्य कृत 'महाभारत की मीमांसा' पृष्ठ ८९ - १४० । ४. तुलना करो - सप्तविंशतिपर्यन्ते कृत्स्ने नक्षत्रमण्डले । सप्तर्षयस्तु तिष्ठन्ति पर्यायेण शतं शतम् । सप्तर्षीणां युगं ह्येतद् दिव्यया संख्यया स्मृतम् ॥ वायु पुराण अ० १६, श्लोक ४१९ । अन्यत्र विना दिव्य विशेषण के साधारण रूप में २७०० वर्ष कहा है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका ११ हास में जो काल दर्शाया है, वह उनके अस्तित्व की उत्तर सीमा है । वे उस काल से अधिक प्राचीन तो हो सकते हैं, परन्तु अर्वाचीन नहीं हो सकते, इतना निश्चित है । पाश्चात्त्य तथा उनके अनुकरणकर्ता भारतीय ऐतिहासिकों का मत है कि भारत में आर्यों का इतिहास ईसा से २५०० वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं है । इसकी सत्यता हमारे इस इतिहास से भले प्रकार ज्ञात हो जायगी । हमने अभी तक भारतीय प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में जितना विचार किया है, उसके अनुसार भारतीय आर्यों का प्राचीन क्रमबद्ध इतिहास लगभग १६००० वर्षों का निश्चित रूप से उपलब्ध होता है । उस इतिहास का प्रारम्भ वर्तमान चतुर्युगी के सत्युग से होता है । उससे पूर्व का इतिहास उपलब्ध नहीं होता । इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है । हमारा विचार है कि सत्ययुग से पूर्व संसार में एक महान् जलप्लावन आया, जिस में प्रायः समस्त भारत जलमग्न हो गया था । जलप्लावन में भारत के कुछ एक महर्षि ही जीवित रहे । यह वही महान् जलप्लावन है, जो भारतीय इतिहास में मनु के जलप्लावन के नाम से विख्यात है । इस भारी उथल-पुथल मचा देने वाली महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख न केवल भारतीय वाङ् मय में है, अपितु संसार की सभी जातियों के प्राचीन ग्रन्थों में नूह अथवा नोह का जलप्लावन आदि विभिन्न नामों से स्मृत है । अतः इस महान् जलप्लावन की ऐतिहासिकता सर्वथा सत्य है । इस जलप्लावन का संसार के अन्य देशों पर क्या प्रभाव पड़ा, यह अभी अन्वेषणीय है । आधुनिक भाषा - विज्ञान भारतीय प्राचीन वाङ् मय के अनुसार संस्कृतभाषा विश्व की आदि भाषा है । परन्तु आधुनिक भाषाविज्ञानवादियों के मतानुसार संस्कृतभाषा विश्व की आदि भाषा नहीं है, और उसमें उत्तरोत्तर महान् परिवर्तन हुआ है । संवत् २००१ में मैंने पं० बेचरदास जीवराज दोशी की 'गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति' नामक पुस्तक पढ़ी। उसमें दोशी महोदय ने लगभग १०० पाणिनीय सूत्रों को उद्धृत करके वैदिक संस्कृत और Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्राकृत की पारस्परिक महती समानता दर्शाते हुए सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत का मूल कोई प्रागैतिहासिक प्राकृत भाषा थी । यद्यपि मैं उससे पूर्व आधुनिक भाषाविज्ञान के कई ग्रन्थ देख चुका था, तथापि, उक्त पुस्तक में सप्रमाण लेख का अवलोकन करने से मुझे भाषाविज्ञान पर विशेष विचार करने की प्रेरणा मिली । तदनुसार मैंने दो ढाई वर्ष तक निरन्तर भाषाविज्ञान का विशेष अध्ययन और मनन किया । उससे मैं इस परिणाम पर पहुंचा कि आधुनिक भाषाविज्ञान का प्रासाद अधिकतर कल्पना की भित्ति पर खड़ा किया गया है। उसके अनेक नियम, जिनके आधार पर अपभ्रंश भाषाओं के क्रमिक विकार और पारस्परिक सम्बन्ध का निश्चय किया गया है, अधूरे एकदेशी हैं। हमारा भाषा - विज्ञान पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने का विचार है ।' उसमें हम प्राघुनिक भाषाविज्ञान के स्थापित किये गये नियमों की सम्यक् आलोचना करेंगे प्रसंगवश इस ग्रन्थ में भी भाषाविज्ञान के एक महत्त्वपूर्ण नियम का अधूरापन दर्शाया है । संस्कृतभाषा विश्व की आदि भाषा है वा नहीं, इस पर इस ग्रन्थ में विचार नहीं किया । परन्तु भाषाविज्ञान के गम्भीर अध्ययन के अनन्तर हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि संस्कृतभाषा में श्रादि ( चाहे उसका प्रारम्भ कभी से क्यों न माना जाय ) से आज तक यत्किचित् परिवर्तन नहीं हुआ है । आधुनिक भाषाशास्त्री संस्कृतभाषा में जो परिवर्तन दर्शाते हैं, वे सत्य नहीं हैं। हां, आपाततः सत्य प्रतीत अवश्य होते हैं, परन्तु उस प्रतीति का एक विशेष कारण है । और वह है- संस्कृतभाषा का ह्रास । संस्कृतभाषा प्रतिप्राचीन काल में बहुत विस्तृत थी । शनैः-शनैः देश काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण म्लेच्छ भाषात्रों की उत्पत्ति हुई, और उत्तरोत्तर उनकी वृद्धि के साथ-साथ संस्कृतभाषा का प्रयोगक्षेत्र सीमित होता गया । इसलिये विभिन्न देशों में प्रयुक्त होनेवाले संस्कृतभाषा के विशेष शब्द संस्कृतभाषा से लुप्त हो गये । भाषाविज्ञानवादी संस्कृतभाषा में जो परिवर्तन दर्शाते हैं, वह सारा इसी शब्दलोप वा संस्कृत 1 १. श्री पं० भगवद्दत्तजी ने इस विषय पर 'भाषा का इतिहास' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । २. देखो पृष्ठ १२, १३ ( प्रकृत चतुर्थ सं० में पृष्ठ १५-१८) । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका भाषा के संकोच (- ह्रास) के कारण प्रतीत होता है। वस्तुतः संस्कृतभाषा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। हमने इस विषय का विशद निरूपण इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में किया है। अपने पक्ष की सत्यता दर्शाने के लिये हमने २० प्रमाण दिये हैं। हमें अपने विगत ३० वर्ष के संस्कृत अध्ययन तथा अध्यापनकाल में संस्कृतभाषा का एक भी ऐसा शब्द नहीं मिला, जिसके लिये कहा जा सके कि अमुक समय में संस्कृतभाषा में इस शब्द का यह रूप था, और तदुत्तरकाल में इसका यह रूप हो गया ।' इसी प्रकार अनेक लोग संस्कृतभाषा में मुण्ड आदि भाषाओं के शब्दों का अस्तित्व मानते हैं, वह भी मिथ्याकल्पना है । वे वस्तुतः संस्कृतभाषा के अपने शब्द हैं, और उसके विकृत रूप मुण्ड आदि भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं । इस विषय का संक्षिप्त निदर्शन भी हमने प्रथमाध्याय के अन्त में कराया है। इतिहास का लेखन और मुद्रण मैं इस ग्रन्थ के लिये उपयुक्त सामग्री का संकलन संवत् १९६६ तक लाहौर में कर चुका था, इसकी प्रारम्भिक रूपरेखा भी निर्धारित की जा चुकी थी। संवत् १९६६ के मध्य से संबत् २००२ के अन्त तक परोपकारिणी सभा अजमेर के ग्रन्थसंशोधन कार्य के लिये अजमेर में रहा । इस काल में इस ग्रन्थ के कई प्रकरण लिखे गये, और भाषाविज्ञान का गम्भीर अध्ययन और मनन किया। इसके परिणामस्वरूप इस ग्रन्थ का प्रथम अध्याय लिखा गया। कई कारणों से संवत २००३ के प्रारम्भ में परोपकारिणी सभा अजमेर का कार्य छोड़ना पड़ा, अतः मैं पुनः लाहौर चला गया। वहां श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट में कार्य करते हुए इस ग्रन्थ के प्रथम भाग का चार पांच वार संशोधन करने के अनन्तर मुद्रणार्थ अन्तिम प्रति (प्रेस कापी) तैयार की। श्री माननीय पण्डित भगवद्दत्तजी ने, जिनकी प्रेरणा और अत्यधिक सहयोग का फल यह ग्रन्थ है, अपने व्यय से इस ग्रन्थ के प्रकाशन की १. इस चतुर्थ संस्करण तक ६० वर्ष के संस्कृत अध्ययन-अध्यापन-काल में भी हमें एक भी ऐसा शब्द नहीं मिला, और न किसी विद्वान् ने इस विषय का एक भी उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत किया । जिसका रूपान्तर हो गया हो, और वह रूपान्तर भी संस्कृतभाषा का ही अङ्ग बन गया हो । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्यवस्था की । संवत् २००३ के अन्त में, जब सम्पूर्ण पञ्जाब में साम्प्रदायिक गड़बड़ प्रारम्भ हो चुकी थी, इसका मुद्रण आरम्भ हुआ । साम्प्रदायिक उपद्रवों के कारण अनेक विघ्न होते हुए भी श्राषाढ़ संवत् २००४ तक इस ग्रन्थ के १६ फार्म अर्थात् १५२ पृष्ठ छप चुके थे । श्रावण संवत् २००४ में भारत विभाजन के कारण लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने से इस ग्रन्थ का मुद्रित भाग वहीं नष्ट हो गया । उसी समय मैं भी लाहौर से पुनः अजमेर आ गया । उक्त देशविभाजन से श्री माननीय पण्डितजी की समस्त सम्पत्ति, जो डेढ़ लाख रुपये से भी ऊपर की थी, वहीं नष्ट हो गयी । इतना होने पर भी आप किञ्चिन्मात्र हतोत्साह नहीं हुए, और इस ग्रन्थ के पुनर्मुद्रण के लिये बराबर प्रयत्न करते रहे । अन्त में श्राप और आपके मित्रों के प्रयत्न से फाल्गुन संवत् २००५ में इस ग्रन्थ का मुद्रण पुनः प्रारम्भ हुआ । मैंने इस काल में पूर्वमुद्रित अंश का, जिसकी एक कापी मेरे पास बच गई थी, और शेष हस्तलिखित प्रेस कापी का पुनः परिष्कार किया । इस नये परिष्कार से इस ग्रन्थ का स्वरूप अत्यन्त श्रेष्ठ बना, और ग्रन्थ भी पूर्वापेक्षया ड्योढ़ा हो गया । इस प्रकार अनिर्वचनीय विघ्न-बाधाओं के होने पर भी श्री माननीय पण्डितजी के निरन्तर सहयोग और महान् प्रयत्न से यह प्रथम भाग छपकर सज्जित हुआ है । इसके लिये मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूं, अन्यथा इस ग्रन्थ का मुद्रण होना सर्वथा असम्भव था । इस ग्रन्थ का दूसरा भाग भी यथासम्भव शीघ्र प्रकाशित होगा', जिसमें शेष १३ अध्याय होंगे । स्वल्प त्रुटि विद्या की दृष्टि से अजमेर एक अत्यन्त पिछड़ा हुआ नगर है । यहां कोई ऐसा पुस्तकालय नहीं, जिसके साहाय्य से कोई व्यक्ति अन्वेषण-कार्य कर सके । इसलिये इस ग्रन्थ के मुद्रणकाल में मुझे अधिकतर अपनी संगृहीत टिप्पणियों पर ही अवलम्बित रहना पड़ा मूल ग्रन्थों को देखकर उनके पाठों की शुद्धाशुद्धता का निर्णय न कर सका । अतः सम्भव है कुछ स्थलों पर पाठ तथा पते आदि के निर्देश १. यह भाग भी सं० २०१६ में प्रकाशित हो चुका है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका में कुछ भूल हो गई हो । किन्हीं कारणों से इस भाग में कई अावश्यक अनुक्रमणियां देनी रह गयी हैं, उन्हें हम तीसरे भाग के अन्त में देंगे । कृतज्ञता-प्रकाश आर्ष ग्रन्थों के महाध्यापक पदवाक्यप्रमाणज्ञ महावैयाकरण आचार्यवर श्री पूज्य पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु को, जिनके चरणों में बैठकर १४ वर्ष निरन्तर आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया, भारतीय वाङमय और इतिहास के अद्वितीय विद्वान् श्री माननीय पं० भगवद्दत्तजी को, जिनसे मैंने भारतीय प्राचीन इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया, तथा जिनकी अहर्निश प्रेरणा उत्साहवर्धन और महती सहायता से इस ग्रन्थ के लेखन में कथंचित् समर्थ हो सका, तथा अन्य सभी पूज्य गुरुजनों को, जिनसे अनेक विषयों का मैंने अध्ययन किया है, अनेकधा भक्तिपुरःसर नमस्कार करता हूं। ___ इस ग्रन्थ के लिखने में सांख्य-योग के महापण्डित श्री उदयवीर जी शास्त्री, दर्शन तथा साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान श्री पं० ईश्वरचन्द्रजी, पुरातत्त्वज्ञ श्री पं० सत्यश्रवाः जी एम० ए०, श्री पं० इन्द्रदेवजी आचार्य, श्री पं० ज्योतिस्वरूपजी, और श्री पं० वाचस्पतिजी विभु (बुलन्दशहर निवासी) आदि अनेक महानुभावों से समय-समय पर बहुविध सहायता मिली। मित्रवर भी पं० महेन्द्रजी शास्त्री (भूतपूर्व संशोधक वैदिक यन्त्रालय, अजमेर) ने इस ग्रन्थ के प्रूफसंशोधन में आदि से ४२ फार्म तक महती सहायता प्रदान की। उक्त सहयोग के लिये मैं इन सब महानुभावों का अत्यन्त कृतज्ञ हूं। ___ मैंने इस ग्रन्थ की रचना में शतशः ग्रन्थों का उपयोग किया, जिनकी सहायता के विना इस ग्रन्थ की रचना सर्वथा असम्भव थी। इसलिये मैं उन सब ग्रन्थकारों; विशेषकर श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी का, जिनके 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ के आधार पर प्राचार्य देवनन्दी और पात्यकीर्ति का प्रकरण लिखा, अत्यन्त आभारी हूं। ____संवत् २००४ के देशविभाजन के अनन्तर लाहौर से अजमेर जाने पर आर्य साहित्य मण्डल अजमेर के मैनेजिंग डाईरेक्टर श्री माननीय बाबू मथुराप्रसादजी शिवहरे ने मण्डल में कार्य देकर मेरी जो सहायता की, उसे मैं किसी अवस्था में भी भला नहीं सकता। इसके अतिरिक्त आपने मण्डल के 'फाइन आर्ट प्रिंटिंग प्रेस' में इस ग्रन्थ के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सुन्दर मुद्रण की व्यवस्था की, उसके लिये भी मैं आपका विशेष कृतज्ञ हूं। स्वाध्याय सब से महान 'सत्र' है। अन्य सत्रों की समाप्ति जरावस्था में हो जाती है, परन्तु इस सत्र की समाप्ति मृत्यु से ही होती है। मैंने इसका व्रत अध्ययनकाल में लिया था । प्रभु की कृपा से गृहस्थ होने पर भी वह सत्र अभी तक निरन्तर प्रवृत्त है। यह अनुसन्धानकार्य उसी का फल है। मेरे लिये इस प्रकार का अनुसन्धानकार्य करना सर्वथा असंभव होता, यदि मेरी पत्नी यशोदादेवी इस महान् सत्र में अपना पूरा सहयोग न देती । उसने आजकल के महाघकाल में अत्यल्प आय में सन्तोष, त्याग और तपस्या से गृहभार संभाल कर वास्तविक रूप में सहर्मिणीत्व निभाया, अन्यथा मुझे सारा समय अधिक द्रव्योपार्जन की चिन्ता में लगाकर इस प्रारब्ध सत्र को मध्य में ही छोड़ना पड़ता। क्षमा-याचना बहुत प्रयत्न करने पर भी मानुष-सुलभ प्रमाद तथा दृष्टिदोष आदि के कारणों से ग्रन्थ में मुद्रण-सम्बन्धी अशुद्धियां रह गयी हैं। अन्त के १६ फार्मों में ऐसी अशुद्धियां अपेक्षाकृत कुछ अधिक रही हैं, क्योंकि ये फार्म मेरे काशी आने के बाद छपे हैं। छपते-छपते अनेक स्थानों पर मात्राओं और अक्षरों के टूट जाने से भी कुछ अशुद्धियां हो गयी हैं । आशा है पाठक महानुभाव इसके लिये क्षमा करेंगे। ऐतिह्मप्रवणश्चाहं नापवाद्यः स्खलन्नपि । नहि सद्वर्त्मना गच्छन् स्खलितेष्वप्यपोद्यते ॥ प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान मोती झील-फाशी मार्गशीर्ष- सं० २००७ ) विदुषां वशंवद: युधिष्ठिर मीमांमक १. द्र०-जरामयं वा एतत् सत्रं यदग्निहोत्रम् । जरया ह बा एतस्मान्मुच्यते मृत्युना वा । शत० १२ । ४।१।१ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय संस्करण की भूमिका मेरे 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ का प्रथम भाग सं० २००७ में प्रथम बार छपा था । इसका द्वितीय परिवर्धित संस्करण अनेक विघ्न-बाधानों के कारण लगभग १२ वर्ष पश्चात् सं० २०२० में छपा। यह भी दो वर्ष से अप्राप्य हो चुका था। अव उसका पुनः परिष्कृत वा परिवर्धित संस्करण में प्रकाशित कर रहा हूं। द्वितीय भाग प्रथम बार सं० २०१६ में छपा था। यह भाग भी ४ वर्ष से अप्राप्य था। अब उसका भी द्वितीय परिष्कृत एवं परिवर्धित संस्करण साथ ही प्रकाशित हो रहा है। तृतीय भाग छापने की सूचना मैंने प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण में दी थी। परन्तु विविध प्रकार की विघ्न-बाधाओं के कारण मैं इसे प्रकाशित नहीं कर सका । यह भाग भी इस संस्करण के साथ ही प्रकाशित हो रहा है। - विद्वानों के अनुकूल वा प्रतिकूल विचार-प्रथम भाग प्रकाशित होने के पश्चात् गत २३ वर्षों, एवं द्वितीय भाग के प्रकाशित होने के पश्चात् गत ११ वर्षों, में इतिहासप्रेमी विद्वानों ने मेरे इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में अनेकविध विचार उपस्थित किये । उनकी यहां चर्चा करना व्यर्थ है। यतः मेरा ग्रन्थ अपने विषय का एकमात्र प्रथम ग्रन्थ है (अन्य भाषाओं में भी इस विषय पर इतना विशद ग्रन्य आज तक नहीं लिखा गया), इस कारण मुझे सारी सामग्री सहस्रों मुद्रित एवं हस्तलिखित ग्रन्थों का पारायण करके स्वयं संकलित करनी पड़ी, और भारतीय इतिहास के अनुसार उसे क्रमबद्ध करना पड़ा। इस कारण इनमें कहीं क्वचित् प्रमाद से अशुद्धि होना स्वाभाविक है । इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखने योग्य बात है कि मैंने अपने इतिहास की सामग्री प्रायः लाहौर डी० ए० वी० कालेज एवं विविध विश्व विद्यालयों के पुस्तकालयों में संगृहीत ग्रन्थों से की थी। अतः अनेक दुर्लभ ग्रन्थों के पुनर्दर्शन का अभाव होने से उनके उद्धृत उद्धरणों के पाठों एवं पतों का पुनर्मिलान भी असम्मव हो गया। इस कारण भी इसमें कहीं-कहीं कुछ त्रुटियां रही हैं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गत २३ वर्षों में अनेक लेखकों ने मेरे इस ग्रन्थ से प्रत्यक्ष वा परोक्षरूप में बहुविध सहायता ली है। अनेक उदारमना लेखकों ने 'उदारतापूर्वक' मेरे ग्रन्थ वा मेरे नाम का उल्लेख किया है। अनेक ऐसे महानुभाव भी हैं, जिन्होंने मेरे ग्रन्थ से न केवल साहाय्य लिया, अपितु पूरे-प्रकरण को अपने शब्दों में ढालकर अपने लेखों ग्रन्थों वा शोध-प्रबन्धों के विशिष्ट प्रकरण लिखे, परन्तु कहीं पर भी मेरे ग्रन्थ वा मेरे नाम का उल्लेख करना उन्होंने उचित नहीं समझा। सम्भव है इसमें उन्होंने अपनी शोध-प्रतिष्ठा की हानि समझी हो । कुछ भी हो इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने के पश्चात इस से विविध लेखकों को बहुविध साहाय्य प्राप्त हुआ, इतने से ही मैं अपने परिश्रम को सफल समझता हूं। श्री डा. सत्यकाम वर्मा का ग्रन्थ-मेरे ग्रन्थ के प्रकाशन के पश्चात् इस विषय का एक ही ग्रन्थ गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। वह है-श्री डा० सत्यकाम वर्मा का 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' । यह ग्रन्थ विश्वविद्यालयीय छात्रों की दृष्टि से ही लिखा गया है । अतः इसमें मौलिक चिन्तन की आशा करना भी व्यर्थ है। आपने यह ग्रन्थ योरोपीय दृष्टि को प्रधानता देते हुए लिखा है। प्रसङ्गवश उन्हें मेरे ग्रन्थ को भी उदधृत करना पड़ा । परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि श्री वर्मा जी ने अनेक स्थानों पर मेरे नाम से जो मत उद्धृत किये हैं, वे मेरे ग्रन्थ में उस रूप में कहीं लिखे ही नहीं गये। इस प्रकार के दो तीन स्थलों की समीक्षा मैंने इस संस्करण में निदर्शनार्थ की है। पाठक दोनों के ग्रन्थों को मिलाकर पढ़ें, और देखें कि किस प्रकार अपना वैदुष्य दिखाने के लिये किसी लेखक के नाम से असत्य मत उपस्थित करके उनकी समीक्षा करने का रोग हमारे डाक्टर जैसी सम्मानित उपाधिधारियों में विद्यमान है। विविध परीक्षाओं में ग्रन्थ की स्वीकृति-आगरा, पजाब आदि अनेक विश्वविद्यालयों में व्याकरणविषयक एम० ए०, तथा वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय की प्राचार्य परीक्षा के पाठ्यक्रम में साक्षात् वा सहायक ग्रन्थ के रूप में मेरे ग्रन्थ को स्थान दिया गया है । यद्यपि यह ग्रन्थ भारतीय ऐतिहासिक दृष्टि से लिखा होने के कारण पाश्यात्त्य-मतानुयायी अधिकारियों द्वारा उक्त परीक्षानों में स्थान पाने के योग्य नहीं हैं, परन्तु अपने विषय का एकमात्र ग्रन्थ .. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय संस्करण की भूमिका १६ होने के कारण पाठ्यक्रम के निर्धारकों को अपनाना ही पड़ा। यह भी इस ग्रन्थ की उपादेयता का परिचायक है। विविध प्रकार को सूचियां इस प्रकार के शोधग्रन्थों में विविध प्रकार की सूचियों का होना अत्यावश्यक होता है, जिससे अभिप्रेत विषय शीघ्रता से ढंढा जा सके। परन्तु इस ग्रन्थों के दोनों भागों के पिछले संस्करणों में इस प्रकार की सूचियां हम नहीं दे सके । इसकी न्यूनता हमें स्वयं बहुत अखरती थी। इस कमी को हम इस संस्करण में दूर कर रहे हैं। तीनों भागों से सम्बन्ध ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामों को सूचियां तथा इस ग्रन्थ से साक्षात् वा परम्परा से सम्बन्ध कतिपय विषयों का निर्देश तृतीय भाग के अन्त में कर रहे हैं। इस कार्य से इस ग्रन्थ की उपयोगिता और बढ़ जायेगी, ऐसा हमारा विश्वास है। कृतज्ञता-प्रकाशन इस ग्रन्थ के पुनः संस्करण और प्रकाशन में जिन-जिन महानुभावों ने सहयोग प्रदान किया है, मैं उन सब का बहुत आभारी हूं। . तथापि १-श्री पं० रामशङ्कर भट्टाचार्य, व्याकरणाचार्य एम० ए०, पीएच० डी०, काशी। २-श्री पं० रामअवध पाण्डेय, व्याकरणाचार्य, एम० ए० पीएच० डी०, गोरखपुर। ३-श्री पं० बी० एच० पद्मनाभ राव, प्रात्मकूर (आन्ध्र)। ४-श्री पं० यन्० सी० यस्० वेङ्कटाचार्य 'शतावधानी', सिकन्दराबाद (आन्ध्र)। इन चारों महानुभावों ने इस ग्रन्थ के पूर्व संस्करणों के मुद्रण के पश्चात् अनेकविध अत्यावश्यक सूचनाएं दीं, उनसे इस ग्रन्थ के पुनः संस्करण में पर्याप्त सहायता मिली है । इस कार्य के लिए मैं इन चारों महानुभावों का विशेष आभारी हूं। ५-श्री डा. बहादुरचन्दजी छाबड़ा, एम० ए०, एम० ओ० एल०, पीएच० डी०, डी० एम० ए० एस०, भूतपूर्व संयुक्त प्रधान निर्देशक, भारतीय पुरातत्त्व विभाग, देहली। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास आप जुलाई सन् १९५८ से निरन्तर १० वर्ष तक २५ रु० मासिक की सात्त्विक सहायता करते रहे हैं । इस निष्काम सहयोग के लिए मैं आपका अत्यन्त आभारी हूं। ६-श्री पं० भगवद्दसजी दयानन्द अनुसन्धान प्राश्रम, २८।१ पजाबी बाग, देहली। मेरे प्रत्येक शोध-कार्य में आपका भारी सहयोग सदा से ही रहता आया। आपके सहयोग के विना इस कण्टकाकीर्ण मार्ग में एक पद चलना भी मेरे लिए कठिन था। इतना ही नहीं, इस भाग के प्रथम संस्करण के प्रकाशन की भी व्यवस्था आपने उस काल में की थी, जब देश-विभाजन के कारण आपकी सम्पूर्ण सम्पत्ति लाहौर में छूट गई थी, और देहली में आकर आप स्वयं महती कठिनाई में थे। द्वितीय संस्करण में जो वृद्धि हुई है, उसमें अधिकांश भाग आप के निर्देशों के अनुसार ही परिबृहित किए गए थे। लगभग साढ़े चार वर्ष पूर्व प्रापका स्वर्गवास हो जाने से इस भाग में उनके द्वारा मुझे कोई सहयोग प्राप्त न हो सका, इसका मुझे अत्यन्त खेद है। उनके उत्तराधिकारियों में पारस्परिक कलह के कारण उनकी प्रति के प्रान्तभागों में लिखे गये निर्देश भी मुझे देखने को प्राप्त न हो सके। अन्यथा उनके निर्देशों से इस संस्करण में भी पर्याप्त लाभ उठा सकता था। रामलाल कपूर ट्रस्ट ] वैशाखी पर्व [ विदुषां वशंवदः बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा; ) सं० २०३० ( युधिष्ठिर मीमांसक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४८ १६३ २६३ २६९ संक्षिप्त विषय-सूची . (प्रथम भाग) शध्याय विषय १-संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २-व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ३ - पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित १६ प्राचीन प्राचार्य ४-पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत १० प्राचार्य ५-पाणिनि और उसका शब्दानुशासन ६- प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय ७-संग्रहकार व्याडि ८-अष्टाध्यायी के वार्तिककार 8-बातिकों के भाष्यकार ३५२ १०-महाभाष्यकार पतञ्जलि ३५६ ११- महाभाष्य के २४ टीकाकार ३८५ १२-महाभाष्य-प्रदीप के १४ व्याख्याकार ४५३ १३- अनुपदकार और पदशेषकार ४७१ १४-अष्टाध्यायी के ४७+८= ५५ वृत्तिकार ४७५ १५-काशिका के ८ व्याख्याता ५६१ १६-पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८२ १७-प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन १९ वैयाकरण ६०८ द्वितीय भाग की विषय-सूची अध्याय विषय १८-शब्दानुशासन के खिलपाठ १६-शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार २०-धातु-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (पाणिनि से पूर्ववर्ती) २१-धातु-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (पाणिनि) २२-, , , (पाणिनि से उत्तरवर्ती) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २३-गण-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता २४-उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २५-लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २६-परिभाषा-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता २७-फिट-सूत्र का प्रवक्ता और व्याख्याता २८-प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता २६-व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार ३०-लक्ष्यप्रधान वैयाकरण कवि ... तृतीय भाग की विषय-सूची परिशिष्ट विषय . . १- अपाणिनीय-प्रमाणता-नारायण भट्ट २-पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या का निदर्शन २-नागेशभट्ट-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ ४-अनन्तराम-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ ५-मूल पाणिनीयशिक्षा के बृहत् और लघु पाठ ६-जाम्बवती-विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ७-कृष्ण-चरित (समुद्रगुप्त-विरचित) ८–'पदप्रकृतिःसंहिता' लक्षण पर विचार १-जार्ज कोर्डेना द्वारा 'सं० व्या० शा० का इतिहास' तथा मेरे द्वारा सम्पादित व्याकरण विषयक ग्रन्थों पर लिखित टिप्पणियां। १०-प्रथम और द्वितीय भाग में संशोधन और परिवर्धन ११-सं० व्या० शा० के इतिहास के परिष्कार में पत्र द्वारा सहयोग देने वाले विद्वानों के पत्र । १२–तीनों भागों में निर्दिष्ट व्यक्ति संस्था देश और नगर के नाम १३-तीनों भागों में उद्धृत ग्रन्थों की सूची १४-पृष्ठ-निर्देश-पूर्वक उद्धृत ग्रन्थों का विवरण १५-आत्मपरिचय . . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अध्याय पृष्ठ प्रथम भाग विस्तृत विषय-सूची विषय १-संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास १ भाषा की प्रवृत्ति, पृष्ठ १ । लौकिक संस्कृतभाषा की प्रवृत्ति २ । लौकिक वैदिक शब्दों का अभेद ४ । संस्कृतभाषा की व्यापकता ८ (व्यापकता के चार उदाहरण ११-१३) । आधुनिक भाषा-मत और संस्कृभाषा १४ । नूतन भाषा-मत की आलोचना १५ । क्या संस्कृत प्राकृत से उत्पन्न हुई ? १८ । संस्कृत नाम का कारण १६ । कल्पित कालविभाग २१ । शाखा-ब्राह्मण-कल्पसूत्र-आयुर्वेद-संहिताएं समानकालिक २१ । संस्कृतभाषा का विकास २४ । संस्कृत भाषा का ह्रास २६ (संस्कृत भाषा में परिवर्तन ह्रास के कारण प्रतीत होता है)। संस्कृत भाषा से शब्द-लोप के २० प्रकार के उदाहरण-(१) प्राचीन यण-व्यवधान सन्धि का लोप २८; (२) 'नयङ्कव' की प्रकृति 'नियङ्कु' का लोप ३०; (३) त्र्यम्बक के साद्धित 'त्र्याम्बक' रूप का लोप ३०; (४) लोहितादि शब्दों के परस्मैपद के रूपों का लोप ३२; (५) अविरविकन्यायप्राविक की अविक' प्रकृति का, तथा 'अविकस्य मांसम्' विग्रह का लोप ३३; (६) 'कानीन' की प्रकृति 'कनीना' का लोप (अवेस्ता में 'कईनीन' का प्रयोग) ३७; (७) 'त्रयाणाम' की मूल प्रकृति 'त्रय' का लोप ३४; (८) षष्ठयन्त का तृजन्त तथा अकान्त के साथ समास का लोप ३५; (8) हन्त्यर्थक' 'वध' धातु का लोप ३६; (१०) 'द्वय' के 'जस्' से अन्यत्र सर्वनामरूपों का लोप ३६; (११) अकारान्त नाम के 'भिस्' प्रत्ययान्त रूपों का लोप ३७; (१२) ऋकारान्तों के 'शस्' के पितरः' आदि रूपों का लोप ३८; (१३) 'अर्वन्तो 'मघवन्तौ' आदि रूपों, दीधी वेवीङ् और इन्धी धातु के प्रयोगों का लोक में लोप ३८, ३९; (१४) समास में नकारान्त राजन् के ('मत्स्यराज्ञा' आदि) प्रयोगों, विना समास के प्रकारान्त 'राज' के रूपों का लोप (समासान्त प्रत्यय वा आदेश आदि द्वारा मूल प्रकृति की ओर संकेत- यथा :राज' और Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास 'अह' अकारारान्त, ऊधन् नकारान्त) ४१; (१५) 'विंशत्' आदि तकारान्त और 'त्रिशति' चत्वारिंशति' आदि इकारान्त शब्दों का लोप ४२; (१६) पाणिनीय व्याकरण से प्रतीयमान कतिपय शब्दों का लोप ४४; (१७) 'छन्दोवत् कवयः कुर्वन्ति' नियम का रहस्य ४५; (१८) वैयाकरण-नियमों के माधार पर संस्कृतशब्दों के परिवतित रूपों की कल्पना करना दुस्साहस ४६; (१९-२०) भाषा में शब्द-प्रयोगों का कभी लोप होना और कभी पुनः प्रयोग होना ४७ । संस्कृतग्रन्थों में अप्रयुज्यमान संस्कृतशब्दों को हिन्दी फारसी आदि भाषाओं में उपलब्धि-यथा पवित्रार्थक पाक, घर, जङ्ग, बाज, जज, ढूढ़ (क्रिया) आदि ५० । वैयाकरणों द्वारा आदिष्ट-रूपवाली धातुओं का स्वतन्त्र प्रयोग ५२ । प्राकृत आदि भाषायों द्वारा संस्कृत के लप्त प्रयोगों का संकेत ५६ । क्या अपशब्द साधु शब्दों का स्मरण करा कर अर्थ का बोध कराते है ? ५६ २-व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ५८ व्याकरण का आदि मूल ५८ । व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति ५६ । व्याकरण शब्द की प्राचीनता ६० । षडङ्ग शब्द से व्याकरण का निर्देश ६१ । व्याकरणान्तर्गत कतिपय संज्ञाओं की प्राचीनता ६१ । व्याकरण का प्रादि प्रवक्ता-ब्रह्मा ६२ । द्वितीय प्रवक्ता-बृहस्पति ६४ । व्याकरण का आदि संस्कर्ता-इन्द्र ६६ । माहेश्वर सम्प्रदाय ६७ । व्याकरण का बहुविध प्रवचन ६७ । पाणिनि से प्राचीन (८५) प्रवक्ता ६७ । आठ व्याकरण प्रवक्ता ६८ । नव व्याकरण ७० । पांच व्याकरण ७१ । व्याकरण शास्त्र के तीन विभाग ७१ । व्याकरण-प्रवक्ताओं के दो विभाग ७१ । पाणिनि से प्राचीन (२६ परिज्ञात) आचार्य ७१ । प्रातिशाख्य आदि वैदिक व्याकरणप्रवक्ता ७२ । प्रातिशाख्यों में उद्धृत (५९) प्राचार्य ७४ । पाणिनि से अर्वाचीन (१८) प्राचार्य ७८ । ३-पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित (१६) प्राचीन आचार्य ७९ १. शिव (महेश्वर) ७६ । २. बृहस्पति ८४ । ३. इन्द्र ८७; ऐन्द्र व्याकरण के सूत्र ६३ । ४. वायु ६७ । ५. भरद्वाज १८ । ६. भागुरि १०४, भामुरि व्याकरण के सूत्र १०६ । ७. पौष्करसादि ११० । ८. चारायण ११३, चारायण-सूत्र ११३ । ६. काशकृत्स्न' ११५ । १. काशकृत्स्न के १४० सूत्रों के संग्रह के लिए देखिए-हमारा काशकृत्स्न-व्याकरणम्' नामक संकलन । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २५ १०. शान्तनव' १३४। ११. वैयाघ्रपद्य १३४ । १२. माध्यन्दिनि १३६ । १३. रौढि १३६ । १४. शौनकि १४१ । १५. गौतम १४३ । १६. व्याडि १४३। ४-पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत (१०)आचार्य १४६ १. आपिशलि १४६, प्रापिशल सूत्र १५१ । २. काश्यप १५८ । ३. गार्य १६१ । ४. गालच १६५ । ५. चाक्रवर्मणं १६८ । ६. भारद्वाज १७२ । ७. शाकटायन १७४ । ८. शाकल्य १८३ । ६. सेनक १८८ । १०. स्फोटाक्न १८६ ।। ५-पाणिनि और उसका शब्दानुशासन पाणिनि के पर्याय १६३ । वंश तथा गुरु-शिष्य १६७ । देश २०२। मृत्यु २०३ । काल-पाश्चात्त्य मत २०५, पाश्चात्त्य मत की परीक्षा २०७, अन्तःसाक्ष्य २११, पाणिनि के समकालिक प्राचार्य २१६, शौनक का काल २१८, यास्क का काल २१६ । पाणित की महत्ता २२१ । पाणिनीय व्याकरण और पाश्चात्त्य बिद्वान २२३ । क्या कात्यायन और पतञ्जलि पाणिनि के सूत्रों का खण्डन करते हैं ? २२४ । पाणिनितन्त्र का आदिसूत्र २२४ । क्या प्रत्याहारसूत्र अपाणिनीय हैं ? २२६ । अष्टाध्यायी के पाठान्तर २३२ । काशिकाकार पर अर्वाचीनों के आक्षेप २३५ । अष्टाध्यायी का त्रिविध पाठ २३७ । पाणिनीय शास्त्र के नाम २३९ । पाणिनीय शास्त्र का मुख्य उपजीव्य २४२ । पाणिनीय तन्त्र की विशेषता २४२ । पाणिनीय तन्त्र पूर्व तन्त्रों से संक्षिप्त २४३ । अष्टाध्यायी संहिता पाठ में रची थी २४६ । सूत्रपाठ एकश्रुतिस्वर में था २४७ । अष्टाध्यायी में प्राचीन सूत्रों का उद्धार २४६ । प्राचीन सूत्रों के परिज्ञान के कुछ उपाय २५२ । अष्टाध्यायी के पादों की संज्ञाएं २५४ । पाणिनि के अन्य व्याकरणग्रन्थ २५५ । पाणिनि के अन्य ग्रन्थ-१. शिक्षा (सूकात्मिका श्लोकात्मिका) शिक्षासूत्रों का पुनरुद्धारक, सूत्रात्मिका के दो पाठ, श्लोकात्मिका के दो पाठ २५५ -२५७, सस्वरपाठ २५८; २. जाम्बवती-विजय २५८; ३. द्विरूप कोश २५६, पूर्वपाणिनीयम् २६० । १. इस प्रकरण में सर्वत्र शन्तनु के स्थान में 'शासनव' पाठ शोधे । विशेष देखें, भाग २, पृष्ठ ३४६, पं० २२ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २६८ ६-आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाड्मय २४६ पाणिनि के मतानुसार ५ विभाग २६३ । दृष्ट २६४ । प्रोक्त१. संहिता २६७; २. ब्राह्मण २७०; ३. अनुब्राह्मण २७५; ४. उपनिषद् २७७; ५. कल्पसूत्र २७८; ६. अनुकल्प २८०, ७. शिक्षा २८०; ८ व्याकरण २६२; ६. निरुक्त २८४; १०. छन्दः-शास्त्र २८५; ११. ज्योतिष २८६; १२. सूत्र-ग्रन्थ २८६; १३. इतिहास पुराण २८७; १४. आयुर्वेद २८७; १५१६. पदपाठ क्रमपाठ २८८; १७-२०. वास्तुविद्या, क्षत्रविद्या [नक्षत्रविद्या], उत्पाद (उत्पात) विद्या, निमित्तविद्या २८६; २१-२५ सर्पविद्या, वापसबिद्या, धर्मविद्या, गोलक्षण, अश्वलक्षण २६० । उपज्ञात २६० । कृत-श्लोककाव्य २९२; ऋतुग्रन्थ २६३; अनुक्रमणी ग्रन्थ २६४; संग्रह २९४ । व्याख्यान ग्रन्थ विविध विषय के २६५ । प्रो० बलदेव उपाध्याय की भूलें २६६ । ७-संग्रहकार व्याडि व्याडि के पर्याय २९८ । वंश ३०० । व्याडि का वर्णन ३०३ । काल ३०५ । संग्रह का परिचय ३०५। संग्रह के उद्धरण ३०८ । अन्य ग्रन्थ ३१३ । ८-अष्टाध्यायी के वार्तिककार वार्तिक का लक्षण ३१६ । वैयाकरणीय वार्तिक पद का अर्थ ३१८ । वार्तिकों के अन्य नाम ३१८ । वार्तिककारवाक्यकार ३२० । १. कात्यायन-पर्याय ३२२, वंश ३२३, डा० वर्मा के मिथ्या आक्षेप ३२६, देश ३३०, काल ३३१, वार्तिकपाठ ३३४, डा० वर्मा द्वारा अशुद्ध उल्लेख ३३६, अन्य ग्रन्थ ३३७ । २. भारद्वाज ३४० । ३. सुनागसौनाग वार्तिकों का स्वरूप ३४१, सौनाग वार्तिकों की पहचान ३४२, सौनाग मत का अन्यत्र उल्लेख ३४२ । ४. कोष्टा ३४६ । ५. वाडव (कुणरवाडव?) ३४३ । ६. व्याघ्रभूति ३४४ । ७. वैयाघ्रपद्य ३४४ : महाभाष्य में स्मृत अन्य वैयाकरण-१. गोनर्दीय ३४५; २.. गोणिकापुत्र ३४७; ३. सौर्य भगवान् ३४८, ४. कुणरवाडव ३४८; ५. भवन्तः ३४८ । महाभाष्यस्थ वार्तिकों पर एक दृष्टि ३४६ । ९-चार्तिकों के भाष्यकार भाष्य का लक्षण ३५२ । अनेक भाष्यकार ३५३ । अर्वाचीन ३५२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विषय-सूची व्याख्याकार-१. हेलाराज ३५५ । २. राघव सूरि ३५५ । ३. राजरुद्र ३५५। १०-महाभाष्यकार पतञ्जलि ३५६ पर्याय ३५६ । वंश-देश ३६० । अनेक पतञ्जलि ३६३ । काल ३६५ [चन्द्राचार्य द्वारा महाभाष्य का उद्धार ३६८ । चन्द्राचार्य का काल ३६८ । अनेक पाटलिपुत्र ३७१ । पाटलिपुत्र का अनेक बार बसना ३७१ । पाणिनि से पूर्व पाटलिपुत्र का उजड़ना ३७१ । पूर्व (कालनिर्धारक) उद्धरणों पर भिन्न रूप से विचार ३७२ । समुद्रगुप्त-कृत कृष्ण-चरित का संकेत ३७३, साधक प्रमाणान्तर ३७४] महाभाष्य के वर्तमान पाठ का परिष्कारक ३७६ । महाभाष्य की रचना-शैली ३७७ । महाभाष्य की महत्ता ३६८ । महाभाष्य का अनेक बार लप्त होना ३७८ । महाभाष्य के पाठ की अव्यवस्था ३८१ । पतञ्जलि के अन्य ग्रन्थ ३८२ । ११-महाभाष्य के टीकाकार भर्तृहरि से प्राचीन टीकाएं ३८५ । १. भर्तृहरि-परिचय ३८५, क्या भर्तृहरि बौद्ध था? ३८६, काल ३८७, अनेक भर्तृहरि ३६५, भर्तृहरिविरचित ग्रन्थ ३६५, इत्सिग की भूल का कारण ४००, भर्तृहरि-त्रय के उद्धरणों का विभाग ४०१, महाभाष्य-दीपिका का परिचय ४०२, वर्तमान हस्तलेख ४०५, हस्तलेख का परिमाण ४०५, डा० वर्मा का मत ४०६, डा० वर्मा के मत की समीक्षा ४०७, महाभाष्यदीपिका का सम्पादन ४०६, पुनः सम्पादन की आवश्यकता ४१०, भर्तृहरि के अन्य ग्रन्थ ४१०, महाभाष्यदीपिका के ४७ विशेष उद्धरण ४१० । २. अज्ञात-कर्तृक ४१८ । ३. कैयट-परिचय ४१८, काल ४२०, महाभाष्यप्रदीप के टीकाकार ४२५ । ४. ज्येष्ठकलश-४२५, परिचय ४२६, काल ४२६ । ५. मैत्रेय रक्षितदेश काल ४२६-४२८ । ६. पुरुषोत्तमदेव-४२८, परिचय ४२८, काल ४२६, अन्य व्याकरण ग्रन्थ ४३०; व्याख्याता १. शंकर ४३२, २. व्याख्याप्रपञ्चकार ४३२ । ७. धनेश्वर ४३४ । ८. शेष नारायण ४३४, परिचय ४३५, वंशवृक्ष ४३६, काल ४४० । ६. विष्णु मित्र ४४० । १०. नीलकण्ठ वाजपेयी-परिचय ४४१, काल ४४२, अन्य व्याकरण ग्रन्थ ४४२ । ११. शेष विष्णु ४०२ । १२. तिरुमल यज्वा–परिचय ४४३ । १३. गोपाल कृष्ण शास्त्री-४४४ । १४. शिवरामेन्द्र सरस्वती ४४४ । १५. प्रयागवेङ्कटाद्रि ४४६ । १६. कुमारतातय ४४६ । १७. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सत्यप्रिय तीर्थ स्वामी-४४६ । १.८. राजसिंह ४५० । १६. नारायण ४५० । २०. सर्वेश्वर दीक्षित ४५०। २१. सदाशिव४५१ । २२. राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगढ़कर-४५१ । २३. छलारी नरसिंहाचार्य-४५१ । ३४. अज्ञातकर्तृक ४५२ । १२-महाभाष्य-प्रदीप के व्याख्याकार १. चिन्तामणि ४५३ । २. मल्लय यज्वा ४५४ । ३. रामचन्द्र सरस्वती ४५५ । ५. ईश्वरानन्द सरस्वती ४५६ । ५. अन्नंभट्ट ४६० । ६. नारायण ४६१ । ७. रामसेवक ४६३ । १. नारायण शास्त्रीपरिचय ४६३, वंश-वृक्ष ४६४ । ६. प्रवर्तकोपाध्याय ४६५ । १०. नागेश भद्र-परिचय ४६७, काल ४६८, उद्योत-व्याख्याकार--वैद्यनाथ पायगुण्ड ४६६ । ११. प्रादेन ४७० । १२. सर्वेश्वर सोमयाजी ४७० । १३. हरिराम ४७० । १४. अज्ञातकर्तृक ४७० । १३-अनुपदकार और पदशेषकार ४७१ अनुपदकार ४७१, पदशेषकार ४७३ । १४-अष्टाध्यायी के वृत्तिकार वृत्ति का स्वरूप ४७५; प्राचीन वृत्तियों का स्वरूप ४७६ । १. पाणिनि ४७६ । २. श्वोभूति ४८१ । ३. व्याडि ४८२ । ४. कूणि ४८२ । ५. माथुर ४८४ । ६. वररुचि-परिचय ४८५, काल ४८६, वाररुचवृत्ति का हस्तलेख ४८८; अन्य ग्रन्थ :४५८ । ७. देवनन्दी-४८६, परिचय ४६०, काल ४६०, काल-विषयक नया प्रमाण ४९२, डा० काशीनाथ बापूजी पाठक की भूलें ४६४, व्याकरण ने अन्य ग्रन्थ ४९७; दुविनीत ४६७ । ८. चुल्लि भट्टि ४६८ । ६. निल र ४६६ । १०. चणि ५०० । ११.-१२. जयादित्य और वॉमन ५०१, दोनों के ग्रन्थों का विभाग ५०२, काल ५०३, कन्नड़ पञ्चतन्त्र भौर जयादित्य-वामन ५०५, काशिका और शिशुपालवध ५०६, दोनों की सम्पूर्ण वृत्तियां ५०७, दोनों की वृत्तियों का सम्मिश्रण ५०८, रचना-स्थान ५०६, काशिका के नामान्तर ५०६, काशिका का महत्त्व ५१०, काशिका का पाठ ५११, काशिका पर शोध-प्रबन्ध ५१२. काशिका के व्याख्याकार५१३ । १३. भागवृत्तिकार-५१३, भागवृत्ति का रचयिता ५१३, काल ५१४, भागवृत्ति के उद्धरण ५१५, उद्धरणों का संकलन' १. भागवृत्ति के २०० उद्धरणों का परिबृहित संकलन हम ‘भागवृत्तिसंकलनम्' के नाम से पृथक् छाप चुके हैं। ४७३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ५१६, भागवृत्ति का व्याख्याता-श्रीधर ५१७ । १४. भर्तीश्वर ५१८ (उम्बेक और भवभूति का ऐक्य ५१८) । १५. भट्ट जयन्त-५१८, परिचय ५१६, काल ५२१, अन्य ग्रन्थ ५२१ । १६. श्रृतपाल ५२२ । १७. केशव ५२२ । १८. इन्दुमित्र ५२३ । १६. मैत्रेय रक्षित ५२५ । २०. पुरुषोत्तमदेव५२५। भाषावृत्ति-व्याख्याता सृष्टिधर ५२६ । २१. शरणदेव ५२७ । २२. अप्पन नैनार्य ५२६ । २३. अन्नंभट्ट ५३० । २४. भट्टोजि दीक्षितपरिचय ५३०, काल ५३१, अन्य व्याकरण ग्रन्थ ५३३, शब्दकौस्तुभ के ६ टीकाकार ५३४, कौस्तुभ-खण्डनकर्ता-जगन्नाथ ५३५ । २५. अप्पय्य दीक्षित-परिचय ५३६, काल ५३७ । २६. नीलकण्ठ वाजपेजी ५४० । २७. विश्वेश्वर सूरि ५४० । २८. गोपालकृष्ण शास्त्री ५४२ । २६. रामचन्द्र भट्ट तारे ५४२ । ३०. गोकुलचन्द्र ५४३ । ३१. अोरम्भट्ट ५४३ । ३२. दयानन्द सरस्वती ५४४ (परिचय, काल, अष्टाध्यायीभाष्य, अन्य ग्रन्थ) । ३३. नारायण सुधी ५४७ । ३४. रुद्रधर ५४७ । ३५. उदयन ५४८ । ३६. उदयङ्कर भट्ट ५४८ । ३७. रामचन्द्र ५०१ । ३८. सदानन्द नाथ ५४६ । ३६. पाणिनीय लघुवृत्ति ५४६, लघुवृत्ति-विवृत्ति ५०५ । ३४-४७ अज्ञात-कर्तृक ८ वृत्तियां ५५० । अष्टाध्यायी की अभिनव वत्तियां-१. देवदत्त शास्त्री ५५२; २. गोपालदत्त और गणेशदत्त ५५२; ३. भीमसेन शर्मा ५५३; ४. ज्वालादत्त शर्मा ५५४; ५. जीवराम शर्मा ५५५; ६. गङ्गादत्त शर्मा ५५६; ७. जानकीलाल माथुर ५५६; ८. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ५५७ । १५-काशिका के व्याख्याता १. जिनेन्द्र-बुद्धि-काल ५६१, माघ और न्यास ५६३, भामह और न्यास ५६३, न्यास पर विशिष्ट कार्य ५६४ । न्यास के व्याख्याता-१ मैत्रेय रक्षित ५६६, (तन्त्रप्रदीप के व्याख्याता- नन्दनमिश्र, सनातन तर्काचार्य, तन्त्रप्रदीपालोककार ५६८-५६८) २ रत्नमति ५६७, ३ मल्लिनाथ ५६८, ४ नरपति महामिश्र ५६६, ५ पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर ५६६ । २. इन्दुमित्र ५७०, अनुन्यास-सारकार-श्रीमान शर्मा ५७१ । ३. महान्यासकार ५७२ । ४. विद्यासागर मुनि ५७३ । ५. हरदत्त-परिचय ५७४, देश ५७४, काल ५७६, अन्य ग्रन्थ ५७६, पदमञ्जरी के व्याख्याता-१ रंगनाथ यज्वा ५७८, २ शिवभट्ट ५७६ । ६. रामदेव मिश्र ५८० । ७. वृत्तिरत्नाकर ५८१ । ८. चिकित्साकार ५८१ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १६-पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८२ दोनों प्रणालियों से अध्ययन में गोरव-लाघव ५८२ । पाणिनीय, क्रम का महान् उद्धारक ५८५ । १. धर्मकीति-५८५, काल ५८६,टीकाकार-१ शंकरराम ५८७, २ धातुप्रत्ययपञ्जिका टीकाकार ५८७, ३ अज्ञातकर्तृक ५८८, ४ अज्ञातनामा ५८८ । २. प्रक्रियारत्नकार ५८८ । ३. विमलमति ५८६ । ४. रामचन्द्र-५८६, परिचय ५८६, काल ५६०; प्रक्रियाकौमुदी के व्याख्याता-१ शेष कृष्ण ५६१; २ विठ्ठल ५६२, ३ चक्रपाणिदत्त ५६५, ४ अप्पन नैनार्य ५६६, ५ वारणवनेश ५९५, ६ विश्वकर्मा शास्त्री ५६६, ७ नृसिंह ५६५, ८ निर्मलदर्पणकार ५९६, ६ जयन्त ५९६, १० विद्यानाथ दीक्षित ५६७, ११ वरदराज ५६७, १२ काशीनाथ ५८७ । ५. भट्टोजि दीक्षित ५६७, सिद्धान्तकौमुदी के व्याख्याता-१-भट्टाजि दीक्षित ५६८, २ ज्ञानेन्द्र सरस्वती ५६८, ३ नीलकण्ठ वाजपेयी ५६६, ४ रामानन्द ५६६, ५. रामकृष्ण ६००, ६. नागेश भट्ट ६०१, ७. रङ्गनाथ यज्वा ६०१, ८ वासुदेव वाजपेयी ६०१, ६ कृष्णमित्र ६०२, १० तिरुमल द्वादशाहयाजी ६०२, ११ तोप्पल दीक्षित ६०२, १२-१५ अज्ञात-कर्तृक ६०२, १६ लक्ष्मी नृसिंह ६०३, १७ शिवरामेन्द्र सरस्वती ६०३, १८ इन्द्रदतोपाध्याय ६०३, १६ सारस्वत व्यूढमिश्र ६०३, २० वल्लभ ६०३; प्रोढमनोरमा के खण्डनकर्ता-१ शेष धीरेश्वर-पुत्र ६०३, २ चक्रपाणिदत्त ६०४, ३ पण्डितराज जगन्नाथ ६०४ । ६. नारायण भट्ट ६०५, प्रक्रियासर्वस्व के टीकाकार ६०७ । अन्य प्रक्रिया-ग्रन्य ६०७ । १७-आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६०८ १६ प्रमुख वैयाकरण ६०८ । प्राग्देवनन्दी जैन व्याकरण ६०६ । कवीन्द्राचार्य के सूचीपत्र में निर्दिष्ट व्याकरण ६११ । १. कातन्त्रकार-६११, कातन्त्र कलापक कौमार सारस्वत शब्दों के अर्थ ६१२, मारवाड़ी सीवीपाटी और कातन्त्र ६१३, मत्स्य पुराण की दाक्षिणात्य प्रति में कातन्त्र का विशिष्ट उल्लेख ६१४ काशकृत्स्न तन्त्र का संक्षेप कातन्त्र ६१५, काल ६१५ कातन्त्र व्याकरण के दो पाठ-वृद्ध-लघु ६२१, लघु कातन्त्र का प्रवक्ता ६२१, कृदन्त भाग का कर्ता-कात्यायन ६२३, कातन्त्रपरिशिष्ट का कर्ता--श्रीपतिदत्त ६२४, कातन्त्रोत्तर का कर्ता-विजयानन्द ६२५, कातन्त्र-प्रकीर्णविद्यानन्द ६२५, कातन्त्र छन्दःप्रक्रिया-श्रीचन्द्रकान्त ६२५, कातन्त्र का संस्कार ६२५, कातन्त्र-संबद्ध वर्णसमाम्नाय ६२६,प्रत्याहार सूत्र ६२७,कातन्त्र का प्रचार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ६२८' कातन्त्र के वृत्तिकार-१ शर्ववर्मा ६२९; २ वररुचि ६२९, ३. शशिदेव ६३०, ४ दुर्गसिंह-६३०, काल ६३१; अनेक दुर्गसिंह ६३२ [दुर्गवृत्ति के टीकाकार- दुर्गसिंह ६३४, उग्रभूति ६३५, त्रिलोचनदास ६३६; (पञ्जिका-टीकाकार-त्रिविक्रम ६३७, श्री देशकाल ६३७, विश्वेश्वर तर्काचार्य ६३७, जिनप्रभ सूरि ६३७, कुशल ६३७, रामचन्द्र ६३७) वर्धमान ६३८, (व्याख्याकार-पृथिवीधर ६३८), वामदेव ६३६, श्रीकृष्ण ६३६, रघुनाथदास ६३६, गोविन्ददास ६३६, प्रद्युम्नसूरि ६३६, गोल्हण ६३६, सोमकीर्ति ६४०, काशीराज ६४०, लघुवृत्तिकार ६४०, हरिराम ६४०, चतुष्टयप्रदीपकार ६४०; ] ५. चिच्छुम वृत्तिकार ६४०, ६. उमापति ६४१; ७. जिमप्रभ सूरि ६४१; (कातन्त्र-विभ्रम अवणिकार-चरित्रसिंह ६४२, कातन्त्र विभ्रभावचूर्णिकार गोपालाचार्य ६४२) ८ जगद्धर ६४३, (टीकाकार-राजानक शितिकण्ठ ६४४,) ६ पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर ६४४, १० छच्छुकभट्ट ६४४, ११ कर्मधर ६४५, १२. धनप्रभ सूरि ६४५, १३. मुनि श्रीहर्ष ६४५, अन्य व्याख्याकार-जिनप्रबोध सूरि ६४५, प्रबोध मूर्तिगणि ६४५, कुलचन्द्र ६४६, प्रक्रिया ग्रन्थ ६४६ । २. चन्द्रगोमी-परिचय ६४६, काल ६४८, चान्द्र व्याकरण की विशेषता ६४८, चान्द्र तन्त्र और स्वर-वैदिकप्रकरण ६४६, उपलब्ध चान्द्र तन्त्र असम्पूर्ण ६५०, अन्तिम अध्यायों के नष्ट होने का कारण ६५३, अन्य ग्रन्थ ६५३, चान्द्र-वृत्ति का रचयिता ६५४, कश्यप भिक्षु ६५५ । ३. क्षपणक-६५६, परिचय काल ६५६, स्वोपज्ञ-वृत्ति ६५७, क्षपणक-महान्यास ६५७ । ४. देवनन्दी-६५७, जैनेन्द्र नाम का कारण ६५८, जैनेन्द्र व्याकरण के दो संस्करण ६५८, जैनेन्द्र का मूल सूत्रपाठ ६५८, जैनेन्द्र व्याकरण की विशेषता ६६०, जैनेन्द्र व्याकरण का आधार ६६२, व्याख्याता–१ देवनन्दी ६६२, २ अभयनन्दी ६६२, ३ प्रभाचन्द्राचार्य ६६५, ४ भाष्यकार ६६६, ५ महाचन्द्र ६६६ । प्रक्रियाग्रन्थकार-आर्य श्रुतकीर्ति ६६७, वंशीधर ६६७; जैनेन्द्र का दाक्षिणात्य संस्करण-शब्दार्णव का संस्कर्ता-गुणनन्दी ६६७, काल ६६८, व्याख्यातासोमदेव सूरि ६६९, शब्दार्णवप्रक्रियाकार ६७० । ५. वामन-काल ६७०, मल्लवादी का काल ६७१, विश्रान्तविद्याधर के व्याख्याता-वामन ६७४, मल्लवादी ६७५ । ६. पाल्यकीति-शाकटायन-तन्त्र का कर्ता ६७५, परिपरिचय ६७६, काल ६७७, शाकटायन तन्त्र की विशेषता ६७८, अन्य ग्रन्थ ६७६; व्याख्याता-पाल्यकीर्ति ६७६, [टीकाकार-प्रभाचन्द्र ६८०]; अमोघविस्तर ६८१, यक्षवर्मा ६८१; प्रक्रियाग्रन्थकार-अभयचन्द्राचार्य ६८२, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास भावसेन त्रैविद्यदेव ६८२, दयालपाल मुनि ६०२ । ७. शिवस्वामी - ६८२ काल ६८३, पं० हालदार की भूल ६८३, शिवस्वामी का व्याकरण ६८४ । ८. महाराज भोजदेव - परिचय - काल ६८४, संस्कृत भाषा का पुनरुद्धारक ६८५ ; सरस्वतीकण्ठाभरण ६८७, सरस्वतीकण्ठाभरण का श्राधार ६८८, व्याख्याता - १ भोजराज ६८८, २ दण्डनाथ नारायण भट्ट ६८९, ३ कृष्ण ] लीलाशुक मुनि ६६०, ४ रामसिंहदेव ६९१ ; प्रक्रिया-प्रन्यकार ६९२ । १०. बुद्धिसागर सूरि - परिचय काल ६९२, परिमाण ६६३ । ११. भद्रेश्वर सूरि - ६६३, काल ६६४ । ११. वर्धमान -- ६९४, काल ६ε५ । १२. हेमचन्द्र सूरि - परिचय ६६५, हैम शब्दानुशासन ६६७, व्याकरण के अन्य ग्रन्थ ६६८ | व्याख्याता - हेमचन्द्र ६६८, अन्य अन्य व्याख्याकार ६६६ । १३. मलयगिरि - ७००, परिचय ७०१, काल ७०१, शब्दानुशासन ७०२, ग्रन्थ का नामान्तर ७०३, स्वोपज्ञवृत्ति ७०३, अन्य ग्रन्थ ७०३ । १४. क्रमदीश्वर ७०४ परिष्कर्त्ता - जुमरनन्दी ७०५, परिशिष्टकार गोयीचन्द्र ७०५, गोयीचन्द्र- टीका के ६ व्याख्याकार ७०५ । १५. सारस्वत व्याकरणकार - ७०६, सारस्वत सूत्रों का रचयिता ७०७। टीकाकार - १८ वैयाकरण ७०८-७१३ । सारस्वत के रूपान्तरकार१ तर्कतिलक भट्टाचार्य ७१३, २ रामाश्रम ७१४, सिद्धान्तचन्द्रिकाकार ७१४, ( सिद्धान्तचन्द्रिका के ३ टीकाकार ७१४) ३ जिनेन्द्र ७१५; निबन्ध-ग्रन्थ ७१५; १६. वोपदेब – ७१५, परिचय ७१६, शेष श्रृङ्ग और उसके पूरक ७१७, परिशिष्टकार ७१८, टीकाकार - २१ वैयाकरण ७१८- ७२०, रूपान्तरकार ७२०, १७. पद्मनाभदत्त - ७२०, काल ७२१, अन्य ग्रन्थ ७२१; टीकाकार-७२१ । १८. विनयसागर उपाध्याय - ७२१ । भट्ट अकलङ्क-७२२ । अन्य व्याकरणकार ७२३ । [ परिवर्तन-परिवर्धन — संशोधन - तृतीयभाग में देखें] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पहला अध्याय संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास समस्त प्राचीन भारतीय वैदिक ऋषि-मुनि तथा आचार्य इस विषय में सहमत हैं कि वेद अपौरुषेय तथा नित्य हैं । परम कृपालु भगवान् प्रति कल्प के प्रारम्भ में ऋषियों को, जिस का आदि और निधन (=अन्त) नहीं है, ऐसी नित्या वाग्वे द का ज्ञान देता है, और उसी वैदिक-ज्ञान से लोक का समस्त व्यवहार प्रचलित होता है । भारतीय इतिहास के अद्वितीय ज्ञाता परम ब्रह्मिष्ठ कृष्ण द्वैपायन व्यास ने लिखा है-- अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा । प्रादौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥' पाश्चात्य तथा तदनुगामी कतिपय एतद्देशीय विद्वान् इस भारतीय ऐतिह्यसिद्ध सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । उनका मत है 'मनुष्य १. द्रष्टव्य-"अनादीति श्लोकस्य उत्तरार्धम् 'प्रादौ वेदमयी दिव्याय तः सर्वा प्रवृत्तयः' इति ज्ञेयम्, क्वचिददर्शनेऽपि शारीरकसूत्रभाष्यादौ (द्र० ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, १।३।२८) पुस्तकान्तरेषु च दर्शनात्” इति नीलकण्ठः । महाभारत टीका, शान्तिपर्व २३२।२४ (चित्रशाला प्रेस पूना संस्करण, शकाब्द १८५४) राय श्री प्रतापचन्द्र (कलकत्ता) के शकाब्द १८११ के संस्करण में शान्ति० २३११५६ पर मिलता है । वेदान्त शाङ्करभाष्य १।३।२८ में उद्धृत है। २० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रारम्भ में साधारण पशु के समान था । शनैः शनैः उसके ज्ञान का विकास हुआ, और सहस्रों वर्षों के पश्चात् वह इस समुन्नत अवस्था तक पहुंचा' । विकासवाद का यह मन्तव्य सर्वथा कल्पना की भित्ति पर खड़ा है। अनेक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य के स्वाभाविक ज्ञान में नैमित्तिक ज्ञान के सहयोग के विना कोई उन्नति नहीं होती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण संसार की अवनति को प्राप्त वे जङ्गली जातियां हैं, जिनका बाह्य समुन्नत जातियों से देर से संसर्ग नहीं हुआ । वे आज भी ठीक वैसा ही पशु-सदृश जीवन बिता रही हैं, जैसा सैकड़ों वर्ष पूर्व था । बहुविध परीक्षणों से विकासवाद का १० मन्तव्य अब प्रामाणिक सिद्ध हो चुका है । अनेक पाश्चात्य विद्वान् भी शनैः शनैः इस मन्तव्य को छोड़ रहे हैं, और प्रारम्भ में किसी नैमित्तिक ज्ञान की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं । अतः यहां विकासवाद की विशेष विवेचना करने की न तो आवश्यकता है, और न ही हमारे विषय से सम्बद्ध है ।' लौकिक संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति १५ आरम्भ में भाषा की प्रवृत्ति और उसका विकास लोक में किस प्रकार हुआ, इसका विकासवादियों के पास कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं है । भारतीय वाङ्मय के अनुसार लौकिक - भाषा का विकास वेद से हुआ । स्वायम्भुव मनु ने भारत-युद्ध से सहस्रों वर्ष २० पूर्व' लिखा १. विकासवाद और उस की आलोचना के लिये पं० रघुनन्दन शर्मा कृत 'वैदिक - सम्पत्ति' पृष्ठ १४६ - २३३ (संस्करण २, सं० १९९६) देखिये । २. द्र०—पं० भगवद्दत्त कृत 'भाषा का इतिहास' पृष्ठ २-४ (संस्क० २ ) । पाश्चात्य भाषाविदों को विकासवाद के मतानुसार जब भाषा की उत्पत्ति का परिज्ञान न हुआ, तब उन्होंने कहना आरम्भ कर दिया कि - ' भाषा की उत्पत्ति की समस्या का भाषा - विज्ञान के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । ( द्र०जे० वैण्ड्रिएस कृत 'लेंग्वेज' ग्रन्थ, पृष्ठ ५, सन् १९५२) । २५ 01 ३. प्रक्षिप्तांश छोड़कर वर्त्तमान मनुस्मृति निश्चय ही भारत युद्धकाल से बहुत पूर्व की है । जो लोग इसे विक्रम की द्वितीय शताब्दी की रचना मानते हैं, उन्होंने इस पर सर्वाङ्गरूप से विचार नहीं किया । ३० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेदशन्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥' अर्थात्-ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में सब पदार्थों की संज्ञाएं, शब्दों के पृथक्-पृथक् कर्म=अर्थ' और शब्दों की संस्था =रचनाविशेष सब विभक्ति वचनों के रूप, ये सब वेद के शब्दों से निर्धारित ५ किये। वेद में शतशः शब्दों की निरुक्तियों और पदान्तरों के सान्निध्य से बहुविध अर्थों का निर्देश उपलब्ध होता है। उन्हीं के आधार पर लोक में पदार्थों की संज्ञाएं रक्खी गईं। यद्यपि वेद में समस्त नाम और धातुओं के प्रयोग उपलब्ध नहीं होते, और न उनके सब १० १. मनु ११२१॥ तुलना करो-महाभारत शान्ति० २३२।२५,२६॥ मनु के श्लोक का मूल-ऋग्वेद ६॥६५२ तथा १०७१।१ है । २. निरुक्त में कर्म-शब्द अर्थ का वाचक है । यथा-'एतावन्तः समानकर्माणो धातवः' (१।२०) इत्यादि । __३. मनुस्मृति के टीकाकार कर्म और संस्था शब्द की व्याख्या विभिन्न १५ प्रकार से करते हैं। कुल्लूकभट्ट-'कर्माणि ब्राह्मणस्याध्ययनादीनि, क्षत्रियस्य प्रजारक्षादीनि,"पृथक् संस्थाश्चेति.. कुलालस्य घटनिर्माणं कुविन्दस्य पटनिर्माणमित्यादिविभागेन'। मेधातिथि- 'कर्माणि च निर्ममे, धर्माधर्माख्यानि अदृष्टार्थानि अग्निहोत्रादीनि च,.."संस्था व्यवस्थाश्चकार, इदं कर्म ब्राह्मणेनैव कर्तव्यम्, काले अमुष्य फलाय च ॥' टीकाकारों की व्याख्या परस्पर विरुद्ध २० है । श्लोक के उपक्रम और उपसंहार की दृष्टि से हमारा अर्थ युक्त है। ४. यहूदी पुरानी बाइबल में आदम को प्राणियों, पक्षियों और अन्य वस्तुओं का नाम रखने वाला कहा है । उस के बहुत काल पश्चात् नोह का जलप्लावन वर्णित है । यहूदी लोगों ने ब्रह्मा को आदम (=पादिम) कहा है, और उन का नोह वैवस्वत मनु है । (द्र०-स्वामी दयानन्द सरस्वती का २५ १३-७-१८७५ का पूना का पांचवां व्याख्यान, दयानन्द-प्रवचन-संग्रह पृष्ठ ६६, पं० १, रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्करण २)। ५. देखो इस ग्रन्थ के द्वितीयाध्याय का प्रारम्भ । ६. पाणिनीय अष्टाध्यायों की रचना व्यावहारिक संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति के बहुत अनन्तर हुई हैं । पाणिनीय व्याकरण मुख्यतया लौकिक-भाषा का व्या- .. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विभक्तिवचनों में रूप मिलते हैं, तथापि क्वचित् प्रयुक्त नाम और श्राख्यात पदों से मूलभूत शब्दों' की कल्पना करके समस्त व्यवहारोपयोगी नाम प्रख्यात पदों की सृष्टि की गई । शब्दान्तरों में क्वचित् प्रयुक्त विभक्ति - वचनों के अनुसार प्रत्येक नाम और धातु ५. के तत्तद् विभक्ति-वचनों के रूप निर्धारित किये गये । इस प्रकार ऋषियों ने प्रारम्भ में ही वेद के आधार पर सर्वव्यवहारोपयोगी अति विस्तृत भाषा का उपदेश किया । वही भाषा संसार की आदि व्यावहारिक भाषा हुई । वेद स्वयं कहता है - देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।' १० अर्थात् - देव जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं । लौकिक वैदिक शब्दों का अभेद इस सिद्धान्त के अनुसार प्रतिविस्तृत प्रारम्भिक लौकिक- भाषा में वेद के वे समस्त शब्द विद्यमान थे, जो इस समय केवल वैदिक माने १५ जाते हैं । अर्थात् प्रारम्भ में ' ये शब्द लौकिक हैं, और ये वैदिक' हैं, इस प्रकार का विभाग नहीं था । करण है । उसमें सर्वत्र वैदिक पदों का अन्वाख्यान लौकिक पदों के अन्वाख्यान के पश्चात किया गया है । इसीलिये भट्ट कुमारिल ने लिखा है- 'पाणिनीयादिषु हि वेदस्वरूपवर्जितानि पदान्येव संस्कृत्य संस्कृत्योत्सृज्यन्त े । तन्त्र२० वार्तिक १ । ३ । अधि० ८, पृष्ठ २६५, पूना संस्करण । १. आरम्भ में समस्त शब्द एकविध ही थे । उन्ही का नाम - विभक्तियों से योग होने पर वह 'नाम कहाते थे । और प्रख्यात - विभक्तियों से योग होने पर 'धातु' माने जाते थे (तुलना करो - वर्तमान कण्ड्वादिगणस्थ शब्दों के साथ)। किसी भी विभक्ति का योग न होने पर वे 'अव्यय' बन जाते थे । २५ इस विषय पर विशेष विचार इसी ग्रन्थ के १६ वें अध्याय में किया है । २. ऋ० ८।१००।११ ॥ ३. वेद में पशु शब्द मनुष्य - प्रजा का भी वाचक है । अमवेद में वधू प्रति आशीर्वाद मन्त्र है— 'वितिष्ठन्तां मातुरस्या उपस्थान्नानारूपाः पशवो जायमानाः । अथर्व १४।२।२५ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ५ (क) इसीलिये तलवकार संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और पूर्वमीमांसा के प्रवक्ता महर्षि जैमिनि (३००० वि० पू०) ने लिखा है प्रयोगचोदनाभावादकत्वमविभागात् । मो० १॥३॥३०॥ _ अर्थात्-प्रयोग=यागादि कर्म की चोदना=विधायक वाक्य के श्रुति में उपलब्ध होने से (लौकिक वैदिक) पदों का अर्थ एक ही ५ है । अविभागात् लौकिक वैदिक पदों के विभाग न होने से (एक होने से)। इस सूत्र की व्याख्या में शबरस्वामी लिखता हैय एव लौकिकास्त एव वैदिकास्त एव च तेषामर्थाः ।' अर्थात्-जो लौकिक शब्द हैं, वे ही वैदिक हैं, और वे ही उनके १० अर्थ हैं। अतिविस्तृत प्रारम्भिक लोक-भाषा कालान्तर में शब्द और अर्थ दोनों दृष्टियों से शनैः शनैः संकुचित होने लगी, और वर्तमान में वह अत्यन्त संकुचित हो गई । इसलिये मीमांसा का उपर्युक्त सिद्धान्त यद्यपि इस समय अयुक्त-सा प्रतीत होता है, तथापि पूर्वाचार्यों का यह १५ सिद्धान्त सर्वथा सत्य था, यह हम अनुपद प्रमाणित करेंगे। (ख) शब्दार्थ-सम्बन्ध के परम ज्ञाता यास्क मुनि (३००० वि० पू०) भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। निरुक्त ११२ में लिखा है__'व्याप्तिमत्त्वात्तु शब्दस्याणीयस्त्वाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यव- २० हारार्थ लोके । तत्र मनुष्यवद्देवताभिधानम् । पुरुषविद्याऽनित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे'। अर्थात-शब्द के व्यापक और लघभूत होने से लोक में व्यवहार के लिये शब्दों से संज्ञाएं रक्खी गईं। देवता=वेदमन्त्रों में अभि १. श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा की 'शिक्षा-प्रकाश' टीका में इस वचन १ को महाभाष्य के नाम से उद्धृत किया है । पृष्ठ २४, मनमोहन धोष सम्पादित कलकत्ता वि० वि० का संस्करण, सन् १९३८ । 'पञ्जिका-टीका' में भाष्यकार के नाम स उद्धृत किया है। पृष्ठ ८, वही संस्करण । स्कन्दस्वामी ने निरुक्त टीका (भाग १ पृष्ठ १८) मैं इसे न्याय कहा है । २. 'स मन्त्रो वेदे देवताशब्देन गृह्यते' । ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय- १० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास धान अर्थ मनुष्यों में प्रयुक्त अर्थों के सदृश हैं। पुरुष की विद्या अनित्य होने से कर्म की संपूर्ति कराने वाले मन्त्र वेद में हैं। इस लेख में यास्क ने लोक और वेद में शब्दार्थ की समानता तथा वेद का अपौरुषेयत्व स्वीकार किया है। लोक वेद में शब्दार्थ की समानता स्वीकार कर लेने पर उभयविध पदों का ऐक्य सुतरां सिद्ध यास्क पुनः (१।१६) लिखता हैअर्थवन्तः शब्दसामान्यात् । अर्थात्-वैदिक शब्द अर्थवान् हैं, लौकिक शब्दों के समान होने १० से। (ग) वाजसनेय प्रातिशाख्य (१३) में कात्यायन मुनि ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है । यथा न, समत्वात् । अर्थात-वैदिक शब्दों का स्वरसंस्कारनियम अभ्युदय का हेतु है, १५ यह ठीक नहीं । लौकिक और वैदिक शब्दों के समान होने से । ___इस सूत्र की व्याख्या में उवट और अनन्तदेव दोनों लिखते हैं य एव वैदिकास्त एव लौकिकास्त एव तेषामर्थाः (त एव चामीषामर्थाः-अनन्त)। मीमांसा के लोकवेदाधिकरण (१।३।६) में इस पर विस्तृत २० विचार किया है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि शब्द-अर्थ-सम्बन्ध के परम ज्ञाता जैमिनि, यास्क और कात्यायन तीनों महान् आचार्य एक ही बात कहते हैं। गत २, ३ सहस्र वर्ष के अनेक विद्वान् लौकिक और वैदिक शब्दों २५ में भेद मानते हैं । वे अपने पक्ष की सिद्धि में निम्नलिखित तीन प्रमाण उपस्थित करते हैं विचार, रामलाल कपूर ट्रस्ट बृहत्संस्करण पृष्ठ ६८ । मीमांसक देवता को मन्त्रमयी मानते है । देखो 'अपि वा शब्दपूर्वत्वात्' मी० ६।११६ की व्याख्या । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास (क) महाभाष्य के प्रारम्भ में लिखा हैकेषां शब्दानां लौकिकानां वैदिकानां च । (ख) महाभारत के प्रारम्भ में भी लिखा हैशब्दैः समयदिव्यमानुषैः। (ग) निरुक्त १३।६ में लिखा है अथापि ब्राह्मणं भवति-सा वै वाक् सृष्टा चतुर्धा व्यभवत् । एष्वेव लोकेषु त्रीणि [तुरीयाणि], पशुषु तुरीयम् । या पृथिव्यां साऽग्नौ सा रथन्तरे। यान्तरिक्ष सा वायौ सा वामदेव्ये । या दिवि सादित्ये सा बृहति सा स्तनयित्नौ। अथ पशुषु । ततो या वागत्यरिच्यत तां ब्राह्मणेष्वदधुः । तस्माद् ब्राह्मणा उभयों वाचं वदन्ति, या च देवानां १० या च मनुष्याणाम् इति। इस उद्धरण में स्पष्ट लिखा है कि ब्राह्मण देवों और मनुष्यों की उभयविध वाणी का प्रयोग करते हैं। निरुक्त में उद्धृत पाठ से मिलता जुलता पाठ मैत्रायणी संहिता १।११।५ और काठक संहिता १४॥५॥ में उपलब्ध होता है, जो इस १५ प्रकार है मैत्रायणी संहिता | काठक संहिता सा वै वाक सृष्टा चतर्धा व्यभवत | सा वाग्दष्टा चतुर्धा व्यभवत्, एष एषु लोकेषु त्रीणि तुरीयाणि, पशुषु लोकेषु त्रीणि तुरीयाणि, पशुषु तुरीयम्, या पृथिव्यां साऽग्नौ सा | तुरीयम्, या दिवि सा बृहति सा २० रथन्तरे, यान्तरिक्षे सा वाते सा | स्तनयित्नौ, यान्तरिक्षे सा वाते वामदेव्ये, या दिवि सा ब्रहति सा | सा वामदेव्ये, या पृथिव्यां साग्नौ स्तनयित्नौ, अथ पशुषु, ततो या सा रथन्तरे, या पशुषु, तस्या वागत्यरिच्यत तां ब्राह्मणे न्यदधुः, | यदत्यरिच्यत तां ब्राह्मणे न्यदधुः, तस्माद् ब्राह्मण उभयीं वाचं तस्मात् ब्राह्मण उभे वाचौ वदति। २५ वदति यश्च वेद यश्च न । या देवी च मानुषी च करोति...." बृहद्रथन्तरयोर्यज्ञादेनं तया गच्छ- | या बृहद्रथन्तरयोस्तयैनं यज्ञ प्रागति । या पशुषु तया ऋते यज्ञं. च्छति या पशुषु जयर्ते यज्ञमाह । १. आदिपर्व ११२८॥ 'दिव्यमानुषैः वैदिक लौकिकैः । नीलकण्ठः । २. तुलना करो—'वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्'। रामायण सुन्दर काण्ड ३०।१७ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ US संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन उद्धरणों के अन्तिम पाठ से व्यक्त है कि यहां 'देवी' शब्द से बृहद्-रथन्तर आदि में गीयमान वैदिक ऋचाएं अभिप्रेत हैं । अन्त में स्पष्ट लिखा है कि ब्राह्मण दैवी वाक् से यज्ञ में और पशुओं मनुष्यों' की वाणी से यज्ञ से अन्यत्र व्यवहार करता है । अतः महाभाष्य और निरुक्तादि के उपर्युक्त उद्धरणों में देवी या वैदिक शब्द से प्रानुपूर्वी विशिष्ट मन्त्रों का ग्रहण है । अथर्व संहिता ६।६१।२ में देवी और मानुषी वाक् का भेद इस प्रकार स्पष्ट किया है अहं सत्यमनृतं यद् वदामि, अहं देवीं परि वाचं विशश्च । १० अर्थात् -मैं सत्य और अन्त जो बोलता हूं, मैं देवी और परि= सर्वतः व्याप्त वाणी को विशों (=मनुष्यों) की । ___इस मन्त्र में दैवी वाक् को सत्य कहा है, क्यों कि इस के शब्द और शब्दार्थ-संम्बन्ध वेद के उपदेष्टा नित्य परमेश्वर ज्ञान में स्थित होने से एकरूप रहते हैं तथा यह नियतानुपूर्वी होने से सदा सर्वत्र समानरूप से रहती है। और मानुषी वाक् को अनृत कहा है, क्यों कि मानुष सांकेतित यदृच्छा शब्द अनित्य होते हैं और वह वक्ता के अभिप्रायानुसार प्रयुक्त होती है। उस में वर्णानुपूर्वी विशेष का नियम नहीं होता। ____ इस विवेचन से स्पष्ट है कि लौकिक और वैदिक वाक् में मानुष २० यदच्छा शब्दों को छोड़कर अन्य पदों का भेद नहीं है, विशेष भेद वर्णानुपूर्वी के नियतत्व और अनियतत्त्व का ही है। संस्कृत-भाषा की व्यापकता संस्कृत-वाङमय में यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि प्रत्येक विद्या १. देखो पृष्ठ ४, टिप्पणी ३ । २. ये परमात्मज्ञानस्थाः शब्दार्थसम्बन्धाः सन्ति ते नित्या भवितुमर्हन्ति ।... . २५ कुतः ? यस्य ज्ञान क्रिये नित्ये स्वभावसिद्धे अनादी स्तः, तस्य सर्वं सामर्थ्यमपि नित्यमेव भवितुमर्हति ।' ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदनित्यत्वविचार । . ३. 'संस्कृत्य संस्कृत्य पदान्युत्सृज्यन्ते । तेषां यथेष्टमभिसम्बन्धो भवति तद्यथा—आहर पात्रं वा पात्रमाहर इति' । महाभाष्य १११११॥ - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० २ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, बिकास और ह्रास का प्रथम प्रवक्ता आदि विद्वान् ब्रह्मा था।' यद्यपि उत्तरकाल में ब्रह्मा पद चतुर्वेदविद् व्यक्ति के लिये भी प्रयुक्त होता रहा, तथापि आदिम ब्रह्मा निस्सन्देह एक विशेष ऐतिह्य-सिद्ध व्यक्ति था । संस्कृत-वाङमय के अवलोकन से विदित होता है कि आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र आदि प्रत्येक विषय के आदिम ग्रन्थ ५ अत्यन्त विस्तृत थे। अतः संस्कृत-वाङमय के समस्त विभागों में प्रयुक्त होने वाले परिभाषिक तथा सर्वव्यवहारोपयोगी साधारण शब्दों का स्वरूप उस समय निर्धारित हो चुका था। उत्तरोत्तर यथाक्रम मनुष्यों की शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों के हास के कारण प्राचीन, अतिविस्तृत ग्रन्थ शनैः-शनैः संक्षिप्त होने लगे। वर्तमान में १. आयुर्वेद–'प्रजापतिरश्विभ्याम्, प्रजापतये ब्रह्मा' । चरक सूत्रस्थान १।४।। व्याकरण-'ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच' । ऋक्तन्त्र, प्रथम प्रपाठक के अन्त में ॥ ज्योतिष—'तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा' । नारद संहिता ११७॥ उपनिषद्-'तद्वैतद् ब्रह्मा प्रजापतय उवाच' । छान्दोग्य ८॥१५॥ 'कावषेयः प्रजापतेः, प्रजापतिर्ब्रह्मणः' । बृह० ६।५।४ ॥ शिल्प-काश्यप संहिता के १५ आरम्भ में, आनन्दाश्रम संस्करण । दण्डनीति राजनीति–महाभारत शान्तिपर्व ५६१७४-८० ॥ धनुर्वेद—'ब्राह्मणास्त्रेण संयोज्य' । रामायण युद्धकाण्ड २२।५ ॥ धर्मशास्त्र—महाभारत शान्तिपर्व १०६।१२ । इत्यादि । जिन्हें इस विषय की विशेष जिज्ञासा हो, वे पं० भगवद्दत्त विरचित भारतवर्ष का बृहद् इतिहास भाग २, पृष्ठ १-२६ (प्र० संस्करण, सं० २०१७) देखें। २. आयुर्वेद-श्लोकशतसहस्रमध्यायसहस्रं च कृतवान् "ततोऽल्पायुष्ट्वमल्पमेधस्त्वञ्चावलोक्य नराणां भूयोऽष्टधा प्रणीतवान्' । सुश्रुत सूत्रस्थान १॥३॥ अर्थशास्त्र—एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः । संक्षिप्तमायुर्विज्ञाय मानां ह्रासमेव च' । इत्यादि, महाभारत शान्ति० ५९८१-८६ ॥ कौटिल्य अर्थशास्त्र ११ । नीतिशास्त्र-शतलक्षश्लोकमितं नीतिशास्त्रमथो- २५ क्तवान् । अल्पायुभूभृदाद्यर्थं संक्षिप्तमतिविस्तृतम्' । शुक्रनीति ११२,४ ॥ व्याकरण-'यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्य सो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे' । देवबोध, महाभारतटीकारम्भ । कामशास्त्रवात्स्यायन कामसूत्र अ० १ के प्रारम्भ में ॥ मीमांसाभाष्य-प्रपञ्चहृदय, ट्रिवेण्ड्रम संस्करण, पृष्ठ ३६ ॥ मामांसाशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास हमारी ३० 'मीमांसा-शाबरभाष्य' की 'पार्षमत-विमशिनी' हिन्दी व्याख्या के प्रथम भाग में देखें। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उपलब्ध ग्रन्थ तत्तद्विषयों के अत्यन्त संक्षिप्त संस्करण हैं।' अतः यह आपाततः मानना होगा कि वर्तमान काल की अपेक्षा प्राचीन, प्राचीनतर और प्राचीनतम काल में संस्कृत-भाषा विस्तृत, विस्तृतर और विस्तृततम थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्य नसांग लिखता है-'प्राचीन ५ काल के प्रारम्भ में शब्द-भण्डार बहुत था। शब्दशास्त्र के प्रामाणिक प्राचार्य पतञ्जलि १५०० वि०पू०) ने संस्कृत-भाषा के प्रयोगविषय का उल्लेख करते हुये लिखा है___'सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरे प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः । सण्त१० द्वीपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुधा भिन्नाः एकशतमध्वर्यु शाखाः, सहस्रव िसामवेदः, एकविंशतिधा बाहवृच्यं नवधाथर्वणो वेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहासः, पुराणम् इत्येताबाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः । पतञ्जलि से प्राचीन प्राचार्य 'यास्क' ने लिखा है-- १५ १. भारतीय वाङमय के उपलभ्यमान कतिपय संक्षिप्त ग्रन्थों को देख कर ही पाश्चात्य विद्वानों को आश्चर्य होता है । यदि आज संस्कृत वाङ्मय के अतिप्राचीन विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध होते, तो निश्चय ही पाश्चात्य विद्वानों की अनेक भ्रमपूर्ण मिथ्या-कल्पनात्रों का निराकरण अनायास हो जाता । पाणिनीय व्याकरण के विषय में पाश्चात्य विद्वानों की क्या धारणा है, इस का उल्लेख २० हम पाणिनि के प्रकरण (अध्याय ५ ) में करेंगे ।। २. ह्यू नसाङ्ग, भाग प्रथम, वार्ट्स का अनुवाद, पृष्ठ २२१ । ३. पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने ऐतरेयालोचन पृष्ठ १२७ मे 'सहस्रवर्मा' का अर्थ सहस्र प्रकार का सामगान किया है, और 'सहस्रशाखा' अर्थ को अशुद्ध कहा है । यह उन की भूल है । भाष्यपाठ में ऋग् और अथर्व के साथ प्रकारार्थक 'धा' प्रत्यय का प्रयोग है। यजुः के साथ शाखा शब्द प्रयुक्त है। उपक्रम में स्पष्ट 'बहुधा भिन्नाः' कहा है । अतः ‘सहस्रवा सामवेदः' का अर्थ 'सहस्र प्रकार का सामवेद' करना चाहिये । अन्यथा वाक्य का सामञ्जस्य ठीक नहीं बनेगा । महाभारत (शान्तिपर्व ३४२।६७) में सामवेद की सहस्र शाखायें स्पष्ट लिखी हैं—'सहस्रशाखं यत्साम ।' कूर्म पुराण में भी लिखा है-'सामवेदं ३० सहस्रेण शाखानां प्रबिभेद सः' । पू० ५२।२० ॥ ४. महाभाष्य अ० १ । पा० १ । प्रा० १॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास : 'शवतिगतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाव्यते । .... विकारमस्यार्येषु भावन्ते शव इति । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु । दात्रमुदीच्येषु । " 1 १.१. इन प्रमाणों से सिद्ध है कि किसी समय संस्कृत भाषा का प्रयोगक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था । यदि संसार की समस्त भाषात्रों के नवीन और प्राचीन स्वरूपों की तुलना की जाय, तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि ५ संसार की सब भाषाओं का आदि मूल संस्कृत भाषा है । इन भाषाओं के नये स्वरूप की अपेक्षा इन का प्राचीन स्वरूप संस्कृतभाषा के अधिक समीप था । अब हम प्राचीन प्राचार्यों द्वारा प्रदर्शित उपर्युक्त सिद्धान्त ( संस्कृत का प्रयोग-क्षेत्र सप्तद्वीपा वसुमती था) की पुष्टि में चार १० प्रमाण देते हैं १. पाणिनीय व्याकरण में 'कानीन' शब्द की व्युत्पत्ति 'कन्या' शब्द से की है और कन्या को ' कनीन' प्रदेश कहा है । वस्तुतः १. कम्बोज की आधुनिक बोलियों में 'शवति' के 'शुद-पुत-शुई' आदि विभिन्न अपभ्रंश शब्द गति अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । द्र० - भारतीय इतिहास की रूप रेखा, द्वि० सं०, भाग १, पृष्ठ ५३३ । २. निरुक्त २|२|| तुलना करो - 'एतस्मिश्चातिमहति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते । तद्यथा शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति, विकार एनमार्या भाषन्ते शव इति । हम्मतिः सुराष्ट्रेषु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु गमिमेव त्वार्याः प्रयुञ्जते । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु ।' महाभाष्य १।१ । श्र० १ ॥ नागेश ने इस वचन की व्याख्या में 'दातिः' को क्तिन्नन्त अथवा तिजन्त लिखा है । यह अशुद्ध है । प्रकरणानुसार 'दातिः' शब्द धातुनिर्देशक 'रितप्’ प्रत्मान्त है । निरुक्त और महाभाष्य के पाठ में धातु और उस से निष्पन्न शब्दों का विभिन्न प्रदेशों में प्रयोग दर्शाया है । १३. 'वैदिकसम्पत्ति' (संस्क० २ ) पृष्ठ २६९ - ३०३ || वेदवाणी ( वाराणसी) का सं० २०१७ का वेदाङ्क ( वर्ष १३ अङ्क १३ अङ्क १-२ ) पृष्ठ ५० - ५८ 'भाषाविज्ञान और ऋषि दयानन्द' शीर्षक लेख 1 ४. 'कन्यायाः कनीन च' । अष्टा० ४|१|११६ ॥ १५ २० २५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कामीन की मूल प्रकृति कन्या नहीं है,कनीना है।' कुमारार्थक 'कनीन' प्रातिपदिक का प्रयोग वेद में बहुधा मिलता है।' पारसियों की धर्मपुस्तक 'अवेस्ता' में कन्या के लिये कइनीन' शब्द का व्यवहार मिलता है। यह स्पष्टतया वैदिक 'कनीना' का अपभ्रंश है। इससे ५ स्पष्ट होता है कि कभी ईरान में कन्या अर्थ में 'कनीना' शब्द का प्रयोग होता था, और उसी का अपभ्रंश 'कइनीन' बना। २. फारसी-भाषा में तारा अर्थ में 'सितारा' शब्द का प्रयोग होता है, अंग्रेजी में 'स्टार' और गाथिक में 'स्टेयों। इन दोनों का सम्बन्ध लौकिक-संस्कृत में प्रयुज्यमान 'तारा' शब्द से नहीं है । वेद में १० इनकी मूल-प्रकृति का प्रयोग मिलता है, वह है-'स्तृ' शब्द । ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर तृतीया-बहुचनान्त 'स्तृभिः' पद का व्यवहार तारा अर्थ में मिलता है। जैसे 'पेतर' (लैटिन), 'पातेर' (ग्रीक), 'फादेर' (गाथिक), 'फादर' (अंग्रेजी) का मूल 'पितृ' शब्द का बहुवचनान्त १. कनीन का स्त्रीलिङ्ग 'कनीनी' शब्द भी है। (द्र० ते० प्रा० १५ १।२७।६–'कुमारीषु कनीनीषु' । कनीनी शब्द भी कनीना के समान मध्योदात्त है। सायण ने 'कानीनी' के अर्थ में 'कनीनी' का प्रयोग मानकर 'कनीनीषु कुमार्याः पुत्रीषु' अर्थ किया है। यह स्वरानुरोध से तथा वृद्धयभाव के दर्शन से चिन्त्य है । यदि 'प्रथाप्यस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवनिगमा भवन्ति' (निरुक्त २।४) नियम से सायण का अपत्यार्थ में तद्धितोत्पत्ति के विना ताद्धित अर्थ दर्शाना २० स्वीकार करें तो कथंचिदुपपन्न हो सकता है। हमारे विचार में दोनों समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म अर्थ-भेद दर्शाना उचित होगा। - २. ऋ० ३।४८।१; ८।६६।१४॥ द्र०—'कनीनकेव विध्रधे' (ऋ० ४। ३२।२३); 'कनीनके कन्यके' (निरु० ४।१५); 'जारः कनीनां पतिर्जनीनाम्' (ऋ० ११६६।४) आदि में प्रयुक्त 'कनी' स्वतन्त्र शब्द है । इस का लौकिक २५ संस्कृत में भी प्रयोग देखा जाता है । यथा-'वासुके: पुत्री दिव्यरूपा कमी वसुदत्तिर्नाम' । (प्रबन्धकोष, पृष्ठ ८६) । ३. ह ओ मा तास-चित् या कइनीनो (संस्कृत छाया—सोमः ताश्चित याः कनीनाः) । ह प्रोम यश्त ६।२३।। (लाहौर संस्करण पृष्ठ ५८) । ४. Stairno । एफ. बांप कृत कम्पेरेटिव ग्रामर, भाग, १, पृ० ६४ । ३० ५. ऋ० ११६८।५; ११८७।१।१।१६३।११ इत्यादि । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की यवृत्ति, विकास और ह्रास 'पितरः' पद है। उसी प्रकार सितारा, स्टार और स्टेयों का मूल 'स्तृ' शब्द का प्रथमा का बहुवचन 'स्तारः' पद है। ३. बहिन के लिये फारसी में 'हमशीरा' शब्द प्रयुक्त होता है, और अंग्रेजी में 'सिस्टर' । संस्कृत में इन दोनों के मूल दो पृथक् शब्द हैं—'हमशीरा' का मूल ‘समक्षीरा' है । संस्कृत के सकार को फारसी ५ में हकार होता है। यथा-सप्त=हफ्त, सप्ताह हफ्ताह । क्ष के आदि ककार का लोप हो गया, और षकार को शकार । इसी प्रकार 'सिस्टर' का सम्बन्ध ‘स्वसृ' पद से है ___४. ऊंट को फारसी में 'शुतर' कहते हैं, और अंग्रेजी में कैमल' । स्पष्ट ही इन दोनों के मूल पृथक्-पृथक् हैं। संस्कृत में ऊंट को उष्ट्र, १० और क्रमेल' दोनों कहते हैं । उष्ट्र के उ और ष का विपर्यास होकर शुतर शब्द बनता है। इसी प्रकार कैमल का सम्बन्ध क्रमेल शब्द से है। वर्तमान मिश्री भाषा के 'गमल' और कुरानी अरबी के 'जमल' शब्द का सम्बन्ध भी संस्कृत के 'क्रमेल' शब्द के साथ ही है। इस प्रकार वेद के आधार पर अति विस्तार को प्राप्त हुई संस्कृत- १५ भाषा, मनुष्यों के विस्तार के साथ-साथ देश काल और परिस्थितियों के विपर्यास तथा पार्यों के मूल-प्रदेश केन्द्र से दूरता की वृद्धि होने से, शनैः शनैः विपरिणाम को प्राप्त होने लगी। संसार में ज्यों-ज्यों म्लेच्छता (=उच्चारणाशुद्धि) की वृद्धि होती गई, त्यों-त्यों संस्कृतभाषा का प्रयोग-क्षेत्र संकुचित होता गया। उसी के साथ-साथ देश- २० देशान्तरों में व्यवस्थित संस्कृत-भाषा के शब्दों का लोप होता १. मोनियर विलियम्स ने अपने संस्कृत कोश में संस्कृत 'क्रमेल' शब्द को यूनान से उधार लिया माना है। वह सर्वथा गप्प है। भाषा-विज्ञान के सिद्धान्तानुसार उत्तरोत्तर अपभ्रंश भाषाओं में उपर नीचे के रेफ की निवृत्ति ही होती है, नए रेफ का संयोग नहीं होता । यदि कमेल शब्द कैमल-गमल- २५ ५ जमल से अथवा इसकी किसी रेफ-रहित प्रकृति से निष्पन्न होता, तो उस में । रेफ का संयोग न होता । अतः क्रमेल की मूल धातु 'क्रमु पादविक्षेपे' ही है । २. अन्तिम तीन उदाहरण पं० राजाराम विरचित 'स्वाध्याय-कुसुमाजलि' से लिये.हैं। ३. भाषाविज्ञान, डा० मङ्गलदेव, पृष्ठ २५६ । ४. देखो, पृष्ठ ११ की टिप्पणी २ पर महाभाष्य का तुलनात्मक पाठ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गया। इससे संस्कृत-भाषा अत्यन्त संकुचित हो गई। संस्कृत-भाषा में किस प्रकार शब्दों का संकोच हुआ, इस का सोपपत्तिक निरूपण हम आगे करेंगे। आधुनिक भाषामत और संस्कृत-भाषा ___ प्राचीन भारतीय भाषाशास्त्र के पारङ्गत महामुनि पतञ्जलि यास्क और स्वायम्भुव मनु के भाषाविषयक मत हम पूर्व दर्शा चुके । आधुनिक पाश्चात्य भाषाशास्त्री इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । पाश्चात्य भाषाविदों ने विकासवाद के मतानुसार संसार की कुछ भाषानों की तुलना करके नूतन भाषाशास्त्र को कल्पना की है । १० उसके अनुसार उन्होंने संस्कृत को प्राचीन मानते हुये भी उसे संसार की आदिम भाषा नहीं माना। उनका मत हैं-'प्रागैतिहासिक काल में संस्कृत से पूर्व कोई इतर-भाषा (=इण्डोयोरोपियन भाषा) बोली जाती थी। उसी में परिवर्तन होकर संस्कृत-भाषा की उत्पत्ति हुई। पाश्चात्य-शिक्षा दीक्षित भारतीय भी विना स्वयं विचार किये इसी १५ मत को मानते हैं। उत्तरोत्तर काल में संस्कृत-भाषा में भी अनेक परिवर्तन हये । संस्कृत-भाषा को भविष्यत् में परिवर्तनों से बचाने के लिये पाणिनि ने अपने महान् व्याकरण की रचना की। उसके द्वारा भाषा को इतना बांध दिया कि पाणिनि से लेकर आज तक उस में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुअा।' २० अध्यापक बेचरदास जीवराज दोशी ने अपनी 'गुजराती भाषा नी उत्क्रान्ति' नामक व्याख्यान-माला में प्राकृत से वैदिक-भाषा की उत्पत्ति मानी है । उन का लेख इस प्रकार है । ___ 'उक्त प्रकारे जणावेलां अनेक उदाहरणो द्वारा एम सिद्ध करी शकाय एवं छे के व्यापक प्राकृतना प्रवाहनो सीधो संबन्ध वेदोनी २५ जीवती मूल भाषा साथेज छ, न ही के जेनु स्वरूप पाणिनि प्रभृति वैयाकरणोए निश्चित कयुछे एवी लौकिक संस्कृत साथै'।' पाश्चात्य ईसाई मत के अनुसार सारे इतिहास को ईसा पूर्व ६ सहस्र वर्षों में सीमित करने की नियत से विद्वानों ने संस्कृत-वाङमय के प्राचीन-ग्रन्थों का अपने ढंग से अध्ययन करके और उसमें ३० १. पृष्ठ ७४ तथा ७५-७७ तक॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकार और ह्रास स्वकल्पित भाषाशास्त्र का पुट देकर उनका कालक्रम निर्धारित किया है। उसमें मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, उपनिषत्काल, सूत्रकाल, और साहित्यकाल आदि अनेक काल्पनिक काल-विभाग किये हैं। उनके द्वारा उन्होंने संस्कृत-भाषा में यथाक्रम परिवर्तन दर्शाने का विफल प्रयास किया है । आधुनिक भाषाशास्त्रियों के द्वारा संस्कृत-भाषा में ५ जो परिवर्तन बताया जाता है, वह उसके ह्रास (=सङ्कोच) के कारण प्रतीत होता है। संस्कृत-भाषा में वस्तुतः कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ, यह हम अनुपद सिद्ध करेंगे। नूतन भाषामत की आलोचना पाश्चात्य भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत-भाषा की उत्पत्ति और १० विकास के विषय में जो मत निर्धारित किये हैं, वे काल्पनिक हैं । भारतीय-वाङमय से उनकी किञ्चिन्मात्र पुष्टि नहीं होती। ग्रीक लैटिन, और हिटेटि आदि भाषाओं के जिस साहित्य के आधार पर वे भाषामतों के नियमों की कल्पना करते हैं,वह साहित्य पुरातन संस्कृतसाहित्य की अपेक्षा बहुत अर्वाचीन-काल का है। इतना ही नहीं, १५ पाश्चात्य विद्वान् जिस प्रागैतिहासिक काल की प्राकृत (=इण्डोयोरोपियन) भाषा से संस्कृत की उत्पत्ति मानते हैं,उसका कोई पूर्व व्यवहृत स्वरूप उन्होंने अभी तक उपस्थित नहीं किया । अतः इन आधुनिक भाषाशास्त्रियों ने भाषाविज्ञान के जो नियम निर्धारित किये हैं, वे सर्वथा काल्पनिक और अधरे हैं। अतः उन के द्वारा कल्पित भाषा. २० विज्ञान विज्ञान की कोटि से बहिर्भूत है। प्राधनिक भाषाशास्त्र की आलोचना एक स्वतन्त्र महत्त्वपूर्ण विषय है । अतः उसकी विशेष अालोचना के लिये पृथक् स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने का हमारा विचार है। यहां हम उसके नियमों के अधरेपन को दर्शाने के लिये एक उदाहरण उपस्थित करते हैं २५ __ नूतन भाषाविज्ञान का एक नियम है—'वर्गीय द्वितीय और चतुर्थ वर्ण के स्थान में 'ह' का उच्चारण होता है, परन्तु 'ह' के स्थान में वर्गीय द्वितीय और चतुर्थ वर्ण नहीं होता।' .. यह नियम औत्सर्गिक माना जा सकता है, एकान्त सत्य नहीं। १. भाषाविज्ञान, श्री डा० मंगलदेव कृत, प्र० संस्करण पृष्ठ १८२॥ ३० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कुछ अल्पप्रयोग ऐसे भी हैं, जिनमें 'ह' के स्थान में वर्गीय द्वितीय और चतुर्थ वर्णों का प्रयोग देखा जाता है । यथा १. आधुनिक बोल-चाल की भाषा में संस्कृत के 'गुहा' शब्द के अपभ्रंश 'गुफा' का प्रयोग होता है। २. पंजाबी में संस्कृत के 'सिंह' का उच्चारण "सिंघ' होता है, और गुरुमुखो लिपि में 'सिंघ' ही लिखा जाता है। ३. पंजाबी भाषा में भैंस के लिये प्रयुक्त 'मझ' संस्कृत के 'मही" शब्द का अपभ्रंश है। ४. 'दाह' का प्राकृत में 'दाध,' और 'नहुष' का पाली में 'नघुष' १. प्रयोग मिलता है 'दाह' से मत्वर्थक 'र' प्रत्यय होकर 'दाहर' शब्द बनता है। इसी का अपभ्रंश मारवाड़ी-भाषा में 'दाफड़' (=जलने वाला फोड़ा) रूप में प्रयुक्त होता है। ५. 'अच्' प्रत्ययान्त 'रोह' (=अङ कुर') का मारवाड़ी भाषा में नये पौधे के लिये 'रूंख' 'रूंखड़ा' और गुजराती में 'रूंखडुं' अपभ्रंश १५ प्रयुक्त होता है। ६. संस्कृत के 'इह' शब्द के स्थान में प्राकृत में 'इध' का प्रयोग होता है। ७. चीनी भाषा में 'होम' के अर्थ में 'घोम' शब्द का व्यवहार होता है। २. ८. भारत की 'माही नदी ग्रीक भाषा में 'मोफिस' बन गई है ।' ____६. संस्कृत का 'अहि' फारसी में 'अफि' बन जाता है। अफीम शब्द भी संस्कृत के 'अहिफेन' का अपभ्रंश है । १. महिषी (भैंस) वाचक 'मही' शब्द का प्रयोग ‘महीं मा हिंसीः' (यजु० १३।४४) में उपलब्ध होता है। २. द्र० शब्दकल्पद्रुम कोश । २. टालेमी कृत भूगोल, पृष्ठ ३८ । इस ग्रन्थ के सम्पादक सुरेन्द्रनाथ मजुमदार शास्त्री ने पृष्ठ ३४३ पर अपने टिप्पण में लिखा है कि ग्रीक शब्द से अनुमान होता है कि इस का पुराना नाम 'माफी' था । यह योरोपीय मिथ्या भाषाविज्ञान का फल है । 'मही' शब्द टालेमी से ३३०० वर्ष पूर्ववर्ती जैमिनी ब्राह्मण में प्रयुक्त हैं । द्र० भगवद्ददत्त कृत 'भारतवर्ष का बृहद् इतिहास' ३० भाग १, पृष्ठ ५० (द्वि० सं०) । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास १७ १०. बृहस्पतिवार के लिये उर्दू में प्रयुक्त 'वीफे' शब्द 'बृहस्पति' के एक देश 'बृहः' का अपभ्रंश है। ११. हिन्दी का 'जीभ' शब्द जिह्वा=जीह' जीभ क्रम से निष्पन्न हुआ है । प्राकृत में 'जीह' 'जीहा' शब्द प्रयुक्त है। जिह्वा= जिव्हा=जिम्भा=जिम्भा-इस प्रकार क्रम से हकार को भ और ५ बकार को बकार तदनन्तर बकार को भकार हुआ है। १२. संस्कृत की नह (णह बन्धने) धातु से हिन्दी का 'नाधना' . (=पशु की नाक में रस्सी डालना) शब्द बना है। १३. 'दुहितृ' के प्राद्यन्त का लोप होकर अवशिष्ट 'हि' भाग से पञ्जाबी का पुत्री-वाचक 'धो' शब्द बना है । और फारसी में प्रयुक्त १० 'दुख्तर' शब्द भी 'संस्कृत के 'दुहितृ' का ही अपभ्रंश है। १४. संस्कृत के कथनार्थक 'आह' धातु' (द्र०–अष्टा० ३।४। ४८) से पञ्जाबी में व्यवहृत 'पाख' क्रिया बनी है। ___ ये कुछ उदाहरण दिये हैं । इनसे पाश्चात्य भाषाविज्ञान के नियमों का अधूरापन स्पष्ट प्रतीत होता है । अतः ऐसे अधूरे नियमों १५ के आधार पर किसी बात का निर्णय करना अपने आप को धोखे में डालना है। भारतीय शब्दशास्त्री पाणिनि और यास्क अनेक शब्दों में 'ह' को घढ,ध,भ आदेश मानते हैं । अष्टाध्यायी ८।४।६२ के अनुसार सन्धि में झय् से उत्तर हकार को घ,झ,ढ, ध और भ आदेश होते हैं। संसार में भाषा की प्रवृत्ति कैसे हुई, इस विषय में आधुनिक २० १. 'एक जीह गुण कवन बखाने, सहस्र फणी सेस अन्त न जाने' । गुरुग्रन्थ साहब, सोलहे माहल्ल ५। २. वैयाकरणों द्वारा आदेश रूप में विहित धातुयें किसी समय में मूल घातुयें थीं । लोपागमणविकार आदि से निष्पन्न धातु अथवा नामरूप अतिप्राचीन काल में स्वतन्त्ररूप में प्रयुक्त होते थे । द्र०—इसी ग्रन्थ के अन्त में २५ दूसरा परिशिष्ट 'पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या' तथा ऋषि दयानन्द की पदप्रयोग शैली', पृष्ठ ६-१७ । '३. चक्षवाचक 'आंख' शब्द का सम्बन्ध भी कथनार्थक आह =ाख रूप से प्रतीत होता है । यथा चक्ष-चक्षुः । कई लोग अक्षि पर्याय 'अक्ष' से इस का सम्बन्ध मानते हैं-अक्ष=अक्ख=प्रांख। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भाषाविज्ञान सर्वथा मौन है, उसकी इसमें कोई गति नहीं । परन्तु भारतीय इतिहास स्पष्ट शब्दों में कहता है-'लोक में भाषा की प्रवृत्ति वेद से हुई है, और संस्कृत ही सब भाषाओं की आदि-जननी तथा आदिम भाषा है। आधुनिक भाषाशास्त्री अपने अधूरे काल्पनिक भाषाशास्त्र के अनुसार इस तथ्य को स्वीकार न करें, तो इसमें इतिहास का क्या दोष ? इतिहास विद्या है, और कल्पना कल्पना ही है । क्या संस्कृत प्राकृत से उत्पन्न हुई है ? प्राकृत भाषा के अनेक पक्षपाती देववाणी के लिये संस्कृत शब्द का व्यवहार देखकर कल्पना करते हैं कि संस्कृत-भाषा किसी प्राकृतभाषा से संस्कृत की हुई है। इसीलिये प्राकृत के प्रतिपक्ष में इसका नाम संस्कृत हुआ। यह कल्पना नितान्त अशुद्ध है। इसमें निम्न हेतु १. संस्कृत से प्राग्भावी किसी प्राकृत-भाषा की सत्ता इतिहास से सिद्ध नहीं होती, जिस से संस्कृत की निष्पत्ति मानी जावे । १५ . २. प्राकृत-भाषा की महत्ता को स्वीकार करने वाले प्राचार्य हेमचन्द्र सदश विद्वानों ने भी प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से मानी है। ३. भाषा का स्वभावतः विकास नहीं होता, विकार होता है । अतएव पूर्वाचार्यों ने प्राकृत का सामान्य 'अपभ्रंश' शब्द से व्यवहार २० किया है । ४. भाषा-विकार के नियम सर्वसम्मत हैं १. मनु० का पृष्ठ २ में उद्धृत 'सर्वेषां तु स नामानि......' वचन, 'दैवी वाग् व्यतिकीर्णयमशक्तैरभिधातृभिः' । वाक्यपदीय १११५४॥ वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है' । सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास 'रामलाल २५ कपूर ट्रस्ट' का आ० स० शताब्दी संस्करण २, पृष्ठ ३१५ पं० १२ । तथा पूना-प्रवचन, पांचवां व्याख्यान । २. 'प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्' । हैम प्राकृतव्याकरण की स्वोपज्ञ-व्याख्या १११११॥ - तुलना करो- 'प्रकृतौ भवं प्राकृतम्, साधूनां शब्दानां...' । वाक्यपदीय ३० स्वोपज्ञवृति १२१५५, पृष्ठ १३७ रामलालकपूर ट्रस्ट, लाहौर संस्करण । : ... . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास १६ (क) भाषा का विकार प्रायः क्लिष्ट उच्चारण से सुगम उच्चारण की ओर होता है। (ख) भाषा का विकार प्रायः संश्लेषणात्मकता से विश्लेषणात्मकता की ओर होता है। यदि इन नियमों को ध्यान में रख कर संस्कृत और प्राकृत की ५ तुलना की जाय, तो प्रतीत होता है कि प्राकृत-भाषा की अपेक्षा संस्कृत भाषा का उच्चारण अधिक क्लिष्ट तथा संश्लेषणात्मक है, तथा प्राकृत का उच्चारण संस्कृत की अपेक्षा सरल और विश्लेषणात्मक है। अतः सरल उच्चारण और विश्लेषणात्मक प्राकृत-भाषा से क्लिष्ट उच्चारण और संश्लेषणात्मक संस्कृत-भाषा की उत्पत्ति नहीं १० हो सकती। हां, क्लिष्ट और संश्लेषणात्मक संस्कृत से सरल और विश्लेषणात्मक प्राकृत की उत्पत्ति हो सकती है। अतएव अतिप्राचीन ‘भरतमुनि' ने लिखा है-. .. एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणजितम् । .. विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्य नानावस्थान्तरात्सकम् ॥'... - शब्द-शास्त्र के प्रामाणिक आचार्य ‘भर्तृहरि' ने भी लिखा है दैवी वाग् व्यतिकीर्णेयमशक्तैरभिधातृभिः ।। इस विवेचना से स्पष्ट है कि संस्कृत-भाषा प्राकृत से प्राचीन है। और प्राकृत संस्कृत की विकृति है। संस्कृत नाम का कारण २० भारतीय इतिहास के अनुसार देववाणी का 'संस्कृत' नाम इस कारण हुआ प्राचीन-काल में देववाणी अव्याकृत अर्थात् प्रकृति-प्रत्यय आदि के विभाग से रहित थी। इसका उपदेश प्रतिपद पाठ द्वारा किया जाता था। इस प्रकार उसके ज्ञान में अत्यन्त परिश्रम तथा अत्यधिक २५ २. अ० १७ श्लोक २ । भरतनाट्यशास्त्र अतिप्राचीन आर्षकोल का ग्रन्थ है । लेखकप्रमाद से इसमें कहीं-कहीं प्राचीन टीकाओं के पाठ सम्मिलित हो गये हैं । इसे कृत्स्नतया अर्वाचीन मानना भूल है। २. वाक्यपदीय १।१॥५४॥ ३. 'बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच' । महाभाष्य अ० १, पा० १, प्रा० १ ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कालक्षय होता था। अतः देवों ने उस समय के महान् शाब्दिक आचार्य इन्द्र से प्रार्थना की-'आप शब्दोपदेश की कोई ऐसी सरल प्रक्रिया बतावें, जिससे अल्प परिश्रम और अल्प-काल में शब्दबोध हो हो जावे' । देवों की प्रार्थना पर इन्द्र ने देवभाषा के प्रत्येक शब्द को ५ मध्य से विभक्त किया। इस प्रकार प्रकृतिप्रत्यय-विभागरूपी संस्कार द्वारा संस्कृत होने से देववाणी का दूसरा नाम 'संस्कृत' हुआ ।' अतएव 'दण्डी' अपने काव्यादर्श में लिखता है संस्कृतं नाम दैवी वाग् अन्वाख्याता महर्षिभिः । १३।३ ॥ भारतीय आर्षवाङमय में देववाणी के लिये 'संस्कृत' शब्द का १० व्यबहार वाल्मीकीय रामायण और भरतनाट्यशास्त्र' में मिलता है। रामायण में उसका विशेषण 'मानुषी' लिखा है। आचार्य यास्क और पाणिनि भी लौकिक-संस्कृत के लिये 'भाषा' शब्द का व्यवहार करते हैं।' इससे स्पष्ट है कि संस्कृत-भाषा उस समय जन-साधारण की भाषा थी। १५ १. 'वाग्वै पराच्यव्याकृतावदत् । ते देवा इन्द्रमब्रुवन्, इमां नो वाचं व्याकुर्विति "तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत्' । तै० सं० ६।४७ ॥ 'तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययविभागं सर्वत्राकरोत्' । सायण ऋग्भाष्य उपोद्धात, पूना संस्करण भाग १, पृष्ठ २६ । 'संस्कृते प्रकृतिप्रत्ययादिविभागः संस्कारमापादिते ..' । शिक्षाप्रकाश, २० शिक्षासंग्रह, पृष्ठ ३८७ । (काशी सं०) । २. 'वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्' । सुन्दरकाण्ड ३०।१७।। ३. अ० १७११, २५ ॥ ४. काठक संहिता १४१५ में भी दैवी वाक् के प्रतिपक्षरूप में लौकिकसंस्कृत के लिये 'मानुषी' पद का व्यवहार मिलता है२५ तस्माद् ब्राह्मण उभयीं वाचं वदति । दैवीं च मानुषीं च करोति ।' ५. इवेति भाषायाम् । निरुक्त ११४ ॥ विभाषा भाषायाम् । अष्टा० ६।११ १८१॥ ६. विस्तार के लिये देखिये पं० भगवद्दत कृत वैदिक-वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृ० २६-४०, संस्क० २। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास २१ कल्पित काल विभाग यह सर्वथा सत्य है कि एक ही व्यक्ति जब विभिन्न विषयों के ग्रन्थों का प्रवचन वा रचना करता है, तो उसमें विषयभेद के कारण थोड़ा बहुत भाषाभेद अवश्य होता है । पाश्चात्य विद्वान् अपने अधूरे भाषाविज्ञान के आधार पर इस सत्य-नियम की अवहेलना करके ५ संस्कृत वाङमय के रचनाकालों का निर्धारण करते हैं । वे उनके लिये मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, सूत्रकाल आदि अनेक कालविभागों की कल्पना करत्ने हैं | संस्कृत-वाङमय का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि भारतीय वाङ् मय के इतिहास में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदर्शित काल-विभाग कदापि नहीं रहा । पाश्चात्य विद्वानों ने विकासवाद के १० असत्य सिद्धान्त को मानकर अनेक ऐतिह्य विरुद्ध कल्पनाएं की हैं । हम अपने मन्तव्य की पुष्टि में तीन प्रमाण उपस्थित करते हैं । शाखा, ब्राह्मण, कल्पसूत्र और आयुर्वेदसंहितायें समानकालिक भारतीय इतिहास - परम्परा के अनुसार वेदों की शाखाएं, ब्राह्मणग्रन्थ, कल्पसूत्र (= श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र ) और आयुर्वेद की १२ संहिताएं आदि ग्रन्थ समानकालिक हैं । अर्थात् जिन ऋषियों ने शाखा और ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रवचन किया, उन्होंने ही कल्पसूत्र और आयुर्वेद की संहिताएं रचीं । भारतीय प्राचीन इतिहास के परम विद्वान् पं० भगवद्दत्त ने सर्वप्रथम इस सत्य - सिद्धान्त की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया । उन्होंने अपने प्रसिद्ध 'वैदिक वाङ्मय का २० इतिहास' भाग १, पृ० २५१ (द्वि० सं० पृ० ३५६ ) पर न्याय वात्स्यायनभाष्य के निम्न दो प्रमाण उपस्थित किये हैं । भारतीय वाङ्मय का प्रामाणिक आचार्य वात्स्यायन' अपने न्यायभाष्य २।१।६८ में लिखता है - २५ १. वात्स्यायन आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य का ही नामान्तर है । यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है। इस विषय का एक सर्वथा नवीन प्रमाण हमने स्वसम्पादित दशपादी - उणादिवृत्ति के उपोद्घात में दिया है । प्राचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य का काल भारतीय पौराणिक कालगणनानुसार, जो सत्य सिद्ध हो रही है; विक्रम से लगभग १५०० वर्ष पूर्व है । पाश्चात्य ऐतिहासिक विक्रम से लगभग २५० वर्ष पूर्व मानते हैं । ३० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (क) द्रष्टप्रवक्तृसामान्याच्चानुमानम् । य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनाम् ।। अर्थात् जो आप्त-ऋषि वेदार्थ के द्रष्टा और प्रवक्ता थे वे ही आयुर्वेद के द्रष्टा और प्रवक्ता थे। पुन: न्यायभाष्य ४।१।६२ में लिखा है (ख) द्रष्ट्रप्रवक्तृसामान्याच्चाप्रामाण्यानुपपत्तिः । य एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति। अर्थात् जो ऋषि मन्त्रों के द्रष्टा और ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रवक्ता थे, १०. वे ही इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्र के प्रवक्ता थे। इस सिद्धान्त की पुष्टि प्रायुवेदोय चरक संहिता प्रथमाध्याय से भी होती है। उसमें आयुर्वेद की उन्नति और प्रचार के परामर्श के लिये एकत्रित होने वाले कुछ ऋषियों के नाम लिखे हैं । अन्त में उन सब का विशेषण 'ब्रह्मज्ञानस्य निधयः" दिया है। उनमें के अनेक ऋषि शाखा, ब्राह्मण और धर्मशास्त्र आदि के प्रवक्ता थे । आयुर्वेद _ की हारीत संहिता के प्रवक्ता महर्षि हारीत' का धर्मशास्त्र इस समय उपलब्ध है। वेद की हारीत संहिता का उल्लेख अनेक वैदिक-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अतः प्राचार्य वात्स्यायन का उपर्युक्त लेख अत्यन्त प्रामाणिक है। अब हम इसी प्राचीन ऐतिह्य-सिद्ध सिद्धान्त की पुष्टि में न्यायभाष्य से पौर्वकालिक एक नया प्रमाण उपस्थित करते हैं । कुछ दिन हुए मीमांसा-शावर-भाष्य पढ़ाते हुये जैमिनि के निम्न सूत्र की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट हुआ। (ग) जैमिनि शाखा और उस के ब्राह्मण के प्रवक्ता भारतयुद्ध२५ कालीन महामुनि जैमिनि ने पूर्वमीमांसा के कल्पसूत्र-प्रामाण्याधिकरण में लिखा है- .. १. चरक सूत्रस्थान १॥१४॥ २. चरक सूत्रस्थान १।३१ में स्मृत ॥ ३. ते० प्रा० १४।१८। इस पर भाष्यकार माहिषय लिखता है-हारीत३० स्याचार्यस्य शाखिनः ...... । ४. वैशाख वि० सं० २००३=अप्रेल सन् १९४६ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २३ अपि वा कर्तृ सामान्यात् तत् प्रमाणमनुमानं स्यात् । १।३।२ ॥ अर्थात्-कल्पसूत्रों श्रौत, गृह्य और धर्म सूत्रों की जिन विधियों का मूल आम्नाय में नहीं मिलता, वे अप्रमाण नहीं हैं । आम्नाय और कल्पसूत्रों के कर्ता प्रवक्ता समान होने से ग्राम्नाय में अनुक्त कल्पसूत्र की विधियों का भी प्रामाण्य है । अर्थात् जिन ऋषियों ने आम्नाय = ५ वेद की शाखाओं और ब्राह्मण-ग्रन्थों का प्रवचन किया, उन्होंने ही कल्पसूत्रों की भी रचना की । अतः यदि उन का वचन एक ग्रन्थ में प्रमाण है तो दूसरे में क्यों नहीं ? शबरस्वामीआदि नवीन मीमांसक शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् सबको अपौरुषेय तथा वेद मानते हैं। अतः उन्होंने 'कर्तृ १० सामान्यात्' पद का अर्थ 'श्रौतकर्म के अनुष्ठाता और स्मृति के कर्ता किया है । परन्तु जैमिनि वेद और आम्नाय में भेद मानता है।' वात्स्यायन मुनि ने 'द्रष्ट्रप्रवक्तृसामान्याच्चाप्रामाण्यानुपपत्तिः' के द्वारा धर्मशास्त्रों का प्रामाण्य सिद्ध किया है। जैमिनि भी 'अपि वा कर्तृसामान्यात् तत्प्रमाणमनुमानं स्यात्' सूत्र द्वारा स्मृतियों का प्रामाण्य १५ सिद्ध करता है। दोनों के प्रकरण तथा विषय-प्रतिपादन-शैली की समानता से स्पष्ट है कि जैमिनि के 'कर्वसामान्यात' पद का अर्थ 'बाम्नाय और स्मृतियों के समान प्रवक्ता' ही है। (घ) भगवान् पाणिनि का एक प्रसिद्ध सूत्र है.. पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषुः।४।३।१०५॥ । इस सूत्र में पाणिनि ने ब्राह्मण-ग्रन्थों और कल्प-सूत्रों के दो - १. जैमिनि ने 'वेदांश्चैके संन्निकर्ष पुरुषाख्या' १।१।२७ के प्रकरण में वेद के अनित्यत्वदोष का ३१ वें सूत्र से समाधान करके द्वितीय पाद के प्रारम्भ में 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते' के प्रकरण में आम्नाय के अनित्यत्व दोष और उसके समाधान का निरूपण किया है । यदि २५ वोद और आम्नाय एक हो तो 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्' सूत्र में आम्नाय ग्रहण करना व्यर्थ होगा, क्यों कि वेद का प्रकरण अव्यवहित पूर्व विद्यमान है, और अनित्यत्वं दोष का समाधान भी पुनरुक्त होगा । विशेष, द्रष्टव्य, हमारी मीमांसाशाबर-भाष्य की प्रार्षमतविमर्शिनी, हिन्दी व्याख्या, भाग १ । ... तुलना करो+आम्नायः पुनर्मन्त्राश्च ब्राह्मणानि च । कौशिकसूत्र ११३ ॥ ३० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणशास्त्र-का इतिहास विभाग दर्शाये हैं।' एक पुराण-प्रोक्त, दूसरे अर्वाक्-प्रोक्त । इन दोनों विभागों के लिये कोई सीमा अवश्य निर्धारित करनी होगी। जो सीमा ब्राह्मण-ग्रन्थों को पुराण और नवीन विभा ग में बांटेगी, वही सीमा कल्प-सूत्रों के भी पुराण और नवीन विभाग करेगी । पाणिनि ५ के इस सूत्र से इतना स्पष्ट है कि अनेक कल्प-सूत्र नवीन ब्राह्मणों की अपेक्षा पुराण प्रोक्त है। ऐसी अवस्था में शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, कल्पसूत्र और आयूर्वेद की आर्ष-संहिताओं के प्रवचनकर्ता समान थे, और इनका एक काल में प्रवचन हुअा था, यही मानना होगा । अतएव १० पाश्चात्य विद्वानों की कालविभाग की कल्पना सर्वथा प्रमाणशून्य है। संस्कृत-भाषा का विकास पूर्व लिख चुके हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में वेद के आधार पर लौकिक-भाषा का विकास हमा। वह भाषा प्रारम्भ में अत्यन्त विस्तृत थी। वेद के वे समस्त शब्द जिन्हें सम्प्रति 'छान्दस' मानते हैं, उस १५ भाषा में साधारण रूप से प्रयुक्त थे, अर्थात् उस समय लौकिक-वैदिक पदों का भेद नहीं था। पाणिनि से प्राचीन वेद की शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक, कल्पसूत्र, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में शतशः शब्द ऐसे विद्यमान हैं जिन्हें पाणिनीय वैयाकरण छान्दस वा आर्ष मानकर १. तुलना करो-'तथा पुराणं ताण्डम्' । लाट्या० श्रौत ७।१०।१७ ॥ २० इस सूत्र में ताण्ड ब्राह्मण का पुराण विशेषण स्पष्ट करता है कि लाट्यायन श्रौत के प्रवचन काल में पुराण और नवीन दो प्रकार का ताण्ड ब्राह्मण था । २. भारतीय ऐति ह्यानुसार यह सीमा है कृष्ण द्वैपायन व्यास का काल । कृष्ण द्वैपायन व्यास के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त ब्राह्मण और कल्प नवीन माने जाते हैं और कृष्ण द्वैपायन से पूर्ववर्ती २७ व्यासों के द्वारा तथा ऐतरेय शाट्यायन आदि द्वारा प्रोक्त प्राचीन कहे जाते हैं । विशेष द्रष्टव्य, इसी ग्रन्थ का 'प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय' शीर्षक छठे अध्याय का 'प्रोक्त' प्रकरण । ३. भरत ने इसे प्रतिभाषा कहा है। द्र०-१७।२७, २८ ॥ प्रतीत होता है कि भरतमुनि के समय कुछ वैदिक पद लोक में अप्रयुक्त हो गये थे। ३० अतएव उसने लौकिक की भाषा की अपेक्षा 'प्रतिभाषा' कहा। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २५ साधु मानते हैं। महाभाष्यकार ने पाणिनीय सूत्रों में भी बहुत्र छान्दस कार्य माना है। निरुक्तकार यास्क मुनि ने स्पष्ट लिखा है-'कई लौकिक शब्दों की मूल प्रकृति धातु का प्रयोग वेद में ही उपलब्ध होता है। इसी प्रकार अनेक वैदिक शब्द विशुद्ध लौकिक धातु से निष्पन्न होते हैं।" इस संमिश्रण से स्पष्ट है कि जिन लौकिक शब्दों ५ की मूल-प्रकृति का प्रयोग केवल वेद में मिलता है, उनका प्रयोग भाषा में कभी अवश्य रहा था। अन्यथा वैदिक धातु से निष्पन्न शब्दों का प्रयोग लोक में कैसे हो सकता है ? और लौकिक धातुओं से वैदिक शब्दों की निष्पत्ति कैसे हो सकती है ? इतना ही नहीं प्राकृतभाषा में शतशः ऐसे प्रयोग विद्यमान हैं जिनकी रूपसाम्यता वैदिक १० माने जाने वाले शब्दों के साथ है। यदि उन वैदिक शब्दों का लोक में प्रयोग न माना जाय तो उनसे अपभ्रंश शब्दों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्यों कि अपभ्रंशों की उत्पत्ति लोकप्रयूक्त पदों के अज्ञानियों द्वारा किये गये अयथार्थ उच्चारण से भी होती है। इस से यह भी मानना होगा कि अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति का आरम्भ उस समय १५ हुआ, जब संस्कृत-भाषा में वैदिक-माने जाने वाले पदों का व्यवहार विद्यमान था। उस समय संस्कृत-भाषा इतनी संकुचित नहीं थी, जितनी सम्प्रति है । अतिपुरा काल में केवल दो भाषाएं थीं। मनु ने उन्हें पार्य। भाषा और म्लेच्छ-भाषा कहा है। हमारा विचार है कि अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति त्रेता युग के प्रारम्भ में हई । वाल्मीकि २० मुनि कृत प्राकृत व्याकरण का विद्यमान होना भी इसमें प्रमाण है। पं० बेचरदास जीवराज दोषी ने 'गुजराती भाषा नी उत्क्रान्ति' पुस्तक में पृष्ठ ५२-७४ तक प्राकृत और वैदिक पदों की तुलनात्मक कुछ सूचियां दी हैं। उन्होंने उनसे जो परिणाम निकाला है उससे यद्यपि हम सहमत नहीं, तथापि प्रकृत विचार के लिये उनका कुछ २५ १. अथापि भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगमाः कृतो भाष्यन्ते । दमूनाः क्षेत्रसाधा इति । अथापि नैगमेभ्यो भाषिकाः उष्णम्, घृतमिति । २।२॥ तुलना करोघरतिरस्मा अविशेषणोपदिष्टः । स घृतं घृणा धर्म इत्येवं विषयः । महाभाष्य ७।१।६६॥ २. पारम्पर्यादपभ्रंशो विगुणेष्वभिधातृषु । वाक्यपदीय १।१५४॥ ३. म्लेच्छावाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । १०।४५॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - ब्रह्म तुह्म देवेहि अंश उद्धृत करते हैं। उससे पाठक हमारे मन्तव्य को भले प्रकार समझ जायेंगे। लौकिक वैदिक लौकिक वैदिक प्राकृत हन्ति हनति हणइ अप्रगल्भ अपगल्भ अपगब्भ भिनत्ति भेदति भेदइ पत्या पतिना पइणा म्रियते मरति मरइ गवाम् गोनाम् गुन्नम् ददाति दाति दाइ अस्मभ्यम् अस्मे दधाति धाति धाइ। यूयम् युष्मे इच्छति इच्छते इच्छए त्रयाणाम् त्रीणाम् तिण्हम् १० ईष्टे ईशे ईसए देवैः देवेभिः । अमथ्नात् मथीत् मथीम नेतुम् [नेतवै] नेतवे अभूत् भूत भवीन इतरत् इतरं । इतरं लौकिक वैदिक संस्कृत प्राकृत सलोप- स्पृशन्य प्रशन्य स्पृहा पिहा १५ ह को ध- सह सध इह इध ऋ को र- ऋजिष्ठम् रजिष्ठम् ऋजु रजु अनुस्वारसे पूर्व ह्रस्व-युवां युवं देवानां देवानं संस्कृत-भाषा का ह्रास पूर्व लिखा जा चुका है कि संस्कृत-भाषा प्रारम्भ में अतिविस्तृत २० थी। संसार की समस्त विद्याओं के पारिभाषिक तथा सर्वव्यवहारो पयोगी शब्द इसमें वर्तमान थे। कोई भी ऐसा प्रयोग जिसे सम्प्रति छान्दस वा आर्ष माना जाता है इससे बाहर न था । सहस्रों वर्षों तक यह संसार की एकमात्र बोलचाल की भाषा रही । उस अतिविस्तृत मूल-भाषा में देश, काल और परिस्थिति की भिन्नता तथा आर्ष संस्कृति के केन्द्र से दूरता के कारण शनैः-शनैः परिवर्तन होने लगा, २५ उसी परिवर्तन से संसार की समस्त अपभ्रंश भाषानों को उत्पत्ति हुई। यद्यपि इस परिवर्तन को प्रारम्भ हुए सहस्रों वर्ष बीत गये, और उन अपभ्रंश भाषाओं में भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक परिवर्तन हो गया, तथापि संस्कृत-भाषा के साथ उनकी तुलना करने पर पार स्परिक प्रकृति विकृति भाव आज भी बहत स्पष्ट प्रतीत होता है। ३० इन अपभ्रंश भाषाओं के वर्तमान स्वरूप की अपेक्षा प्राचीन स्वरूप संस्कृत-भाषा के अधिक निकट था। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २७ यास्कीय निरुक्त और पातञ्जल महाभाष्य से विदित होता है कि इस अतिमहती संस्कृत-भाषा का प्रयोग विभिन्न देशों में बंटा हुआ था । यथा -आर्यावर्तदेशवासी गमन अर्थ में 'गम्लु' धातु का प्रयोग करते थे, सुराष्ट्रवासी 'हम्म" का, प्राच्य तथा मध्यदेशवासी 'रंह' का, और काम्बोज 'शव' का । पार्यों में 'शव' धातु के आख्यात का प्रयोग ५ नहीं होता । वे लोग उसके निष्पन्न केवल 'शव'कृदन्त शब्द का प्रयोग करते हैं। लवन काटना अर्थ में 'दा' धातु के 'दाति आदि आख्यात पदों का प्रयोग प्रारदेश में होता था, और ष्ट्रन्-प्रत्ययान्त 'दात्र' शब्द उदीच्य देश में बोला जाता था। आजकल भी पंजाबी भाषा में 'दात्र' के स्त्रीलिङ्ग 'दात्री' शब्द का व्यवहार होता है । अतएव यास्क १० ने निर्वचन के नियमों का उपसंहार करते हुये लिखा है-इस प्रकार देशभेद में बंटे हुये प्रयोगों को ध्यान में रखकर शब्दों का निर्वचन करना चाहिये। अर्थात् किसी देश में प्रयुक्त शब्द की व्युत्पत्ति उसी प्रदेश में प्रयुक्त असम्बद्ध धातु से करने की चेष्टा न करके देशान्तर में प्रयुक्त मूल धातु से करनी चाहिये । १५ ____इस लेख से यह सुस्पष्ट है कि संस्कृत-भाषा के विभिन्न शब्दों का प्रयोग विभिन्न देशों में बंटा हुआ था। पुनः उन देशों में ज्यों-ज्यों म्लेच्छता की वृद्धि होती गई, त्यों-त्यों वहां से संस्कृत-भाषा का लोप होता गया, और उन-उन देशों में प्रयुक्त संस्कृत भाषा के विशिष्ट प्रयोग लुप्त हो गये। इस प्रकार संस्कृत-भाषा के प्रचार-क्षेत्र के २० संकोच के साथ-साथ भाषा का भी महान् संकोच हो गया। यदि आज भी संसार की समस्त भाषाओं का इस दृष्टि से अध्ययन किया जाय, तो संस्कृत-भाषा के शतशः लुप्त प्रयोगों का पुनरुद्धार हो सकता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि भाषा के संकोच और विकार के इस सिद्धान्त से भले प्रकार विज्ञ था। वह लिखता है'सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते ।। १. पहम्मतीति पाठे हम्मतिः कम्बोजेषु प्रसिद्धः इति । गउडवाह टीका पृष्ठ २४५ । महाभाष्य से विरुद्ध होने के कारण टीकाकार का लेख अशुद्ध है। २. अथापि प्रकृतय एवैकेषु भाष्यन्ते, विकृतय एकेषु । शवतिर्गतिकर्मा कम्बो जेष्वेव भाष्यते ।.....विकारमस्यार्येषु भाषन्ते शव इति । दातिर्लवनार्थे ३० प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु । निरुक्त २।२॥ तथा पृष्ठ ११, टि० २ में महाभाष्य का उद्धरण। ३. एवमेकपदानि निबूं यात् । निरुक्त २।२॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महान् शब्दस्य प्रयोगविषयः। सप्तद्वीपा वसुमतो " । एतस्मिश्चातिमहति प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते ।' । यद्यपि महाभाष्यकार के समय में संस्कृत-भाषा का प्रचार समस्त भूमण्डल में नहीं था, तथापि वह पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध होने वाले शब्दों का प्रयोगक्षेत्र सप्तद्वीपा वसुमती लिखता है, और उनकी उपलब्धि के लिये प्रेरणा करता है । इससे स्पष्ट है कि वह अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से मानता है, और उनके द्वारा संस्कृत भाषा से लुप्त हुये प्रयोगों की उपलब्धि के लिये प्रेरणा करता है । १० सम्भवतः महाभाष्यकार के उक्त वचन के अनुसार भट्र कुमारिल ब्याकरण-शास्त्र के साहाय्य से लोक में उत्पन्न हई मूल शब्दराशि के परिज्ञान की प्रेरणा देता है। वह लिखता है-'यावांश्चाकृतको विनष्टः शब्दराशिस्तस्य व्याकरणमेवैकमुपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च। तन्त्रवात्तिक १।३।१२, पृ० २३६ (पूना संस्क० शावरभाष्य १५ भाग १)। अतः संस्कृत-भाषा से शब्दों का लोप तथा भाषा का संकोच किस प्रकार हुआ, इसका व्याकरण शास्त्र के आधार पर अतिसंक्षिप्त सप्रमाण निदर्शन आगे कराते हैं १. भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तमदेव ने ६।१७७ की वृत्ति में एक २० वात्तिक लिखा है- 'इकां यभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्त व्यम्' । तदनुसार व्याडि और गालव प्राचार्यों के मत में 'दध्यत्र' मध्वत्र' प्रयोग विषय में 'दधियत्र मधुवत्र' प्रयोग भी होते थे। पुरुषोत्तमदेव से प्राचीन जैनेन्द्र व्याकरण के व्याख्याता अभयनन्दी ने 'संग्रह' के नाम से इस मत का उल्लेख किया है। हेमचन्द्र ने स्वोपज्ञ १. महाभाष्य । अ० १ । पा० १ । अ० १ ॥ २. इको यभिर्व्यवधानमेकेषामिति संग्रहः । जैनेन्द्र महावृत्ति ।।२॥१॥ पं० क्षितीशचन्द्र चटर्जी ने 'टेकनीकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' के पृष्ठ ७१ के टिप्पण में निम्न पाठ उद्धृत किया है 'भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यभिर्वायुवम्बर३० योरिव' ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २६ बृहद्वृत्ति' और पाल्यकीति ने स्वोपज्ञ अमोघावृत्ति' में यण-व्यवधान पक्ष का निर्देश किया है। अतः यण-व्यवधान पक्ष में 'दधियत्र मधुवत्र' आदि प्रयोग भी कभी लोक में प्रयुक्त होते थे, यह निर्विवाद है। तैत्तिरीय आदि शाखाओं में इस प्रकार के कुछ प्रयोग उपलब्ध होते हैं। बौधायन गृह्य में 'व्यहे' के स्थान में 'त्रियहे' का प्रयोग मिलता ५ है । कैवल्य उपनिषद् १।१२ में 'स्त्रीयनपानादि विचित्रभौगैः' प्रयोग में यण्व्यवधान देखा जाता है। प्रतीत होता है कालान्तर में लोकभाषा में से यण्व्यवधान वाले प्रयोगों का लोप हो जाने से पाणिनि ने यण्व्यवधान पक्ष का साक्षात् निर्देश नहीं किया, परन्तु 'भूवादयो धातवः" सूत्र में वकार-व्यवधान का प्रयोग करते हुये यण्व्यवधान १० पक्ष को स्वीकार अवश्य किया है। कात्यायन ने यण्व्यवधान वाले प्रयोगों का लोक में प्रायः प्रभाव देख कर तादृश वैदिक प्रयोगों का साधुत्व दर्शाने के लिये 'इयङादिप्रकरणे तन्वादीनां छन्द से बहुलम् वात्तिक बनाया, और उनमें इयङ उवङ की कल्पना की। परन्तु 'भवादयः' पद की निष्पति नहीं हुई। १५ अतः महाभाष्यकार को यहां अन्य क्लिष्ट-कल्पनाएं करनी पड़ी। ___१. केचित्त्ववर्णादिभ्यः परान् यरलवानिच्छन्ति । दधियत्र, तिरियङ, मधुवत्र, भूवादयः । हैम व्याकरण १।२।२१॥ २. शाकटायन व्या० १।१७३॥ लघुवृत्ति—'इको यभिर्व्यवधानमित्येके ।' पृ० २३ । 'इको यभिर्व्यवधानमित्येके । दधियत्र मधुवत्र ।' अमोघावृत्ति २० पृ० १५ । ३. जैमिनि ब्राह्मण १।११२ का पाठ है-'प्राण इति द्वे अक्षरे, अपान इति त्रीणि, व्यान इति त्रीणि, तदष्टौ संपद्यन्ते' । यहां मुद्रित पाठ 'व्यान' अशुद्ध है 'वियान' चाहिये । 'वियान' पाठ होने पर ही तीन अक्षर बनते हैं। ४. त्रियहे पर्यवेतेऽथ । बौ० गृह्य शेष ५॥२॥ पृष्ठ ३६२ । ५. स्त्रियन्नपानादि० पाठान्तर । इसमें इयङ हुआ है । ६. अष्टा० १।३।१॥ ७. महाभाष्य ६।४।७७॥ ८. भूवादीनां वकारोऽयं मङ्गलार्थः प्रयुज्यते । महाभाष्य १॥३॥१॥ अभयनन्दी ने पूर्वोक्त (प० २८,टि०२) संग्रह का वचन उद्धृत करके 'मङ्गलार्थः, ३० के स्थान में 'लक्षणार्थः' पढ़ा है । जैनेन्द्र व्या० महावृत्ति ११२॥१॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २. 'न्यङ कु" शब्द से विकार वा अवयव अर्थ में 'अन' प्रत्यय करने पर पाणिनि के मत में "नैयङ्कवम्' प्रयोग होता है,परन्तु आपिशलि के मत में 'न्याङ्कवम्' बनता है। वस्तुतः इन दोनों तद्धितप्रत्ययान्त प्रयोगों की मूल-प्रकृति एक न्यङ कु शब्द नहीं हो सकता। न्यङ कु शब्द 'नि+अङ्कु' से बना है। पूर्व-प्रदर्शित नियम के अनुसार सन्धि होकर न्यङ कु और नियङ कु ये दो रूप बनेंगे । अतः नियकु से 'नयङ कवम्' और न्यङ कु से 'न्याङ्कवम्' प्रयोग उपपन्न होंगे । अर्थात् दोनों तद्धित-प्रत्ययान्तों को दो विभिन्न प्रकृतियां किसी समय भाषा में विद्यमान थीं । उनमें से यण्व्यवधान वाली 'नियङ कु' १० प्रकृति का भाषा से उच्छेद हो जाने पर उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने दोनों तद्धितप्रत्ययान्तों का सम्बन्ध एक न्यङ कु शब्द से जोड़ दिया। पाणिनि ने पदान्तस्यान्यतरस्याम् (७।३।६) सूत्र द्वारा 'श्वापदम् शौवापदम् जो दो रूप दर्शाये हैं, उनकी भी यही गति समझनी चाहिये। १५ ३. गोपथ ब्राह्मण २।१।२५ 'त्रयम्बक' पद का प्रयोग मिलता है। वैयाकरण इसकी निष्पत्ति 'त्र्यम्बक' शब्द से मानते हैं। यहां भी 'त्रि+अम्बक' में पूर्वोक्त नियमानुसार सन्धि होने से 'त्रियम्बक' और 'त्र्यम्बक' दो शब्द निष्पन्न होते हैं। अतः त्रयम्बक पद की निष्पत्ति 'त्रियम्बक' शब्द से माननी चाहिये । महाभाष्यकार ने १. कुरङ्गसदृशो विकटबहुविषाणः [मृगविशेषः] । अष्टाङ्गहृदय, हेमाद्रिटीका सूत्रस्थान ३॥५०॥ . २. आपिशलिस्तु-न्यङ्कोच्भावं शास्ति, न्याङ्कवं चर्म । उज्ज्व. उणादिवृत्ति पृष्ठ ११ । तुलना करो-न्याङ्कवमिति स्मृत्यन्तरे प्रतिषेध प्रारभ्यते न्याङ्कवमिति । भर्तृहरि, महाभाष्यदीपिका,पृष्ठ १०० (पूना संस्क०) । न्यङ्को२५ स्तु पूर्वे अकृतैजागमस्याभ्युदयाङ्गतां स्मरन्ति । यथाहुः-न्यको: प्रतिषेधान्न्या ङ्कवम् इति । वाक्यपदीय वृषभदेव टीका पृ० ५५ । न्यङ्कोर्वेति केचित्, न्याङ्कवम, नैयङ्कवम् । प्रक्रिया-कौमुदी भाग १, पृ० ८१५ । प्रक्रियासर्वस्य तद्धित प्रकरण, सूत्र ४५२, मद्रास संस्क०, पृ० ७२ । देखो-सरस्वतीकण्ठाभरण का ३० 'न्यकोश्च' (७।१।२३) सूत्र । ३. नावञ्चेः । पञ्चपादी उणादि १।१७; दशपादी उणादि १३१०२।। ४. न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच् । अष्टा० ७।३।३॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३१ 'इयडादिप्रकरणे तन्वादीनां छन्दसि बहुलम्" वात्तिक पर निम्न वैदिक उदाहरण दिये हैं तन्वं पुषेम, तनुवं पुषेन । विध्वं पश्य, विषुवं पश्य । स्वर्ग लोकम् सुवर्ग लोकम् । त्र्यम्बकं यजामहे, त्रियम्बकं यजामहे । ___महाभाष्यकार ने यहाँ स्पष्टतया त्र्यम्बक और त्रियम्बक दोनों ५ पदों का पृथक्-पृथक् प्रयोग दर्शाया है । वैदिक-वाङ मय के उपलभ्यमान ग्रन्थों में कठ कपिष्ठल संहिता और बौधायन गह्यसूत्र' में त्रियम्बक पद का प्रयोग मिलता है। महाभारत में भी त्रियम्बक पद का प्रयोग उपलब्ध होता है। कालिदास ने कुमारसम्भव में त्रियम्बक और त्र्यम्बक दोनों पदों का प्रयोग किया है । शिवपुराण ६।४।७७ १० में भी त्रियम्बक पद प्रयुक्त है। इस प्रकार वैदिक तथा लौकिक उभयविध वाङमय में 'त्रियम्बक' पद का निर्वाध प्रयोग उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि 'त्रयम्बक' की मूल प्रकृति 'त्रियम्बक' है, त्र्यम्बक नहीं। ___ इसी प्रकार पाणिनीय गणपाठ ७।३।४ में पठित 'स्वर' शब्द के १५ उदाहरण काशिकावृत्ति में 'स्वर्भवः सौवः । अव्ययानां भमात्रे टिलोपः । स्वर्गमनमाह सौवर्गमनिकः' दिये हैं। तैतिरीय संहिता में 'स्वर' के स्थान में सर्वत्र 'सुवर्' शब्द का प्रयोग मिलता है, अतः १. महाभाष्य ६।४।७७॥ २. अव देवं त्रियम्बकम्, त्रियम्बकं यजामहे । कठ-कपिष्ठल ७।१०। सम्पा- २० दक ने हस्तलेख में विद्यमान मूल शुद्ध 'त्रियम्बक' पाठ को साधारण व्याकरण के नियमानुसार बदलकर 'त्र्यम्बक' छापा है । देखो पृष्ठ ८७, टि. १,३ ३. बौ० गृह्यशेष सूत्र ३।११, पृ० २६६ । . ४. येम देवस्त्रियम्बकः । शान्तिपर्व ६६।३३।। कुम्भघोण संस्करण । त्रियम्बको विश्वरूपः । सभापर्व १०।२१। पूना संस्करण । २५ ५. त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श ।३।४४।। व्यकीर्यत त्र्यम्बकपादमूले ।३।६१।। कुमारसंभव ३।४४ पर अरुणगिरिनाथ लिखता है—'छन्दोविचितिकारैः इयङ उवङ् आदेशस्योक्तत्वात्' । नारायण ने इस पद पर 'त्रियम्बकं नान्यमुपास्थितासौ-इति भर्तृहरिप्रयोगात्' पाठ उद्धृत किया है। ६. पञ्चवक्त्रास्त्रियम्बकाः । रसार्णव तन्त्र २६०॥ 30 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'सौवः " का सम्बन्ध 'सुवर्' और 'सौवर्गमनिकः' का 'सुवर्गमन' से से मानना अधिक युक्त है । 1 हमारा विचार है पाणिनीय व्याकरण में जहां-जहां ऐच् श्रागम का विधान किया है, वहां सर्वत्र इस प्रकार की उपपत्ति हो सकती ५ है । हमारे इस विचार का पोषक एक प्राचीन वचन भी उपलब्ध होता है । भगवान् पतञ्जलि ने महाभाष्य १।४।२ में पूर्वाचार्यों का एक सूत्र उद्धृत किया है - 'वोरचि वृद्धिप्रसङ्गे इयुवौ भवतः । इसका अभिप्राय यह है कि पूर्वाचार्य 'वि + प्रकरण + श्रण्' और ' सु + श्रश्व + अण्' इस अवस्था में वृद्धि की प्राप्ति में यणादेश को १० बाधकर 'इय' 'उव्' प्रदेश करते थे । अर्थात् वृद्धि करने से पूर्व 'वियाकरण' और 'सुवश्व' प्रकृति बना लेते थे, और तत्पश्चात् वृद्धि करते थे । प्रतीत होता है जब यण्व्यवधान वाले पदों का भाषा से उच्छेद हो गया, तब वैयाकरणों ने उन से निष्पन्न तद्धित प्रत्ययान्त प्रयोगों १५ का सम्बन्ध तत्समानार्थक यणादेश वाले शब्दान्तरों के साथ कर दिया । ४. पाणिनि ने प्राचीन परम्परा के अनुसार एक सूत्र पढ़ा है'लोहितादिडाज्भ्यः क्यष् । तदनुसार 'लोहितादिगणपठित' 'नील हरित' आदि शब्दों से 'वा क्यषः '' सूत्र से नीलायति, नीलायते; हरि२० तायति, हरितायते दो-दो प्रयोग बनते हैं । लोहितादि० सूत्र पर वार्तिक कार कात्यायन ने लिखा है - लोहितडाज्भ्यः क्यञ् वचनम्, भृशादिवितराणि' । अर्थात् लोहितादिगणपठित शब्दों में से केवल लोहित शब्द से क्यष् कहना चाहिये, शेष नील हरित आदि शब्द् भृशादिगण में पढ़ने चाहियें । २५ भृशादिगण में पढ़ने से नील लोहित आदि से क्यङ् प्रत्यय होकर केवल 'नीलायते लोहितायते' एक-एक रूप ही निष्पन्न होगा । प्रतीत होता है पाणिनि ने प्राचीन व्याकरणों के अनुसार नील हरित प्रादि १. तस्य श्रोत्रं सौवम् । शत० ८ | १ | २|५|| ३. अष्टा० १|३|१०|| २. अष्टा० ३|१|१३॥ ४. अधिक सम्भव है यह महाभाष्यकार का वचन हो । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास शन्दों के दो-दो प्रकार के प्रयोगों का साधुत्व दर्शाया था, परन्तु वात्तिककार' के समय इनके परस्मैपद के प्रयोग नष्ट हो गये थे। अत एव उसने लोहितादिगण में नील लोहित आदि शब्दों का पाठ व्यर्थ समझकर भृशादि में पढ़ने का अनुरोध किया। यदि ऐसा न माना जाय, तो पाणिनि का लोहितादिगण का पाठ प्रमादपाठ होगा। ५ ५. महाभाष्य में अनेक स्थानों पर 'अविरविकन्याय' का उल्लेख करते हुये लिखा है-'अवेर्मासम्' इस विग्रह में अवि शब्द से तद्धितोत्पत्ति न होकर 'अविक' शब्द से तद्धित-प्रत्यय होता है, और 'आविक' प्रयोग बनता है। यहां स्पष्ट प्राविक की मूल प्रकृति अविक मानी है। परन्तु वैयाकरण उसका विग्रह 'अविकस्य मांसम्' नहीं करते, १० 'अवेमीसम्' ऐसा ही करते हैं । यदि इसके मूल कारण पर ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट होगा कि लोक में प्राविक की मूल प्रकृति अविक का प्रयोग न रहने पर उसका विग्रह'अविकस्य मांसम्' करना छोड़ दिया, और अवि शब्द से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया। स्त्रीलिङ्ग 'अविका' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद १११२६७;अथर्व २०११२६।१७ और ऋग्वेद १५ खिल ५।१५।५ में मिलता है । अतः ‘अविक' शब्द की सत्ता में कोई सन्देह नहीं हो सकता। ६. 'कानीन' पद की सिद्धि के लिये पाणिनि ने सूत्र रचा हैकन्यायाः कनीन च। इसका अर्थ है-कन्या से अपत्य अर्थ में अण प्रत्यय होता है, और कन्या को कनीन आदेश हो जाता है । वेद में बालक अर्थ में 'कनीन' शब्द का प्रयोग असकृत् उपलब्ध होता है। अवेस्ता में कन्या अर्थ में कनीना का अपभ्रंश 'कइनीन' का प्रयोग मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि जिस प्रकार 'शवति' मूल प्रकृति का आर्यावर्तीय भाषा में प्रयोग न होने पर भी उससे निष्पन्न १. भाष्यवचन पक्ष में पतञ्जलि के समय । २. तत्र द्वयोः शब्दयोः समानार्थयोरेकेन विग्रहोऽपरस्मादुत्पत्तिर्भविष्यत्यविरविकन्यायेन । तद्यथा—प्रवेमौसमिति विगृह्य अविकशब्दादुत्पत्तिर्भवति आविकमिति । ४।१।१८; ४।२।६०; ४।२।१३१; ५।१।७, २८ इत्यादि । ३. अष्टा० ४।१।११६॥ ४. द्र० पूर्व पृष्ठ १२, टि. ॥ ५. द्र० पूर्व पृष्ठ १२, टि० ३। । ३० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'शव' शब्द का प्रयोग यहां की भाषा में उपलब्ध होता है, उसी प्रकार कानीन की मूल प्रकृति कनीना का प्रयोग भी आर्यावर्तीय भाषा में न रहा हो, किन्तु उससे निष्पन्न कानीन का व्यवहार आर्यावर्तीय संस्कृत-भाषा में होता है । अवेस्ता में 'कइनीन' का व्यवहार बता रहा है कि ईरानियों की प्राचीन भाषा में 'कनीना' पद का प्रयोग होता था । पाणिनि-प्रभृति वैयाकरणों ने भारतीय-भाषा में कनीना का व्यवहार न होने से उससे निष्पन्न कानीन का सम्बन्ध तत्समानार्थक कन्या शब्द से जोड़ दिया । तदनुसार उत्तरकालीन वैयाकरण कानीन का विग्रह 'कनीनाया अपत्यम्' न करके 'कन्याया अपत्यम्' करने लगे, और कानीन की मूल प्रकृति कनीना को सर्वथा भूल गये। इस विवेचन से स्पष्ट है कि कानीन की वास्तविक मूल प्रकृति कनीना है, कन्या नहीं। ७. निरुक्त ६।२८ में लिखा है-'धामानि त्रयाणि' भवन्ति । स्थानानि, नामानि, जन्मानीति । अनेक वैयाकरण निरुक्तकार के १५ 'त्रयाणि' पद को असाधु मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है । 'त्रि' शब्द का समानार्थक 'त्रय' स्वतन्त्र शब्द है। वैदिक ग्रन्थों में इसका प्रयोग बहधा मिलता है। सांख्य दर्शन ५।११८ में भी इस का प्रयोग उपलब्ध होता है। लौकिक-संस्कृत में त्रि शब्द के षष्ठी के बहुवचन में 'त्रयाणाम्' प्रयोग होता है। पाणिनि ने त्रय आदेश का विधान २० किया है। वेद में 'त्रीणाम्' 'त्रयाणाम्' दोनों प्रयोग होते हैं। इनमें स्पष्टतया 'त्रीणाम्' त्रि शब्द के षष्ठी विभक्ति का बहुवचन है, और १. द्र० पूर्व पृष्ठ ११ । २. तुलना करो—'ब्रह्मणो नामानि त्रयाणि' । स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत उणादिकोष १११३२॥ ३. हेमचन्द्र ने उणादि ३६७ में अकारान्त 'त्रय' शब्द का साधुत्व दर्शाया २५ ४. ऋग्वेद १०।४५।२; यजुर्वेद १२।१६; २०११; ऋ० ६।२७ में प्रयुक्त 'त्रययाय्यः' में भी पूर्वपद 'त्रय' अकारान्त है । ५. द्वयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वात् । ६. स्त्रयः । अष्टा० ७११५३।। ७. काशिका ७११५३।। त्रीणामित्यपि भवति । ३० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३५ 'त्रयाणाम्' त्रय शब्द का । त्रि और त्रय दोनों समानार्थक हैं। प्रतीत होता है कि त्रि शब्द के षष्ठी के बहुवचन 'त्रीणाम्' का प्रयोग लोक में लुप्त हो गया, उसके स्थान में तत्समानार्थक त्रय का 'त्रयाणाम्' प्रयोग व्यवहृत होने लगा, और त्रय की अन्य विभक्तियों के प्रयोग नष्ट हो गये संस्कृत से लुप्त हुए 'त्रीणाम्' पद का अपभ्रंश 'तिहम्' ५ प्राकृत में प्रयुक्त होता है । भाषा में 'तीन्हों का प्रयोग में 'तीन्हों' प्राकृत के 'तिण्हम्' का अपभ्रंश है। ८. पाणिनि ने षष्ठयन्त से तृच् और अक प्रत्ययान्त के समास का निषेध किया है। परन्तु स्वयं 'जनिकर्तुः प्रकृतिः२; 'तत्प्रयोजको हेतुश्च आदि में समास का प्रयोग किया है। इस विषय में दो १० कल्पनाएं हो सकती हैं। प्रथम-पाणिनि ने सूत्रों में जो तृच और अक प्रत्ययान्त के समास का प्रयोग किया है, वह अशुद्ध है। दूसरातच और अक प्रत्ययान्त का षष्ठ्यन्त के साथ समास ठीक है, परन्तु पाणिनि ने अल्प प्रयोग होने से उस का समास-पक्ष नहीं दर्शाया। इनमें द्वितीय पक्ष ही युक्त हो सकता है। क्योंकि पाणिनीय सूत्र में १५ अनेक ऐसे प्रयोग हैं, जो पाणिनीय शब्दानुशासन से सिद्ध नहीं होते ।। पाणिनि जैसा शब्दशास्त्र का प्रामाणिक प्राचार्य अपशब्दों का प्रयोग करेगा, यह कल्पना उपपन्न नहीं हो सकती। वस्तुतः ऐसे शब्द प्राचीन-भाषा में प्रयुक्त थे । रामायण महाभारत आदि में तृच् और १. काशिका २२२॥१६॥ २. अष्टा० ११४॥३०॥ २० ३. अष्टा० ११४।५५॥ ४. देखो-भामह का अलङ्कार ३१३६, ३७।। कात्यायन भी ३।१।२६ के 'स्वतन्त्रप्रयोजकत्वात्' इत्यादि वात्तिक में समस्त निर्देश करता है। ५. सूत्रवात्तिकभाष्येषु दृश्यते चापशब्दनम् ...."। तन्त्रवार्तिक, शाबरभाष्य, पूनो संस्करण भाग १, पृष्ठ २६० । सर्वदर्शनसंग्रह में पाणिनि-दर्शन में २५ लिखा है—'लोक में समास हो जाता है, परन्तु निषेध वैदिक प्रयोगों के लिये स्वरविशेष के कारण किया है। ६. यथा—पुराण ४१३।१०५, सर्वनाम १११।१७, ग्रन्थवाची-ब्राह्मण शब्द ४।३।१०५, इत्यादि । वैयाकरण इन्हें निपातन (पाणिनीय-व्यवहार) से साधु मानते हैं । यदि ये प्रयोग साधु हैं, तो पाणिनि के, तिर्यचि' (३।४।६०) ३० 'अन्वचि' (३।४।६४) आदि प्रयोग साधु लोक-व्यवहार्य क्यों नहीं ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास अक प्रत्ययान्तों के साथ षष्ठी का समास प्रायः देखा जाता है। अष्टाध्यायी में अनेक प्रापवादिक नियम छोड़ दिये गये हैं। अतएव महाभाष्यकार ने लिखा है-'नैकमुदाहरणं योगारम्भं प्रयोजयति' ।" ६. पाणिनीय व्याकरणानुसार 'वध' धातु का प्रयोग आशिषि । ५ लिङ, लुङ, और क्वन् प्रत्यय के अतिरिक्त नहीं होता। नागेश महाभाष्य २।४।४३ के विवरण में स्वतन्त्र 'वध' धातु की सत्ता का प्रतिषेध करता है। परन्तु वैशेषिक दर्शन में 'वधति और आप. स्तम्ब यज्ञपरिभाषा में 'वध्यन्ते प्रयोग उपलब्ध होता है। काशिका ७।३।३५ में वामन स्वतन्त्र 'वध' धातु की सत्ता स्वीकार करता है।' हैम-न्यायसंग्रह की स्वोपज्ञ टीका में हेमहंसगणि 'वध' धातु का निर्देश करता है। इससे स्पष्ट है कि कभी अतिप्राचीन काल में 'वध' धातु के प्रयोग सब लकारों तथा सब प्रक्रियाओं में होते थे। १. महाभाष्य ७।१९६॥ तुलना करो- 'नकं प्रयोजनं योगारम्भं प्रयोज. यति' । महाभाष्य १११।१२, ४१; ३।११६७॥ भर्तृहरि ने लिखा है- 'संज्ञा १५ और परिभाषा सूत्र एक प्रयोजन के लिये नहीं बनाये जाते, प्रयोगसाधक सूत्र एक प्रयोजन के लिये भी रचे जाते हैं' (भाष्यटीका १११४१) । यह कथन सर्वांश में ठीक नहीं । महाभाष्य ७।११६६ के उपर्युक्त पाठ से स्पष्ट है किएक उदाहरण के लिये प्रयोगसाधक सूत्र रचा ही जावे, यह आवश्यक महीं है । तुलना करो—'नकमुदाहरणं ह्रस्वग्रहणं प्रयोजयति' । महाभाष्य ६।४।३ तथा २० 'नकमुदाहरणमसवर्णग्रहणं प्रयोजयति । महा० ६।१।१२॥ नव्य व्याख्याकार "नकमुदाहरणं सामान्यसूत्रं प्रयोजयति, यथा 'अग्नेढ क्' (४।२।३३) स्थाने न 'इकारान्ताढक्' इत्येवं पठ्यते" ऐसा कहते हैं। २. हनो वध लिङि, लुङि च, आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् । अष्टा० २।४।४२, ४३,४४॥ ३. हनो वध च । उणा० २।३८॥ २५ ४. स्वतन्त्रो वधधातुस्तु नास्त्येव ॥ ५. न द्रव्यं कार्य कारणं च वधति ।१।१।१२॥ ६. प्रकरणेन विधयो वध्यन्ते । १।२।२७॥ तुलना करो—'वध्यते यास्तु वाहयन्' मनु० ३।६८॥ ७. वधि. प्रकृत्यन्तरं व्यञ्जनान्तोऽस्ति । तुलना करो-'वधिः प्रकृत्यन्त३० रम् ।' जैन शाकटायन अमोधावृत्ति तथा लघुवृत्ति ४।२।१२२॥ ८. वघ हिंसायाम् । वधति । पृष्ठ १४३ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३७ १०: भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ १।१।२७ में लिखा हैचाक्रवर्मण प्राचार्य के मत में 'द्वय' शब्द की सर्वनाम संज्ञा होती थी।' तदनुसार 'द्वये, द्वयस्मै, द्वयस्मात, द्वयेषाम, द्वयस्मिन्' प्रयोग भी साधु थे। परन्तु पाणिनि के व्याकरणानुसार 'द्वय' शब्द की केवल प्रथमा विभक्ति के बहवचन में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है। माघ ५ कवि ने शिशुपालवध में 'द्वयेषाम्' पद का प्रयोग किया। ११. प्राकृत-भाषा में देव आदि अकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्द के तृतीया विभक्ति के बहवचन में 'देवेहि' आदि प्रयोग होते हैं। अर्थात् 'भिस्' को 'ऐस्' नहीं होता । प्राकृत के नियमानुसार 'भिस्' के भकार को हकार होता है, और सकार का लोप हो जाता है। १० अपभ्रंश शब्दों की उत्पत्ति लोक-प्रयुक्त शब्दों से होती है, अतः प्राकृत के 'देवेहि' आदि प्रयोगों से सिद्ध है कि कभी लौकिक-संस्कृत में 'देवेभिः' आदि शब्दों का प्रयोग होता था, वेद में 'देवेभिः' 'कर्णभिः' आदि प्रयोग प्रसिद्ध हैं । पाणिनीय व्याकरणानुसार लोक में 'देवेभिः' आदि प्रयोग नहीं बनते । कातन्त्र व्याकरण केवल लौकिक-भाषा का १५ व्याकरण है, परन्तु उसमें 'भिस् ऐस् वा' सूत्र उपलब्ध होता है। १. 'यत्त कश्चिदाह चाक्रवर्मणव्याकरणे द्वयपदस्यापि सर्वनामताभ्युपगमात्' । भट्टोजि दीक्षित चाक्रवर्मण के मत का निर्देश करके भी उसके मत का निराकरण करता है। नवीन वैयाकरणों का 'यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' मत व्याकरण-शास्त्र-विरुद्ध है । क्वचित् मतभेद से दो प्रकार के रूप निष्पन्न होने पर २० दोनों ही प्रयोगार्ह स्वीकृत होते हैं । महाभाष्यकार ने लिखा है-'इहान्ये वैयाकरणा मृजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्ते, तदिहापि साध्यम्' (१।१।३) । पाणिनि के मतानुसार 'मृजन्ति' रूप ही होना चाहिये । परन्तु भाष्यकार ने यहां अन्य वैयाकरणों द्वारा निर्दिष्ट रूपान्तरों को भी 'साध्य' कहा है। अतः 'यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' मत सर्वथा चिन्त्य है। २५ २. अष्टा० १।१।३।३। ३. व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम् ।१२।१३॥ हेमचन्द्र इसे अपपाठ मानता है । देखो हैमव्या० बृहद्वृत्ति पृष्ठ ७४ । ४. भिसो हि । वाररुच प्राकृतप्रकाश ५।५॥ यथा—सिद्धेहि णाणाविधेह, हिङगुविद्धेहि इत्यादि । भासनाटकचक्र पृष्ठ १६५ ।। पालि में 'देवेहि देवेभि' ३० दोनों प्रयोग होते हैं। ५. २।१।१८॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इसके अनुसार लोक में 'बेवेभिः, देवैः' आदि दोनों प्रकार के प्रयोग सिद्ध होते हैं । बौधायन धर्मसूत्र ३।२।१६ में एक प्राचीन श्लोक उद्धत है। उस में 'तेभिः' और 'तः' दोनों पद एक साथ प्रयुक्त हैं।' कातन्त्र के टीकाकारों ने इस बात को न समझ कर 'भिस् ऐस् वा' ५ सूत्र के अर्थ में जो क्लिष्ट कल्पना की है, वह चिन्त्य है। कातन्त्र व्याकरण काशकृत्स्न व्याकरण का संक्षिप्त संस्करण है, यह हम आगे कातन्त्र के प्रकरण में सप्रमाण दर्शाएंगे। अतः उस में कुछ प्राचीन अंश का विद्यमान रहना स्वभाविक है। वस्तुतः ऐस्त्व का विकल्प मानना ही युक्त है। इसी से महाभारत (आदि० १२६।२३) तथा १० आयुर्वेदीय चरक संहिता का इमैः प्रयोग उपपन्न हो जाता है । १२. कातन्त्र व्याकरण के 'अर् डौ' सूत्र की वृत्ति में दुर्गसिंह लिखता है-योगविभागात् पितरस्तर्पयामः । अर्थात् –'अर्' का योगविभाग करने से शस् परे रहने पर ऋकारान्त शब्द को 'अर' आदेश होता है । यथा-पितरस्तर्पयामः । वैदिक ग्रन्थों में ऐसे प्रयोग बहुधा १५ उपलब्ध होते हैं, परन्तु लौकिक-भाषा के व्याकरणानुसार ऐसे प्रयोगों का साधुत्व दर्शाना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दुर्गसिंह ने अवश्य यह बात प्राचीन-वृत्तियों से ली होगी। पालि में द्वितीया के बहुवचन में 'पितरो, पितरे' रूप भी होते हैं । ये प्रयोग कातन्त्र निर्दिष्ट मत को सुदृढ़ करते हैं। १३. पाणिनि जिन प्रयोगों को केवल छान्दस मानता है उन के लिये सूत्र में 'छन्दसि, निगमे' आदि शब्दों का प्रयोग करता है। अतः जिन सूत्रों में पाणिनि ने विशेष निर्देश नहीं किया, उन से निष्पन्न शब्द अवश्य लोक-भाषा में प्रयुक्त थे, ऐसा मानना होगा । पाणिनि अपनी अष्टाध्यायी में चार सूत्र पढ़ता है अर्वणस्त्रसावनञः। मघवा बहुलम् । दीधीवेवीटाम् । इन्धिभवतिभ्यां च। १. मृगैः सह परिस्पन्दः संवासस्तेभिरेव च । तैरेव सदृशी वृत्तिः प्रत्यक्ष स्वर्गलक्षणम् ॥ २. दीर्घकालस्थितं ग्रन्थि भिन्द्याद्वा भेषजैरिमैः । चिकित्सा २१११२७॥ ३० नेदमदसोरकोः (७।१।११) नियम का अपवाद। ३. २।११६६॥ ४. अष्टा० ६।४।१२७॥ ५. अष्टा० ६।४।१२८॥ ६. अष्टा० १॥१६॥ ७. अष्टा० १।२।६॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३६ प्रथम दो सूत्रों सेः 'अर्वन्तौ, अर्वन्तः; मघवन्तौ, मघवन्तः' आदि प्रयोग निष्पन्न होते हैं। पतञ्जलि इन सूत्रों को छान्दस मानता है।' कातन्त्र-व्याकरण में उपर्युक्त प्रयोगों के साधक, अर्वन्नर्वन्तिरसावनन्, सौ च मघवान् मघवा' सूत्र उपलब्ध होते हैं । कातन्त्र केवल लौकिक-संस्कृत का व्याकरण है, और वह भी अत्यन्त संक्षिप्त । अतः ५ उस में इन सूत्रों के विद्यमान होने और पाणिनीय सूत्रों में 'छन्दसि' पद का प्रयोग न होने से स्पष्ट है कि 'अर्वन्तौ' आदि प्रयोग कभी लौकिक-संस्कृत में विद्यमान थे । अतएव कातन्त्र की वृत्तिटीका में दुर्गसिंह लिखता है___ छन्दस्यतौ योगाविति भाष्यकारो भाषते । शर्ववर्मणो वचनाद् १० भाषायामप्यवसीयते। तथा च-मघवद्ववलज्जानिदाने श्लथीकृतप्रग्रहमर्वतां व्रज इति दृश्यते । अर्थात्-महाभाष्यकार इन सूत्रों को छान्दस मानता है, परन्तु शर्ववर्मा के वचन से इन शब्दों का प्रयोग भाषा में भी निश्चित होता है । जैसा कि 'मघवद्' आदि श्लोक में इन का प्रयोग उपलब्ध होता १५ __ पाणिनि के अन्तिम दो सूज्ञों में दीधीङ, वेवीङ और इन्धी धातुओं का निर्देश है । महाभाष्यकार इन्हें छान्दस मानता है ।' कातन्त्र के 'दीधीवेव्योश्च, परोक्षायामिन्धिश्रन्थिग्रन्थिदम्भीनामगुणे" ___ १. अर्वणस्तृ मघोनश्च न शिष्यं छान्दसं हि तत् । महाभाष्य ६।४।१२७, २० १२८ ॥ २. कातन्त्र २।३।२२॥ ३. कातन्त्र २।३।२३॥ ४. कातन्त्रवृत्ति परिशिष्ट, पृ० ४६३ । भाषावृत्ति ६।४।१२८ में उपरि निर्दिष्ट उद्धरणों का पाठ इस प्रकार है -कथं 'श्लथीकृतप्रग्रहमर्वतां व्रजम्' इति माघः, 'मघवद्वज्रलज्जानिदानम्' इति व्योषः ? ५. दीघीवेव्योश्छन्दोविषयत्वात् । महाभाष्य १।१।६॥ इन्धेश्छन्दोविषयत्वात् । महाभाष्य ॥२॥६॥ हरदत्त भाषा में भी इन्धी का प्रयोग मानता है। वह लिखता है-‘एवं तहि ज्ञापनार्थमिन्धिग्रहणम्-एतज्ज्ञापयति इन्धेर्भाषायामप्य. नित्य प्रामिति । समीधे समीघां चक्र इति भाषायामपि भवति' । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ १५३ । ६. कातन्त्र ३७॥१५॥ ७. कातन्त्र ३८॥३॥ २५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सूत्रों में इन धातुत्रों का उल्लेख मिलता है । प्रथम सूत्र की वृत्ति में दुर्गसिंह ने लिखा है - 'छान्दसावेतौ धातु इत्येके' ।' इस पर त्रिलोचन - दास लिखता है - छान्दसाविति । शर्ववर्मणस्तु वचनाद् भाषायामप्यवसीयते । ५ नायं छान्दसान् शब्दान् व्युत्पादयतीति ।' १० ४० आचार्य चन्द्रगोमी ने अपने व्याकरण के लौकिक भाग में लिटीन्धिश्रन्यग्रन्याम्" सूत्र में इन्धी धातु का निर्देश किया है, और स्वोपज्ञ वृत्ति में 'समोधे' आदि प्रयोग दर्शाये हैं । अतः उस के मत में 'इन्धी' का प्रयोग भाषा में अवश्य होता है । पात्यकीर्ति विरचित जैन शाकटायन व्याकरण केवल लौकिक१५ संस्कृत भाषा का है, परन्तु उस में भी इन्धी से विकल्प से प्राम् का विधान किया । " २० अर्थात् - भाष्यकार के मत में दीधीङ वेवीङ छान्दस धातुएं हैं, परन्तु शर्ववर्मा के वचन से इन का लौकिक संस्कृत में भी प्रयोग निश्चित होता है । क्यों कि शर्ववर्मा छान्दस शब्दों का व्युत्पादन नहीं करता है । इसी प्रकार महाभाष्यकार द्वारा छान्दस मानी गई वश कान्तौ धातु का भी लोक में व्यवहार देखा जाता है ।" १. कातन्त्रवृत्ति ३ | ५ | १५॥ २. कातन्त्रवृत्ति परिशिष्ट पृष्ठ ५३० । ३. स्वादिगण के अन्त में पठित ग्रह दघ चमु ऋक्षि आदि धातुत्रों को पाणिनि ने छान्दस माना है । काशकृत्स्न और उसके अनुयायी कातन्त्रकार तथा चन्द्र ने इन्हें छान्दस नहीं माना। द्र० - क्षीरतरङ्गिणी पृष्ठ २३१ टि० २ का उत्तरार्ध ( हमारा संस्करण) । २५ ४. चान्द्र व्याकरण में स्वरप्रक्रिया भी थी। इसके अनेक प्रमाण उसकी स्वोपज्ञवृत्ति (१।१।२३, १०५, १०८ इत्यादि) में उपलब्ध होते हैं । इसकी विशेष विवेचना इसी ग्रन्थ के ' चान्द्र - व्याकरण - प्रकरण' में की है । ५. चान्द्र व्या० ३।५।२५।। ६. जाग्रुषसमिन्धे वा । १।४।८४ ॥ ३० ७. 'वष्टि भागुरिरल्लोपम्' में तथा यजुर्भाष्य ७८ के अन्वय में 'त्वां चाह वश्मि' (स्वामी दयानन्द सरस्वती) । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ae ६ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ४१ इन उद्धरणों से व्यक्त है कि संस्कृत-भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिन का पहले लोक में निर्वाध प्रयोग होता था। परन्तु कालान्तर में उन का लोक-भाषा से प्रायः उच्छेद हो गया, और अधिकतर प्राचीन आर्ष-वाङमय में उन का प्रयोग सीमित रह गया । अतः उत्तरवर्ती वैयाकरण उन्हें केवल छान्दस मानने लग गये। १४. पाणिनि के उत्तरवर्ती महाकवि भास के नाटकों में पचासों ऐसे प्रयोग मिलते हैं, जो पाणिनि-व्याकरण-सम्मत नहीं हैं। उन्हें सहसा अपशब्द नहीं कह सकते । अवश्य वे प्रयोग किसी प्राचीन व्याकरणानुसार साधु रहे होंगे। यहां हम उस के केवल दो प्रयोगों का निर्देश करते हैं__राजन्-उत्तरपद के नकारान्त के प्रयोग पाणिनीय व्याकरण के अनुसार साधु नहीं हैं। उन से अष्टाध्यायी ५४६१ के नियम से टच् प्रत्यय होकर वे अकारान्त बन जाते हैं । यथा काशीराजः महाराजः । परन्तु भास के नाटकों की संस्कृत और प्राकृत दोनों में नकारान्त उत्तरपद के प्रयोग मिलते हैं । यथा__ काशिराज्ञे। सर्वराज्ञः। महाराजानम् । महाराण्णा (= महाराज्ञा)। ये प्रयोग निस्सन्देह प्राचीन हैं। वैदिक-साहित्य में तो इन का प्रयोग होता ही है, परन्तु महाभारत आदि में भी ऐसे अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं। यथा-सर्वराज्ञाम् -प्रादिपर्व १।१५०; १६३।६; २० नागराजः-पादिपर्व १८।१४; शल्यपर्व २०।२७; मत्स्यराज्ञाआदिपर्व १।१७१; विराटपर्व ३०॥४॥ वस्तुतः नकारान्त राजन् और अकारान्त राज दो स्वतन्त्र शब्द हैं । जब समास के विना प्रकारान्त राज के और तत्पुरुष समास में नकारान्त राजन् उत्तरपद के प्रयोग विरल हो गये, तब वैयाकरणों २५ १. देखो भासनाटकचक्र, परिशिष्ट B, पृष्ठ ५६८-५७३ । २. भासनाटकचक्र पृष्ठ १८७ । ३. भासनाटकचन 3 ४४५ । ४.' यज्ञफलनाटक पृष्ठ २८, ६६ । ५. यज्ञफलनाटक पृष्ठ ५० । ६. यानि देवराज्ञां सामानि...."यानि मनुष्यराज्ञाम् ...... । ताण्ड्य बा० १८।१०॥५॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ने नष्टाश्वदग्धरथ न्याय' से दोनों को परस्पर में सम्बद्ध कर दिया। अकारान्त राज शब्द का प्रयोग महाभारत में उपलब्ध भी होता है।' इसी प्रकार अकारान्त अह शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है। कुण्डोनी घटोनी आदि प्रयोगों की सिद्धि के लिये पाणिनि द्वारा ऊधसोऽनङ सूत्र' से 'ऊधस्' को अनङ् आदेश करके निष्पन्न किया गया नकारान्त ऊधन् शब्द के वेद में बहुधा स्वतन्त्र प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यथा___ ऊधन (ऋ० १।१५२।६); ऊधनि (ऋ० ११५२।३); ऊधभिः (ऋ० ८।६।१६); ऊनः (ऋ० ४।२२।६) । १० हमारा तो मन्तव्य है कि पाणिनि ने जहां-जहां लोप आगम वर्ण विकार द्वारा रूपान्तर का प्रतिपादन किया है, वे रूप प्राचीनकाल में संस्कृत-भाषा में स्वतन्त्र रूप से लब्धप्रचार थे। उन का लोक में अप्रयोग हो जाने पर पाणिनि आदि ने उनसे निष्पन्न व्यावहारिक भाषा में अवशिष्ट शब्दों का अन्वाख्यान करने के लिये लोप पागम १५ वर्णविकार आदि की कल्पना की है। १५. भास के अभिषेक नाटक में विंशति' के अर्थ में "विंशत्' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। यह पाणिनीय व्याकरणानुसार असाधु है। पुराणों में अनेक स्थानों पर 'विंशत्' शब्द का प्रयोग मिलता है । यथा २० १. तवाश्वो नष्टः, ममापि रथं दग्धम्, इत्युभौ संप्रयुज्यावहे । महाभाष्य १११॥५०॥ २. राजाय प्रयतेमहि । आदि० ६४।४४ ॥ ३. अष्टा० ५।४।१३१॥ ____४. इस प्रकार की व्याख्या के लिये देखिये - इसी ग्रन्थ के अन्त में द्वितीय २५ परिशिष्ट-पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या', 'आदिभाषायां प्रयुज्य मानानाम् अपाणिनीयप्रयोगाणां साधुत्वविचारः' पुस्तिका तथा 'ऋषि दयानन्द की पद-प्रयोगशैली' पृष्ठ ४-१७ । हमने समस्त पाणिनीय तन्त्र की इस प्रकार की सोदाहरण वैज्ञानिक व्याख्या लिखने के लिये सामग्री संकलित कर ली है, परन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण इस का लिखा जाना संदिग्ध है । ३० ५. विश्वलोकविजयविख्यातविंशद्बाहुशालिनि । भासनाटकचक्र पृ० ३५९ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ४३ ऐक्ष्वाकवश्चतुर्विशत् पाञ्चालाः सप्तविंशतिः । काशेयास्तु चतुर्विशद् अष्टाविंशतिहहयः ॥' नारद मनुस्मृति में भी 'चतुविशद्' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। त्रिगर्त की एक प्राचीन वंशावली का पाठ है-'लक्ष्मीचन्द्रपूर्वतोऽभूत् पञ्चविंशत्तमो नृपः । यह वंशावली श्री पं० भगवद्दत जी को ५ ज्वालामुखी से प्राप्त हुई थी। __वस्तुतः प्राचीन-काल में संस्कृत-भाषा में विंशति-विंशत्; त्रिशति-त्रिंशत् चत्वारिंशति-चत्वारिंशत्' आदि दो-दो प्रकार के शब्द थे। त्रिशति और चत्वारिंशति के निम्न प्रयोग दर्शनीय हैं. द्वात्रिंशतिः । पार्जिटर द्वारा संपा० कलिराजवंश, पृष्ठ १६,३२ । १० रागाः षट्त्रिंशतिः । पञ्चतन्त्र ५१५३ । काशी संस्करण । .वर्णाः षट्त्रिंशतिः । पञ्चतन्त्र ५।४१, पूर्णभद्रपाठ। - वैमानिकगतिवैचित्र्यादिद्वात्रिंशतिक्रियायोगे "स्फोटायनाचार्यः । भारद्वाजीय विमानशास्त्र । षत्रिंशति त्रयाणाम् । वाराहगृह्य ६।२६, लाहौर संस्करण । १५ अष्टाचत्वारिंशति सर्वेषाम् । वाराहगृह्य ६।२६, लाहौर संस्करण । संस्कृत-भाषा के इन द्विविध प्रयोगों में से त्रिंशति चत्वारिंशति आदि 'ति' अन्त वाले शब्दों के अपभ्रंश अंग्रेजी आदि भाषाओं में टि फोटि फिफ्टी आदि रूपों में व्यवहृत होते हैं । महाकवि भास के नाटकों को देखने से विदित होता है कि उसने २० पाणिनीय व्याकरण के नियमों का पूर्ण अनुसरण नहीं किया। अतएव १. पार्जिटर सम्पादित कलिराजवंश पृष्ठ २३ । पूना संस्करण का पाठ इस प्रकार है-कालकास्तु चतुर्विंशच्चतुर्विशत्तु हैहयः । ६६।३२२ ।। ___ २. चतुर्विशत् समाख्यातं भूमेस्तु परिकल्पनम् । दिव्य प्रकरण श्लोक १३, पृष्ठ १६५ । . ३. वैदिक वाङ्मय का इतिहास' भाग १, पृष्ठ १२० (द्वि० संस्करण) । ४. हार्डवर्ड ओरियण्टल सीरिज में प्रकाशित । ' ५. 'शिल्प-संसार' १६ फरवरी १६५५ के अङ्क में पृष्ठ १२२ पर । अब इस ग्रन्थ का बहुत सा अंश स्वामी ब्रह्ममुनिजी के उद्योग से स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित हो गया है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाराजाधिराज समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित' में भास के संबन्ध में लिखा है-- अयं च नान्वयात् पूर्ण दाक्षिपुत्रपदक्रमम् ॥६॥ सम्भव है, भास अति प्राचीन कवि हो, और उस के समय में तत्प्रयुक्त अपाणिनीय शब्द लोक-भाषा में प्रयुक्त रहें हों, अथवा उसने किसी प्राचीन व्याकरण के अनुसार इन का प्रयोग किया हो। १६. लौकिक-संस्कृत के ऐसे अनेक प्रयोग हैं, जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध होते हैं, परन्तु पतञ्जलि के काल में उन का भाषा से प्रयोग लुप्त हो गया था। यथा - - प्रियाष्टनौ प्रियाष्टानः', एनछितक', कोः', उ.', कर्तृचा कर्तृचे, उत्पुद, पयसिष्ठ, द्वः। इन प्रयोगों के विषय में पतञ्जलि कहता है-'यथालक्षणमप्रयुक्त।" यदि इस वचन का अर्थ माना जाये कि ये शब्द भाषा में -- १. इस ग्रन्थ का कुछ अंश उपलब्ध हुआ है । वह गोंडल (काठियावाड़) १५ में छपा है । इस ग्रन्थ से पाश्चात्य मतानुयायियों की अनेक कल्पनाओं का उन्मूलन हो जाता है । कई विद्वान् इसे जाल रचना बतलाते हैं । पं० भगवद्दत ने इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता भले प्रकार दर्शाई है। देखो, भारतवर्ष का इतिहास, द्वितीय संस्क० पृष्ठ ३५३, भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २, पृष्ठ ३४६ ॥ २० २. महाभाष्य १।१।२४ ॥ प्रियाष्टो; प्रियाष्टानौ; प्रियाष्टाः, प्रियाष्टान: (उभयथापि दृश्यते) । हैम बृहद्वृत्ति २०१७ ॥ ३. महाभाष्य २।४।३४॥ ४. महाभाष्य ६।११६८ ॥ हैम बृहद्वृत्ति २।१।६० के कनकप्रभसूरि कृत न्याससार (लघु-यास) तथा अमरचन्द्र-विरचित अवचूणि में महाभाष्य का पाठ अन्यथा उद्धृत किया है-'अत्र भाष्यम्-लोके प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यानम् । लोके च 'कीत्' इत्येव दृश्यते, न 'कीर्' इति । ५. महाभाष्य ६।१८६॥ .६. महाभाष्य ६।४।२ ॥ ७. महाभाष्य ६।४।१६ ॥ ८. महाभाष्य ६।४।१६३ ॥ ६. महाभाष्य ७।२।१०६ ॥ १०. महाभाष्य १११।२४; २।४।३४; ६।१।६८, ८६; ६।४।२, १६, ३० १६३; ७।२।१०६ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ४५ . भी प्रयुक्त नहीं रहे, तो महाभाष्यकार के पूर्वोद्धृत 'सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते' वचन से विरोध होगा। यदि ये शब्द महाभाष्यकार की दृष्टि में सर्वथा अप्रयुक्त होते, तो पतञ्जलि यथालक्षण प्रयोगसिद्धि का विधान न करके 'अनभिधानान्न भवति' कहता।' १७. महाभारत आदि प्राचीन आर्ष वाङमय में शतशः ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जो पाणिनीय व्याकरणानुसारी नहीं हैं। अर्वाचीन वैयाकरण छन्दोवत् कवयः कुर्वन्ति, छन्दोवत् सूत्राणि भवन्ति, पार्षत्वात् साधु, आदि कह कर प्रकारान्तर से उन्हें अपशब्द कहने की धृष्टता करते हैं, यह उन का मिथ्या ज्ञान है । शब्दप्रयोग १० का विषय अत्यन्त महान् है, अतः किसी प्रयोग को केवल अपाणिनीयता की वर्तमान परिभाषा के अनुसार अपशब्द नहीं कह सकते । महाभारत में प्रयुक्त अपाणिनीय प्रयोगों के विषय में १२ वीं शताब्दी १. 'नहि यन्न दृश्यते तेन न भवितव्यम् । अन्यथा हि यथालक्षणमप्रयुक्तेष्वित्येतद् वचनमप्रयुज्यमानं स्यात्' । कैयट भी कहता है-'यस्य प्रयोगो १५ नोपलभ्यते तल्लक्षणानुसारेण संस्कर्तव्यम् । प्रदीप २।४।३४॥ भट्ट कुमारिल ने लिखा है-'यावांश्चाकृतको विनष्ट: शब्दराशिः, तस्य व्याकरणमेवैकमुपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च ।' तन्त्रवात्तिक १।३।२२; पृष्ठ २६६ पूना सं० । २. सखिना, पतिना, पतौ । अत्र हरदत्तः...छन्दोवदृषयः कुर्वन्तीति । २० अस्यायमाशय:-असाधव एवैते त्रिशङ्कवाद्ययाज्ययाजनादिवत् तपोमाहात्म्यशालिनां मुनीनामसाधुप्रयोगोऽपि नातीव बाधत । शब्दकौस्तुभ १४७ ॥ इतिहासपुराणेषु अपशब्दा अपि संभवन्ति । पदमञ्जरी (अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र की व्याख्या में) भाग १, पृष्ठ ७ ॥ निरङ्कुशा हि कवयः । पदमञ्जरी २।४।२, भाग १, पृष्ठ ४६० । स्वच्छन्दमनुवर्तन्ते, न शास्त्रमृषयः । पदमञ्जरी ६।४।७४, भाग २, पृष्ठ ६६८ । कथं भाषायां वैन्यो राजेति ? छान्दस एवायं प्रमादात् कविभिः प्रयुक्तः । काशिका ४।१।१५१॥ निरुक्त १।१६ में पठित । 'पारोवर्यवित्' शब्द को कैयट, हरदत्त और भट्टोजि दीक्षित प्रभृति सभी नवीन वैयाकरण असाधु = अपशब्द कहते हैं । द्रष्टव्य अष्टा० ५।२।१० का महाभाष्यप्रदीप, पदमञ्जरी, सि. कौमुदी । वेदप्रस्थानाभ्यासेन हि वाल्मीकिद्व पायनप्रभृतिभिः तथैव स्ववाक्यानि प्रणीतानि । कुमारिल, तन्त्रवा० १।२।१, पृष्ठ ११६, पूना संस्करण । महाभाष्यदीपिका १।१।३, पृष्ठ १०८, पूना सं० द्र०। । २५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास से पूर्वभावी देवबोध महाभारत की ज्ञानदीपिका टीका के प्रारम्भ में लिखता है न दृष्ट इति वैयासे शब्दे मा संशयं कृथाः । अज्ञैरज्ञातमित्येवं पदं न हि न विद्यते ॥७॥ यान्युज्जहार माहेन्द्राद्' व्यासो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ॥८॥ भगवान् वेदव्यास का संस्कृत-भाषा का ज्ञान अत्यन्त विस्तृत था । वायुपुराण १।१८ में लिखा है-भारती चैव विपुला महाभारत वधिनी। १० सोलहवीं शताब्दी के प्रक्रियासर्वस्व के कर्ता नारायण भट्ट ने अपनी 'प्रपाणिनीय-प्रमाणता' नामक पुस्तक में इस विषय पर भले प्रकार विचार किया है । यह पुस्तक त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित हुई है ।' १८. इतना ही नहीं, अष्टाध्यायी में प्रयुक्त आकारान्त श्ना, क्त्वा, आदि प्रत्ययों से अजादि असर्वनामस्थान विभक्तियों के परे १५ प्रातो धातो: के समान आकार का लोपविधायक कोई सूत्र नहीं है, परन्तु पाणिनि ने आकार का लोप किया है । यथा___ हलः श्नः शानज्झौ । अष्टा० ३।१।८३॥ क्त्वो यक् । अष्टा० ७।१।४७।। क्त्वो ल्यप् । अष्टा० ७।१।३७॥ महाभाष्य ११२१७ में पतञ्जलि ने भी पाणिनि के समान क्त्वः २० का प्रयोग किया है। कात्यायन 'क्त्वा' शब्द का प्रयोग पाबन्त शब्द के समान करते हैं । यथा क्त्वायां कित्प्रतिषेधः । महा० १।२।१॥ १, कई लोग इस श्लोक में 'माहेन्द्रात्' के स्थान में 'माहेशात्' पद पढ़ते हैं। यह श्लोक देवबोधविरचित है, और उस का पाठः 'माहेन्द्रात्' ही है। २५ माहेश पाठ और माहेश व्याकरण के लिये 'मञ्जूषा' पत्रिका (कलकत्ता) वर्ष ५, अङ्क ८ द्रष्टव्य है। भाष्यव्याख्या-प्रपञ्च में 'समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे' इत्यादि श्लोकान्तर उद्धृत किया है। द्र०—पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति परिशिष्ट ३, पृष्ठ १२६, वारेन्द्र रिसर्च सोसायटी संस्करण । २. इसे हम द्वितीय भाग के अन्त में प्रथम परिशिष्ट में प्रकाशित कर __३. अष्टा० ६।४।१४० ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास ४७ काशिकाकार ने भी ७।२।५०, ५४ की वृत्ति में क्त्वायाम् प्रयोग किया है । सायण ने धातुवृत्ति १०।१४७ ( वञ्चधातु) में क्त्वायाम् और क्त्वः दोनों प्रयोग किये हैं । ' क्त्वा' के प्रबन्त न होने से 'याद' का आगम प्राप्त नहीं होता है । हमारे उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत पाश्चात्य भाषामतवादियों का कहना है कि पाणिनि के पश्चात् संस्कृत भाषा में जो परिवर्तन 'हुए उन को दर्शाने के लिये कात्यायन ने अपना वार्तिकपाठ रचा और तदन्तरभावी परिवर्तनों का निर्देश पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में किया है । यद्यपि यह मतं पाणिनीयतन्त्र के आधारभूत १० सिद्धान्त 'शब्दनित्यत्व' के तो विपरीत है ही, तथापि प्रभ्युपगमवाद से हम पाश्चात्य विद्वानों के उक्त कथन की निस्सारता दर्शाने के लिये यहां एक उदाहरण उपस्थित करते हैं १९. पाणिनि का एक सूत्र है - ' चक्षिङः ख्याञ्' ।' इस पर‍ कात्यायन ने वार्तिक पढ़ा है - 'चक्षिङ: क्शाख्यात्रौ ।' अर्थात् ख्याञ् १५ के साथ क्शाञ् प्रदेश का भी विधान करना चाहिये । पाश्चात्यों के मतानुसार इसका अभिप्राय यह होगा कि पाणिनि के समय केवल ख्या का प्रयोग होता था, परन्तु कात्यायन के समय क्शाञ् का भी प्रयोग होने लग गया, अतएव उसने ख्याञ् के साथ क्शाञ् प्रदेश का भी विधान किया । २० हमें पाश्चात्य विद्वानों की ऐसी ऊटपटांग प्रमाणशून्य कल्पनाओं पर हंसी आती है । उपर्युक्त वार्तिक के आधार पर क्शाञ् को पाणिनि के पश्चात् प्रयुक्त हुआ मानना सर्वथा मिथ्या होगा । पाणिनि द्वारा स्मृत आचार्य गार्ग्य क्शाञ् के प्रयोग से अभिज्ञ था । वर्णरत्नदीपिका शिक्षा का रचियता अमरेश लिखता है - २५ ख्याधातोः खययोः स्यातां कशौ गार्ग्यमते यथा । विक्रयाऽऽक्शाताम् इत्येतत् 113 इस गार्ग्यमत का निर्देश आचार्य कात्यायन ने वाजसनेय प्राति १. अष्टा० २।४।५४ ॥ ३. श्लोक १६५ । शिक्षासंग्रह ( काशी संस्करण) पृष्ठ १३१ ॥ २. महाभाष्य २|४|५४ ॥ ३० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ . संस्कृत व्यकारण-शास्त्र का इतिहास शाख्य ४।१६७ के 'ख्यातेः खयौ, कशौ गार्ग्यः, सक्ख्योक्ख्यमुक्ख्यवर्जम्' सूत्र में किया है । आचार्य शौनक ने भी ऋप्रातिशाख्य ६।५५, ५६ में 'क्शा' धातु के 'क्-श' के स्थान पर कई प्राचार्यों के मत में 'ख-य' का विधान किया है।' इतना ही नहीं, पाणिनि से पूर्व प्रोक्त और अद्य यावत् वर्तमान मैत्रायणीय संहिता में 'ख्या' धातु के प्रसङ्ग में सर्वत्र 'क्शा' के प्रयोग मिलते हैं।' काठक संहिता में कहीं-कहीं 'क्शा' के प्रयोग उपलब्ध होते हैं। शुक्लयजुः प्रातिशाख्य का भाष्यकार उव्वट स्पष्ट लिखता है-'ख्यातेः क्शापत्तिरुक्ता, एते चरकाणाम् । ऐसी अवस्था में कहना कि पाणिनि के समय क्शा का प्रयोग विद्यमान नहीं था, अपना अज्ञान प्रदर्शित करना है । .. प्रश्न हो सकता है कि यदि क्शा धातु का प्रयोग पाणिनि के समय विद्यमान था, तो उस ने उस का निर्देश क्यों नहीं किया ? इस का उत्तर यह है कि पाणिनि ने प्राचीन विस्तृत व्याकरण-शास्त्र का संक्षेप १५ किया है। यह हम पूर्व कह चुके हैं। इसलिये उसे कई नियम छोड़ने पड़े। दूसरा कारण यह है कि पाणिनि उत्तरदेश का लिवासो था। अतः उस के व्याकरण में वहां के शब्दों का प्राधान्य होना स्वाभाविक है । क्शा का प्रयोग दक्षिणापय में होता था। मैत्रायणोय संहिता के प्रचार का क्षेत्र आज भी वही है। वार्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य २० था। वह क्शा के प्रयोग से विशेष परिचित था । इसलिये उसने पाणिनि से छोड़े गये क्शा धातु का सनिवेश और कर दिया। हमारी इस विवेचना से स्पष्ट है कि क्शात्र का प्रयोग पाणिनि से पूर्व विद्यमान था । अतः कात्ययनीय वार्तिकों वा पातञ्जल महाभाष्य के किन्हीं वचनों के आधार पर यह कल्पना करना कि पाणिनि के १. क्शातौ खकारयकारा उ एके । तावेव ख्यातिसदृशेषु नामसु । २. अन्वग्निरुषसामग्रमक्शत् । मै० सं० ११८६ इत्यादि । ३. नक्तमग्निरुपस्थेयः पशूनामनुक्शात्यै । काठक सं० ७१० ॥ ४. वाज० प्राति० ४।१६७ ।। ५. देखो पूर्व पृष्ठ ३५, ३६, सन्दर्भ ८ । ३०. ६. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः-यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा . लौकिकवैदिकेष्विति प्रयुञ्जते । महाभाष्य अ० १, पाद १, प्रा० १ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास समय यह प्रयोग नहीं होता था, पीछे से परिवर्तित होकर इस प्रकार प्रयुक्त होने लगा, सर्वथा मिथ्या है। ४६ २०. पूर्वमीमांसा ( १।३।३० ) के पिक नेमाधिकरण में विचार किया है कि - 'वैदिक-ग्रन्थों में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त हैं, जिनका प्रार्य लोग प्रयोग नहीं करते किन्तु म्लेच्छ - भाषा में उन का प्रयोग होता ५ है । ऐसे शब्दों का म्लेच्छ प्रसिद्ध अर्थ स्वीकार करना चाहिये अथवा निरुक्त व्याकरण आदि से उन के अर्थों की कल्पना करनी चाहिये ।' इस विषय में सिद्धान्त कहा है- 'वैदिक-ग्रन्थों में उपलभ्यमान शब्दों का यदि आर्यों में प्रयोग न हो तो उन का म्लेच्छ-प्रसिद्ध अर्थ स्वीकार कर लेना चाहिये ।' १० मीमांसा के इस प्रधिकरण से स्पष्ट है कि वैदिक-ग्रन्थों में अनेक पद ऐसे प्रयुक्त हैं, जिन का प्रयोग जैमिनि के काल में लौकिक संस्कृत से लुप्त हो गया था ।, परन्तु म्लेच्छ-भाषा में उन का प्रयोग विद्यमान था । शबरस्वामी ने इस अधिकरण में 'पिक, नेम, अर्ध, तामरस' शब्द उदाहरण माने हैं । शबरस्वामी इन शब्दों के जिन १५ अर्थों को म्लेच्छ - प्रसिद्ध मानता है उन्हीं अर्थों में इन का प्रयोग उत्तरवर्ती संस्कृत साहित्य में उपलब्ध होता है । श्रतः प्रतीत होता है कि कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनका प्राचीन काल में आर्य भाषा में प्रयोग होता था, कालान्तर में उन का प्रार्य भाषा से उच्छेद हो गया, और उत्तर-काल में उन का पुनः प्रार्य-भाषा में प्रयोग होने लगा । इस की २० पुष्टि अष्टाध्यायी ७ । ३ । ६५ से भी होती है । पाणिनि से पूर्ववर्ती आपिशलि 'तुरुस्तुशम्यमः सार्वधातुकासु च्छन्दसि'" सूत्र में 'छन्दसि' ग्रहण करता है, अतः उस के काल में 'तवीति' आदि पद लोक में प्रयुक्त नहीं थे, परन्तु उसके उत्तरवर्ती पाणिनि 'छन्दसि' ग्रहण नहीं करता । इससे स्पष्ट है कि उस के काल में इन पदों का लोक-भाषा २५ में पुनः प्रयोग प्रचलित हो गया था ।' १. काशिका ७।३।६५ ॥ २. काशकृत्स्न के 'ब्रूना देरी तिसिमिषु' सूत्रानुसार ' ब्रवीति' के समान . 'स्तवीति' 'ऊर्णीति' आदि प्रयोग भी लोक व्यवहृत हैं । द्रष्टव्य - 'काशकृत्स्नव्याकरण', सूत्र ७४, पृष्ठ ६१ ( हमारा संकलन ) तथा 'काशकृत्स्न- व्याकरण ३० और उसके उपलब्ध सूत्र' लेख 'साहित्य' (पटना) का वर्ष १०, अङ्क २, पृष्ठ २६ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास मीमांसा के इस अधिकरण के आधार पर पाश्चात्त्य तथा तदनुयायी कतिपय भारतीय विद्वान् लिखते हैं, कि वेद में विदेशी-भाषाओं के अनेक शब्द सम्मिलित हैं।' उन का यह कथन सर्वथा कल्पना-प्रसूत है । यह हमारे अगले विवेचन से भले प्रकार स्पष्ट हो जायेगा। लौकिक-संस्कृत ग्रन्थों में अप्रयुक्त संस्कृत शब्दों का वर्तमान-भाषाओं में प्रयोग आज कल लोक में अनेक शब्द ऐसे व्यवहृत होते हैं, जो शब्द और अर्थ की दृष्टि से विशुद्ध संस्कृत-भाषा के हैं, परन्तु उन का संस्कृत-भाषा में प्रयोग उपलब्ध न होने से ये अपभ्रंश-भाषाओं के १० समझे जाते हैं। यथा १. फारसी-भाषा में पवित्र अर्थ में 'पाक' शब्द का व्यवहार होता है। परन्तु उस का पवित्र अर्थ में प्रयोग वेद के 'यो मा पाकेन मनसा चरन्तमभिचष्टे अन्तेभिर्वचोभिः' तथा 'योऽस्मत्पाकतरः" आदि अनेक मन्त्रों में मिलता है । २. हिन्दी में प्रयुक्त 'घर' शब्द संस्कृत गृहशब्द का अपभ्रंश माना जाता है, परन्तु है यह विशुद्ध संस्कृत शब्द । दशापादी-उणादि में इस के लिये विशेष सूत्र है। जैन संस्कृत-ग्रन्थों में इस का प्रयोग उपलब्ध होता है। भास के नाटकों की प्राकृत में भी इस का प्रयोग मिलता है। २० संस्कृत के 'घर' शब्द का रूपान्तर प्राकृत में 'हर' होता है । यथा 'पईहर-पइहर (द्र०-हैम प्रा० व्या० १११।४ वृत्ति) । इसी प्रकार १. ऋग्वेद ७१०४१८; अथर्व ८।४।८।। २. द्र.-कात्या० श्रौत २।२।२१ ॥ ३. योऽस्मत्पाकतरः' इत्यत्राल्पत्वे पाक शब्दः । 'तं मा पाकेन मनसाऽप२५ श्यन' इति 'यो मा पाकेन मनसा' इति च प्रशंसायाम् । गार्यनारायण प्राश्व० गृह्य १।२।। वस्तुत: प्रशंसा अर्थ लाक्षणिक है, मूल अर्थ पवित्र ही है । ४. 'हन्ते रन् घ च' । दशपादी उणा० ८।१०४; क्षीरतरङ्गिणी २०६८ में दुर्ग के मत में 'घर' स्वतन्त्र धातु मानी है। ५, पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृष्ठ १३, ३२ ॥ २५ ६. यज्ञफलनाटक पृष्ठ १६३॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ५१ मारवाड़ी के 'पोहर' शब्द का मूल भी 'पितृघर' है ( 'तृ' लोप होकर ) । इन रूपों में गृह का 'हर' रूपान्तर मानना चिन्त्य है, क्यों कि भाषा-विज्ञान के उत्सर्ग नियम के अनुसार 'घ' का 'ह' होना सरल है, गृह का घर अथवा हर रूपान्तर प्रतिक्लिष्ट कल्पना है । ३. युद्ध अर्थ में प्रयुक्त फारसी का 'जङ्ग' शब्द संस्कृत की 'जजि ५ युद्धे' धातु का घञ्-प्रत्ययान्त रूप है । यह 'चजो: कुः घिण्ण्यतो: " सूत्र से कुत्व होकर निष्पन्न होता है । यथा - भज् से भाग । मैत्रेयरक्षितविरचित धातुप्रदीप पृष्ठ २५ में इस शब्द का साक्षात् निर्देश मिलता मिलता है । ४. फारसी में प्रयुक्त बाज शब्द व्रज गतौ धातु अण्प्रत्ययान्त रूप है । बवयोरभेदः यह प्रसिद्धि भारतीय शास्त्रज्ञों में भी क्वचित् विद्यमान है । तदनुसार बाज =वाज दोनों एक ही हैं । १५ ५. पञ्जाबी भाषा में बरात अर्थ में व्यवहृत 'जञ्ज' शब्द भी पूर्वोक्त 'जज' धातु का घञन्त रूप है । प्राचीन काल में स्वयंवर के अवसर पर प्रायः युद्ध होते थे, अतः जञ्ज शब्द में मूल युद्ध अर्थ निहित है । इस शब्द में निपातन से कुत्व नहीं होता । यह पाणिनि के उञ्छादिगण में पठित है । भट्ट यज्ञेश्वर ने गणरत्नावली में जञ्ज का अर्थ 'युद्ध' किया है ।" उस में थोड़ी भूल है । वस्तुतः जङ्ग और जञ्ज शब्द क्रमशः युद्ध और बरात के वाचक हैं । संस्कृत गर, गल, ग्रह, ग्लह आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जो समान धातु और समान २० प्रत्यय से निष्पन्न होने पर भी वर्णमात्र के भेद से अर्थान्तर के वाचक होते हैं । ६. हिन्दी में 'गुड़ का क्या भाव है' इत्यादि में प्रयुक्त 'भाव' शब्द शुद्ध संस्कृत का है । यह 'भू प्राप्तावात्मनेपदी' चौरादिक धातु से अच् ( पक्षान्तर में घञ् ) प्रत्यय से निष्पन्न होता है । सत्तार्थक भाव शब्द इस से पृथक् है, वह 'भू सत्तायाम्' धातु से बनता है । ७. हिन्दी में प्रयुक्त ' मानता है' क्रिया की 'मान' धातु का प्रयोग जैन संस्कृत-ग्रन्थों में बहुधा उपलब्ध होता है ।" २. गणपाठ ६।१।१६० ॥ १, अष्टा० ७।३३५२ ॥ ३. ६।१।१६० । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ३५५ । ४. बुरातन प्रबन्धसंग्रह पृष्ठ १३, ३०, ५१, १०३ इत्यादि । प्रबन्धकोश पृष्ठ १०७ । १० २५ ३० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ८. हिन्दी में 'ढूंढना' क्रिया का मूल दुढि प्रन्वेषणे - दुण्ढति काशकृत्स्न धातुपाठ में उपलब्ध होता है ।' स्कन्द पुराण काशीखण्ड (५७।३२ ) में भी यह धातु स्मृत है ।" ५२ ३० इसी प्रकार कई धातुएं ऐसी हैं जिन का लौकिक संस्कृत भाषा में संप्रति प्रयोग उपलब्ध नहीं होता, परन्तु अपभ्रंश भाषाओं में उपलब्ध होता है । यथा C. संस्कृत भाषा में सार्वधातुक प्रत्ययों में 'गच्छ' और अर्धधातुक प्रत्ययों में 'गम' का प्रयोग मिलता है । वैयाकरण गम के मकार को सार्वधातुक प्रत्यय परे रहने पर छकारादेश का विधान १० करते हैं । वस्तुत: यह ठीक नहीं है । गच्छ और गम दोनों स्वतन्त्र धातुएं हैं । यद्यपि लौकिक - संस्कृत में गच्छ के प्रार्धधातुक प्रत्यय परे प्रयोग नहीं मिलते तथापि पालि भाषा में 'गच्छिस्सन्ति' आदि, मण्डी राज्य ( हिमाचल-प्रदेश) की पहाड़ी भाषा में 'कुदर गच्छणा वोय' और 'इदुर प्रागच्छणा वोय' प्रयोग होता है । ये संस्कृत के 'गच्छि - १५ ष्यन्ति' और 'कुत्र गच्छनम्' के अपभ्रंश हैं, 'गमिष्यन्ति' और 'कुत्र गमनम्' के नहीं । इसी प्रकार गम धातु के सार्वधातुक प्रत्यय परे रहने पर 'गमति' आदि प्रयोग वेद में बहुधा उपलब्ध होते हैं । पाणिनि ने जहां-जहां पाघ्रा आदि के स्थान में पिब जिघ्र आदि का प्रदेश किया है, वहां-वहां सर्वत्र उन्हें स्वतन्त्र धातु समझना २० चाहिये । समानार्थक दो धातुत्रों में से एक का सार्धधातुक में प्रयोग नष्ट हो गया, दूसरी का आर्धधातुक में । वैयाकरणों ने अन्वाख्यान के लिये नष्टाश्वदग्धरथन्याय से दोनों को एक साथ जोड़ दिया । इसी प्रकार वर्णलाप वर्णागम वर्णविकार आदि के द्वारा वैयाकरण जिन रूपों को निष्पन्न करते हैं, वे रूपान्तर भी मूलरूप में २५ स्वतन्त्र धातुएं हैं । हम स्पष्टीकरण के लिए कतिपय प्रयोग उपस्थित करते हैं । यथा— ( क ) घ्रा धातु के सार्वधातुक प्रत्यय से परे आदेशरूप में विहित जिघ्र के आर्धधातुक प्रत्ययों में प्रयोग १. काशकृत्स्न धातुव्याख्यानम्, धातु सं० १ १९१, पृष्ठ २१ । २. अन्वेषणे ढुण्ढिरयं प्रथितोऽस्ति घातुः । सर्वार्थदुण्डितया तव दुण्डिनाम || ३. इषुगमियमां छः । अष्टा० ७।३।७७ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास मूर्धन्यभिजिघ्राणम् । गोभिल गृह्य २८|२४ ॥ वर्चसे हुम् इति श्रभिजिय । हिरण्य० गृह्य २ |४| १७ | (ख) घ्रा का सार्वधातुक प्रत्ययों में प्रयोग न पश्यति न चाघ्राति । महा० शान्ति० १८७।१८ | एवं बहुत्र । (ग) मा स्थानीय धम के प्रार्धधातुक में प्रयोगविधमिष्यामि जीमूतान् । रामा० सुन्दर० ६७।१२ ॥ धान्तो धातुः पावकस्यैव राशिः । (घ) ब्रूञ् धातु के प्रार्धधातुक प्रत्ययों में प्रयोग - ब्राह्मणो ब्रवणात् । निरुक्त | ६ | ५३ (ङ) यज के कित् ङित् प्रत्ययों में सम्प्रसारण द्वारा विहित इज् १० रूप का इज्यन्ति प्रयोग महा० शान्ति ० २६३।२६ में मिलता है । इसी प्रकार वस के उष रूप का उष्य प्रयोग महा० वन० में बहुत्र मिलता है । (च) ग्रह का सम्प्रसारण और भकारादेश होकर निष्पन्न गुभ का गर्भो गृभे: निरुक्त १० । १३ में प्रयोग है । गृभ धातु से ही फारसी का गिरिफ्त शब्द बना है । १५ १. 'प्रभिजिघ्राणम्' पाठान्तर में निर्दिष्ट पाठ युक्त है ।' अभिजिघ्रणम्' मुद्रित पाठ अशुद्ध है । द्र०— - गृह्यकारेण 'मूर्धन्यभिघ्राणम्' इति वक्तव्ये " मूर्धन्यभिजघ्राणम्' इत्यविषयेऽपि जिघ्रादेशः प्रयुक्तः । तन्त्रवार्तिक १३, अघि ० ८, पृष्ठ २५६, पूना संस्करण । २० श्रभिप्रायेति वाच्ये अभिजित्र्येति वचनं - हिरण्यकेशीय-‍ -गृह्य टीकाकार मातृदत्त । ३. क्षीरतरङ्गिणी १६५६, दशपादी वृत्ति ३।५, हैमोणादिवृत्ति ३३ में उद्घृत ( कुछ पाठान्तर हैं ) । धमिः प्रकृत्यन्तरमित्येके । क्षीरतरङ्गिणी १।६५६ ॥ ... प्रमादपाठो वा । २० २५ ४. निरुक्त का वर्तमान पाठ 'ब्राह्मणा ब्रुवाणा ' है । यह निश्चय ही पपाठ है । उपर्युक्त पाठ कुमारिल द्वारा उद्धृत है । यघा – कार्त्स्न्येऽपि व्याकरणस्य निरुक्ते हीनलक्षणा बहवो यद् ब्राह्मणो ब्रवणादिति । ...... ब्रुवी वचिरिति वच्या देशम कृत्वैव ब्रवणादित्युक्तम् । तन्त्रवा० ११३, अधि८, पृष्ठ २५६, पूना । ३० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (छ) वच को लुङ में उम् प्रागम होकर निष्पन्न वोच के वोचति अादि रूप वेद में बहुधा मिलते हैं। इसीलिये निरुक्तकार यास्क 'यज' 'वप' आदि धातुओं को अंकृतसम्प्रसारण' 'यज' 'वप' तथा कृत-सम्प्रसारण 'इज' 'उप' का प्रति५ निधि मानता है।' १०. विक्रम की १३ वीं शताब्दी से पूर्वभावी वैयाकरण 'कृष' धातु को भ्वादि में पढ़ते हैं, किन्तु इसके भौवादिक प्रयोग लौकिक संस्कृत-ग्रन्थों में प्रायः उपलब्ध नहीं होते। फिर भी क्वचित् भूला भटका भौवादिक रूप लौकिक भाषा में भी मिल जाता है। प्राकृत१० भाषा और उडिया में प्रायः प्रयुक्त होते हैं। हिन्दी में भी उसके अपभ्रंश ‘करता' शब्द का प्रयोग होता है । ११. धातुपाठ में 'हन' धातु का अर्थ गति और हिंसा लिखा है । १. तद्यत्र स्वरादनन्तरान्तस्थान्तर्घातुर्भवति तद् द्विप्रकृतीनां स्थानमिति प्रदिशन्ति । तत्र सिद्धायामनुपपद्यमानायामितरयोपपिपादयिषेत् । निरुक्त २।२॥ १५ २. क्षीरतरङ्गिणी ११६३९। पृष्ठ १३०, हैमधातुपारायण, शाकटायन घातुपाठ संख्या ५७७, देवपुरुषकार पृष्ठ ३८, दशपादी-उणादिवृत्ति पृष्ठ १७, ५२ इत्यादि । भ्वादिगण से कृत्र धातु का पाठ सायण ने हटाया है। वह लिखता है-'अनेन प्रकारेगास्माभिर्धातुवृत्तावयं धातुनिराकृतः। ऋग्वेदभाष्य ११८२॥१॥ तथा धातुवृत्ति पृष्ठ १६३ । भट्टोजि दीक्षित ने सायण का ही २० अनुसरण किया है। सायण ऋग्वेदभाष्य में अन्यत्र कृञ् को भ्वादि में मानता है-'कृन करणे भौवादिकः । १।२३॥६॥ पाणिाने ने कृञ् धातु भ्वादिगण में पढ़ा था। तनादिगण में कृञ् का पाठ अपाणिनीय है । 'उ'-प्रत्यय अष्टाध्यायी ३।११७६ के विशेष विधान से होता है । इसीलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्भाष्य ३।५८ में लिखा है—'डुकृञ् करण इत्यस्य भ्वादिगणान्तर्गतपाठात् २५ शन्विकरणोऽत्र गाते, तनादिभिः सह पाठाद् उविकरणोऽपि । विशेष द्रष्टव्य अस्मत् सम्पादित क्षीरतरङ्गिणी पृष्ठ १३०, २६३ । ३. देवी पुराण (देवी भागवत से भिन्न) में एक श्लोक है-- ___ 'शून्यध्वजं सदाभूता नागगन्धर्वराक्षसा।। विद्रवन्ति महात्मानो नाना बाधं करन्ति च ॥३५॥२७॥ ३० ४. अणकरेदी (अनुकरति), भासनाटकचक्र पृष्ठ २१८ । करअन्तो (करन्तः कुर्वन्तः) भासनाटकचक्र पृष्ठ ३३६ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास ५५ लौकिक संस्कृत वाङमय में इसका गत्यर्थ में प्रयोग नहीं मिलता ।' किन्तु हिसार जिले की ग्रामीण भाषा के 'कठे हणसे' आदि वाक्यों में इस के अपभ्रंश का प्रयोग पाया जाता है । १२. संस्कृत की 'रक्षा' धातु का 'रखना' अर्थ में प्रयोग संस्कृतभाषा में नहीं मिलता । प्राकृत में इस के अपभ्रंश 'रक्ख' धातु का ५ प्रयोग प्राय: उपलब्ध होता है । हिन्दी की 'रख' क्रिया प्राकृत की '२क्ख' का अपभ्रंश है। अतः संस्कृत की 'रक्ष' धातु का मूल अर्थ 'रक्षा करना' और 'रखना' दोनों हैं । १० इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा किसी समय अत्यन्त विस्तृत थी । उस का प्रभाव संसार की समस्त भाषाओं पर पड़ा । बहुत से शब्द अपभ्रंश भाषात्रों में अभी तक मूल रूप और मूल अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। कुछ अल्प विकार को प्राप्त हो गये, कुछ इतने अधिक विकृत हुए कि उन के मूल स्वरूप का निर्धारण करना भी इस समय असम्भव हो गया । अतः अपभ्रंश भाषाओं में प्रयुक्त वा तत्सम - शब्द का संस्कृत के किसी प्राचीन ग्रन्थ में व्यवहार देख कर यह १५ कल्पना करना नितान्त अनुचित है कि यह शब्द किसी अपभ्रंश भाषा से लिया गया है । यदि संसार की मुख्य मुख्य भाषात्रों का इस दृष्टि से अध्ययन और आलोडन किया जाये, तो उन से संस्कृत के सहस्रों लुप्त शब्दों का ज्ञान हो सकता है । और उस से सब भाषाओं का संस्कृत से सम्बन्ध भी स्पष्ट ज्ञात हो सकता है । नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत की संस्कृतछाया यदि उपर्युक्त दृष्टि से संस्कृतनाटकान्तर्गत प्राकृत का अध्ययन २० १. धातुप्रदीप के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने गत्यर्थ हन धातु का एक प्रयोग उद्धृत किया है—‘भूदेवेभ्यो महीं दत्वा यज्ञैरिष्ट्वा सुदक्षिणैः । अनुक्त्वा निष्ठुरं वाक्यं स्वर्गं हन्तासि सुव्रत || ' धातुप्रदीप पृष्ठ ७६, टि० २ । सम्भव है २५ यहां 'हन्तासि' के स्थान में 'गन्तासि' पाठ हो । साहित्य - विशारदों ने गत्यर्थ हन्ति के प्रयोग को दोष माना है । 'तुल्यार्थत्वेऽपि हि ब्रूयात् को हन्ति गति - वाचिनम्' । भामहालङ्कार ६ । २४ ॥ तथा - ' कञ्ज हन्ति कृशोदरी । अत्र हन्तीति गमनार्थे पठितमपि न तत्र समर्थम्' । साहित्य-दर्पण परि० ७, पृष्ठ ३६६ निर्णयसा० संस्क०; काव्यप्रकाश उल्लास ७ । महाभाष्य के प्रथम ३० माह्निक में लिखा है - 'गमिमेव त्वार्या: प्रयुञ्जते ' । इस से स्पष्ट है कि बहुत काल से आर्य गम के अतिरिक्त अन्य गत्यर्थक धातु का प्रयोग नहीं करते । ७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास mm ma किया जाये, तो उस से निम्न दो बातें अत्यन्त स्पष्ट होती हैं १. प्राकृत के आधार पर संस्कृत के शतशः विलुप्त शब्दों का पुनरुद्धार हो सकता है। २. नाटकान्तर्गत प्राकृत की जो संस्कृत छाया इस समय उपलब्ध ५ होती है, वह अनेक स्थानों में प्राकृत से अति दूर है। आधुनिक पंडित प्राकृत से प्रतीयमान संस्कृत शब्दों का प्रयोग करने में हिचकिचाते हैं । अतः उन स्थानों में प्राकृत से असम्बद्ध संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं। हम उदाहरणार्थ भास के नाटकों से कुछ प्रयोग उपस्थित करते हैप्राकृत मुद्रित संस्कृत मूल संस्कृत नाटकचक्र पृष्ठ अणुकरेदि अनुकरोति अनुकरति करअन्तः कुर्वन्तः • करन्तः पेक्खामि पश्यामि प्रेक्षामि पेक्खन्तो पश्यन्ती प्रेक्षन्ती १५ रोदामि रोदिमि रोदामि चञ्चलाप्रन्ति विन चञ्चलायेते इव चञ्चलायन्ति इव | मे अक्खीणि मेऽक्षिणी मेऽक्षीणि' । क्या अपशब्द साधु शब्द का स्मरण कराकर अर्थ का बोध कराते हैं ? अनेक वैयाकरणों का यह मत है कि असाधु शब्द के श्रवण से साधु शब्द की स्मृति होती है । और उस से अर्थ का बोध होता है । साक्षात् असाधु शब्द से अर्थ का बोध नहीं होता। यह मन्तव्य प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है। सर्वथा अनाड़ी पुरुष जिन को साधु शब्द-ज्ञान की स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते उन का अपनी भाषा के २५ शब्दों से ही अर्थ-प्रतीति लोक में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है । इसीलिये महा वैयाकरण भर्तृहरि ने लिखा है - साधुस्तेषामवाचकः । बाक्यपदीय १११५४॥ अर्थात्-अपशब्दों से प्रतीयमान अर्थ का साधु शब्द वाचक नहीं १. द्र०-'अक्षीणि मे दर्शनीयानि, पादा मे सुकुमाराः। महाभाष्य ३० १।४।२१॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ५७ होता । वृद्धव्यवहार से बालक असाध शब्दों का उस के अर्थ के साथ संकेत ग्रहण करते हैं और उसे संकेत ज्ञान से असाधु शब्द से सीधा अर्थ-बोध होता है। उपसंहार इस प्रकार हमने इस अध्याय में भारतीय इतिहास के अनुसार ५ संस्कृत-भाषा की प्रवत्ति और उस के विकास तथा ह्रास पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। प्राधनिक कल्पित भाषाशास्त्र का अधरापन, और उस से उत्पन्न होने वाली भ्रान्तियों का भी कुछ दिग्दर्शन कराया है । आधुनिक भाषाशास्त्र की समीक्षा' एक महान् कार्य है, उस के लिये स्वतन्त्र ग्रन्थ की आवश्यकता है। अतः हमने यहां उस १० की विस्तार से विवेचना नहीं की। इसी प्रकार संस्कृत-भाषा समस्त भाषाओं की प्रकृति है, उसी से समस्त अपभ्रंश भाषाएं प्रवृत्त हुई हैं, इस की विवेचना भी एक स्वतन्त्र विषय है। हमारे इस प्रकरण को लिखने का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है । कि संस्कृत-भाषा में आदि से लेकर आज तक कोई मौलिक परिवर्तन १५ नहीं हुआ। आधुनिक पाश्चात्त्य भाषाशास्त्री संस्कृत-भाषा में जो परिवर्तन दर्शाते हैं, वह केवल प्राचीन अतिविस्तृत संस्कृत-भाषा में उत्तरोत्तर शब्दों के संकोच (= ह्रास) के कारण प्रतीत होता है। वस्तुतः उस में परिवर्तन कुछ भी नहीं हुआ। ___ इसी प्रकार पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा की गई संस्कृत-वाङमय के २० कालविभाग की कल्पना भी सर्वथा प्रमाणशून्य है। भारतीय इतिहास में अनेक ऋषि ऐसे हैं, जिन्होंने वेदों की शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, कल्पसूत्र, आयुर्वेद और व्याकरण आदि अनेक विषयों का प्रवचन किया। इन ग्रन्थों में जो भाषाभेद आपाततः प्रतीत होता है, वह रचनाशैली और विषय की विभिन्नता के कारण है। यह बात २५ प्रत्यात्म वेदनीय है। अतः संस्कृत वाङमय में पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा ‘कल्पित कालविभाग' और 'संस्कृत-भाषा में परिवर्तन' ये दोनों ही पक्ष उपपन्न नहीं हो सकते ।। अब हम अगले अध्यय में संस्कृत-भाषा के व्याकरण की उत्पत्ति और इस की प्राचीनता पर लिखेंगे । १. इस के लिये देखिये श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत 'भाषा का इतिहास' । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ५ ब्रह्मा से लेकर दयानन्द सरस्वती' पर्यन्त समस्त भारतीय विद्वानों का मत रहा है कि संसार में जितना ज्ञान प्रवृत्त हुआ, उस सब का आदिमूल वेद है । प्रतएव स्वायंभुव मनु ने वेद को सर्वज्ञानपय कहा है । मनु आदि महर्षि उसी ज्ञान से संसार को प्रकाश दे रहे थे, अतः वे ऐसा क्यों न कहते ? * व्याकरण का आदिमूल वेद ही इस सिद्धान्तानुसार व्याकरणशास्त्र का आदि मूल भी १० है । वैदिक मन्त्रों में अनेक पदों की व्युत्पत्तियां उपलब्ध होती हैं 1 । वे इस सिद्धान्त को पोषक हैं । यथा १५ २० २५ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः । ऋ० १।१६४।५० ॥ ये सहांसि सहसा सहन्ते । ऋ० ६।६६।६ ॥ पूर्वोरश्नन्तावश्विना । ऋ०८।५।३१ ।। स्तोतृभ्यो महते मघम् । ऋ० १।११।३ ॥ धान्यमसि घिनुहि देवान् । यजु० १२० ।। 1. we may divide the whole of sanskrit literature, beginning with the Rig-Veda ending with Dayananda's Introduction to his edition of the Rig-VedaIndia : what can it teach us, Lecture lll of Maxmu'ar. २. सर्वज्ञानमयो हि सः । मनु० २|७ | मेघातिथि की टीका ॥ ३. यज्ञः कस्मात् ? प्रख्यातं यजति कर्मेति नैरुक्ताः । निरुक्त ३।१६ ॥ यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् । भ्रष्टा० ३ | ३|१० ॥ ४. सहधातोः 'असुन्' (दश० उ० ९ ४६; पं० उ० ४ १९० ) इत्यसुन् । ५. अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वम् । निरुक्त १२१ ॥ ६. मधमिति धननामधेयम्, मंहतेर्दानकर्मणः । निरुक्त १७ ॥ ७. घिनोतेर्धान्यम् । महाभाष्य ५|२| ४ || Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पति और प्राचीनता ५६ केतपूः केतं नः पुनातु ।' यजु० १११७ ।। येन देवाः पवित्रेणात्मानं पुनते सदा । साम० उ० ५।२।८।५॥ तीर्थस्तरन्ति । अथर्व० १८।४।७ ।। यददः सं प्रयतीरहावनदता हते । तस्मादा नद्यो नाम स्थ । अथर्व० ३।१३।१ ॥ ५ तदाप्नोदिन्द्रों वो यतीस्तस्मादापो अनुष्ठन । अथर्व० ३।१३।२ शब्दशास्त्र के प्रमाणभूत आचार्य पतञ्जलि मुनि ने व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का वर्णन करते हुए चत्वारि शृङ्गा, चत्वारि वाक्, उत त्वः, सक्तुमिव, सुदेवोऽसि ये पांच मन्त्र उद्धृत किये हैं, और उन की व्याख्या व्याकरणशास्त्रपरक की है। पतञ्जलि से १० बहुत प्राचीन यास्क ने भी चत्वारि वाक् मन्त्र की व्याख्या व्याकरण शास्त्रपरक लिखी है। व्याकरण पद जिस धातु से निष्पन्न होता है, उस का मूल-अर्थ में प्रयोग यजु० १९७७ में उपलब्ध होता है । व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति कब हुई, इस का उत्तर अत्यन्त दुष्कर १५ है। हां, इतना निस्सन्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि उपलब्ध वैदिक पदपाठों (३२०० वि० पू०) की रचना से पूर्व व्याकरणशास्त्र १. केतोपपदात् पुनाते: 'क्विप् च' (अष्टा० ३।२१७६) इति क्विप् । २. पवित्रं पुनाते: । निरुक्त ५।६॥ पुनाते: ष्ट्रन । द्र०-अष्टा० ३।२।१८५, १८६ ॥ ३. पातृतुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक् । पंच० उणादि २७ ॥ ४. नद्यः कस्मान्नदना इमा भवन्ति शब्दवत्यः । निरुक्त २।२४ ॥ ५. आप प्राप्नोते: । निरुक्त ६।२६; प्राप्नोतेह्र स्वश्च । पं० उ० २॥५६॥ ६. ऋ० ४१५८२३॥ ७. ऋ० १३१६४१४५ ॥ ८. ऋ० १०७१॥४॥ ६. ऋ० १०७१।२ ॥ १०. ऋ० ८।६।१२ ॥ ११. महाभाष्य प्र० १, पा० १, प्रा० १ ॥ १२. नामख्याते चोपसर्गनिपाताश्चेति वैयाकरणा: । निखत १३६॥ १३. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अपनी पूर्णता को प्राप्त हो चुका था । प्रकृति-प्रत्यय,' धातु-उपसर्ग, और समासघटित पूर्वोत्तरपदों का विभाग पूर्णतया निर्धारित हो चुका था। वाल्मीकीय रामायण से विदित होता है कि महाराज राम के काल में व्याकरणशास्त्र का सुव्यवस्थित पठनपाठन होता था।' भारत-युद्ध के समकालिक यास्कीय निरुक्त में व्याकरणप्रवक्ता अनेक वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है। समस्त नाम शब्दों की धातुओं से निष्पत्ति दर्शाने वाला मूर्धाभिषिक्त शाकटायन व्याकरण भी यास्क से पूर्व बन चुका था। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि के लेखानुसार अत्यन्त पुराकाल में व्याकरणशास्त्र का पठन-पाठन प्रचलित था।' १० इन प्रमाणों से इतना सुव्यक्त है कि व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति अत्यन्त प्राचीन काल में हो गई थी। हमारा विचार है कि-'त्रता युग के प्रारम्भ में व्याकरणशास्त्र ग्रन्थ रूप में सुव्यवस्थित हो चका था। _ व्याकरण शब्द की प्राचीनता १५ शब्दशास्त्र के लिये व्याकरण शब्द का प्रयोग रामायण, गोपथ १. वाजिनीऽवती। ऋ० पद० १।३।१० ॥ प्रास्तृऽभि । ऋ० पद० • १८४ । महिऽत्वम् । ऋ० पद० १।८।५ ॥ २. सम्ऽजग्मानः । ऋ० पद० १६७ ॥ प्रतिरन्ते । ऋ० पद० ११११३।१६ । प्रतिऽहर्यते । ऋ० पद० ८।४३।२ ।। २० ३. रुद्रवर्तनी इति रुद्रऽवर्तनी । ऋ० पद० १।३।३ । पतिऽलोकम् । ऋ० पद. १०।८।४३ ॥ __. नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् । बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपभाषितम् ॥ किष्किन्धा० ३।२६ ॥ हनुमान का इतना वाक्पटु होना युक्त ही था,क्योंकि हनुमान् का पिता वायु शब्दशास्त्र-विशारद था (वायु पु० २०४४)। २५ ५. न सर्वाणीति गाग्र्यो वैयाकरणानां चैके। निरुक्त १॥१२॥ ६. अनुशाकटायनं वैयाकरणाः, उपशाकटायनं वैयाकरणाः । काशिका १॥४॥८६, ८७। ७. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नरुक्तसमयश्च । निरु० १॥१२॥ ८. पुराकल्प एतदासीत, संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते । 1. महाभाज्य प्र. १, पा० १, प्रा० १॥ ६. रामायण किष्किन्धा० ३।२६ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ६१ ब्राह्मण' मुण्डकोपनिषद्' और महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है । षडङ्ग शब्द से व्याकरण का निर्देश शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, कल्प और ज्योतिष इन ६ वेदाङ्गों का षडङ्ग शब्द से निर्देश गोपथ ब्राह्मण, बौधायन आदि ५ धर्मशास्त्र' और रामायण आदि में प्रायः मिलता है । पतञ्जलिमुनि ने भी ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' यह आगमवचन उद्धृत किया है ।" सम्प्रति उपलभ्यमान ब्राह्मणों से भी अति प्राचीन देवल ने व्याकरण की षडङ्गों में गणना की है । ब्राह्मण ग्रंथों में षडङ्ग शब्द से कहीं आत्मा का भी ग्रहण होता है ।" व्याकरणान्तर्गत कतिपय संज्ञाओं की प्राचीनता इस प्रकार न केवल व्याकरणशास्त्र की प्राचीनता सिद्ध होती है, अपितु पाणिनीयतन्त्र में स्मृत अनेक अन्वर्थ संज्ञाएं भी प्रति प्राचीन प्रतीत होती हैं । उन में ये कुछ संज्ञाओं का निर्देश गोपथ ब्राह्मण में मिलता है । यथा १५ १. गो० ब्रा० पू० १ २४ ॥ २. मुण्डको ० ११५ ॥ ३. सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते । तन्मूलतो व्याकरणं व्याकरोतीति तत्तथा ॥ महाभारत उद्योग० ४२।६० ।। ४. षडङ्गविदस्तत् तथाधीमहे । गो० ब्रा० पू० १।२७ ॥ ५. बौघा ० धर्म ० २।१४ । २ । गौतम धर्म० १५। २८ ।। · २० ६. नाशडङ्गविदत्रासीन्नाव्रतो नाबहुश्रुतः । रामा० बाल० १४ । २१ । ७. आगामो वेद इति वैयाकरणाः । द्र० - शिवरामेन्द्रकृत महाभाष्य की रत्नप्रकाश पत्रा ५, सरस्वतीभवन काशी का हस्तलेख, पाण्डीचेरी से मुद्रित भाग १, पृष्ठ ३५ । । स्मृतिरिति मीमांसकाः । तन्त्रवार्तिक पूना संस्क० पृष्ठ २६५, पं० १२ । न्यायसुधा पृष्ठ २८४, पं० ६ ॥ २५ ८. महाभाष्य श्र० १, पा० १ ० १ ॥ ६. ‘देवल:—– शिक्षाव्याकरणनिरुक्तछन्दकल्पज्योतिषाणि' । वीरमित्रोदय, परिभाषा प्रकाश, पृष्ठ २० पर उद्धृत । १०. षड्विधो वै पुरुष: षडङ्गः । ऐ० ब्रा० २।३६ ॥ षडङ्गोऽयमात्मा षड्विधः । शां० ब्रा० १३।३ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास प्रोङ्कारं पृच्छामः, को धातुः, किं प्रातिपदिकं, कि नामाख्यातम्, कि लिङ्ग, कि वचनं, का विभक्तिः कः प्रत्ययः, क: स्वर उपसर्गो निपातः, किं वै व्याकरणं, को विकारः, को विकारी, कतिमात्रः, कतिवर्णः, कत्यक्षरः, कतिपदः, कः संयोगः, कि स्थाननादानुप्रदानानुकरणम् .....।' ६२ २५ मंत्रायणी संहिता १1७13 में वैयाकरण - प्रसिद्ध विभक्ति-संज्ञा का उल्लेख मिलता है । ऐतरेय ब्राह्मण ७१।७ में विभक्ति रूप से सप्तधा विभक्त वाणी का उल्लेख है ।" व्याकरणशास्त्र की प्राचीनता के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि मूल वेदातिरिक्त जितना भारतीय वैदिक वाङमय सम्प्रति उपलब्ध है । उस में व्याकरणशास्त्र का उल्लेख मिलता है । अत: यह सुव्यक्त है कि वर्तमान में उपलब्ध कृष्ण द्वैपायन के शिष्य - प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त समस्त प्रार्ष वैदिक वाङ् मय की रचना से पूर्व १५ व्याकरणशास्त्र पूर्णतया सुव्यवस्थित बन चुका था, और वह पठनपाठन में व्यवहृत होने लग गया था । व्याकरण का प्रथम प्रवक्ता - ब्रह्मा भारतीय ऐतिह्य में सब विद्याओं का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा कहा गया है । यह एक निश्चित सत्य तथ्य है । तदनुसार व्याकरणशास्त्र २० का आदि प्रवक्ता भी ब्रह्मा है । ऋक्तन्त्रकार ने लिखा है ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच बृहस्पतिरिन्द्राय इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः || १ | ४ || इस वचनानुसार व्याकरण के एकदेश अक्षरसमाम्नाय का सर्वप्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा है । युवानचांग (ह्य नसांग) ने भी अपने भारत १. गो० ब्रा० पू० १।२४ ॥ २. तस्मात् षड् विभक्तय: । यह षड्-विध विभक्तियों का उल्लेख पुनराधेय प्रकरणगत प्रयाजों के सविभक्तिकरण - संबन्धी है । प्रयाजा : सविभक्तिकाः कार्याः । महाभाष्य १ । १ । १ में उद्धृत वचन । ३. सप्तधा वै वागवदत् । रुप्त विभक्तय इति भट्टभास्करः । तुलना करो 'स्य ते सप्त सिन्धवः । ऋ० ८ । ६६ । १२ सप्त सिन्धवः सप्त विभक्तयः । ३० महाभाष्य । - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता भ्रमण के विवरण में ब्रह्मदेव कृत व्याकरण का निर्देश किया है ।' भारतीय ऐतिह्यानुसार ब्रह्मा इस कल्प के विगत जल-प्लावन के पश्चात् हुआ था। यद्यपि उत्तरकाल में यह नाम उपाधिरूप में अनेक व्यक्तियों के लिये प्रयुक्त हा, तथापि सर्वविद्याओं का आदि प्रवक्ता प्रथम ब्रह्मा ही है, और वह निश्चित ऐतिहासिक व्यक्ति है। ५ इस का काल न्यूनातिन्यून १६ सहस्र वर्ष पूर्व है । ब्रह्मा का शास्त्र-प्रवचन समस्त भारतीय प्राचीन ऐतिहासिकों का सुनिश्चित मत है कि लोक में जितनी भी विद्यानों का प्रकाश हुआ, उन विद्याओं का प्रवचन ब्रह्मा ने ही किया था। यह प्रवचन अति विस्तृत था । यह १० आदि प्रवचन ही शास्त्र अथवा शासन नाम से प्रसिद्ध हुआ । उत्तरवर्ती समस्त प्रवचन ब्रह्मा के आदि प्रवचन के अनुसार हुअा, और वह भी उत्तरोत्तर संक्षिप्त । अतः उत्तरवर्ती प्रवचन मुख्यतया अनुशास्त्र अनुतन्त्र अथवा अनुशासन' कहाते हैं । इन के लिए शास्त्र अथवा तन्त्र शब्द का प्रयोग गौणीवृत्ति से किया जाता है । पं. भगवद्दत्तजी ने 'भारतवर्ष का बृहद इतिहास' ग्रन्थ के द्वितीय भाग (अ० ४) में ब्रह्मा द्वारा प्रोक्त जिन २२ शास्त्रों का सप्रमाण उल्लेख किया है, उन के नाम इस प्रकार हैं - १. वेदज्ञान ७. धनुर्वेद १३. लिपि-ज्ञान १६. नाट्यवेद २. ब्रह्मज्ञान ८. पदार्थविज्ञान १४. ज्योतिषशास्त्र २०. इतिहास २० ३. योगविद्या ६. धर्मशास्त्र १५. गणितशास्त्र पुराण । ४. आयुर्वेद १०. अर्थशास्त्र १६. वास्तुशास्त्र २१, मीमांसाशास्त्र ५. हस्त्यायुर्वेद ११. कामशास्त्र १७. शिल्पशास्त्र २२. शिवस्तव वा ६. रसतन्त्र १२. व्याकरण १८ अश्वशास्त्र स्तव-शास्त्र १. हुएनचांग का भारतभ्रमण-वृत्तान्त, पृष्ठ १०६;पं० १४-१५ । २५ इण्डियनप्रेस, प्रयाग, सन् १९२६ । २. अनुशासन आदि में प्रयुक्त 'अनु'निपात अनुक्रम और हीन दोनों अर्थों का द्योतक है। उत्तरवर्ती तन्त्र संक्षिप्त होने से पूर्व तन्त्रों की अपेक्षा हीन हुए। 'अनुशाकटायनं वैयाकरणाः' में 'अनु' शब्द हीन अर्थ का द्योतक है । द्रष्टव्य'हीने' (११४१८६) सूत्र की काशिका। ३. तन्त्रमिव तन्त्रम् । ३० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास द्वितीय प्रवक्ता-बृहस्पति ऋक्तन्त्र के उपर्युक्त वचन के अनुसार व्याकरणशास्त्र का द्वितीय प्रवक्ता बृहस्पति है। अङ्गिरा का पुत्र होने से यह प्राङ्गिरस नाम से प्रसिद्ध है । ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे देवों का पुरोहित लिखा है ।' कोष ५ ग्रन्थों में इसे सुराचार्य भी कहा है। मत्स्य पुराण २३।४७ में यह वाक्पति पद से स्मृत है। - बृहस्पति का शास्त्र प्रवचन देवगुरु बृहस्पति ने अनेक शास्त्रों का प्रवचन किया था। उन में से जिन कतिपय शास्त्रों का उल्लेख प्राचीन वाङमय में उपलब्ध १० होता है, वे इस प्रकार हैं १. सामगान-छान्दोग्य उपनिषद् २।२२।१ में बृहस्पति के सामगान का उल्लेख मिलता है । २. अर्थशास्त्र-बृहस्पति ने एक अर्थशास्त्र रचा था । महाभारत में इस शास्त्र का विस्तार तीन सहस्र अध्याय बताया है। इस अर्थ१५ शास्त्र के मत और वचन कोटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकोय नीतिसार और याज्ञवल्क्यस्मृति की बालक्रीडा टोका प्रभति ग्रन्थों में बहुधा उद्धृत हैं। ____३. इतिहास-पुराण-वायु पुराण १०३।५६ के अनुसार बृहस्पति ने इतिहास पुराण का प्रवचन किया था। ___-६. वेदाङ्ग-महाभारत में बृहस्पति को समस्त वेदाङ्गों का प्रवक्ता कहा है। व्याकरण-वेदाङ्गों के अन्तर्गत व्याकरणशास्त्र के प्रवचन का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है । महाभाष्य के अनुसार बहस्पति ने इन्द्र को दिव्य (=सौर) सहस्र वर्ष तक प्रतिपद व्याकरण का उप २५ १. बृहस्पतिर्वं देवानां पुरोहितः । ऐ० ब्रा० ८।२६ ॥ २. भार्यामर्पय वाक्पतेस्त्वम् । ३. अध्यायानां सहस्रेस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः । शान्ति० ५६।८४ ॥ ४. बृहस्पतिस्तु प्रोवाच सवित्रे तदनन्तरम् । ५. वेदाङ्गानि बृहस्पतिः । शान्ति० अ० २१०, श्लोक २० ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता देश किया था।' ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड अ० ५ में लिखा है पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् । दिव्यं वर्षसहस्र च स त्वा दध्यौ च पुष्करे ॥२७॥ तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम् । उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥२८॥ व्याकरण-ग्रन्थनाम-शब्दपारायण-महाभाष्यकार ने शब्दपारायणं प्रोवाच लिखा है। भर्तृहरि ने महाभाष्य की व्याख्या में लिखा 'शब्दपारायणं' रूढिशब्दोऽयं कस्यचिद् ग्रन्थस्य । पृष्ठ २१ । इस से प्रतीत होता है कि बृहस्पति के व्याकरणशास्त्र का नाम शब्द- १० पारायण था। प्रतिपद-पाठ का स्वरूप क्या था, यह अज्ञात है। सम्भव है एक जैसे रूपवाले नामों और पाख्यातों का संग्रह रूप रहा हो । आज भी राम आदि शब्दों और कतिपय धातुओं के रूप बालकों को स्मरण करा कर तत्सदृश रूप वाले कतिपय नामों और धातुओं का परिगणन करा १५ देते हैं। व्याकरण मरणान्त व्याधि-न्यायमञ्जरी में जयन्त ने बृहस्पति का एक वचन उद्धृत किया है । तदनुसार प्रौशनसों (उशना-प्रोक्त शास्त्र के अध्येताओं) के मत में व्याकरण 'मरणान्त-व्याधि' कहा गया है। १. "बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच (१।१।१)।" यह अर्थवाद है । इस का तात्पर्य सुदीर्घकाल में है। अर्थवाद के रूप में 'दिव्य सहस्रवर्ष' भारतीय-वाङ्मय में बहुधा व्यवहृत होता है यथा___ स [प्रजापति:] भूम्यां शिरः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रं तपोऽतप्यत । कठ ब्रा० २५ संकलन, अग्न्याधेय ब्रा०, पृष्ठ १७ ॥ दिव्यं सहस्रं वर्षाणाम् । चरक चि० ३।१५ ।। दिव्यं वर्षसहस्रकम् । रामा० बाल० २६।११ ॥ तथा हि श्रूयतेदिव्य वर्षसहस्रमुमया सह...। कामसूत्र टीका ११११८ ॥ २. तथा च बृहस्पतिः–प्रतिपदमशक्यत्वाल्लक्षणस्याप्यव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलितदर्शनाद अनवस्थाप्रसङ्गाच्च मरणान्तो व्याधियाकरणमिति ३० प्रौशनसा इति । न्यायमञ्जरी पुष्ठ ४१८ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ज्योतिष -वेदाङ्गान्तर्गत ज्योतिषशास्त्र के प्रवचन का निर्देश प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ में उपलब्ध होता है ।' ११, वास्तुशास्त्र-मत्स्य पुराण में बृहस्पति को वास्तुशास्त्र का प्रवर्तक लिखा है। १२. अगवतन्त्र-बृहस्पति ने किसी अगदतन्त्र का भी प्रवचन किया था। - व्याकरण का आदि संस्कर्ता-इन्द्र पातञ्जल महाभाष्य से विदित होता है कि बृहस्पति' ने इन्द्र के लिये प्रतिपद-पाठ द्वारा शब्दोपदेश किया था । उस समय तक १० प्रकृतिप्रत्यय विभाग नहीं हा था। प्रथमतः इन्द्र ने शब्दोपदेश की प्रतिपदपाठ-रूपी प्रक्रिया की दुरूहता को समझा, और उसने पदों के प्रकृति-प्रत्यय विभाग द्वारा शब्दोपदेश प्रक्रिया को प्रकल्पना की । इस का साक्ष्य तैत्तिरीय संहिता ६१४१७ में मिलता है वाग्व पराच्यव्याकृतावदत् । ते देवा इन्द्रमब्रुवन, इमां नो वाचं १५ व्याकुविति ..तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् । इस की व्याख्या करते हुये सायणाचार्य ने लिखा है । तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययविभागं सर्वत्राकरोत् । १. चेद् बृहस्पतिमतं प्रमाणम् । प्रबन्धचिन्तामणि पृष्ठ १०६ ॥ २० २. तथा शुक्रबृहस्पती... अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः । २५१॥३-४॥ ३. पही बृहस्पति देवों का पुरोहित था। इसने अर्थशास्त्र की रचना की थी। यह चक्रवर्ती मरुत्त से पहले हुआ था। द्र०–महाभारत शान्ति० ७५।६।। ४. बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच । महाभाष्य अ० १, पा० २, प्रा० १॥ तुनना करो-दिव्यं वर्षसहस्रमिन्द्रो बृहस्पतेः सकाशात् प्रतिपदपाठेन शब्दान् पठन् नान्तं जगामेति । प्रक्रिया कौमुदी भाग १, पृष्ठ ७ । सम्भवत: यह पाठ महाभाष्य से भिन्न किसी ग्रन्थ से उद्धृत किया है । ५. तुलना करो-मै० सं०४१५८|| का० सं० २७॥२॥ कपि० सं० ४२॥३॥ १० स (इन्द्रो) वाचैव वाचं व्यावर्तयद । मै० सं० ४।५।८।। शत० ४।१।३॥११॥ ६. सायण ऋग्भाष्य उपोदधात, पूना संस्क० भा० १, पृष्ठ २६ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र को उत्पत्ति और प्राचीनता ६७ अर्थात् –वाणी पुराकाल में अव्याकृत (=व्याकरण-सम्बन्धी प्रकृति-प्रत्ययादि संस्कार से रहित अखण्ड पदरूप) बोली जाती थी। देवों ने [अपने राजा] इन्द्र से कहा कि इस वाणी को व्याकृत (= प्रकृति प्रत्ययादिसंस्कार से युक्त) करो।""""इन्द्र ने उस वाणी को मध्य से तोड़ कर व्याकृत (=प्रकृतिप्रत्ययादिसंस्कार से युक्त) ५ किया। माहेश्वर सम्प्रदाय व्याकरणशास्त्र में दो मार्ग अथवा सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं। एक ऐन्द्र और दूसरा माहेश्वर अथवा शैव । वर्तमान प्रसिद्धि के अनुसार कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का है, और पाणिनीय व्याकरण शैव १० सम्प्रदाय का। महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत शिवसहस्रनाम में लिखा हैवेदात् षडङ्गान्युद्धृत्य । २८४।१९२ ॥ इस से स्पष्ट है कि बृहस्पति के समान शिव ने भी षडङ्गों का प्रवचन किया था। निरुक्त १।२० के विल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुर्वेदं च वेदाङ्गानि च । वचन में बहुवचन निर्देश भी इस बात का संकेत करता है कि वेदाङ्गों के प्राद्य प्रवचनकर्ता अनेक व्यक्ति थे। माहेश्वर तन्त्र के विषय में अगले अध्याय में विस्तार से लिखेंगे। व्याकरण का बहुविध प्रवचन पूर्व लेख से विस्पष्ट है कि व्याकरण वाङमय में ऐन्द्र तन्त्र सब से प्राचीन है। तदनन्तर अनेक वैयाकरणों ने व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया। उन के प्रवचनभेद से अनेक व्याकरण-ग्रन्थों की रचना हई। - पाणिनि से प्राचीन ८५ व्याकरण-प्रवक्ता इन्द्र से लेकर आज तक कितने व्याकरण बने, यह अज्ञात है। २५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास पाणिनि ने अपने शास्त्र में १० प्राचीन प्राचार्यों का नामनिर्देशपूर्वक उल्लेख किया है ।' इन के अतिरिक्त पाणिनि से प्राचीन १६ प्राचार्यों का उल्लेख विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है । १० प्रातिशाख्य और और ७ अन्य वैदिक व्याकरण उपलब्ध या ज्ञात हैं । इन प्रातिशाख्य मादि ग्रन्थों में ५ प्राचीन प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि किन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा तथा छन्द का समावेश उपलब्ध होता है, तथापि प्रातिशाख्यों को वैदिक व्याकरण कहा जा सकता है । अतः प्रातिशाख्यग्रन्थों में स्मृत आचार्य भी अवश्य ही व्याकरणप्रवक्ता रहे होंगे । उन की व्याकरणप्रवक्ता प्राचार्यों में गणना करने पर पुनरुक्त १० नामों को छोड़ कर लगभग ८५ पिच्यासी प्राचीन व्याकरणप्रवक्ता आचार्यों के नाम हमें ज्ञात हैं । परन्तु इस ग्रन्थ में हम केवल उन्हीं प्राचार्यों का उल्लेख करेंगे, जो पाणिनीय प्रष्टाध्यायी में निर्दिष्ट हैं, तथा जिन के व्याकरणप्रवक्ता होने में अन्य सुदृढ़ प्रमाण मिलते हैं । प्रातिशाख्यों में निर्दिष्ट प्राचार्यों का केवल नामोल्लेख रहेगा, विशेष १५ वर्णन इस ग्रन्थ में नहीं किया जायेगा । आठ व्याकरण- प्रवक्ता अर्वाचीन ग्रन्थकार प्रधानतया प्राठ शाब्दिकों का उल्लेख करते हैं । हैमबृहद् वृत्त्यवचूर्णि में पृष्ठ ३ पर निम्न आठ व्याकरणों का उल्लेख है - ५ ब्राह्ममैशानमैन्द्रं च प्राजापत्यं बृहस्पतिम् । स्वाष्ट्रमापिशलं चेति पाणिनीयमथाष्टमम् ।। इस में जो आठ व्याकरण गिनाए हैं - ब्राह्म, ऐशान ( = शैव ) ऐन्द्र, प्राजापत्य, बाह्स्पत्य, त्वाष्ट्र, पिशल और पाणिनीय । १. प्रापिशल ( श्र० ६।१।९२), काश्यप (अ०१ । २ । २५ ), गार्ग्य (श्र० २५ ८।३।२०), गालव ( श्र० ७ १/७४), चाक्रवर्मण ( श्र० ६ | १|१३०), भारद्वाज (०७/२/६३), शाकटायन ( ० ३ | ४ | १११ ), शाकल्य ( ० १|१|१६ ), सेनक (अ० ५।४।११२), स्फोटायन (अ० ३।१।१२३) । २. व्याकरणमष्टप्रभेदम् । दुर्गं निरुक्तवृत्ति ( आनन्दाश्रम सं०) पृष्ठ ७४ । व्याकरणेऽप्यष्टघाभिन्ने लक्षणैकदेशो विक्षिप्त: । दुर्ग निरुक्तवृत्ति, पृष्ठ ७८ । ३० लुठिताष्ट, व्याकरणः । प्रबन्धचिन्तामणि' पृष्ठ ६८ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ऋग्वेद-कल्पद्रुम में यामलाष्टक तन्त्र निर्दिष्ट निम्न आठ व्याकरण उद्धृत हैं ब्राह्म, चान्द्र, याम्य, रौद्र, वायव्य, वारुण, सौम्य, वैष्णव । बोपदेव ने अपने कविकल्पद्रुम ग्रन्थ के प्रारम्भ में निम्न आठ वैयाकरणों का उल्लेख किया है-- इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।। इन में शाकटायन पद से आर्वाचीन जैन शाकटायन अभिप्रेत है, वा प्राचीन वैदिक शाकटायन, यह अस्पष्ट है । भोजविरचित सरस्वतीकण्ठाभरण की एक टीका में भी 'अष्ट व्याकरण' का उल्लेख १० है। भास्कराचार्यप्रणीत लीलावती के किसी-किसी हस्तलेख के अन्त में पाठ व्याकरण पढ़ने का उल्लेख उपलब्ध होता है। विक्रम की षष्ठ-शताब्दी वा उससे पूर्वभावी निरुक्तवृत्तिकार दुर्गाचार्य 'व्याकरणमष्टप्रभेदम्" इतना ही संकेत करता है । उस के मत में ये पाठ व्याकरण कौन से थे, यह अज्ञात है । पूर्वोक्त इन्द्र, चन्द्र, काश- १५ कृत्स्न, प्रापिशलि, पाणिनि, अमर और जैनेन्द्र (=पूज्यपाद=देवनन्दी) विरचित ये सात व्याकरण उस के मत में भी माने जा सकते हैं । पाठवां यदि शाकटायन को मानें, तो निश्चय ही वह पाणिनि से पूर्वभावी वैदिक शाकटायन होगा, क्योंकि अर्वाचीन जैन शाकटायन १. हमारा हस्तलेख, पृष्ठ ११४ । २. सरस्वतीकण्ठाभरण दूजा प्रकरण प्रारम्भ'"सा च पाणिन्यादि अष्टव्याकरणोदित । भारतीय विद्या, वर्ष ३, अङ्क १, पृष्ठ २३२ में उद्धृत । ३. अष्टौ व्याकरणानि षट् च भिषजां व्याचष्ट ताः संहिता:........। ४. प्रानन्दाश्रम संस्क० पृष्ठ ७४ । .५. पं० सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे ने शतपथ भाष्यकार हरिस्वामी को २५ वैक्रसाब्द प्रवर्तक विक्रमादित्य का समकालिक सिद्ध किया है। देखो ग्वालियर से प्रकाशित विक्रम-द्विसहस्राब्दी स्मारक ग्रन्थ । तदनुनार आचार्य दुर्ग को विक्रम पूर्व मानना होगा। क्योंकि हरिस्वामी के गुरु स्कन्दस्वामी ने अपनी निरुक्तटीका के प्रारम्भ में दुर्गाचार्य का आदरपूर्वक स्मरण किया है। ऐसी अवस्था में दुर्गाचार्य ने किन अाठ व्याकरणों की ओर संकेत किया है, यह ३० बताना कठिन है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० नव व्याकरण रामायण उत्तरकाण्ड ( ३६।४७) में नव व्याकरण का उल्लेख है । " महाराज राम के काल में अनेक व्याकरण विद्यमान थे, इसका निर्देश रामायण किष्किन्धा काण्ड ( ३।२९) में मिलता है । भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना के संग्रह में 'गीतासार' नामक ग्रन्थ का १५ एक हस्तलेख है, उसमें भी नव व्याकरण का उल्लेख है । इस ग्रन्थ का काल अज्ञात है । श्रीतत्त्वविधि नामक वैष्णव ग्रन्थ में निम्न नौ व्याकरणों का उल्लेख मिलता है । २० २५ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास का काल विक्रम की 8 वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है ।' अमर शब्द से सम्भवतः नामलिङ्गानुशासन का कर्ता अमरसिंह अभिप्रेत है। अमरसिंहकृत शब्दानुशासन का उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता । लौकिकी किंवदन्ती से इतना ज्ञात होता है कि अमरसिंह महाभाष्य का प्रकाण्ड पण्डित था । कुछ वर्ष हुए पञ्जाब प्रान्तीय जैन पुस्तक भण्डारों का एक सूचीपत्र पञ्जाब यूनिवर्सिटी लाहौर से प्रकाशित हुआ है । उसके भाग १ पृष्ठ १३ पर अमरसिंहकृत उणादिवृत्ति का उल्लेख है । यह अमरसिंह नामलिंगानुशासनकार है वा भिन्न व्यक्ति, यह अभी अज्ञात है । ३० ७० ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् । सारस्वतं चापिशलं शाकल्यं पाणिनीयकम् ।। रामायणकाल में कौन से नौ व्याकरण विद्यमान थे, यह अज्ञात है ।" १. जैन साहित्य और इतिहास, प्र० सं० पृष्ठ १६०, द्वि० सं० १६६ । २. अमरसिंहो हि पापीयान् सर्वं भाष्यमचूचुरत् । ३. सोऽयं नवव्याकरणार्थवेत्ता । मद्रास ला जर्नल प्रेस १९३३ का संस्क० । ४. देखो पूर्व पृष्ठ ६० टिप्पणी ४ । ५. गीतासारमिदं शास्त्र गीतासारसमुद्भवम् । अत्र स्थितं ब्रह्मज्ञानं वेदशास्त्रसमुच्चयम् ।। ५५ ।। अष्टादश पुराणानि नव व्याकरणानि च । निर्मथ्य चतुरो वेदान् मुनिना भारतं कृतम् ॥ ५७ ॥ हस्तलेख नं० १६४, सन् १८८३-८४ । ६. व्याक० द० इ० पृष्ठ ४३७ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ७१ पांच व्याकरण काशिका वृत्ति (४।२।६०) में पांच व्याकरणों का उल्लेख मिलता है। परन्तु उसमें अथवा उसकी टीकानों में नाम निर्दिष्ट नहीं हैं। सम्भवत: ये ऐन्द्र, चान्द्र, पाणिनीय, काशकृत्स्न और आपिशल होंगे। व्याकरण-शास्त्रों के तीन विभाग आज तक जितने व्याकरणशास्त्र बने हैं, उनको हम तीन विभागों में बांट सकते हैं । यथा १. छान्दसमात्र-प्रातिशाख्यादि । २. लौकिकमात्र-कातन्त्रादि। ३. लौकिक वैदिक उभयविध-प्रापिशल, पाणिनीयादि । इन में लौकिक व्याकरण के जितने ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे सब पाणिनि से अर्वाचीन हैं। व्याकरण-प्रवक्ताओं के दो विभाग इस समय हमें जितने व्याकरणप्रवक्ता प्राचार्यों का ज्ञान है, उन्हें १५ हम दो भागों में बांट सकते हैं१. पाणिनि से प्राचीन। २. पाणिनि से अर्वाचीन । पाणिनि से प्राचीन आचार्य पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में आपिशलि, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फो- २० टायन इन दश शाब्दिकों का उल्लेख किया है। इन से अतिरिक्त शिव=महेश्वर, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, भरद्वाज, भागुरि, पौष्करसादि, १. पञ्चव्याकरण:। २. कुछ लोग पञ्च व्याकरण का अर्थ सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन समझते हैं। तथा अन्य-पदच्छेद, समास, २५ अनुवृति, वृत्ति और उदाहरण । यदि यह कल्पना मानी जाये, तो 'पञ्चाङ्गव्याकरणः' निर्देश होना चाहिये । ३. देखो पूर्व पृष्ठ ६८ टि.१ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास चारायण, काशकृत्स्न, शन्तनु, वैयाघ्रपद्य, माध्यन्दिनि, रौढि, शौनकि, गोतम और व्याडि, इन सोलह प्राचार्यों का उल्लेख अन्यत्र मिलता प्रातिशाख्य आदि रैदिक व्याकरणप्रवक्ता' प्रातिशाख्य-यद्यपि प्रातिशाख्य तत्-तत्-चरणों के व्याकरण हैं, तथापि उन में मन्त्रों के संहितापाठ में होनेवाले विकारों का प्रधानतया उल्लेख है। जिससे पदपाठस्थ मूल पदों के परिज्ञान में सुविधा होवे । इसी प्रकार इन में पदपाठ एवं क्रमपाठ सम्बन्धी आवश्यक नियमों का निर्देश है । यास्क के मतानुसार संहिता के मूल पदपाठ १० को आधार बनाकर सब चरणों के प्रातिशाख्यों की प्रवृत्ति हुई है।' प्रकृति-प्रत्यय-विभाग द्वारा पदसाधुत्व के अनुशासन की उन में आवश्यकता ही नहीं पड़ी । अतः उनकी गणना प्रधानतया शब्दानुशासन ग्रन्थों में नहीं की जा सकती। इस समय निम्न प्रातिशाख्य ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं१५ १. ऋक्प्रातिशाख्य-शौनककृत। २. वाजसनेयप्रातिशाख्य-कात्यायनकृत । ३. सामप्रातिशाख्य (पुष्प या फुल्ल सूत्र)-वररुचिकृत' ? ४, अथर्वप्रातिशाख्य.........। ५: तैत्तिरीयप्रातिशाख्य –.........। ६. मैत्रायणीयप्रातिशाख्य-........।" इन के अतिरिक्त चार प्रातिशाख्यों के नाम प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं २५ । १. प्रातिशाख्य आदि के विषय में इस ग्रन्थ के २८वें अध्याय में विस्तार से लिखा है, वहां देखना चाहिए। २. पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । निरु० १ । १७ ॥ ३. वन्दे वररुचि नित्यमूहाब्धेः पारदृश्वनम् । पोतो विनिर्मितो येन फुल्लसूत्रशतैरलम् । हरदत्तविरचित सामवेदसर्वानुक्रमणी, ऋक्तन्त्र के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ ७ । ४. द्र० मैत्रायणी संहिता की प्रस्तावना, पृष्ठ १६ (ौंध-संस्करण) । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता । ८. बाष्कल प्रातिशाख्य...। " १०. चारायणप्रातिशाख्य... । ७. श्राश्वलायनप्रातिशाख्य' ६. शांखायनप्रातिशाख्य ऋक्प्रातिशाख्य निश्चय ही पाणिनि से प्राचीन है, अन्य प्रातिशाख्यों के विषय में हम अभी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते । अन्य वैदिक व्याकरण - प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त तत्सदृश अन्य ५ निम्ननिर्दिष्ट वैदिक व्याकरण उपलब्ध होते हैं— १. ऋक्तन्त्र - शाकटायन या प्रौदवजि प्रणीत । २. लघु ऋक्तन्त्र" ....... ३. अथर्वचतुरध्यायी - शौनक अथवा कौत्स प्रणीत ।" १० 3..... ७३ १. यह प्रातिशाख्य अप्राप्य है । नाप्याश्वलायनाचार्यादिकृतप्रातिशाख्य १० सिद्धम् । वाज० प्रा० अनन्तभाष्य, मद्रास संस्क० पृष्ठ ४ । २. उपद्रुतो नाम सन्धिर्बाष्कलादीनां प्रसिद्धस्तस्योदाहरणम् ...। शांखायन श्री भाष्य १२ | १३ | ५ || ३. अलवर राजकीय हस्तलेख संग्रह सूचीपत्र ग्रन्थ संख्या १७ । ४. यह प्रातिशाख्य श्रप्राप्य है । देवपालविरचित लोगाक्षिगृह्यभाष्य में १५ यह उद्धृत है – “ तथा च चारायणिसूत्रम् ... "पुरुकृते च्छच्छ्रयो:, इति पुरु शब्द: कृतशब्दश्च लुप्यते यथासंख्यं छे छूटे परत: । पुरु छदनं पुच्छम्, कृतस्य छमिति" । ५ । १ ।। पृष्ठ १०१, १०२ । A A ५. ऋतन्त्र का संबन्ध सामवेदीय राणायनीय शाखा से है – 'राणायनीयानामृतन्त्रे प्रसिद्धा विसर्जनीयस्य अभिनिष्ठानाख्या इति' । गोभिलगृह्य भट्ट २० नारायणभाष्य २८ १४ ॥ ६. ऋक्तन्त्रव्याकरणे शाकटायनोऽपि - इदमक्षरं छन्दो...। नागेश, लघुशब्दे - न्दुशेखर, भाग १ पृष्ठ ७ । ऋचां तन्त्रव्याकरणे पञ्च संख्याप्रपाठकम् । शाकटायनदेवेन द्वात्रिंशत् खण्डकाः स्मृताः । हरदत्तकृत सामसर्वानुक्रमणी, ऋतन्त्र के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ ३ । तथा ऋक्तन्त्रव्याकरणस्य छान्दोग्यलक्षणस्य २५ प्रणेता प्रव्रजिरप्यसूत्रयत् । शब्दको तुभ १|१| ८ || अनन्त्यान्त्यसंयोगमध्ये यम: पूर्वगुणः (ऋक्तन्त्र १(२ ) इत्यौदवजिरपि । पाणिनीय शिक्षा की शिक्षाप्रकाश टीका, शिक्षासंग्रह पृष्ठ ३८८ इत्यादि । ७. टिनी के हस्तलेख के अन्त में शौनक का नाम है । बालशास्त्री गदरे ग्वालियर के संग्रह से प्राप्त चतुरध्यायी के हस्तलेख के प्रत्येक अध्याय के ३० अन्त में – “ इत्यथर्ववेदे कौत्सव्याकरणे चतुरध्यायिकायां • " पाठ उपलब्ध Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ ७४ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास ३० ४. प्रतिज्ञासूत्र - कात्यायनकृत ? ५. भाषिकसूत्र - कात्यायनकृत ? ६. सामतन्त्र - प्रव्रजि या गार्ग्य कृत' ? ७. प्रक्षरतन्त्र - आपिशलि कृत । इन में से प्रथम पांच ग्रन्थों में प्रातिशाख्यवत् प्रायः वैदिक स्वरादि कार्यों का उल्लेख है । संख्या ४-५ शुक्लयजुः प्रातिशाख्य के परिशिष्ट रूप हैं । अन्तिम दो ग्रन्थों में सामगान के नियमों का वर्णन है । प्रातिशाख्यों के प्रवक्ता और व्याख्याताओं का वर्णन २८ अध्याय में करेंगे । 1 वें प्रातिशाख्य आदि में उदधृत आचार्य इन प्रातिशाख्य आदि वैदिक ग्रन्थों में निम्न प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है - १. श्रग्निवेश्य - तै० ० प्रा० ६| ४ || मै० प्रा० ३ ६ |४ || २. श्रग्निवेश्यायन' - तै० प्रा० १५|३२|| मै० प्रा० २२|३२|| ३. श्रन्यतरेय ' - ऋ० प्रा० ३ | २२ || ४. श्रागस्त्य ' - ऋ० प्रा० वर्ग १|२ || ५. श्रात्रेय - तै० प्रा० ५। ३१ || १७ | ८ || मै० प्रा० ५।६३ || २|५||६|८|| ६. इन्द्र - ऋक्तन्त्र १|४|| होता है । यह हस्तलेख अब ओरियण्टल मैनुस्कृप्ट्स लायब्ररी उज्जैन में २० सुरक्षित है । देखो - न्यु इण्डियन एण्टीक्वेरी, सितम्बर १९३८ में सदाशिव एल० कात्रे का लेख । १. सामतन्त्रं प्रवक्ष्यामि सुखार्थं सामवेदिनाम् । प्रौदवजिकृत सूक्ष्मं सामगानां सुखावहम् ।। हरदत्तविरचित सामवेदसर्वानुक्रमणी पृष्ठ ४ सामतन्त्रं तु मायेणेत्येवं वयमुपदिष्टाः प्रामाणिकैरिति सत्यव्रतः । अक्षरतन्त्र भूमिका पृ० २। २५ २. प्रातिशाख्य की टीकाओं में कहीं-कहीं 'अग्निवेश्य' और अग्निवैश्यायन' नाम भी मिलता है । प्राग्निवेश्य का गृह्यसूत्र छप गया है । ३. मैत्रायणीय प्रातिशाख्य में उद्धृत नामों के लिये पं० सातवलेकर द्वारा प्रकाशित मैत्रायणी संहिता का प्रस्ताव, पृष्ठ १६ देखें । ४. चतुरध्यायी ३ । ७४ में 'श्रन्यतरेय' पाठ है । ५. शां० आरण्यक ७ । २ में भी निर्दिष्ट है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ७. उख्य - तै० प्रा० ८|२२|| १०|२०|| १६।२३ ॥ मै० प्रा० ८।२१।१०।२१ । २।४।२५।। उत्तमोत्तरीय - ते० प्रा० ८|२०|| ८. ६. प्रौदवजि' - ऋक्तन्त्र २।६।१०॥ १०. श्रौपशवि - वाज० प्रा० ३।१३१ ॥ भाषिकसूत्र २२०, २२ ॥ १५|७|| मे० प्रा० | १ || ११. काण्डमायन - तै० प्रा० ||१|| २।३॥७॥ १२. कात्यायन - वाज० प्रा० ८।५३॥ 2 १३. काण्व - वाज० प्रा० १।१२३, १४६ ॥ ४|५|| ८ | ५१ ॥ ५।३८ || १८ | ३ || १६ |२ || मं० प्रा० ५।४०।। २।५।४।। २|६|३|| २|६|| १४. काश्यप - वाज० प्रा० १५. कौण्डिन्य - तै० प्रा० १६, कोहलीपुत्र - तै० प्रा० १७|२|| मै० प्रा० २५२॥ १७. गार्ग्य - ऋ० प्रा० १|१५|| ६| ३६ | | ११।१७,२६ ।। १३|३१|| वाज० प्रा० ४।१६७॥ १८. गौतम - ते० प्रा० ५|३८|| मै० प्रा० ५। ४० ।। १६. जातूकर्ण्य - वाज० प्रा० ४। १२५, १६० | ५|२२|| २०. तैत्तिरीयक- तै० प्रा० २३ | १७॥ तैत्तिरीय, ते० प्रा० २३|१८ ॥ २१. दाल्भ्य - वाज० प्रा० ४ । १६ ॥ २२. नंगी - ऋक्तन्त्र २|६|६|| ४|३|२|| ७५ २३. पञ्चाल – ऋ० प्रा० २|३३|| २४. पाणिनि - लघु ऋक्तन्त्र, पृष्ठ ४६ ॥ २५. पौष्करसादि - ते० प्रा० ५।३७, ३८ || १३ | १६ ॥ १४॥२॥ १७।६। मै० प्रा० ५।३६, ४०|| २|१|१६|| २|५|६॥ २६. प्राच्य पञ्चाल - ऋ० प्रा० २।३३, ८१॥ २७. प्लाक्षायण - तै० प्रा० ६ |६|| १४|११, १७।। १८।५।। मे० प्रा० ||६|| २|६|२, ३|| १. नारदीय - शिक्षा में 'प्राचीनोदव जि' का उल्लेख मिलता है । देखो - शिक्षासंग्रह पृष्ठ ४४३ । २. स्थबिर कौण्डिन्य नाम । १० १५ २५ ३० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २८. प्लाक्षि-ते० प्रा० ५॥३८।। ६।६।। १४११०, १७॥ १८॥५॥ मै० प्रा० ५॥४०॥ ६॥६॥२६॥ २६. बाभ्रव्य'-ऋ० प्रा० १११६५।। ३०. बृहस्पति-ऋक्तन्त्र ११४॥ ३१. ब्रह्मा-ऋक्तन्त्र १४॥ ३२. भरद्वाज-ऋक्तन्त्र ११४॥ ३३. भारद्वाज-तै० प्रा० १७॥३॥ मै० प्रा० २।१२।। भाषिक सूत्र २॥१९॥ ३६॥ ३४. माक्षव्य-ऋ० प्रा० वर्ग १२॥ ३५. माचाकीय-तै० प्रा० १०॥२२॥ ३६. माण्डुकेय-ऋ० प्रा० वर्ग १।२॥ ३॥१४॥ ३७. माध्यन्दिन-वा० प्रा० ८।३५॥ ३८. मीमांसक-ते० प्रा० ५॥४१॥ ३९. यास्क-ऋ० प्रा० १७॥४॥ ४०. वाडबी (भी)कर तै० प्रा० १४।१३॥ ४१. वात्सप्र-तै० प्रा० १०।२३ । मै० प्रा० १०।२३॥ ४२. वाल्मीकि तै० प्रा० ५॥३६॥ १८६॥ मै०. प्रा० ५॥३८॥ २६॥ २।३०।६।४ ४३. वेदमित्र-ऋ० प्रा० ११५१॥ ४४. व्याडि-ऋ० प्रा० ३।२३, २८॥ ६॥४३॥ १३॥३१, ३७॥ ४५. शाकटायन-ऋ० प्रा० १११६॥ १३॥३६॥ वाज० प्रा० ३।६,१२,८७॥४॥५, १२६, १९१॥ शौ० च० २।२४॥ ऋक्तन्त्र ११॥ ४६. शाकल (=शाकल्य के अनुयायी)-ऋ० प्रा० ११६४॥ ११११६, ६१॥ ४७. शाकल्य-ऋ० प्रा० ३।१३, २२॥ ४॥१३॥ १३॥३१ । वाज० प्रा० ३।१० ॥ १. बाभ्रव्य-शालकायनों का विरोध, काशिका ४१३॥१२५; ६२॥३७॥ शां० प्रा० ७।१६ में बाभ्रव्य को पाञ्चाल चण्ड नाम से स्मरण किया है २. द्र०-शां० प्रा० ७॥२॥ ३. ह्रस्व माण्डूकेय-ऐ० प्रा० ३।२।१,६; शां० प्रा० ७.१३; १,११॥ ४. स्थविर शाकल्य-ऋ० प्रा० २।८१; ऐ० ब्रा० ३।२६ शां० प्रा० ७११७, ८।१,११॥ २५ ३० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र को उत्पत्ति और प्राचीनता ७७ ४८. शाकल्यपिता-ऋ० प्रा० ४।४।। ४६. शांखमित्रि-शौ० च० ३७४॥ ५०. शांखायन-ते० प्रा० १५७॥ मै० प्रा० २॥३७॥ ५१. शूरवीर- ऋ० प्रा० वर्ग १३॥ ५२. शरवीर-सूत'-ऋ० प्रा० वर्ग ॥३॥ ५३. शैत्यायन-तै० प्रा० ५॥४०॥ १७॥१,४॥ १८॥२॥ मै० प्रा० २५॥१॥२५॥६॥ २१६।२।३॥ ५४. शौनक-ऋ० प्रा० वर्ग ११॥ वा० प्रा० ४।१२२।। अथ० प्रा० ११२॥ शौ० च० १८॥ २॥२४॥ ५५. स्थविर कौण्डिन्य-तै० प्रा० १७॥४॥' ५६. स्थविर शोकल्य-ऋ० प्रा० २०८१॥ ५७. सांकृत्य-तै० प्रा० ८।२०॥ १०॥२१॥ १६।१६।। मै० प्रा० ८॥२०॥ १०॥२०॥२।४।१७।। ५८. हारीत-ते० प्रा० १४।१८।। ५६. नकुलमुख-ऋक्तन्त्र ३।३।१० की टीका में स्मृत ॥ इन ५६ आचार्यों में अनेक प्राचार्य व्याकरण-शास्त्र के प्रवक्ता रहे होंगे। इस ग्रन्थ में इन में से केवल १० प्राचार्यों का उल्लेख किया है । शेष प्राचार्यों के विषय में अन्य सुदृढ़ प्रमाण उपलब्ध न होने से कुछ नहीं लिखा। पाणिनि से अर्वाचीन आचार्य २० पाणिनि से अर्वाचीन अनेक प्राचार्यों ने व्याकरणसूत्र रचे हैं। उन में से निम्न प्राचार्य प्रधान हैं १........ कातन्त्र (२०००वि० पू०) २ चन्द्रगोमी चान्द्र (१००० वि० पू०) ३. क्षपणक क्षपणक (वि. प्रथम शताब्दी) २५ ४. देवनन्दी (दिग्वस्त्र) जैनेन्द्र (सं० ५०० से पूर्व) ५. वामन विश्रान्तविद्याधर (सं० ४००-६००) (१००० १. शौरवीर माण्डकेय-शां० प्रा० ७।२।। २. ते० प्रा० ४।४० के माहिषेयभाष्य में भी यह उद्धृत है। ३. द्र०—पूर्व पृष्ठ ७६ की टि० ४॥ ३० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० ७८ ६. पाल्य कीर्ति ७. शिवस्वामी ८. भोजदेव संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६. बुद्धिसागर १०. भद्रेश्वरसूरि ११. वर्धमान १२. हेमचन्द्र १३. मलयगिरि १४. क्रमदीश्वर १५. अनुभूतिस्वरूप १६. वोपदेव १७. पद्मनाभ जैन शाकटायन (सं० ८७१-९२४) (सं० ६१४-९४० सरस्वतीकण्ठाभरण (सं० २०७५ - १११० ) ( सं० २०८० ) — - बुद्धिसागर दीपक ...... हैमव्याकरण शब्दानुशासन जौमर सारस्वत मुग्धबोध (सं० १२०० से पूर्व ) (सं० ११५० - १२२५) (सं० ११४५ - १२२६) (सं० १९८८ - १२५० ) ( वि० १३०० से पूर्व ) (सं० १२५० ) (सं० १२८७ - १३५०) ( वि० १४वीं शताब्दी) सुपद्म इन से अरिरिक्त अन्य भी कतिपय प्रति अर्वाचीन व्याकरणकर्ता हुए हैं, उन के ग्रन्थ या तो नाममात्र के व्याकरण हैं अथवा श्रप्रसिद्ध १५ हैं । अतः उनका वर्णन इस ग्रन्थ में नहीं किया जायगा । अब अगले अध्याय में पाणिनीय-तन्त्र में अतुल्लिखित तथा पाणिनि से प्राचीन आचार्यों के विषय में लिखेंगे । 34312 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पानिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन आचार्य इस अध्याय में उन प्राचीन व्याकरण प्रवक्ता प्राचार्यों का वर्णन करेंगे, जिन का उल्लेख पाणिनीय अष्टक में नहीं मिलता । परन्तु वे पाणिनि से पूर्वभावी हैं, तथा जिनका व्याकरण-प्रवक्तृत्व ५ निर्विवाद है। १-शिव महेश्वर (९१५०० वि० पूर्व) शिव अपर नाम महेश्वर प्रोक्त व्याकरण का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है । यथा १-महाभारत शान्तिपर्व के शिवसहस्रनाम में शिव को षडङ्ग १० का प्रवर्तक कहा है वेदात् षडङ्गान्युद्धत्य । २८४ । १६२॥ षडङ्ग के अन्तर्गत व्याकरण प्रधान अङ्ग है । अतः शिव ने व्याकरण-शास्त्र का प्रवचन किया था, यह महाभारत के वचन से सुतरां सिद्ध है। २- श्लोकबद्ध पाणिनीय शिक्षा के अन्त में लिखा है थेनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ।। इसी श्लोक के आधार पर चतुर्दश प्रत्याहार-सूत्र माहेश्वर-सूत्र अथवा शिव-सूत्र कहे जाते हैं। ' ३-हैमबृहद्वृत्त्यवचूणि में पृष्ट ३ पर लिखा है ब्राह्ममैशानमैन्द्रञ्च प्राजापत्यं बहस्पतिम । स्वाष्ट्रमापिशलं चेति पाणिनीयमथाष्टमम् ।। . इसमें ऐशान अर्थात् ईशान (=शिव) प्रोक्त व्याकरण का स्पष्ट उल्लेख है। २५ ४-ऋग्वेदकल्पद्रुम के कर्ता केशव ने यामलाष्टक तन्त्र के उप . १५ २० Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खा है ८. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शास्त्रनिर्देशक कुछ श्लोक उदघृत किए हैं । वे इस प्रकार हैं यस्मिन् व्याकरणान्यष्टौ निरूप्यन्ते महान्ति च ॥ १० ॥ तत्राचं ब्राह्ममुदितं द्वितीयं चान्द्रमुच्यते। तृतीयं याम्यमाख्यातं चतुर्थ रौद्रमुच्यते ॥ ११॥ वायव्यं पञ्चमं प्रोक्तं षष्ठं वारुणमुच्यते । सप्तमं सौम्यमाख्यातमष्टमं वैष्णवं तथा ॥ १२ ॥ इस में भी रौद्र ( रुद्र=शिवप्रोक्त) व्याकरण का निर्देश है। ५-लारस्वतभाष्य में भी लिखा है समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे तरर्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ । तद्भागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रविन्दूत्पतितं हि पाणिनौ ॥ भाष्य व्याख्या-प्रपञ्च' में श्लोक का निम्न पाठान्तर उपलब्ध होता है समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे ततोऽम्बुकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ । तदभागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रबिन्दुग्रथितं हि पाणिनौ ।' १५ इस श्लोक से माहेश्वर व्याकरण की विशालता अत्यन्त स्पष्ट है । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि शिव ने किसी व्याकरण-शास्त्र का प्रवचन किया था। परिचय वंश-ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार शिव की माता का नाम सुरभि २० और पिता का नाम प्रजापति कश्यप था। शिब के १० सहोदर भाई थे। ये भारतीय इतिहास में एकादश रुद्र कहाते हैं। सम्भवतः शिव इन में ज्येष्ठ था। शिव के नाम-महाभारत अनुशासन पर्व अ० १७ में शिवसहस्रनाम-स्तव है। इस में शिव के १००८ नाम वर्णित है। शान्ति२५ पर्व अ० २८४ में भी शिवसहस्रनाम-स्तव है । इस में छ: सौ से कुछ १. पुरुषोत्तमदेव विरचित भाष्यव्याख्या की टीका।। २. पुरुषोत्तमदेव विरचित परिभाषावृत्ति (राजशाही संस्करण), अनुबन्ध ३ पृष्ठ १२६ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ८१ ऊपर नाम गिनाए हैं।' नाम-स्तव का महत्त्व-भारतीय वाङमय में शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, कार्तिकेयस्तव', याज्ञवल्क्य अष्टोत्तरशतनाम आदि अनेक स्तव अथवा स्तोत्र उपलब्ध होते हैं । ये नाम-स्तव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन से स्तोतव्य व्यक्ति के जीवनवृत्त पर महत्त्वपूर्ण ५ प्रकाश पड़ता है । नामस्तव भी संक्षिप्त इतिहास अथवा चरितलेखन की एक प्राचीन शलो है। साम्प्रतिक इतिहास-लेखकों ने इन नाम- ' स्तवों का अभी तक इतिहास की दृष्टि से कुछ भी मूल्याङ्कन नहीं किया । अतएव उन्होंने इतिहासलेखन में इन नामस्तवों का किञ्चिन्मात्र उपयोग नहीं किया। हमें भी इन नामस्तवों का उपर्युक्त १० महत्त्व कुछ समय पूर्व ही समझ में आया है । यद्यपि महाभारत अनुशासन पवं अ० १७ में पठित शिवसहस्र-नाम स्तवों में ऐतिहासिक अंश के साथ प्राधिदैविक तथा अध्यात्म अंश का भी संमिश्रण हो गया है, तथापि इस में ऐतिहासिक अंश अधिक है। शिवसहस्रनाम से विदित होने वाले अनेक जीवनवृत्तों की वैदिक लौकिक उभयविध १५ ग्रन्थों से भी पुष्टि होती है। हम महाभारतीय शिवसहस्रनाम-स्तव से विदित होने वाले वृत्त में से कतिपय महत्त्वपूर्ण अंशों का उल्लेख प्रागे करेंगे। प्रधान नाम-शिव के शिव, भव, शंकर, शम्भु, पिनाकी, शूलपाणी, महेश्वर, महादेव, स्थाणु, गिरीश, विशालाक्ष और त्र्यम्बक प्रभृति २० प्रधान और प्रसिद्धतम नाम है। शर्व-भव-शतपथ ११७३।८ में लिखा है कि प्राच्यदेशवासी शिव के लिए शर्व शब्द का व्यवहार करते हैं, और बाहीक' भव का। महादेव-महाभारत कर्णपर्व ३४ । १३ के अनुसार त्रिपुरदाह २५ १. तत्र नामपाठे किञ्चिदधिकानि षट् शतनामान्युपनभ्यन्ते । ७३ | श्लोक'की नीलकण्ठ की व्याख्या । .२. महा० वन० अ० २३३ ॥ ३. सतलज से सिंधुनद पर्यन्त का देश । पञ्चानां सिन्धुषष्ठानामनन्तरं ये समाश्रितः । बाही का नाम ते देशाः । महा० कर्ण० ४४१७॥ ४. शर्व इति यथा प्राच्या पाचक्षते, भव इति यथा बाहीकाः । ३० Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास रूपी महत्त्वपूर्ण कार्य के कारण शिव का 'महादेव' नाम प्रसिद्ध हुअा। स्थाणु-महाभारत अनुशासन पर्व प्र०८४ श्लोक ६०-७२ के अनुसार शिव ने देवों के हित की कामना से उनकी प्रार्थना पर अविप्लुतब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। इसलिए शिव को ब्रह्मचारी', ५ ऊर्ध्वरेता', ऊर्ध्वलिङ्ग', और ऊर्ध्वशायी' (=उत्तानशायी) भी कहते हैं । यतः शिव ने नित्य ब्रह्मचर्य के कारण पार्वती में किसी वंशकर (=पुत्र) को उत्पन्न नहीं किया, इस कारण विष का एक नाम स्थाणु भा प्रसिद्ध हुआ। लोक में भी फलशाखा-विहीन शुष्क वृक्ष (ठ) के लिए स्थाणु शब्द का व्यवहार होता है । विशालाक्ष-महाभारत अनुशासन पर्व १७३७ में विशालाक्ष नाम पढ़ा है। यह नाम शिव को राजनीति-विषयक दीर्घदष्टि को प्रकट करता है । कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विशालाक्ष नाम से शिव के अर्थशास्त्र के अनेक मत उद्घत किए हैं। शिव परमयोगी थे, परन्तु देवों की प्रार्थना पर उन्होंने तात्कालिक १५ देवासुर संग्रामों में अनेक बार महत्त्वपूर्ण भाग लिया। उनमें त्रिपुर दाह एक विशेष घटना है । यह एक ऐसा महान कार्य था । जिसे अन्य कोई भी देव करने में असमर्थ था । अतएव त्रिपुरदाह के कारण शिव देव से महादेव बने । समुद्रमन्थन के समय लोक कल्याण के लिए शिव का विषपान करना, और योगज-शक्ति से २० उसे जीर्ण कर देना भी एक आश्चर्यमयी घटना थी। इसी प्रकार दक्ष प्रजापति के यज्ञ का ध्वंस भी एक विशेष घटना थी। इसी में इन्द्र के भ्राता पूषा का दन्त भग्न हुआ था। गृह-हेमचन्द्र कृत अभिधानचिन्तामणि कोष को स्वोपज्ञ टीका में शेष के कोष का एक वचन उद्धृत है । उस में शिव का नाम गद्य२५ १. महा० अनु. १७१७५॥ २. महा० अनु० १७१४६।। ऊर्ध्वरेता:-प्रविप्लुतब्रह्मचर्यः । ऊर्ध्वलिङ्गः अधोलिङ्गो हि रेतः सिंचति, न तूर्ध्वलिङ्गः। ऊर्ध्वशायी-उत्तानशायी-इति नीलकण्ठः । ३. स्थिरलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः ॥ नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम् ।। महा• अनु० १६१ ॥११, १५ ॥ ३० ४. तुलना करो-इन्द्र का वृत्र-वध से महेन्द्र बनना (इन्द्र प्रकरण में देखें)। ५. पूष्णो दन्तविनाशनः । महा० शान्ति. २८४॥ ४६ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य नुरु लिखा है। उससे विदित होता है कि शिव जन्म से ही परमज्ञानी थे। उन्होंने किसी से विद्याध्ययन नहीं किया था, अर्थात् वे साक्षात्कृतधर्मा थे। शिव का शास्त्रज्ञान-भारतीय वाङमय में ब्रह्मा के साथ-साथ शिव को भी अनेक विद्याओं का प्रवर्तक माना गया है। महाभारत ५ शान्तिपर्व अ० १४२ । ४७ (कुम्भघोण संस्क०) में सात महान् वेदपारगों में शिव की गणना भी की है। महाभारत के इसी पर्व के प्र० २८४ में लिखा है सांख्याय सांख्यमुख्याय सांख्ययोगप्रवतिने ॥ ११४ ॥ गीतवावित्रतत्त्वज्ञो गीतवादनकप्रियः ॥१४२॥ शिल्पिक, शिल्पिना श्रेष्ठः सर्वशिल्पप्रवर्तकः ॥ १४८ ॥ अर्थात्-शिव सांख्ययोग ज्ञान का प्रवर्तक, गीतवादित्र का तत्त्वज्ञ, शिल्पियों में श्रेष्ठ तथा सर्वविध शिल्पों का प्रवर्तक था । महाभारत शान्तिपर्व २८४ । १९२ में शिव को वेदाङ्गों का भी प्रवर्तक कहा हैं वेदात् षडङ्गान्युद्धृत्य । मत्स्य पुराण अ० २५१ के प्रारम्भ में वर्णित १८ प्रख्यात वास्तुशास्त्रोपदेशकों में विशालाक्ष=शिव की भी गणना की है । आयुर्वेद के रसतन्त्रों में शिवको रसविद्या का परम ज्ञाता कहा है । आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थों में शिव के अनेक योग उदधृत हैं। २० ___ कौटिल्य अर्थशास्त्र में स्थान-स्थान पर विशालाक्ष के मतों का निरूपण उपलब्ध होता है। महाभारत शान्तिपर्व ५६ । ८१, ८२ के अनुसार विशालाक्ष ने दश सहस्र अध्यायों में अर्थशास्त्र का संक्षेप किया था। शिष्य-शिव ने अनेक शास्त्रों का प्रवचन किया था । इसलिए २५ उनके शिष्य भी अनेक रहे होंगे । परन्तु उनके नामादि ज्ञात नहीं हैं। यादवप्रकाश कृत पिङ्गल छन्दःशास्त्र की टीका के अन्त में जो श्लोक मिलते हैं, उन में प्रथम के अनुसार शिव ने बृहस्पति को छन्दःशास्त्र का उपदेश किया था। द्वितीय श्लोक के अनुसार गुह को और तृतीय श्लोक के अनुसार पार्वती और नन्दी को छन्दःशास्त्र का ३० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रवचन किया था। नन्दी शिव का प्रियतम शिष्य और उसका अनुचर था। काल-शिव का काल सतयुग का चतुर्थ चरण है । इस प्रकार शिव का प्रादुर्भाव आज से लगभग ११ सहस्र वर्ष पूर्व है। ५. दीर्घजीवी- असाधारण प्रखण्ड ब्रह्मचर्य, योगज शक्ति और रसायन के सेवन से शिव ने मृत्यु को जीत लिया था। वे असाधारण दीर्थजीवी थे। इसी कारण उन्हें मृत्युञ्जय भी कहा जाता है । - शिव-प्रोक्त अन्य शास्त्र-श्री कविराज सूरमचन्द जी ने अपने 'पायुर्वेद का इतिहास' ग्रन्थ में पृष्ठ ८३-८६ तक शिवप्रोक्त १२ ग्रन्थों १० का उल्लेख किया है । इन में अधिकतर आयुर्वेदसंबन्धी हैं। अन्य ग्रन्थों में वैशालाक्ष अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, वास्तुशास्त्र, नाट्यशास्त्र और छन्दःशास्त्र प्रमुख हैं। मीमांसा-शास्त्र-सुचरित मिश्र ने मीमांसा श्लोकवार्तिक की काशिका नाम्नी टीका में महेश्वर प्रोक्त मीमांसा शास्त्र का उल्लेख १५ किया है - गुरुपर्वक्रमात्मकश्च सम्बन्धो यथेहैव कैश्चिदुक्तः-ब्रह्मा महेश्वरो वा मीमांसां प्रजापतये प्रोवाच, प्रजापतिरिन्द्राय, इन्द्र प्रादित्यायेत्येवमादि । भाग १, पृष्ठ ६॥ २-बृहस्पति (१०००० वि० पूर्व) बृहस्पति के शब्दशास्त्र-प्रवक्तृत्व का वर्णन पूर्व अध्याय में किया जा चुका है । हैमबृहद्वृत्त्यवर्णि, यामलाष्टक तन्त्र और सारस्वतभाष्य के जो उद्धरण शिव के प्रकरण में दिए हैं, उन में भी बृहस्पति के शब्दशास्त्र-प्रवचन का स्पष्ट निर्देश प्राप्त होता है। २५ बृहस्पति के परिचय आदि के विषय में जो कुछ भी वक्तव्य था, वह पूर्व अध्याय में (पृष्ठ ६४-६५) बृहस्पति के प्रसङ्ग में लिख चुके। बार्हस्पत्य तन्त्र का प्रवचन प्रकार महाभाष्य का पूर्व पृष्ठ ६५ (टि. १) पर जो उद्धरण दिया है, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ८५ उस से विदित होता है कि बृहस्पति ने शब्दों का प्रतिपद पाठ द्वारा उपदेश किया था। इस की पुष्टि न्यायमञ्जरी में उद्धृत प्रौशनस (=उशना के) वचन से भी होती है । यथा तथा च बृहस्पति:-'प्रतिपदमशक्यत्वाल्लक्षणस्याप्यव्यवस्थानात् तत्रापि स्खलितपर्शनाद् अनवस्थाप्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधियाकर- ५ णमिति प्रौशनसाः' इति ।' यह प्रतिपद पाठ भी किस प्रकार का था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पुनरपि हमारा अनुमान है कि बार्हस्पत्य शब्दपारायण ग्रन्थ में शब्दों के रूपसादृश्य के आधार पर नामों वा आख्यातों का संग्रह रहा होगा । इस संभावना में निम्न हेतु हैं- १० १-पाणिनि आदि समस्त वैयाकरण धातुओं का संग्रह विशेष उनके रूपसादृश्य के आधार पर ही करते हैं । अर्थात् शप् आदि विभिन्न विकरणों अथवा उसके प्रभाव के आधार पर १० गणों (काशकृत्स्न और कातन्त्र ६ गणों) में विभक्त करते हैं । इसी प्रकार बृहस्पति ने धातु और नामों (-प्रातिपदिकों) का १५ प्रवचन भी रूपसादृश्य के आधार पर किया होगा। २-पाणिनि ने दीर्घ ईकारान्त ऊकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों की नदी संज्ञा कही है । पाणिनीय तन्त्र में सम्पूर्ण महती (एकाक्षर से अधिक) संज्ञाएं प्राचीन भावार्यों की हैं । महती संज्ञाए अन्वर्थ मानी गई हैं। परन्तु एकमात्र नदी संज्ञा ऐसी है, जो महती होती हई भी २० अन्वर्थ नहीं है । इस से विदित होता है कि यह नदी संज्ञा उस तन्त्रान्तर से संगहीत है, जिस में नामों के रूपसादृश्य के आधार पर शब्दसमूहों का पाठ था। और उस दीर्घ ईकारान्न ऊकारान्त शब्दसमूह के आदि में नदी शब्द प्रयुक्त होने से वह सारा समुदाय नदी शब्द से व्यवहृत होता था। आज भी हम तत्तद गणों का उस-उस गण के २५ आदि में पठित शब्द के साथ आदि शब्द का प्रयोग करके सर्वादि स्वरादि के रूप में करते हैं। ३–पाणिनि की नदी संज्ञा के समान कातन्त्र में हस्त्र इकारान्त उंकारान्त की अग्नि संज्ञा, और दीर्घ आकारान्त की श्रद्धा संज्ञा का १. लाजरस कम्पनी काशी मुद्रित, पृष्ठ ४१८ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उल्लेख मिलता है ।' कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का है। बृहस्पति इन्द्र का गुरु है। अतः कातन्त्र की अग्नि श्रद्धा और नदी संज्ञानों से यही ध्वनित होता है कि ये शब्द किसी समय तत्तद् समानरूप वाले समूहों के ५ पाद्या शब्द थे । उन्हें ही उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने संज्ञारूप से स्वीकार कर लिया। पाणिनि का विशेष सूत्र-पाणिनि का एक सूत्र हैं गोतो णित् (७।१।६० ) । इस सूत्र में गो शब्द से पञ्चम्यर्थक तसिल का निर्देश है। सम्पूर्ण पाणिनीय तन्त्र में कहीं पर भी शब्दविशेष से तसिल का १० निर्देश नहीं किया गया। कुछ वैयाकरण इसे तपरनिर्देश मानते हैं, वह भी युक्त नहीं। क्योंकि तपरनिर्दश वर्ण के साथ किया जाता है, न कि शब्द के साथ । इतना ही नहीं, इस सूत्र में केवल 'गो' शब्द का निर्देश मानने पर यो शब्द का उपसंख्यान भी करना पड़ता है। ये सब कठिनाइयां तभी उपस्थित होती हैं, जब इस सूत्र में गो शब्द का १५ निर्देश स्वीकार किया जाता है। यदि कातन्त्र की अग्नि-श्रद्धा-नदी और पाणिनि की नदी संज्ञा के समान इस गो शब्द को भी शब्दपारायणान्तर्गत ओकारान्त शब्दों का आद्य शब्द मान कर संज्ञावाची शब्द मान लिया जाए, तो कोई आपत्ति नहीं पाती और तसिल से निर्देश भी अञ्जसा उपपन्न हो जाता है। ऐसी अवस्था में इस सूत्र के प्रोतो २० णित् पाठ में मूलतः कोई अन्तर नहीं पड़ता, और ना ही द्यो शब्द के उपसंख्यान की आवश्यकता रहती है। ___ महाभाष्यकार ने प्रौतोम्शसो: सूत्र पर कहा है-पा गोत इतिवक्तव्यम । इस पर कैयट ने लिखा है-'गोत इत्योकारान्तोलक्षणार्थ वा व्याख्येयम्' । अग्नि, श्रद्धा, नदी संज्ञावत् यदि यहां भी 'गो' प्रोका२५ रान्तों की संज्ञा स्वीकार कर लें, तो अोकारान्तों के उपलक्षणार्थ मानने की भी आवश्यकता नहीं रहती और तसिल प्रत्यय तथा तपरनिर्देश के प्रयोग में हमने जो दोष दर्शाये हैं, वे भी उपपन्न नहीं होते। बृहस्पति के शास्त्र का नाम-बृहस्पति ने इन्द्र के लिए जिस ३० शब्दशास्त्र का प्रवचन किया था, उस का नाम शब्दपारायण था, १. कातन्त्र सू २०११८, १०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ऐसा महाभाष्य के व्याख्याता भर्तृहरि और कैयट का मत है।' बृहस्पति के शब्दपारायण ग्रन्थ में किए गये प्रतिपद पाठ के प्रकार के विषय में हमने जो विचार उपस्थित किया है, वह सत्य के निकट है, तथापि वह अभी और प्रमाणों की अपेक्षा रखता है। ३-इन्द्र (९५०० वि० पू०) तैत्तिरीय संहिता ६।४।७ के प्रमाण से हम पूर्व लिख चुके हैं कि देवों की प्रार्थना पर देवराज इन्द्र ने सर्वप्रथम व्याकरणशास्त्र की रचना की। उस से पूर्व संस्कृत भाषा अव्याकृत व्याकरण-संबन्ध राहत थी। इन्द्र ने सर्वप्रथम प्रतिपद प्रकृति-प्रत्यय-विभाग का विचार करके शब्दोपदेश की प्रक्रिया प्रचलित की। परिचय वंश-इन्द्र के पिता का नाम कश्यप प्रजापति था, और माता का नाम अदिति । अदिति दक्ष प्रजापति की कन्या थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र १ । ८ में बाहुदन्ती-पुत्र का मत उद्धृत किया है । प्राचीन टीकाकारों के मतानुसार बाहुदन्ती-पुत्र का अर्थ इन्द्र है। १५ क्या अदिति का नामान्तर बाहुदन्ती भी था ? महाभारत शान्ति पर्व अ० ५६ में बाहुदन्तक शास्त्र का उल्लेख है। भ्राता-महाभारत तथा पुराणों में इन्द्र के ग्यारह सहोदर कहे हैं। वे सब अदिति की सन्तान होने से आदित्य कहाते हैं। उनके नाम हैं-धाता, अर्यमा, वरुण, अंश (अंशुमान्), भग, विवस्वान्, २० पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा और विष्ण' ।। इनमें विष्ण सब से कनिष्ठ है । अग्नि और सोम भी इन्द्र के भाई हैं, परन्तु सहोदर नहीं। १. शब्दपारायणं रूढिशब्दोऽयं कस्यचित् ग्रन्थस्य वाचक । भर्तृ ० महा. भाष्य दीपिका पृष्ठ २१ (हमारा हस्तलेख) पूना संस्करण, पृष्ठ १७ । शब्दपारायणशब्दो योगरूढ: शास्त्रविशेषस्य । कैयट, महाभाष्यप्रदीप नवा० २५ पृष्ठ ५१, निर्णयसागर सं० । २. पूर्व पृष्ठ ६६॥ . ३. प्रादिपर्व ६६।१५,१६॥ ४. भविष्य० ब्रा०प० ७८, ५३ ॥ ५. इन में से पाठ आदित्यों के नाम ताण्ड्य ब्राह्मण २४।१२।४ में लिखे हैं ६. प्रजापतिरिन्द्रमसृजतानुजमवरं देवानाम् । ते० प्रा० २।२।१० ॥ ७. स इन्द्रोऽग्नीषोमो भ्रातरावब्रवीत् । शत० ११।१६।१६ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - प्राचार्य-इन्द्र के न्यूनातिन्यून पांच प्राचार्य थे-प्रजापति, बृहस्पति, अश्विनीकुमार, भृत्यु अर्थात यम और कौशिक विश्वामित्र । छान्दोग्य उपनिषद् ८७-११ में लिखा है कि इन्द्र ने प्रजापति से आत्मज्ञान सीखा था। श्लोकवार्तिक के टीकाकार पार्थसारथि मिश्र द्वारा उद्धृत पुरातन वचन के अनुसार इन्द्र ने प्रजापति से मीमांसाशास्त्र पढ़ा था ।' गोपथ ब्राह्मण १।१।२५ में इन्द्र और प्रजापति का संवाद है। इन तीनों स्थानों में उल्लिखित प्रजापनि कौन है यह अज्ञात है । बहत सम्भव है वह कश्यप प्रजापति हो । ऋक्तन्त्र के अनुसार इन्द्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र का अध्ययन किया था । बार्हस्पत्य अथशास्त्र विषयक सूत्रों में बृहस्पति से नीतिशास्त्र पढ़ने का उल्लेख है।' पिङ्गल छन्द के टीकाकार यादवप्रकाश के मत में दुश्च्यवन =इन्द्र ने बृहस्पति से छन्दःशास्त्र का अध्ययन किया था । चरक और सुश्रुत में लिखा है कि इन्द्र ने अश्वि-कुमारों से आयुर्वेद पढ़ा था । वायुपुराण १०३।६० के अनुसार मृत्यु =यम ने इन्द्र के लिये पुराण १५ का प्रवचन किया था। जैमिनीय ब्रा० २१७६ के अनुसार इन्द्र देवा सुर संग्राम में चिरकाल पर्यन्त व्यापृत रहने से वेदों को भूल गया था, उसने पुनः (अपने शिष्य) कौशिक विश्वामित्र से वेदों का अध्ययन किया। शिष्य-शांखायन आरण्यक के वंशब्राह्मण के अनुसार विश्वा२० मित्र ने इन्द्र से यज्ञ और अध्यात्म विद्या पढ़ी थी। ऋक्तन्त्र के पूर्वो १. तद्यथा ब्रह्मा प्रजापतये प्रोवाच, सोऽपीन्द्राय, सोऽप्यादित्याय । पृष्ठ ८. काशी सं०। २. देखो पूर्व पृष्ठ ६२, ब्रह्मा के प्रकरण में उद्धृत। ३. बृहस्पतिरथाचार्य इन्द्राय नीतिसर्वस्वमुपदिशति । ग्रन्थ के प्रारम्भ में । २५ प्राचीन बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र इस से भिन्न था । ४. .... लेभे सुराणां गुरुः । तस्माद् दुश्च्यवन "। छन्दःटीका के अन्त में । उद्धृत वै० वा० इतिहास, ब्राह्मण और आरण्यक भाग । ___५. अश्विभ्यां भगवाञ्छत्र: । चरक सूत्र १।५॥ अश्विभ्यामिन्द्रः । सुश्रुत सू० १।१६।। ६. मृत्युश्चेन्द्राय वै पुनः । ३० ७. यद्ध वा असुरैर्महासंग्रामं संयेते तद्ध वेदान् निराचकार । तान् ह विश्वामित्रादधि जगे। तेन ह वै कौशिक ऊचे ।। ८. विश्वामित्र इन्द्रात् १५॥१॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ८६ द्धृत उद्धरण में लिखा है कि भरद्वाज ने इन्द्र से शब्दशास्त्र का अध्ययन किया था। चरक ने कहा है-भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद पढ़ा था और आत्रेय पुनर्वसु ने भरद्वाज से', परन्तु वाग्भट ने आत्रेय पुनर्वसु को इन्द्र का साक्षात् शिष्य लिखा है। यह भरद्वाज सुराचार्य बृहस्पति आङ्गिरस का पुत्र है। इस का वर्णन हम अनुपद करेंगे। ५ सुश्रुत के अनुसार धन्वन्तरि ने इन्द्र से शल्यचिकित्सा सीखी थी। आयुर्वेद की काश्यप सहिता में लिखा है-इन्द्र ने काश्यप, वसिष्ठ, अत्रि और भगु को आयुर्वेद पढ़ाया था। वायुपुराण १०३।६० में लिखा है इन्द्र ने वसिष्ठ को पुराणोपदेश किया था । पिङ्गलछन्द के टीकाकार यादवप्रकाश के मत में इन्द्र ने असुर-गुरु शुक्राचार्य को १० छन्दःशास्त्र पढ़ाया था। पार्थसारथि मिश्र द्वारा उद्धृत प्राचीन वचनानुसार इन्द्र ने आदित्य को मीमांसाशास्त्र पढ़ाया था। यह आदित्य कौन था ? यह अज्ञात है। देश-पूरा काल में भारतवर्ष के उत्तर हिमवत पाव निवास करने वाली आर्य जाति 'देव' कहाती थी। देवराज इन्द्र उस का १५ अधिपति था । विशेष घटनाएं-छान्दोग्य उपनिषद ८७-११ में लिखा है कि इन्द्र ने अध्यात्मज्ञान के लिए प्रजापति के समीप (३२+३२+३२ +५=)१०१ वर्ष ब्रह्मचर्य पालन किया था। पूरा काल में अनेक देवासुर संग्राम हुए। वायु-पुराण ६७१७२-७६ में इन की संख्या१२ २० लिखी है । ये सब इन्द्र की अध्यक्षता में हुए थे। इन का काल न्यूनातिन्यून ३०० वर्ष के लगभग है। इस सुदीर्घ देवासुर संग्राम काल में इन्द्र वेदों से विमुख हो गया । देवासुर संग्रामों के समाप्त होने पर उसने अपने शिष्य विश्वामित्र से पुनः वेदों का अध्ययन किया । इस २५ १. ऋषिप्रोक्तो भरद्वाजस्तस्माच्छक्रमुपागमत् । चरक सूत्र० ११५ ॥ २. चरक सूत्र० १०२७-३०॥ ३. सोश्विनौ, तो सहस्राक्षं, सोऽत्रिपुत्रादिकान् मुनोन् । अष्टाङ्गहृदय सूत्र० १॥३॥ ४. इन्द्रादहम् । सूत्र० १।१६। ५, हर ऋषिभ्यश्चतुर्थ्य: कश्यप-वसिष्ठ-अत्रि-भृगुभ्यः। पृष्ठ ४२ । . ६. इन्द्रश्चापि वसिष्ठाय। ७. तस्माद् दुश्च्यवनस्ततोऽसुरगुरुः... "। छन्द:टीका के अन्त में। ८. पूर्व पृष्ठ ८८, टि० १। ३० Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रकार इन्द्र कौशिक बना । मै० सं० ४।६८ तथा काठक संहिता २८ । ३ के अनुसार इन्द्र ने वृत्र का वध करके महेन्द्र नाम प्राप्त किया । ६० ५ इन्द्र की मन्त्रिपरिषद् - कौटिल्य अर्थशास्त्र १११५ के अनुसार इन्द्र की मन्त्रिपरिषद् में एक सहस्र ऋषि थे । इसी कारण वह सहस्राक्ष कहाता था । इन्द्र के सहस्रभागरूप पौराणिक कथा का यही मूल है । २० ब्राह्मण से क्षत्रिय - इन्द्र जन्म से ब्राह्मण था, कर्म से क्षत्रिय बन गया ।" १० दीर्घजीवी - इन्द्र बहुत दीर्घजीवी था । उसने केवल अध्यात्मज्ञान के लिये १०१ वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन किया । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३|१०|११ में लिखा है कि इन्द्र ने अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज को तृतीय पुरुषायुष की समाप्ति पर वेद की अनन्तता का उपदेश किया था । * तदनुसार इन्द्र न्यूनातिन्यून ६००-७०० वर्ष अवश्य जीवित १५ रहा होगा । चरक चिकित्सा स्थान प्र १ में इन्द्रोक्त कई ऐसे रसायनों का उल्लेख है जिन के सेवन से एक सहस्र वर्ष की आयु होती है । इन रसायनों का सेवन करके इन्द्र स्वयं भी दीर्घायु हुआ और अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज को भी दीर्घायुष्य प्राप्त कराया । काल इन्द्र का निश्चित काल निर्णय करना कठिन है । भारतीय प्राचीन वाङ्मय में जो वर्णन मिलता है उससे ज्ञात होता है कि यह इन्द्र १. पूर्व पृष्ठ ८८ टि०७ । २. इन्द्रो वै धृत्रमहन् सोऽन्यान् देवान् प्रत्यमन्यत । स महेन्द्रोऽभवत् । मै० सं० । इन्द्रो वै वृत्रं हत्वा स महेन्द्रोऽभवत् । का० सं० । तुलना करो - २५ इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत । महा० शान्ति० १५ । १५ कुम्भ० सं० ॥ ३. इन्द्रस्य हि मन्त्रिपरिषद् ऋषीणां सहस्रम् । तस्मादिमं द्वयक्षं सहस्राक्षमाहुः । ४. इन्द्रो वै ब्राह्मणः पुत्रः कर्मणा क्षत्रियोऽभवत् ॥ महा० शान्ति० २२।११ कुम्भ० सं० ॥ ५. भरद्वाजो ह त्रीभिरायुभिर्ब्रह्मचर्यमुवास । तं जीणि स्थविरं शयनरिन्द्र उपव्रज्योवाच । भरद्वाज ! यत्ते चतुर्थमायुर्दद्याम......। ३० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य कृतयुग के अन्त में अर्थात् विक्रमी से ६५०० साढ़े नौ सहस्र पूर्व हुआ था। हमारी काल गणना-हमने इस इतिहास में प्राचीन काल गणना कृत, त्रेता और द्वापर युगों की दिव्यवर्ष संख्या को सौर वर्ष मान कर की है। हमारा विचार है, दिव्य वर्ष शब्द सौर वर्ष का पर्याय है । ५ तदनुसार कृत युग का ४८००, त्रेता का ३६०० और द्वापर का २४०० वर्ष परिमाण है। इसी प्रकार भारत युद्ध को विक्रमी से ३०४५ वर्ष पूर्व माना है।' इस पर विशेष विचार इसी ग्रन्थ में अन्यत्र किया जायगा। प्रतः ऊपर दिया हा इन्द्र का काल न्यूनातिन्यून है। वह इस से अधिक प्राचीन हो सकता है, न्यून नहीं । इन्द्र बहुत दीर्घजीवी १० था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। ऐन्द्र व्याकरण ऐन्द्र व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं है, परन्तु इसका उल्लेख अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । जैन शाकटायन व्याकरण १।२।३७ में इन्द्र का मत उद्धत है। लङ्कावतारसूत्र में भी ऐन्द्र शब्दशास्त्र १५ स्मत है। सोमेश्वरसूरि विरचित यशस्तिलक चम्पू में ऐन्द्र व्याकरण का निर्देश उपलब्ध होता है । हैमबृहद्वत्यवचूर्णि में ऐन्द्र व्याकरण का संकेत मिलता है। प्रसिद्ध मुसलमान यात्री अल्बेरूनी ने अपनी भारतयात्रा वर्णन में ऐन्द्र तन्त्र का उल्लेख किया है। देवबोध ने महाभारतरीका के प्रारम्भ में माहेन्द्र' नाम से ऐन्द्र व्याकरण का २० निर्देश किया है। वोपदेव ने कविकल्पद्रुम के प्रारम्भ में आठ वैयाकरणों में इन्द्र का नाम लिखा है । कवीन्द्राचार्य सरस्वती के पुस्तकालय का जो सूचीपत्र उपलब्ध हुआ है, उसमें व्याकरण की १. भारत युद्ध का यह काल भारतीय इतिहास में सुनिश्चित है। २. बरावा ङसीन्द्रस्याचि। ३. इन्द्रोऽपि महामते अनेकशास्त्रविदग्ध- २५ बुद्धिः स्वशास्त्रप्रणेता....."। टेक्निकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर पृष्ठ २८० (प्र० सं०) पर उद्धृत। ४. प्रथम प्राश्वास, पृष्ठ ६० । ५. ऐन्द्रेशानादिषु व्याकरणेषु चाज्झलादिरूपस्यासिद्धेः । पृष्ठ १० । ६. अल्बेरूनी का भारत, भाग २, पृष्ठ ४० ।। ७. पूर्ण पृष्ठ ४६ पर उदधुत 'यान्युज्जहार......'श्लोक । ३० ८. पूर्व पृष्ठ ६६ पर उद्धृत 'इन्द्रश्चन्द्रः...' श्लोक । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पुस्तकों में ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख है।' कथासरित्सागर के अनुसार ऐन्द्र तन्त्र पुराकाल में ही नष्ट हो गया था। अतः कवीन्द्राचार्य के सूचीपत्र में निर्दिष्ट ऐन्द्र व्याकरण कदाचित् अर्वाचीन ग्रन्थ होगा। पण्डित कृष्णमाचार्य को भूल -पं० कृष्णमाचार्य ने अपने ५ 'क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' ग्रन्थ के पृष्ठ ८११ पर लिखा है कि भरत के नाट्यशास्त्र में ऐन्द्र व्याकरण और यास्क का उल्लेख है। हमने भरत-नाट्यशास्त्र का भले प्रकार अनुशीलन किया है और नाट्याशास्त्र का पारायण हमने केवल पं० कृष्णमाचार्य के लेख की सत्यता जानने के लिए किया, परन्तु हमें ऐन्द्र व्याकरण और यास्क १० का उल्लेख नाट्यशास्त्र में कहीं नहीं मिला। हां, नाट्यशास्त्र के पन्द्रहवें अध्याय में व्याकरण का कुछ विषय निर्दिष्ट है और वह कातन्त्र व्याकरण से बहुत समानता रखता है । इस विषय में हम कातन्त्र के प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे। डा. वेलवेल्कर की भूल-डाक्टर वेलवेल्कर का मत है-काढन्त्र १५ ही प्राचीन ऐन्द्र तन्त्र है। उनका मत अत्यन्त भ्रमपूर्ण है, यह हम अनुपद दर्शाएंगे। संभव है कृष्णमाचार्य ने डा० वेलवेल्कर के मत को मान कर ही भरत नाट्यशास्त्र में ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख समझा होगा। ऐन्द्र तन्त्र और तमिल व्याकरण १० अगस्त्य के १२ शिष्यों में एक पणंपारणार था । उस ने तमिल व्याकरण लिखा। उसके ग्रन्थ का आधार ऐन्द्र व्याकरण था। तोलकाप्पियं पर इसी पणंपारणार का भूमिकात्मक वचन है ।' यह तोलकाप्पियं ईसा से बहुत पूर्व का ग्रन्थ है । इस में श्लोकात्मक पाणिनीय, शिक्षा के श्लोकों का अनुवाद है ।' ऐन्द्र तन्त्र का परिमाण हम पूर्व लिख चुके हैं कि प्रत्येक विषय के आदिम ग्रन्थ अत्यन्त विस्तृत थे। उत्तरोत्तर मनुष्यों की आयु के ह्रास और मति के मन्द होने के कारण सब ग्रन्थ क्रमश संक्षिप्त किये गये । ऐन्द्र व्याकरण १. सूचीपत्र पृष्ठ ६। २. आदि से तरङ्ग ४, श्लोक २४, २५ । ३० ३. देखो पी.ऐल. सुब्रह्मण्य शास्त्री, एम. ए. पी एच. डी. का लेख जर्नल मोरियण्टल रिसर्च मद्रास, सन् १९३१,पृष्ठ १८३। ४. पूर्व पृष्ठ ६ । २५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३ अपने विषय का प्रथम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ भी अत्यन्त विस्तृत था। १२ वीं शताब्दी से पूर्वभावी महाभारत का टीकाकार देवबोध लिखता है यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्यासो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे । इस वचन से ऐन्द्र तन्त्र के विस्तार की कल्पना सहज में की जा सकती है। तिब्बतीय ग्रन्थों के अनुसार ऐन्द्र व्याकरण का परिमाण २५ सहस्र श्लोक था। पाणिनीय व्याकरण का परिमाण लगभग एक सहस्र श्लोक है। तदनुसार ऐन्द्र तन्त्र पाणिनीय व्याकरण से लगभग २५ गुना बड़ा रहा होगा। कई व्यक्ति उपर्युक्त श्लोक में 'माहेन्द्रात्' के स्थान में 'माहेशात्' पढ़ते हैं। यह ठीक नहीं है । यह श्लोक देवबोध का स्वरचित है । इस में 'माहेन्द्रात्' का कोई पाठभेद उपलब्ध नहीं होता। ऐन्द्र व्याकरण के सूत्र कथासरित्सागर में लिखा हैं कि ऐन्द्र तन्त्र अति पुरा काल में ही १५ नष्ट हो चुका था, परन्तु महान् हर्ष का विषय है कि उस के दो सूत्र प्राचीन ग्रन्थों में हमें सुरक्षित उपलब्ध हो गये । ऐन्त्र का प्रथम सूत्र- विक्रम की प्रथम शताब्दी में होने वाले भट्टारक हरिश्चन्द्र ने अपनी चरकव्याख्या में लिखा है। शास्त्रेष्वपि–'अथ वर्णसमूह' इति ऐन्द्रव्याकरणस्य । २० तदनुसार ऐन्द्र व्याकरण का प्रथम सूत्र 'अथ वर्णसमूहः' था। इससे स्पष्ट है कि उस में पाणिनीय अष्टक के समान प्रारम्भ में २५ १. जर्नल गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग १, सख्या ४ पृष्ठ ४१०, सन् १९४४ । २. श्री गुरुपद हालदार कृत व्याकरण दर्शनेर इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४६५ । तथा बंगला विश्वकोश-महेश्वर शब्द । . ३. चरक न्यास पृष्ठ ५८ । स्वर्गीय पं० मस्तराम शर्मा मुद्रापित । शब्दभेद-प्रकाश के टीकाकार ज्ञानविमलगणि ने 'सिद्धिरनुक्तानां रूढे:' सूत्र की टीका में इस 'सिद्धि..' सूत्र को ऐन्द्रव्याकरण का प्रथम सूत्र लिखा है (व्याक० द० इ० पृष्ठ ४८४ ) । यह ठीक गहीं । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास AC अक्षरसमाम्नाय का उपदेश था। ऋक्तन्त्र' तथा ऋक्प्रातिशाख्य' आदि में भी अक्षरसमाम्नाय का उल्लेख मिलता है। लाघव के लिये व्याकरण-ग्रन्थों के प्रारम्भ में अक्षरसमाम्नाय के उपदेश की शली अत्यन्त प्राचीन है। इसलिये आधुनिक वैयाकरणों का अष्टाध्यायी के प्रारम्भिक अक्षरसमाम्नाय के सूत्रों को अपाणिनीय मानना महती भूल है। इस पर विशेष विचार 'पाणिनि और उस का शब्दानुशासन' प्रकरण में करेंगे। फिर भी यह विचाणीय है कि ऐन्द्रतन्त्र का वर्ण समूह शिक्षा-सूत्रों में निर्दिष्ट तथा लोक-प्रसिद्ध क्रम से था अथवा स्वशास्त्र की दृष्टि से पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय के सदृश विशिष्टक्रम १० से निर्दिष्ट था। ऐन्द्र सम्प्रदाय के कातन्त्र में सिद्धो वर्णसमाम्नायः सूत्र में लोक विदित वर्णक्रम की ओर संकेत है । अतः सम्भव है ऐन्द्रतन्त्र का वर्णसमूह लोकप्रसिद्ध क्रमानुसारी रहा हो । अन्य सूत्र-दुर्गाचार्य ने अपनो निरुक्तवृत्ति के प्रारम्भ में ऐन्द्र व्याकरण का एक सूत्र उद्धृत किया है१५ नैक पदजातम्, यथा 'अर्थः पदम्' इत्यन्द्राणाम् ।' अर्थात् ऐन्द्र व्याकरण में सब अर्थवान् वर्णसमुदायों को पद संज्ञा होतो है । उन के यहां नरुक्तों तथा अन्य वैयाकरणों के सदृश नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ये चार विभाग नहीं हैं। सूषण विद्याभूषण ने भो 'अर्थः पदम्' को ऐन्द्र नाम से उद्धृत किया है।' १. प्रपाठक १ खण्ड ४। २. देखो वि णुमित्र कृत वर्गद्वयवृत्ति। ३. निरुक्तवृत्ति पृष्ठ १०, पंक्ति ११ । दुर्गवृत्ति में 'यथार्थः पदमैन्द्राणामिति' पाठ है। प्रकरणानुसार इति पद 'ऐन्द्राणाम्' से पूर्व होना चाहिए । तुलना करो—'अर्थ:पदम्' वाज० प्राति. ३॥ २॥ व्याकरण महाभाष्य के मराठी अनुवाद के प्रस्तावना खण्ड के लेखक २५ म०म० काशीनाथ वासुदेव अभ्यंकर ने दुर्गटीका के हमारे द्वारा परिष्कृत पाठ को ही दुर्गवृत्ति के नाम से उद्धृत किया है। द्र० पृष्ठ १२६ टि० २। इस खण्ड में अन्यत्र भी हमारा नाम निर्देश न करके ग्रन्थ के अनेक उद्धरण स्वीकार किए हैं। ४. कलापचन्द्रे सुषेण विद्याभूषण लिखिया छन -'अर्थः पदम' पाहरेन्द्राः, ३० 'विभक्त्यन्तं पदम्' प्राहुरापिशलीया:, 'सप्तिङन्तं पदं पाणिनीया', (सन्धि २०) । व्याक० द० इ० पृष्ठ ४० । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य नाट्यशास्त्र १४।३२ की टीका में अभिनव गुप्त ने लिखा हैसंप्रयोगप्रयोजनम् ऐन्द्रेऽभिहितम् । भाग २, पृष्ठ २३३ । अन्य मत - पाणिनि के प्रत्याहार सूत्रों पर नन्दिकेश्वर विरचित काशिका (श्लोक २) की उपमन्युकृत तत्त्वविमर्शिनी टीका में लिखा तथा चोक्तमिन्द्रेण-अन्त्यवर्णसमुद्भूता धातवः परिकीर्तिताः । इस वचन का भाव हमारी समझ में नहीं पाया । परिभाषाओं का मूल-नागेश भट्ट के शिष्य वैद्यनाथ ने परि भाषेन्दुशेखर की व्याख्या करते हए काशिका टीका में परिभाषाओं का मूल ऐन्द्र तन्त्र है ऐसा संकेत किया है।' १० ऐन्द्र और कातन्त्र का भेद हम पूर्व लिख चुके हैं कि डा० वेलवेल्कर कातन्त्र को ऐन्द्र तन्त्रमानते हैं । उनका यह मत सर्वथा अयुक्त है, क्योंकि भट्टारक हरिश्चन्द्र और दुर्गाचार्य जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों ने ऐन्द्र व्याकरण के जो सूत्र उद्धृत किये हैं, वे कातन्त्र व्याकरण में उपलब्ध नहीं होते । १५ इतना ही नहीं, भट्टारक हरिश्चन्द्र द्वारा उद्धृत स्त्रानुसार ऐन्द्र व्याकरण में 'वर्ण-समूह' का निर्देश था, परन्तु कातन्त्र में उसका अभाव स्पष्ट है । पुरानो अनुश्रुति के अनुसार ऐन्द्र तन्त्र पाणिनीय तन्त्र से कई गुना विस्तृत था, परन्तु कातन्त्र पाणिनीय तन्त्र का चतुर्थांश भी नहीं है। ऐन्द्र व्याकरण और जैन ग्रन्थकार हेमचन्द्र आदि जैन ग्रन्थकारों का मत है कि भगवान् महावीर स्वामी ने इन्द्र के लिये जिस व्याकरण का उपदेश किया वही लोक में ऐन्द्र व्याकरण नाम से प्रसिद्ध हुआ। कई जैन ग्रन्थकार जैनेन्द्र व्याकरण को महावीर स्वामी प्रोक्त मानते हैं । वस्तुतः ये दोनों मत २५ अयुक्त हैं। अति प्राचीन वैदिक ग्रन्थकारों के मतानुसार इन्द्र ने बृहस्पति से - १. प्राचीनवैयाकरगनये वाचनिकानि (परिभाषेन्दुशेखर पृष्ठ ७) । प्राचीनेति इन्द्रादीत्यर्थः । काशिकाटीका । २. जैन साहित्य और इतिहास प्र०सं० पृष्ठ ६३-६५, द्वि० सं० २२-२४ । ३० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शब्दशास्त्र का अध्ययन किया था, महावीर स्वामी से नहीं। महावोर स्वामी तथागत बुद्ध के समकालीन हैं, इन्द्र इन से कई सहस्र वर्ष पूर्व अपना व्याकरण लिख चुका था। जैनेन्द्र व्याकरण आचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दो विरचित है। यह हम 'पाणिनि से अर्वाचीन व्याकरणकार' प्रकरण में लिखेंगे । अन्य कृतियाँ १. आयुर्वेद-चरक में लिखा है इन्द्र ने भरद्वाज को आयुर्वेद पढ़ाया था।' वायुपुराण ६२।२२ में लिखा है कि भरद्वाज ने आयुर्वेद संहिता की रचना को और उसके पाठ विभाग करके शिष्यों को पढ़ाया। इस से प्रतीत होता है कि इन्द्र ने भरद्वाज के लिये सम्पूर्ण आयुर्वेद (पाठों तन्त्रों) का प्रवचन किया था। सुश्रत के प्रारम्भ में आचार्य-परम्परा का निर्देश करते हुए लिखा है कि भगवान् धन्वतरि ने इन्द्र से शल्यतन्त्र का अध्ययन किया था। २. अर्थशास्त्र-कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बाहुदन्ती-पुत्र का मत उद्धृत किया है। प्राचीन टीकाकारों के अनुसार बाहुदन्ती१५ पुत्र इन्द्र है । महाभारत शान्ति पर्व अ० ५६ में बाहुदन्तक अथशास्त्र का उल्लेख मिलता है। मीमांसाशास्त्र-श्लोकवार्तिक की टीका में पार्थसारथि मिश्र किसी पुरातन ग्रन्थ का वचन उद्धृत करता है। उस में इन्द्र को मीमांसाशास्त्र का प्रवक्ता कहा है । ४. छन्दःशास्त्र-इन्द्रप्रोक्त छन्दःशास्त्र का उल्लेख यादवप्रकाश ने पिङ्गल छन्दःशास्त्र की टीका के अन्त में किया है। ५. पुराण-वायु पुराण १०३।६० में लिखा है कि इन्द्र ने पुराणविद्या का प्रवचन किया था । १. पूर्व पृष्ठ ८६, टि० १ । २. आयुर्वेदं भरद्वाजश्चकार सभिषक्क्रियम् । तमष्टघा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत् ॥ ३. पूर्व पृष्ठ ८६, टि० ४। ४. नेति बाहुदन्तीपुत्रः-शास्त्रविददष्टकर्माकर्मसु विषादं गच्छेत् । अभि।अभिजनप्रज्ञाशौचशौर्यानुरागयुक्तानमात्यान् कुर्वीत् गुणप्राधान्यादिति । १८ ॥ ५. पूर्व पृष्ठ ८८, टि/ ६. पूर्व पृष्ठ ८९, टि० ६ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ९७ ६. गाथाएं =महाभारत वनपर्व ८८।५ में इन्द्रगीत गाथाओं का उल्लेख मिलता है। ४-वायु (८५०० वि० पू०) तैत्तिरीय संहिता ६।४७ में लिखा है-इन्द्र ने वाणी को व्याकृत ५ करने में वायु से सहायता ली थी।' तैत्तिरीय संहिता का यह स्थल विशुद्ध ऐतिहासिक है, आलङ्कारिक नहीं है । अतः स्पष्ट है कि इन्द्र को व्याकरण की रचना में सहयोग देने वाला वायु भी निस्सन्देह ऐतिहासिक व्यक्ति है । इन्द्र और वायु के सहयोग से देववाणी के व्याकरण की सर्वप्रथम रचना हई। इसीलिये कई स्थानों में वाणी के १० लिये 'वाग् वा ऐन्द्रवायवः'-अादि प्रयोग मिलते हैं। वायु पुराण २।४४ में वायु को 'शब्दशास्त्र-विशारद' कहा है । यामलाष्टक तन्त्र में आठ व्याकरणों में वायव्य व्याकरण का भी उल्लेख किया है।' कवीन्द्राचार्य के सूचीपत्र में एक 'वायु-व्याकरण' का उल्लेख है। हमें कवीन्द्राचार्य के सूचीपत्र में निर्दिष्ट वायु-व्याकरण की प्राचीनता में १५ सन्देह है। भार्या-वायु की भार्या का नाम अजनी था। पुत्र-वायु का पुत्र लोकविश्रुत महाबली हनुमान् था। इस की माता अञ्जनी थी। हनुमान् भी अपने पिता के समान शब्दशास्त्र का महान् वेत्ता था । प्राचार्य-वायु पुराण १०३१५८ के अनुसार ब्रह्मा ने मातरिश्वा =वायु के लिये पुराण का प्रवचन किया था। २० २५ १. वाग्वै पराच्यव्याकृतावदत् ते देवा इन्द्रमब्रुवन्निमां नो वाचं व्याकुर्विति सोऽब्रवीद्वरं वर्ण, मह्य चैव वायवे च सह गृह्याता इति । २. मै० सं० ४।५।८॥ कपि० ४२॥३॥ ३. ऋग्वेद कल्पद्रुम की भूमिका में उद्धृत । पृष्ठ ११४, हमारा हस्तलेख । , ४. सूचीपत्र पृष्ठ ३ । ५. अञ्जनीगर्भसम्भूतः । वायु पुराण ६०१७२।। ६. नून व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् । बहु व्याहरताऽनेन न किञ्चिदपभाषितम् ॥ रामायण किष्किन्धा० ३।२६ ।। ७. ब्रह्मा ददौ शास्त्रमिदं पुराणं मातरिश्वने । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योद्धा - महाभारत शान्तिपर्व १५।१७ ( पूना सं ० ) के अनुसार वायु महान् योद्धा था | वायु पुराण ५६।११८ में वायु को ब्रह्मवादी ५ कहा है । १५ SISSE २० 'संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास शिष्य - वायु पुराण १०३।५६ में लिखा है - वायु से उशना कवि ने पुराणज्ञान प्राप्त किया था ।' पुराण - वायु पुराण १।४७ के अनुसार मातरिश्वा ( = वायु) ने वायु पुराण का प्रवचन किया था ।" महाभारत वन पर्व ९९१ १६ में १० वायुप्रोक्त पुराण का निर्देश मिलता है । २५ वायुपुर - वायु पुराण ६०।६७ में वायु के नगर का नाम लिखा है | वायुपुर गाथाएं - मनुस्मृति १४२ में वायुगीत गाथाओं का उल्लेख है ।" महाभारत शान्तिपर्व ७२ में ऐल पुरुरवा और मातरिश्वा का संवाद मिलता है । ५ – भरद्वाज ( ९३०० वि० पू० ) 1 व्याकरणशास्त्र का तृतीय आचार्यं बार्हस्पत्य भरद्वाज है । यद्यपि भरद्वाजतन्त्र इस समय उपलब्ध नहीं है, तथापि ऋक्तन्त्र के पूर्वोक्त * प्रमाण से स्पष्ट है कि भरद्वाज व्याकरणशास्त्र का प्रवक्ता था । परिचय वंश - भरद्वाज आङ्गिरस बृहस्पति का पुत्र है । ब्राह्मण ग्रन्थों में बृहस्पति को देवों का पुरोहित कहा है । कोशग्रन्थों में बृहस्पति का पर्याय 'सुराचार्य' लिखा है।" सन्तति - काशिकावृत्ति २।१।१९ तथा २।४।८४ में भरद्वाज के २१ अपत्यों का निर्देश है ।" ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी में भरद्वाज के १. तस्माच्चोशनसा प्राप्तम् । २. पुराणं संप्रवक्ष्यामि यदुक्तं मातरिश्वना । ३. वायुप्रोक्तमनुस्मृत्य पुराणमृषिसंस्तुतम् । ४. अत्र गाथा वायुगीता: । ५. पूर्व पृष्ठ पर ६२ उद्धृत । ६. बृहस्पतिवें देवानां पुरोहितः । ऐ० ७. अमरकोश १ । २५ ॥ ३० उदाहरण जैन शाकटायन की लघुवृत्ति १ । २ । १६० में भी है । ब्रा० ८ । २६ ॥ ८. एकविंशति भारद्वाजम् । यह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ६६ ऋजिष्या, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिरिम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र इन दश मन्त्रद्रष्टा पुत्रों और रात्रि नाम्नी मन्त्रद्रष्ट्री पुत्री का उल्लेख मिलता है । यजुःसर्वानुक्रमणी में यजुर्वेद ३४।३२ की ऋषिका कशिपा भरद्वाजहिता लिखी है। मत्स्य ४६।३६ तथा वायु ६६।१५६ के अनुसार गर्ग और नर भरद्वाज के साक्षात् पुत्र नहीं हैं, ५ अपितु चक्रवर्ती महाराज भरत की सुनन्दा रानी में भरद्वाज द्वारा नियोग से उत्पन्न महाराज भुमन्यु (भुवमन्यु) के पुत्र हैं । ये दोनों ब्राह्मण हो गये थे। इसी गर्ग के कूल में किसी गार्य ने व्याकरण, निरुक्त, सामवेदीय पदपाठ और उपनिदान सूत्र का प्रवचन किया था। इनका उल्लेख पाणिनीय अष्टाध्यायी और यास्कीय निरुक्त में मिलता है। १० प्राचार्य-ऋक्तन्त्र के अनुसार भरद्वाज ने इन्द्र से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था।' ऐतरेय आरण्यक २।२।४ में लिखा है-इन्द्र ने भरद्वाज के लिये घोषवत् और ऊष्म वर्णों का उपदेश किया था। चरक संहिता सूत्रस्थान ११२३ से विदित होता है कि भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद पढ़ा था। वायु पुराण १०३।६३ के अनुसार तृणंजय ने १५ भरद्वाज के लिये पुराण का प्रवचन किया था। महाभारत शान्तिपर्व १५२।५ के अनुसार भृगु ने भरद्वाज को धर्मशास्त्र का उपदेश किया था। यही भगु मानव धर्मशास्त्र का प्रथम प्रवक्ता है । शिष्य-ऋक्तन्त्र के अनुसार भरद्वाज ने अनेक ऋषियों को व्याकरण पढ़ाया था। चरक सूत्रस्थान में अनेक ऋषियों को प्रायूर्वेद २० पढ़ाने का उल्लेख है। उन में से एक मात्रय पुनर्वसु है। वायु पुराण १०३१६३ में लिखा है कि भरद्वाज ने किसी अर्थशास्त्र का भी प्रवचन किया था । १. इन्द्रो भरद्वाजाय । १४॥ २. तस्य यानि व्यञ्जनानि तच्छरीरम्, यो घोषः स आत्मा, य ऊष्माण: २५ स प्राणः. "एतदु हैवेन्द्रो भरद्वाजाय प्रोवाच । ३. तस्मै प्रोवाच भगवानायुर्वेदं शतक्रतुः। ४. तृणञ्जयो भरद्वाजाय । ५. भृगणाऽभिहितं शास्त्रं भरद्वाजाय पृच्छते । ६. भरद्वाज ऋषिभ्यः ॥१४॥ ७. ऋषयश्च भरद्वाजात्"। अथ मैत्रीपरः पुण्यमायुर्वेदं पुनर्वसुः । ३० १।२७,३० ॥ ८. गौतमाय भरद्वाजः । १. इन्द्रस्य हि स प्रणमति यो बलीयसो नमतीति भरद्वाजः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास देश-रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ५४ के अनुसार भरद्वाज का आश्रम प्रयाग के निकट गंगा यमुना के संगम पर था। मन्त्रद्रष्टा-ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी में बार्हस्पत्य भरद्वाज को अनेक सूक्तों का द्रष्टा लिखा है। ५ दीर्घजीवी-तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।११ के अनुसार इन्द्र ने तृतीय पुरुषायुष की समाप्ति पर भरद्वाज को वेद की अनन्तता का उपदेश किया था।' चरक संहिता के प्रारम्भ में भरद्वाज को अमितायु कहा है।' ऐतरेय आरण्यक १।२।२ में भरद्वाज को अनूचानतम और दीर्घजीवि तम लिखा है। ताण्ड्य ब्राह्मण १५।३।७ के अनुसार यह काशिराज १० दिवोदास का पुरोहित था। मैत्रायणी संहिता ३।३७ और गोपथ ब्राह्मण २।१।१८ में दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन का पुरोहित कहा है ।' जैमिनीय ब्राह्मण३।२।४४ में दिवोदास के पौत्र क्षत्र का पुरोहित लिखा है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।११ से व्यक्त है कि दीर्घजीवी भरद्वाज के साथ इन्द्र का विशेष सम्बन्ध था । अतः यही दीर्घजीवी भरद्वाज १५ व्याकरणशास्त्र का प्रवक्ता है, यह निश्चित है। विशिष्ट घटना-मनुस्मृति १०।१०७ के अनुसार किसी महान् दुर्भिक्ष के समय क्षुधात भरद्वाज ने बृवु तक्षु से बहुत सी गायों का प्रतिग्रह किया था। काल २० हम ऊपर कह चुके हैं कि भरद्वाज काशिपति दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन का पुरोहित था। रामायण उत्तरकाण्ड ३८१६ के अनुसार १. भरद्वाजो ह वा त्रीभिरायुभिब्रह्मचर्यमुवास । तं जीणि स्थविरं शयानमिन्द्र उपव्रज्योवाच । भरद्वाज ! यत्ते चपुर्थमायुर्दद्याम किं तेन कुर्याः । २, तेनायुरमितं लेभे भरद्वाजः सुखान्वितः । सूत्र० ११२६॥ अपरिमित२५ शब्द: सर्वत्रोक्तात् प्रमाणादधिकविषयः इति न्यायविदः । कात्यायनश्चाह अपरिमितश्च प्रमाणाद् भूय । प्राप० श्रौत २ । १ । १ रुद्रवृत्ति में उद्धृत । ३. भरद्वाजो हावा ऋषीणामनूचानतमो दीर्घजीवितमस्तपस्वितम पास । तुलना करो-भरद्वाजो ह वै कृशो दीर्घः पलित पास । ऐ० ब्रा० १५।५।। ४. दिवोदासं वै भरद्वाजपुरोहितं नाना जना: पर्ययन्त। ५. एतेन वै भरद्वाजः प्रतर्दनं दवोदासि समनह्यत् । मै० सं० । एतेन ह वै भरद्वाजः प्रतर्दनं समनह्यत । गो० प्रा० । B. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचाय १०१ काशिपति प्रतर्दन दाशरथि राम का समकालिक था।' रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ५४ के अनुसार राम आदि वन जाते हुए भरद्वाज के आश्रम में ठहरे थे । सीता-स्वयंवर के अनन्तर दाशरथि राम का जामदग्न्य राम से साक्षात्कार हुआ था। महाभारत के अनुसार जामदग्न्य राम त्रेता और द्वापर की सन्धि में हया था। इन प्रमाणों ५ से स्पष्ट है कि दीर्घजीवी भरद्वाज मर्यादापुरुषोत्तम राम के समय विद्यमान था । दाशरथि राम का काल त्रेता के सन्ध्यंश या अन्तिम चरण है । अतः भरद्वाज का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून ६३०० से ७५०० वर्ष पूर्व है । महाभारत में लिखा है कि भरद्वाज ने महाराज भरत की सुनन्दा रानी में नियोग से सन्तान उत्पन्न किया था । १० ___ शौनक-प्रति-संस्कृत ऐतरेय ब्राह्मण १५३५ में प्रयुक्त 'पास' क्रिया से व्यक्त होता है कि ऐतरेय ब्राह्मण के शौनक के परिष्कार से बहुत पूर्व भरद्वाज की मृत्यु हो चुकी थी। भारत युद्ध के समय द्रोण ४०० वष का था। उस से न्यूनातिन्यून २०० वर्ष पूर्व द्र पद उत्पन्न हुआ था। महाभारत में द्रुपद को राज्ञां वृद्धतमः कहा है । भरद्वाज के १५ सखा महाराज पृषत् के स्वर्गवास के पश्चात् द्रुपद राजगद्दी पर बैठा । इसी समय भरद्वाज स्वर्गामि हुना। इस घटना से यही प्रतीत होता है कि भरद्वाज भारत युद्ध से लगभग ४०० वर्ष पूर्व तक जीवित रहा। भरद्वाज भारतीय इतिहास में वर्णित उन कतिपय दीर्घजीवितम ऋषियों में से एक है, जिनकी आयु लगभग सहस्र वर्ष से भी २० अधिक थी। चरक चिकित्सास्थान अध्याय १ में लिखा है कि भरद्वाज ने रसायन द्वारा दोर्घायुष्ट्व प्राप्त किया था। चरक के इसी प्रकरण १. तं विसृज्य ततो रामो वयस्यमकुतोभयम् । प्रतर्दनं काशिपति परिष्वज्येदमब्रवीत ॥ २. त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतांवरः । असकृत् पार्थिवं क्षत्रं २५ जघानामर्षचोदितः ॥ आदि० २।३।। ३. आदि पर्व, द्वितीय वंशावली। ४. पूर्व पृष्ठ पर, १०० टि० ३ । ५. भरद्वाजस्य सखा पृषतो नाम पार्थिवः । आदि पर्व १६६।६॥ ६. ततो व्यतीते पृषते स राजा द्रुपदोऽभवत् ।...."भरद्वाजोऽपि हि भगवान् आरुरोह दिवं तदा ॥ आदि पर्व १३०।४३,४४॥ ७. एतद्रसायनं पूर्वं वसिष्ठः कश्यपोऽङ्गिराः । जमदग्निर्भरद्वाजो भृगुरन्ये च तद्विधाः ॥ ४॥ प्रयुज्य प्रयता मुक्ताः श्रमव्याधिजराभयात् । यादवैच्छंस्तपस्तेपुस्तत्प्रभावान्महाबलाः ॥ ५॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ में सहस्रवार्षिक कई रसायनों का उल्लेख है। जिन के प्रयोग से अनेक महर्षियों ने इतना सुदीर्घ आयुष्य प्राप्त किया था, जिस की कल्पना भी आज के अल्पायुष्य काल में असम्भव प्रतीत होती है। व्याकरण का स्वरूप भरद्वाज का व्याकरण अनुपलब्ध है। उसका एक भी वचन वा मत हमें किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हुआ। कात्यायन ने यजुःप्रातिशाख्य में आख्यात=क्रिया को भरद्वाजदृष्ट कहा है।' उस से व्यक्त होता है कि भरद्वाज ने अपने व्याकरण में प्राख्यात पर विशेषरूप से लिखा था। इस से अधिक हम इस विषय में कुछ नहीं १० जानते । अन्य कृतियां इस अनूचानतम और दीर्घजीवितम भरद्वाज ने अपने सुदीर्घ जीवन में किन-किन विषयों का प्रवचन किया, यह अज्ञात है । प्राचीन ग्रन्थों में इस भरद्वाज को निम्न विषयों का प्रवक्ता वा १५ शास्त्रकर्ता कहा है आयुर्वेद-वायु पुराण ६२।२२ में लिखा है-भरद्वाज ने आयुर्वेद की संहिता रची थी। चरक सूत्र स्थान १।२६-२८ के अनुसार भर. द्वाज ने आत्रेय पुनर्वसु प्रभृति शिष्यों को एक कायचिकित्सा पढ़ाई थी । भारद्वाजीय आयुर्वेद संहिता का एक उद्धरण अष्टाङ्ग-संग्रह २० सूत्रस्थान पृष्ठ २७० की इन्दु की टीका में मिलता है। धनुर्वेद-महाभारत शान्ति पर्व २१०।२१ के अनुसार भरद्वाज ने धनुर्वेद का प्रवचन किया था। राजशास्त्र-महाभारत शान्ति पर्व ५८।३ में लिखा है-भरद्वाज ने राजशास्त्र का प्रणयन किया था । २५ १. भरद्वाजकमाख्यातम् । अ० ८ पृष्ठ, ३२७ मद्रास संस्करण । उवट भरद्वाजेन दृष्टमाख्यातम् । सम्पादक नै भ्रम से इस प्रकरण के अनेक सूत्र टीका में मिला दिये हैं। २. पूर्व पृष्ठ ६६, टि० २ ॥ ३. भरद्वाजो धनुर्ग्रहम् । ४. भरद्वाजस्य भगवांस्तथा गौरशिरा मुनिः । राजशास्त्रप्रणेतारो ब्राह्मणा ३० ब्रह्मवादिनः ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचाय १०३ अर्थशास्त्र-कौटिल्य अर्थशास्त्र में भरद्वाज का एक वचन उद्धृत हैं।' उससे विदित होता है कि भरद्वाज ने अर्थशास्त्र की रचना की थी। इस अर्थशास्त्र के दो श्लोक यशस्तिलकचम्पू के पृष्ठ १०० पर उद्धृत हैं । इनमें से पहले का अर्धभाग कौटिल्य अर्थशास्त्र ७.५ में उपलब्ध होता है। भरद्वाज के पिता बृहस्पति का अर्थशास्त्र प्रसिद्ध ५ __यन्त्रसर्वस्व-महर्षि भरद्वाज ने 'यन्त्रसर्वस्व' नामक कला-कौशल का बृहद् ग्रन्थ लिखा था। उसका कुछ भाग बड़ोदा के राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। उसका विमान-विषय से सम्बद्ध उपलब्ध स्वल्पतम भाग श्री पं० प्रियरत्नजी आर्ष (स्वामी ब्रह्ममुनिजी) ने विमानशास्त्र के नाम से कई वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। अब आपने उसका पर्याप्त भाग उपलब्ध करके आर्यभाषानुवाद सहित प्रकाशित किया है । इस ग्रन्थ के अन्वेषण का श्रेय इन्हीं को है। इस विमानशास्त्र में विविध परिवह (=उच्च नीच स्तर) में विचरने वाले विमानों के लिये विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता १५ पुराण-वायु पुराण १०३।६३ में भरद्वाज को पुराण का प्रवक्ता कहा है । __धर्मशास्त्र-संस्कार-भास्कर पत्रा २ में हेमाद्रि में निर्दिष्ट भर. द्वाज का एक लम्बा उद्धरण उद्धृत है। इससे विदित होता है कि २० भरद्वाज ने किसी धर्मशास्त्र का भी प्रवचन किया था। शिक्षा-भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना से एक भारद्वाजशिक्षा प्रकाशित हुई है। उसके अन्तिम श्लोक' तथा टीकाकार वागेश्वर भट्ट के मतानुसार यह शिक्षा भरद्वाजप्रणीत है हमारे - १. इन्द्रस्य हि स प्रणमित यो बलीयसे नमतीति भरद्वाजः । अधि० १२, २५ अ० १॥ तुलना करो-इन्द्र मेव प्रणमते यद्राजानमिति श्रुतिः । महाभारत . . शान्ति० ६४।४।। २. भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग १ पृष्ठ ११६, द्वि० सं० । । ३. यह भाग विमानशास्त्र' के नाम से प्रार्य सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा देहली से प्रकाशित हुआ है। ४. गौतमाय भरद्वाजः । ३० ५. यो जानाति भरद्वाजशिक्षामर्थसमन्विताम् । पृष्ठ ६६ । ६. .... प्रवक्ष्यामि इति भरद्वाजमुनिनोक्तम् । पृष्ठ १ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विचार में यह शिक्षा अर्वाचीन है । क्योंकि इसका सम्बन्ध तैत्तिरीय चरण से है । कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध भारद्वाज श्रौत भी उपलब्ध हैं । अतः सम्भव है कि उक्त भारद्वाज शिक्षा का कोई मूल ग्रन्थ भरद्वाजप्रणीत रहा हो, अथवा यह भारद्वाज कोई भरद्वाज-वंश का व्यक्ति उपलेख-बड़ोदा प्राच्यविद्यामन्दिर के सूचीपत्र भाग १, सन् १९४२ ग्रन्थाङ्क ५४२, पृष्ठ ३८ पर उपलेख का एक सभाष्य हस्तलेख निर्दिष्ट है। उसका मूल भरद्वाज कृत कहा गया है । ६-भागुरि (४००० वि० पू०) यद्यपि प्राचार्य भागुरि का उल्लेख पाणिनीय अष्टक में उपलब्ध नहीं होता, तथापि भागुरि-व्याकरणविषयक मतप्रदर्शक निम्न श्लोक वैयाकरण-निकाय में अत्यन्त प्रसिद्ध है वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः । १५ प्रापं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥' अर्थात्-भागुरि प्राचार्य के मत में 'अव' और 'अपि' उपसर्ग के प्रकार का लोप होता हैं । यथा-अवगाह =वगाह, अपिधान=पिधान तथा हलन्त शब्दों से प्राप् (टाप्) प्रत्यय होता है। यथा-वाक वाक् =वाचा, निश् =निशा, दिश्=दिशा । पातञ्जल महाभाष्य ४।१।१ से भो विदित होता है कि कई प्राचार्य हलन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिंग में टाप् प्रत्यय मानते थे। पाणिनि ने अजादिगण में क्रुञ्चा उष्णिहा देवविशा शब्द पढ़े हैं। काशि। कार ने इनमें हलन्तों से टाप माना है। भागुरि के व्याकरणविषयक कुछ वचन जगदीश तर्कालङ्कार ने २५ शब्द-शक्तिप्रकाशिका में उद्धृत किये हैं। उन्हें हम आगे लिखेंगे। १. न्यास ६॥२॥३७, पृष्ठ २६४ । धातुवृत्ति, इण धातु पृष्ठ २४७ । प्रक्रियाकौमुदी भाग १, पृष्ठ १८२ । अमरटीकासर्वस्व,भाग १, पृष्ठ ५३ में इस प्रकार पाठ भेद है- टापं चापि हलतानां दिशा वाचा गिरा क्षुधा। वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः। ३० २. यस्ता नकारान्तात क्रुञ्चा, उष्णिहा, देवविशा इति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १०५ परिचय भागुरि में श्रूयमाण तद्धितप्रत्यय के अनुसार भागुरि के पिता का नाम 'भगुर' प्रतीत होता है । महाभाष्य ७।३।४५ में किसी भागुरी का नामोल्लेख है । संभव है यह भागुरि की स्वसा हो । इस पण्डिता देवी ने किसी लोकायत शास्त्र की व्याख्या की थी।' यह लोकायत ५ शास्त्र अर्थशास्त्रवत् कोई अर्थप्रधान ग्रन्थ प्रतीत होता है।' ___ प्राचार्य-बृहत्संहिता ४७।२ पृष्ठ ५८१ के अनुसार भागुरि बृहद्गर्ग का शिष्य था। भागुरि का मेरु-परिमाण-विषयक मत वायु पुराण ३४६२ में उपलब्ध होता है । काल हम आगे प्रतिपादन करेंगे कि भागुरि प्राचार्य ने सामवेद की संहिता शाखा और ब्राह्मण का प्रवचन किया था। कृष्ण द्वैपायन तथा उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा शाखाओं का प्रवचन भारतयुद्ध से पूर्व हो चका था। अतः भागरि का काल विक्रम से ३१०० वर्ष पूर्ववर्ती है। 'संक्षिप्तसार' के 'प्रयाज्ञवल्क्यादेाह्मणे' सूत्र (तद्धित ४५४) की १५ टीका में शाट्यायन ऐतरेय के साथ भागुर ब्राह्मण भी स्मृत है। तदनुसार पाणिनि के मत में भागुरि-प्रोक्त ब्राह्मण ऐतरेय के समान पूराणप्रोक्त सिद्ध होता है। पाणिनि द्वारा स्मत पूराणप्रोक्त ब्राह्मण कृष्ण द्वैपायन और उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त ब्राह्मणों से १. वर्णिका भागुरी लोकायतस्य । वर्तिका भागुरी लोकायतस्य । कैयट के २० मत में भागुरी टीका ग्रन्थ का नाम है-वणिकेति व्याख्यात्रीत्यर्थः, भागुरी टीकाविशेषः। , २. वात्स्यायन के 'अर्थश्च राज्ञः, तन्मूलत्वाल्लोकयात्रायाः' (२०१५) तथा 'वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिकः कार्षापण इति लोकायतिका:' (११२।२८) इन दोनों सूत्रों को मिलाकर पढ़ने से प्रतीत होता है कि लोका. २५ यत शास्त्र भी अर्थशास्त्र के समान कोई अर्थप्रधान शास्त्र था हमारे मित्र श्री पं० ईश्वरचन्द्र जी ने 'लोकायतं न्यायशास्त्रं ब्रह्मगार्योक्तम्' (गणपति शास्त्री कृत अर्थशास्त्र टीका, भाग १, पृष्ठ २५ )पाठ की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। अत: प्राचीन लोकायत शास्त्र नास्तिक नहीं था। ३. चतुरस्रं तु भागुरिः। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास , पूर्वकालिक हैं । अत: भागुरि का काल विक्रम से ४००० वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिए। भागुरि का व्याकरण भागुरि के व्याकरणसंबन्धी जितने वचन या मत उद्धृत मिलते ५ हैं, उन से प्रतीत होता है कि भागुरि का व्याकरण भले प्रकार परि ष्कृत था, और वह पाणिनीय व्याकरण से कुछ विस्तृत था । यदि जगदीश तर्कालङ्गार द्वारा उद्धृत श्लोक इसी रूप में भागुरि के हों तो सम्भव है भागुरि का व्याकरण श्लोकबद्ध हो। भागुरि-व्याकरण के उद्धरण १० भागुरि आचार्यप्रोक्त व्याकरण के निम्न मत या वचन उपलब्ध होते हैं भाषावृत्ति ४।१।१० में भागुरि का मत१. नप्तेति भागुरिः । अर्थात् भागुरि के मत में नप्ता का भी प्रयोग .? होता था । पाणिनीय मतानुसार 'नप्त्री' प्रयोग होता है। १५ जगदीश तर्कालङ्गार ने शब्दशक्तिप्रकाशिका में भागुरि के निम्न मत वा वचन उद्धृत किये हैं । - २. मुण्डादेस्तत् करोत्यर्थे, गृह्णात्यर्थे कृतादितः । वक्तीत्यर्थे च सत्यादेर्, अङ्गादेस्तन्निरस्यति ।। इति भागुरिस्मृतेः।' ३. तूस्ताद्विघाते, संछादे वस्त्रात् पुच्छादितस्तथा। २० उत्प्रेक्षादौ, कर्मणों णिस्तदव्ययपूर्वतः ।। इति भागुरिस्मृतेः । ४. वीणात उपगाने स्याद्, हस्तितोऽतिक्रमे तथा । ... सेनातश्चाभियाने णिः, श्लोकादेरप्युपस्तुतौ ॥ इति भागुरिस्मृतेः ।' .., ५ गुपधूपविच्छिपणिपनेरायः, कमेस्तु णिङ् । ऋतेरियङ चतुर्लेषु नित्यं स्वार्थे, परत्र वा ॥ इति भागुरिस्मृतेः ।। २५ ६. गुपो वधेश्च निन्दायां, क्षमायां तथा तिजः । १. पृष्ठ ४४४, काशी संस्क०। ३. पृष्ठ ४४६ । , , २. पृष्ठ ४४५। काशी संस्क० । ४. पृष्ठ ४४७ । । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन आचार्य १०७ प्रतीकाराद्यर्थकाच्च कितः, स्वार्थे सनो विधिः । इति भागुरिस्मृतेः । ' ७. अपादान सम्प्रदान करणाधारकर्मणाम् । कर्तु श्चान्योऽन्यसंदेहे परमेकं प्रवर्तते ।। इति भागुरिवचनमेव शरणम् ।' हमारा विचार है ये छ: श्लोक भागुरि के स्ववचन ही हैं । सम्भव है भागुरि ने ऋक्प्रातिशाख्यवत् छन्दोबद्ध सूत्र रचना की हो । उस काल में शास्त्रीय ग्रन्थ श्लोकबद्ध रचने की परिपाटी थी । भागुरि के व्याकरणविषयक मतनिदर्शक निम्न दो वचन और उपलब्ध होते हैं८. वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः । ग्रापं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥ " B. हन्तेः कर्मण्युपष्टम्भात् प्राप्तुमर्थे तु सप्तमीम् । चतुर्थी बाधिकामाहुइचूर्णिभागुरिवाग्भटाः ॥" १०. स्यान्मतम्, करोतीति कारणम् । यथोक्तम् । ष्टिव सिव्योयुं ट्परयोर्दीर्घत्वं वष्टि भागुरिः । करोते कर्तृभावे च सौनागाः प्रचक्षतेः ॥ भागुरि के अन्य ग्रन्थ १. संहिता - प्रपञ्चहृदय, चरणव्यूहटीका, जैमिनीय गृह्य और गोभिल गृह्यप्रकाशिका आदि अनेक ग्रन्थों से विदित होता है कि १. पृष्ठ ४४७ काशी संस्करण । २. भाष्यव्याख्याप्रपञ्च, पृष्ठ १२६ । पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषा वृत्ति, राजशाही संस्क० । १० बड़ोदा १५ ३. देखो पूर्व पृष्ठ १०४, टि० १ । भट्टिटीका में उत्तरार्ध इस प्रकार है'धाकृञोस्तनिनह्योश्च बहुलत्वेन शौनकि: ।' निर्णयसागर, पृष्ठ ६६ ॥ ४. शब्दशक्तिप्रकाशिका पृष्ठ ३८६ में इसे भर्तृहरि का बचन लिखा है । २५ यह ठीक नहीं । वाक्यपदीय के कारक - प्रकरण में यह वचन नहीं मिलता । भर्तृ - हरि वाग्भट्ट से प्राचीन है, यह हम भर्तृहरिविरचित महाभाष्यदीपिका के प्रकरण में लिखेंगे । इस श्लोक में वाग्भट का निर्देश है ५. मल्लवादि कृत द्वादशारनयचक्र की सिंहसूरिगणि कृत टीका, संस्करण भाग १, पृष्ठ ४१ । ३० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास प्राचार्य भागुरि ने किसी सामशाखा का प्रवचन किया था।' कश्मीर के छपे लौगाक्ष - गृह्य की अंग्रेजी भाषा निबद्ध भूमिका में अगस्त्य के श्लोकतर्पण का एक वचन उद्धृत है। उसके अनुसार भागुरि याजुष आचार्य है। संम्भव है भागुरि ने साम और यजुः दोनों की शाखाओं का प्रवचन किया हो । ५ २. ब्राह्मण - संक्षिप्तसार के 'श्रयाज्ञवल्क्यादेर्ब्राह्मणे सूत्र की टीका में प्रत्यासनिक गोयीचन्द्र उदाहरण देता है शाट्यायनिनः, भागुरिणः, ऐतरेयिणः । * इससे प्रतीत होता है कि भागुरि ने किसी ब्राह्मण का भी प्रवचन १० किया था । वह साम संहिता का था । भागुरिस्तु प्रथमं निर्दिष्टानां प्रश्नपूर्वकाणामर्थान्तरविषये निषेधो १५ ऽप्यनुनिर्दिष्टश्चेत् सोऽपि यथासंख्यालङ्कार इति । २० ३. श्रलङ्कार- शास्त्र —–सोमेश्वर कवि ने अपने 'साहित्यकल्पद्रुम' ग्रन्थ के यथासंख्यालङ्कार प्रकरण में भागुरि का निम्न मत उद्धृत किया है - २५ अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक की लोचना टीका में भागुरि का निम्न मत उद्धृत किया है । तथा च भागुरिरपि - कि रसनामपि स्थायिसंचारिताऽस्तीत्याक्षिप्य श्रभ्युपगमेनेवोत्तरमवोचद् वाढमस्तीति । ' इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भागुरि का कोई अलङ्कारशास्त्र भी था। देखो श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत 'वैदिक वाङ्मय का इतिहास' भाग १, पृष्ठ ३०८-३१० द्वि० सं० । २. लौगाक्षिश्च तथा काण्वस्तथा भागुरिरेव च । एते । पृष्ठ ९ । ३. तद्धित ४५४ । गुरुपदहालदार, व्या० द० इ० पृष्ठ ४९६ पर उद्धृत । ४. मुद्रितपाठ शाट्यायनी भागुरी ऐतरेयी अशुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि छन्दो ब्राह्मण-विषयक तद्धितप्रत्ययान्त अध्येतृवेदितृ विषय में बहुवचनान्त प्रयुक्त होते हैं ( द्र० - अष्टा० ४/२/६५ ) न कि केवल प्रोक्तार्थं मात्र में । ५. मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय का सूचीपत्र भाग १, खण्ड १ ६. तृतीय उद्योत, पृष्ठ ३८५ । ३० A, पृष्ठ २८६५, ग्रन्थाङ्क २१२६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखत प्राचीन प्राचार्य १०६ ४. कोष-अमरकोष आदि की टीकानों में भागुरिकृत कोष के अनेक उद्धरण उपलब्ध होते हैं।' सायण ने धातृवृत्ति में भागुरि के कोष का एक श्लोक उद्धत किया है। पुरुषोत्तमदेवकृत भाषावृत्ति, सृष्टिधरकृत भाषावृत्तिटीका और प्रभावृत्ति से विदित होता है कि भागुरिकृत कोष का नाम 'त्रिकाण्ड' था। अमरकोष की सर्वानन्द- ५ विरचित टीकासर्वस्व में त्रिकाण्ड के अनेक वचन उद्धृत हैं। ५. सांख्यदर्शनभाष्य-विक्रम की बीसवीं शताब्दी पूर्वार्ध के महाविद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वतो ने सत्यार्थप्रकाश प्रथम संस्करण (सं० १९३२ वि०) में लिखा है-'उसके पीछे सांख्यदर्शन जो कि कपिल मुनि के किये सूत्र उन ऊपर भागुरि मुनि का किया भाष्य, १० इस को १ मास में पढ़ लेगा । संस्कारविधि के संशोधित अर्थात् द्वितीय संस्करण (सं० १९४१ वि०) में भी सांख्यदर्शन भागुरिकृत भाष्य सहित पढ़ने का विधान किया है। ६. देवता ग्रन्थ- गृहपति शौनक ने बृहद्देवता में भागुरि प्राचार्य १. अमरटीकासर्वस्व, भाग १, पृष्ठ १११, १२५, १६३ इत्यादि । अमर १५ क्षीरटीका, पृष्ठ ५, ६, १२ इत्यादि । हैम अभिधानचिन्तामणि स्वोपज्ञटीका । २. तथा भागुरिरपि ह्रस्वान्तं मन्यते । यथाह च- भार्या भेकस्य वर्षाम्वी शृङ्गी स्यान्मद्गुरस्य च । शिली गण्डूपदस्यापि कच्छपस्य डुलिः स्मृता ॥ घाबुवृत्ति, भूधातु, पृष्ठ ३० ॥ यह श्लोक अमरटीकसर्वस्व भाग १, पृष्ठ १९३ में भी उदधृत है। ३. भाषावृत्ति-शिवताति: शंतातिः अरिष्टतातिः, अमी शब्दाश्छान्दसा अपि कदाचिद् भाषायां प्रयुज्यन्ते इति त्रिकाण्डे भागुरिनिबन्धनाद्वाऽव्युत्पन्न. संज्ञाशब्दत्वाद्वा सर्वथा भाषायां साधु ॥ ४।४।१४३ ॥ भाषावृत्तिटीका-त्रिकाण्डे कोशविशेषे भागुरेरेवाचार्यस्य यदेषां निबन्धनं तस्माच्च ।४।४।१४३ ॥ प्रभावृत्ति-एभिनेवभिः सूत्रनिष्पन्नाश्छान्दसा २५ मपि शब्दा भाषायां साघवो भवन्ति · त्रिकाण्डे भागुरिनिबन्धनात् । पं० गुरुपद हालदार कृत व्याकरण-दर्शनेर इतिहास पृष्ठ ४६६ में उद्धृत । ४. पृष्ठ ७८, सन १८७५ का छपा । सत्यार्थप्रकाश में भी भागुरिकृत भाष्य का उल्लेख है । द्र०-रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्क० पृष्ठ १०४ । . ५. संस्कारविधि, वेदारम्भसंस्कार । द्र०-रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्करण है. (तृतीय) पृष्ठ १४४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के देवता विषयक अनेक मत उद्धृत किये हैं।' इन से प्रतीत होता है कि भारि ने कोई वेदसंबन्धी अनुक्रमणिका ग्रन्थ भी अवश्य लिखा था । ७. मनुस्मृतिभाव्य - भागुरि ने मनुस्मृति पर एक भाष्य लिखा था । मनु०८।१६८ में प्रयुक्त अनपसर शब्द का भागुरि प्रदर्शित अर्थ कल्पतरुकार लक्ष्मीधर ने उद्धृत किया है। " ८' राजनीतिशास्त्र - नीतिवाक्यामृत की टोका में भागुरि के राजनीतिपरक श्लोक उद्धृत हैं । व्याकरण, संहिता, ब्राह्मण, अलङ्कार, कोष, सांख्यभाष्य और १० अनुक्रमणिका आदि सब ग्रन्थों का प्रवक्ता एक ही भागुरि है वा भिन्न भिन्न, यह कहना तब तक कठिन है, जब तक इन ग्रन्थों की उपलब्धि न हो जावे | ७ – पौष्करसादि (३१०० वि० पू०) पौष्करसादि आचार्य का नाम पाणिनीय सूत्रपाठ में उपलब्ध १५ नहीं होता । महाभाष्य ८।४।४८ के एक वार्तिक में इसका उल्लेख है । तैत्तिरीय और मैत्रायणीय प्रातिशाख्य में पौष्करसादि के अनेक मत उद्धृत हैं । काशकृत्स्न धातुपाठ की चन्नवोर कविकृत कन्नड टीका के आरम्भ में इन्द्र, चन्द्र, आपिशलि, गार्ग्य, गालव के साथ पौष्कर स्मृत है । यह नामैकदेश न्याय से पौष्करसादि ही है । इन २० से पौष्करसादि प्राचार्य का व्याकरणप्रवक्तृत्व विस्पष्ट है । परिचय वंश - पौष्करसादि में श्रूयमाण तद्धित प्रत्यय के अनुसार इनके पिता १. बृहद्देवता ३ | १०० ॥ ५॥४०॥६।९६,१०७॥ २. द्र०—शाश्वतवाणी समाजशास्त्र विशेषाङ्क (सन् १९६२) पृष्ठ ६१ पर । ३. चयो द्वितीया शरि पौष्करसादे: । २५ १. ४, तै० प्रा० ५।३७,३८|| १३ | १६|| १४|२|| १७|६|| मे० प्रा० ५५३६, ४०||२|१|१६।२।५।६ ॥ ५. सद्भिः = इन्द्रचन्द्रापिशलिगार्ग्यगालवपौष्करैः ( यह कन्नड टीका का संस्कृत रूपान्तर है ) पृष्ठ १ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १११ का नाम 'पुष्करसत्' था। जयादित्य प्रभृति वैयाकरणों का भी यही मत है।' सन्तति-पौष्करसादि के अपत्य पौष्करसादायन कहाते हैं । पाणिनि ने तौल्वल्यादि गण में पौष्करसादि पद पढ़ कर उससे उत्पन्न युवार्थक फक् (प्रायन) प्रत्यय के अलुक् का विधान किया है। ५ देश-हरदत्त के मत में पौष्करसादि आचार्य प्राग्देशवासी है। वह लिखता है-पुष्करसदः प्राच्यत्वात् । पाणिनीय व्याकरण से भी यही प्रतीत होता है, पौष्करसादायन में 'इजः प्राचाम्" सूत्र से युवार्थक प्रत्यय का लुक प्राप्त होता है, उस का निषेध करने के लिये पाणिनी ने 'तौल्वल्यादि' गण में पौष्करसादि पद पढ़ा है। बौद्ध १० जातकों में पोक्ख रसदों का उल्लेख मिलता है, वे प्राग्देशीय हैं। यज्ञेश्वर भट्ट ने अपनी गणरत्नावली में पौष्करसादि पद का निर्वचन इस प्रकार किया है पुष्करे तीर्थविशेषे सीदतीति पुष्करसत्, तस्यापत्यं पौष्करसादिः । इस निर्वचन के अनुसार पुष्करसत् अजमेर समीपवर्ती पुष्कर १५ क्षेत्रवासी प्रतीत होता है। पाणिनि के साथ विरोध होने से यज्ञेश्वर भट्ट की व्युत्पति को केवल अर्थप्रदर्शनपरक समझना चाहिए । अथवा सम्भव है प्राग्देश में भी कभी कोई पुष्कर क्षेत्र रहा हो । वहां की साम्प्रतिक भाषा में तालाब को 'पोक्खर' कहते हैं। अन्यत्र उल्लेख पौष्करसादि प्राचार्य के मत महाभाष्य के एक वार्तिक और तैत्तिरीय तथा मैत्रायणीय प्रातिशाख्य में उद्धृत हैं, यह हम पूर्व कह चुके । इसका एक मत शांखायन आरण्यक ७।८ में मिलता है । हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र तथा अग्निवेश्य गृह्यसूत्र में पुष्करसादि के मत १. पुष्करसच्छन्वाद् बाह्वादित्वादि अनुशतिकादीनां च (अष्टा० ७॥३॥ २५ २०) इत्युभयपदवृद्धिः । काशिका २।४१६३॥ बालमनोरमा, भाग २, पृष्ठ २८७ ॥ २. मष्टा० २।४।६१॥ ३. पदमन्जरी, भाग १, पृष्ठ ४८६ ।.. ४. मष्टा० २।४।६०॥ ५. ४।११६६॥ हमारा हस्तलेख, पृष्ठ १७५ । ३० . २० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास निर्दिष्ट हैं ।' प्रापस्तम्ब धर्मसूत्र में भी दो बार 'पुष्करसादि' प्राचार्य का उल्लेख है ।' ५ पौष्करसादि पुष्करसादि का एकत्व - प्रापस्तम्ब धर्मसूत्र की व्याख्या में हरदत्त पुष्करसादि को पौष्करसादि प्राचार्य का ही निर्देश मानता है, और 'दिवृद्धि का प्रभाव छान्दस है ऐसा कहता है । वस्तुतः यहां एकानुबन्धकृतमनित्यम्' इस परिमाण ने सोमेन्द्रचर के समान वृद्ध्यभाव मानना चाहिए ।" अग्निवेश्य अग्निवेश्यायन में भी यञ् परे क्वचित् वृद्ध्यभाव देखा जाता है । पौष्करसादि पद तौल्वल्यादि गण में पढ़ा है । पुष्करसत् पद का १० पाठ यस्कादि" बाह्वादि और अनुशतिकादि" गण में मिलता है । कात्यायन और पतञ्जलि दोनों ने पुष्करसत् का पाठ अनुशतिकादि गण में माना हैं ।" इस से स्पष्ट है कि पाणिनीय गणपाठ में इसका प्रक्षेप नहीं हुआ। तौल्वल्यादि गण में पौष्करसादि पद के पाठ से सिद्ध है कि पाणिनि न केवल पौष्करसादि से परिचित था, अपितु १५ उसके अपत्य पौष्करसादायन को भी जानता था । अतः पौष्करसादि १. सद्यः पुष्करसादि: हि० के० गृ० १६८; तथा अग्निवेश्य गृह्म ११, पृष्ठ ६ द्र० । २. शुद्धा भिक्षा भोक्तव्यैककुणिको काण्वकुत्सो तथा पुष्करसादिः । १।१६। ७॥ यथा कथा च परपरिग्रहणमभिमन्यते स्तेनो ह भवतीति कौत्सहारीतौ तथा २० कण्वपुष्करसादी । १२८१ ॥ ३. पौठररसादिरेव पुष्करसादिः, वृद्ध्यभावरछान्दसः | ११६५७॥ ४. द्र० - म०म० काशीनाथ अभ्यंकर सम्पादित परिभाषा - संग्रह, पृष्ठ २२ । २५ ५. J.KA.S. अप्रेल १९२८ में 'पौष्करसादि' पर छपा लेख द्रष्टव्य है । ६. द्र० - प्रग्निवेश्य तै० प्रा० ६ | ४ || द्र० मंत्रा० सं० स्वाध्यायमण्डल प्रकाशित प्रस्ताव, पृष्ठ १६ । प्रग्निवेश्यायन- ते० प्रा० १४ । ३२; मे० प्रा० ३० २२३२॥ ८. अष्टा० २।४।६३ ॥ ६. अष्टा० ४। १ ६६ ॥ १०. श्रष्टा० ७७३/२०॥ ११. पुष्कररसग्रहणाद् वा । श्रथवा यदयमनुशतिकादिषु पुष्करसच्छन्दं पठति । महाभाष्य ७५२॥११७॥ ७. अष्टा० २ | ४ | ६१ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ११३ प्राचार्य पाणिनि से पूर्ववर्ती है यह निर्विवाद है । पौष्करसादि - शाखा - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ५/४० के माहिषेय भाष्य के अनुसार पौष्करसादि ने कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का प्रवचन किया था ।' शांखायन श्रारण्यक के उद्धरण से भी यही प्रभासित होता है । शाखा प्रवक्ता ऋषि प्रायः कृष्णद्वैपायन के ५ समकालीन थे । अतः पौष्करसादि का काल भारतयुद्ध के आसपास ३१०० वि० पूर्व है । ८ - चारायण ( ३१०० वि० पू० ) आचार्य चारायण ने किसी व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया था, इस का स्पष्ट निर्देशक कोई वचन उपलब्ध नहीं हुआ । लौगाक्ष - गृह्य १० के व्याख्याता देवपाल ने कं० ५, सू० १ की टीका में चारायण अपरनाम' चारायणि का एक सूत्र और उसकी व्याख्या उद्धृत की है । वह इस प्रकार है तथा च चारायणिसूत्रम् - पुरुकृतेच्छछ्रयो:' इति । पुरु शब्दः कृतशब्दश्च लुप्यते यथासंख्यं छे छूटे परतः । पुरुच्छदनं पुच्छम् कृतस्य १५ छुवनं विनाशनं कृच्छ्रम्' इति । यदि यह सूत्र चारायणीय प्रातिशाख्य का न हो, जिस की अधिक संभावना है, तो निश्चय ही उसके व्याकरण का होगा । महाभाष्य १|१|७३ में चारायण को वैयाकरण पाणिनि और रौढि के साथ स्मरण किया है । ग्रतः चारायण अवश्य व्याकरणप्रवक्ता रहा होगा । २० परिचय वंश - चारायण पद अपत्यप्रत्ययान्त है, तदनुसार इस के पिता का नाम 'चर' है । पाणिनि ने नडादिगण में इसका साक्षात् निर्देश किया है। उससे 'फक' होकर चारायण पद निष्पन्न होता है । उससे - १. शैत्यायनादीनां कोहलीपुत्र - भारद्वाज स्थविर - कौण्डिन्य- पौष्करसादीनां २५ शाखिनाम् ..... । २. तुलना करो - पाणिन और पाणिनि शब्द के साथ । ३. कम्बलचारायणीयाः, श्रोदनपाणिनीयाः, धृतरौढीयाः । ४. अष्टा० ४ १६६॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रत इन से इन होकर चारायणि भी उसी व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता है। इस की मीमांसा आगे काशकृत्स्न-प्रकरण में विस्तार से करेंगे। अन्यत्र उल्लेख महाभाष्य १।१।७३ में उदाहरण दिये हैं-कम्बलचारायणीयाः, पोदनपाणिनीयाः घृतरौढीयाः । वामन ने काशिकावृत्ति ६।२।६६ तथा यक्षवर्मा ने शाकटायन वृत्ति २।४।२ में 'कम्बलचारायणीयाः' उदाहरण दिया है। कैयट की भूल-कयट ने महाभाष्य १११७३ के उदाहरण की १० व्याख्या करते हुए लिखा है-'कम्बलप्रियस्य चारायणस्य शिष्या इत्यर्थः। यह व्याख्या अशुद्ध है। इस का अर्थ 'कम्बलप्रधानश्चारायणः कम्बलचारायणः, तस्य छात्राः' करना चाहिये । अर्थात् प्राचार्य चारायण के पास कम्बलों का बाहुल्य था, वह अपने प्रत्येक छात्र को १५ कम्बल प्रदान करता था। वामन काशिका ६।२।६६ में पूर्वपदान्तो दात्त 'कम्बलचारायणीयाः' उदाहरण क्षेप अर्थ में उद्धृत करता है। उसका अभिप्राय भी यही है कि जो छात्र चारायण-प्रोक्त ग्रन्थ को पढ़ते हैं, वे पूर्वपदान्तोदात्त-विशिष्ट 'कम्बलचारायणीयाः' पद से व्यवहृत होते हैं। किसी चारायण का मत वात्स्यायन कामसूत्र में तीन स्थानों पर उद्धृत है।' चारायण का एक मत कौटिल्य अर्थशास्त्र में दिया हैतृणमतिदीर्घमिति चारायणः। ___ शाम शास्त्री सम्पादित मूल अर्थशास्त्र तृतीय संस्करण में 'नारायणः' पाठ है। अर्थशास्त्र के प्राचीन टीकाकार के मत में यह दीर्घचारायण मगध के बाल (बालक-प्रद्योत) नामक राजा का प्राचार्य था। अर्थशास्त्र संकेतित कथा का निर्देश नन्दिसूत्र आदि जैन ग्रन्थों में भी मिलता है । देखो शाम शास्त्री सम्पादित मूल अर्थशास्त्र की भूमिका पृष्ठ २० । दीर्घचारायण का निर्देश चान्द्रवृत्ति १. द्रष्टव्य पूर्व पृष्ठ ११३ की टि० २। ३० २. १।१।१२॥ १।४।१४॥ १॥५॥२२॥ ३. अधि० ५।०५। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ११५ २।२।१८' तथा कातन्त्र दुर्गवत्ति २२५१५ में भी मिलता है। यह चारायण शाखा-प्रवक्ता चारायण से भिन्न और अर्वाचीन है। काल चारायण कृष्ण यजुर्वेद की चारायणीय शाखा का प्रवक्ता है।' यह शाखा इस समय अप्राप्य है, परन्तु इसका 'चारायणीय मन्त्रार्षा ५ ध्याय' सम्प्रति मिलता है । यह दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज लाहौर से प्रकाशित हआ है। वैदिक शाखाओं का अन्तिम प्रवचन भारतयुद्ध के समीप हुआ था। अतः इसका समय विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व है। अन्य ग्रन्थ चारायणीय संहिता-यह कृष्ण यजुर्वेद की शाखा थी। इसका विशेष वर्णन पं० भगवद्दत्त कृत 'वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १ पृष्ठ २९४,२९५ (द्वि० सं०) पर देखो। चारायणी शिक्षा-यह शिक्षा कश्मीर से प्राप्त हुई थी। इसका उल्लेख इण्डियन एण्टीक्वेरी जुलाई १८७६ में डाक्टर कीलहान ने १५ किया है। साहित्यिक ग्रन्थ-नाटकलक्षणरत्नकोश के रचयिता सागरनन्दी ने चारायण के किसी साहित्यसंबंधी ग्रन्थ से एक उद्धरण उदधत किया है। -काशकृत्स्न (३१०० वि० पू०) यद्यपि पाणिनीय शब्दानुशासन में प्राचार्य काशकृत्स्न का वैयाकरण के रूप में उल्लेख नहीं मिलता, पुनरपि वैयाकरण निकाय में काशकृत्स्न का व्याकरण-प्रवक्तृत्व अत्यन्त प्रसिद्ध है । महाभाष्य के १. दीर्घश्चारायणः । २. इस शाखा का वर्णन देखो श्री पं भगवद्दत्त जी कृत 'वैदिक वाङ्मय २५ का इतिहास' प्रथम भाग,पृष्ठ २६४ (द्वि० सं०)। ३. प्राह चारायण:-'प्रकरणनाटकयोविष्कम्भः' इति । नाटकलक्षणरत्न कोश, पृष्ठ १६ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ प्रथम आह्निक के अन्त में प्रापिशल और पाणिनीय शब्दानुशासनों के साथ काशकृत्स्न शब्दानुशासन का उल्लेख मिलता है ।' वोपदेव ने प्रसिद्ध आठ शाब्दिकों में काशकृत्स्न का उल्लेख किया है । क्षीरस्वामी ने काशकृत्स्नीय मत का निर्देश किया है। काशकृत्स्न व्याकरण के अनेक सूत्र प्राचीन वैयाकरण वाङमय में उपलब्ध होते हैं । अब तो काशकृत्स्न का धातुपाठ भो कन्नड टीकासहित प्रकाश में आ गया है। कन्नड टीका में काशकृत्स्न व्याकरण के लगभग १३५ सूत्र भी उपलब्ध हो गए हैं । परिचय १० पर्याय-काशिका ५ । १।५८ में एक उदाहरण है-त्रिकं काश कृत्स्नम् । जैन शाकटायन की अमोघा वृत्ति ३ । २ । १६१ में इस का पाठ है–त्रिकं काशकृत्स्नीयम् । इन दोनों उदाहरणों की तुलना से इतना स्पष्ट है कि उक्त दोनों उदाहरणों में निश्चयपूर्वक किसी एक ही ग्रन्थ का संकेत है । परन्तु काशकृत्स्न और काशकृत्स्नीय पदों में १५ श्रयमाण तद्धित-प्रत्यय से विदित होता है कि एक काशकृत्स्नि-प्रोक्त है, और दूसरा काशकृत्स्न-प्रोक्त । न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि काशिका के ४।३।१०१ के उदाहरण की व्याख्या में लिखता है-प्रापिशलं काशकृत्स्नमिति-प्रापिशलिकाशकृत्स्निशब्दाभ्याम् इनश्च (४।२।११२) १. पाणिनिना प्रोक्त पाणिनीयम, आपिशलम्, काशकृत्स्नम् इति । २. द्र० पूर्व पृष्ठ ६६ । ३. काशकृत्स्ना अस्य निष्ठायामनिटत्वमाहुः-आश्वस्तः, विश्वस्तः । क्षीरतरङ्गिणी, पृष्ठ १८५। ४. कैयट-विरचित महाभाष्य प्रदीप २।१।५०; ५१॥२२॥ भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय स्वोपज्ञ टीका, काण्ड १, पृष्ठ ४०, उस पर वृषभदेव की टीका पृष्ठ ४१ । ५. इस काशकृत्स्न धातुपाठ की कन्नड टीका का रूपान्तर 'काशकृत्स्नधातुव्याख्यानम्' के नाम से हमने प्रकाशित किया है। ६. काशकृत्स्न व्याकरण के विस्तृत परिचय और उसके उपलब्ध समस्त सूत्रों की व्याख्या के लिये देखिए हमारा 'काशकृत्स्न-व्याकरणम्' ग्रन्थ । ७. मुद्रित अमोघावृत्ति में यह पाठ नहीं है। अमोधावृत्ति २।४।१८२ में ३० 'त्रिकाः काशकृत्स्ना:' पाठ मिलता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ११७ (४।२।११२ ) इत्यण्' । अर्थात् पिशलि और काशकृत्स्न में ( अपत्यार्थक इञ्प्रत्ययान्त) आपिशलि और काशकृत्स्नि शब्दों से प्रोक्त अर्थ में इञश्च सूत्र से अण् प्रत्यय होता है । तथा काशकृत्स्नोय पद में अपत्यार्थक अण्प्रत्ययान्त काशकृत्स्न शब्द से प्रोक्त अर्थ में वृद्धाच्छः (४।२।११४) से छ ( = ईय) प्रत्यय होता है । ५ काशकृत्स्न और काशकृत्स्न का एकत्व -- यद्यपि काशकृत्स्न और काशकृत्स्न नामों में अपत्य-प्रत्यय का भेद है, तथापि दोनों नाम एक ही आचार्य के हैं । अकारान्त कशकृत्स्न शब्द से अपत्य अर्थ में अत इञ् (अष्टा० ४।१।६५ ) से इत्र होकर काशकृत्स्नि शब्द निष्पन्न होता है । और उसी कशकृत्स्न से अपत्यार्थ में सामान्यविधायक १० तस्यापत्यम् ( श्रष्टा० ४। १ । ६२ ) से अण् होकर काशकृत्स्न शब्द बनता है । यद्यपि श्रत इञ् सूत्र तस्यापत्यम् का अपवाद है, तथापि क्वचिदपवादविषयेऽपि उत्सर्गोऽभिनिविशते' (कहीं-कहीं अपवाद = विशेष- विधायकसूत्र के विषय में उत्सर्ग = सामान्यसूत्र की भी प्रवृत्ति हो जाती है ) नियम से सामान्य प्रण प्रत्यय भी हो जाता है । इसी १५ नियम के अनुसार भगवान् वाल्मीकि ने दाशरथि राम के लिये दाशरथ शब्द का भी प्रयोग किया है । अत: जिस प्रकार एक ही दशरथ - पुत्र राम के लिए दाशरथि और दाशरथ दोनों शब्द प्रयुक्त 1 १. इसी प्रकार पाणिनि शब्द से भी प्रोक्त अर्थ में प्रण होकर 'पाणिनि ' शब्द निष्पन्न होगा । लोक प्रसिद्ध पाणिनीय पद पाणिन से निष्पन्न होता है । २० द्र०—न्यास ४।३।१०१ ।। पूर्वनिर्दिष्ट भाष्यवचन 'पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्' में अर्थनिदर्शन मात्र है, न कि विग्रह । पाणिनि शब्द आपिशलि और काशकृत्स्नि के समान गोत्रवाची है, उससे ' इञश्च' ( ४ |२| ११२ ) से अण् ही होगा । सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोज दीक्षित ने ४ |२| ११२ में पाणिनि शब्द से 'पाणिनीय' प्रयोग की निष्पत्ति के लिये सरल मार्ग को छोड़ कर जो क्लिष्ट २५ कल्पना की है । वह चिन्त्य है । २. सीरदेव - परिभाषावृत्ति, संख्या ३३; परिभाषेन्दुशेखर, सं० ५६ । यही नियम स्कन्दस्वामी ने 'अपवादविषये क्वचिदुत्सर्गो दृश्यते' शब्दों से उद्धृत किया है । द्र०- - निरुक्त - टीका, भाग २, पृ० ८२ ॥ ३. प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली । रामा० युद्धका० १४ | ३ || काशिकाकार ३० ने इस प्रयोग में शेषविवक्षा में ' तस्येदम् ' ( ४ | ३ | १२० ) से अण् प्रत्यय माना है, वह चिन्त्य है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास होते हैं, उसी प्रकार इञ्-प्रत्ययान्त काशकृत्स्नि और अण्-प्रत्ययान्त काशकृत्स्न दोनों शब्द निश्चय से एक ही व्यक्ति के वाचक हैं ।' काशकृत्स्नि का अन्यत्र उल्लेख-महाभाष्य के प्रथम आह्निक के अन्त में ग्रन्थवाची पाणिनीय और आपिशल के साथ 'काशकृत्स्न' ५ पद पढ़ा है, उस से व्यक्त है कि पतञ्जलि उस को काशकृत्स्नि प्रोक्त मानता है। पतञ्जलि ने काशकृत्स्नि आचार्य प्रोक्त मीमांसा का असकृत् उल्लेख किया है। महाकवि भास के नाम से प्रसिद्ध 'यज्ञफल' नाटक में भी काशकृत्स्नि प्रोक्त काशकृत्स्न मीमांसाशास्त्र का उल्लेख है। कात्यायन ने भी अपने श्रौतसूत्र में काशकृत्स्न आचार्य १० का उल्लेख किया है। अमाघा वृत्ति के 'काशकृत्स्नीयम्' निर्देश के अनुसार व्याकरणप्रवक्ता काशकृत्स्न है।' काशकृत्स्न का अन्यत्र उल्लेख-वोपदेव ने अष्ट शाब्दिकों में काशकृत्स्न का उल्लेख किया है। जैन शाकटायनीय अमोघा वृत्ति के पूर्वनिर्दिष्ट त्रिकं काशकृत्स्नीयम् उदाहरण में स्मृत ग्रन्थ का प्रवक्ता १५ तद्धित-प्रत्यय की व्यवस्थानुसार काशकृत्स्न है। भट्ट पराशर ने १. इसी प्रकार पाणिनीय तन्त्र के प्रवक्ता के लिए पाणिनि-पाणिन, वातिककार के लिए कात्य-कात्यायन, संग्रहकार के लिए दाक्षि-दाक्षायण दो-दो शब्द प्रयुक्त होते हैं। इनके लिए इसी अन्य के तत्तत् प्रकरण द्रष्टव्य हैं। २. काशकृत्स्निना प्रोक्तं काशकृत्स्नम् । इञश्च (अष्टा० ४।२।११२) से २० गोत्रप्रत्ययान्त से अण् प्रत्यय । आपिशलं काशकृत्स्नमिति-प्रापिशलिकाश कृत्स्निशब्दाभ्यामित्रश्चेत्यण् । न्यास ४।३।१०१॥ काशकृत्स्नेन प्रोक्तं काशकृत्स्नीयम्। वृद्धाच्छ: (अष्टा० ४।२।११४॥) सूत्र से अण्प्रत्ययान्त से छ (= ईय) प्रत्यय । न्यासकार ने ६।२।३६ पर 'काशकृत्स्नेन प्रोक्तमित्यण' लिखा है, वह अशुद्ध है। ४।२।११४ से प्राप्त छ का निषेध कौन करेगा ? २५ अतः यहां न्यास ४।३।१०१ के सदृश 'काशकृत्स्निना प्रोक्तमित्यण' पाठ होना चाहिए। ३. महाभाष्य ४।१।१४, ९३; ४१३३१५५॥ ४. काशकृत्स्नं मीमांसाशास्त्रम् । अङ्क ४, पृष्ठ १२६ ॥ ५. सद्यस्त्वं काशकृत्स्निः । ४।३॥१७॥ ३० ६. देखो इसी पृष्ठ की टि० २। ७. पूर्व पृष्ठ ६६ । ८. द्र० पृष्ठ ११६, टि० ७ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन, प्राचार्य ११६ तत्त्वरत्नाकर ग्रन्थ में संकर्ष काण्ड (मीमांसा अ० १३-१६) को काशकृत्स्न-प्रोक्त कहा है।' भट्टभास्कर ने रुद्राध्याय के भाष्य में काशकृत्स्न का यजुःसम्बन्धी एक मत उद्धृत किया है।' बौधायन गृह्य में काशकृत्स्न का मत निर्दिष्ट है । वेदान्त-सूत्र में काशकृत्स्न का मत स्मृत है। आपस्तम्ब श्रौत के मैसर संस्करण के सम्पादक सो० ५ नरसिंहाचार्य ने भाग १ की भूमिका पृष्ठ ५५ तथा ५७ में संकर्षकाण्ड को काशकृत्स्न-प्रभव माना है। __ दोनों एक ही व्यक्ति-उपर्युक्त ग्रन्थों में स्मृत काशकृत्स्न और काशकृत्स्नि दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं, यह हम पूर्व प्रतिपादित कर चुके हैं। तथा उपर्युक्त उद्धरणों में जहां-जहां काशकृत्स्न और १० काशकृत्स्नि का स्मरण है, वहां सर्वत्र एक ही व्यक्ति स्मृत है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं। वंश–बौधायन श्रौतसूत्र के प्रवराध्याय (३) में लिखा है भगृणामेवादितो व्याख्यास्यामः पैङ्गलायनाः वैहोनरयः, काशकृत्स्नाः, पाणिनिर्वाल्मीकिः..."प्रापिशलयः । इस वचन से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न-गोत्र भृगुवंश का है । अत: काशकृत्स्न आचार्य भार्गव है। पितृ-नाम -काशकृत्स्नि और काशकृत्स्न में निर्दिष्ट तद्धितप्रत्यय के अनुसार इन नामों का मूल शब्द कशकृत्स्न था। वर्धमान के गणरत्नमहोदधि में कशकृत्स्न शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार लिखी है- २० ___कशाभिः कृन्तन्ति 'कृते स्ने याट्त्वे च ह्रस्वश्च बहुलम्" इत्यनेन ह्रस्वत्वे कशकृत्स्नः । १. तत्त्वरत्नाकराख्ये भट्टपराशरग्रन्थे संकर्षाख्यश्चतुर्लक्षणात्मको मध्यकाण्डः काशकृत्स्नकृत इत्युच्यते । अधिकरणसारावली-प्रकाशिका में उद्धृत । ६०-मद्रास राजकीय हस्तलेख सूची, भाग ४, खण्ड १ बी नं० ३५५०, २५ पृष्ठ ५२८१। २. अष्टौ अनुवाका अष्टौ यजूषि इति काशकृत्स्नः । पूना संस्क० पृष्ठ २६॥ ३. आधारं प्रकृति प्राह दविहोमस्य बादरिः । प्राग्निहोत्रिकं तथात्रेयः काशकृत्स्नस्त्वपूर्वताम् ॥ १॥४॥ ४. अवस्थितेरिति काशकृत्स्न: । ११४॥२२॥ ५. इस सूत्र का मूल अन्वेषणीय है। ६. द्र०-पृष्ठ ३६ टि० १। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अर्थात्-कशापूर्वक 'कृती छेदने' धातु से क्स्न प्रत्यय और आकार को ह्रस्व होता है। प्राचार्य-नाम-तत्त्वरत्नाकर ग्रन्थ में भट्ट पराशर ने काशकृत्स्न को बादरायण का शिष्य कहा है।' बादरायण कृष्ण द्वैपायन का हो ५ नाम है, ऐसा भारतीय ऐतिहासिकों का मत है । शिष्य-काशिका-वृत्ति (६।२।१०४) में उदाहरण है-पूर्वकाशकृत्स्ना, अपरकाशकृत्स्नाः । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न के अनेक शिष्य थे, और वे पूर्व तथा अपर दो विभागों में विभक्त माने जाते थे। किस सीमा को मान कर पूर्व और अपर का भेद १० किया जाता था, यह अज्ञात है। - जिस प्रकार पाणिनि ने कुछ शिष्यों को अष्टाध्यायी का लघपाठ पढ़ाया और कुछ को महापाठ, और वे क्रमशः पूर्वपाणिनीय तथा अपरपाणिनीय-नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी प्रकार सम्भव है काश कृत्स्न ने भी अपने शास्त्र का दो रूपों से प्रवचन किया हो । निरुक्त १५ आदि अनेक प्राचीन शास्त्रों के लघु और महत दो-दो प्रकार के प्रवचन उपलब्ध होते हैं । देश-काशकृत्स्न प्राचार्य कहां का निवासो था, यह अज्ञात है । पाणिनि अरीहणादि गण (४।२।८०) में काशकृत्स्न पद पढ़ता है । वर्धमान यहां कशकृत्स्न का निर्देश करता है। तदनुसार, काशकृत्स्न २० अथवा कशकृत्स्न से निमित अथवा जहां इनका निवास था, वह नगर अथवा देश काशकृत्स्नक कहलाता था, इतना निश्चित है। पर इस नगर अथवा देश की स्थिति कहां थी, यह अज्ञात है। काशकृत्स्न उत्तरभारतीय-दैवं ग्रन्थ का व्याख्याता कृष्णलीला १. ग्यारहवीं अखिल भारतीय ओरियण्टल कान्फ्रेंस हैदराबाद १८४१ के २५ लेखों का संक्षेप, पृष्ठ ८५, ८६ । २. श्री पं० भगवद्दत्तजी रचित वैदिक वाङ्मय का इतिहास, ब्राह्मण और आरण्यक भाग, पृष्ठ ८५ । ३. इसी ग्रन्थ का पाणिनि और उसका शब्दानुशासन' अध्याय का अन्तिम भाग। ४. द्र०—इसी पृष्ठ की टिप्पणी ३ । ५. डा. वासुदेवशरणजी अग्रवाल ने 'काशकृत्स्न' शुद्ध पाठ माना है'पाणिनिकालीन भारतवर्ष,' पृष्ठ ४८८ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १२१ शुकमुनि पुरुषकार पृष्ठ ६१ पर लिखता है धनपालस्तु तमेव प्रस्तुत्याह- वर्नु घटादिषु पठन्ति द्रमिडाः । तेषां (नित्यं) मित्सज्ञा-वनयति । प्रार्यास्तु विभाषा मित्त्वमिच्छन्ति । तेषां वानर्यात वनयति । अर्थात –धनपाल कहता है कि द्रमिड वनु धातु का 'वनयति' रूप ५ मानते हैं, और आर्य 'वानयति' तथा 'वनयति' दो रूप मानते हैं। काशकृत्स्न-धातुपाठ के ग्लास्नावनुवमश्वनकम्यमिचमः' सूत्रानुसार 'वन' धातु की विकल्प से मित्-संज्ञा होती है, और वनयति, वनयति दो रूप निष्पन्न होते हैं । इस से सम्भावना होती है कि काशकृत्स्न उत्तरदेशीय हो। सम्भवतः बङ्गीय-काशकृत्स्न धातुसूत्र ११२०३ में पवर्गीय वान्त प्रकरण में अन्तस्थ वकारान्त 'गर्व' आदि धातुएं पढ़ी हैं । बंग प्रान्तीय चन्द्र-कातन्त्र प्रादि वैयाकरणों की भी ऐसो ही प्रवृत्ति देखी जाती है। इस से सम्भावना होती है कि काशकृत्स्न बंगदेशीय हो । काल-हमारे स्वर्गीय मित्र पं० श्री क्षितीशचन्द्रजी चट्टोपाध्याय १५ (कलकत्ता) का विचार है कि काशकृत्स्न पाणिनि से उत्तरवर्ती है, परन्तु उन्होंने इस विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया । पाणिनि से पूर्ववर्ती-काशकृत्स्न निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती है। इस में निम्नलिखित प्रमाण हैं १. पाणिनीय गणपाठ के अन्तर्गत उपकादि गण (२।४।६६) में २० कशकृत्स्न' और अरीहणादि गण (४।२।८७) में काशकृत्स्न शब्द शब्द पठित है। १. काशकृत्स्न-धातुव्याख्यान । ११६२४ ॥ • २. टेक्निकल टर्स आफ् संस्कृत-ग्रामर, पृष्ठ २, ७७ । ३. काशिका, चान्द्रवृत्ति और जैनेन्द्रमहावृत्ति में 'काशकृत्स्न' पाठ मिलता २५ है, वह अशुद्ध है । भोज और वर्धमान ने 'कशकृत्स्न' पाठ माना है। देखो क्रमश: सरस्वतीकण्ठाभरण ४।१।१६४ तथा गणरत्नमहोदघि श्लोक ३०, पृष्ठ ३३, ३४ । वर्धमान ने विश्रान्तविद्याधर व्याकरण के कर्ता वामन के मत में 'कसकृत्स्न' पाठ दर्शाया है। ग० म० पृष्ठ ३४ । वर्धमान द्वारा यहां काशकृत्स्न पाठान्तर का उल्लेख न होने से व्यक्त है कि उसके समय में काशिकादि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास । २. वेदान्तसूत्र निश्चय ही पाणिनि से प्राचीन हैं । अतः उनमें स्मृत आचार्य कृष्ण द्वैपायन का समकालिक होगा, अथवा उससे पूर्ववर्ती। ३. तत्त्वरत्नाकर के रचयिता भट्ट पराशर ने काशकृत्स्न को ५ बादरायण अर्थात् कृष्ण द्वैपायन का शिष्य माना है।' ४. महाभाष्य पस्पशाह्निक के अन्त में क्रमशः पाणिनि आपिशलि और काशकृत्स्नप्रोक्त ग्रन्थों का उल्लेख है-पाणिनि प्रोक्त पाणिनीयम्, प्रापिशलम, काशकृत्स्नम् । इनमें आपिशलि निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती है। अत एव १० उसका पाणिनि के अनन्तर निर्देश किया है । इसी क्रमानुसार काश कृत्स्न न केवल पाणिनि से पूर्ववर्ती होगा, अपितु वह आपिशलि से भी पूर्ववर्ती होगा। ५. पांच छ: वर्ष' हुए काशकृत्स्न का धातुपाठ कन्नड-टीकासहित प्रकाशित हुआ है। उसमें पाणिनि के धातुपाठ की अपेक्षा १५ लगभग ४५० धातुएं अधिक हैं। भारतीय ग्रन्थ-प्रवचन-परिपाटी के अनुसार शास्त्रीय ग्रन्थों का उत्तरोत्तर संक्षेपीकरण हुआ है। व्याकरण के उपलब्ध ग्रन्थों के अवलोकन से भी इस बात की सत्यता भली भांति समझी जा सकती है । इससे मानना होगा कि काशकृत्स्न-धातु पाठ पाणिनीय धातुपाठ से प्राचीन है। २०६. काशकृत्स्न-धातुपाठ में अनेक धातुओं के दो-दो रूप हैं। यथा ईड ईल स्तुतौ । पाणिनि ने इनमें इड रूप पढ़ा है । अत एव उत्तरवर्ती वैयाकरण इडा और इला शब्दों की सिद्धि एक ही ईड धातु से करते हुए ड-ल वर्णों का अभेद मानते हैं । ७. काशकृत्स्न-धातुपाठ में अनेक ऐसी धातएं हैं, जो उसयपदी २५ हैं। उनके परस्मैपद और आत्मेनपद दोनों प्रक्रियाओं में रूप होते हैं, ग्रन्थों में 'कशकृत्स्न' ही पाठ था। अतः काशिका में सम्प्रति उपलभ्यमान 'काशकृत्स्न' प्रमादपाठ है। १. पूर्व पृष्ठ १२०, टि० २१ २. इस ग्रन्थ के सं० २०२० के द्वितीय संस्करण के समय । ३. इसका हमने संस्कृत-रूपान्तर 'काशकृत्स्न-धातु व्याख्यानम्' के नाम से ३० प्रकाशित किया है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखत प्राचीन प्राचार्य १२३ यथा-वस निवासे, टुप्रोश्वि गतिवृद्ध्योः और वद व्यक्तायां वाचि । पाणिनि इन्हें केवल परस्मैपदी मानता है । संख्या ६ प्रमाण से विदित होता है कि काशकृत्स्न के समय ईड और ईल दोनों धातुओं के प्रख्यात के स्वतन्त्र प्रयोग लोक में प्रचलित थे। इसीलिए उसने दोनों धातों को स्वतन्त्र रूप में पढा। ५ परन्तु पाणिति के समय ईड धातु के ही रूप लोकप्रचलित रह गये । अतः उसने ईल का पाठ नहीं किया, केवल ईड धातु ही पढ़ी। इसी प्रकार संख्या ७ के अनुसार काशकृत्स्न के धातूपाठ में वस, शिव और वद धातु को उभयपदी पढ़ना इस बात का प्रमाण हैं कि उसके काल में इन धातुओं के दोनों प्रकार के रूप लोक में प्रचलित थे। पाणिनि १० के समय केवल परस्मैपद के रूप ही अवशिष्ट रह गये थे, अत एव पाणिनि ने केवल परस्मैपदी पढ़ा । ८. महाभाष्य ५।१ । २१ षर कैयट लिखता है प्रापिशलकाशकृत्स्नयोस्त्वग्रन्थ इति वचनात् ।। अर्थात् -प्रापिशल और काशकृत्स्न-व्याकरण में पाणिनीय १५ शताच्च ठन्यतावशते (५।१ । २१) सूत्र के स्थान में शताच्च ठन्यतावनथे पाठ था। आपिशलि पाणिनि से प्राचीन है । अतः उसके साथ स्मृत काशकृत्स्न भी पाणिनि से प्राचीन होगा। इतना ही नहीं, यदि यह माना जाये कि पाणिनि ने प्रापिशलि के सूत्रपाठ में कुछ अनौचित्य समझ- २० कर अग्रन्थे का प्रशते रूप में परिष्कार किया है, तो निश्चय हो मानना होगा कि आपिशलि के समान अग्रन्थे पढ़ने वाला काशकृत्स्न भी पाणिनि से पूर्वभावी है। यह नहीं हो सकता कि पाणिनि प्रापिशल-सूत्र का परिष्कार करे और पाणिनि से उत्तरवर्ती (जैसा कुछ व्यक्ति मानते हैं) काशकृत्स्न पाणिनि के परिष्कार को छोड़ कर पुनः २५ आपिशलि के अपरिष्कृत अंश को स्वीकार कर ले। ६. भर्तृहरि के तदहमिति नारब्धं सूत्रं व्याकरणान्तरे वचन की व्याख्या करता हुआ हेलाराज लिखता है प्रापिशलाः काशकृत्स्नाश्च सूत्रमेतन्नाधीयते । वाक्यपदीय, काण्ड ३, पृष्ठ ७१४ (काशी-संस्क०) । ३. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास __ अर्थात् - प्रापिशल और काशकृत्स्न व्याकरण में पाणिनि द्वारा पठित 'तदहम्' (५।१।११७) सूत्र नहीं था। प्रतीत होता है, आपिशल और काशकृत्स्न व्याकरण में तदहम् सूत्र के न होने के कारण ही महाभाष्यकार पतञ्जलि ने पाणिनि के इस सूत्र की आवश्यकता का प्रतिपादन बड़े यत्न से किया है । यदि काशकृत्स्न पाणिनि से उत्तरवर्ती होता, तो निश्चय ही वह पाणिनि का अनुकरण करता, न कि प्रापिशलि के समान उसका त्याग करता। १०. कातन्त्र-व्याकरण में एक सूत्र है-भिस ऐस् वा (२।१।१८)। अर्थात् अकारान्त शब्दों से परे तृतीया विभक्ति के बहुवचन 'भिस्' के स्थान में 'ऐस्' विकल्प करके होता है। यथा, देवेभिः, देवः । कातन्त्र काशकृत्स्न-तन्त्र का संक्षेप है, यह आगे सप्रमाण लिखा जायगा। तदनुसार कातन्त्रकार ने यह सत्र अथवा मत काशकृत्स्न से लिया होगा। पाणिनि के अनुसार लोक में केवल ऐस के देवः आदि प्रयोग होते हैं । कातन्त्र विशुद्ध लौकिक शब्दों का व्याकरण हैं अतः १५ उसका उपजीव्य काशकृत्स्न व्याकरण उस काल की रचना होना चाहिए, जब भाषा में भिस् और ऐस दोनों के देवेभिः, देवैः दोनों रूप प्रयुक्त रहे हों। वह काल पाणिनि से निश्चय ही पर्याप्त प्राचीन रहा होगा। ११. पाणिनीय धातुपाठ के जुहोत्यादि गण के तथा स्वादि गण २० के अन्त में छन्दसि गणसूत्र का निर्देश करके जो धातुएं पढ़ी हैं, प्रायः वे सभी धातुएं काशकृत्स्न-धातुपाठ में छन्दसि निर्देश के विना ही पढ़ी गई हैं। इससे प्रतीत होता है कि काशकृत्स्न पाणिनि से बहुत प्राचीन है। पाणिनि के समय वैदिक मानी जानेवाली धातुएं काशकृत्स्न के काल में लोक में भी प्रचलित थीं। अन्यथा, वह भी पाणिनि के समान २५ इनके लिए छन्दसि का निर्देश अवश्य करता। इन उपर्युक्त प्रमाणों और हेतुओं से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न पाणिनि से निश्चय ही पूर्ववर्ती हैं। इतना ही नहीं, हमारे विचार में तो काशकृत्स्न प्रापिशलि से भी प्राचीन है। १. टीकाकारों ने इस सूत्र के अर्थ में वड़ी खींचातानी की है। ३० २. शर्ववर्मणस्तु वचनाद् भाषायामप्यवसीयते । नह्ययं (कातन्त्रकारः) छान्दसान शब्दान् व्युत्पादयति । कातन्त्रवृत्ति, परिशिष्ट पृष्ठ ५३० । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १२५ पाश्चात्य ऐतिहासिक पाणिनि को विक्रम से ४००-६०० वर्ष पूर्व मानते हैं । यह मत भारतीय अनवच्छिन्न ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार नितान्त मिथ्या है । पाणिनि विक्रम से निश्चय ही २६०० वर्ष प्राचीन हैं, यह हम इस ग्रन्थ में पाणिनि के प्रकरण में सप्रमाण लिखेंगे । तदनुसार, काशकृत्स्न का काल भारत-युद्ध (३१०० ५ वि० पूर्व) के समीप अथवा उससे पूर्व मानना होगा। . ___ काशकृत्स्न को पाणिनि से पूर्ववर्ती मानने में एक प्रमाण बाधक हो सकता है । वह है काशिका ६२।३६ का पाठ-प्रापिशलपाणिनीयाः, पाणिनीयरौढीयाः, रौढीयकाशकृत्स्नाः । इनमें आपिशलि निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती है। यदि अगले उदाहरणों में भी इसी १० प्रकार पौर्वापर्य-व्यवस्था मानी जाय, तो पाणिनि से अर्वाचीन रौढि और उससे अर्वाचीन काशकृत्स्न को मानना होगा। परन्तु यह कल्पना पूर्व उद्धृत प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण चिन्य है। इतना ही नहीं, वर्धमान के मतानुसार पाणिनीयरौढीयाः गढीयपाणिनीयाः दोनों प्रकार के प्रयोग होते हैं (गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २६) १५ अतः स्पष्ट है कि काशिका के उपर्युक्त उदाहरणों में काल-क्रम अभिप्रेत नहीं है। अन्य परिचय नाम-अभी कुछ वर्ष हुए. काशकृत्न का कन्नड-टीका-सहित जो धातुपाठ प्रकाशित हुआ है, उसका नाम है-काशकृत्स्न शब्दकलाप २० धातुपाठ । इस नाम में 'शब्दकलाप' पद धातुपाठ का विशेषण है, अथवा काशकृत्स्न के शब्दानुशासन का मूल नाम है, यह विचारणीय है । शब्दानां प्रकृत्यात्मिकां कलां पाति रक्षति (= शब्दों की प्रकृति रूप कला=अंश की रक्षा करता है) व्युत्पत्ति के अनुसार यह धातुपाठ का विशेषण हो सकता है। परन्तु हमारा निचार है कि शब्द- २५ कलाप काशकत्स्न-शब्दानुशासन का प्रधान नाम था। इसमें निम्न हेतु है, कातन्त्र, अपरनाम कलापक-व्याकरण' के कलापक नाम में ह्रस्व - - १. सम्प्रति इसका 'कलाप' नाम से भी व्यवहार होता है। यह व्यवहार चिन्त्य है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अर्थ में जो 'क' प्रत्यय (अष्टा० ५।३।८६) हुमा है, उससे प्रतीत होता है कि कातन्त्र-व्याकरण जिस तन्त्र का संक्षिप्त संस्करण है, उसका मूल नाम 'कलाप' है। हम आगे सप्रमाण सिद्ध करेंगे कि वर्तमान कातन्त्र, अपरनाम कलापक अथवा कौमार-व्याकरण काश५ कृत्स्न के महातन्त्र का ही संक्षेप है। अतः काशकृत्स्न के शब्दानुशासन का मूल नाम 'कलाप' ही प्रतीत होता है । शब्दकलाप का अर्थ-हम बहुत विचार के अनन्तर इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि शब्दकलाप पद का अर्थ 'शब्दों की कलानों= अंशों का पान करनेवाला' अर्थात् किसी बृहत् शब्दानुशासन का १० संक्षिप्त संस्करण है । इसमें निम्न कारण हैं काशिका ४।३।११५, जंन शाकटायन ३।१।१८२ की चिन्तामणिवृत्ति तथा सरस्वती-कण्ठाभरण ४।३।२४५ की हृदयहारिणी टोका में एक उदाहरण है-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । यह उदाहरण जिस सूत्र का है, उसके अनुसार इसका अर्थ है-काशकृत्स्न ने किसी के उपदेश १५ के विना अपनी प्रतिभा से अपने शास्त्र में शब्दों के गौरवलाघव का विचार करके अनन्त शब्दराशि में से लोकप्रसिद्ध मुख्य शब्दों का हा उपदेश किया और अप्रसिद्ध शब्दों को छोड़ दिया । अर्थात् काशकत्स्न ने शब्द-शास्त्र के संक्षेप करने में शब्दों के गौरव प्रसिद्धि और लाघव =अप्रसिद्धि पर अधिक ध्यान दिया। अतः उक्त उदा२० हरण से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न ने किसी पूर्व व्याकरण-शास्त्र में अप्रसिद्ध शब्दविषयक सूत्रों को कम कर दिया, अर्थात् किसो पूर्व १. दशपादी-उणादि-वृत्तिकार ने ३।५ (पृष्ठ १३०) पर कलापक शब्द में 'कला' उपपद होने पर प्राड्'-पूर्वक 'पा पाने' धातु से 'क्वन्' प्रत्यय माना है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने धातुपारायण (पृष्ठ ६) तथा उणादिवृत्ति " (पृष्ठ १०) में दशपादी-वृत्तिकार का ही अनुसरण किया है । ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि दोनों लेखकों की व्युत्पत्तियां अशुद्ध हैं । २. कातन्त्र शब्द का अर्थ भी ईषत्-तन्त्र ही है। ३. कातन्त्र की रचना छोटे बालकों के लिए हुई, यह इस नाम से स्पष्ट है। ४. हमारे विचार में गायकवाड़-संस्कृत-सीस्जि में प्रकाशित बालिद्वीपीय २. ग्रन्थसंग्रह के अन्तर्गत कारक-संग्रह के अन्तिम श्लोक 'कातन्त्रं च महातन्त्रं दृष्ट्वा तेन उवाच' में स्मृत महातन्त्र कातन्त्र का उपजीव्य काशकृत्स्न-तन्त्र ही है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १२७ अतिबृहत् शास्त्र का संक्षेप से उपदेश किया । इसलिए शब्दकलाप का हमारे द्वारा उपरि विवृत अर्थ ही ठीक प्रतीत होता है। काशकृत्स्न-धातुपाठ के सम्पादक श्री ए. एन्नरसिंहिया ने उक्त ग्रन्थ की भूमिका में 'शब्दकलाप' नाम के विषय में अपना कुछ भी विचार प्रकट नहीं किया। केवल 'काशकत्स्न शब्दकलाप-धातु- ५ पाठ नाम के कारण कुछ लोगों का कहना है कि इसका सम्बन्ध कलाप-व्याकरण से है। कलाप-व्याकरण के कुमार-व्याकरण और कातन्त्र-व्याकरण नामान्तर हैं' इतना ही लिखकर इस प्रश्न को टाल दिया है। परिमाण-काशकृत्स्न-व्याकरण में कितने अध्याय, पाद तथा १० सूत्र थे, इसका निर्देशक कोई साक्षात् वचन उपलब्ध नहीं होता, परन्तु काशिका और अमोघावृत्ति में उद्धत त्रिकं काशकृत्स्नम, त्रिकं काशकृत्स्नीयम्', उदाहरणों से इतना स्पष्ट है कि काशकृत्स्न के किसी सूत्रात्मक ग्रन्थ में तीन अध्याय थे। हमारे विचार में उक्त उदाहरणों में स्मृत अध्यायत्रयात्मक काशकृत्स्न ग्रन्थ व्याकरण- १५ विषयक था, इसमें निम्न हेतु हैं १. काशिका, ५।११५८ तथा जैन शाकटायन, ३।२।१६१ की अमोघा वत्ति में पूर्वोद्धत उदाहरणों के साथ निर्दिष्ट अष्टकं पाणिनीयम् आदि उदाहरणों में जितने अन्य सूत्र-ग्रन्थ स्मरण किये गये हैं, वे सब निश्चय ही व्याकरणविषयक हैं । इसलिए साहचर्य-नियम २० से उसके साथ स्मत काशकत्स्न का अध्यायत्रयात्मक ग्रन्थ भी व्याकरणविषयक ही होना चाहिए। . २. कलापक अपरनाम कातन्त्र-व्याकरण काशकृत्स्न-व्याकरण का संक्षेप है, यह हम आगे सप्रमाण लिखेंगे । मूल कातन्त्र-व्याकरण में तीन ही अध्याय हैं। अत: यह सम्भव है कि कातन्त्र-व्याकरण के २५ उपजीव्य काशकृत्स्न-व्याकरण में भी तीन ही अध्याय रहे हों। पाणिनि-व्याकरण के संक्षेपक चन्द्रगोमी ने अपने व्याकरण में १. द्र०—पूर्व पृष्ठ ११६, टि० ७ । २. मूल कातन्त्र पाख्यातान्त है । अगला-कृदन्त-भाग (अध्याय ४) कात्यापन द्वारा परिवद्धित है । इस की मीमांसा कातन्त्र के प्रकरण में देखिए । ३० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पाणिनीय तन्त्रवत् पाठ ही अध्याय रखे थे।' पाणिनि तथा चान्द्र व्याकरणों के अनुसr भाज ने भी अपने सरस्वतीकण्ठाभरण नामक व्याकरण को आठ अध्यायों में ही विभक्त किया है। इतना ही नहीं, स्वयं पाणिनि ने भी व्याकरण और शिक्षा-सूत्रों को अपने उपजीव्य आपिशल-व्याकरण और शिक्षा-सूत्रों के अनुसार क्रमशः पाठ अध्यायों तथा आठ प्रकरणों में ही विभक्त किया है। इसी प्रकार कातन्त्र के व्याकरण प्रवक्ता ने भी तीन अध्यायों का विभागीकरण अपने उपजीव्य काशकृत्स्न-तन्त्र के अनुरूप ही किया हो, यह अधिक सम्भव है। हमारे इस अनुमान की पुष्टि इससे भी होती है कि कातन्त्र-धातु१० पाठ में काशकृत्स्न-धातुपाठ के समान ही धातुनों को नव गणों में विभक्त किया (जुहोत्यादि को अदादि के अन्तर्गत माना है) । प्रति अध्याय पाद-संख्या-काशकृत्स्न-व्याकरण के प्रत्येक अध्याय में कितने पाद थे, यह ज्ञात नहीं। काशकृत्न से लघु पाणिनीय-तन्त्र में आठ अध्याय हैं और प्रति अध्याय चार-चार पाद । ऐसी अवस्था १५ में काशकत्स्न-व्याकरण के तोन अध्यायों में प्रति अध्याय पाद-संख्या चार से अवश्य ही अधिक रही होगी। कातन्त्र के तोन अध्यायों में क्रमशः पांच-पांच तथा दश पाद है। काशकृत्स्न-तन्त्र पाणिनीय तन्त्र से विस्तृत-हम पहले लिख चुके हैं कि काशकृत्स्न का शब्दानुशासन किसी प्राचीन महातन्त्र का २० १. उपलब्ध चान्द्र व्याकरण में केवल छह ही अध्याय हैं, परन्तु मूल ग्रन्थ में आठ अध्याय थे। बौद्धमतानुयायियों की उपेक्षा के कारण अन्त के स्वरवैदिक-प्रक्रिया-सम्बन्धी दो अध्याय लुप्त हो गये । हमने इन लुप्त दो अध्यायों के अनेक सूत्र उपलब्ध कर लिये हैं । द्रष्टव्य इसी ग्रन्थ का 'पाणिनि से अर्वा चीन वैयाकरण' अध्याय में चान्द्र व्याकरण का प्रकरण । २५ २. हरदत्त के लेखानुसार (पदमञ्जरी, भाग १, पृष्ठ ६-७) पाणिनीय व्याकरण का उपजीव्य प्रापिशल-व्याकरण है । अष्टका आपिशलपाणिनीयाः । अमोघावृत्ति एवं चिन्तामणिवृत्ति ३।२।१६१ शाक० व्याक० । प्रापिशल और पाणिनीय-शिक्षा के लिए द्र०-हमारे द्वारा सम्मादित 'शिक्षासूत्राणि' (आपि शलपाणिनीयचान्द्र-शिक्षासूत्र) ग्रन्थ। इन शिक्षासूत्रों का नया संस्करण वि० ३० सं० २०२४ में प्रकाशित किया है । इस में पाणिनीय शिक्षासूत्रों के लघु और बृहत् दोनों पाठ दिये हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन आचार्य १२६ संक्षिप्त प्रवचन है । मूल काशकृत्स्न-व्याकरण के अनुपलब्ध होने पर भी हमारा विचार है कि काशकृत्स्न का व्याकरण संक्षिप्त होते हए भी पाणिनीय अनुशासन की अपेक्षा विस्तृत था। इसमें निम्न हेतु १. काशकृत्स्न-व्याकरण के आज हमें जितने सूत्र उपलब्ध हए ५ हैं, उनकी पाणिनीय सूत्रों के साथ तुलना करने से विदित होता है कि काशकृत्स्न-व्याकरण में अनेक ऐसे पदों का अन्वाख्यान था, जिनका पाणिनीय तन्त्र में निर्देश नहीं है । यथा [क] ब्रह्म-बर्हेरेरो मनि (१।३२० पृष्ठ ५०) [ख] कश्यप, कशिपु-कशेर्यप इपुश्च (१।३७०, पृष्ठ ५९) [ग] पुलस्त्य, अगस्ति-पुल्यगिभ्यामस्त्योऽस्तिश्च (१।४१०, पृष्ठ ६६) [1] लक्ष्मी, लक्ष्म, लक्ष्मण ~लक्षेर्मोमन्मनाः (१०, पृष्ठ १८८) २. चन्नवीरकवि-कृत कन्नड-टीका-सहित जो धातुपाठ प्रकाशित १५ हुआ है, उसमें पाणिनीय धातुपाठ से लगभग ४५० धातुएं अधिक जिस व्याकरण में धातुओं की संख्या जितनी ही अधिक होगी, निश्चय ही वह व्याकरण भी उतना ही अधिक विस्तृत होगा। वैशिष्ट्य-किस व्याकरण में क्या वैशिष्टय है, इसका ज्ञान २० विभिन्न व्याकरण ग्रन्थों में उल्लिखित निम्नाङ्कित उदाहरणों से होता है। यथा१. प्रापिशलं पुष्करणम् । काशिका, ४१३।११५ ।। प्रापिशलमान्तःकरणम् । सरस्वतीकण्ठाभरण, हृदयहारिणीटीका ४।३।२४५॥ १. हम ने काशकृत्स्न के उपलब्ध सूत्रों को व्याख्या सहित 'काशकृत्स्नव्याकरणम्' के नाम से प्रकाशित किया है। २. वस्तुतः काशकृत्स्न-धानुपाठ में लगभग ८०० धातुएं ऐसी हैं । जो पाणिनीय धातुपाठ में नहीं हैं । ३५० धातुएं पाणिनीय धातुपाठ में ऐसी हैं, जो काशकृत्स्न-धातुपाठ में नहीं हैं । अतः दोनों ग्रन्थों की पूर्ण धातुसंख्या की दृष्टि ३० से काशकृत्स्न-धातुपाठ में ४५० धातुएं अधिक हैं । काश० व्याक० पृष्ठ २० । ३. इन उदाहरणों का अभिप्राय अस्पष्ट है । वामन ने काशिका वृत्ति २५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २. पाणिनीयमकालकं व्याकरणम् । काशिका ४।३।११५; जैन शाकटायन, चिन्तामणि-वृत्ति ३।१।१८२॥ पाणिनोपज्ञमकालक व्याकरणम् । काशिका ६।२॥१४॥ ३. चान्द्रमसंज्ञक व्याकरणम् । सरस्वतीकण्ठाभरण-हृदयहारिणी ५ टोका ४।३।२४५।। चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम् । चान्द्रवृत्ति २२२।८६; वामनीय लिङ्गानुशासन श्लोक ७, पृष्ठ ६ । इसी प्रकार काशकृत्स्न-व्याकरण की विशिष्टता का घोषक एक उदाहरण है-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । .. यह उदाहरण काशिका ४।३।११५, सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३। २४५ की हृदयहारिणी टीका तथा जैन शाकटायन ३।१।१८२ की चिन्तामणि-टीका में उपलब्ध होता है। इन सब उदाहरणों की तुलना से व्यक्त है कि जिस प्रकार पाणिनीय तन्त्र की विशेषता कालपरिभाषानों का अनिर्देश है, चान्द्र तन्त्र १५ की विशेषता संज्ञा-निर्देश विना किये शास्त्र-प्रवचन है, उसी प्रकार काशकृत्स्न तन्त्र की विशेषता गुरु-लाघव है। गुरु-लाघव शब्द का अर्थ-हमने इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण (पृष्ठ ७३) में लिखा था 'व्याकरण-शास्त्र की सूत्र-रचना में गुरु-लाघव (गौरव-लाघव) का २० विचार सब से प्रथम काशकत्स्न आचार्य ने प्रारम्भ किया था। उससे पूर्व सूत्र-रचना में गौरव-लाघव का विचार नहीं किया जाता था ।' पुन; इसी पृष्ठ की तीसरी टिप्पणी में लिखा था'हमारा विचार है, काशकृत्स्न से पूर्व सूत्र-रचना सम्भवतः ऋक्प्रातिशाख्य के समान श्लोकबद्ध होती थी। छन्दोबद्ध रचना होने पर २५ गौरव-लाघव का विचार पूर्णतया नहीं रखा जा सकता। उसमें श्लोकपूर्त्यर्थ अनेक मनावश्यक पदों का समावेश करना पड़ता है।' ६।२।१४ में 'प्रापिशल्युपज्ञं गुरुलाघवम्' उदाहरण दिया है। हमारा विचार है कि यहां मूल पाठ 'प्रापिशल्युपशं' दुष्करणम्, काशकृत्स्न्युपशं गुरुलाघवम्' रहा होगा। मध्य में से 'दुष्करणं काशकृत्स्न्युपज़' पाठ त्रुटित हो गया। तुलनीय २० काशिका, ४१३।११५-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्; आपिशलं पुष्करणम् । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३१ इनका भाव यह हैं कि सूत्रों की लघुता के लिए गद्य का आश्रय सब से पूर्व काशकृत्स्न ने लिया था । उससे पूर्व सूत्र - रचना छन्दोबद्ध होती थी । पूर्वलेख शुद्ध - उक्त लेख तब लिखा गया था जब काशकृत्स्नधातुपाठ प्रकाश में नहीं आया था, परन्तु काशकृत्स्न- धातुपाठ तथा ५ उसकी कन्नड-टीका में १३५ सूत्रों के प्रकाश में आ जाने से हमें पूर्व - विचार में परिवर्तन करना पड़ा। काशकृत्स्न सूत्रों की कातन्त्र-सूत्रों से तुलना करने पर ज्ञात होता है कि काशकृत्स्न-व्याकरण भी सम्भवतः श्लोकबद्ध रहा होगा । गुरु - लाघव का शुद्ध अर्थ - हम पहने लिख चुके हैं कि भारतीय १० इतिहास और व्याकरण के उपलब्ध तन्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि व्याकरण- शास्त्र के प्रवचन में उत्तरोत्तर संक्षेप हुआ है । काशकृत्स्न अपने संक्षिप्त (पूर्वापेक्षया) शास्त्र का प्रवचन करते समय शब्दों के गौरव=लोक में प्रयोग और लाघव = लोक में अप्रयोग को मुख्यता दी। दूसरे शब्दों में काशकृत्स्न ने अपने शास्त्र - प्रवचन में लोक में १५ प्रसिद्ध शब्दों को छोड़ दिया, अतः उसका शास्त्र पूर्व तन्त्रों की अपेक्षा बहुत छोटा हो गया । इसी कारण लोक में ' शब्दकलाप' नाम से प्रसिद्ध हुआ । काशकृत्स्न- तन्त्र श्लोकबद्ध - काशकृत्स्न का व्याकरण ऋक्प्रातिशाख्य के समान पद्यबद्ध था, न कि पाणिनीय तन्त्र के समान गद्य- २० बद्ध । इसमें निम्न हेतु हैं १. मूल कातन्त्र - व्याकरण का पर्याप्त भाग छन्दोबद्ध है | कातन्त्र काशकृत्स्न का संक्षिप्त प्रवचन है । इससे अनुमान होता है कि काशकृत्स्न तन्त्र भी श्लोकबद्ध रहा होगा । • काशकृत्स्न- व्याकरण के जो विकीर्ण सूत्र कन्नड टीका में उपलब्ध २५ हुए हैं, उनमें प्रत्यय-निर्देश दो प्रकार से मिलता है। सत्र में जहां एक से अधिक प्रत्ययों का निर्देश है, वहां कहीं प्रत्ययों का समास से निर्देश किया है, कहीं पृथक्-पृथक् । यथा समस्तनिर्देश - लक्षेममन्मनाः । धा० सूत्र | १०, पृष्ठ १८८ । नाम्न उपमानादाचारे प्रायङीयौ । श्रथ णिजन्ताः, पृष्ठ २२२ । समस्त निर्देश – कशेप इपुश्च । धा० सूत्र ९ ३७०, पृष्ठ ५६ । - ३० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पुल्यगस्तिभ्यामस्त्योऽस्तिश्च । धा० सूत्र ११४१०, पृष्ठ ६६ । प्रत्ययों का इस प्रकार समस्त और असमस्त उभयथा निर्देश तभी सम्भव हो सकता है, जब सूत्र रचना छन्दोबद्ध हो अर्थात् छन्दोऽनुरोध से कहीं समस्त और कहीं असमस्त निर्देश करना पड़े । अन्यथा ५ लाघव के लिए समस्त निर्देश ही करना युक्त होता है । ३. काशकृत्स्न-व्याकरण के जो सूत्र उपलब्ध हुए हैं, उनमें कतिपय स्पष्ट रूप में श्लोक अथवा श्लोकांश है । यथा-- [क] भूते भव्ये वर्तमाने भावे कर्तरि कर्मणि । प्रयोजके गुणे योग्ये धातुभ्यः स्युः क्विबादयः ॥ धा० सूत्र ११३७२, पृष्ठ ६० । [ख] गृहाः पुंसि च नाम्न्येव । धा० सूत्र ८।१४, पृष्ठ १८२ । [ग] अकर्मकेभ्यो धातुभ्यो भावे कर्मणि यङ् स्मृतः ॥ अथ णिजन्ताः , पृष्ठ २२३ ॥ काशकृत्स्न के जो सूत्र उपलब्ध हुए हैं, वे उसके तन्त्र के विविध १५ प्रकरणों के हैं, इसलिये गद्यबद्ध प्रतीयमान सूत्रों के विषय में भी श्लोकबद्ध होने की सम्भावना का निराकरण नहीं होता। काशकृत्स्न के १४० सूत्रों की उपलब्धि-हमने इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण में काशकृत्स्न के चार-पांच सूत्र उद्धृत किये थे। तत्पश्चात् सं० २००८ वि० के अन्त में काशकृत्स्न-धातुपाठ कन्नडटीका-सहित प्रकाश में आया। ऐसे दुर्लभ और पाणिनि से प्राचीन आर्ष ग्रन्थ के अनुशीलन के लिए मन लालायित हो उठा। परन्तु कन्नड-भाषा का परिज्ञान न होने के कारण उससे वंचित रह गये । अन्त में हमने बहत द्रव्य व्यय करके सं० २०११ वि० में इसकी नागराक्षरों में प्रतिलिपि करवाई। इस ग्रन्थ के अनुशीलन से संस्कृत-भाषा और उसके व्याकरण के सम्बन्ध में जहां अनेक रहस्य विदित हुए, और सं० २००७ में लिखे गए इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में उल्लिखित प्राचीन संस्कृतभाषा-सम्बन्धी विचारों की पुष्टि हुई, वहीं काशकृत्स्न-व्याकरण के लगभग १३५ सूत्र नये उपलब्ध हुए।' १. इन सूत्रों और इन की व्याख्या के लिए देखिए हमारा 'काशकृत्स्न३० व्याकरणम्' ग्रन्थ। २० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३३. अन्य ग्रन्थ काशकृत्स्न अथवा काशकृत्स्नि ने शब्दानुशासन के अतिरिक्त उसके कतिपय स्वीय व्याकरण के खिल पाठ और मीमांसा आदि निम्न ग्रन्थों का प्रवचन किया था १. धातुपाठ-काशकृत्स्न प्रोक्त धातुपाठ चन्नवीर कवि कृत ५ कन्नड टीका सहित संवत २००८ में प्रकाश में आ चुका है। हमने कन्नड टीका का संस्कृत रूपान्तर करके 'काशकृत्स्न-धातुव्याख्यानम्' के नाम से प्रकाशित किया है। इस के विषय में विशेष विचार इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग में अध्याय २२ में किया है। २. उणादि-पाठ-इस के विषय में इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग में १० 'उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता' शीर्षक अध्याय २४ में देखिये। ३. परिभाषापाठ-इस के विषय में द्वितीय भाग में परिभाषापाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' शीर्षक अध्याय २६ में देखें। ४. मीमांसा शास्त्र-पूर्व पृष्ठ ११८ पर लिख चुके हैं कि पात- १५ जल महाभाष्य और भास के यज्ञफल नाटक में काशकृत्स्न-प्रोक्त मीमांसा शास्त्र का उल्लेख मिलता है। तत्त्वरत्नाकर के लेखक भट्ट पराशर प्रभति संकर्ष काण्ड को काशकृत्स्न-प्रोक्त स्वीकार करते हैं । ४. यज्ञ-संबंधी ग्रन्थ-बौधायन गृह्य और भट्ट भास्कर के पूर्व पृष्ठ ११६ पर उद्धृत प्रमाणों से व्यक्त होता है कि काशकृत्स्न ने यज्ञ- २० विषयक भी कोई ग्रन्थ लिखा था । ६. वेदान्त-पूर्व पृष्ठ ११६ पर निर्दिष्ट वेदान्त १।४।२२ के उद्धरणसे यह भी संभावना होती है कि काशकृत्स्न ने किसी वेदान्त सूत्र अथवा अध्यात्म शास्त्र का प्रवचन भी किया था। काशकृत्स्न प्रोक्त व्याकरण के साङ्गोपाङ्ग विवेचन और उसके २ ५ उपलब्ध सूत्रों के लिए हमारा 'काशकृत्स्न-व्याकरणम्' संस्कृत ग्रन्थ देखिए । इस ग्रन्थ को हम पृथक् रूप में प्रकाशित कर चुके हैं। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० - शन्तनु ( ३१०० वि० पूर्व ) ५ आचार्य शन्तनु ने किसी सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण शास्त्र का प्रवचन किया था । सम्प्रति उपलभ्यमान फिट्-सूत्र उसी शास्त्र का एकदेश है । यह हम ने इस ग्रन्थ के 'फिट् सूत्र का प्रवक्ता श्रौर व्याख्याता' नामक सत्ताईसवें अध्याय में विस्तार से लिखा है । इसलिए शन्तनु के काल और उसके शब्दानुशासन के लिए पाठकवृन्द उक्त अध्याय का अवलोकन करें। यहां उसी विषय का पुनः प्रतिपादन करना पिष्टपेषणवत् होगा । १३४ १५ ११ - वैयाघ्रपद्य (३१०० वि० पू० ) आचार्य वैयाघ्रपद्य का नाम पाणिनीय व्याकरण में उपलब्ध नहीं होता । काशिका ७।१।६४ में लिखा है गुणं त्विगन्ते नपुंसके व्याघ्रपदां वरिष्ठः ।' इस उद्धरण से वैयाघ्रपद्य का व्याकरण- प्रवक्तृत्व विस्पष्ट है । परिचय वैयाघ्रपद्य के गोत्रप्रत्ययान्त होने से इसके पिता अथवा मूल पुरुष का नाम व्याघ्रपाद है, इतना स्पष्ट है । काल व्याघ्रपाद् का पिता - महाभारत अनुशासन पर्व ५३ | ३० के अनु२० सार व्याघ्रपाद् महर्षि वसिष्ठ का पुत्र है ।" पाणिनि ने व्याघ्रात् पद गर्गादिगण में पठा है । उस से य प्रत्यय होकर वैयाघ्रपद्य पद निष्पन्न होता है । वैयाघ्रपद्य नाम शतपथ ब्राह्मण, जैमिनि ब्राह्मण, जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, तथा १. व्याघ्रपादपत्यानां मध्ये वरिष्ठो वैयाघ्रपद्य आचार्य: । पदमञ्जरा २५ ७ ११६४, भाग २, पृष्ठ ७३६ ॥ २. व्यात्रयोन्यां ततो जाता वसिष्ठस्य महात्मनः । एकोनविंशतिः पुत्राः ख्याता व्याघ्रपदादयःः ॥ ३. अष्टा० ४।१।१०५ ।। ४. १०।६।१।७,८॥ ५. ३|७|४|१|| ४|६|१|१| इन दोनों स्थानों में 'राम कातुजातेय' के लिये वैयाघ्रपद्य' पद का प्रयोग है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३५ शांख्यायन आरण्यक' आदि में उपलब्ध होता है । यदि यही वैयाघ्रपद्य व्याकरण - प्रवक्ता हो, तो वह अवश्य ही पाणिनि से प्राचीन होगा । यदि यह वैयाघ्रपद्य साक्षात् वसिष्ठ का पौत्र हो, तो निश्चय ही यह वसिष्ठपौत्र पराशर का समकालिक होगा । तदनुसार इस का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून ४००० चार सहस्र वर्ष पूर्व होना ५ चाहिए । काशिका ८।२।१ में उद्धृत 'शुष्किका शुष्कजङ्घा च' कारिका को भट्टोजि दीक्षित ने वैयाघ्रपद्यविरचित वार्त्तिक माना है । अतः यदि यह वचन पाणिनीय सूत्र का प्रयोजन - वार्तिक हो, तो निश्चय ही वार्तिककार वैयाघ्रपद्य अन्य व्यक्ति होगा । हमारा विचार है यह १० कारिका वैयाघ्रपदीय व्याकरण की है । परन्तु पाणिनीय सूत्र के साथ भी संगत होने से प्राचीन वैयाकरणों ने इसका सम्बन्ध पाणिनि के 'पूर्वत्रासिद्धम्' सूत्र से जोड़ दिया। महाभाष्य में यह कारिका नहीं है । वयाघ्रपदीय व्याकरण का परिमाण १५ काशिका ४।२।६५ में उदाहरण दिया- 'दशका : वैयाघ्रपदीयाः । इसी प्रकार काशिका ५।१०५८ में पढ़ा है - 'दशकं वैयाघ्रपदीयम्' । इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि वैयाघ्रपद्य - प्रोक्त व्याकरण में दश अध्याय थे | २० पं० गुरुपद हालदार ने इस व्याकरण का नाम वैयाघ्रपद लिखा है, और इसके प्रवक्ता का नाम व्याघ्रपात् माना है । यह ठीक नहीं है; यह हमारे पूर्वोद्धृत उदाहरणों से विस्पष्ट है । यदि वहां व्याघ्रपाद प्रोक्त व्याकरण अभिप्रेत होता, तो 'दशकं व्याघ्रपदीयम्' प्रयोगहोता है । हां, महाभाष्य ६ । २।३६ में एक पाठ है - श्रापिशलपाणि-नीयव्याडीयगौतमीयाः । इस में 'व्याडीय' का एक पाठान्तर 'व्याघ्रपदीय' है । यदि यह पाठ प्राचीन हो, तो मानना होगा कि प्राचार्य व्याघ्रपात् ने भी किसी व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया था । इस से अधिक हम इस व्याकरण के विषय में नहीं जानते । १. ६७॥ २. अत एव शुष्किका इति वैयाघ्रपद्यवार्तिके जिशब्द एव पठ्यते । शब्दकौस्तुभ १ । १ । ५६ ।। ३. भ्रष्टा० ८।२।१ ।। ४. व्याकरण दर्शनेर इति० पृष्ठ ४४४ । २५ ३० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १२-माध्यन्दिनि (३००० वि० पू०) माध्यन्दिनि प्राचार्य का उल्लेख पाणिनीय तन्त्र में नहीं है । काशिका ७।१।९४ में एक कारिका उद्धृत है संबोधने तूशनसस्त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । माध्यन्दिनिर्वष्टि गुण त्विगन्ते नपुंसके व्याघ्रपदां वरिष्ठः ॥ कातन्त्रवृत्तिपञ्जिका के रचयिता त्रिलोचनदास ने इस कारिका को व्याघ्रभूति के नाम से उद्धृत किया है।' सुपद्ममकरन्दकार ने भी इसे व्याघ्रभूति का वचन माना है। न्यासकार और हरदत्त इसे आगम वचन लिखते हैं। ___इस वचन में माध्यन्दिनि आचार्य के मत में 'उशनस्' शब्द के संबोधन में 'हे उशनः, हे उशनन, हे उशन' ये तीन रूप दर्शाये हैं । विमलसरस्वती कृत रूपमाला (नपुंसकलिङ्ग प्रकरण) और प्रक्रियाकौमुदी की भूमिका के पृष्ठ ३२ में एक वचन इस प्रकार उद्धृत है इक: षण्ढेऽपि सम्बुद्धौ गुणो माध्यन्दिनेमते। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि माध्यन्दिनि प्राचार्य ने किसो व्याकरणशास्त्र का प्रवचन, प्रवश्य किया था। परिचय माध्यन्दिनि पद अपत्यप्रत्ययान्त है। तदनुसार इसके पिता का नाम मध्यन्दिन था। पाणिनि के मत में बाह्वादि गण को प्राकृति२० गण मान कर ऋष्यण को बाधकर 'इ' प्रत्यय होता है । जैन शाक टायनीय गणपाठ के बाह्वादि गण (२।४।२२) में इसका साक्षान्निर्देश मिलता है। १. कातन्त्र चतुष्टय १००। २. सुपद्म सुबन्त २४ ।। ३. अनन्तरोक्तमर्थमागमवचनेन द्रढयति । न्यास ७११६४॥ तदाप्तागमेन २५ द्रढयति । तथा चोक्तम ....। पदमजरी ७।१।६४; भाग २, पृष्ठ ७३६ । ४. मध्यन्दिनस्यापत्यं माध्यन्दिनिराचायः । पदमजरी ७१९४; भाग २ पृष्ठ ७३६ ।। ५. अष्टा०४। १६।।. ६. जैन शाकटायन व्याकरण परिशिष्ट, पृष्ठ २) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन आचार्य १३७ काल पाणिनि ने माध्यन्दिनि के पिता मध्यन्दिन का निर्देश उत्सादिगण' में किया है। मध्यन्दिन वाजसनेय याज्ञवल्क्य का साक्षात् शिष्य है। उसने याज्ञवल्क्य-प्रोक्त शुक्लयजुःसहिता के पदपाठ का प्रवचन किया था । माध्यन्दिनी संहिता के अध्येता माध्यन्दिनों का एक मत ५ कात्यायनीय शुक्लयजुःप्रातिशाख्य में उद्धृत है । इन प्रमाणों से व्यक्त है कि मध्यन्दिन का पुत्र माध्यन्दिनि प्राचार्य पाणिनि से प्राचीन है । इसका काल विक्रम से लगभग ३००० वर्ष पूर्व है । मध्यन्दिन के ग्रन्थ शुक्लयजुः-पदपाठ-माध्यन्दिनि के पिता आचार्य मध्यन्दिन ने १० याज्ञवल्क्य-प्रोक्त प्राचीन शुक्लयजुःसंहिता का प्रवचन किया था माध्यन्दिन प्राचार्य ने मन्त्रपाठ में कोई परिवर्तन नहीं किया, केवल कुछ पूर्व पठित मन्त्रों की प्रतीकें यत्र तत्र बढ़ाई हैं। इसीलिये संहिता के हस्तलिखित ग्रन्थों में इसे बहुधा यजुर्वेद वा वाजसनेय संहिता कहा १. अष्टा० ४११६६॥ २. याज्ञवल्क्यस्य शिष्यास्ते कण्व-वैधेयशालिनः । मध्यन्दिनश्च शापेयी विदग्धश्चाप्युद्दालकः ॥ वायु पुराण ६१।२४,२५॥ यही पाठ कुछ भेद से ब्रह्माण्ड पूर्व भाग अ० ३५ श्लोक २८ में भी मिलता है । ३. तस्मिन् ळहळजिह्वामूलीयोपध्मानीयनासिक्या न सन्ति माध्यन्दिनानां, लुकारो दीर्घः. प्लुताश्चोक्तवर्जम् । ८।३६॥ २० ४. शुक्ल यजुर्वेदी दर्शपौर्णमास का प्रारम्भ पहले पूर्णिमा में पौर्णमास. तत्पश्चात् अमावास्या में दर्श, इस क्रम से मानते हैं । शतपथ ब्राह्मण भी पहले पौर्णमास मन्त्रों का व्याख्यान करता है, तदनन्तर दर्श मन्त्रों का । यदि शुक्ल यजःसंहिता का अपूर्व प्रवचन याज्ञवल्क्य अथवा मध्यन्दिन ने किया होता, तो उस में प्रथम इषे त्वादि दर्श मन्त्रों का प्रवचन न होकर शतपथ के समान पौर्ण- २५ मास मन्त्रों का प्रवचन होता। .. ५. माध्यन्दिनसंहिता में पुनरुक्त मन्त्र दो प्रकार से समाम्नात उपलब्ध होते हैं। प्रथम सकलपाठ के रूप में और द्वितीय प्रतीकनिर्देश के रूप में। सकलपाठरूप में पुनरुक्तमन्त्र मूल वाजसनेय संहिना के अंगभूत हैं। द्र०वैदिक-सिद्धान्त-मीमांसा, पृष्ठ २४४ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गया है । अन्यत्र भी इसे शुक्लयजुःशाखाओं का मूल कहा है।' ग्रन्थ का आन्तरिक साक्ष्य भी इस की पुष्टि करता है। पहले (संस्करण १, २ में) हमने यह सम्भावना प्रकट की थी कि मध्यन्दिन आचार्य ने शुक्लयजुः के पदपाठ का प्रवचन किया था, और उसी आधार पर इस का नाम 'माध्यन्दिनी संहिता' प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि केवल पदपाठ के प्रवचन से भी प्राचीन संहिताएं पदकार के नाम से व्यवहृत होती हैं । यथा-शाकल्य के पदपाठ से मूल ऋग्वेद शाकल संहिता, और आत्रेय के पदपाठ के कारण प्राचीन तैत्तिरीय संहिता आत्रेयी कहाती है। इसी प्रकार मध्यन्दिन के पदपाठ के १० कारण प्राचोन यजुः संहिता माध्यन्दिनो संहिता के नाम से व्यवहृत हुई, परन्तु अब अन्य तथ्य प्रकट हुआ है। माध्यन्दिन पदपाठ शाकल्य-कृत-सं० २०२० के इस ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण छपने के कुछ मास के पश्चात् 'केकड़ी' (राजस्थान) के मित्रवर पं० मदनमाहनजी व्यास ने हमें माध्यन्दिनी संहिता के पदपाठ १५ का एक सम्पूर्ण हस्तलेख दिया। उस का लेखन काल पूर्वार्ध (अ० २०) और उत्तरार्ध (अ० ४०) के अन्त में सं० १४७१ शक १३२६ अङ्कित ___१. तथा चेदं होलीरभाष्यम्-यजुर्वेदस्य मूलं हि भेदो माध्यन्दिनीयकः । ..."तस्मान्माध्यन्दिनीयशाखा एव पञ्चदशसु वाजसनेयशाखासु मुख्या सर्व साधारणी च । अतएव वसिष्ठेनोक्तम- माध्यन्दिनी तु या शाखा सर्वसाधारणी २० तु सा। राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय मद्रास का सूचीपत्र भाग ३, पृष्ठ ३४२६, ग्रन्थ नं० २४०६ अनितिनाम पुस्तक का मुद्रित पाठ। द्र० मेरी 'वैदिक-सिद्धान्त-मीमांसा' ('मूल यजुर्वेद' शीर्षक लेख) पृष्ठ २४३ । वसिष्ठ का उक्त वचन शुक्लयजुःप्रातिशाख्य के परिशिष्टरूप 'प्रतिज्ञासूत्र' १३ के भाष्य में अनन्तदेव ने भी उद्धृत किया है । तथा सूत्रकार के मत में माध्यन्दिन २५ संहिता का ही मुख्यत्व माना है। २. देखो-वैदिक-सिद्धान्त-मीमांसा, 'मूल यजुर्वेद' शीर्षक लेख, पृष्ठ २४३ । ३. उख: शाखामिमां प्राह आत्रेयाय यशस्विने । तेन शाखा प्रणीतेयमात्रेयीति सोच्यते ॥ यस्याः पदकृदात्रेयो वृत्तिकारस्तु कुण्डिनः । ते० काण्डानुक्रम, २० पष्ठ ६, श्लोक २६, २७ । तै० सं० भट्टभास्करभाष्य भाग १ के अन्त में मुद्रित। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३६ है । इसके अन्तिम १० अध्यायों के अन्त में शाकल्यकृते पदे ऐसा स्पष्ट लेख है । शाकल्यकृते पदपाठ का जिस में निर्देश है, ऐसा एक हस्तलेख 'एशियाटिक सोसाइटी' कलकत्ता के संग्रह में चिरकाल से विद्यमान है । गवेषकों को उस का ज्ञान भी है, परन्तु एकमात्र हस्तलेख पर ५ शाकल्यकृतत्व का निर्देश मिलने से गवेषक उसे प्रामाणिक नहीं मानते थे । परन्तु अब उस से भी पुराने हस्तलेख पर 'शाकल्यकृत' का निर्देश होने से माध्यन्दिन- पदपाठ के शाकल्य प्रवक्तृत्व में कोई संदेह नहीं रहा । अतः हमारी पूर्व सम्भावना ठीक नहीं निकली । १० एशियाटिक सोसाइटी का हस्तलेख अन्तिम २० अध्यायों का है । पुस्तकाध्यक्ष ने मेरे ७ जनवरी ६३ के पत्र के उत्तर में ८ फरवरी ६३ के पत्र में लिखा है कि 'यह नागराक्षरों में है, और अक्षरों की बनावट से १८ वीं शती का विदित होता है।' इस के पश्चात् पदपाठ के सम्पादन-काल में सन् १९६६ में कलकत्ता जाकर हमने स्वयं उसे भी देखा है । हमारा विचार है कि माध्यन्दिनी संहिता का पदपाठ शाकल्य प्रोक्त है। १५ माध्यन्दिन - पदपाठ का सम्पादन- हमने देश के विभिन्न भागों से माध्यन्दिन पदपाठ के हस्तलेखों का संग्रह करके ( एक कोश वि० सं० १४७१ का है) बड़े परिश्रम से सम्पादित किया है । इस में मुख्य पाठ के साथ प्रकार के अवान्तर पाठ भी दिये हैं । प्रारम्भ में पदपाठों २० का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है, और अन्त में माध्यन्दिनपाठ से संबद्ध कई विषयों पर विचार किया है । माध्यन्दिन - शिक्षा - काशी से एक शिक्षासंग्रह छपा है । उस में दो माध्यन्दिनी शिक्षाएं छपी हैं। एक लघु और दूसरी बृहत् । इन में माध्यन्दिनसंहिता संबन्धी स्वर आदि के उच्चारण को व्यवस्था २५ है । ये दोनों शिक्षाएं अर्वाचीन हैं । इन का मूल वाजसनेय प्रातिशाख्य है । इस विषय में विशेष 'शिक्षा शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ में देखें । १३ - रौटि ( ३००० वि० पु० ) आचार्य रौढि का निर्देश पाणिनीय तन्त्र में नहीं हैं । वामन ३० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ___ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काशिका ६।२।३६ में उदाहरण देता है-प्रापिशलपाणिनीयाः, पाणिनीयरौढीयाः, रौढीयकाशकृत्स्नाः ' । इन में श्रुत आपिशालि, पाणिनि और काशकृत्स्न निस्सन्देह वैयाकरण हैं । अतः इनके साथ स्मृत रौढि प्राचार्य भी वैयाकरण होगा। परिचय वंश-रौढि पद अपत्यप्रत्ययान्त है, तदनुसार इस के पिता का नाम रूढ है । __स्वसा-वर्धमान ने क्रौड्यादिगण में रौढि पद पढ़ा है । तदनुसार रौढि को स्वसा का नाम रौढया था। महाभाष्य ४।१७६ से भी इसकी पुष्टि होती है । पाणिनि के गणपाठ में रौढि पद उपलब्ध नहीं होता। सम्पन्नता–पतञ्जलि ने महाभाष्य १।११७३ में 'घृतरौढीयाः उदाहरण दिया है। जयादित्य ने इसका भाव काशिका १११।७३ में इस प्रकार व्यक्त किया है -घृतप्रधानो रौढिः घृतरौढिः तस्य छात्राः १५ घतरौढीयाः । इस प्रकार से व्यक्त होता है कि यह प्राचार्य अत्यन्त सम्पन्न था। इस ने अपने अन्तेवासियों के लिए घृत की व्यवस्था विशेषरूप से कर रक्खी थी। इसी भाव का पोषक घतरौढीयाः काशिका ६।२।६९ में भी है। काशिकाकार के अनुसार उसका अभि प्राय है-- जो छात्र रौढिप्रोक्त शास्त्र में श्रद्धा न रख कर केवल घृत२. भक्षण के लिये उसके शास्त्र को पढ़ते हैं, उनकी 'पूर्वपदाद्य दात्त घत रौढीय' पद से निन्दा की जाती है। काल २५ रौढि पद पाणिनीय अष्टक तथा गणपाठ में उपलब्ध नहीं होता । महाभाष्य ४।१।७६ में लिखा है।। सिद्धन्तु रौढ्यादिषूपसंख्यानात् । सिद्धमेतत्, कथं ? रौढ्यादिषुपसंख्यानात् । रौढ्यादिषूपसंख्यानं कर्तव्यम् । के पुना रौढयादयः ? ये क्रौड्यादयः । ___ इस पर कैयट लिखता है-'क्रोड्यादि के स्थान में वार्तिकपठित रौढयादि पर पूर्वाचार्यों के अनुसार है।' इसका यह अभिप्राय है कि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचय १४१ पूर्वाचार्य पाणिनीय 'कौड्यादिभ्यश्च" सूत्र के स्थान में 'रौढ्याविभ्यश्च' पढ़ते थे। इस से स्पष्ट है कि रौढि आचार्य पाणिनि से पौर्वकालिक है । पाल्यकीति ने अपने व्याकरण २।३।४ में रूढादिभ्यः ही पढ़ा है। १४-शौनकि (३००० वि० पू०) चरक संहिता के टीकाकार जज्झट ने चिकित्सास्थान २।२७ की व्याख्या में आचार्य शौनकि का एक मत उद्धृत किया है । पाठ इस प्रकार है कारणशब्दस्तु व्युत्पादितःकरोतेरपि कर्तृत्वे दीर्घत्वं शास्ति शौनकिः । तर्थात्-कृञ् धातु से कर्ता अर्थ में (ल्युट् में) दीर्घत्व का शासन करता है' शौनकि प्राचार्य । मल्लवादिकृत-द्वादशार-नयचक्र की सिंहसूरि गणि कृत टीका में लिखा है स्यान्मतम, करोतीति कारणम् । यथोक्तम्ण्ठिवसिव्योल्युट्पग्योदीर्घत्वं वष्टि भागुरिः। करोतेःकर्तृ भावे च सौनागाः प्रचक्षते ॥ अर्थाथ्-ष्ठिव सिव की ल्युट् परे रहने पर दीर्घत्व चाहता है भागुरि । करोति से कर्तृ भाव में दीर्घत्व सौनाग कहते हैं। सम्भव है यहां पर सौनागाः के स्थान पर शौनकाः मूल पाठ हो । भट्टि की जयमंगला टीका ३।४७ में उद्धृत वचन का उत्तरार्ध इस प्रकार हैधाकृमोस्तनिनयोश्च बहुलत्वेन शौनकिः । अर्थात्-घाञ् कृज् तनु और नह धातु के परे रहने पर अपि और २५ २० १. अष्टा० ४११८०॥ २. तुलना करो- "कृञः कर्तरि" चान्द्र सूत्र (१३३६६)। ३. बड़ोदा संस्करण भाग १, पृष्ठ ४१ । ... ... . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० १४२ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास अव उपसर्ग के प्रकार का लोप बहुल करके होता है, ऐसा शौनकि है । २५ इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य शौनक ने किसी व्याकरणतन्त्र का प्रवचन किया था । शौनक पद अपत्यप्रत्ययान्त है। तदनुसार शोनकि के पिता का १० नाम शौनक है । यह ब्रह्मज्ञाननिधि गृहपति शानक का पुत्र है । शौनक का काल विक्रम से ३००० वर्ष पूर्व है, यह हम पाणिनि के प्रसङ्ग में लिखेंगे । अतः शौनक का काल भी ३००० वर्ष विक्रम पूर्व मानना युक्त है । यदि पूर्वनिर्दिष्ट सम्भावनानुसार शौनक शौनकि एक भी हों, तब भी काल में विशेष अन्तर नहीं होगा । १५ शौनक के व्याकरण पम्बन्धी मत वाजसनेय प्रातिशाख्य आदि में बहुत उद्धृत हैं ।' क्या पाणिन-पाणिनि काशकृत्स्न- काश कृत्स्नि के समान शौनक - शौनक नामों से एक व्यक्ति अभिप्रेत है ? परिचय और काल चरक सूत्रस्थान २५।१६ में शौनक का एक पाठान्तर भी शौनकि मिलता है । शौनक के चिकित्सा ग्रन्थ का निर्देश प्रष्टाङ्गहृदय कल्पस्थान ६।१५ में अघी शौनकः पुनः रूप में मिलता है । इस की सर्वाङ्गसुन्दरा टीका में लिखा है शौनकस्तु तन्त्रकृदधीते ....''/ शौनक प्रोक्त ज्योतिष ग्रन्थ अथवा उस के मतों का उल्लेख ज्योतिष ग्रन्थों में प्रायः उपलब्ध होता है । प्रद्भुतसागर पृष्ठ ३२५ में शौनक के मत में उल्काओं का पञ्चविधत्व निर्दिष्ट है । * १. पूर्व पृष्ठ ७७ द्र० । २. द्र० – निर्णयसागर मुद्रित गुटका । ३. द्रष्टव्य - शंकर बालकृष्ण कृत 'भारतीय ज्योतिष शास्त्राचा इतिहास' पृष्ठ १५६, ४५२ टि०, ४८७ (द्वि० सं०) । ४. उल्का एवं पञ्चविधि ह्येता: शौनकेन प्रदर्शिताः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचाय १४३ १५-गौतम (३००० वि० पू०) गौतम का नाम पाणिनीय तन्त्र में नहीं मिलता। महाभाष्य ६।२।३६ में प्रापिशलपाणिनीयव्याडीयगौतमीयाः' प्रयोग मिलता है। इस में स्मृत आपिशलि, पाणिनि और व्याडि ये तीन वैयाकरण हैं । अतः इन के साथ स्मृत आचार्य गौतम भी वैयाकरण प्रतीत होता है। ५ इसकी पुष्टि तैत्तिरीय प्रातिशाख्य' और मंत्रायणीय प्रातिशाख्य से होती है। उस में प्राचार्य गौतम के मत उदधृत हैं। महाभाष्य के उद्धरण से इस बात की कुछ प्रतीति नहीं होती कि गौतम पाणिनि से पूर्ववर्ती है वा उत्तरवर्ती । परन्तु तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में प्लाक्षि कौण्डिन्य और पौष्करसादि के साथ गौतम का १० निर्देश होने से वह पाणिनि से निस्सन्देह प्राचीन है । यह वही प्राचार्य प्रतीत हाता है जिसने गौतम गृह्य, गौतम धर्मशास्त्र बनाए । वह शाखाकार था। गौतमप्रोक्त गौतमी शिक्षा इस समय उपलब्ध है। यह काशी से प्रकाशित शिक्षासंग्रह में छपी है । गौतमवंश का विस्तार–पाल्यकीत्ति ने स्वप्रोक्त व्याकरण की १५ 'अमोघा' वृत्ति १।२।१६० में एक उदाहरण दिया है-त्रिपञ्चाशद् गौतमम् । इस का काशिका २।१।१६ में दिये गये 'जन्मना-एकविशतिभारद्वाजम्' के साथ तुलना करने से व्यक्त होता है कि गौतम का वंश ५३ गोत्रावयवों में विभक्त था । १६-व्याडि (२९.०० वि० पू०) आचार्य व्याडि का निर्देश पाणिनीय सूत्रपाठ में नहीं मिलता। प्राचार्य शौनक ने ऋक्प्रातिशाख्य में व्याडि के अनेक मत उद्धृत किये हैं। भाषावृत्ति ६।१।७७ में पुरुषोत्तमदेव ने गालव के साथ १. प्रथमपूर्वो हकारश्चतुर्थ तस्य सस्थानं प्लाक्षिकौण्डिन्यगौतमपौष्कर- २५ सादीनाम् । ५॥३॥ २. मै० प्रा० ५५४०॥ द्र० मै० सं० 'वैदिक स्वाध्याय मण्डल' द्वारा . प्रकाशित का प्रस्ताव, पृष्ठ १६ । ३. ऋक्प्राति० ३।२३, २८ ॥६॥४३॥ १३॥३१,३७॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ व्याडि का एक मत उद्धृत किया है। गालव शब्दानुशासन का कर्ता है और पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उसका चार स्थानों पर उल्लेख किया है। महाभाष्य ६।२।३६ में 'प्रापिशल पाणिनीयव्याडीयगौतमीयाः' प्रयोग मिलता हैं । इसमें प्रसिद्ध वैयाकरण आपिशलि और पाणिनि के अन्तेवासियों के साथ व्याडि के अन्तेवासियों वा निर्देश है । ऋक्प्रातिशाख्य १३।३१ में शाकल्य और गार्य के साथ व्याडि का बहुधा उल्लेख है। शाकल्य' और गाय दोनों का स्मरण पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में किया है। इससे स्पष्ट है कि व्याडि ने कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था। परिचय और काल व्याडि का दूसरा नाम दाक्षायण है। इसे वामन ने काशिका ६।।६९ में दाक्षि के नाम से स्मरण किया है। यह दाक्षिपुत्र पाणिनि का मामा है । कई विद्वान् दाक्षायण पद से इसे पाणिनि का ममेरा भाई मानते हैं, वह ठीक नहीं । अतः व्याडि का काल पाणिनि १५ से कुछ पूर्व अर्थात् विक्रम से लगभग २६५० वर्ष पूर्व है। व्याडि के परिचय और काल के विषय में हम 'संग्रहकार व्याडि' नामक प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे । अतः इस विषय में यहां हम इतना ही संकेत करते हैं। व्याकरण २० जयादित्य ने काशिका २।४।२१ में उदाहरण दिया है-व्याड्यपज्ञं दुष्करणम् । न्यास में इसका पाठ 'व्याड्य पज्ञं दशहष्करणम्' है । १. इकां यभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्तव्यम् । २. अष्टा० ६।३।६१॥ ७॥११७४॥ ७३६६॥ ८।४।६७।। ३. व्याळिशाकल्यगार्याः । ४. अष्टा० १११११६॥ ६।१।१२७॥ ८॥३॥१६॥ ८।४।५१॥ ५. अष्टा० ७।३।६६।८।३।२०॥ ४६॥ ६. कुमारीदाक्षाः ।.....'कुमार्यादिलाभकामा ये दाक्षादिभिः प्रोक्तानि शास्त्राण्यधीयते तच्छिष्यतां वा प्रतिपद्यन्ते त एवं क्षिप्यन्ते । यहां 'दाक्षादिभिः' ३० पाठ अशुद्ध है, 'दाक्ष्यादिभिः पाठ होना चाहिये । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १४५ पदमञ्जरी ४।३।११५ में इस उदाहरण की व्याख्या मिलती है । अतः प्रतीत होता है कि उसके समय में काशिका ४ | ३ | ११५ में भी यह उदाहरण अवश्य विद्यमान था । काशिका के मुद्रित संस्करणों में ४ | ३ | ११५ का पाठ अशुद्ध है ।' न्यासकार २।४।२१ में इस उदाहरण की व्याख्या में लिखता है - १६ व्याडिरप्यत्र युगपत्कालभाविनां विधीनां मध्ये दशहुष्करणानि कृत्वा परिभाषितवान् पूर्वं पूर्वं कालमिति । ५ न्यास की व्याख्या में मैत्रेय रक्षित लिखता है - प्रथमतरं दशहुष्करणानि कृत्वा कालमनद्यतनादिकं परिभाषितवान् । हरदत्त पदमञ्जरी ४ | ३ | ११५ में इसकी व्याख्या इस प्रकार १० करता है दुष् इत्ययं संकेतशब्दो यत्र क्रियते, यथा पाणिनीये वृदिति, तद् दुष्करणं व्याकरणं, कामशास्त्रमित्यन्ये । १५ न्यासकार, मंत्रेयरक्षित और हरदत्त की व्याख्याएं अस्पष्ट हैं । हरदत्त 'कामशास्त्रमित्यन्ये' लिखकर स्वयं सन्देह प्रकट करता है । अब हम अगले श्रध्याय में पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत दश प्राचार्यों का वर्णन करेंगे । १. काशिका का मुद्रित पाठ इस प्रकार है- 'काशकृत्स्नम् । गुरुलाघवम् । आपिशलम् । पुष्करणम् ।' २. पं० गुरुपद हालदार ने लिखा है - सुतरामापिश लिसंबंधे जयादित्येर २० मते बुझिते हवे – प्रापिशलिस्तु युगपत्कालभाविनां विधीनां मध्ये दश हुष्करजानि कृत्वा कालमनद्यतनादिकं परिभाषितवान् । व्याकरण द० इ० प्राक्कथन, पृष्ठ ४० | यह लेख काशिका, न्यास और पदमञ्जरी से विपरीत होने से चिन्त्य है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचार्य (४०००-३००० वि० पू०) पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में दश प्राचीन व्याकरणप्रवक्ता ५ प्राचार्यों का उल्लेख किया है। उनके पौर्वापर्य का यथार्थ निश्चय न होने से हम उनका वर्णन वर्णानुक्रम से करेंगे। आपिशलि (३००० वि० पू०) आपिशलि आचार्य का उल्लेख पाणिनोय अष्टाध्यायी के एक सूत्र में उपलब्ध होता है।' महाभाष्य ४।२।४५ में प्रापिशलि का मत १० प्रमाणरूप में उद्धृत किया है।' वामन, न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि, कैयट तथा मत्रयरक्षित आदि प्राचीन ग्रन्थकारों ने प्रापिशल व्याकरण के अनेक सूत्र उद्धृत किये हैं ।' पाणिनि ने स्वीय शिक्षा के अन्तिम प्रकरण में भी आपिशलि का उल्लेख किया है।' परिचय १५ वंश-आपिशलि शब्द तद्धितप्रत्ययान्त है। काशिका ६।२।३६ में प्रापिशलि पद की व्युत्पत्ति इस प्रकार दर्शाई है अपिशलस्यापत्यमापिलिराचार्यः । प्रत इन्। पाल्यकीति ने रूढादिगण १।३।४ में अपिशल शब्द से इन आपिशलि मानकर, स्त्रीलिङ्ग में प्रापिशल्या का निर्देश किया है । गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान लिखता है प्रापिशलि-पिंशतीत्यौणादिककलप्रत्यये पिशलः, न पिशलोऽपिशलः कुलप्रधानमः तस्यापत्यम् । १. वा सुप्यापिशलेः । अष्टा० ६।११९२॥ २. एवं च कृत्वाऽपिशलेराचार्यस्य विधिरुपपन्नो भवति–धेनुरनजिकमुर त्पादयति । ३. काशिका ७।३।८६।। न्यास ४।२।४५॥ कयट, महाभाष्यप्रदीप ५॥१॥ २१॥ तन्त्रप्रदीप ७३॥८६॥ ४. पा० शिक्षा वृद्धपाठ प्र० ८ सूत्र २५ । ५, गणरलमहोदधि, पृष्ठ ३७ । २० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १४७ इन व्युत्पत्तियों के अनुसार वामन, पाल्यकीर्ति और वर्धमान तीनों के मत में प्रापिशलि के पिता का नाम 'अपिशल' था। उज्ज्वलदत्त उणादि ४।१२७ की वृत्ति में प्रापिशलि पद की व्युत्पति इस प्रकार दर्शाता है___ शारिहिंस्र, कपितकादित्वाल्लत्वम् । दुःसहोऽपिशलिः । बाह्वादि- ५ त्वादिञ्-प्रापिशलिः ।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रापिशलि के पिता का नाम 'अपिशलि' होना चाहिये, परन्तु बाह्वादिगण' में 'अपिशलि' पद का पाठ न होने से उज्ज्वलदत्त की व्युत्पत्ति चिन्त्य हैं। अपिशल शब्द का अर्थ-पिशल का अर्थ है क्षुद्र, अतः अपिशल का १० अर्थ होगा महान् । वर्धमान ने अपिशल का अर्थ 'कुल-प्रधान' किया है। तदनुसार इसकी व्युत्पत्ति पिश अवयवे-कल(प्रोणादिक)प्रत्ययः, पिश्यत इति पिशलः क्षुद्रः न पिशलोऽपिशल' होगी । वाचस्पत्यकोश में 'अपिशलते इति अपिशलः, अच्, व्युत्पत्ति लिखी है । नामान्तर-आपिशलि के लिए प्रापिशल नाम का व्यवहार परोक्ष १५ रूप में उपलब्ध होता है । यथा १. शिक्षा प्रापिशलीयादिका ! काव्यमीमांसा, पृष्ठ ३ । २. तथेत्यापिशलीयशिक्षादर्शनम् । वाक्यपदीय वृषभदेव टीका, भाग १, पृष्ठ १०५। . इन प्रयोगों में प्रस्तुत प्रापिशलीय पद अणन्त प्रापिशल शब्द से २० ही छ (=ईय) प्रत्यय होकर सम्भव हो सकता है । इअन्त प्रापिशलि से इजश्च (४।२।११२) के नियम से प्रापिशल शब्द निष्पन्न होता है । अपिशल के अण् और इन दोनों सामान्य अपत्यार्थक प्रत्यय . • होकर प्रापिशल और प्रापिशलि प्रयोग उपपन्न होते हैं। स्वसा का नाम-प्रापिशलि पद क्रौड्यादिगण में पढ़ा है। तद- २५ १. तुलना करो—अपिशलिमु निविशेषः, तस्यापत्यमापिशलि:, बाह्वादित्वादिन् । उणादिकोष ४।१२६॥ २. अष्टा० ४११६६॥ ३. देखो पूर्व पृष्ठ १४६ । ४. विशेष द्रष्टव्य काशकृत्स्न प्रकरण पूर्व पृष्ठ ११६-११७ ॥ ५. अटा० ४।१।८०॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नुसार प्रापिशलि की किसी स्वसा का नाम 'पापिशल्या' होगा। अभिनव शाकटायन १।३।४ की चिन्तामणि टीका में भी 'प्रापिशल्या'. का निर्देश मिलता है। इसी प्रकार अन्य व्याकरणों में भी इस प्रकरण में प्रापिशल्या स्मृत हैं। गोत्र-पूर्व पृष्ठ ११६ पर बौधायन प्रवराध्याय का जो वचन उद्धृत किया है तदनुसार आपिशलि भृगुवंश का है । प्रापिलि शाला-प्रापिशलि पद छात्र्यादि गण' में पढ़ा है । तदनुसार शाला उत्तरपद होने पर 'आपिशलिशाला में प्रापिशलि पद को आधुदात्त होता है। इससे व्यक्त होता है कि पाणिनि के समय १० में आपिशलि की शाला देश-देशान्तर में अत्यन्त प्रसिद्ध थी। शाला शब्द का अर्थ-यद्यपि शाला शब्द का मुख्यार्थ गह है, तथापि 'पदेषु पदेकदेशाः प्रयुज्यन्ते न्याय के अनुसार यहां 'शाला' शब्द पाठशाला के लिये प्रयुक्त हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, पञ्जाब आदि अनेक प्रान्तों में पाठशाला के लिये केवल शाला शब्द का १५ व्यवहार होता है। पुराण पञ्चलक्षण में रेमकशाला का वर्णन है, इस में पैप्पलाद आदि ने विद्याध्ययन किया था । मुण्डक उपनिषद् में गृहपति शौनक के लिए महाशाल शब्द का व्यवहार उपलब्ध होता हैं । वहां शाला का अर्थ निश्चित ही पाठशाला है । अतः प्रापिशलि शाला का अर्थ निश्चित ही प्रापिशलि का विद्यालय है। २० देश-आपिशलि प्राचार्य किस देश का था यह किसी प्रमाण से नहीं जाना जाता है । तथापि उत्तरदेशीय पाणिनि वाल्मीकि के साथ आपिशलि का निर्देश होने से यह उत्तर भारतीय है, इतना निश्चित १. गणपाठ ६॥२॥८६॥ २. छात्र्यादय: शालायाम् (अष्टा० ६।२।८६) सूत्र से। ३. तुलना करो—पदेषु पदैकदेशान्-देवदत्तो दत्तः सत्यभामा भामेति । महाभाष्य १११॥४॥ ४. अनेक व्याख्यातानों ने 'महाशाल' का अर्थ 'बड़ा घर वाला' किया है। वह चिन्त्य है। शौनक गृहपति है। गृहपति वह प्राचार्य कहाता है। जो दश सहस्र छात्रों के भोजन छादन एवं अध्यापन की व्यवस्था करे। अतः उस ३० के लिये प्रयुक्त 'महाशाल' का अर्थ आधुनिक प्रयोगानुसार 'विश्व-विद्यालय' के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १४६ है । उत्तर भारत में वाराणसी पर्यन्त व-ब का भेद स्पष्ट रहता है। उससे प्राग्देशों में सांकर्य बढ़ते-बढ़ते 'व' 'ब' रूप में परिणत हो जाता है। आगे पृष्ठ १५४ पर उद्धत व-ब के बोधक सं० ४ के प्रमाण से संभावना हो सकती है कि आपिशलि प्राग्देशीय रहा हो। काल पाणिनीय अष्टक में आपिशलि का साक्षात् उल्लेख होने से इतना निश्चित है कि यह पाणिनि से प्राचीन है। पदमञ्जरीकार हरदत्त के लेख से प्रतीत होता है कि प्रापिशलि पाणिनि से कुछ ही वर्ष प्राचीन है । वह लिखता है___ कथं पुनरिदमाचार्यण पानिनिनाऽवगतमेते साधव इति ? आपि- १० शलेन पूर्वव्याकरणेन, प्रापिलिना तहि केनावगतम् ? ततः पूर्वण व्याकरणेन ॥ पाणिनिरपि स्वकाले शब्दान् प्रत्यक्षयन्नापिशलादिना पूर्वस्मिन्नपि काले सत्तामनुसन्धत्ते, एवमापिलिः ॥ पाणिनि विक्रम से लगभग ३१०० सौ वर्ष प्राचीन है, यह हम १५ पाणिनि के प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध करेंगे। बौधायन श्रौत के प्रवराध्याय में भृगवंश में आपिशलि गोत्र का उल्लेख मिलता है । मत्स्य पुराण १९४।४१ में भी भृगुवंश्य प्रापिशलि का निर्देश उपलब्ध होता है। पं० गुरुपद हालदार ने आपिशलि को याज्ञवल्क्य का श्वसुर लिखा है, परन्तु कोई प्रमाण नहीं दिया। २० याज्ञवल्क्य ने शतपथ का प्रवचन विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व किया था, यह हम पूर्व लिख चके हैं। प्रापिशली शिक्षा में सात्यमुग्री और राणायनीय शाखा के अध्येताओं का उल्लेख है । १. पदमञ्जरी (अथशब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ६ । २. पदमञ्जरी (अथशब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ६। २५ ३. भगणामेवादितो व्याख्यास्यामः........ पैङ्गलायना:. वहीनरयः... "काशकृत्स्ना:....."पाणिनिर्वाल्मीकिः ...."प्रापिशलयः । ४. व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ५१६ । ५. छन्दोगानां सात्यमुनिराणायनीया ह्रस्वानि पठन्ति । ६ । ६ ॥ तुलना करो–छन्दोगानां सात्यमुनिराणायनीया अर्धमेकारमर्षमोकारं चाधीयते । महा- ३० भाष्य, एप्रोङ् सूत्र। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रापिलि का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून ३००० वर्ष पूर्व अवश्य है। आपिशल व्याकरण का परिमाण जैन आचार्य पाल्यकोति अपने शाकटायन व्याकरण की अमोघा वृत्ति २।४।१८२ में उदाहरण देता है-अष्टका प्रापिशलपाणिनीयाः । यह उदाहरण शाकटायन व्याकरण की यक्षवर्मकृत चिन्तामणिवृत्ति २१४११८२ में भी उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि आपिशल व्याकरण में आठ अध्याय थे । प्रापिशलि विरचित शिक्षा ग्रन्थ में भी पाठ ही प्रकरण हैं। आपिशल व्याकरण की विशेषता ___ काशिका ४।३।११५ में उदाहरण है-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्, प्रापिशलं पुष्करणम् । सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३।२४६ की हृदयहारिणी टीका में 'काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्, प्रापिशलमान्तःकरणम्" पाठ है । वामन ने ६।२।१४ की वृत्ति में 'प्रापिशल्युपशं गुरुलाघवम्' १५ उदाहरण दिया है । इन में कौन सा पाठ शुद्ध है यह अभी विचार णीय है । अतः सन्दिग्ध अवस्था में नहीं कह सकते कि आपिशल व्याकरण की अपनी क्या विशेषता थी। __ आपिशल व्याकरण का प्रचार महाभाष्य ४।१।१४ से विदित होता है कि कात्यायन और १. पतञ्जलि के काल में प्रापिशल व्याकरण का महान् प्रचार था । उस काल में कन्याएं भी आपिशल व्याकरण का अध्ययन करती थीं ।' आपिशल व्याकरण का स्वरूप पाणिनीय व्याकरण से प्राचीन व्याकरणों में केवल अपिशल व्याकरण ही ऐसा है जिसके सब से अधिक सूत्र उपलब्ध होते हैं और १. निरुक्त १।१३ के 'एते: कारितं च यकारादि चान्तकरणमस्ते: शुद्धं च सकारादि च' पाठ में 'अन्तकरण' पद प्रयुक्त है। स्कन्दस्वामी ने 'अन्तकरण का अर्थ 'प्रत्यय' किया है । क्या सरस्वतीकण्ठाभरण को टीका का पाठ अन्तकरण हो सकता है। २. आपिशलमधीते ब्राह्मणी प्रापिशला ब्राह्मणी । ३. यह स्थिति इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण तक थी। उस के पश्चात ३० काशकृत्स्न धातुपाठ की चन्नवीर कवि कृत कन्नड टीका प्रकाश में आई । उस में काशकृत्स्न व्याकरण के १३५ सूत्र उपलब्ध हो गए। द्र०-पृष्ठ ११६ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १५१ अन्य पाठों का परिचय भी मिलता है । इन के आधार पर कहा जा सकता है कि यह व्याकरण पाणिनीय व्याकरण के सदृश सर्वाङ्गपूर्ण सुव्यवस्थित तथा उससे कुछ विस्तृत था, और इस में लौकिक वैदिक उभयविध शब्दों का अन्वाख्यान था । आपिशल व्याकरण के उपलब्ध सूत्र शतशः व्याकरण ग्रन्थों के पारायण से हमें आपिशल व्याकरण के निम्न सूत्र उपलब्ध हुए हैं १. उभयस्योभयोऽद्विवचनटापोः । २. विभक्त्यन्तं पदम् । ३. मन्यकर्मण्यनादरे उपमाने विभाषा प्राणिषु।' ४. चिरसाययोर्मश्च प्रगप्रायोरेच्च । ५. धेनोरजः । १. आपिशलिस्त्वेनमर्थं सूत्रयत्येव—'उभस्योभयोऽद्विवचनटापोः' इति । तन्त्रप्रदीप २॥३॥८॥ भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६५ में प्रो० कालीचरण शास्त्री हुबली के लेख में उद्धृत । तुलना करो- 'केचित् पुनरेवं पठन्ति- १५ उभस्योभयोरद्विवचने ।' भर्तृहरि महाभाष्य-दीपिका, हस्तलेख, पृष्ठ २७० । पूना मुद्रित, पृष्ठ २०५। २. कलापचन्द्र (सन्धि २०) में सुषेण विद्याभूषण ने लिखा है- 'अर्थः पदम्' पाहुरेन्द्राः, विभक्त्यन्तं पदम्' आहुरापिशलीयाः, सुप्तिङन्तम् पदम्' पाणिनीया: (देखो पूर्व पृष्ठ १४)। हैम लिङ्गानुशासन विवरण, पृष्ठ १५८ २० पर निर्दिष्ट । तुलना करो–ते विभक्त्यन्ताः पदम् । न्यायसूत्र २।२।५७। विभक्त्यन्तं पदं ज्ञेयम् । भरत नाट्यशास्त्र १४॥३६॥ ३. प्रदीप २।३।१७॥ पदमञ्जरी २।३।१७, भाग १, पृष्ठ ४२७ ।। शब्दकौस्तुभ २।३।१७।। 'विभाषा प्राणिष' इत्यापिशलीयं सूत्रम् । हरिनामामृत व्याकरण कारक ३४ । प्रापिशलिवाक्येन उपमानवाचकात् ततोऽपि तिरस्कारे २५ 'चतुर्थीत्युच्यते' प्रदीपोद्योते नागेशः (२।३।१७)। ४. इत्यापिशलीयं सूत्रम् । सुपद्ममकरन्द ५।३।५१,५२॥ ५. न्यास ४।२।४५, भाग १ पृष्ठ ६४३ । धातुवृत्ति धेट् धातु, पृष्ठ १६७ । धातुवृत्ति का मुद्रित पाठ अशुद्ध है । पदमञ्जरी ४।२।४५ में 'धेनुरनजिकमुत्पादयति इत्यापिशलिसूत्रम्' भाष्यपङ्क्ति को ही सूत्र बना दिया है। ३० व्याकरण दर्शनेर इतिहास पृष्ठ ५२१ में भी यही भाष्यपङ्क्ति प्रापिशलि के नाम से उद्धृत है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६. शताच्च ठन्यतावग्रन्थे ।' ७. शब्विकरणे गुणः। ८. करोतेश्च । ६. मिदेश्च। १०. तुरुस्तुशम्यमः सार्वधातुकापु च्छन्दसि ।' ११. अमङणनम् (?) (क) 'तदहम्' सूत्र का अभाव काशकृत्स्न व्याकरण के प्रकरण में वाक्यपदीय तथा उसके टीकाकार हेलाराज का जो वचन उद्धृत किया है उससे विदित होता १. महाभाष्य-प्रदीप ॥१॥२१॥ यहां कैयट ने जितना अंश अष्टाध्यायी से भिन्न था, उतने ही का निर्देश किया है। पं० गुरुपद हालदार ने व्याकरण दर्शनेर इतिहास के प्राक्कथन पृष्ठ ३२ पर प्रापिशल और काशकृत्स्न के मत से याज्ञवल्क्य स्मृति (२।२०२) का 'शतकं शतम्' प्रयोग उद्धृत किया है । वह हमें नहीं मिला। २. धातुवृत्ति पृष्ठ ३५६, ३५७ । प्रापिशलिस्तू 'शब्विकरणे गुणः' इत्यभिधाय 'करोते: मिदेश्च' इत्युक्तवान । १५ तन्त्रप्रदीप ७३॥८६॥ भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६५ में उद्धृत । तुलना करो—अनि च विकरणे, करोतेः, मिदे. । कातन्त्र ३७३-५ । ३. धातुवृत्ति पृष्ठ ३५६, ३५७ । तन्त्रप्रदीप ७।३।८६, पूर्वोद्धृत उद्धरण । कातन्त्र ३७।४ पूर्वोद्धरण। ४. धातुवृत्ति पृष्ठ ३५६, ३५७ । तन्त्रप्रदीप ७।३।८६, पूर्वोद्धरण । कातन्त्र ३।७।५ पूर्वोद्धरण । ५. टाबन्तं संज्ञात्वेन विनियुक्तम् । पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ८३८ । २० तुलना करो-'अथवा आर्धधातुकासु इति वक्ष्यामि । कासु आर्धधातुकासु ? उक्तिष युक्तिषु, रूढिष, प्रतीतिषु, श्रतिषु, संज्ञासु ।' महाभाष्य २४१३५॥ ६. काशिका ७।३।६५॥ धातुवृत्ति पृष्ठ २४१ । छान्दसोऽयमित्यापिशलिः । घातुप्रदीप पृष्ठ ८० । ६. पञ्चपादी उणादि प्रापिशलि-प्रोक्त है यह हम द्वितीय भाग में उणादि के प्रकरण में लिखेंगे। द्र०-उणादि के 'नमन्ताड्डः, (१११०७) सूत्र में अम् २५ प्रत्याहार । प्रापिशल-शिक्षा के 'अमङणनाः स्वस्थाना नासिकास्थानाश्च' (१।१९) सूत्र में अमङणन आनुपूर्वी विशेष का सबन्ध आपिशल व्याकरण के प्रत्याहार सूत्र से प्रतीत होता है । पाणिनीयशिक्षा के 'अणनमाः स्वस्थाननासिकास्थानाः' (वृद्धपाठ १२२१; लघुपाठ १।२०) सूत्र में वर्णानुक्रम से पाठ है। ८. अष्टा० ॥१११७॥ ६. देखो पूर्व पृष्ठ १२३ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १५३ है कि काशकृत्स्न व्याकरण के सदृश आपिशल व्याकरण में भी 'तदर्हम्' सूत्र नहीं था । (ख) 'नाज्झलौ ' सूत्र का अभाव पाणिनि का नाज्झलौ ( १ | १|१०) सूत्र प्रापिशल व्याकरण में नहीं था, क्योंकि उसकी शिक्षा में - ईषद्विवृतकरणा ऊष्माण: । ३ । ६ ।। विवृतकरणाः स्वराः । ३ । ७॥ सूत्रों द्वारा इॠ के ह श ष ऊष्मों के प्रयत्न भिन्न-भिन्न माने हैं । अतः प्रयत्नैक्य के अभाव में न सवर्ण संज्ञा प्राप्त होती है, न प्रतिषेध की ही आवश्यकता है । पाणिनीय शिक्षा में विवृकरणा वा १० सूत्र द्वारा पक्षान्तर में ऊष्मों का भी विवृतकरण प्रयत्न स्वीकार करने से पक्ष में सवर्ण संज्ञा प्राप्त होती है । अतः पाणिनि के मत में उस का नाज्झलौ सूत्र द्वारा प्रतिषेध आवश्यक है । इससे स्पष्ट है कि पिशल व्याकरण में उक्त सूत्र नहीं था । आपिशलि के प्रकीर्ण उद्धरण पूर्वोद्धृत सूत्रों के अतिरिक्त प्रापिशलि के नाम से अनेक वचन प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यथा • १ - अनन्तदेव भाषिकसूत्र की व्याख्या में लिखता है - यथापिशलिनोक्तम् - ऋवर्णलुवर्णयोर्दीर्घा [न] भवन्तीति ।' १५ २ – कविराज ने आपिशलि का निम्न मत उद्धृत किया है २० एकवर्णकार्य विकार:, अनेकवर्णकार्यमा देश इत्यापिशलीयं मतम् ।' ३ - कातन्त्रवृत्ति की दुर्गविरचित टीका में प्राविशलि का निम्न श्लोक उद्धृत है - १. काशी के छपे हुए यजुः प्रातिशाख्य के अन्त में, पृष्ठ ४६६ । शतपथ सायणभाष्य भाग १, पृष्ठ ३१८ पर कोष्ठ में निर्दिष्ट 'न' पद मूल में छपा है । २५ २. कातन्त्रटीका २|३|३३|| यह श्लोक त्रिलोचनदास ने कातन्त्र वृत्तिपञ्जिका २|१|१६ में भी इसी रूप में उद्धृत किया है । द्र० 'संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश परम्परा, पृष्ठ ११४ । तुलना करो - ' विकारो नाम वर्णास्मक आदेशः । शब्दकौस्तुभ, पृष्ठ ३४४ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तथा चापिशलीयः श्लोक: प्रागमोऽनुपघातेन विकारश्चोपमर्दनात् । आदेशस्तु प्रसंगेन लोपः सर्वापकर्षणात् ।।' ४-भाषावृत्ति के व्याख्याता सृष्टिधर ने आपिशलि का निम्न ... ५ डेढ़ श्लोक उद्धृत किया है तथा चापिशलि: दन्त्योष्ठयत्वाद् वकारस्य वहव्यधवृधां न भए । उठौ भवतो यत्र यो वः प्रत्ययसन्धिजः ॥ अन्तस्थं तं विजानीयाच्छेषो वर्गीय उच्यते।' ५-जगदीश तर्कालङ्कार ने अपनी शब्दशक्तिप्रकाशिका में आपिशलि का निम्न मत उद्धृत किया है-- सदृशस्त्वं तृणादीनां मन्यकर्मण्यनुक्तके । द्वितीयावच्चतुर्थ्यापि बोध्यते बाधित यदि ॥ इत्यापिशलेर्मतम् ।। १५ ६.७–उणादिसूत्र का वृत्तिकार उज्ज्वलदत्त प्रापिशलि के निम्न दो वचन उद्धृत करता है प्रापिशलिस्तु-न्यको च्भावं शास्ति न्याङ्कवं चर्म ।' स्वधा पितृतृप्तिरित्यापिलिः । ८-भानुजी दीक्षित ने अपनी अमरकोषटीका में आपिशलि का २० निम्न वचन उद्धृत किया है शश्वदभीक्ष्णं नित्यं सदा सततमजस्रमिति सातत्ये इत्यव्ययप्रकरणे प्रापिशलिः। १. कातन्त्रवृत्ति पृष्ठ ४७६ । २. भाषावृत्ति की भूमिका पृष्ठ १७। ३. पृष्ठ ३७५, काशी सं० । ४. उणादिवृत्ति पृष्ठ ११ । तुलना करो-न्यकोस्तु पूर्वे अकृतजागमस्याभ्युदयाङ्गतां स्मरन्ति । यथाहुः- न्योः प्रतिषेधान्याङ्कवम् इति । वाक्यपदीय वृषभदेवटीका भाग १, पृष्ठ ५५ ॥ विशेष देखो, पूर्व पृष्ठ ३० । ५. उणादिवृत्ति पृष्ठ १९१। ६. अमरटीका १।१।६६ पृष्ठ २७ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १५५ ६-कातन्त्रवृत्ति की दुर्गटीका में प्रापिशलि का निम्न श्लोक उद्धृत है प्रापिशलीयं मतं तुपादस्त्वर्थसमाप्तिर्वा ज्ञेयो वृत्तस्य वा पुनः । मात्रिकस्य चतुर्भागः पाद इत्यभिधीयते ॥' १०-त्रिलोचनदास कातन्त्रवृत्ति १।१।८ की पञ्जिका में प्रापिशलि का निम्न श्लोक उद्धृत करता हैतथा चापिशलीयाः पठन्तिसामीप्येऽथ व्यवस्थायां प्रकारेऽवयवे तथा। चतुर्वर्थेषु मेधावी प्रादिशब्दं तु लक्षयेत् ॥' इनमें प्रथम उद्धरण का संबन्ध प्रापिशल-शिक्षा के साथ है। षष्ठ उद्धरण निश्चय ही आपिशल व्याकरण का है । द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम उद्धरणों का सम्बन्ध यद्यपि आपिशल व्याकरण से है तथापि इनके मूल प्रापिशल सूत्र नहीं हैं । सम्भव है उसकी किसी वत्ति से ये वचन उद्धृत किये हों । सप्तम, अष्टम, नवम और १५ दशम उद्धरण उसके किसी कोश से लिये गए होंगे। __चतुर्थ उद्धरण की विशिष्टता -इस उद्धरण में दन्त्योष्ठ्य वकार का परिगणन कराया है। व-ब के उच्चारण दोष से संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है, उसकी निवृत्ति के लिये उक्त वचन पढ़ा गया है। अथर्व-परिशिष्टों में भी एक दन्त्योष्ठ्यविधि नाम का ग्रन्थ है। इस २० का भी यही प्रयोजन है । इस प्रकार के प्राचीन प्रयासों से ज्ञान होता है कि व-ब सम्बन्धी उच्चारण दोष अतिपुरातन हैं । ___ . आपिशल और पाणिनीय व्याकरण की समानता प्रापिशलि के जो सूत्र ऊपर उद्धृत किये हैं, उन से यह स्पष्ट है कि आपिशल और पाणिनीय व्याकरण दोनों परस्पर में बहुत समान २५ १. कातन्त्र पृष्ठ ४६१ । कातन्त्र परिभाषा वृत्ति द्र०—परिभाषसंग्रह '(पूना) पृष्ठ ६४। २. तुलना करो—'वाग्दिग्भूरश्मिवत्रेसु पश्वक्षिस्वर्गवारिषि । नवस्वर्थेसु मेधावी गोशणामवधारयेत् ॥' दशपादी उणादिवृत्ति २०११ में उद्धृत । इसी प्रकार के श्लोक दशपादी उणादिवृत्ति १।४७; ५।२६; ५।३० में भी उद्धृत हैं। ३० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हैं । यह समानता न केवल सूत्ररचना में है, अपितु अनेक संज्ञा, प्रत्यय और प्रत्याहार भी परस्पर सदृश हैं। ___ संज्ञाएं-उपरिनिर्दिष्ट सूत्रों में द्विवचन, विभाषा, गुण और सार्वधातुका, संज्ञाओं का उल्लेख है। पाणिनीय व्याकरण में भी ये ही संज्ञाएं हैं । केवल सार्वधातुका टाबन्त के स्थान में पाणिनि ने सार्वधातुक अकारान्त संज्ञा पढ़ी है। प्रत्यय-पूर्व उद्धृत सूत्रों में टाप. ठन और शप् प्रत्यय पढ़े हैं। ये ही प्रत्यय पाणिनीय व्याकरण में भी हैं । प्रत्याहार-सृष्टिधर ने उपरिनिर्दिष्ट आपिशलि का जो डेढ़ १० श्लोक उद्धृत किया है। उसके 'वहव्यवधां न भष' चरण में भष प्रत्याहार का निर्देश मिलता है । पाणिनि ने भी यही प्रत्याहार बनाया है। इन के अतिरिक्त प्रापिशलि के धातुपाठ और गणपाठ के जो उद्धरण उपलब्ध हुए हैं वे भी पाणिनोय धातुपाठ और गणपाठ से १५ बहत समानता रखते हैं। प्रापिशलि के व्याकरण में भी पाणिनीय व्याकरण के सदृश पाठ ही अध्याय थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' इतना ही नहीं, प्रापिशलशिक्षा और पाणिनीयशिक्षा के सूत्र परस्पर बहत सदृश हैं, दोनों का प्रकरणविच्छेद भी सर्वथा समान है। इस अत्यन्त सादृश्य से प्रतीत होता है कि पाणिनीय व्याकरण का प्रधान २० उपजीव्य आपिशल व्याकरण है। पदमञ्जरीकार हरदत्त तो इस बात को मुक्तकण्ठ से स्वीकार करता है । वह लिखता है___ कथं पुनरिदमाचार्येण पाणिनिनावगतमेते साधव इति ? प्रापिशलेन पूर्वव्याकरणेन । पाणिनिरपि स्वकाले शब्दान् प्रत्यक्षयन्नापिशलाविना पूर्वस्मि२५ न्नपि काले सत्तामनुसन्धत्ते, एवमापिलिरपि।' अन्य ग्रन्थ १. धातुपाठ-इसके उद्धरण महाभाष्य, काशिका, न्यास और १. देखो पूर्व पृष्ठ १५० । २. पदमञ्जरी (अथ शब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ६ । ३० ३. पदमञ्जरी (अथ शब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ७ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोय अष्टाध्यायो में स्मृत प्राचार्य १५७ पदमञ्जरी आदि कई ग्रन्थों में मिलते हैं । इसका विशेष वर्णन धातुपाठ के प्रकरण में किया है।' २. गणपाठ-इसका उल्लेख भर्तृहरि ने महाभाष्यदीपिका में किया है। इसका विशेष वर्णन गणपाठ के प्रकरण में देखें ।' ३. उणादिसूत्र--हमारा विचार है कि पञ्चपादो उणादिसूत्र ५ आपिशलि विरचित हैं। इस विषय पर उणादिप्रकरण में विस्तार से लिखा है। ४. शिक्षा--आपिशलशिक्षा का उल्लेख पाणिनीय शिक्षा में साक्षात् मिलता है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य की वैदिकाभरण टीका में आपिशलि का एक सूत्र उद्धृत है।' राजशेखरप्रणीत काव्यमीमांसा १० और वृषभदेवविरचित वाक्यपदीय की टीका में भी इसका निर्देश है। इसके अष्टम प्रकरण के २३ सूत्रों का एक लम्बा उद्धरण हेमचन्द्र ने अपने हैम शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति में दिया है। इस शिक्षा के दो हस्तलेख अडियार (मद्रास) के पुस्तकालय में १. द्र०-भाग २, अध्याय २०, आपिशल धातुपाठ ।। २. इह त्यादादीन्यापिशलैः किमादीन्यस्मत्पर्यन्यानि पूर्वापराघरेति ....। पृष्ठ २८७, हमारा हस्तलेख । तुलना करो --- 'त्यदादीनि पठित्वा गणे कैश्चितपूर्वादीनि पठितानि' । कयट, भाष्यप्रदीप १११।३३।। ३. द्र०-भाग २, अध्याय २३ । ४. द्र०-भाग २, अध्याय २४, 'प्रापिशल उणादिपाठ' । ५. स एवमापिशले: पञ्चदशभेदाख्या वर्णधर्मा भवन्ति । पाणिनीयशिक्षा वृद्ध-पाठ (हमारा संस्करण)सूत्र ८।२५ । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा उपलब्ध कोश में ८ वां प्रकरण लगभग सारा ही त्रुटित था । ६. 'शेषाः स्थानकरणाः' इत्यपिशलिशिक्षावचनात । ते० प्रा० २ । ४६, . पृष्ठ ६०। ७. शिक्षा प्रापिशलीयादिका। काव्यमीमांसा पृष्ठ ३ । २५ ८. तथेत्यापिशलीयशिक्षादर्शनम् । वाक्यपदीय वषभदेव टीका भाग १, पृष्ठ १०५ (लाहौर सं०) वृषभदेव जिसे प्रापिशलि सूत्र कहता है वह मुद्रित ग्रन्थ में कुछ भेद से मिलता है । सम्भव है भर्तृहरि ने उसका अर्थतः अनुवाद किया हो। ६. तथा चापिशलिः शिक्षामधीते-'नाभिप्रदेशात्..... बाह्यः प्रत्यत्न ३० इति' पृष्ठ ६, १०१ २० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हैं । यह मेहरचन्द लक्ष्मणदास भूतपूर्व लाहौर द्वारा प्रकाशित वैदिक • स्टडीज़ पत्रिका में छप चुकी है। इसका सम्पादन डाक्टर रघुवीरजी एम०ए० ने किया है । पाणिनीय और चान्द्र शिक्षा के साथ इस शिक्षा में पाणिनीय शिक्षा के समान ही आठ प्रकरण हैं। मैंने भी प्रापिशल-शिक्षा का एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उस में आपिशलशिक्षा के सूत्र जिन-जिन ग्रन्थों में उद्धृत हैं। उनका निर्देश नीचे टिप्पणी में कर दिया है। ५. कोश-यह अप्राप्य है। भानुजी दीक्षित के उपरिनिर्दिष्ट आठवें उद्धरण से स्पष्ट है कि आपिशलि ने कोई कोश भी रचा था । संख्या ७ और ६ का उद्धरण भी कोश से ही लिया गया है । ६. अक्षरतन्त्र-इस ग्रन्थ में सामगान सम्बन्धी स्तोभों का वर्णन है। इसका प्रकाशन पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने कलकत्ता से किया था।' ७. साम-प्रातिशाख्य-धातुवृत्ति (मैसूर संस्करण) के सम्पादक महादेव शास्त्री ने सामप्रातिशाख्य को प्रापिशलि-विरचित माना है।' १५ पर यह चिन्त्य है । द्र०-सं० व्या० शास्त्र का इतिहास, भाग २, अध्याय २८, सामप्रातिशाख्य प्रकरण । २-काश्यप (३००० वि० पूर्व) पाणिनि ने अष्टाध्यायी में काश्यप का मत दो स्थानोंपर उद्धृत २० किया है। वाजसनेय प्रातिशाख्य ४.५ में शाकटायन के साथ काश्यप का उल्लेख मिलता है । अतः अष्टाध्यायी और प्रातिशाख्य में उल्लिखित काश्यप एक व्यक्ति है, इस में कोई सन्देह नहीं । परिचय काश्यप शब्द गोत्रप्रत्ययान्त है । तदनुसार इस के मूल पुरुष का २५ नाम कश्यप है। १. द्र०-६० व्या० शास्त्र का इतिहास, अध्याय २८ । २. धातुवृत्ति की भूमिका पृष्ठ ३। ३. तृषिमृषिकृषः काश्यपस्य । अष्टा० ११२।२५।। नोदात्तस्वरितोदयमगार्य काश्यपगालवानाम् । अष्टा० ८।४।६७॥ ४. लोपं काश्यपशाकटायनी । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचाय काल पाणिनीय शब्दानुशासन में काश्यप का उल्लेख होने से इतना स्पष्ट है कि यह उससे पूर्ववर्ती है । वार्तिककार कात्यायन के मतानुसार अष्टाध्यायी ४ | ३ | १०३ में काश्यप कल्प का निर्देश है । " पाणिनि ने व्याकरण और कल्पप्रवक्ता का निर्देश करते हुए किसी ५ विशेषण का प्रयोग नहीं किया, इस से प्रतीत होता कि वैयाकरण कल्पकार दोनों एक हैं। यदि यह ठीक हो तो काश्यप का काल भारत युद्ध के लगभग मानना होगा, क्योंकि प्रायः शाखाप्रवक्ता ऋषियों ने ही कल्पसूत्रों का प्रवचन किया था, यह हम वात्स्यायनभाष्य के प्रमाण से पूर्व लिख आये हैं । 3 १५६ काश्यप व्याकरण 1 काश्यप व्याकरण का कोई सूत्र उपलब्ध नहीं हुआ । इस के मत का उल्लेख भी केवल तीन स्थानों पर उपलब्ध होता है । शुक्ल यजु:प्रातिशाख्य के अन्त में निपातों को काश्यप कहा है । हम इस के व्याकरण के विषय में इस से अधिक कुछ नहीं जानते । १५ १. काश्यपकौशिकाम्यामृषिभ्यां णिनिः । २. काश्यपकौशिकग्रहणं च कल्पे नियमार्थम् । महाभाष्य ४ |२|६६ ॥ | 1 हम इसी प्रकरण में श्रागे (पृष्ठ १६१ ) लिखेंगे कि न्यायवार्त्तिककार उद्योतकर कणादसूत्रों को काश्यपीय सूत्र के नाम से उद्धृत करता है । महामुनि कणाद का सम्बन्ध माहेश्वर - सम्प्रदाय के साथ है, यह प्रशस्तपाद-भाष्य के अन्त्य श्लोक से विदित होता है ।" यदि कणाद और व्याकरण प्रवक्ता काश्यप की एकता कथंचित् प्रमाणा- २० तर से परिपुष्ट हो जाये तो मानना होगा कि काश्यप व्याकरण का सम्बन्ध वैयाकरणों के माहेश्वर सम्प्रदाय के साथ है । १० ३. पूर्व पृष्ठ २१ - २४ । ४. निपातः काश्यपः स्मृतः प्र० ८ सूत्र ५१ के श्रागे । मद्रास संस्करण के • संस्कर्ता ने टीकाग्रन्थ के अन्तर्गत छापा है । ५. योगाचारविभूत्या यस्तोषयित्वा महेश्रम् । चक्रे वैशेषिकं शास्त्रं तस्मै कणभुजे नमः ॥ २५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अन्य ग्रन्थ १-कल्प- वात्तिककार कात्यायन के मतानुसार अष्टाध्यायी ४।३।१०३ में किसी काश्यप कल्प का उल्लेख है।' २. छन्दःशास्त्र-प्राचार्य पिङ्गल ने अपने छन्दःशास्त्र ७ । ६ में काश्यप का एक मत उद्धृत किया है। इस से विदित होता है कि काश्यप ने किसी छन्दःशास्त्र का प्रवचन किया था । फलमण्डी (भटिण्डा-पंजाब) के वैद्य श्री अमरनाथजी ने १९।५।६२ के पत्र में लिखा है कि काश्यप का छन्दःसूत्र उन के मित्र सरदार नन्दसिंहजी के पास है । बहत प्रयत्न करने पर भी उन्होंने दिखाना स्वीकार नहीं १० किया। विद्या के क्षेत्र में ऐसी संकुचित वृत्ति ग्रन्थों के नाश में प्रमुख कारण होती है। ३. आयुर्वेद संहिता-संवत् १९६५ में आयुर्वेद की काश्यप संहिता प्रकाशित हुई है । इस नष्टप्राय: कौमारभृत्य-तन्त्र के उद्धार का श्रेय नेपाल के राजगुरु पं० हेमराज शर्मा को है । उन्होंने महापरिश्रम करके एक मात्र त्रुटित ताडपत्रलिखित ग्रन्थ के आधार पर इस का सम्पादन किया है। ग्रन्थ की अन्तरङ्ग परीक्षा से प्रतीत होता है कि यह चरक सुश्रुत के समान प्राचीन आर्ष ग्रन्थ है । ४. शिल्प शास्त्र-कश्यप प्रोक्त शिल्प शास्त्र आनन्दाश्रम पूना से सन् १९२६ में प्रकाशित हो चुका है । ५. अलंकार शास्त्र-काश्यप के अलङ्कार शास्त्र का निर्देश भो अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। ६. पुराण-चान्द्रवृत्ति ३।३।७१ तथा सरस्वतीकण्ठाभरण ४ । ३।२२६ की टोका में किसी काश्यपोय पुराण का उल्लेख मिलता है। वायुपुराण ६११५६ के अनुसार वायुपुराण के प्रवक्ता का नाम १५ २० २५ १. पूर्व पृष्ठ १५६ टि० १, ३,। २. सिंहोन्नता काश्यपस्य ३. पूर्वेषां काश्यपवररुचिप्रभृतीनामाचार्याणां लक्षणशात्राणि संहृत्य पर्यालोच्य.....। काव्यादर्श, हृदयङ्गमा टीका। काव्यादर्श की श्रुतपाल को टीका में भी निर्देश मिलता है । 5.-काव्यप्रकाश हरिदत्त एकादशतीर्थ कृत हिन्दी टीका का प्रारम्भ। ४. कल्पंचेति किम ? काश्यपीया पुराणसंहिता । ३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचाय १६१ अकृतव्रण काश्यप था।' विष्णुपुराण की श्रीधर की टीका पृष्ठ ३६६ में पुराण प्रवक्ता अकृतव्रण को काश्यप कहा है । ७. काश्यपीय सूत्र - उद्योतकर अपने न्यायवार्तिक में कणादसूत्रों को काश्यपीय सूत्र के नाम से उद्धृत करता है । सम्भव है कणाद कश्यप गोत्रीय हो । व्याकरण, कल्प, छन्दःशास्त्र, आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र, अलंकारशास्त्र, पुराण और कणादसूत्रों का प्रवक्ता एक ही व्यक्ति है वा भिन्न-भिन्न, यह अज्ञात है। ३-गार्य (३१०० वि० पूर्व) पाणिनि ने अष्टाध्यायी में गार्य का उल्लेख तीन स्थानों पर किया। गार्य के अनेक मत ऋक्प्रातिशाख्य और वाजसनेय-प्रातिशाख्य में उपलब्ध होते हैं । उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण से विदित होता है कि गार्य का व्याकरण सर्वाङ्गपूर्ण था। परिचय __गार्य पद गोत्रप्रत्ययान्त है, तदनुसार इसके मूल पुरुष का नाम गर्ग था । गर्ग पूर्व निर्दिष्ट वैयाकरण भरद्वाज का पुत्र था । इससे अधिक इसके विषय में कुछ ज्ञात नहीं। .. अन्यत्र उल्लेख -किसी नरुक्त गार्ग्य का उल्लेख यास्क ने अपने निरुक्त में किया है। सामवेद का पदपाठ भी गार्यविरचित माना २० १. आत्रेयः सुमति/मान् काश्यपोऽयकृतव्रणः । २. तथा काश्यपीयम्-सामान्य-प्रत्यक्षाद विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस्मृतेश्च संशय इति । न्यायवर्तिक १।२।२३ पृष्ठ ६६ । यह वैशेषिक (२।२।१७) का सूत्र है। उद्योतकर विक्रम की प्रथम शताब्दी का ग्रन्थकार है। देखो, श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २ (सं० २०१७)पृष्ठ ३३८ । २५ ३. अड् गार्यगालवयोः । अष्टा० ७।३।६६। ओतो गाय॑स्य । ८।३।२०॥ नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्पगालवानाम् । अष्टा० ८।४१६७॥ ४. व्याडिशाकल्यगार्याः । १३॥३१॥ ५. ख्याते खयो कशी गार्ग्यः सख्योख्यमुख्यवर्जम् । ६. तत्र नामानि सर्वाण्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च न सर्वा- ३० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जाता है।' बृहद्देवता १।२६ में यास्क और रथीतर के साथ गाग्य का मत उद्धृत है । ऋक्प्रातिशाख्य और वाजसनेय प्रातिशाख्य में गाग्य के अनेक मतों का निर्देश है। चरक सूत्रस्थान १।१० में गाये का उल्लख है । नरुक्त गार्य और सामवेद का पदकार एक ही व्यक्ति हैं, यह हम अनुपद लिखेंगे। बृहद्देवता १।२६ में निर्दिष्ट गार्य निश्चित ही नैरुक्त गार्य है । प्रातिशाख्यों में उद्धृत मत वैयाकरण गार्ग्य के हैं, यह उन मतों के अवलोकन से निश्चित हो जाता है। यद्यपि नरुक्त गार्ग्य और वैयाकरण गार्य को एकता में निश्चायक प्रमाण उपलब्ध नहीं, तथापि हमारा विचार है दोनों एक ही हैं। १० एक दप्त बालाकि गार्य शतपथ १४।५।१।१ में उद्घत है। हरि वंश पृष्ठ ५७ के अनुसार शेशिरायण गार्य त्रिगर्तों का पुरोहित था। प्रश्नोपनिषद् ४।१ में सौर्यायणि गार्य का उल्लेख मिलता है । ये निश्चय ही विभिन्न व्यक्ति हैं । यह इनके साथ प्रयुक्त विशेषणों से स्पष्ट है। काल अष्टाध्यायी में गार्ग्य का उल्लेख होने से यह निश्चय ही पाणिनि से प्राचीन है। गाग्य का मत यास्कीय निरुक्त में उद्धृत है। यदि नैरुक्त और वैयाकरण दोनों गार्ग्य एक ही हों तो यह यास्क से भी प्राचीन होगा । यास्क का काल भारतयुद्ध के समीप है । अतः गार्य विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष प्राचीन है। सुश्रु त के टीकाकार डल्हण ने गार्य को धन्वन्तरि का शिष्य लिखा है, और उसके साथ गालव का निर्देश किया है। पाणिनीय व्याकरण में भी दो स्थानों पर णीति गार्यो वैयाकरणानां चैके । निरु० २।१२॥ अन्यत्र निरुक्त ११३॥१३॥३१॥ १. वहुवृचानां मेहना इत्येकं पदम् छन्दोगानां त्रीण्येतानि पदानि म+इह २५ +नास्ति । तदुभयं पश्यता भाष्यकारेणोभयोः शाकल्यगार्ययोरभिप्रायावत्रान विहितौ । दुर्गवृत्ति ४।४॥ मेहना एकमिति शाकल्यः, त्रीणीति गार्ग्यः । स्कन्दटीका ४॥३॥ २. चतुर्य इति तत्राहुर्यास्कगार्ग्यरथीतराः । आशिषोऽथार्थवरूप्याद काचः कर्मण एव च। ३. देखो पूर्व पृष्ठ १६१ की टि० ४,५ । ४. प्रभृतिग्रहणान्निमिकाङ्कायनगा→गालवाः ॥१॥३॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १६३ गार्य और गालव का साथ-साथ निर्देश मिलता है। क्या इस साहचर्य से वैद्य गार्ग्य गालव और वैयाकरण गाये गालव एक ह सकते है ? यदि इन की एकता प्रमाणान्तर से पुष्ट हो जाय तो गार्ग्य गालव का काल विक्रम से लगभग ५५०० वर्ष पूर्व होगा । __ गार्य का व्याकरण गार्य के व्याकरण का कोई सूत्र प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता । अष्टाध्यायी और प्रातिशाख्य में गाय के जो मत उदधत हैं उनसे विदित होता है कि गार्ग्य का व्याकरण सर्वाङ्गपूर्ण था। यदि सामवेद का पदकार ही व्याकरणप्रवक्ता हो तो मानना पड़ेगा कि गार्य का व्याकरण कुछ भिन्न प्रकार का था । सामपदपाठ में मित्र १० पुत्र' आदि अनेक पदों में अवग्रह करके अवान्तर दो-दो पद दर्शाए हैं, जो पाणिनीय व्याकरणानुसार (धातु प्रत्यय के संयोग से) एक ही पद हैं। सम्भव है शाकटायन के सदश गार्य ने भी एक पद को अनेक धातुओं से कल्पना की हो । गार्ग्य और शाकटायन का विरोध निरुक्त की दुर्गवृत्ति १।१३ में उपस्थिापित किया है। अन्य ग्रन्थ . प्राचीन वाङमय में गार्यविरचित निम्न ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है १. निरुक्त-यास्क ने अपने निरुक्त में तीन स्थान पर गार्य का मत उद्धृत किया है। बृहद्देवता १।२६ का मत भी निरुक्तशास्त्र- २० विषयक है। गाय के निरुक्त के विषय में श्री पं० भगवद्दत्तजी विरचित वैदिक वाङमय का इतिहास भाग १ खण्ड २ (संहितारों के भाष्यकार) पृष्ठ १६८ देखें। २. सामवेद का पदपाठ-सामवेद का पदपाठ गार्यकृत माना जाता है। निरुक्त के टीकाकार दुर्ग और स्कन्द का भो यही मत २५ है।" वाजसनेय प्रातिशाख्य ४।१७७ के उव्वट-भाष्य में गार्यकृत पदपाठ विषयक एक प्राचीन नियम उद्धृत है '. १. मित्रम् पृष्ठ १, मन्त्र ५। पुत् त्रस्य पृष्ठ १८८, मन्त्र २। २. पूर्व पृष्ठ १६१ टि० ६। ३. पूर्व पृष्ठ १६२ टि. २। ४. पूव पृष्ठ १६२ टि०१। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पुनरुक्तानि लुप्यन्ते पदानीत्याह शाकलः । लोप इति गार्ग्यस्य काण्वस्यार्थवशादिति ॥ ५ इस नियम के अनुसार गार्ग्य के पदपाठ में पुनरुक्त पदों का लोप नहीं होता । शाकल्य और माध्यन्दिन के पदपाठ में पुनरुक्त पदों का लोप हो जाता है । हमने इस नियम के अनुसार सामवेद के पदपाठ को देखा। उस में पुनरुक्त पदों का पाठ सर्वत्र मिलता है । अत: सामवेद का पदपाठ गाग्यंकृत ही है, इस में कोई सन्देह नहीं । गार्ग्यकृत पदपाठ के विशेष नियमों के परिज्ञान के लिये हमारा सम्पादित माध्यन्दिनसंहितायाः पदपाठ: के प्रारम्भ में पृष्ठ २४-२६ १० देखें | श्री पं० भगवद्दत्तजी ने अपने सुप्रसिद्ध वैदिक वाङ् मय का इतिहास भाग १, खण्ड २, पृष्ठ १५४ में सामवेदीय पदपाठ के कुछ पदों की यास्कीय निर्वचनों से तुलना की है । तदनुसार उन्होंने नैरुक्त और पदकार दोनों के एक होने की सम्भावना प्रदर्शित की है । हमने १५ भी वैदिक यन्त्रालय अजमेर से सं० २००६ में प्रकाशित सामवेद के षष्ठ संस्करण का संशोधन करते समय सामवेदीय पदपाठ की अन्य पदपाठों और यास्कीय निर्वचनों के साथ विशेषरूप से तुलना की । उस से हम भी इसी परिणाम पर पहुंचे कि सामवेदीय पदकार और नैरुक्त गाग्य एक है | ३० २० ३. शालाक्यतन्त्र - सुश्रुत के टीकाकार डल्हण के मतानुसार गार्ग्य धन्वन्तरि का शिष्य है ।' उसने शालाक्य तन्त्र की रचना की थी । सम्भवतः वैद्य गार्ग्य और वैयाकरण गार्ग्य दोनों एक व्यक्ति हैं, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। एक गार्ग्य चरक सूत्रस्थान १।१० में भी स्मृत है। २५ ४. भू-वर्णन - गार्ग्य ने भूवर्णन विषयक कोई ग्रन्थ लिखा था, उसी के अनुसार वायुपुराण ३४१६३ में 'मेरुकणिका - वर्णन प्रकरण में उसे 'ऊर्ध्ववेणीकृत' दर्शाया है। ५. तक्ष- शास्त्र - आपस्तम्ब ने अपने शुल्बसूत्र में एक श्लोक उद्किया है। टीकाकार करविन्दाधिप के मत में वह श्लोक गार्ग्य धृत १. द्र० पूर्व पृष्ठ १६२ टि० ४ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचार्य १६५ के तक्षशास्त्र का है ।' ६. लोकायत - शास्त्र - गणपति शास्त्री ने अर्थशास्त्र की किसी प्राचीन टीका के अनुसार अपनी व्याख्या में लिखा है - लोकायतं न्यायशास्त्र, ब्रह्मगायं प्रणीतम् । भाग १, पृष्ठ २७ । ७. देवर्षि चरित - महाभारत शान्तिपर्व २१० २१ में गार्ग्य को ५ देवर्षिचरित का कर्ता कहा है ।" ८. साम-तन्त्र — पं० सामव्रत सामश्रमी ने अक्षरतन्त्र की भूमिका में गाय को सामतन्त्रका प्रवक्ता लिखा है । किसो हरदत्तविरचित सर्वानुक्रमणी में सामतन्त्र को प्रदवजि प्रोक्त कहा है । 3 1 १० इन में निरुक्त, सामपदपाठ निश्चय ही वैयाकरण गार्ग्य कृत है, शेष ग्रन्थों के विषय में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते । । ४ – गालव (३१०० वि० पू० ) पाणिनि ने अष्टाध्यायी में गालव का उल्लेख चार स्थानों में किया है। पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति ६ । १।७७ में गालव का व्याक - १५ रण सवन्धी एक मत उद्धृत किया है। इनसे विस्पष्ट है कि गालव ने कोई व्याकरणशास्त्र रचा था । परिचय गालव का कुछ भी परिचय हमें प्राप्त नहीं होता । यदि गालव शब्द अन्य वैयाकरण नामों के सदृश तद्धितप्रत्ययान्त हो तो इसके २० १. वेदार्थावगमनस्य बहुविद्यान्तराश्रयत्वात् तक्षशास्त्रे गार्ग्यागस्त्यादिभिरङ्गुलिसंख्योक्त' रथपरिमाणश्लोक मुदाहरन्ति – प्रथापि । मैसूर संस्क० पृष्ठ९६ । २. देवर्षिचरितं गार्ग्यः । चित्रशाला प्रेस पूना । .. ३. पूर्व पृष्ठ ७४ । तथा इसी ग्रन्थ का दूसरा भाग अ० २८ । ४. इको ह्रस्वोऽङयो गालवस्य । अष्टा० ६ | ३ | ६१ ॥ तृतीयादिषु भाषित- २५ पुस्कं पु ंवद् गालवस्य । अष्टा० ७ | १ |७४ | | अड गार्ग्यगालवयोः अष्टा० ७|३| && ॥ नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम् । श्रष्टा ८२४५६७ ॥ ५. इकां यभिर्व्यवधानंव्याडिगालवयोरिति वक्तव्यम् । दधियत्र, दध्यत्र; मधुवत्र, मध्वत्र । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पिता का नाम गलव वा गलु होगा। महाभारत शान्तिपर्व ३४२। १०३, १०४ में पाञ्चाल बाभ्रव्य गालव' को क्रमपाठ और शिक्षा का प्रवक्ता कहा है। शिक्षा का संबन्ध व्याकरणशास्त्र के साथ है। प्रसिद्ध वैयाकरण आपिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमो ने भो शिक्षाग्रन्थों का प्रवचन किया है । तदनुसार यदि शिक्षा का प्रणेता पाञ्चाल बाभ्रव्य गालव ही व्याकरणप्रवक्ता हो तो गालव का बाभ्रव्य गोत्र होगा और पाञ्चाल उसका देश । सुश्रुत के टीकाकार डल्हण ने गालव को धन्वन्तरि का शिष्य कहा है । यदि यही गालव व्याकरणप्रवक्ता हो तो गालव का एक प्राचार्य धन्वन्तरि होगा । अन्यत्र उल्लेख–निरुक्त बृहद्देवता', ऐतरेय पारण्यक और वायु-पुराण में गालव के मत उधृत हैं । चरक संहिता के प्रारम्भ में भी गालव का उल्लेख है। काल अष्टाध्यायी में गालव का उल्लेख होने से निश्चित है कि वह १५ पाणिनि से प्राचीन है । हमारे मत में महाभारत में उल्लिखित पाञ्चाल बाभ्रव्य गालव ही शब्दानुशासन का प्रवक्ता है । यही निरुक्त-प्रवक्ता भी है । अतः उसका काल शौनक और भारत-युद्ध से प्राचीन है। बृहद्देवता १।२४ में गालव को पुराण कवि कहा है। यदि १. कई बाभ्रव्य पाञ्चाल और गालव को पृथक् मानते हैं। परन्तु हमारा मत है कि ये तीनों शब्द एक ही व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हैं । विशेष द्र. वैदिक वाङ्मय का इतिहास, भाग १, पृष्ठ १९०-१६१ (द्वि० सं०)। २. पाञ्चालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद् भूतात् सनातनात् । बाभ्रव्यगोत्र: स बभूव प्रथम क्रमपारगः । नारायणाद् वरं लब्ध्वा प्राप्य योगमुत्तमम् । क्रम प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालव: ॥ ३. पूर्व पृष्ठ १६२ टि० ४। ४. शितिमांसतो मेदस्त इति गालव: ४१३॥ । ५. ११२४॥ ५॥३६॥ ६॥४३॥ ७॥३८॥ ६. नेदमकस्मिन्नहनि समापयेदिति जातुकर्ण्य: । समापयेदिति गालवः । ॥३३॥ ७. शरावं चैव गालवः । ३४ । ६३ ॥ ८. सूत्रस्थान ११० ॥ । ६. नवभ्य इति नैरुक्ता: पुराणा: कवयश्च ये । मघुक: श्वेतकेतुश्च गालव"श्चैव मन्यते ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोय अष्टाध्यायो में स्मृत प्राचार्य १६७ धन्वन्तरि शिष्य गालव ही शब्दानुशासन का प्रवक्ता होवे तो गालव का काल धन्वन्तरि शिष्य गार्य के समान (द्र० पृष्ठ १६२) विक्रम से लगभग साढे पांच सहस्र वर्ष पूर्व होगा। गालव व्याकरण हम पूर्व (पृष्ठ १६५) गालव का एक मत उद्धृत कर चुके हैं- ५ इकां यण्भिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्तव्यम् । यह वचन पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति ६।११७७ में उद्धृत किया है । तदनुसार लोक में 'दध्यत्र मध्वत्र' के स्थान में 'दधियत्र मधुवत्र' प्रयोग भी साधु हैं । यह यण्व्यवधानपक्ष प्राचार्य पाणिनि से भो अनुमोदित है । पाणिनि ने 'भूवादयो धातवः" सूत्र में वकार का व्यवधान किया है। १० हम इस विषय पर पूर्व विस्तार से लिख चुके हैं। अन्य ग्रन्थ १. संहिता-शैशिरि-शिक्षा के प्रारम्भ में गालव को शौनक का शिष्य और शाखा का प्रवर्तक कहा है। शिक्षा का पाठ अत्यन्त भ्रष्ट २. ब्राह्मण-देखो पं० भगवद्दत्तजी कृत वैदिक वाङमय का इतिहास भाग २ पृष्ठ ३० । ३. क्रम-पाठ-महाभारत शान्तिपर्व ३४२।१०३ में पाञ्चाल बाभ्रव्य गालव को क्रमपाठ का प्रवक्ता कहा है। ऋक्प्रातिशाख्य ११।६५ में इसे प्रथम क्रमप्रवक्ता लिखा है। ४. शिक्षा-महाभारत शान्तिपर्व ३४२।१०४ के अनुसार गालव ने शिक्षा का प्रणयन किया था। १. अष्टा० १॥३॥१॥ २. देखो पूर्व पृष्ठ २८,२६ । . ३. मुद्गलो गालवो गार्यः शाकल्यः शैशिरिस्तथा । पञ्च शौनकशिष्यास्ते शाखाभेदप्रवर्तकाः । वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १ पृष्ठ १८७, (द्वि० . २५ सं०)पर उद्धृत । श्री पं० भगवद्दत्तजी ने अनेक पुराणों के आधार पर पाठ का संशोधन करके इसे शाकल्य का शिष्य माना है। वै० वा० इ० भाग १ पृ० १८७ (द्वि० सं०) ॥ ४. पूर्व पृष्ठ १६६ टि० २। ५. इति प्र बाभ्रव्य उवाच च क्रमं क्रमप्रवक्ता प्रथमं शशंस च । इसकी व्याख्या में उव्वट ने लिखा है-बाभ्रव्यो बभ्रुपुत्रो भगवान् पाञ्चाल इति। ३० , ६. पूर्व पृष्ठ १६६ टि० २ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५. निरुक्त -यास्क ने अपने निरुक्त ४।३ में गालव का एक निर्वचनसबन्धी पाठ उदधृत किया है। उससे प्रतीत होता है कि गालव ने कोई निरुक्त रचा था। इस विषय में श्री पं० भगवद्दत्तजी विर चित वैदिक वाङ् मय का इतिहास भाग १ खण्ड २ पृष्ठ १७६-१८० ५ देखें। ६. देवत ग्रन्य-बृहद्देवता में चार स्थान पर गालव का · मत उद्धृत है। उनमें से १ । २४ में गालव को पुराण कवि कहा है।' यह मत निर्वचनसंबन्धो है। शेष तोन स्थान पर ऋचाओं के देवता संबन्धी मतों का निर्देश है। उनसे प्रतीत होना है कि गालव ने स्व१० प्रोक्त संहिता के किसी अनुक्रमणी गन्थ का भी प्रवचन किया था । ७. शालाक्य-तन्त्र-धन्वन्तरि शिष्य गालव ने शालाक्य-तन्त्र की रचना को थी। सुश्रुत के टीकाकार डल्हण ने इसका निर्देश किया ८. कामसूत्र-वात्स्यायन कामसूत्र ११:१० में लिखा है १५ पाञ्चाल बाभ्रव्य ने सात अधिकरणों में कामशास्त्र का संक्षेप किया था। ____६. भू-वर्णन-वायुपुराण ३४।६३ में मेरुकणिका के वर्णन में गालव का मत उल्लिखित है । तदनुसार उसके मत में 'मेरुकणिका का आकार 'शराव' के सदृश है-शरावं चैव गालवः । इस से प्रतीत होता है कि गालव का कोई भूवर्णन भी था । भूवर्णन ज्योतिष का का अंग है । अतः सम्भव है गालव ने कोई ज्योतिष संहिता लिखी हो। ५-चाक्रवर्मण (३००० वि० पूर्व) २५ चाक्रवर्मण प्राचार्य का नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी तथा उणादिसूत्रों में मिलता है । भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ में १. पूर्व पृष्ठ १६६ टि० ४। २. पूर्व पृष्ठ १६६ टि० ५ । ३. पूर्व पृष्ठ १६६ टि०६। ४. पूर्व पृष्ठ १६२ टि० ४। ५: सप्तभिरधिकरणर्बाभ्रव्यः पाञ्चालः संचिक्षेप । ६. ई चाक्रवर्मणस्य । अष्टा ६।१११३०॥ ७. कपश्चाक्रवर्मणस्य । पञ्च० उ० ३।१४४।। दश० उ० ७११॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचार्य १६६ इसका एक मत उद्धृत किया है ।' श्रीपतिदत्त ने कातन्त्र परिशिष्ट के 'हेतौ वा' सूत्र की वृत्ति में चाक्रवर्मण का उल्लेख किया है | इनसे इस का व्याकरणप्रवक्तृत्व विस्पष्ट है । परिचय वंश - चाक्रवर्मण पद अपत्यप्रत्ययान्त है । तदनुसार इस के पिता ५ का नाम चक्रवर्मा था । गुरुपद हालदार ने वायुपुराण के अनुसार चक्रवर्मा को कश्यप का पौत्र लिखा है । 3 काल यह आचार्य पाणिनि से प्राचीन है इतना निश्चित है | पञ्चपादी उणादि-सूत्र प्रापिशलि की रचना है, यह हम उणादि - प्रकरण में १० लिखेंगे। हम ऊपर लिख चुके हैं कि उणादि ( ३ | १४४ ) में चाक्रवर्मण का उल्लेख है । अतः इस का काल आपिशलि से भी पूर्व अर्थात् विक्रम से तीन सहस्र वर्ष पूर्व अवश्य मानना होगा । चाक्रवर्मण-व्याकरण १५ इस व्याकरण का अभी तक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं हुआ । द्वय की सर्वनाम संज्ञा -- पाणिनीय मतानुसार 'द्वय' पद की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती । भट्टोजि दीक्षित ने माघ १२ । १३ प्रयुक्त 'द्वयेषाम्' पद में चाक्रवर्मण व्याकरणानुसार सर्वनामसंज्ञा का उल्लेख किया है । और 'नियतकालाः स्मृतय:' इस नियम के अनुसार उसका साधुत्व प्रतिपादन किया है। इससे प्रतीत होता है कि चाक्रवर्मण २० आचार्य के व्याकरणानुसार द्वय पद की सर्वनाम संज्ञा होती थी । आधुनिक वैयाकरण 'नियतकालाः स्मृतय:' इस नियम के अनुसार १. ११/२७, तथा टि० ४ । २. काशिका ६ । ४ । १७० ॥ ३. व्याकरण दर्शनेर इतिहास पृष्ठ ५१६ । ४. यत्तु कश्चिदाह चाकवर्मणव्याकरणे द्वयपदस्यापि सर्वनामताभ्युपगमात् २५ तद्रीत्या श्रयं प्रयोग इति, तदपि न । मुनित्रयमतेनेदानीं साध्वसाधुविभागः । तस्यैवेदानींतन शिष्टैर्वेदाङ्गतया परिगृहीतत्वात् । दृश्यन्ते हि नियतकाला: स्मृतयः । यथा कली पाराशरी स्मृतिरिति । शब्दको० ११ १२७ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पाणिनि आदि मुनित्रय के मत से शब्द के साधुत्व-प्रसाधुत्व की व्यवस्था मानते हैं । यह मत वस्तुतः चिन्त्य है । यह हम पूर्व संकेतित कर चुके हैं।' महाभाष्य आदि प्रामाणिक ग्रन्थों में भी इस प्रकार का कोई वचन नहीं मिलता। नियतकालाः स्मृतयः का अप्रामाण्य–पाणिनीय वैयाकरण सब शब्दों को नित्य मानते हैं। ऐसी अवस्था में प्राचीनकाल में साधु माने हुए शब्द को उत्तर काल में असाध मानना उपपन्न नहीं हो सकता । हां, यदि शब्दों को प्रनित्य मानें तो देश काल और उच्चारण भेद से शब्द के विकृत हो जाने पर उक्त व्यवस्था मानी जा सकती है, परन्तु ऐसी कल्पना करने पर दो दोष उपस्थित होते हैं । एक वैयाकरणों को अपने शब्दनित्यत्वरूपी मुख्य सिद्धान्त से हाथ धोना पड़ता है और विकृत शब्दों को साधु मानना पड़ता है । अतः इस प्रकार के नियमों की कल्पना करने पर सब से प्रथम स्वसिद्धान्त की हानि तथा विकृत हुए शब्दों की साधुता स्वीकार करनी होगी। यदि 'नियत१५ कालाः स्मृतयः' के नियम से प्रयोग को व्यवस्था मानी जाय अर्थात् अमुक शब्द अमुक समय प्रयोगाह है अमुक समय में नही, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इस व्यवस्था के मानने पर 'अस्त्यप्रयुक्तः' के उत्तर में महाभाष्यकार ने जो विस्तार से शब्द के महान्प्र योग विषय का उल्लेख किया है, वह उपपन्न नहीं हो सकता । अतः नवीन २० लोगों को इस प्रकार के नियमों का बनाना चिन्त्य है। वस्तुतः नियतकालाः स्मृतयः नियम धर्मशास्त्र विषयक है। क्योंकि देश काल के अनुसार सामाजिक नियमों में परिवर्तन होता रहता है । अतः तदनुसार स्मृतियों में भी कुछ-कुछ परिवर्तन होना स्वाभाविक है। २५ १. पूर्व पृष्ठ ३७ टि. १। २. सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे । महाभाष्य अ १ पा० १ प्रा० १॥ सर्वे सर्वपदादेशाः दाक्षिपुत्रस्य पाणिनेः । एकदेशविकारे हि नित्यत्वं नोपपद्यते । महाभाष्य १११॥२०॥ ३. महाभाष्य अ० १ पा० १ प्रा० १, ।। ४. 'महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः' आदि ग्रन्थ । महाभाष्य अ०१ पा० १० १॥ ३० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचाय १७१ अब रही द्वय पद की सर्वनाम संज्ञा । महाभाष्य ने 'द्वये प्रत्यया विधीयन्ते तिङश्च कृतश्च" इस वाक्य में द्वय पद की सर्वनाम संज्ञा मानी है। यद्यपि यहां द्वय पद को स्थानिवद्भाव से तयप्प्रत्ययान्त मानकर 'प्रथमचरमतयाल्पार्ध०२ सूत्र से जस्विषय में इस की विकल्प से सर्वनाम संज्ञा मानी जा सकती है, तथापि अाधुनिक वैयाकरणों के ५ 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" इस द्वितीय नियम से 'प्रथमचरम०' सूत्र से द्वय शब्द को सर्वनाम संज्ञा नहीं हो सकती, क्योंकि महाभाष्यकार ने 'द्वय' पद में होने वाले 'प्रयच्' को स्वतन्त्र प्रत्यय माना है न कि तयप का आदेश । अतः यहां 'प्रथचरम०' सूत्र की प्रवत्ति नहीं हो सकती। महाभाष्यकार के मत में द्वय पद को सर्वनाम संज्ञा होती है १० यह पूर्व उद्धरण से व्यक्त है। इसीलिये चन्द्रगोमी ने अपने व्याकरण में 'प्रथमचरम०' सूत्र में 'अय' अंश का प्रक्षेप करके 'प्रथमचरमतयायाल्पार्ध" ऐसा न्यासान्तर किया है । 'ययोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' इस नियम में भी वे ही पूर्वोक्त दोष उपस्थित होते हैं, जो 'नियतकालाः स्मृतयः' में दर्शाए हैं । आधुनिक १५ वैयाकरणों के उपर्युक्त दोनों नियम शास्त्रविरुद्ध होने से अशुद्ध हैं, यह स्पष्ट है । अतः किसी भी शिष्टप्रयोग को इन नियमों के अनुसार अशुद्ध बताना दुःसाहसमात्र है। नवीन वैयाकरणों के इस मत की पालोचना प्रक्रियासर्वस्व के रचयिता नारायण भट्ट ने 'अपाणिनीयप्रामाणिकता' नामक लघु ग्रन्थ में भले प्रकार की है। वैयाकरणों को २० यह ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिए। प्राचीन आर्ष वाङमय में शिष्ट-प्रयुक्त शब्दों के साधुत्व ज्ञान के लिए हमारा 'पादिभाषायां प्रयुज्यमानानाम् अपाणिनीयपदानां साधुत्वविवेचनम्' निवन्ध देखिए। १. महाभाष्य २।३।६५॥ ६।२।१३६॥ २. अष्टा० १।१।३३॥ २५ ३. भाष्यप्रदीपविवरण ३३११८०॥ ४. अयच प्रत्ययान्तरम् । महाभाष्य ११११४४,५६॥ । ५. चान्द्र व्याक २।१।१४।। हेमचन्द्र ने भी 'अय' का पृथग्ग्रहण किया है। उदाहरण में त्रय शब्द की भी विकल्प से सर्वनाम संज्ञा मानी है। देखो हैम बृहदवृत्ति १४।१०॥ ६. यह ग्रन्थ 'ब्रह्मविलास मठ पेरुरकाडा ३० ट्वेिण्ड्रम' से प्रकाशित हुआ है। इसे इस ग्रन्थ के तीसरे भाग में देखें । ७. द्र० -वेदवाणी, वर्ष १४, अङ्क १,२,४,५ । यह लेख शीघ्र प्रकाशित Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६-भारद्वाज (३००० वि० पूर्व) भारद्वाज का उल्लेख पाणिनीय तन्त्र में केवल एक स्थान पर मिलता है।' अष्टाध्यायी ४।२।१४५ में भी भारद्वाज शब्द पाया जाता है, परन्तु काशिकाकार के मतानुसार वह भारद्वाज पद देशवाची है, आचार्यवाची नहीं। भारद्वाज का व्याकरणविषयक मत तैत्तिरीय प्रातिशाख्या १७।३ और मैत्रायणीय प्रातिशाख्य २१५६ में मिलता ५ परिचय भारद्धाज के पूर्व पुरुष का नाम भरद्वाज है । सम्भवतः यह १० भरद्वाज वही है जो इन्द्र का शिष्य दीर्घजीवी अनूचानतम भरद्वाज था। चतुर्वेदाध्यायो न्यायमञ्जरी में जयन्त भारद्वाज को चतुर्वेदाध्यायी कहता हैं । अनेक भारद्वाज-प्रश्नोपनिषद् ६१ में सुकेशा भारद्वाज का उल्लेख है, यह हिरण्यनाभ कौसल्य का समकालिक है बृहदारण्यक १५ उपनिषद् ४३११५ में गर्दभी विपीत भारद्वाज का निर्देश है, यह याज्ञ वल्क्य का समकालिक है। कृष्ण भारद्वाज का उल्लेख काश्यप संहिता सूत्रस्थान २७।३ में मिलता है । द्रोण भारद्वाज द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध ही है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी भारद्वाज के अनेक मत उद्धृत है । टीकाकारों के मतानुसार वे मत द्रोण भारद्वाज के हैं । भारद्वाज देश-काशिकाकार जयादित्य के मतानुसार अष्टाध्यायी ४।२।१४५ में भारद्वाज देश का उल्लेख है। वायुपुराण ४५॥ ११६ में उदीच्य देशों में भारद्वाज देश की गणना की है।" होने वाले 'मीमांसक लेखावली' के दूसरे भाग में भी छपेगा। १. ऋतो भारद्वाजस्य । अष्टा० ७।२।६३॥ २. कृकर्णपर्णाद् भारद्वाजे । ३. भारद्वाजशब्दोऽपि देशवचन एव, न गोत्रशब्दः । काशिका ४।२।१४५॥ ४. अनुस्वारेऽण्विति भारद्वाजः । ५. चतुर्वेदाध्यायी भारद्वाज इति । पृष्ठ २५६, लाजरस प्रेस काशी । ६. १।८॥१॥१५॥ १।१७॥५॥६॥ ३॥ ७. पात्रेयाश्च भरद्वाजाः प्रस्थलाश्च कसेरुकाः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १७३ काल हम ऊपर अनेक भारद्वाजों का उल्लेख कर चुके हैं। अष्टाध्यायी में केवल गोत्रप्रत्ययान्त भारद्वाज शब्द से निर्देश किया है। अतः जब तक यह निर्णीत न हो कि वह कौन भारद्वाज है तब तक उसका कालज्ञान होना कठिन है । हमारे विचार में यह भारद्वाज दीर्घजीवी- ५ तम अनूचानतम वैयाकरण भरद्वाज बार्हस्पत्य का पुत्र द्रोण भारद्वाज है । द्रोणाचार्य की आयु भारतयुद्ध के समय ४०० वर्ष की थी, ऐसा महाभारत में स्पष्ट लिखा है।' पुनरपि पाणिनीय अष्टक में भारद्वाज का साक्षात् उल्लेख होने से निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह विक्रम से ३००० वर्ष प्राचीन अवश्य है। भारद्वाज व्याकरण इस व्याकरण के केवल दो मत ही प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । उनसे इसके स्वरूप और परिमाण आदि के विषय में कोई विशेष ज्ञान नहीं होता । वाजसनेय प्रातिशाख्या अ०८ के अन्त में आख्यातों को भारद्वाज-दृष्ट कहा है । उसका अभिप्राय मृग्य है। १५ भारद्वाज वार्तिक-महाभाष्य में बहुत स्थानों पर भारद्वाजोय वार्तिकों का उल्लेख मिलता है। वे प्रायः कात्यायनीय वार्तिकों से मिलते हैं और उनकी अपेक्षा विस्तृत तथा विस्पष्ट हैं । हमारा विचार है ये भारद्वाज वातिक पाणिनीय अष्टाध्यायी पर लिखे गये हैं। इसके कई प्रमाण वार्तिककार भारद्वाज प्रकरण में लिखगे। २० अन्य ग्रन्थ प्रायुर्वेद संहिता- भारद्वाज ने कायचिकित्सा पर एक संहिता रची थी। इसके अनेक उद्धरण आयुर्वेद के टीकाग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। अर्थशास्त्र-चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में भारद्वाज के अनेक २५ १. वयसाऽशीतिपञ्चक: (८०४५=४००) । द्रोण पर्व १२५४७३, १९२१६४॥ विशेष द्र०-भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग १ पृष्ठ १५० (द्वि० सं)। २. महाभाष्य १।१।२०,५६।। ३।११३८॥ इत्यादि । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० २० १७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास मत उद्धृत किये हैं ।" टीकाकारों के मतानुसार वे द्रोण भारद्वाज के हैं । यह हम पूर्व लिख चुके हैं । वंश - महाभाष्य ३ | ३ | १ में शाकटायन के पिता का नाम शकट लिखा है । पाणिनि ने शकट शब्द नडादिगण" में पढ़ा है । वैयाकरणों के मतानुसार शकट उसके पितामह का नाम होना चाहिये, परन्तु वैयाकरणों की गोत्राधिकार को वर्तमान व्याख्या सम्पूर्ण प्राचीन १५ इतिहास गोत्र प्रवराध्याय से न केवल विपरीत ही है अपितु गोत्रधिकार प्रत्ययों का अनन्तरापत्य में दृष्ट प्रयोगों की उपपत्ति में क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ती है अतः यह व्याख्या त्याज्य है । गोत्राधिकार विहित प्रत्यय अनन्तर अपत्य में भी होते हैं, और पौत्रप्रभृति अपत्यों के लिए इन्हीं गोत्राधिकार विहित प्रत्ययों का प्रयोग होता है, २५ - शाकटायन ( ३००० वि० पू० ) पाणिनि ने अष्टाध्यायी में शाकटायन का उल्लेख तीन बार किया है ।" वाजसनेयप्रातिशाख्य' तथा ऋक्प्रातिशाख्य' में भी इसका अनेक स्थानों में निर्देश मिलता है । यास्क ने अपने निरुक्त में क्याकरण शाकटायन का मत उद्धृत किया है ।" पतञ्जलि ने स्पष्ट शब्दों में शाकटायन को व्याकरणशास्त्र का प्रवक्ता कहा है । परिचय १. द्र० पूर्व पृष्ठ १७२ टि०६ । २. लङः शाकटायनस्यैव । श्रष्टा० ३ | ४|१११ || व्योलंघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य । भ्रष्टा० ८|३|१८|| त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य । अष्टा० ८|४|५०॥ ३. ३।६,१२,८७ ॥ इत्यादि ॥ ४. १।१६।१३।३६ ॥ ५. तत्रनामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तयनयश्च । निरु० ११२ ॥ ६. व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । महाभाष्य ३ | ३ | १|| वैयाकरणानां शाकटायनो । महाभाष्य ३ । २ । ११५ ।। . व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । ७. ८. नडादिभ्यः फक् । प्रष्टा० ४ १६६ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचाय १७५ अन्य प्रत्ययों का नहीं। इतना ही शास्त्रकार पाणिनि का अभिप्राय वर्धमान ने शकट का अर्थ शकटमिव भारक्षमः किया है। शाकटायन और काण्व-अनन्तदेव ने शुक्लयजुः-प्रातिशाख्य ४। १२६ के भाष्य में पुराण के अनुसार शाकटायन को काण्व का शिष्य ५ कहा है और पक्षान्तर में उसे ही काण्व बताया है। पुनः शुक्लयजु:प्रातिशाख्य ४।१६१ के भाष्य में लिखा है कि शाकटायन काण्व का पर्याय है मत युक्त नहीं है। संस्काररत्नमाला में भट्ट गोपीनाथ ने गोत्रप्रवर प्रकरण में दो शाकटायनों का उल्लेख किया है। एक वाघ्रयश्ववंश्य और दूसरा काण्ववंश्य । इन से इतना निश्चित है कि शाकटायन का १० संबन्ध काण्व वंश के साथ अवश्य है। हमारा विचार है शुक्लयजूःप्रातिशाख्य और अष्टाध्यायी में स्मत शाकटायन काण्ववंश का हैं। यदि यह बात प्रमाणान्तर से और पुष्ट हो जाय तो शाकटायन का समय निश्चित करने में बहुत सुगमता होगी। __ मत्स्य पुराण १६६।४४ के निर्देशानुसार कोई शाकटायन गोत्र १५ आङ्गिरस भी है। प्राचार्य-हम ऊपर लिख चुके हैं कि अनन्तदेव पुराणानुसार शाकटायन को काण्व का शिष्य मानता है। परन्तु शैशिरि शिक्षा के प्रारम्भ में उसे शैशिरि का शिष्य कहा है १. इस का सोपपत्तिक वर्णन हम अष्टाध्यायी की वैज्ञानिक व्याख्या में २० करंग । २. गणरत्नमहोदधि पृष्ठ १४६ । ३. असौ पदस्य वकारो न लुप्यते असस्थाने स्वरे परे शाकटायनस्याचार्यस्य मतेन । काण्वशिष्यः सः; पुराणे दर्शनात् । तेन शिष्याचार्ययोरेकमतत्वात् काण्वमतेनाप्ययमेव । यद्वा शाकटायन इति काण्वाचार्यस्यैव नामान्तरमुदा- २५ हरणम् । ४. यद्वा सुपदेऽशाकटायनः इति अप्रश्लेषेण सूत्रं व्याख्यायते । नेदं काण्वमतमिति कैश्चिदुक्तम्, शाकटायन इति शब्दस्य काण्वपर्यायत्वात् 'परिण इति शाकटायन (वा० प्र० ३८७) इत्यादौ तथा दृष्टत्वादिति निरस्तम् । ५. संस्काररत्न माला पृष्ठ ४३०। ६. संस्काररत्नमाला पृष्ठ ४३७ । ३० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शैशिरस्य तु शिष्यस्य शाकटायन एव च ।' यद्यपि इस श्लोकांश और एतत्सहपठित अन्य श्लोकों का पाठ बहुत भ्रष्ट अशुद्ध है, तथापि इतना व्यक्त होता है कि शाकटायन शैशिरि या उस के शिष्य का शिष्य था। इन श्लोकों की प्रामाणिकता अभी विचारणीय है । तथा इस में किस शाकटायन का उल्लेख है यह भी अज्ञात है। पुत्र-वामन काशिका ६।२।१३३ में 'शाकटायनपुत्र उदाहरण देता है । यही उदाहरण रामचन्द्र और भट्टोजि दीक्षित ने भी दिया १० जीवन की विशिष्ट घटना-शाकटायन के जीवन की एक घटना महाभाष्य ३।२।११५ में इस प्रकार लिखी है अथवा भवति वै कश्चिद् जाग्रदपि वर्तमानकालं नोपलभते । तद्धथा-वैयाकरणानां शाकटायनो रथमार्ग प्रासीन: शकटसार्थ यन्तं नोपलेभे। १५. अर्थात्-जागता हुप्रा भो कोई पुरुष वर्तमाल काल को नहीं ग्रहण करता । जैसे रथमार्ग पर बैठे हुए वैयाकरणों में श्रष्ठ शाकटायन ने सड़क पर जाते हुए गाड़ियों के समूह को नहीं देखा । महाभाष्य में इस घटना का उल्लेख होने से प्रतीत होता है कि शाकटायन के जीवन की यह कोई महत्त्वपूर्ण लोकपरिज्ञात घटना है। २० अन्यथा इसका उदाहरण रूप से उल्लेख न होता। श्रेष्ठत्व-काशिका ११४८६ में एक उदाहरण है-'अनुशाकटायनं वैयाकरणा:' अर्थात् सब वैयाकरण शाकटायन से हीन हैं। काशिका ११४।८७ में इसी भाव का दूसरा उदाहरण 'उपशाकटायन वैयाकरणाः' मिलता हैं। २५ श्रेष्ठता का कारण-निरुक्त १११२ तया महाभाष्य ३३।१ से विदित होता है कि वैयाकरणों में शाकटायन आचार्य ही ऐसा था जो सम्पूर्ण नाम शब्दों को प्राख्यातज मानता था। निश्चय ही शाक १. मद्रास राजकीय हस्तलेख संग्रह सूचीपत्र जिल्द ४ भाग १ सी, सन् १९२८, पृष्ठ ५४६,६६। २. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नरुक्तसमयश्च । निरुक्त । नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । महाभाष्य । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ . पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १७७ टायन ने किसी ऐसे महत्त्वपूर्ण व्याकरण की रचना की थी, जिस में सब शब्दों की धातु से व्युत्पत्ति दर्शाई गई थी। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के कारण ही शाकटायन को वैयाकरणों में श्रेष्ठ माना गया । शाकटायन के मत को पालोचना-गार्ग्य को छोड़कर सब नैरुक्त आचार्य समस्त नाम शब्दों को आख्यातज मानते हैं । निरुक्त १११२, ५ १३ के अवलोकन से विदित होता है कि तात्कालिक वैयाकरण शाकटायन और नैरुक्तों के इस मत से असहमत थे। उन्होंने इस मत की कड़ी आलोचना की थी। निरुक्त की व्याख्या करते हुए दुर्ग ने शाकटायनोऽतिपाण्डित्याभिमानात् ऐसा लिखा है। यास्क ने उन वैयाकरणों की आलोचना को पूर्वपक्षरूप में रख कर उसका युक्तियुक्त १. उत्तर दिया हैं।' पूर्वपक्ष में शाकटायन के सत्य' शब्द के निर्वचन को व्यङ्गरूप से उद्धृत किया है । इसका समुचित उत्तर करते हुए यास्क ने लिखा है-यह शाकटायन की निर्वचन पद्धति का दोष नहीं हैं, अपितु उस व्यक्ति का दोष है जो इस युक्तियुक्त पद्धति को भले प्रकार नहीं जानता। अन्यत्र उल्लेख-वाजसनेय प्रातिशाख्य और ऋक्प्रातिशाख्य में शाकटायन के मत उद्धृत हैं यह हम पूर्व लिख चुके हैं । शौनक चतुरध्यायी २।२४ और ऋक्तन्त्र १११ में शायटायन के मत निर्दिष्ट हैं । .. चतुरध्यायी के चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ के कौत्सोय पाठ में लिखा है समासावग्रहविग्रहान् पदे यथोवाच छन्दसि । शाकटायनः तथा प्रवक्ष्यामि चतुष्टयं पदम् ॥ २५ १. देखो निरुक्त १।१४॥ २. दुर्गमतानुसार । स्कन्द की व्याख्या दुर्गाचार्य से भिन्न है। स्कन्द की व्याख्या युक्त है। ३. अथानन्वितेऽप्रादेशिके विकारे पदेभ्यः पदेतरार्धान् संचस्कार शाकटायनः । एतेः कारितं यकारादि चान्तकरणमस्तेः शुद्धं च सकारादि च । निरुक्त १॥ १३॥ • ४. योऽनन्वितेऽर्थे संचस्कार स तेन गह्य : सैषा पुरुषगर्दा न शास्त्रगर्दा । निरुक्त १।१४। तथा इसकी दुर्ग और स्कन्दव्याख्या ।। ५. द्र०-न्यु इण्डियन एण्टिक्वेरी, सितम्बर १९३८, पृष्ठ ३६१ । ३० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास बृहद्देवता में शाकटायन के मतों का उल्लेख बहुत मिलता है।' वे प्रायः दैवतविषयक हैं। बृहद्देवता २।९५ में शाकटायन का एक उपसर्गविषयक मत उद्धृत है। बृहद्देवताकार ने कहीं कोई भेदक विशेषण नहीं दिया। अतः उसके ग्रन्थ में उद्धत सब मत निश्चय ५ ही एक शाकटायन के हैं । केशव ने अपने नानार्थार्णवसंक्षेप में शाक टायन को बहत उदधृत किया है। उसने एक स्थान पर शाकटायन का विशेषण आदिशाब्दिक दिया है। हेमाद्रिकृतच तुर्वर्गचिन्तामणि में भी शाकटायन का एक वचन उद्धृत है। चतुर्वर्गचिन्तामणि के अतिरिक्त सर्वत्र निर्दिष्ट शाकटायन एक ही व्यक्ति है यह निश्चित १० है। बहुत सम्भव है हेमाद्रि द्वारा स्मृत शाकटायन भी भिन्न व्यक्ति न हो। काल यास्क शाकटायन का नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। यास्क का काल विक्रम से लगभग तीन सहस्र वर्ष पूर्व निश्चित है। यदि १५ शाकटायन काण्व का शिष्य हो वा स्वयं काण्वशाखा का प्रवक्ता हो तो निश्चय ही इस का काल विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा। ३००० वि० पूर्व तो अवश्य है । शाकटायन व्याकरण का स्वरूप शाकटायन व्याकरण अनुपलब्ध है। अतः वह किस प्रकार का २० था, यह हम विशेषरूप से नहीं कह सकते । इस व्याकरण के जो मत विभिन्न ग्रन्थों में उद्धृत हैं, उन से इस विषय में जो प्रकाश पड़ता है वह इस प्रकार है लौकिक वैदिक पदान्वाख्यान-निरुक्त, महाभाष्य और प्रातिशाख्यों के पूर्वोक्त प्रमाणों से व्यक्त है कि इस व्याकरण में लौकिक २५ १. बृद्देवता २।१,९५॥ ३॥१५६॥ ४११३८।। ६।४३॥ ७॥६६॥ ८।११, ६०॥ २. शाकटायनसूरिस्तु व्याचष्टे स्मादिशाब्दिकः ॥ ६२॥ भाग २, पृष्ठ ६ । ३. यत्तूक्तविरुद्धार्थ शाकटायनवचनम्—'जलाग्निभ्यां विपन्नानां संन्यासे वा गृहे पथि । श्राद्धं न कुर्वीत तेषां वै वर्जयित्वा चतुर्दशीम्' इति । चतुर्वग- ३० चिन्तामणि श्राद्धकल्प पृष्ठ २१५, एशिणटिक सो० संस्कः । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायों में स्मृत प्राचार्य १७६ वैदिक उभयविध पदों का अन्वाख्यान था। चतुरध्यायी के पूर्वनिदिष्ट (पृष्ठ १७७) कौत्सीय पाठ से विदित होता है कि शाकटायन ने पदपाठस्थ अवग्रह आदि निदर्शक प्रातिशाख्यसदृश कोई छन्दःसम्बन्धी ग्रन्थ रचा था। नागेश की भूल-नागेश भटट ने महाभाष्यप्रदीपोद्योत के प्रारम्भ ५ में लिखा है-शाकटायन व्याकरण में केवल लौकिक पदों का अन्वाख्यान था।' प्रतीत होता है उसने अभिनव जैनशाकटायन व्याकरण को प्राचीन आर्ष शाकटायन व्याकरण मान कर यह पंक्ति लिखी है। नागेश के लेख में स्ववचनविरोध भी है । वह महाभाष्य ३।३।१ के विवरण में पञ्चपादि उणादि सूत्रों को शाकटायन प्रणीत कहता है । १० पञ्चवादी उणादि में अनेक ऐसे सूत्र हैं जो केवल वैदिक शब्दों के व्युत्पादक हैं। इतना ही नहीं, प्रातिशाखयों में शाकटायन के व्याकरणविषयक अनेक ऐसे मतों का उल्लेख है जो केवल वेदविषयक हैं। अतः शाकटायन व्याकरण में केवल लौकिक पदों का अन्वाख्यान मानना नागेश की भारी भूल है । पञ्चपादी उणादिसूत्र शाकटायन- १५ विरचित हैं वा नहीं, इस विषय में हम उणादि प्रकरण में लिखेंगे । शास्त्रनिर्वचनप्रकार-निरुक्त १।१३ के 'एते, कारितं च यकारादि चान्तकरणमस्तेः शुद्धं च सकारदि च' के दुर्गाचार्य कृत व्याख्यान से विदित होता है कि शाकटायन ने सत्य शब्द की निरुक्ति 'इण गतौ' तथा 'प्रस् भुवि' इन दो धातुओं से की थी। दुर्गाचार्य ने इसी २० प्रकरण में लिखा है-शाकटायन प्राचार्य ने कई पदों की सिद्धि अनेक १. किं लौकिकशब्दमात्रं शाकटायनादिशास्त्रमधिकृतम् । नवाहिक पृष्ठ ६, कालम १, निर्णयसागर संस्क०। ... २. एवं च कृत्वा 'कुवापा' इत्युणासूित्राणि शाकटायनस्येति सूचितम । ३. ११२॥ २८१,८७,१०१,१०३,११६॥ ३॥६६॥ ४॥१२०, १४२ : ५ १४७, १७०, २२१॥ ४. ऋक्प्रातिशाख्य १११६॥ १३॥४९॥ वाज० प्राति० ३।६,१२।८८।। '४।५, १२६, १९२॥ ५. हमने गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज बनारस से प्रकाशित दशपादी-रणादिवृत्ति के उपोद्घात में भी इस विषय पर विशेष विचार किया है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास धातुओं से को थी और कई पदों की एक-एक धातु से ।' __ स्कन्द को व्याख्यानुसार शाकटायन ने 'इग्' धातु से कारित (=णिच-इ) प्रत्यय और 'अस्' के सकार से केवल स (सू-प्रथमकवचन) और सकारादि सन् आदि प्रत्ययों को कल्पना की थी। अनेक धातुओं से व्युत्पत्ति-नाम पदों को अनेक धातुओं से व्युत्पत्ति केवल शाकटायन आचाय ने नहीं की, अपितु शाकपूणि आदि अनेक प्राचोन नैरुक्त प्राचार्य इस प्रकार को व्युत्पत्ति करते थे। ब्राह्मण आरण्यक ग्रन्थों में भी इस प्रकार की अनेक व्युत्पत्तियां उपलब्ध होती हैं। यथा हृदय-तदेतत् त्र्यक्षरं हृदयमिति । ह इत्येकमक्षरम्, हरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद । द इत्येकमक्षरम्, दमन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद । यमित्येकमक्षरम्, एति स्वर्ग लोकं एवं वेद ।' ___ भग–भ इति भासयतीमाल्लोकान्, र इति रञ्जयतीमानि भूतानि, ग इति गच्छन्त्यस्मिन्नागच्छन्त्यस्मादिमाः प्रजाः । तस्माद् १५ भरगत्वाद् भर्गः । शब्दों का त्रिविधत्व-न्यासकार जिनेन्द्र बुद्धि ३।३।१ में लिखता है तदेवं निरुक्तकारशाकटायनदर्शनेन त्रयो शब्दानां प्रवृत्तिः । जातिशब्दाः गुणशब्दाः क्रियाशब्दा इति । १. शाकटायनाचार्योऽनेकैश्च धातुभिरेकमभिधानमनुविहितवान् एकेन चैकम् । निरुक्त टीका १।१३॥ निरुक्त के इस प्रकरण की दुर्ग व्याख्या खींचातानी पूर्ण है । सम्भव है कि उसने यह व्याख्या उपनिषदों में असकृत् निर्दिष्ट सत्यं त्रीण्यक्षराणि पाठ से भ्रान्त होकर की होगी। निरुक्त के इस प्रकरण की ठीक व्याख्या स्कन्द स्वामी ने की है, दुर्ग की व्याख्या में तो निरुक्त-पदों का २५ अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता। २. अग्नि:-त्रिभ्याख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिः इतादक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् , स खल्वेतेरकामादत्ते, गकारमनक्तेर्वा, दहतेर्वा नी: परः । निरुक्त ७।१४॥ ३. शत० १४।८।४।१॥ ४. मैत्रायण्यारण्यक ६७॥ ही ५. तुलना करो-प्रक्रियाकौमुदी भाग २, पृष्ठ ६०० के पाठ के साथ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १८१ अर्थात् शाकटायन के मत शब्द तीन प्रकार के हैं । जातिशब्द, गुणशब्द और क्रियाशब्द । यदृच्छा शब्द उसके मृत में नहीं हैं । महाभाष्यकार ने यदृच्छा शब्दों की सत्ता स्वीकार करके भी सिद्धान्त रूप से न सन्ति यदृच्छाशब्दाः स्वीकार किया है।' मीमांसक भी यदृच्छा शब्दों को स्वीकार नहीं करते । द्र० - लोकवेदाधिकारण १३ | अधि० ५ १० । १३ उपसर्ग - २० उपसर्ग प्रायः सब आचार्यों को सम्मत हैं । परन्तु शाकटायन आचार्य ' अच्छ' 'श्रद्' और 'अन्तर' इन तीन को भी उपसर्ग मानता है । इस विषय में बृहद्देवता २२६५ में शौनक लिखता है— प्रच्छ श्रदन्तरित्येतान् श्राचार्यः शाकटायनः । उपसर्गान् क्रियायोगान् मेने ते तु त्रयोऽधिकाः ॥ पाणिनि ने ' अच्छ' 'श्रत्' और 'अन्तर' की केवल गति संज्ञा मानी है । कात्यायन ने 'श्रत्' और 'अन्तर' शब्द की उपसर्ग संज्ञा का भी विधान किया है । " १५ arcerer के अन्य ग्रन्थ १. देवत ग्रन्थ - हम पूर्व लिख चुके हैं कि शौनक ने बृहद्देवता में शाकटायन के देवता विषयक अनेक मत उद्धृत किये हैं । अतः प्रतीत होता है । शाकटायन ने ऋग्वेद की किसी शाखा की देवतानुक्रमणी सदृश कोई ग्रन्थ रचा था । २. निरुक्त - इस के लिए कौण्ड भट्ट कृत वैयाकरणभूषणसार की काशिका व्याख्या पृष्ठ २६३ देखना चाहिए । ܘܕ ३. कोष – केशव ने अपने नानार्थार्णवसंक्षेप में शाकटायन के कोषविषयक अनेक उद्धरण दिये हैं जिन से विदित होता है कि शाकटायन ने कोई कोष ग्रन्थ भी रचा था । २५ १. द्र० - ऋक् सूत्रभाष्य । २. श्रच्छब्दस्योपसंख्यानम् । महाभाप्य १ । ४ । स्याङ्किविधिसमासणत्वेषूपसंख्यानम् । महाभाष्य १ । ४ । ६४ ॥ ३. श्वश्रूः श्वशुरयोषिति । पितृस्वसारस्त्वस्यार्थं व्याचष्टे शाकटायनः । भाग १, पृष्ठ १९ ॥ इत्यादि । ५८ ॥ अन्त शब्दा: ३० Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. ऋक्तन्त्र-नागेश भट्ट लघुशब्देन्दुशेखर के प्रारम्भ में ऋ. तन्त्र को शाकटायन-प्रणीत कहता है।' सामवेदीय सर्वानुक्रमणो के रचयिता किसी हरदत्त का भी यहो मत है।' भट्टोजि दीक्षित और अर्वाचीन पाणिनीय शिक्षा के दोनों टीकाकार ऋक्तन्त्र को प्राचार्य औदवजि-विरचित मानते हैं।' ५. लघ-ऋक्तन्त्र-किन्हीं के मत में यह शाकटायनप्रणीत है, परन्तु यह ठीक नहीं है । इस में पृष्ठ ४६ पर पाणिनि का उल्लेख मिलता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुसार शाकटायन पाणिनि से प्राचीन है। ६. सामतन्त्र-कई इसे शाकटायन कृत मानते हैं, कई गार्ग्य कृत' । सामवेदानुक्रमणी का कर्ता हरदत्त इसे प्रौदवजि-विरचित मानता है ।' ७. पञ्चपादी-उणादिसूत्र-श्वेतवनवासी तथा नागेश भट्ट आदि कतिपय अर्वाचीन वैयाकरण पञ्चपादी उणादि शाकटायन१५ विरचित मानते हैं । नारायण भट्ट आदि कतिपय विद्वान् इसे पाणिनीय स्वीकार करते हैं। हम ऊपर लिख चके हैं कि शाकटायन अनेक धातूमों से एक पदकी व्युत्पत्ति दर्शाता है, परन्तु समस्त पञ्चपादी उणादि में एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जिस की अनेक धातुओं से व्युत्पत्ति दर्शाई हो । २. अतः ये उणादि सूत्र शाकटायन-प्रणीत नहीं हैं। इस पर विशेष विचार उणादि के प्रकरण में किया है। श्राद्धकल्प --हेमाद्रि ने चतुर्वर्गचिन्तामणि में शाकटायन के श्राद्धकल्प का एक वचन उद्धृत किया है। यह ग्रन्थ इस समय अप्राप्य है । अतः इस के विषय में हम कुछ विशेष नहीं जानते । २५ १. देखो पूर्व पृष्ठ ७३ टि० ६। २. देखो पूर्व पृष्ठ ७४ टि० ।। ३. येयं शाकटायनादिभिः पञ्चपादी विरचिता । उणादिवृत्ति पृष्ठ १,२ । ४. पूर्व पृठ १७६ टि०, २। ५. अकारमुकुरस्त्यादी उकारं ददुंरस्य च । बभाग पाणिनिस्तौ तु व्यत्ययेनाह भोजराट् । उणादिवृत्ति पृष्ठ १० । ३० ६. पूर्व पृष्ठ १७८ टि० ४ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अप्टाध्यायो में स्मृत प्राचाय १८३ इन ग्रन्थों में से प्रथम दो ग्रन्थ वैयाकरण शाकटायन विरचित प्रतीत होते हैं । शेष ग्रन्थों का रचयिता सन्दिग्ध है । ८-शाकल्य (३१०० वि० पूर्व) पाणिनि ने शाकल्य प्राचार्य का मत अष्टाध्यायी में चार बार उद्धृत किया है।' शौनक' और कात्यायन ने भी अपने प्रातिशाख्यों ५ में शाकल्य के मतों का उल्लेख किया है । ऋक्प्रातिशाख्य में शाकल के नाम से उद्धृत समस्त नियम शाकल्य के ही हैं। महाभाष्यकार ने ६।१।१२७ में शाकल्य के नियम का शाकल नाम से उल्लेख किया है । लक्ष्मीधर ने गार्हस्थ्य काण्ड पृष्ठ १६६ में शाकल्य के किसी व्याकरण संबन्धी नियम की ओर संकेत किया है। शाकल्य का शाकल नामान्तर से भी क्वचित उल्लेख मिलता है। इस नाम में 'शकल' से प्रौत्सर्गिक 'अण्' प्रत्यय जानना चाहिये । परिचय शाकल्य पद तद्धितप्रत्यायान्त है, तदनुसार शाकल्य के पिता का नाम शकल था। पाणिनि ने शकल पद गर्गादिगण में पढ़ा है। १५ १. सम्बुद्धौ शाकस्यस्येतावनार्षे । अष्टा० १११।१६। इकोऽसवणे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च । अष्टा ६।१।१२७॥ लोपः शाकल्यस्य । अष्टा० ८।३॥१६॥ सर्वत्र शाकल्यस्य । ८।४॥५१॥ २. ऋक्प्राति० ३।१३,२२॥ ४॥१३॥ इत्यादि । ३. वाज० प्राति० ३॥१०॥ ४. ऋक्प्राति० ६।१४,२०,२७ इत्यादि । ५. सिन्नित्यसमासयोः शाकलप्रतिषेधो वक्तव्यः । इस वार्तिक में अष्टा० ६।१।१२७ में निर्दिष्ट शाकल्य मत का प्रतिषेध किया है। ६. हारीत सूत्र 'जातपुत्रायाधानम्' को उद्धृत करके लक्ष्मीधर लिखता है-जातपुत्रायाधानमित्यत्र जातपुत्रशब्द: प्रथमाबहुवचनान्तः शाकल्य मता- २५ श्रयेण यकारपाठः अर्थात 'जातपुत्राः आधानम' में शाकल्य मत से विसर्ग को यकार हो गया है। ____७. पुनरुक्तानि लुप्यन्ते पदानीत्याह शाकलः । कात्य० प्राति० ४।१७७, १८१ टीका में उद्धृत प्राचीन श्लोक । ८. गर्गादिभ्यो यन् । अष्टा० ४।१ । १०५ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अनेक शाकल्य-संस्कृत वाङमय में शाकल्य,' स्थविर शाकल्य' विदग्ध शाकल्य' और वेदमित्र (देवमित्र) शाकल्य ये चार नाम उपलब्ध होते हैं। पाणिनीय सूत्रपाठ में स्मृत शाकल्य और ऋग्वेद का पदकार वेदमित्र शाकल्य निश्चय ही एक व्यक्ति है, क्योंकि ५ ऋक्पदपाठ में व्यवहत कई नियम पाणिनि ने शाकल्य के नाम से उद्धृत किये हैं । ऋक्प्रातिशाख्य पटल २ सूत्र ८१,८२ की उव्वट व्याख्या के अनुसार शाकल्य और स्थविर शाकल्य भिन्न भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। जिस विदग्ध शाकल्य के साथ याज्ञवल्क्य का जनकसभा में शास्त्रार्थ हुअा था वह भो भिन्न व्यक्ति है । वायु (म० ६०। ३२) आदि पुराणों में वेदमित्र (देवमित्र) शाकल्य को याज्ञवल्क्य का प्रतिद्वन्द्व कहा गया है। कई शाकल्य को ऐतरेय महोहास से भा पूर्ववर्ती मानते हैं । यह ठीक नहीं है (द्र० पृष्ठ १८३) । शाकल्य और शौनकों का संबन्ध पाणिनि ने कार्तकौजपादि गण (६।२।३७) में शाकलशुनकाः पद १५ पढ़ा है। काशिकाकार के मतानुसार यहां शाकल्य के शिष्यों और शुनक के पुत्रों का द्वन्द्व समास है । इस उदाहरण से विदित होता है कि शाकल्य शिष्यों और शुनक पुत्रों (शोनक) का कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था। सम्भव है इसी कारण शोनक ने शाकल चरण का प्रातिशाख्य तथा अनुवाकानुक्रमणी, देवतानुक्रमणी, छन्दोनुक्रमणी २० आदि १० अनुक्रमणियां लिखी हों। काल पाणिनि ने ब्रह्मज्ञाननिधि गृहपति शौनक को उद्धृत किया है।" १. देखो इसी पृष्ठ की टि० २। । २. ऋक्प्राति० २०८१॥ ३. शतपथ १४।६।६।१॥ २५ ४. ऋक्प्राति० ११५१॥ वायुपुराण ६२।६३ पूना सं० । विष्णु पुराण ३४॥२०॥ ब्रह्माण्ड पुराण ३५।१।। बंबई संस्क । ५. अष्टा० १११३१६,१७,१८ के नियम। ६. तासां शाकल्पस्य स्थविरस्य मतेन किञ्चिदुच्यते । ऋक्प्राति० टीका २१८१॥ इतराऽस्माकं शाक लानां स्थितिः । ऋप्राति० टीका २।२॥ को ७. शौनकादिभ्यछन्दसि । अष्टा० ४।३।१०६॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत श्राचार्य १८५. शौनक ने ऋक्प्रातिशाख्य में शाकल्य तथा उस के व्याकरण के मत उदधृत किये हैं ।' शौनक ने महाराज अधिसीम कृष्ण के राज्यकाल में नैमिषारण्य में किये गये किसी द्वादशाह सत्र में ऋक् प्रातिशाख्य का प्रवचन किया था । अतः शौनक का काल विक्रम से लगभग २६०० वर्ष पूर्व निश्चित है । तदानुसार शाकल्य उससे भो प्राचीन ५ व्यक्ति है । महाभारत अनुशासनपर्व १४ में सूत्रकार शाकल्य का उल्लेख है, वह वैयाकरण शाकल्य प्रतीत होता है । शाकल्य ने शाकल चरण तथा उसके पदपाठ का प्रवचन किया था । महिदास ऐतरेय ने ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचन किया है । प्रष्टाघ्यायी ४ | ३ | १०५ के 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु' सूत्र की १० काशिकादिवृत्तियों के अनुसार ऐतरेय ब्राह्मण पाणिनि की दृष्टि में पुराणप्रोक्त है। इस की पुष्टि छान्दोग्य उपनिषद् और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण से भी होती है । छान्दोग्य ३५ ६ ७ में लिखा है'एतद्ध स्म वे तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेय: स ह षोडशवर्षशत 1 मजीवत् ” । जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ४ । २ । ११ में लिखा है - ' एतद्ध १५ तद्विद्वान् ब्राह्मण उचाव महिदास ऐतरेय: स ह षोडशवर्षशतं जिजीव' । इन उद्धरणों में 'आह' 'उवाच' और 'जिजीव' परोक्षभूत की क्रियाओं का उल्लेख है । इन से प्रतीत होता है कि महिदास ऐतरेय छान्दोग्य उपनिषद् और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण के प्रवचन से बहुत पूर्व हो चुका था । छान्दोग्य उपनिषद् और जैमिनीय उपनिषद् २० का प्रवचन विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व प्रवश्य हुआ था । अतः महिंदास ऐतरेय विक्रम से ३५०० वर्ष पूर्व अवश्य हुप्रा होगा । ऐतरेय ब्राह्मण १४।५ में एक पाठ है - यदस्य पूर्वमपरं तदस्य यद्वस्यापरं तद्वस्य पूर्वम् । श्रहेरिव सर्पणं शाकलस्य न विजानन्ति । इस वचन के आधार पर शाकल्य का काल महिदास ऐतरेय से १. पूर्व पृष्ठ १८३, टि० २ । २. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृष्ठ ३७३ ( द्वि० सं०) । ३. गङ्गानाथ झा ने षोडशशतम् का अर्थ १६०० वर्ष किया है। यह २५ अशुद्ध है । इस का कारण संस्कृतभाषा के वाग्व्यवहार को न जानना है । शुद्ध ३० अर्थ ११६ वर्ष है । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्राचीन मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐतरेय आरण्यक के पंचम प्रपाठक के समान ऐतरेय ब्राह्मण की अन्तिम दो पञ्जिकाएं अर्वाचीन हैं । उन्हें शौनक प्रोक्त माना जाता है। इतना ही नहीं, ऐतरेय ब्राह्मण का वर्तमान प्रवचन भी शौनक द्वारा परिष्कृत है । अतः जब तक किसी दृढ़तर प्रमाण से यह प्रमाणित न हो जावे कि ऐतरेय ब्राह्मण का उक्त पाठ ऐतरेय का ही प्रवचन है, परिष्कर्ता शौनक का नहीं, तब तक इस वचन के आधार पर शाकल्य को ऐतरेय से प्राचीन नहीं माना जा सकता । ऐतरेय ब्राह्मण के वचन का अर्थ - सायण ने ऐतरेय ब्राह्मण के १० उपर्युक्त वचन का अर्थ न समझ कर लिखा है - शाकल शब्द सर्प विशेष का वाची है । शाकल नाम के सर्प की जैसी गति है वैसे ही अग्निष्टोम की हैं । षड्गुरुशिष्य का भी यही भाव है । ये दोनों व्याख्याएं नितान्त श्रशुद्ध हैं। यहां उक्त वचन का अभिप्राय इतना ही है कि शाकल चरण के आदि और अन्त अर्थात् उपक्रम और उप१५ संहार के समान होने से उस को गति अर्थात् प्रद्यन्त की प्रतीत नहीं होतो । शाकल चरण के प्रथम मण्डल में १९१ सूक्त हैं और दशम मण्डल में भी १९१ सूक्त हैं । यही उपक्रम और उपसंहार को समानता यहां अग्निष्टोम से दर्शाई है । हमारे विचार में प्राचार्य शाकल्य का काल विक्रम से ३१०० पूर्व २० है । ३० शाकल्य का व्याकरण पाणिनि और प्रातिशाख्यों में उद्धृत मतों के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि शाकल्य के व्याकरण में लौकिक वैदिक उभयविधे शब्दों का अन्वाख्यान था । २५ कवीन्द्राचार्य के पुस्तकालय का जो सूचीपत्र बड़ोदा की गायकवाड़ ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुआ है, उसमें शाकल व्याकरण का उल्लेख है ।' सम्भव है वह कोई अर्वाचीन ग्रन्थ हो । १. शाकल्यशब्दः सर्पविशेषवाची । शाकलनाम्नोऽहे : सर्प विशेषस्य यथा सर्पणं गमनं तथैवायमग्निष्टोमः । २. सर्प: शाकलनामा तु बालं दृष्ट्वा दृढं मुखे । चक्रवन्मण्डलीभूतः सर्पनहिः परिदृश्यते ॥ ३. पृष्ठ ३ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १८७ कई विद्वानों का मत है कि शाकल्य ने कोई व्याकरणशास्त्र नहीं रचा था। पाणिनि आदि वैयाकरणों ने शाकल्यकृत ऋक्पदपाठ से उन नियमों का संग्रह किया है। यह मत अयुक्त है । पाणिनि आदि ने शाकल्य के कई ऐसे मत उद्धृत किये हैं जिनका संग्रह पदपाठ से नहीं हो सकता । यथा-इकोऽसवणे शाकल्यस्य लस्वश्च', कुमारी ५ प्रत्र । यहां संहिता में प्रकृतिभाव तथा ह्रस्वत्व का विधान है। पदपाठ में संहिता का अभाव होता है । अतः ऐस नियम उसके व्याकरण से ही संगृहीत हो सकते हैं। _अन्य ग्रन्थ शाकल चरण-पुराणों में वेदमित्र शाकल्य को शाकल चरण की १० पांच शाखाओं का प्रवक्ता लिखा है। ऋक्प्रातिशाख्य ४।४ में शौनक ने 'विपाछुतुद्री पयसा जवेते आदि में श्रूयमाण छकारादेश का विधान शाकल्य के पिता के नाम से किया है। इससे स्पष्ट है कि शाकल्य ने ऋग्वेद की प्राचीन संहिता का केवल प्रवचन मात्र किया है, परिवर्तन नहीं किया । अन्यथा इस नियम का उल्लेख उसके पिता १५ के नाम से नहीं होता। पदपाठ-शाकल्य ने ऋग्वेद का पदपाठ रचा था। उस का उल्लेख निरुक्त ६।२८ में मिलता है। वायुपुराण ६०।६३ में वेदमित्र शाकल्य को पदवित्तम कहा है। इस से स्पष्ट है कि शाकल चरण प्रवर्तक ने ही पदपाठ की रचना की है । ऋग्वेद के पदपाठ में व्यवहृत २० कुछ विशिष्ट नियम पाणिनि ने 'संबुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे, उत्रः उँ सूत्रों में उद्धृत किये हैं । अतः वैयाकरण शाकल्य और शाकल चरण तथा उसके पदपाठ का प्रवक्ता निस्संदेह एक व्यक्ति है। १. अष्टा० ६ ॥१॥१२७ ।। २. वेदमित्रस्तु शाकल्यो महात्मा द्विजसत्तमः । चकार संहिताः पञ्च २५ बुद्धिमान् पदवित्तमः ॥ वायुपुराण ६० । ६३ ॥ ३. ऋ० ३ । ३३ । १॥ ४. सर्वैः प्रथमैरुपधीयमानः शकार: शाकल्यपितुश्छकारम् । ५. वा इति च य इति च चकार शाकल्यः, उदात्तं त्वेवमाख्यातमभविष्यत् । ६. द्र० इसी पृष्ठ की टि. २ । ३० ७. वायो इति ११२॥१॥ ॐ इति ११२४१८॥ ८. अष्टा० १११११६-१८॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शाकल्यकृत पदसंहिता का उल्लेख महाभाष्य ११४ | ८४ में मिलता है । ' शाकल्यकृत पदपाठ का एक नियम शुक्लयजुः प्रातिशाख्य के व्याख्या - कार उव्वट ने उद्धृत किया है ।" १८८ माध्यन्दिन पदपाठ - इस पदपाठ का प्रवचन भी शाकल्यकृत है । ऐशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता के पुस्तकालय में एक माध्यन्दिन संहिता के पदपाठ का हस्तलेख विद्यमान है । उसके अन्त में उसे शाकल्यकृत लिखा है । अन्य ग्रन्थ साक्ष्य के अभाव में अनुसंधाता लोग इसे प्रमाद पाठ मान कर उपेक्षा करते रहे । परन्तु जब हमें सं० १५ २०२० में हमारे मित्र श्री पं० मदनमोहन व्यास ( केकड़ी - राजस्थान ) २५ चरणव्यूह परिशिष्ट के व्याख्याता महिदास के मतानुसार शाकल्य ने ऋग्वेद के संहिता, पद, क्रम, जटा और दण्ड-पाठ को वात्स्यादि शिष्यों के लिये प्रवचन किया था। क्या वायुपुराण ६० । ६३ में कही गई पांच संहिताएं ये ही हैं ? संदेह का कारण यह है, इन पाठों के लिये भी पद संहिता, क्रम-संहिता आदि का प्रयोग होता है। ने वि० स० १४७१ का लिखा संपूर्ण पदपाठ हमें दिया तब हमें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उसके अन्तिम १० अध्यायों के अन्त में शाकल्यकृते का स्पष्ट निर्देश विद्यमान हैं। यह पदपाठ कुछ अवान्तर नियमों से भिन्नता रखता है । हमने माध्यन्दिन संहिता के २० पदपाठ का जो संशोधित संस्करण छापा है उस में इस विषय पर विस्तार से विवेचना की है । हमारा मत है कि माध्यन्दिन पदपाठ भी शाकल्य कृत है । ९ - सेनक ( २९५० वि० पूर्व ० ) पाणिनि ने सेनक आचार्य का उल्लेख केवल एक सूत्र में किया १. शाकल्येन सुकृतां संहितामनुनिशम्य देवः प्रावर्षत् । २. देखो पूर्व पृष्ठ १६४ | ३. शाकल्यः संहिता -पद- क्रम- जटा - दण्डरूपं च पञ्चधा व्यासं कृत्वा - वात्स्यमुद्गलशालीयगोसत्यशिशिरेभ्यो ददौ । चौखम्बासीरीजमुद्रित शुक्लयजु:३० प्रातिशाख्य के अन्त में । पृष्ठ ३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १८६ है ।' अष्टाध्यायी से अतिरिक्त इस प्राचार्य का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । अतः इसके विषय में हम इससे अधिक कुछ नहीं जानते । १० – स्फोटायन - औदुम्बरायण ( २९५० वि० पूर्व ) आचार्य स्फोटान का नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी में एक स्थान पर उद्धृत है। इस के अतिरिक्त इस का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । परिचय १० पदमञ्जरीकार हरदत्त काशिका ६।१।१२३ की व्याख्या में लिखता है । स्फोटोsयनं परायणं यस्य स स्फोटायनः, स्फोटप्रतिपादनपरो वैयाकरणाचार्यः । ये त्वौकारं पठन्ति ते नडादिषु श्रश्वादिषु वा (स्फोटशब्दस्य ) पाठं मन्यन्ते ।” १५ इस व्याख्या के अनुसार प्रथम पक्ष में यह प्राचार्य वैयाकरणों के महत्त्वपूर्ण स्फोट तत्त्व का उपज्ञाता था । अत एव वह वैयाकरण - निकाय में स्फोटायन नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस का वास्तविक नाम अब ज्ञात हो चुका है वह है प्रौदुम्बरायण । अतः यह पक्ष चिन्त्य है । द्वितीय पक्ष (स्फोटायन पाठ) में इसके पूर्वज का नाम स्फोट था । स्फोट या स्फोटायन का उल्लेख हमें किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिला। २० प्राचार्य हेमचन्द्र अपने अभिधानचिन्तामणि कोश लिखता है - स्फोटायने तु कक्षीवान् । * इसी प्रकार केशव भी नानार्थार्ण - वसंक्षेप में – 'स्फोटायनस्तु कक्षीवान् ।" लिखता है । इन उद्धरणों से २५ इतना व्यक्त होता है कि स्फोटायन कक्षीवान् का नाम था । क्या यहां कक्षीवान् पद से उशिक्-पुत्र कक्षीवान् अभिप्रेत है ? · १. गिरेश्च सेनकस्य । श्रष्टा० ५|४|११२ || २. अवड स्फोटायनस्य । अष्टा० ६|१|१२३ ॥ ३. पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ४८४ । ४. पृष्ठ ३४० । ५. पृष्ठ ८३, लोक १३६ ॥ ३० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास नाम का निश्चय - हेमचन्द्र और केशव के उद्धरणों से प्रतीत होता है कि इस प्राचार्य का स्फोटायन नाम ठीक है, न कि । स्फोटायन | १६० ३० वैमानिक प्राचार्य-भरद्वाज आचार्य कृत यन्त्रसर्वस्व अन्तर्गत वैमानिक प्रकरण के प्रकाश में आने से स्फोटायन भी विमानशास्त्रविशेषज्ञ के रूप में प्रकट हुए हैं । भरद्वाज का एक सूत्र है चित्रिण्येवेति स्फोटायनः । इस की व्याख्या में लिखा है ---- तदुक्तं शक्तिसर्वस्वे - वैमानिकगतिवैचित्र्यादिद्वात्रिंशति क्रियायोगे १० एकैव चित्रिणी शक्त्यलमिति शास्त्रे निर्णीतं भवति इत्यनुभवतः शास्त्राच्च मन्यते स्फोटायनाचार्य: ।' इस सूत्र और व्याख्या से स्पष्ट है कि स्फोटायन प्राचार्य एक महान् वैज्ञानिक आचार्य था । काल १५ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्फोटायन का निर्देश होने से यह श्राचार्य विक्रम से २६५० वर्ष प्राचीन है, यह स्पष्ट है । यदि हेमचन्द्र और केशव का लेख ठीक हो और कक्षीवान् से उशिक्- पुत्र कक्षीवान् अभिप्रेत हो तो इसका काल इस से कुछ अधिक प्राचीन होगा । भरद्वाजीय विमानशास्त्र में स्फोटायन का उल्लेख होने से भो स्फोटायन २० का काल प्राचीन सिद्ध होता है । भरत मिश्र ने स्फोट-तत्त्व के प्रति - पादक का नाम श्रदुम्बरायण लिखा है । क्या कक्षीवान् और प्रौदुम्बरायण का परस्पर कुछ संबन्ध सम्भव हो सकता है ? यास्क ने अपने निरुक्त ११२ में औदुम्बरायण का मत उद्धृत किया है ।" वहां टीकाकारों के मतानुसार प्रौदुम्बरायण के मत में शब्द का अनित्यत्व २५ दर्शाया गया है । परन्तु वाक्यपदीय २।३४३ से ज्ञात होता है कि दुम्बरायण आचार्य शब्द नित्यत्ववादी है । वह एक प्रखण्ड वाक्य १. बृहद् विमानशास्त्र, श्री स्वामी ब्रह्ममुनि सम्पादित, पृष्ठ ७४ । २. भगवदोदुम्बरायणाद्युपदिष्टा खण्डभावमपि अपलपितम् । स्फोट सिद्धि पृष्ठ १ । ३. इद्रिय नित्यं वचनमौदुम्बरायणः -1 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनोय अष्टाध्यायो में स्मृत प्राचार्य १९१ स्फोट का प्रतिपादन करता है । इस दृष्टि से निरुक्त में प्रदर्शित दोष अखण्ड वाक्य स्फोट में भी तदवस्थ ही रहते हैं । अतः भर्तृहरि के मतानुसार निरुक्त टीकाकारों की व्याख्या अशुद्ध जाननी चाहिये । भर्तृहरि का एतद्विषयक वचन इस प्रकार है वाक्यस्य बुद्धौ नित्यत्वमर्थयोगं च शाश्वतम् ।। दृष्ट्वा चतुष्ट्वं नास्तीति वार्ताक्षौदुम्बरायणौ ॥ वाक्य० २।३४३॥ इस सिद्धान्त का विशद प्रतिपादन प्रथमवार डा० सत्यकाम वर्मा ने अपने 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' नामक ग्रन्थ में (पृष्ठ ११९-१२२) किया है । स्फोट-तत्व यदि हरदत्त की प्रथम व्याख्या ठीक हो तो निश्चय ही वैयाकरणों के स्फोटतत्त्व का उपज्ञाता यही आचार्य होगा स्फोटवाद वैयाकरणों का प्रधानवाद है । उनके शब्द नित्यत्ववाद का यही आधार है। महाभाष्यकार पतञ्जलि के लेखानुसार स्फोट द्रव्य है, ध्वनि उस का १५ गुण है।' नैयायिक और मीमांसक स्फोटवाद का खण्डन करते हैं। स्फोटवाद अत्यन्त प्राचीन है। भागवत पुराण १७१७५।६ में भी स्फोट का उल्लेख मिलता है। भरद्वाजीय विमानशास्त्र में स्फोटायन प्राचार्य का मत निर्दिष्ट होने से हमें इसमें सन्देह होता था कि स्फोटायन नाम का कारण वैया- २० करणीय स्फोट पदार्थ है । हमारा विचार था कि यह नाम विमान के किसी विशिष्ट प्रकार के स्फोट से उत्पन्न अयन=गति का उपज्ञाता होने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा। अर्थात् उसने विमानों की गति विशेष के लिए किसी विशिष्ट प्रकार के स्फोट अथवा स्फोटक द्रव्यों का प्रथमतः प्रयोग किया होगा। २५ यह हमारा अनुमानमात्र था, परन्तु अब भर्तृहरि के ऊपर उद्धृत वचन से यह स्पष्ट सा हो गया है कि प्राचार्य स्फोटायन सम्भवतः शाब्दिकों में प्रसिद्ध स्फोट तत्त्व का आद्य उपज्ञाता था। १. एवं तर्हि स्फोट: शब्दः, ध्वनिः शब्दगुणः । १ । १ । ७० ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अध्याय का उपसंहार ___ इस अध्याय में पाणिनीय तन्त्र में स्मृत १०.. दश प्राचार्यों का वर्णन किया है। पूर्व अध्याय , में वर्णित. प्राचार्यों को मिलाकर पाणिनि से प्राचीन २६ छबीस वैयाकरण आचार्यों का उल्लेख ५ प्राचीन संस्कृत वाङमय में उपलब्ध होता है । अब अगले अध्याय में भारतीय वाङमय में सुप्रसिद्ध प्राचार्य । पाणिनि और उसके शब्दानुशासन का वर्णन करेंगे। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्याय पाणिनि और उसका शब्दानुशासन (२९०० विक्रम पूर्व) संस्कृत भाषा के जितने प्राचीन आर्ष व्याकरण बने, उन में सम्प्रति एकमात्र पाणिनीय व्याकरण साङ्गोपाङ्ग रूप में उपलब्ध ५ होता है। यह प्राचीन आर्ष वाङमय की एक अनुपम निधि है। इस से वेदवाणी का प्राचीन और अर्वाचीन और समस्त वाङमय सूर्य के पालोक की भांति प्रकाशमान है । इस की अत्यन्त सुन्दर, सुसम्बद्ध और सूक्ष्मतम पदार्थ को धोतित करने की क्षमतापूर्ण रचना को देखने वाला प्रत्येक विद्वान् इसको मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगता है। १. भारतीय प्राचीन आचार्यों के सूक्ष्मचिन्तन सुपरिपक्व ज्ञान और अद्भुत प्रतिभा का निदर्शन कराने वाला यह अनुपम ग्रन्थ है। इस से वेदवाणी परम गौरवान्वित है। संसार भर में किसी भी इतर प्राचीन अथवा अर्वाचीन भाषा का ऐसा परिष्कृत व्याकरण आज तक नहीं बना। परिचय पाणिनि के नामान्तर-त्रिकाण्डशेष में पुरुषोत्तमदेव ने पाणिनि के निम्न पर्याय लिखे हैं।' (१) पाणिन, (२) पाणिनि, (३) दाक्षीपुत्र, (४) शालङ्कि (५) शालातुरीय, (६) आहिक । ___ श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा के याजुष-पाठ में (७) पाणिनेय' नाम भी उपलब्ध होता है । यशस्तिलक चम्पू में (८) पणिपुत्र शब्द का भी व्यवहार मिलता है। १. पाणिनिस्त्वाहिको दाक्षीपुत्र: शालङ्किपाणिनौ। शालोत्तरीय .....। तुलना करो—सालातुरीयको दाक्षीपुत्रः पाणिनिराहिकः । वैजयन्ती, पृष्ठ ६५। २५ २. दाक्षीपुत्रः पाणिनेयो येनेदं व्याहृतं भुवि । पृष्ठ ३८ (मोनमोहन । घोष सं०)। ३. पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु । पाश्वास २, पृष्ठ २३६ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १. पाणिन-इस नाम का उल्लेख काशिका ६।२।१४ तथा चान्द्रवृत्ति २।२।६८ में मिलता है।' यह पणिन् नकारान्त शब्द से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इस का निर्देश अष्टाध्यायी ६।४।१६५ में भी मिलता है । 'पाणिनीय' शब्द की मूल प्रकृति भी पाणिन अकारान्त शब्द है। उस से 'छ' (ईय) प्रत्यय होकर 'पाणिनीय' प्रयोग उपपन्न होता है। अतः महाभाष्य में निर्दिष्ट पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् वचन अर्थ प्रदर्शन परक है, विग्रह प्रदर्शक नहीं है। इकारान्त पाणिनि शब्द से इनश्च (४।२।११२) के नियम से प्रोक्तार्थ में अण् प्रत्यय होकर पाणिन शब्द उपपन्न होता है। यथा प्रापिशलि और काशकृत्स्नि शब्दों से 'आपिशलम्' और 'काशकृत्स्नम्' शब्द उपपन्न होते हैं।' भट्टोजि दीक्षित ने 'पाणिनि' शब्द से 'पाणिनीय' की उपपत्ति दर्शाई है, वह चिन्त्य है । तुलना करो पाणिन (छ) =पाणिनीय, पाणिनि (अण्) =पाणिन । १५ प्रापिशल (छ) =प्रापिशलीय प्रापिशलि (अण्) प्रापिशल । काशकृत्स्न (छ)=काशकृत्स्नीय, काशकृत्स्नि (अण) = काशकृत्स्न । २. पाणिनि-यह ग्रन्थकार का लोकविश्रुत नाम है। इस नाम की व्युत्पत्ति के विषय में वैयाकरणों में दो मत हैं (क) 'पणिन्' से अपत्यार्थ में अण् होकर 'पाणिन', उससे पुनः २० अपत्यार्थ में 'इ' होकर 'पाणिनि' प्रयोग निष्पन्न होता हैं। १. पाणिनोपज्ञमकालकं व्याकरणम् । तुलना करो-पाणिनो भक्तिरस्य पाणिनीयः । काशिका ४॥३॥६६॥ २. गाथिविदथिकेशिगणिपणिनश्च । ३. पाणिनीयमिति–पाणिनशब्दात् वृद्धाच्छः (४।२।११४) इति छः । न्यास ४।३।१०१॥ ४. आपिशलं काशकृत्स्नमिति - प्रापिशलिकाश २५ कृत्स्निशब्दाभ्यामनश्च (४।२।११२) इत्यण् । न्यास ४१३।१०१॥ इस पर विशेष विचार काशकृत्स्न के प्रकरण में (पृष्ठ ११७) कर चुके हैं। 'प्रापिशलीयम्', 'काशकृत्स्नीयम्' शब्द अकारान्त आपिशल और काशकृत्स्न से निष्पन्न होते हैं। ५. पाणिनोऽपत्यमित्यण् पाणिनः । पाणिनस्यापत्यं युवेति इन् पाणिनिः । कैयट महाभाष्यप्रदीप ११११७३॥ पणिनो गोत्रापत्यं ३० पाणिनः । बालमनोरमा भाग १ पृष्ठ ३९२ (लाहौर संस्करण)। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन १६५ (ख) 'पणिन्' नकारान्त का पर्याय 'पणिन' अकारान्त स्वतन्त्र शब्द हैं । उस से प्रत इञ् (४।१।९५) के नियम से 'इञ्' होकर पाणिनि शब्द उपपन्न होता है।' पाणिनि के लिए प्रयुक्त 'पणिपुत्र' शब्द भो इसी का ज्ञापक है कि पाणिनि 'पणिन्' (नकारान्त) का का अपत्य है, 'पाणिन' का नहीं । 'पणिन्' नकारान्त से भी बह्वादि ५ (४।१।६६) प्राकृतिगणत्व से इञ् प्रत्यय सम्भव है। हमारे विचार में द्वितीय मत अधिक युक्त है। क्योंकि प्रकरणों में पाणिन और पाणिनि दोनों ही नाम गोत्ररूप में स्मृत हैं ।' प्रथम पक्ष मानने पर 'पाणिन' गोत्र होगा और 'पाणिनि' युवा । यदि ऐसा होता तो युवप्रत्ययान्त 'पाणिनि' का गोत्ररूप से उल्लेख १० न होता। ___ यदि 'पाणिन' 'पाणिनि' को क्रमशः गोत्र और युव प्रत्ययान्त माने तब भी प्राचीन व्यवहार के अनुसार माता पिता के जीवित रहते हुए युव प्रत्ययान्त नामों से व्यवहृत होते हैं, किन्तु उन के स्वर्गवास के पश्चात् गोत्र प्रत्ययान्त का ही प्रयोग होता है । यही प्रमुख १५ कारण है कि एक व्यक्ति के युव-गोत्र प्रत्ययान्त दो-दो नाम प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । यथा-कात्यायन कात्य । ३. पाणिनेय-इस का प्रयोग श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा के याजुष पाठ में ही उपलब्ध होता है, और वह भी पाठान्तर रूप में। इस शिक्षा की शिक्षाप्रकाश नाम्नी टीका में लिखा है-- २० पाणिनेय इति पाठे शुभ्रादित्वं कल्प्यम् । अर्थात्--पाणिनेय प्रयोग की सिद्धि शुभ्रादिभ्यश्च (४।१।१२३) सूत्र निर्दिष्ट गण को प्राकृतिगण मानकर करनी चाहिए। . ४. पणिपुत्र-इस का प्रयोग यशस्तिलक चम्पू में मिलता है । १. पणिनः मुनिः । पाणिनिः पणिनः पुत्रः। काशकृत्स्न धातुव्याख्यान २५ ११२०६ । तथा यही ग्रन्थ ११४८०॥ दोनों स्थानों पर प्रकारान्त पाठ अशुद्ध . प्रतीत होता है। २. इस पर विशेष विचार अनुपद ही किया जायगा । ३. द्र०-चकारोऽनुक्तसमुच्चायार्थ प्राकृतिगणतामस्य बोधयति—गाङ्गेयः . पाण्डवेय इत्येवमादि सिद्धं भवति । काशिका ४।१।१२३॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५. दाक्षीपुत्र--इस नाम का उल्लेख महाभाष्य', समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित' श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा में मिलता है । ६. शालङ्कि--यह पितृव्यपदेशज नाम है ऐसा म० म० पं० शिवदत्त शर्मा का मत है। पाणिनि के लिए इस पद का प्रयोग कोश ग्रन्थों से अन्यत्र हमें उपलब्ध नहीं हुआ। पैलादिगण (२।४।५६) में 'शालङ्कि' पाठ सामर्थ्य से शलङ कु को शलङ्क आदेश और इञ् होता __ पैलादि गण २। ४ । ५६ में पठित शालति पद का पाणिनि के साथ संबन्ध है अथवा नहीं, यह हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते, १० परन्तु इतना निश्चित है कि वह प्राग्देशीय गोत्र नहीं था। महा भाष्य ४१६०,१६५ में शालङ्क! नश्छात्रा: शालङ्काः पाठ उपलब्ध होता है । यहां शालङ्कि पद अष्टाध्यायो २।४।५६ के नियम से शालङ्कि के अपत्य का वाचक है । शालति का अपत्य शालङ्कायन और उसका अपत्य शालङ्कायनि कहा जाता है। ऐसा काशकृत्स्न १५ धातुपाठ के टीकाटार चन्नवोर कवि का कथन है। काशकृत्स्न धातुपाठ में शलकि (क) स्वतन्त्र धातु पड़ी है । शालङ्कायन-प्रोक्त ग्रन्थ के अध्ययन करने वाले शालङ्कायनियों का निर्देश लाट्यायन श्रौत में उपलब्ध होता है। एक शालङ्कायन गोत्र कौशिक अन्वय में भी है। इस गोत्र के २० व्यक्ति राजन्य है।" काशिका ४।३।१२५ में बाभ्रव्यशालङ्कायनिका १. सर्वे सर्वपदादेशा दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः १।१।२०॥ २. दाक्षीपुत्रवचोव्याख्यापटुर्मीमांसकाग्रणी: । मुनिकविवर्णन श्लोक १६ । ३. शंकरः शांकरी प्रादाद् दाक्षीपुत्राय धीमते। श्लोक ५६ । ४. महाभाष्य नवाह्निक, निर्णयसागर संस्क० भूमिका पृष्ठ १४ । ५. पैलादिपाठ एव ज्ञापक इनो भावस्य । काशिका ४१॥६६ ६. अन्ये पैलादय इनन्तास्तेभ्यः 'इनः' प्राचाम्' इति लुके सिद्धेप्रागर्थः पाठ, । काशिका २४॥५६॥ इसी प्रकार तत्त्वबोधिनी में लिखा है। ७. शलङ्कः-ब्रह्मणः पुत्रः । शालङ्किः-शलङ्कस्य पुत्रः। शालद्वायन:शलङ्कः पुत्रः । शालङ्कायनि:-शालङ्कायनस्य पुत्रः । (काश० धातुम्यास्यानम् ११४९४) ॥ ८. काश० धातु. १४६४॥ ६. लाट्या० श्रौत ४८॥२०॥ १०. शलङ्कु शलङ्क चेत्यत्र पठ्यते "गोत्रविशेष कौशिके फकं स्मरन्ति । काशिका ४११६६॥ ११. शालकायना राजन्याः । काशिका ५॥३३११०॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन १९७ उदाहरण द्वारा बाभ्रव्यों और शालकायनों का विरोघ प्रर्दिशत कराया है । काशिका ६।२।३७ में भी बाभ्रवशालङ्कायनाः उदाहरण मिलता है । बाभ्रव्य भी कोशिक अन्वय में हैं। अतः ये शालङ्कायनि कौशिक ही होंगें । काशिका ५५११५८ में शालङ्गायनियों के तीन विभागों का निर्देश मिलता है।' ___७. शा (सा)लातुरीय-पाणिनि के लिए इस नाम का निर्देश वलभी के ध्रुवसेन द्वितीय के संवत् ३१० के ताम्रशासन, भामह के काव्यालंकार, काशिकाविवरण-पञ्जिका (न्यास) तथा गणरत्नमहोदधि में मिलता है। ८. माहिक-इस नाम के विषय में हमें कुछ ज्ञान नहीं और न १० ही इस का प्रयोग कोश से अन्यत्र हमें उपलब्ध हुआ। वंश-हम पूर्व लिख चुके हैं कि पं० शिवदत्त शर्मा ने पाणिनि का शालति नाम पितृ-व्यपदेशज माना है और पाणिनि के पिता का नाम शलङ्क लिखा है। गणरत्नावली में यज्ञेश्वर भट्ट ने भी शालति के पिता का नाम बलङ्क ही लिखा है। कैयट हरदत्त" और वर्धमान" १५ शालङ्कि का मूल शलङ्कु मानते हैं । हरदत्त ने पाणिनि पद की व्युत्पत्ति इस प्रकार दर्शाई है [पणोऽस्यास्तीति पणी] पणिनोऽपत्यमित्यण्..... [पाणिनः], पाणिनस्यापत्यं पणिनो युवेति इञ् [पाणिनिः] ।२ यही व्युत्पत्ति कयट मादि अन्य व्याख्याता भी मानते हैं।" २० १. मधुबभ्रुवोर्ब्राह्मणकौशिकयोः । अष्टा० ४।१।१०६॥ २: त्रिकाः शालङ्कायनाः। ६. राज्यसालातुरीयतन्त्रयोरुभयोरपि निष्णातः । ४. सालातुरीयपदमेतदनुक्रमेण । ६६२॥ ५. शालातुरीयेण प्राक् ठजश्छ इति नोक्तम् । न्यास ५।१।१॥ भाग २, २५ पृष्ठ ३॥ ६. शालातुरीयस्तत्र भवान् पाणिनिः । पृष्ठ १ । ७. भूमिका, महा० नव० निर्णयसागर संस्क०, पृष्ठ १४ । ८. हमारा हस्तलेख, पृष्ठ १२२ । ६. महाभाष्य-प्रदीप ४११०॥ १०. पदमञ्जरी २।४॥५६॥ ११. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ ११५ । १२. पदमञ्जरी १।१।७३, भाग १, पृष्ठ १४४ । १३. द्रष्टव्य पूर्व पृष्ठ १६४, टि० ५। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वैयाकरणों को भूल-उत्तरकालीन कैयट हरदत्त प्रादि सभी वैयाकरण लक्षणकचक्षु बन गये। उन्होंने यथाकथमपि लक्षणानुसार शब्दसाधुत्व बताने की चेष्टा की, लक्ष्य पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया । हम पूर्व लिख चुके हैं कि पाणिन और पाणिनि दोनों नाम एक व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होते हैं।' ऐसी अवस्था में पाणिन को पाणिनि का पिता बताना साक्षात् ऐतिह्यविरुद्ध है । इतना ही नहीं, जिस पाणिनि शब्द को यह वैयाकरण युवाप्रत्ययान्त कहते हैं वह तो गोत्रप्रवर प्रकरण में गोत्ररूप से पठित है। इसलिए पाणिनि का पिता पाणिन नहीं, अपितु पणिन् ही है और इसी का दूसरा रूप १० पणिन अकारान्त है। पतञ्जलि ने महाभाष्य १२१२२० में पाणिनि का दाक्षीपुत्र नाम से स्मरण किया है। दाक्षी पद गोत्रप्रत्ययान्त 'दाक्षि' का स्त्रीलिङ्ग रूप है। इस से व्यक्त होता है कि पाणिनि की माता दक्ष-कूल की थी। १५ मातृबन्धुः-संग्रहकार व्याडि का एक नाम दाक्षायण है। तद नुसार वह पाणिनि का मामा का पुत्र=ममेरा भाई होना चाहिए । परन्तु काशिका ६।२।६९ के कुमारीदाक्षाः उदाहरण में दाक्षायण को ही दाक्षि नाम से स्मरण किया है । अतः प्राचीन पद्धति के अनुसार दाक्षि और दाक्षायण दोनों ही नाम संग्रहकार व्याडि के हैं । इसलिए २० संग्रहकार व्याडि पाणिनि की माता का भाई और पाणिनि का मामा ही है, यह निश्चित है। व्याडि पद क्रौड्यादि गण (४।१।८०) में पढ़ा है, तदनुसार व्याडि की भगिनी दाक्षी का नाम व्याड्या भी है, पाणिनि की माता दाक्षो के लिए व्याड्या का प्रयोग अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुआ । इसी नाम परम्परा के अनुसार पाणिनि के नाना २५ अर्थात् दाक्षी के पिता का नाम व्यड था। अनुज-पिङ्गल-कात्यायनीय ऋक्सर्वानुक्रमणी के वृत्तिकार षड्गुरुशिष्य वेदार्थदीपिका में छन्दःशास्त्र के प्रवक्ता पिङ्गल को . १. द्रष्टव्य पूर्व पृष्ठ १९५-१६७ । २. देखिए इसी प्रकरण में आगे पाणिनि गोत्र, पृष्ठ २०४। ३० ३. दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः। ११। २० ॥ ४. शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः। महा० २॥३॥६६॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन १६९ पाणिनि का अनुज लिखा है।' श्लोकात्मक पाणिनीय की शिक्षाप्रकाश नाम्नी व्याख्या के रचयिता का भी यही मत है ।' इस प्रकार पाणिनि के पूरे वंश का चित्र इस प्रकार बनता है व्यड पणिन्+दाक्षी'(व्याड्या) दाक्षि (व्याडि) ५ पिङ्गल पाणिन-पाणिनि प्राचार्य-पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में दो स्थानों पर बहुवचनान्त आचार्य पद का निर्देश किया है। हरदत्त का मत है कि पाणिनि बहुवचनान्त आचार्य पद से अपने गुरु का उल्लेख करता है।' ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक', हारीत धर्मसूत्र, १० यास्कोय निरुक्त, तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, ऋतन्त्र, पातञ्जल महाभाष्य," कौटल्य अर्थशास्त्र, वात्स्यायन कामसूत्र और कामन्दकीय १. तथा च सूत्र्यते भगवता पिङ्गलेन पाणिन्यनुजेन 'क्वचिन्नवकाश्चत्वारः' (६७) इति परिभाषा। पृष्ठ ७०। २. ज्येष्ठभ्रातृभिविहितो व्याकरणेऽनुज, स्तत्र भगवान् पिङ्गलाचार्यस्तन्मतमनुभाव्य शिक्षां वक्तुप्रतिजानीते। १५ शिक्षासंग्रह, काशी संस्क० ३८५। ३. अष्टा० ७॥३॥४६॥ ८॥४॥५२॥ ४. प्राचार्यस्य पाणिनेर्य प्राचार्य: स इहाचार्य:, गुरुत्वाद् बहुवचनम् । पद. ७.३।४६; भाग २, पृष्ठ ८२१ । ५. ३।२६॥ ६. नान्तेवासिने ब्रूयात्..... ना प्रवक्तत्र इत्याचा:।८।११॥ ___७. आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिरित्याचार्या: । उद्धृत कृत्यकल्पतरु, ब्रह्मचारी- २० काण्ड,पृष्ठ ११६ । ८. मध्यममित्याचार्याः ७॥२२॥ ६. आदिरस्योदात्तसमइत्याचार्याः १॥४६॥ १०. वायु प्रकृतिमाचार्याः । पृष्ठ १ । ११. नह्याचार्या: सूत्राणि कृत्वा निवर्तयन्ति । १३१॥ प्रा० १॥ तदेतदत्यन्तं . सन्दिग्धं वर्तते प्राचार्याणाम् । १।१आ० २॥ इहेङ्गितेन चेष्टितेन महता वा सूत्रप्रबन्धेनाचार्याणामभिप्रायो लक्ष्यते । ६।१॥३७॥ ८॥२॥३॥ २५ १२. १ ॥ ४ ॥२॥६॥३॥ ४, ५, ७ इत्यादि ३६ स्थानों पर । १३. ११२॥२१॥ १।३१७ इत्यादि १० स्थानों पर । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ २०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नीतिसार' आदि में बहुवचनान्त आचार्य पद का व्यवहार बहुधा मिलता है, परन्तु वह अपने गुरु के लिये व्यवहृत हुअा है यह अनिश्चित है। महाभाष्य में एक स्थान पर कात्यायन के लिये और तीन स्थानों पर पाणिनि के लिये बहुवचनान्त आचार्य पद प्रयुक्त हुआ है। कयासरित्सागर आदि के अनुसार पाणिनि के गुरु का नाम 'वर्ष' था। वर्ष का अनुज 'उपवर्ष' था । एक उपवर्ष जैमिनीय सूत्रों का वृत्तिकार था। एक उपवर्ष धर्मशास्त्रों में स्मृत है।' हमारे विचार में जमिनीय सूत्र-वृत्तिकार और धर्मशास्त्र में स्मृत उपवर्ष एक हो है । यह उपवर्ष जेमिनि से कुछ हो उत्तरकालीन है। १० अवन्तिसुन्दरीकथासार में वर्ष और उपवर्ष का तो उल्लेख है, परन्तु उसमें पाणिनि का उल्लेख नहीं है । अर्वाचीन वैयाकरण महेश्वर को पाणिनि का गुरु मानते हैं, परन्तु इस में कोई प्रमाण नहीं है। कथासरित्सागर की कथाएं ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी प्रामाणिक नहीं हैं। अतः पाणिनि के प्राचार्य का नाम सन्दिग्ध है। हां, यदि कथा सरि१५ सागर में स्मत उपवर्ष भी प्राचीन जैमिनीयवत्तिकार और धर्म शास्त्रों में स्मृत उपवर्ष हो हो और इसी का भाई वर्ष हो तो उसे पाणिनि का प्राचार्य माना जा सकता है । उस अवस्था में कथासरित्सागरकार का इन वर्ष उपवर्ष को नन्दकालिक लिखना भ्रान्तिमूलक मानना पड़ेगा। कई आधुनिक विद्वान् भी पाणिनि का काल नन्द से प्राचीन २० मानते हैं । शिष्य-कौत्स-पातञ्जल महाभाष्य ३।२।१०८ में एक उदाहरण है-उपसेदिवान् कौत्सः पाणिनिम् । इसो सूत्र पर काशिका वृत्ति १. ८ । ५८ ॥ २. द्र० पू० पृ. १५६ टि० ११ । ३. अथ कालेन वर्षस्य शिष्यवर्गों महानभूत् । तत्रैकः पाणिनि म २५ जडबुद्धितरोऽभवत् ॥ कथा० लम्बक १, तरङ्ग ४, श्लोक २० ।' , ४. शाबरभाष्य १११॥५॥ केशव, कोशिकसूत्र टीका, पृष्ठ ३०७ । सायण; अथर्वभाष्योपोद्धात पृष्ठ ३५ । प्रपञ्चहृदय पृष्ठ ३८ । ५. तथा च प्रवरमञ्जरीकारः शिष्टसम्मतिमाह--शुद्धाङ्गिरो गर्गमये कपयः पठिता अपि । प्राचार्यरुपवर्षाद्यैर्भरद्वाजाः स्युरेव ते । द्विविधानपि १गर्गास्तानुपवर्षों महामुनिः । अनुक्रम्य त्ववैवाह्यान् भरद्वाजतया जगी। वीर मित्रोदय, संस्कारप्रकाश, पृष्ठ ६१३, ६१४ में उद्धृत । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन . २०१ में दो उदाहरण और दिये हैं--अनषिवान् कौत्सः पाणिनिम्, उपशुश्रुवान् कौत्सः पाणिनिम् । इन उदाहरणों से व्यक्त होता है कि कोई कौत्सः पाणिनि का शिष्य था। जैनेन्द्र आदि व्याकरण की वृत्तियों में भी गुरु-शिष्यसम्प्रदाय का इस प्रकार उल्लेख मिलता है। एक कौत्स निरुक्त १११५ में उद्धत है।' गोभिल गृह्यसूत्र, आपस्तम्ब ५ धर्मसूत्र, आयुर्वेदीय कश्यपसंहिता और सामवेदीय निदानसूत्र में भी किसी कौत्स का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद की शौनकीय चतुरध्यायी भी कौत्सकृत मानी जाती है एक वरतन्तु शिष्य कौत्स रघुवंश ५।१ में निर्दिष्ट है। पाणिनि शिष्य कौत्स इनसे भिन्न है। क्योंकि रघुवंश के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों में कौत्स स्मृत है, वे सब १० पाणिनि से पूर्वभावी हैं। सत्यकाम वर्मा का मिथ्या प्रलाप-डा० सत्यकाम वर्मा में 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १२६-१२८ तक मेरे विषय में 'मैं यास्कीयनिरुक्तोधृत कौत्स को पाणिनि का शिष्य मानता है' मिथ्या लिख कर खण्डन करने का प्रयत्न किया है । जब १५ कि मैंने स्पष्ट लिखा है कि पाणिनि शिष्य कौत्स इन (पूर्व निदिष्ट कौत्सों) से भिन्न है, तब क्या सत्यकाम वर्मा का मेरे नाम से मिथ्या निर्देश करके उस का खण्डन करना स्व पाण्डित्य-प्रदर्शन करना नहीं है ? क्या यह विद्वानों का काम है ? ___ कात्यायन-नागेश के लघुशब्देन्दुशेखर से ध्वनित होता है कि २० कात्यायन पाणिनि का साक्षात शिष्य है। पतञ्जलि के साक्षात शिष्य न होने से त्रिमुनि उदाहरण को चिन्त्य कहा है अथवा प्रकारान्तर से उपपत्ति दर्शाई हैं । हमारा भी यही विचार है कि वार्तिककार वररुचि कात्यायन पाणिनि का साक्षात् शिष्य है । इस विषय पर विशेष कात्यायन के प्रकरण में लिखेंगे । १. जैनेन्द्र व्या० महानन्दिवृत्ति २।२। ८८, ६६ ॥ २. यदि मन्त्रार्थप्रत्यायनायानर्थको भवतीति कौत्सः । २. ३॥१०॥४॥ ४. १११६४॥ १॥२८॥१॥ ५. पृष्ठ ११५ । ६. २।१,१०॥ ३॥११॥ ८॥१०॥ ७. पूर्व पृष्ठ ७३, टि० ७ । ८. कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः । ६. अव्ययीभाव प्रकरण में ‘संख्या वंश्येन' सूत्र की व्याख्या में । 26 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अनेक शिष्य-काशिका ६।२।१०४ में पाणिनि के शिष्यों को दो विभागों में बांटा है-पूर्वपाणिनीयाः, अपरपाणिनीयाः। महाभाष्य १।४।१ में पतञ्जलि ने भी लिखा है-उभयथा ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः, केचिदाकडारादेका संज्ञा इति, केचित् प्राक्कडारात् परं कार्यमिति । इस से विदित होता है कि पाणिनि के अनेक शिष्य थे और उसने अपने शब्दानुशासन का भी अनेक बार प्रवचन किया था। देश-पाणिनि का एक नाम शालातुरीय है। जैनलेखक वर्धमान गणरत्नमहोदधि में इस की व्युत्पत्ति इस प्रकार दर्शाता है शलातुरो नाम ग्रामः, सोऽभिजनोऽस्यास्तीति शालातुरीयः तत्र भवान् पाणिनिः । अर्थात्-शलातुर ग्राम पाणिनि का अभिजन था । पाणिनि ने अष्टाध्यायी ४।३।६३ में साक्षात् शलातुर पद पढ़ कर अभिजन अर्थ में शलातुरीय पद की सिद्धि दर्शाई है। भोजीय १५ सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३।२१० में 'सलातुर' पद पढ़ा है। अभिजन और निवास में भेद-महाभाष्य ४।३।९० में अभिजन और निवास में भेद दर्शाया है अभिजनो नाम यत्र पूर्वैरुषितम्, निवासो नाम यत्र संप्रत्युष्यते । इस लक्षण के अनुसार शलातुर पाणिनि के पूर्वजों का वासस्थान २० था, पाणिनि स्वयं कहीं अन्यत्र रहता था। पुरातत्त्वविदों के मतान सार पश्चिमोत्तर-सीमा प्रान्तस्थ अटक समीपवर्ती वर्तमान 'लाहुर' ग्राम प्राचीन शलातुर है। ___ अष्टाध्यायी के 'उदक् च विपाशः, वाहोकनामेभ्यश्च, इत्यादि सूत्रों तथा इनके महाभाष्य से प्रतीत होता है कि पाणिनि का वाहीक २५ देश से विशेष परिचय था । अतः पाणिनि वाहीक देश वा उसके अतिसमीप कः निवासी होगा। तपःस्थान-स्कन्द पुराण में लिखा है कि पाणिनि ने गोपर्वत पर १. गण० महो० पृष्ठ १। २. अष्टा० ४।२।७४। ३. अष्टा० ४।२।११७॥ ३० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २०३ तपस्या की थी और उसी के प्रभाव से वैयाकरणों में प्रमुखता प्राप्त की थी। सम्पन्नता-पाणिनि का कुल अत्यन्त सम्पन्न था। उसके अपने शब्दानुशासन के अध्ययन करने वाले छात्रों के लिये भोजन का प्रबन्ध कर रक्खा था । उसके यहां छात्र को विद्या के साथ-साथ भोजन भी ५ प्राप्त होता था। इसी भाव को प्रकट करने वाला 'मोदनपाणिनीयाः' उदाहरण पतञ्जलि ने महाभाष्य ११११७३ में दिया है । काशिका ६।२। ६६ में वामन ने पूर्वपदायुदात्त 'मोदनपाणिनीयाः' उदाहरण निन्दार्थ में दिया है। इसका अर्थ है-पोदनप्रधानाः पाणिनीयाः' अर्थात् जो श्रद्धा के विना केवल अोदनप्राप्ति के लिये पाणिनीय शास्त्र को पढ़ता १० है, वह इस प्रकार निन्दावचन को प्राप्त होता है ।। मृत्यु-पाणिनि के जीवन का किञ्चिन्मात्र इतिवृत हमें ज्ञात नहीं। पञ्चतन्त्र में प्रसंगवश किसी प्राचीन ग्रन्थ से एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें पाणिनि जैमिनि और पिङ्गल के मृत्यु-कारणों का उल्लेख है । वह श्लोक इस प्रकार है- सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत् प्राणान् प्रियान् पाणिनेः, मीमांसाकृतमुन्ममाथ सहसा हस्ती मुनि जैमिनिम् । छन्दोज्ञाननिधि जघान मकरो वेलातटे पिङ्गलम्, अज्ञानावृतचेतसामतिरुषां कोऽर्थस्तिरश्चां गुणैः ॥' इससे विदित होता है कि पाणिनि को सिंह ने मारा था। वैया- २० करणों में किंवदन्ती है कि पाणिनि की मृत्यु त्रयोदशी को हुई थी। १. गोपर्वतमिति स्थानं शम्भोः प्रख्यापितं पुरा। यत्र पाणिनिना लेभे वैयाकरणिकाग्रयता ॥ माहेश्वर खण्डान्तर्गत अरुणाचल माहात्म्य, उत्तरार्ध २ । ६८, पृष्ठ ६२१ मोर संस्क० (कलकत्ता)। २. पञ्चतन्त्र, मित्रसंप्राप्ति श्लोक ३६, जीवानन्द संस्क० । चक्रदत्तविर- २५ चित चिकित्सासंग्रह का टीकाकार निश्चुलकर (सं० ११६७-११७७=सन १११०-११२० ) इस श्लोक को इस प्रकार पढ़ता है--'तदुक्तम-छन्दोज्ञाननिघि जघान मकरो वेलातटे पिङ्गलम्, सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरपहरत् प्राणान् प्रियान पाणिनेः। मीमांसाकृतमुन्ममाथ तरसा हस्ती वने जैमिनिम, अज्ञानावतचेतसामतिरुषां कोऽर्थस्तिरश्चां गुणैः ॥ इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी जून ३० १९४७ पृष्ठ १४२ में उद्धृत। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास मास और पक्ष का निश्चय न होने से पाणिनीय वैयाकरण प्रत्येक त्रयोदशी को अनध्याय करते हैं । यह परिपाटो काशी आदि स्थानों, में हमारे अध्ययन काल तक वर्तमान थी। ___ अनुज=पिङ्गल की मृत्यु-पञ्चतन्त्र के पूर्व उद्धृत श्लोक के ५ तृतीय चरण में लिखा है--पिङ्गल को समुद्रतट पर मगर ने निगल लिया था । पाणिनि की महत्ता-प्राचार्य पाणिनि की महत्ता इसी से स्पष्ट है कि उस के दोनों पाणिनि और पाणिन नाम गोत्ररूप से लोक में प्रसिद्ध हो गए । अर्थात् उसके वंशजों ने अपने पुराने गोत्र नाम के १० स्थान पर इन नए नामों का व्यवहार करने में अपना अधिक गौरव समझा। पाणिनि गोत्र--बोधायन श्रौत सूत्र प्रवराध्याय (३) तथा मत्स्य पुराण १६७ । १० के गोत्रप्रकरण में पाणिनि गोत्र का निर्देश है ।' पाणिन गोत्र-वायु पुराण ६११६६ तथा हरिवंश १।२७।४६ में १५ पाणिन गोत्र स्मृत है।' पाणिनि की प्रतिप्रसिद्धि-काशिकाकार ने २११६ की वृत्ति में इतिपाणिनि तत्पाणिनि और २।१।१३ को वृत्ति में प्राकुमारं यशः पाणिनेः उदाहरण दिए हैं। इन से स्पष्ट है कि पाणिनि की यशः पताका लोक में सर्वत्र फहराने लग गई थी। __ पैङ्गलोपनिषद्-पिङ्गल नाम से सम्बद्ध एक पैङ्गलोपनिषद् भो है, परन्तु हमें वह नवीन प्रतीत होती है । १. पैङ्गलायना: वहीनरयः,..."काशकृत्स्नाः, पाणिनिर्वाल्मीकि ...... आपिशलयः । बौ० श्री० ॥ पाणिनिश्चैव्व न्याया: सर्व एते प्रकीर्तिताः । मत्स्य पुराण ॥ २. बभ्रवः पाणिनश्चैव घानजप्यास्तथैव २५ च । वायुः । यहां 'धानञ्जयास्तथैव' पाठ शुद्ध प्रतीत होता है। ३. काशिकाकार ने प्रथम उदाहरणों का अर्थ किया हैं—पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते । अन्तिम उदाहरण का अर्थ नहीं किया । कई विद्वानों का विचार है कि इस का अर्थ 'बालकों पर्यन्त पाणिनि का यश व्याप्त हो गया, ऐसा है। हमारा विचार है 'पाकुसर्या आकुमारम्' अर्थात् 'दक्षिण में कुमारी ३० अन्तरीय पर्यन्त पाणिनि का यश पहुंच गया' होना अधिक संगत है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २०५ पैङ्गली कल्प--यह कल्प शाकटायन व्याकरण ३।१।१७५ की अमोघा और चिन्तामणि वृति में स्मृत है। पङ्गालायन गोत्र--बौधायन श्रोत प्रवराध्याय ३ में पैङ्गलायन गोत्र का भी निर्देश उपलब्ध होता है। यह गोत्र पाणिनि-अनुज पिङ्गल के पुत्र से प्रारम्भ हुआ अथवा किसी प्राचीन पैङ्गलायन से, ५ यह विचारणीय है। पैङ्गलायनि-ब्राह्मण-बोधायन श्रीत २१७ में पैङ्गलायनि ब्राह्मण का पाठ उद्धृत है । वह किसी प्राचीन पैङ्गलायन प्रोक्त है। इस में णिनि प्रत्यय होकर पैङ्गलायनि-ब्राह्मण प्रयोग निष्पन्न हुआ है । पुराण-प्रोक्त पैङ्गलीकल्प का हम ऊपर निर्देश कर चुके है । १० पाणिनि-अनुज पिङ्गल के पौत्र तक ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रवचन होता रहा, इस में कोई प्रमाण नहीं है। जहां तक व्यास के शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा वेद की अन्तिम शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रवचन का प्रश्न है, वह अधिक से अधिक भारत युद्ध से १०० वर्ष पूर्व से १०० वर्ष पश्चात् तक माना जाता है । अतः बौधायन श्रौत में स्मृत पैङ्गला- १५ यनिब्राह्मण पिङ्गल पौत्र पैङ्गलायनि प्रोक्त नहीं हो सकता यह स्पष्ट काल भारतीय प्राचीन आर्ष वाङ्मय और उसके अतिप्राचीन इतिहास को अधिक से अधिक अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए बद्धपरिकर २० पाश्चात्य विद्वानों ने पाणिनि का समय ७ वीं शती ईसा पूर्व से लेकर ४ थी शती ईसा पूर्व अर्थात् ६५७ वि० पूर्व से २५८ विक्रम पूर्व तक माना है। पूर्व सीमा गोल्डस्टुकर की है और अन्तिम सीमा बैवर और कीथ द्वारा स्वीकृत है। भारतीय प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में १. देखो पूर्व पृष्ठ २०४ टि० १। २. अप्येकां गां दक्षिणां दद्यादिति पैङ्गलायनिब्राह्मणं भवति । ३. पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु । अष्टा ४।३।१०५ ॥ ४. इसका प्रधान कारण यहूदी ईसाइमत का पक्षपात है। इस के लिये देखो पं० भगवद्दत्त कृत 'Western Indologists : A Study In Motives'. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पाश्चात्त्य मत, जिसकी मूल भित्ति सिकन्दर' और चन्द्रगुप्त मौर्य को काल्पनिक समकालीन मानना है, जो अपरीक्षितकारक के समान प्रांख मद कर मानने वाले अंग्रेजी पढ़े अनेक भारतीय भी स्वीकार करते हैं। पाणिनि के काल निर्णय के लिए पाश्चात्त्य और उन के भारतीय अनुयायी जिन प्रमाणों का उल्लेख करते हैं, उनमें निम्न प्रमाण मुख्य हैं १-आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प में लिखा है-महापद्म नन्द का मित्र एक पाणिनि नाम का माणव था।' ' २–कथासरित्सागर में पाणिनि को महाराज नन्द का सम१० कालिक कहा है। ३-बौद्ध भिक्षों के लिए प्रयुक्त होने वाले श्रमण शब्द का निर्देश पाणिनि के कुमारः श्रमणादिभिः (२। १ । ७०) सूत्र में मिलता है-- ___४-बुद्धकालिक मंखलि गोसाल नाम के प्राचार्य के लिए प्रयुक्त १५ संस्कृत मस्करी शब्द का साधुत्व पाणिनि ने मस्करमस्करिणौ वेणपरिवाजकयोः (६।१।१५४) सूत्र में दर्शाया है। ५–सिकन्दर के साथ युद्ध में जूझने वाली और उसे पराजित कर के वापस लौटने को बाध्य करने वाली क्षुद्रक मालवों की सेना का उल्लेख पाणिनि ने खण्डिकादि गण (४।२।४५) में पठित क्षद्रकमाल२० वात् सेनासंज्ञायाम् गणसूत्र में किया है, ऐसा बैवर का मत है । ६-अष्टाध्यायी ४ । १।४६ में यवन शब्द पठित है । उसके आधार पर कीथ लिखता है कि पाणिनि सिकन्दर के भारत आक्रमण के पोछे हुआ। १. सिकन्दर का आक्रमण चन्द्रगुप्त मौर्य के समय नहीं हुआ। इन दोनों की समकालीनता भ्रममूलक है। मैगस्थनीज के अवशिष्ट इतिवृत्त से भी इन २५ की समकालीनता कथञ्चित भी सिद्ध नहीं होती, अपितु इसका विरोध विस्पष्ट है । इस तथ्य के परिज्ञानार्थ देखिए पं० भगवद्दत्तजी कृत 'भारतवर्ष का बृहद इतिहास' भाग १, पृष्ठ २८८-२९८, द्वि० सं० । २. तस्याप्यन्यतमः सख्यः पाणिनि म माणवः । ३० ३. कथा० लम्बक १, तरङ्ग ४ । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २०७ ७-- राजशेखर ने काव्यमीमांसा में जिस अनुश्रुति का उल्लेख किया है उसके अनुसार पाटलिपुत्र में होने वाली शास्त्रकार- परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वर्ष, उपवर्ष पाणिनि, पिङ्गल और व्याडि ने यशो - लाभ प्राप्त किया था।' पाटलिपुत्र की स्थापना महाराज उदयो ने कुसुमपुर के नाम से की थी। ये हैं संक्षेप से कतिपय मुख्य हेतु,' जिन के आधार पर पाणिनि का काल ४ थी शती ईसा पूर्व तक खींच कर स्थापित किया जाता है । अब हम संक्षेप से इन हेतुओं की परीक्षा करते हैं- १ - - बोद्ध ग्रन्थों के अध्ययन से यह विस्पष्ट प्रतीत होता है कि १० उस समय व्यक्तिगत विशिष्ट नामों के स्थान पर प्रायः गोत्र नामों का व्यवहार करने का परिचलन था । हम पूर्व (पृष्ठ २०४ ) लिख चुके हैं कि पाणिनि भी एक गोत्र है । अतः मञ्जु श्रीमूलकल्प में किसी पाणिनि नाम वाले माणव का महापद्म के सखा रूप में उल्लेख मात्र से विना विशिष्ट विशेषण के यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है १५ कि यह पाणिनि शास्त्रकार पाणिनि ही है । प्राचीन परिपाटी को विना जाने ऐसी ऊटपटांग कल्पनात्रों के आधार पर अनेक व्यक्ति बौद्ध ग्रन्थों में गोत्र नाम से अभिहित आश्वलायन आदिकों को ही वैदिक वाङ् मय के विविध ग्रन्थों के रचयिता कहने का दुस्साहस करते हैं । इसके विपरीत बौद्ध ग्रन्थों में २० अनेक स्थानों पर तदागत बुद्ध के साथ धर्मचर्चा करने वाले वेदवेदाङ्ग पारग विद्वानों का जो वर्णन उपलब्ध होता है उससे तो वेदाङ्गों की सत्ता तथागत बुद्ध के काल से बहुत पूर्व स्थिर होती है । २ -- कथासरित्सागर के रचयिता को भी बौद्धकालिक गोत्र नाम व्यवहार के कारण भ्रान्ति हुई है और इसीलिए उसने पाणिनि और २५ १. श्रूयते च पाटिलपुत्रे शास्त्रकार परीक्षा - 'प्रत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिङ्गलाविह व्याडि: । वररुचिपतञ्जलि इह परीक्षिताः ख्यातिमुपजग्मुः । अ० १०, पृष्ठ ५५ ॥ २. वायुपुराण ६६ । ३१८ || विशेष पतञ्जलि के प्रकरण में देखें । ३. पाश्चात्य मत में दिए जाने वाले हेतुनों के लिए डा० वासुदेवशरण अग्रवाल का 'पाणिनि कालीन भारतवर्ष' अध्याय ८ देखें । ३० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वररुचि को नन्द का समकालिक लिख दिया है । इस भ्रान्ति की पुष्टि वातिककार वररुचि को कौशाम्बी निवासी लिखने से भी होती है। कौशाम्बी प्रयाग के निकट है। पतञ्जलि महाभाष्य में वार्तिक कार को स्पष्ट शब्दों में दाक्षिणात्य कहता है । इस विरोध से स्पष्ट ५ है कि कथासरित्सागर की कथानों के आधार पर किसी इतिहास को कल्पना कगना नितान्त चिन्त्य है । इतना ही नहीं पाश्चात्त्य ऐतिहासिकों ने तो महापद्म नन्द का काल भी बहुत अर्वाचीन बना दिया है । भारतीय पौराणिक काल गणनानुसार, जो उत्तरोत्तर शोध द्वारा सत्य सिद्ध हो रही है नन्द का काल विक्रम से पन्द्रह सोलह सौ वर्ष पूर्व है। ३-यदि श्रमण शब्द का व्यवहार बौद्ध साहित्य में हो, और वह भी केवल बौद्ध परिव्राजकों के लिए होता तो उस के आधार पर कथंचित पाणिनि को बौद्ध काल में रखा जा सकता थ , परन्तु श्रमण शब्द तो तथागत बुद्ध से सैकड़ों वर्ष पूर्व प्रोक्त शतपथ ब्राह्मण १४ । १५ ७।१।२२ तैत्तिरोय आरण्यक २७१ में भी उपलब्ध होता है । सभी व्याख्याकारों ने श्रमण शब्द का अर्थ परिबाट सामान्य किया है। अष्टाध्यायो (२।११७०) में निर्दिष्ट कुमारश्रमणः में कुमार शब्द बालक का वाचक नहीं है, अपितु अकृत-विवाह (कुंवारे) का वाचक है। जैसे वृद्धकुमारी में कुमारा शब्द कुंवारी के लिये प्रयुक्त है। २० अतः कुमारश्रमण वे परिव्राजक कहाते हैं जो ब्रह्मचर्य से ही संन्यास ग्रहण करते हैं। ___ ४-यदि तुष्यतु दुर्जनः न्यार से अष्टाध्यायी में प्रयुक्त मस्करी शब्द को मंखलि शब्द का संस्कृत रूप मान भी लें तो मस्करिन में प्रयुक्त मत्त्वर्थक इनि प्रत्यय का कोई अर्थ न होगा और न उस का २५ मूलभूत वेणवाचक मस्कर शब्द के साथ कोई संबंध होगा। इतना ही नहीं, यदि पाणिनि की दृष्टि में मस्करी शब्द मंखलि गोसाल का ही वाचक था तो उस के अर्थनिर्देश के लिए पाणिनि ने सामान्य परिव्राजक पद का निर्देश क्यों किया ? १. लम्पक १, तरङ्ग ४। ३० २. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्या: । महा० ११, प्रा० १। ३. वृद्धकुमारी-न्याय, महाभाष्य ८।२।३॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २०६ वस्तुतः मस्करी शब्द का संबन्ध वेणुवाचक मस्कर शब्द के साथ ही है । इसीलिए पाणिनि से पूर्ववर्ती ऋक्तन्त्रकार ने मस्करो वेणुः (४।७।६) सूत्र में मस्कर शब्द का ही निर्देश किया और उसी से मस्करी को गतार्थ माना । पतञ्जलि की मा कृत कर्माणि' व्याख्या मस्करी ग्रहण के आनथक्य' के प्रत्याख्यान के लिए प्रौढिवाद मात्र ५ है। यदि इस व्याख्या को प्रामाणिक भी माना जाए, तब भी मस्करी का मूल वेणुवाचक मस्कर शब्द ही होगा । उस का अर्थ भी है-- मा क्रियतेऽनेनेति । जिस से अनर्थरूप कर्मों का निषेध होता है वह मस्कर वेणु अर्थात् दण्ड। और इसी मा मर=मस्कर निर्वचन को मानकर पाणिनि ने सुडागम का विधान किया है। वस्तुतः मस्कर १० और मस्करी दोनों पद मस्क गतौ धातु से निष्पन्न हैं । - वास्तविक स्थिति तो यह है कि मस्करी को मंखली का संस्कृत रूप मानना ही भ्रान्तिमूलक है। महाभारत में निर्दिष्ट मङ्कि ऋषि के कुल में उत्पन्न होने से ही मङ्किल का मंखलि उपभ्रंश बना है। प्रत एव भगवती सूत्र (१५) आदि में मंखलि को मंख का पुत्र कहना १५ युक्त है। जैनागमों में गोसाल को मंखलिपुत्त भी कहा है। ५–बैवर के मत की आलोचना तो पाश्चात्त्यमतानुगामी डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने ही भले प्रकार कर दी है, अतः उस का यहां पुनः लिखना पिष्टपेषणवत् होगा । १. माकृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसी । महाभाष्य ६।१११५४॥ २. मस्करिग्रहणं शक्यमकर्तुम् । कथं मस्करी परिव्राजक इति ? इनिनेतन्मत्त्व येन सिद्धम् । मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी । महाभाष्य ६।१।१५४॥ ३. क्षीरस्वामी, अमरटीका २।४।१६० ।। ४. यह धातु पाणिनीय धातुपाठ के प्राच्य उदीच्य आदि सभी पाठों में पठित है । ५. मस्क+बाहुलकाद् अरः । शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृष्ठ २५ ६५१ । इसी प्रकार 'अरिनि' प्रत्यय होकर मस्कस्न् ि । यद्वा-मस्कते इति ... मस्कः, अच् । तस्मान्मत्वर्थीयो र:, मस्करः,पुनस्तस्मान्मत्वर्थीय इनिः मस्करिन । ६. मङ्कि ऋषि द्वारा गीत अनेक श्लोक महाभारत शान्तिपर्व अ० १७७ । में पठित हैं। यह प्रकरण मङ्कि-गीता के नाम से प्रसिद्ध है। ७. पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ३७६ । ८. पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ४७६ । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६-'यवनानी' शब्द पर लिखते हुए डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी स्पष्ट लिखा है कि भारतीय सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी यवन जाति से परिचित थे।' यवन जाति के विषय में हम इतना और कहना चाहते हैं कि ५ यवन जाति मूलतः अभारतीय नहीं है। यवन महाराज ययाति के पुत्र के वंशज हैं । महाभारत में स्पष्ट लिखा है यदोस्तु यादवा जातास्तुर्वसोस्तु यवनाः स्मृताः ।' यह तुर्वसु की सन्तति बृहत्तर भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर निवास करती थी। ब्राह्मणों के प्रदर्शन और धर्मक्रिया के लोप के १० कारण ये लोग म्लेच्छ बन गए। ये लोग यहीं से प्रवास करके पश्चिम में गए और इन्हीं के यवन नाम पर उस देश का नाम भी यवन यूनान पड़ा। इस ऐतिहासिक तथ्य को स्वीकार न करके किसी भी प्राचीन गन्थ में यवन शब्द के प्रयोग मात्र से उसे सिकन्दर के आक्रमण से १५ पीछे का बना हुअा कहना दुराग्रह मात्र है ७–अब शेष रहती है राजशेखर द्वारा उधत अनुश्रुति । अनुश्रुति इतिहास में तभी तक प्रमाण मानी जाती है.जब तक उसका प्रत्यक्ष बलवत प्रमाण से विरोध न हो। विरोध होने पर अनुश्रति अनुश्रति मात्र रह जाती है। इस के साथ ही यह भी ध्यान रहे कि राजशेखर २० अति-अर्वाचीन ग्रन्थकार है। उस काल तक पहुंचते-पहुंचते अनुश्र ति का रूप ही परिवर्तित हो गया। उस के लेखानुसार तो पतञ्जलि भी पाणिनि का समकालिक बन जाता है। अतः राजशेखर की अनुश्र ति अप्रमाण है। २५ १. पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ४७५-४७६ ।। २. आदि पर्व १३६॥२॥; कुम्भघोण संस्क० । ३. मनु १०।४२,४४॥ इन्हीं यवनों के एक आततायी राजा 'कालयवन' का वध श्रीकृष्ण ने किया था। इस के विषय में अल्बेरूनी लिखता है'हिन्दुओं में कालयवन नाम का एक संवत् प्रचलित है।... “वे इसका प्रारम्भ गत द्वापर के अन्त में मानते हैं । इस यवन ने इनके धर्म और देश पर बड़े ४. पूर्व पृष्ठ २०७ टि० १ देखिए। ३० अत्याचार किये थे। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २११ अब शेष रह जाता है महाराज उदयी के द्वारा पाटलिपुत्र का बसाना । इस के विषय में हम पतञ्जलि के प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे। ___ डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनि कालीन भारतवर्ष में गोल्डस्टकर आदि के मतों का प्रत्याख्यान करके पाणिनि का समय ५ नन्द के काल में ईसा पूर्व ४ थी शती माना है। अब हम उसकी विवेचना करते हैं १. पहले हम उस प्रमाण को लेते हैं जिस का निर्देश स्वमत से विरुद्ध होने के कारण पाश्चात्त्य विद्वानों और उनके अनुयायियों ने जान बूझ कर उपस्थित नहीं किया। वह है पाणिनि द्वारा निर्वाणो- १० ऽवाते (८।२।५०) सूत्र में निर्दिष्ट निर्वाण पद । वैयाकरण इस सूत्र का उदाहरण देते हैंनिर्वाणोऽग्निः, निर्वाणः प्रदीपः, निर्वाणो भिक्षुः। इन में निर्वाण पद का अर्थ है-'शान्त होना' बुझ जाना, मर जाना । पाश्चात्त्य मतानुसार यदि पाणिनि तथागत बुद्ध से उत्तरकालीन होता तो बौद्ध साहित्य में निर्वाण शब्द का जो प्रसिद्ध मोक्ष अर्थ है, उस का वह उल्लेख अवश्य करता। जो पाणिनि मंखलि गोसाल व्यक्ति विशेष के लिए प्रयुक्त 'मस्करी' शब्द का उल्लेख कर सकता है (पाश्चात्त्यमतानुसार), वह बौद्ध साहित्य में प्रसिद्धतम निर्वाण पद २० के अर्थ का निर्देश न करे, यह कथमपि सम्भव नहीं । इसलिए पाणिनि द्वारा बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध निर्वाण पद के अर्थ का उल्लेख न होने से पाश्चात्त्यसरणि-अनुसार ही यह सिद्ध है कि पाणिनि तथागत बुद्ध से पूर्ववर्ती है। ___ कालविवेचन में बाह्यसाक्ष्य का अपना स्थान होता ही है तथापि २५ अन्तःसाक्ष्य का महत्त्व सर्वोपरि होता है और वह महत्त्व उस अवस्था में और भी बढ़ जाता है जब बाह्यसाक्ष्य और अन्तःसाक्ष्य में विरोध हो । अन्तरङ्ग बलीयो भवति यह न्याय प्रसिद्ध ही है। अतः हम पाणिनि के काल निर्णय के लिये अतःसाक्ष्य उपस्थित करते हैं । अन्त साक्ष्य ३० अब पाणिनि के काल-विवेचन के लिए अष्टाध्यायी के उन अन्तः Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास साक्ष्यों को उद्धृत करते हैं, जिनका निर्देश आज तक किसी भी व्यक्ति ने नहीं किया । यथा २. यह सर्ववादी सम्मत है कि तथागत बुद्ध के काल में संस्कृत भाषा जनसाधारण की भाषा नहीं थी उस समय जनसाधारण में पालि और प्राकृत भाषाएं ही व्यवहृत होती थीं। इसलिए तथागत बुद्ध और महावीर स्वामी ने अपने मतों के प्रचार के लिए संस्कृत के स्थान में पालि और प्राकृत भाषाओं का आश्रय लिया। इसके विपरीत पाणिनीय अष्टाध्यायी में शतशः ऐसे प्रयोगों के साधुत्व का उल्लेख मिलता है, जो नितान्त ग्राम्य जनता के व्यवहारोपयोगी हैं। १० यथा - क-शाक बेचने वाले कूजड़ों द्वारा विक्रय के लिए मूली, पालक, मेथो, धनिया, पोदीना आदि-आदि की बांधी मुट्ठी अथवा गड्डी के लिए प्रयुक्त होने वाले मूलकपणः, शाकपणः आदि शब्दों के साधुत्व बोधन के लिए एक सूत्र है१५ नित्यं पणः परिमाणे । ३ । ३ । ६६॥ __ इस सूत्र से बोधित शब्द विशुद्ध दैनन्दिन के व्यवहारोपयोगी हैं, साहित्य में प्रयुक्त होने वाले शब्द नहीं हैं । ___ ख-वस्त्र रंगने वाले रंगरेजों के व्यवहार में आने वाले माञ्जि ष्ठम्, काषायम्, लाक्षिकम् आदि शब्दों से साधुत्व ज्ञापन के लिए २० पाणिनि ने निम्न सूत्र पढ़े हैं तेन रक्तं रागात् । लाक्षारोचनाट्ठक् । ४ । २ । १, २ ॥ ग--पाचकों के (जो कि पुराकाल में शूद्र ही होते थे') व्यवहार में आने वाले दाधिकम्, प्रौदश्वित्कम्, लवणः सूपः आदि प्रयोगों के लिए पाणिनि ने ४।२।१६-२० तथा ४।४।२२-२६ दस सूत्रों का २५ विधान किया है। __घ--कृषकों के व्यवहारोपयोगी विभिन्न प्रकार के धान्योपयोगी क्षेत्रों के वाचक प्रेयङ्गवीनम्, बहेयम्, यव्यम्, तिल्यम्, तैलीनम् आदि प्रयोगों के लिए ५।२।१-४ चार सूत्रों का प्रवचन किया है। १. प्रार्याधिष्ठिता वा शूद्राः संस्कर्तारः स्युः । आप० धर्म० २२२॥३॥४॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २१३ - ड-शूद्रों के अभिवादन प्रत्यभिवादन के नियम का उल्लेख ८।२।८२ में किया है। ___इन तथा एतादृश अन्य अनेक प्रकरणों से स्पष्ट है कि पाणिनि के काल में संस्कृत लोक व्यवहार्य जनसाधारण की भाषा थी। ___कीथ की सत्योक्ति-कीथ ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास ५ . में अष्टाध्यायी के उपर्युक्त जनसाधारणोयोगी शब्दों का निर्देश करके यह स्वीकार किया है कि पाणिनि के समय संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी। ३. पाणिनि की अष्टाध्यायी से तो यह भी पता चलता है कि संस्कृत भाषा केवल जनसाधारण की ही भाषा नहीं थी, अपितु १० जनसाधारण वैदिक भाषावत् लोकभाषा में भी उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों का यथावत् व्यवहार करते थे। पाणिनीय अष्टाध्यायी के वे सब स्वर-नियम और स्वरों की दृष्टि से प्रत्ययों में सम्बद्ध अनुबन्ध, जिन का संबन्ध केवल वैदिक भाषा के साथ ही नहीं है, इस तथ्य के ज्वलन्त प्रमाण हैं। पुनरपि हम पाणिनि के दो ऐसे १५ सूत्र उपस्थित करते हैं, जिन का सम्बन्ध एक मात्र लोकभाषा से है यथा क-विभाषा भाषायाम् । ६।२। ८१॥ इस सूत्र के अनुसार भाषा अर्थात लौकिक संस्कृत के पञ्चभिः सप्तभिः तिसृभिः चतसृभिः आदि प्रयोगों में विभक्ति तथा विभक्ति २० । से पूर्व अच् को विकल्प से उदात्त बोला जाता था। ख-उदक् च विपाशः। ४।२।७४॥ इस सूत्र द्वारा विपाश= व्यास नदो के उत्तर कल के कूपों के लिए प्रयुक्त होने वाले दात्त: गौप्तः प्रयोगों के लिए अञ् प्रत्यय का विधान किया है । दक्षिण कूल के कूपों के लिए भी दात्तः गौप्त: २५ आदि पद ही प्रयुक्त होते हैं, परन्तु उनमें अण् प्रत्यय होता है । अञ् और अण् प्रत्ययों का पृथक् विधान केवल स्वरभेद की दृष्टि से ही १. द्र०—कीथ के ग्रन्थ का डा० मङ्गलदेव शास्त्री कृत भाषानुवाद पृष्ठ ११-१३ । इसके विपरीत भारतीय विद्वान अभी तक यह लिखते हैं कि संस्कृत कभी बोलचाल की व्यावहारिक भाषा नहीं थी। द्र०--वाचस्पति गैरौला कृत ३० संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ४० (सन् १९६०) । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास किया गया है । उत्तर कूल दात्तः गौतः प्रयोग आधु दात्त प्रयुक्त होते थे अतः उनके लिए पाणिनि ने अञ् प्रत्यय का और दक्षिण कूल के दात्त: गोप्तः अन्तोदात्त बोले जाते थे, इसलिए उनके लिए अण प्रत्यय का विधान किया। यदि पाणिनि के समय उदात्तादि स्वरों का जनसाधारण की भाषा में यथाथ उच्चारण प्रचलित न होता तो पाणिणि ऐसे सूक्ष्म नियम' बनाने को कदापि चेष्टा न करता । पाणिनि के उत्तर काल में लोकभाषा में स्वरोच्चारण के लोप हो जाने पर उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने स्वरविशेष की दृष्टि से पाणिनि द्वारा विहित प्रत्ययों १० के वैविध्य को हटा दिया। हमने वैदिक-स्वर-मीमांसा अन्य के 'स्वर का लोप' प्रकरण में - लिखा है कि कृष्ण द्वैपायन के शिष्य प्रशिष्यों के शाखा प्रवचन काल में स्वरोच्चारण में कुछ-कुछ शैथिल्य पाने लग गया था। अतः लोक भाषा में व्यवह्रियमाण स्वरों का यथावत सूक्ष्म दष्टि से विधान करने वाले प्राचार्य पाणिनि का काल अन्तिम शाखा प्रवचन काल से अनतिदूर हो होना चाहिए । अन्तिम शाखा प्रवचन काल अधिक से अधिक भारत युद्ध (३१०० वि० पूर्व) से १०० वष उतर तक है । अतः पाणिनि का काल भारत युद्ध से २०० वर्ष से अधिक अर्वाचीन नहीं हो सकता । ४--पाणिनि के काल पर प्रकाश डालने वाला एक सूत्र है-- योगप्रमाणे च तदभावेऽदर्शनं स्यात् । १।२५५॥ इस सूत्र का अभिप्राय यह है यदि पञ्चाला: अङ्गाः वङ्गाः मगधाः आदि देशवाची शब्दों की प्रवृति का निमित्त पञ्चाल अङ्ग वङ्ग मगध नाम वाले क्षत्रिय हैं अर्थात् इन नाम वाले क्षत्रियों के निवास २५ के कारण उस प्रदेश के ये नाम प्रसिद्ध हुए, ऐसा पूर्वाचार्यों का मत माना जाए तो इन नाम वाले क्षत्रियों के उस उस प्रदेश में प्रभाव हो जाने पर उन उन क्षत्रियों के निवास के कारण उन उन देशों के लिए व्यवहार में आने वाले पञ्चाल आदि शब्दों का व्यवहार भी २० १. स्वरे विशेषः । महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य । काशिका ३, ४१२७४॥ २. वैदिक-स्वर-मीमांसा पृष्ठ ५१, ५२; द्वि० सं० । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २१५ समाप्त हो जाना चाहिए। क्योंकि जब उन उन नाम वाले क्षत्रियों का उन उन प्रदेशों से सबन्ध ही न रहा, तब तत्संबन्धनिमित्तक शब्दों का प्रयोग भी न होना चाहिए । परन्तु उन उन नाम वाले क्षत्रियों के नाश हो जाने पर भी तत्तत प्रदेशों के लिए पञ्चाल आदि शब्दों का प्रयोग लोक में होता है। अतः इन देशवाची शब्दों को तत्तत् ५ नाश वाले क्षत्रियों के निवास का कारण नहीं मानना चाहिए। अपितु इन्हें रूढ संज्ञा शब्द स्वीकार करना चाहिए। __ भारतीय इतिहास एवं प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ जिन की ओर पाणिनि का संकेत है। इस बात के प्रमाण हैं कि पञ्चाला: अङ्गाः वङ्गाः आदि देश नाम तत्तत् क्षत्रिय वंशों के निवास के कारण ही १० प्रसिद्ध हुए थे। . ___ अब हमें पाणिनीय उक्ति के आधार पर यह देखना होगा कि भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसा काल कब कब आया, जब क्षत्रियों का बाहुल्येन उन्मूलन हुआ । इतिहास के अवलोकन से स्पष्ट है कि क्षत्रियों का इस प्रकार का उन्मूलन तीन बार हुआ। प्रथम बार १५ दाशरथि राम से पूर्व जामदग्य परशुराम द्वारा, द्वितीय वार सर्वक्षत्रान्तकृत् भारत-युद्ध' द्वारा और तृतीय वार सर्वक्षत्रान्तकृत् नन्द' द्वारा। - इन में से प्रथम वार की स्थिति की ओर पाणिनि का संकेत नहीं हो सकता, क्योंकि पाणिनि निश्चय ही भारत युद्ध काल २० का उत्तरवर्ती है। तृतीय वार सर्व क्षत्रों का विनाश नन्द ने किया था, यह उस के सर्वक्षत्रान्तकृत विशेषण से ही स्पष्ट है। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल इसी नन्द काल में पाणिनि को मानते हैं । अब विचारना चाहिए कि यदि पाणिनि के काल में ही नन्द ने पञ्चालादि क्षत्रियों का उन्मूलन किया हो तो पाणिनि उसी काल में उक्त सूत्र २५ की रचना नहीं कर सकता, क्योंकि क्षत्रविनाश के समकाल ही तस्य निवासः आदि संबन्ध ज्ञान का प्रभाव नहीं हो सकता। उस सम्बन्धज्ञान के अभाव के लिए न्यूनातिन्यून दो तीन सौ वर्ष का काल १. कृष्ण द्वैपायन व्यास ने भारत-युद्ध के लिये 'सर्वक्षत्रान्तकृत्' शब्द का का प्रयोग किया है । २. नन्द को भी इतिहास में सर्वक्षान्तकृत माना गया है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ५ १० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अपेक्षित है । जिस के द्वारा पञ्चाल आदि देशों से उत्पन्न हुए क्षत्रियों का उस देश के साथ तस्य निवासः रूप सम्बन्ध-ज्ञान मिट जाए। ऐसो अवस्था में पाणिनि को नन्द से न्यूनातिन्यून २०० वर्ष पश्चात् मानना होगा। ऐसा मानने पर पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा खड़ा किया गया ऐतिहासिक प्रासाद लड़खड़ा जायेगा। अतः यह काल उन्हें भी इष्ट नहीं हो सकता । हम पूवे लिख चुके हैं कि पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुसार पाणिनि के काल में न केवल संस्कृत भाषा ही जनसाधारण की भाषा थी, अपितु उस में उदात्त आदि स्वरों का सूक्ष्म उच्चारण भी होता था। नन्द अथवा उस से उत्तर काल में पाणिनि द्वारा बोधित । संस्कृत भाषा की वह स्थिति नहीं थी, उस समय जनसाधारण में प्राकृत भाषाओं का ही बोलबाला था। प्रतः पाणिनि नन्द का समकालिक कदापि नहीं हो सकता । यदि हठधर्मी से यही मन्तव्य स्वीकार किया जाए तो पाणिनि के अन्तःसाक्ष्य से महान विरोध होगा। १५ अब रह जाता है द्वितीय वार का सर्वक्षत्र-विनाश, जो भारत युद्ध द्वारा हुआ था । तदनुसार भारतयुद्ध के अनन्तर लगभग २००-३०० वर्ष के मध्य पाणिनि का समय माना जा सकता है। भारतयुद्ध से लगभग २५० वर्ष पश्चात् पञ्चाल आदि क्षत्रिय पुनः अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त करते हुए इतिहास में दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए २० पाणिनि का काल भारतयुद्ध से २०० वर्ष पूर्व से अधिक अर्वाचीन नहीं हो सकता। पाणिनीय शास्त्र के उपरि निर्दिष्ट अन्तःसाक्ष्यों से भी इसो काल को ही पुष्टि होती है । इस काल तक संस्कृत भाषा जनसाधारण में बोली जाती रही और उस में उदात्तादि स्वरों का उच्चारण पर्याप्त सीमा तक सुरक्षित रहा । इस के पश्चात जन२५ साधारण में अपभ्रष्ट भाषाओं का प्रयोग बढ़ने लगा और संस्कृत केवल शिष्टों की भाषा रह गई। अब हम प्राचीन वाङमय से कतिपय ऐसे साक्ष्य उपस्थित करते हैं जिन से पाणिनि के काल के विषय में प्रकाश पड़ता है। . पाणिनि के समकालिक प्राचार्य-हम अपनी उपर्युक्त स्थापना ३० की सिद्धि के लिए पहले पाणिनि के समकालिक वा कुछ पूर्ववर्ती आचार्यों का संक्षेप से उल्लेख करते हैं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २१७ को १ - गृहपति शौनक ऋक्प्रातिशाख्य' तथा बृहद्देवता' में यास्क 'बहुधा उद्धृत करता है । २ – पाणिनि का अनुज पिङ्गल 'उरोबृहती यास्कस्य'' सूत्र में यास्क का स्मरण करता है । ३ यास्क निरुक्त ११५ में कौत्स का उल्लेख करता है । महा- ५ भाष्य ३।२।१०८ के अनुसार एक कौत्स पाणिनि का शिष्य था । * ४ - यास्क अपनी तैत्तिरीय अनुक्रमणो में ऋक्प्रातिशाख्य के प्रवक्ता शौनक का निर्देश करता है ।" ५ - पिङ्गल का नाम पाणिनीय गणपाठ ४ । १ । ६६, १०५ में मिलता है । १० ६ - पाणिनि 'शौनकादिभ्यश्छन्दसि' सूत्र में शाखाप्रवक्ता शौनक का उल्लेख करता है । ७- शौनक शाखा का प्रवक्ता गृहपति शौनक ऋक्प्रातिशाख्य के अनेक सूत्रों में व्याडि का निर्देश करता है ।" व्याडि का ही दूसरा नाम दाक्षायण है । वह पाणिनि का मामा था, यह हम पूर्व (पृष्ठ १ १९५-९६) लिख चुके हैं। १. न दाशतय्येकपदा काचिदस्तीति वै यास्क: । १७।४२।। २. बृहद्देवता १ । २६ । । २।१११, १३२,१३७ ॥३७६, १००,११२ इत्यादि । ३. छन्द: शास्त्र ३।३०॥ ४. उपसेदिवान् कौत्सः पाणिनिम् । ५. द्वादशिनस्त्रयोऽष्टाक्षरांश्च जगती ज्योतिष्मती । सापि त्रिष्टुबिति २० शौनकः ॥ | वैदिक वाङ्मय का इतिहास, वेदों के भाष्यकार संज्ञक भाग, पृष्ठ २०५ पर उद्धृत । तुलना करो ऋक्प्रातिशाख्य १३।७० ॥ ६. भ्रष्टा० ४ | ३ | १०६ ॥ ७. मुण्डकोपनिषद् १।१।३ में शौनक को 'महाशाल' कहा है । शंकर ने इस का अर्थ महागृहस्थः ' किया है । वह चिन्त्य है । महाशाल का मुख्य अर्थ है महती पाठशाला वाला । पाठशाला के लिये संस्कृतभाषा के समान मराठी २५ भाषा में भी 'श'ला' शब्द का प्रयोग होता है । जिस की शाला में सहस्रों विद्यार्थी अध्ययन करते हों । गृहपति का जो लक्षण धर्मशास्त्रों में लिखा है, तदनुसार दस सहस्र विद्यार्थियों का भरणपोषण करते हुए विद्यादाता प्राचार्य 'गृहपति' कहता है । ८. ऋक्प्राति०२।२३, २८ || ६ |४३|१३|| ३१।३१,३७॥ ון ३० Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ____-व्याडि नाम पाणिनीय गणपाठ ४।१।८० में, तथा दाक्षायण नाम गणपाठ ४।२।५४ में मिलता है । -सामवेदीय लघु-ऋक्तन्त्र व्याकरण में पाणिनि का साक्षात् उल्लेख मिलता है।' १०–बौधायन श्रौतसूत्र प्रवराध्याय (३) में पाणिनि का साक्षात् निर्देश उपलब्ध होता है। यथा भृगूणामेवादितो व्याख्यास्यामः....."पङ्गलायनाः, वहीनरयः ..."काशकृत्स्नाः ...."पाणिनिर्वाल्मीकि..."प्रापिशलयः । २१-मत्स्य पुराण १९७१० में पाणिनि गोत्र का उल्लेख १० मिलता है। १२–वायु पुराण ६१६६ में पाणिनि गोत्र का निर्देश किया है। पाणिन और पाणिनि एक ही हैं, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। १३- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड अ० ४ श्लोक ६७ में पाणिनि को साक्षात् ग्रन्थकार कहा है । १५ इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि यास्क, शौनक, व्याडि, पाणिनि, पिङ्गल और कौत्स आदि लगभग समकालिक हैं, इन में बहुत स्वल्प पौर्वापर्य है। यदि इन में से किसी एक का भी निश्चित काल ज्ञात हो जाए, तो पाणिनि का काल स्वतः ज्ञात हो जायगा । अतः हम प्रथम शौनक के काल पर विचार करते हैं___शौनक का काल-महाभारत आदि पर्व ११ तथा ४।१ के अनुसार जनमेजय (तृतीय) के सर्पसत्र के समय शौनक नैमिषारण्य में द्वादश वार्षिक सत्र कर रहा था । विष्णु पुराण ४२११४ में लिखा है कि जनमेजय के पुत्र शतानीक ने शौनक से आत्मोपदेश लिया था, १. ऐचो वृद्धिरिति प्रोक्त पाणिनीयानुसारिभिः । पृष्ठ ४६ ।। २५ २. पैङ्गलायनप्रोक्त ब्राह्मण बौधायन श्रौत १७ में उद्धृत है-प्रप्येकां गां दक्षिणां दद्यादिति पैङ्गलायानिब्राह्मणं भवति । ३. पाणिनिश्चैव व्यायाः सर्व एते प्रकीर्तिताः । ४. बभ्रवः पाणिनश्चैव घानजप्यास्तथैव च । यहां 'धानञ्जयास्तथैव' शुद्ध पाठ चाहिए। . ५. पूर्व पृष्ठ १९४-१९५ । ३० ६. कणदो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः । ग्रन्थं चकार.........॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २१६ और मत्स्य २५ ४, ५ के अनुसार शौनक ने शतानीक को ययातिचरित सुनाया था। वायु पुराण १।१२, १४, २३ के अनुसार अधिसीम कृष्ण के राज्यकाल में कुरुक्षेत्र में नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा किये गये दीर्घसत्र में सर्वशास्त्रविशारद गृहपति शौनक विद्यमान था ।' ऋक्प्रातिशाख्य के प्राचीन वृत्तिकार विष्णुमित्र ने शास्त्रावतार ५ विषयक एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है । वह लिखता है -- तस्मादादौ शास्त्रावतार उच्यते- शौनको गृहपति नैमिषीयैस्तु दीक्षितैः । दीक्षा चोदितः प्राह स तु द्वादशाहिके ॥ इति शास्त्रावतारं स्मरन्ति । १० इन प्रमाणों से विदित होता है कि गृहपति शौनक दीर्घायु था । वह न्यून से न्यून ३०० वर्ष प्रवश्य जीवित रहा था । अतः शौनक का काल सामान्यतया भारतयुद्ध से लेकर महाराज प्रधिसीम कृष्ण के काल तक मानना चाहिये । ऋक्प्रातिशाख्य की रचना भारतयुद्ध के लगभग १०० वर्ष पश्चात् अर्थात् ३००० विक्रम पूर्व हुई थी । १५ ऋप्रातिशाख्य में स्मृति व्यांडि भी इसी काल का व्यक्ति है । व्याडि पाणिनि का मामा था, यह हम पूर्व कह चुके हैं।' प्रतः पाणिनि का समय स्थूलतया विक्रम से २६०० वर्ष प्राचीन है । यास्क का काल - महाभारत शान्तिपर्व ० ३४२ श्लोक ७२, ७३ में यास्क का उल्लेख मिलता है । वह इस प्रकार है यास्को मामृषिरत्र्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान् । स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदधीः ।। २० निरुक्त १३।१२ से विदित होता है कि यास्क के काल में ऋषियों का उच्छेद होना प्रारम्भ हो गया था। पुराणों के मतानुसार ऋषियों · ने अन्तिम दीर्घसत्र महाराज अधिसीम कृष्ण के राज्यकाल में किये २५ थे । भारतयुद्ध के अनन्तर शनैः शनैः ऋषियों का उच्छेद आरम्भ 1 १. अधिसीमकृष्णे विक्रान्ते राजन्येऽनुपत्विषि । धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे दीर्घ पत्रे तु ईजिरे । तस्मिन् सत्रे गृहपतिः सर्वशास्त्रविशारदः । २. पूर्व पृष्ठ १९५-९६ ॥ ३. मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन् को न ऋषिभविष्यतीति । ३० ४. वायु पुराण १। १२-१४ ।। ६६ । २५७-२५६ ।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हो गया था । शौनक ने अपने ऋक्प्रातिशाख्य और बृहद्देवता में यास्क का स्मरण किया है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' अतः महाभारत तथा निरुक्त के अन्तःसाक्ष्य से विदित होता है कि यास्क का काल भारतयुद्ध के समीप था। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि यास्क, शौनक, पाणिनि, पिङ्गल और कौत्स लगभग समकालिक व्यक्ति हैं अर्थात् इनका पौर्वापर्य बहुत स्वल्प है। अतः पाणिनि का काल भारतयुद्ध से लेकर अधिसीम कृष्ण के काल तक लगभग २५० वर्षों के मध्य है। पाणिनि का साक्षान्निर्देश-ऊपर उद्धृत प्रमाण संख्या ९-१३ में १० पाणिनि का साक्षान्निर्देश है। बौधायन श्रौतसूत्र के प्रवराध्याय में पाणिनि गोत्र का उल्लेख है । इस की पुष्टि मत्स्य और वायु पुराण के प्रमाणों से होती है। बौधायन आदि श्रौतसूत्रों की रचना तत्तत् शाखाओं के प्रवचन के कुछ अनन्तर हुई है । श्रौत, धर्म आदि कल्पसूत्रों के रचयिता प्रायः वे ही प्राचार्य हैं, जिन्होंने शाखाओं का प्रवचन किया था, यह हम न्याय-भाष्यकार वात्स्यायन और पूर्वमीमांसाकार जैमिनि के प्रमाणों से पूर्व दर्शा चुके हैं। भागुरि ऐतरेय आदि कुछ पुराण-प्रोक्त शाखाओं के अतिरिक्त सब शाखाओं का प्रवचन-काल लगभग भारतयुद्ध से एक शताब्दी पूर्व से लेकर एक शताब्दी पश्चात् तक है । वर्तमान में उपलब्ध शाखा, ब्राह्मण, २० आरण्यक, उपनिषद्, श्रौत-गृह्य-धर्म आदि कल्प सूत्र, दर्शन, आयुर्वेद, निरुक्त, व्याकरण आदि समस्त उपलब्ध वैदिक आर्ष वाङ्मय अधिकतर इसी काल के प्रवचन हैं। एक अन्य प्रमाण--ह्य नसांग ने अपने भारत भ्रमण में पाणिनि के प्रकरण में लिखा है-'ब्रह्मदेव और देवेन्द्र ने आवश्यकतानुसार २५ कुछ नियम बनाये, परन्तु विद्यार्थियों को उनका ठीक प्रयोग करना नहीं पाता था। जब मानवी जीवन १०० वर्ष की सीमा तक घट गया, तब पाणिनि का जन्म हुआ। आयुर्वेदीय चरक संहिता भारतयुद्ध काल न वैशम्पायन अपर १. पूर्व पृष्ठ २१७, टि०१, २ । २. पूर्व पृष्ठ २१८ टि ३, ४ में उद्धृत पाठ । ३. पूर्व पृष्ठ २१-२३ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २२१ नाम चरक द्वारा प्रतिसंस्कृत है। उस में ग्रन्थसंस्कार काल (भारतयुद्ध काल) में १०० वर्ष मानव जीवन की सीमा कही है--वर्षशतं खल्वायुषः प्रमाणस्मिन् काले (शारीरस्थान ६।२६)। इस प्रकार पाणिनीय ग्रन्थ के अन्तःसाख्यों और अन्य प्राचीन प्रमाणभूत वाङमय के बाह्य साक्ष्यों के आधार पर यह सर्वथा सुनि- ५ श्चित हो जाता है कि पाणिनि का काल लगभग भारतयुद्ध से २०० वर्ष पश्चात् अर्थात् २६०० विक्रम पूर्व है। किसी भी अवस्था में पाणिनि भारतयुद्ध से 3०० वर्ष अधिक उत्तरवर्ती नहीं है। डा. सत्यकाम वर्मा ने अपना 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' ग्रन्थ अभी अभी प्रकाशित किया है। उन्होंने पाणिनि १० का काल पाश्चात्त्य इतिहास परम्परा के अनुसार ही स्वीकार किया हैं । हमें आश्चर्य इस बात पर है कि हमने पाणिनि के काल निर्णय के लिये जो अन्तःसाक्ष्य उपस्थित किये उन पर उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा । वस्तुत: उन्होंने पाश्चात्त्य विद्वानों का अनुसरण करके गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः कहावत को ही चरितार्थ १५ किया है। तात्त्विक चिन्तन का उन्होंने प्रयत्न ही नहीं किया । करते भी कैसे, उसके लिये गहन अध्ययन वा चिन्तन आवश्यक है । जो उन जैसे व्यक्तियों के लिये सम्भव ही नहीं। पाणिनि की महत्ता पाणिनीय शब्दानुशासन का सूक्ष्म पयवेक्षण करने से विदित होता २० है कि पाणिनि न केवल शब्दशास्त्र का परिज्ञाता था, अपितु समस्त प्राचीन वाङ्मय में उसकी अप्रतिहत गति थी। वैदिक वाङमय' के अतिरिक्त भूगोल इतिहास, मुद्राशास्त्र और लोकव्यवहार आदि का भी वह अद्वितीय विद्वान् था। उसका शब्दानुशासन न केवल शब्दज्ञान के लिये अपितु प्राचीन भूगोल और इतिहास के ज्ञान २५ के लिये भी एक महान् प्रकाशस्तम्भ है।' वह अतिप्राचीन और अर्वाचीन काल को जोड़ने वाला महान् सेतु है । महाभाष्यकार पतञ्जलि पाणिनि के विषय में लिखता है-- १. शाकल्यः पाणिनिर्णस्क इति ऋगर्थपरास्त्रयः । वेङ्कटमाधव मन्त्रार्थानुक्रमणी ऋग्भाष्य ७१ के आरम्भ में। २. पाणिनीय व्याकरण में ३० उल्लिखित प्राचीन वाङ्मय का वर्णन हम अगले अध्याय में करेंगे । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ५ प्रथात्-- दर्भपवित्रपाणि प्रामाणिक आचार्य ने शुद्ध एकान्त स्थान में प्राङमुख बैठकर एकाग्रचित होकर बहुत प्रयत्नपूर्वक सूत्रों का प्रणयन' = प्रकरण विशेष स्थापन किया है । अतः उस में एक वर्ण भी अनर्थक नहीं हो सकता, इतने बड़े सूत्र के प्रानर्थक्य का तो क्या कहना ? पुनः लिखा है सामर्थ्ययोगान्नहि किचिदस्मिन् पश्यामि शास्त्रे यवनर्थकं स्यात् । " अर्थात् — सूत्रों के पारस्परिक सम्बन्धरूपी सामर्थ्य से मैं इस शास्त्र में कुछ भी अनर्थक नहीं देखता । संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास प्रमाणभूत प्राचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचाववकाशे प्राङ्मुख उपविश्य महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितुम्, किं पुनरियता सूत्रेण ।" २२२ शेषशेमुषी सम्पन्न तर्कप्रवण पतञ्जलि का पाणिनीय शास्त्र के विषय में उक्त लेख उसकी अत्यन्त महत्ता को प्रकट करता है । जयादित्य 'उदक् च विपाशः " सूत्र की वृत्ति में लिखता है - महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य । १५ २५ ३० प्रसिद्ध चीनो यात्री ह्यूनसांग लिखता है -- ऋषि ने पूर्ण मन से २० शब्दभण्डार से शब्द चुनने प्रारम्भ किये, और १००० दोहों में सारी व्युत्पत्ति रची। प्रत्येक दोहा ३२ अक्षरों का था । इसमें प्राचीन तथा नवीन सम्पूर्ण लिखित ज्ञान समाप्त हो गया । शब्द और अक्षर विषयक कोई भी बात छूटने नहीं पाई । अर्थात् - सूत्रकार की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म है । वह साधारण से स्वर की भी उपेक्षा नहीं करता । १. महाभाष्य १।१।१, पृष्ठ ३६ । 1 २. तुलना करो - 'अग्नि प्रणयति' 'अपः प्रणयन्' प्रादि श्रोतप्रयोग । इसी दृष्टि से पतञ्जलि ने 'पाणिनीयं महत् सुविहितम्' का उल्लेख किया है (महा ४।२०६६) । ३. ६।१।७७।। ४. अष्टा० ४।२|७४॥ J ५. ह्य नसांग के लेख से यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिये कि पाणिनीय ग्रन्थ पहिले छन्दोबद्ध था । ग्रन्थपरिमाण दर्शाने की यह प्राचीन शैली है । ६. ह्य नसांग वाटर्स का अनुवाद, भाग १, पृष्ठ २२१ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन . १२ वीं शताब्दी का ऋग्वेद का भाष्यकार वेङ्कटमाधव लिखता है-शाकल्यः पाणिनिर्यास्क इत्यूगर्थपरास्त्रयः ।' अर्थात् ऋग्वेद के ज्ञाता तीन हैं -शाकल्य, पाणिनि और यास्क । वेङ्कटमाधव का यह लेख सर्वदा सत्य है। वेदार्थ में स्वरज्ञान सब से प्रधान साधन है । पाणिनि ने स्वरशास्त्र के सूक्ष्मविवेचन की दष्टि से न केवल प्रत्येक प्रत्यय तथा आदेश के नित्, नित्, चित्, आदि अनुबन्धों पर विशेष ध्यान रक्खा है अपितु लगभग ४०० सूत्र केवल स्वर-विशेष के परिज्ञान के लिये ही रचे । इससे पाणिनि की वेदज्ञता विस्पष्ट है। पाणिनीय व्याकरण और माहेश्वर सम्प्रदाय--शिव महेश्वर ने भी वेदाङ्गों का प्रवचन किया था, यह हम पूर्व (पृष्ठ ६७ में) लिख १० चुके हैं। पाणिनीय व्याकरण का सम्बन्ध शैव--माहेश्वर सम्प्रदाय के साथ है । यह बात प्रत्याहार सूत्रों को माहेश्वर सूत्र कहने से ही स्पष्ट है। अङ्कोरवत् के शिलालेख में भी एक शैवव्याकरण का निर्देश मिलता है। यहां भारत के समान यह किंवदन्तो भी प्रसिद्ध हैं कि शिवजी के डमरू बजाते ही व्याकरण के शिवसूत्र प्रकट हो १५ गये । द्र०-बृहत्तर भारत पृष्ठ ३३२ । पाणिनीय व्याकरण और पाश्चात्त्य अब हम पाणिनीय व्याकरण के विषय में आधुनिक पाश्चात्त्य विद्वानों का मत दर्शाते हैं । - १. इङ्गलैण्ड देश का प्रो० मोनियर विलियम्स कहता है- २० 'संस्कृत व्याकरण उस मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है, जिसे किसी देश ने अब तक सामने नहीं रक्खा'। २. जर्मन देशज प्रो० मैक्समूलर लिखता है-'हिन्दुओं के व्याकरण अन्वय की योग्यता संसार की किसी जाति के व्याकरण साहित्य से चढ़ बढ़ कर हैं। ___३. कोलबुक का मत है-'व्याकरण के नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये थे, और उन की शैली अत्यन्त प्रतिभापूर्ण थी' १. मन्त्रार्थानुक्रमणी, ऋग्भाष्य ८, १ के प्रारम्भ में । २. हम ने अगले चार उद्धरण 'महान् भारत' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १४६, १५० से उद्धृत किये हैं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. सर W. W. हण्टर कहता है-संसार के व्याकरणों में पाणिनि का व्याकरण चोटी का है। उसकी वर्णशुद्धता, भाषा का धात्वन्वय सिद्धान्त और प्रयोगविधियां अद्वितीय एवं पूर्व हैं । ...... यह मानव मस्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आविष्कार है'। ५ ५. लेनिनग्राड के प्रो० टी० शेरवात्सको ने पाणिनीय व्याकरण का कथन करते हुए उसे 'इन्सानी दिमाग को सब से बड़ी रचनाओं में से एक' बताया है ।' क्या कात्यायन और पतञ्जलि पाणिनि का खण्डन करते हैं ? महाभाष्य का यत्किचित् अध्ययन करने वाले और वह भी अनार्ष १० बुद्धि से, कहते हैं कि कात्यायन और पतञ्जलि पाणिनि के शतशः सूत्रों और सूत्रांशों का खण्डन करते हैं । इसी के आधार पर इन श्राज्ञान- शून्य लोगों ने यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' ऐसा वचन भी घड़ लिया है । वस्तुत: अर्वाचीनों का यह मत सर्वथा प्रयुक्त है | यदि कात्यायन और पतञ्जलि पाणिनि के ग्रन्थ में इतनी अशुद्धियां १५ समझते तो न कात्यायन अष्टाध्यायी पर वार्तिक लिखता और न पतञ्जलि महाभाष्य, तथा न पतञ्जलि यह कहते कि 'इस शास्त्र में एक वर्ण भी अनर्थक नही है । इस से मानना होगा कि कात्यायन और पतञ्जलि ने उन सूत्रों वा सूत्रांशों का खण्डन नहीं किया, अपितु अपने बुद्धिचातुर्य से प्रकारान्तर द्वारा प्रयोग -सिद्धि का निदर्शनमात्र २० कराया है । समस्त अर्वाचीन वैयाकरणों में महाभाष्य की 'सिद्धान्त रत्न - १. पं० जवाहरलाल लिखित 'हिन्दुस्तान की कहानी' पृष्ठ १३१ । २. महाभाष्यप्रदीपोद्योत ३|१|८०|| नहि भाष्यकारमतमनादृत्य सूत्रकारस्य कश्चनाभिप्रायो वर्णयितु ं युज्यते । सूत्रकारवार्तिककाराभ्यां तस्यैव प्रामा२५ ण्यदर्शनात् । तथा चाहु: - चतुष्कपञ्चकस्थानेषूत्तरोत्तरतो भाष्यकारस्यैव प्रामाण्यमिति । तन्त्रप्रदीप ७।१, १२, धातुप्रदीप भूमिका पृष्ठ २ में उद्धृत । इसका पूर्व भाग सर्वथा इतिहास विरुद्ध है । मैत्रेयरक्षित का उक्त कथन तभी सम्भव हो सकता है, जब पाणिनि कात्यायन और पतञ्जलि समकालिक हों । ३. महाभाष्य १।१।१।। तथा सामर्थ्ययोगान्तहि किञ्चिदस्मिन् पश्यामि ३० शास्त्रे यदनर्थकं स्यात् । महाभाष्य ६ । १५७७ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २२५ प्रकाश' नाम्नी व्याख्या के लेखक शिवरामेन्द्र सरस्वती हो एक मात्र ऐसे वैयाकरण हैं जिन्होंने वार्तिककार और भाष्यकार द्वारा उद्भावित प्रत्याख्यान को प्रकारान्तर से अर्थात् सूत्र के विना भी सूत्रोक्त उदाहरणों की सिद्ध दर्शाना माना है। शिवरामेन्द्र सरस्वती ने न धातुलोप आर्धधातुके (१।१।४) की व्याख्या में लिखा है____अत्रेदमवधेयम्-लोलुवः पोपुव इत्यादीनि प्रकृतसूत्रोदाहरणानि यानि वृत्तिका निर्दिष्टानि तानि सूत्रं विनापि साधयितुं शक्यन्त इत्येतावन्मात्राभिप्रायेण 'अनारम्भो वा' इत्यादिभाष्यं प्रवृत्तं, न तु सर्वथा सूत्रं मास्त्विति । ____ अर्थात्-वृत्तिकारों द्वारा निर्दिष्ट उदाहरण सूत्र के विना भी १० सिद्ध किये जा सकते हैं इतने ही अभिप्राय से 'अनारम्भो वा' भाष्य प्रवृत्त हुआ है, न कि सूत्र सर्वथा न होवे। इसी सिद्धान्त का निर्देश शिवरामेन्द्र सरस्वती ने इसी सूत्र के भाष्य की व्याख्या में आगे पुनः किया है न च सर्वत्र....."समस्तशास्त्रस्य प्रत्याख्येयकर्तव्ये भाष्यकृता १५ व्याकरणान्तरमेव कतुं युक्तम्, न तु पाणिनीयप्रतिष्ठापनम् ।...." तस्मात् स्थितमिदं सूत्रम् । अर्थात-..... समस्तशास्त्र के प्रत्याख्येय होने पर भाष्यकार को व्याकरणान्तर का ही प्रवचन करना युक्त था, न कि पाणिनीय तन्त्र का प्रतिष्ठापन ।..."इसलिये यह सूत्र (१।१।४) स्थित है २० [प्रत्याख्यात नहीं है] । __प्रकारान्तर से समाधान करने की दृष्टि से वर्धमान गणरत्नमहोदधि में लिखता है द्वितीयतृतीयेत्यादिसूत्रं बृहत्तन्त्रे व्यर्थम् । गणसमाश्रयणमेव श्रेयः । पृष्ठ ७६ । २५ अर्थात्-बृहत्तन्त्र (पाणिनीय तन्त्र) में द्वितीयतृतीय (२।२।३) सूत्र व्यर्थ है । उसका गणपाठ में आश्रयण करना अच्छा है । कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा प्रदर्शित प्रकारान्तर-निर्देश से उत्तरवर्ती चन्द्रगोमी प्रभृति प्राचार्यों ने बहुत लाभ उठाया है। यह उत्तरवर्ती व्याकरण ग्रन्थों की तुलना से स्पष्ट है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास कृष्णचरित के रचयिता समुद्रगुप्त की सम्मति महाराज समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित के आरम्भ में मुनिकविवर्णन में वार्तिककार के लिये लिखा है २२६ न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवतिकैर्यः । अर्थात् -- कात्यायन ने अपने वार्तिकों द्वारा पाणिनीय व्याकरण को पुष्ट किया था । इससे भी स्पष्ट है कि अर्वाचीन प्रार्षज्ञान-विहीन वैयाकरणों का कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा पाणिनीय व्याकरण के खण्डन का उद्घोष सर्वथा अज्ञानमूलक है। श्राधुनिक भारतीयों द्वारा पाणिनि की झालोचना - जिस पाणिनीय तन्त्र की प्रशंसा महाभाष्यकार पतञ्जलि जैसे पदवाक्यप्रमाणज्ञ विद्वान् करते हैं, और कतिपय पाश्चात्त्य विद्वान् भी पाणिनि की सूक्ष्मेक्षिका का वर्णन करते हुए नहीं अघाते, उस पाणिनि को कतिपय विद्वान् अज्ञानी कहने में अपना गौरव समझते हैं । १५ बट कृष्ण घोष ने इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली भाग १० में लिखा है -- पाणिनि ऋक्प्रातिशाख्य को विना समझे नकल करता है ।' पं० विश्वबन्धु शास्त्री ने भी अथर्व प्रातिशाख्य के आरम्भ में शुक्ल यजुष प्रातिशाख्य के एक सूत्र की पाणिनि के सूत्र के साथ २० तुलना करके लिखा है - - यहां पाणिनि के व्याकरण में न्यूनता रह गई है' । द्र० – पृष्ठ ३४ ॥ वस्तुतः इन महानुभावों ने न प्रातिशाख्यों को समझा है, और न पाणिनीय शास्त्र को । अपने ज्ञान के दर्प में ये पाणिनि को अज्ञ या अल्पज्ञ सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं । वस्तुत; दोनों स्थानों पर २५ पाणिनि के निर्देश में कोई दोष नहीं है । पाणिनीय तन्त्र का आदि सूत्र कैट आदि वैयाकरणों का कथन है कि 'अथ शब्दानुशासनम् ' वचन भाष्यकार का है ।' पाणिनीय तन्त्र का आरम्भ 'वृद्धिरादैच्' १. निर्णयसागर मुद्रित महाभाष्य भाग १ पृष्ठ ६ । पदमञ्जरी 'अथ ३० शब्दानुशासनम्' ; भाग १, पृष्ठ ३ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २२७ सूत्र से होता है। यह कथन सर्वथा अयुक्त हैं । प्राचीन सूत्रग्रन्थों की रचनाशैली के अनुसार यह वचन पाणिनीय ही प्रतीत होता है। महाभाष्य के प्रारम्भ में भगवान पतञ्जलि ने लिखा है अथेति शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते । शब्दानुशासनं नाम शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् । ___ इस वाक्य में 'प्रयुज्यते' क्रिया का कर्ता यदि पाणिनि माना जाय, तब तो इसकी उत्तरवाक्य से संगति ठीक लगती है । अन्यथा 'प्रयुज्यते' क्रिया का कर्ता पतञ्जलि होगा, और 'अधिकृतम्' का पाणिनि । क्योंकि शास्त्र का रचयिता पाणिनि ही है । विभिन्न कर्ता मानने पर यहां एकवाक्यता नहीं बनती। अब हम 'प्रथ शब्दानुशासनम्' सूत्र के पाणिनीय होने में प्राचीन प्रमाण उपस्थित करते हैं___१. अष्टाध्यायी के कई हस्तलेखों का प्रारम्भ इसी सूत्र से होता ___२. काशिका और भाषावृत्ति में अन्य सूत्रों के सदृश इस की भी १५ व्याख्या की है, अर्थात् उन्होंने पाणिनीय ग्रन्थ का प्रारम्भ यहीं से माना है। ३. भाषावृत्ति का व्याख्याता सृष्टिधराचार्य लिखता है व्याकरणशास्त्रमारभमाणो भगवान् पाणिनिमुनिः प्रयोजननामनी व्याचिख्यासुः प्रतिजानीते-अथ शब्दानुशासनमिति ।। २० । अर्थात्-व्याकरणशास्त्र का प्रारम्भ करते हुए भगवान् पाणिनि ने शास्त्र का प्रयोजन और नाम बताने के लिये 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र रचा है। १. स्वामी दयानन्द सरस्वती के संग्रह में सं० १६६२ की लिखी पुस्तक । यह इस समय श्रीमती परोकारिणी सभा अजमेर के संग्रह में है। २५ दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज लाहौर के लालचन्द पुस्तकालय की एक लिखित पुस्तक । सं० १९४४ विक्रमी में प्रो० वोटलिंक द्वारा मुद्रित अष्टाध्यायी । देखो, प्रो० रघुवीर एम० ए० द्वारा सम्पादित स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित अष्टाध्यायी-भाष्य, भाग १, पृष्ठ १ । २. भाषावृत्त्यर्थविवृत्ति के प्रारम्भ में। , Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. मनुस्मृति का व्याख्याता मेधातिथि इस को पाणिनीय सूत्र मानता है। वह लिखता है पौरुषेयेष्वपि ग्रन्थेषु नैव सर्वेषु प्रयोजनाभिधानमाद्रियते । तथा हि भगवान् पाणिनिरनुक्त्वैव प्रयोजनम् 'अथ शब्दानुशासनम्' इति ५ सूत्रसन्दर्भमारभते। अर्थात-सब पौरुषेय ग्रन्थों में भी ग्रन्थ के प्रयोजन का कथन नहीं होता। भगवान् पाणिनि ने अपने शास्त्र का प्रयोजन विना कहे 'अथ शब्दानुशासनम्' इत्यादि सूत्रसमूह का प्रारम्भ किया है। ५. न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि काशिका ३।४।१६ की व्याख्या में १० लिखता है शब्दानुशासनप्रस्तावादेव हि शब्दस्येति सिद्धे शब्दग्रहणं यत्र शब्दपरो निर्देशस्तत्र स्वं रूपं गृह्यते, नार्थपरनिर्देश इति ज्ञापनार्थम् ।। __अर्थात्-शब्दानुशासन के प्रस्ताव से ही शब्द का संबन्ध सिद्ध है। पुनः ‘स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा सूत्र में शब्दग्रहण इस बात का १५ ज्ञापक है कि जहां शब्दप्रधान निर्देश होता है, वहीं रूपग्रहण होता है, अर्थप्रधान में नहीं। • यहां न्यासकार को 'शब्दानुशासनप्रस्ताव' शब्द से 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र ही अभिप्रेत है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र पाणिनीय २० ही है । अत एव स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने अष्टाध्यायीभाष्य के प्रारम्भ में लिखा है इदं सूत्र पाणिनीयमेव । प्राचीनलिखितपुस्तकेषु प्रादाविवमेवास्ति। दृश्यन्ते च सर्वग्वार्षेषु ग्रन्थेष्वादौ प्रतिज्ञासूत्राणीदृशानि । कैयट आदि ग्रन्थकारों को 'वृद्धिरादेच्" सूत्र के 'मङ्गलार्थ वृद्धि२५ शब्दमादितः प्रयुङ्क्ते' इस महाभाष्य के वचन से भ्रान्ति हुई है। और इसी के आधार पर अर्वाचीन वैयाकरण प्रत्याहारसूत्रों को भी अपाणिनीय मानते हैं। १. मनुस्मृति टीका १११॥ पृष्ठ १। २. न्यास भाग १, पृष्ठ ७५५ । ३. अष्टा० १११॥६॥ ३० ४. द्र०-पृष्ठ २२७, टि. १। ५. अष्टा० ॥११॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन क्या प्रत्याहारसूत्र अपाणिनीय हैं ? भट्टोजि दीक्षित प्रभृति पाणिनीय वैयाकरणों का मत है कि प्रत्याहारसूत्र महेश्वरविरचित हैं,' अर्थात् अपाणिनीय हैं । यह मत सर्वथा अयुक्त है। इनको अपाणिनीय मानने में नन्दिकेश्वरकृत काशिका के अतिरिक्त कोई प्राचीन सुदृढ़ प्रमाण नहीं है। प्रत्याहार- ५ सूत्र पाणिनीय हैं, इस विषय में अनेक प्रमाण हैं। वर्तमान समय में सब से प्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है । उन्होंने अष्टाध्यायीभाष्य में महाभाष्य का निम्न प्रमाण उपस्थित किया है १. हयवरट् सूत्र पर महाभाष्यकार ने लिखा है___ एषा ह्याचार्यस्य शैली लक्ष्यते--यत्तुल्यजातीयांस्तुल्यजातीयेषूपदिशति-प्रचोऽक्षु हलो हल्षु।। ___महाभाष्य में प्राचार्य पद का व्यवहार केवल पाणिनि और कात्यायन दो के लिये हुआ है। यहां प्राचार्य पद का निर्देश कात्यायन के लिये नहीं है, अतः प्रत्याहारसूत्रों का रचयिता पाणिनि ही है। १५ २. वृद्धिरादैच् सूत्र के महाभाष्य में वृद्धि और प्रादैच् पद का साधुत्व प्रतिपादन करते हुए पतञ्जलि ने लिखा है___ कृतमनयोः साधुत्वम्, कथम् ? वृधिरस्मा अविशेषेणोपदिष्टः प्रकृतिपाठे, तस्मात् क्तिन् प्रत्ययः । प्रादैचोऽप्यक्षरसमाम्नाय उपदिष्टाः । इस वाक्य में 'कृतम्' तथा 'उपदिष्ट:' दोनों क्रियाओं का प्रयोग बता रहा है कि वृध धातु क्तिन् प्रत्यय और प्रादैच् प्रत्याहार इन सब का उपदेश करने वाला एक ही व्यक्ति है। . ३. संवत् ६८७ के लगभग होने वाला स्कन्दस्वामी निरुक्त ११ की टीका में प्रत्याहारसूत्रों को पाणिनीय लिखता है २५ नापि 'अइउण्' इति पाणिनीयप्रत्याहारसमाम्नायवत् ...... २. इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थकानि । सिद्धान्तकौमुदी के प्रारम्भ में। २. भाग १, पृष्ठ ११ (प्रथम सं०) । ३. प्रत्याहारसूत्र ५। ४. अष्टा० १।१।१॥ ५. निरुक्त टीका भाग १, पृष्ठ ८। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. सं० ११०० के लगभग होने वाला आश्चर्यमञ्जरी का कर्ता कुलशेखरवर्मा प्रत्याहारसूत्रों को पाणिनिविरचित मानता है- . पाणिनिप्रत्याहार इव महाप्राणझषाश्लिष्टो झषालंकृतश्च(समुद्रः)। ५-६. पुरुषोत्तमदेव, सृष्टिधराचार्य, मेधातिथि, न्यासकार और जयादित्य के मत में 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र पाणिनीय है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। अतः उन के मत में प्रत्याहारसूत्र भो पाणिनीय हैं, यह स्वयंसिद्ध है। १०. अष्टाध्यायी के अनेक प्राचीन हस्तलेखों में 'हल" सूत्र के १० अनन्तर 'इति प्रत्याहारसूत्राणि' इतना ही निर्देश मिलता है । इन उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि प्रत्याहारसूत्र पाणिनोय हैं । भ्रान्ति का कारण--इस भ्रम का कारण अत्यन्त साधारण है। महाभाष्यकार ने 'वृद्धिरादेच्" सूत्र पर लिखा है-माङ्गलिक प्राचार्यो महतः शास्त्रौघस्य मङ्गलाथं वृद्धिशब्दमादितः प्रयुङ्क्ते । १५ अर्थात्-प्राचार्य पाणिनि मङ्गल के लिये शास्त्र के प्रारम्भ में वृद्धि शब्द का प्रयोग करता है। ___ महाभाष्य की इस पंक्ति में 'आदि' पद को देख कर अर्वाचीन वैयाकरणों को भ्रम हुआ है कि पाणिनीय शास्त्र का प्रारम्भ 'वृद्धिरादैच्' से होता है, अर्थात उससे पूर्व के सूत्र पाणिनीय नहीं हैं । इस पर विचार करने के पूर्व आदि मध्य और अन्त शब्दों के व्यवहार पर ध्यान देना आवश्यक है । महाभाष्यकार ने 'भूवादयो धातवः'६ सूत्र पर लिखा है माङ्गलिक प्राचार्यो महत: शास्त्रौघस्य मङ्गलार्थ वकारागमं प्रयुङ्क्ते । मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि २५ प्रथन्ते। इस पङक्ति में पाणिनीय शास्त्रान्तर्गत प्रादि मध्य और अन्त के १. सं० सा० का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ४०१ । २. अमरटीकासर्वस्व भाग १, पृष्ठ १८६ पर उद्धृत। ३. पूर्व पृष्ठ २२७, २२८ । ४. प्रत्याहारसूत्र १४ । ५. अष्टा० १।१।१॥ ६. अष्टा० १।३।१॥ ३० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३१ तीन मङ्गलों की ओर संकेत किया है, और 'भूवादयो धातवः' सूत्र के वकारागम को शास्त्र का मध्य मङ्गल कहा है। काशिकाकार 'नोदात्तस्वरितोदयम्" इत्यादि सूत्र की व्याख्या में लिखता है उदात्तपरस्येति वक्तव्ये उदयग्रहणं मङ्गलार्शम् । यह शास्त्र के अन्त का मङ्गल है। इन उद्धरणों में प्रयुक्त आदि मध्य और अन्त शब्दों पर ध्यान देने से विदित होगा कि मध्य और अन्त शब्द यहां अपने मुख्यार्थ में प्रयुक्त नहीं हुए हैं, यह विस्पष्ट है । क्योंकि 'भूवादयो धातवः' शास्त्र के ठीक मध्य में नहीं है। इसी प्रकार 'नोदात्तस्वरितोदयम्' सूत्र भी १० सर्वान्त में नहीं है, अन्यथा शास्त्र के अन्तिम सूत्र 'प" को अपाणिनीय मानना होगा। महाभाष्यकार ने 'अइउण सूत्र पर 'प अ' को पाणिनीय माना है। अतः महाभाष्य के उपर्युक्त उद्धरणों में आदि, मध्य और अन्त शब्द सामीप्यादि सम्बन्ध द्वारा लक्षणार्थ में प्रयुक्त हुए हैं, यह स्पष्ट है। आदि और अन्त शब्द का इस प्रकार लाक्षणिक प्रयोग प्राचीन ग्रन्थों में प्रायः उपलब्ध होता है। नैरुक्तसम्प्रदाय का प्रामाणिक आचार्य वररुचि अपने निरुक्तसमुच्चय के प्रारम्भ में लिखता है मन्त्रार्थज्ञानस्य शास्त्रादौ प्रयोजनमुक्तम्-योऽर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा इति । शास्त्रान्ते च-यां यां देवतां निराह तस्यास्तस्यास्ताद्भाव्यमनुभवतीति । इन दोनों उद्धरणों में क्रमश: निरुक्त १८ और १३।१३ के पाठ को निरुक्त के आदि और अन्त का पाठ लिखा है। क्या इससे आचार्य वररुचि के मत में निरुक्त का प्रारम्भ 'योऽर्थज्ञ' से माना २५ १. अष्टा० ८।४। ६७ ॥ २. अष्टा० ८।४।६८॥ ___३. प्रत्याहारसूत्र १ । ४. यदयम् 'अ अ' इत्यकारस्य विवृतस्य संवृतताप्रत्यापत्ति शास्ति । ५. निरुक्तसमुच्चय (हमारा द्वि. तृ० संस्करण) पृष्ठ १ । ६. निरुक्तसमुच्चय (हमारा द्वि० तृ० संस्करण) पृष्ठ २। २० Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जायेगा? वररुचि ने अपने ग्रन्थ में निरुक्त १११८ से पूर्व के अनेक पाठ उद्धृत किये हैं।' अतः ऐसे वचनों के आधार पर इस प्रकार के भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों की कल्पना करना सर्वथा अयुक्त है । इसलिये पूर्वोक्त प्रमाणों के अनुसार पाणिनीय शास्त्र का प्रारम्भ 'प्रथ शब्दानुशासनम्' से समझना चाहिये, और प्रत्याहार सूत्र भी पाणिनीय ही मानने चाहिये। यही युक्तियुक्त है। ___ इसी प्रकार एक भूल कात्यायनकृत वार्तिकपाठ के सम्बन्ध में भी हुई है। इसका निर्देश हम कात्यायन के प्रकरण में करेंगे । अष्टाध्यायी और प्रापिशल तथा पाणिनीयशिक्षा से तुलना पाणिनोय और आपिशल शिक्षा के प्रकरणविच्छेद के साथ अष्टाध्यायी के अध्यायों की तुलना की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे दोनों की शिक्षाओं में प्रथम स्थान प्रकरण से पूर्व पठित सूत्र उसके उपोद्धात रूप हैं, और आठ प्रकरणों से बहिर्भूत होते हुए १५ भी शिक्षा के अङ्ग हैं, उसी प्रकार अष्टाध्यायी के प्रथमाध्याय का प्रारम्भ 'वृद्धिरादैच' से होने पर भी 'अथ शब्दानुशासनम' और प्रत्याहारसूत्र अध्यायविच्छेद से बहिर्भूत होते हुए भी अष्टाध्यायी के अङ्ग और पाणिनि द्वारा ही प्रोक्त हैं। अष्टाध्यायी के पाठान्तर पहले हमारा विचार था कि पाणिनि के लिखे ग्रन्थों में ही पाठान्तर अधिक हुए हैं, अष्टाध्यायी का पाठ प्रायः सुरक्षित रहा है। परन्तु शतशः ग्रन्थों का पारायण करने पर विदित हुआ कि सूत्रपाठ में भी पर्याप्त पाठान्तर हो चुके हैं। हां इतना ठीक है कि अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा इस में पाठान्तर स्वल्प हैं। हमने व्याकरण के सब २५ मद्रित ग्रन्थों और अन्य विषय के विविध ग्रन्थों का पारायण करके सूत्रपाठ के लगभग दो सौ पाठान्तर संगृहीत किये हैं।' १. निरुक्तसमुच्चय (हमारा द्वि० तृ० संस्करण) पृष्ठ २,३,४ इत्यादि । २. धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र और लिङ्गानुशासन ये अष्टाध्यायी के खिल अर्थात् परिशिष्ट माने जाते हैं । देखो काशिका ११३॥२॥ ३० ३. रामलाल कपूर ट्रस्ट से 'पाणिनीय शब्दानुशासनम् (प्रथम भाग) में Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३३ पाठान्तरों के तीन भेद-पाणिनीय सूत्रपाठ के जितने पाठान्तर उपलब्ध होते हैं, उन्हें हम तीन भागों में बांट सकते हैं । यथा १-कुछ पाठान्तर ऐसे हैं, जो पाणिनि के स्वकीय प्रवचनभेद से उत्पन्न हुए हैं । यथा-उभयथा' ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः । केचिदाकडारादेका संज्ञा इति, केचित् प्राक्कडारात् परं ५ कार्यमिति । शुङ्गाशब्दं स्त्रीलिङ्गमन्ये पठन्ति । ततो ढकं प्रत्युदाहरन्ति शौङ्गेय इति । द्वयमपि चैतत् प्रमाणम्--उभयथा सूत्रप्रणयनात् ।' २-वृत्तिकारों की व्याख्यानों के भेद से । यथा--जरद्भिरित्यपि पाठः केनचिदाचर्येण बोधितः । काण्डेविद्धिभ्य इत्यन्ये पठन्ति । सम्भव है ये पाठभेद भी प्राचार्य के प्रवचन-भेद से हुए हों, और वृत्तिविशेष में सुरक्षित रहे हों। ३-लेखक आदि के प्रमाद से । यथा-एवं चटकादैरगित्येतत् सूत्रमासीत् । इदानीं प्रमादात् चटकाया इति पाठः । ___ ग्रन्थकार के प्रवचनभेद से उत्पन्न पाठान्तर अत्यन्त स्वल्प हैं। वृत्तिकारों के व्याख्याभेद और लेखकप्रमाद से हुए पाठान्तर अधिक मुद्रित अष्टाध्यायी के विशेष संस्करण (सं० २०२८) में हमने ये सब पाठभेद दे दिये हैं। १. काशिका ६।२।१०४ में उदाहरण है-'पूर्वपाणिनीयाः, अपरपाणिनीयाः' । इन उदाहरणों से भी स्पष्ट है कि पाणिनि ने बहुधा अष्टाध्यायी का प्रवचन किया था। २. महाभाष्य ११४१॥ - ३. काशिका ४१११११७।। देखो इस सूत्र का न्यास–'उभयथा ह्यतत सूत्रमाचार्येण प्रणीतम'। ४. पदमञ्जरी २।११६७। भाग १, पृष्ठ ३८४॥ २५ ५. पदमञ्जरी ४।१८१॥ भाग२, पृष्ठ ७० ॥ ६. न्यास ४।१।१२८॥ ७. पं० रामशंकर भट्टाचार्य ने हमारे द्वारा संगृहीत तथा स्वयं संगृहीत अष्टाध्यायी के पाठान्तरों का संकलन 'सारस्वती सुषमा' (काशी)के चैत्र सं० २००६ के अङ्क (७१) में प्रकाशित किया है। द्र० पृ० २३२, टि० ३। ३० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास क्या सूत्रों में वार्तिकांशों का प्रक्षेप काशिकाकार का है ? कैयट' हरदत्त आदि वैयाकरणों का मत है कि जिन जिन सूत्रों में वार्तिकांशों का पाठ मिलता है, वह काशिकाकार का प्रक्षेप है । परन्तु हमारा विचार है कि ये प्रक्षेप काशिकाकार के नहीं हैं, अपितु उससे बहुत प्राचीन हैं। हमारे इस विचार में निम्न कारण हैं पाणिनि का सूत्र है-अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च । इस विषय में महाभाष्य में वार्तिक पढ़ा है-धविधाववहाराधारावायानामुपसंख्यानम् । काशिकाकार ने 'अध्यायन्यायोद्यावसंहाराधारावायाश्च पाठ मान कर चकार से 'अवहार' प्रयोग का संग्रह किया है । यदि १० वार्तिकान्तर्गत 'आधार' और 'पावाय' पदों का सूत्रपाठ में प्रक्षेप काशिकाकार ने किया होता, तो वह वार्तिक-निर्दिष्ट तृतीय 'अवहार' पद का भी प्रक्षेप कर सकता था । परन्तु वह उसका प्रक्षेप न करके चकार से संग्रह करता है। २–पाणिनि के 'प्रासुयुवपिरपित्रपिचमश्च" सूत्र के विषय में १५ महाभाष्य में वार्तिक पढ़ा है-लपिदभिभ्यां च । काशिकाकार ने 'पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च सूत्रपाठ माना है, और 'दाभ्यम्' प्रयोग की सिद्धि चकार में दर्शाई हैं। यदि सूत्रपाठ में 'लपि' का प्रक्षेप काशिकाकार ने किया, तो 'दभि' का क्यों नहीं किया ? अतः 'दाभ्यम' प्रयोग की सिद्धि के लिये सूत्रपाठ में 'दभि' का पाठ न २० करके चकार से संग्रह करना इस बात का ज्ञापक है कि इस प्रकार के प्रक्षेप काशिकाकार के नहीं हैं। __३–लाक्षारोचनाद्वक् सूत्र पर वार्तिक है-ठकप्रकरणे शकलकर्दमाभ्यामुपसंख्यानम् । काशिकाकार ने लाक्षारोचनाशकलकर्द माट्ठ" सूत्र मान कर लिखा है- 'शकलकर्दमाभ्यामणपोष्यते २५ १. महाभाष्य-प्रदीप ३३३३१२१॥ २. पदमञ्जरी १२३।२६; ३३३३१२२, ४।१।१६६; ६।१११००॥ ३. दीक्षित, शब्दकौस्तुभ ४।४।१७, पृष्ठ २०७। ४. अष्टा ३३।१२२॥ ५. अ० ३।३।१२॥ ६. काशिका ३३।१२२॥ ७. अष्टा० ३।१।१२६॥ ८. महाभाष्य ३३१११२४॥ ६. काशिका ३।१।१२६॥ १०. अष्टा० ४.२॥२॥ ११. काशिका ४।२।। १२. काशिका ४।२।२॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३५ शाकलम्, कार्दमम् । काशिकाकार से प्राचीन चान्द्र व्याकरण में 'शफलकर्दमाद्वा" ऐसा सूत्र पढ़ा है । यदि सूत्रपाठ में शकल कर्दम का प्रक्षेप जयादित्य ने किया होता, तो वह 'शकलकर्दमाभ्यामणपोष्यते' ऐसी इष्टि न पढ़ कर सीधा 'शकलकदमाद्वा' सूत्र बनाकर प्रक्षेप करता। ___४–काशिकाकार ७।२।४६ पर लिखता है-'केचिदत्र भरज्ञपिसनितनिपतिदरिद्राणामिति पठन्ति । अर्थात्-कई वृत्तिकार इस सूत्र में तनि, पति, दरिद्रा ये तीन धातुएं अधिक पढ़ते हैं। इससे स्पष्ट है कि किन्हीं प्रचीन वृत्तियों में इस सूत्र का बृहत् पाठ विद्यमान होने पर भी वामन ने उस पाठ को १० स्वीकार नहीं किया। यदि उसे प्रक्षेप करना इष्ट होता, तो वह यहां भी इन धातुओं का प्रक्षेप कर सकता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि काशिकाकार जहां जहां बृहत् पाठ को पाणिनीय मानता था, वहीं वहीं उसने उसे स्वीकार किया है । ___काशिकाकार पर अर्वाचीनों के आक्षेप जिस प्रकार काशिकाकार पर प्राचीन वैयाकरणों ने पाणिनीय सूत्रपाठ में वार्तिकांशों के प्रक्षेप का आक्षेप किया है, उसी प्रकार अर्वाचीन लोग भी चन्द्रगोमी के वैशिष्ट्य और उसके सूत्रपाठ को पाणिनीय पाठ में सन्निविष्ट करने का आक्षेप काशिकाकार पर लगाते हैं। प्रो० कीलहान कहते हैं-'काशिकाकार ने चन्द्रगोमी की सामग्री का अपनी वृत्ति-रचना में पर्याप्त उपयोग किया है । इसलिए कात्यायन के वार्तिकों के आधार पर रचित चन्द्रगोमी के कुछ सूत्रों को भी काशिकाकार ने पाणिनि के मौलिक सूत्रों के स्थान पर प्रतिष्ठत कर दिया।' प्रो० बेल्वाल्कर लिखते हैं-'चन्द्रगोमी द्वारा प्रस्तुत किए गए सम्पूर्ण संशोधनों को पाणिनीय सम्प्रदाय में अन्तर्भूत करके उपस्थित करना ही काशिकाकार का उद्देश्य था।" १. चान्द्र ३११२॥ जैनेन्द्र शब्दार्णव-चन्द्रिका ३।२१२ में यही पाठ है। २. 'सं० व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' में ३० पृष्ठ ८२, ८३ पर उद्धृत। ३. वही, पृष्ठ १०० पर उद्धृत । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हमारे विचार में काशिकाकार पर लगाए गए ये साक्षेप नितान्त असत्य हैं । काशिकाकार ने कहीं पर भी चान्द्र सत्रपाठ को पाणिनोय सूत्रपाठ में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न नहीं किया । अपनी इस स्थापना के लिए हम उपरि निर्दिष्ट सूत्रों को हो उपस्थित करते हैं । १-पाणिनि का 'अध्यायन्यायोद्याव०' सूत्र चान्द्र व्याकरण में है ही नहीं। इस सूत्र और इस के वार्तिक में पढ़े कतिपय शब्दों का ११३।१०१ की वृत्ति में बहुलाधिकार द्वारा साधुत्व कहा है । अतः उक्त पाणिनीय सूत्र का काशिकाकार का पाठ चान्द्र पाठ पर आश्रित नहीं है, यह स्पष्ट है। २-पाणिनि के प्रासुयुवपिरपि० सूत्र का चान्द्र पाठ है-पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमिदमः (१।१।१३३) । इस पाठ से तो यह विदित होता है कि चन्द्र के सन्मूख पाणिनि का काशिकाकार संमत प्रासयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च पाठ ही विद्यमान था, उसी में उसने वार्तिकोक्त दभि अंश का प्रक्षेप चम के अन्त में किया। यदि उसके १५ पास पाणिनि का प्रासुयुवपिरपित्रपिमश्च लघु सूत्रपाठ होता, तो वह वातिकोक्त लपिदभि धातुओं को इकट्ठा एक स्थान में ही सन्निविष्ट करता, न कि लपि को मध्य में और दभि को अन्त में । इतना ही नहीं, यदि काशिकाकार यहां चन्द्र का अनुकरण कर रहा है, तो उस ने दभि का प्रक्षेप क्यों नहीं किया ? इससे दो बातें स्पष्ट हैं, एक २. तो काशिकाकाकार ने चन्द्र का अनुकरण नहीं किया, दूसरा चन्द्र के पास भी इस सूत्र का काशिकाकार सम्मत बृहत् पाठ ही पाणिनीय सूत्र के रूप में विद्यमान था । ३-काशिकाकार का लाक्षारोचनाशकलर्दमाटठ्क सूत्रपाठ यदि चान्द्र पाठ पर आश्रित होता, तो काशिकाकार चन्द्रगोमी के प्रत्यक्ष पठित शकलयर्दमाद्वा सूत्र के होते हुए उसी रूप से प्रक्षेप न करके शकलकदमाभ्यामणपोष्यते ऐसी इष्टि न पढ़ता । यह इष्टि पढ़ना ही बताता है कि काशिकाकार ने चान्द्रसूत्र के पाठांश को पाणिनीय पाठ में प्रक्षिप्त नहीं किया। हां उसके मत को इष्टि के रूप में संगृहीत कर दिया । ३० ४.--काशिकाकार ने ७।२।४६ पर लिखा है-'केचिदत्र भरज्ञपि सनितनिपतिदरिद्राणाम् इति पठन्ति' । चन्द्रगोमी का सूत्र है Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३७ सनिवन्तर्ध"ज्ञपिसनितनिपतिदरिद्रः (५।४।११६) । यदि काशिकाकार ने अन्यत्र चान्द्र सूत्रांशों का पाणिनीय सूत्रपाठ में प्रक्षेप किया होता, तो वह यहां पर सीधा प्रक्षेप करके केचित् पठन्ति का निर्दश न करता। ___ इन उदाहरणों से ही स्पष्ट है कि काशिकाकार पर प्रो० ५ कीलहान और डा० बेल्वाल्कर के लगाए गए आक्षेप सर्वथा निर्मूल हैं । इस विवेचना से इतना तो व्यक्त है कि काशिकाकार ने स्ववृत्ति की रचना में जहां पाणिनितन्त्र की प्राचीन वत्तियों का सहारा लिया, वहां चान्द्र आदि प्राचीन व्याकरणों और उन की वृत्तियों से भी उपयोगी अंश स्वीकार किये । परन्तु काशिकाकार ने पाणिनीय सूत्र- १० पाठ में वार्तिकांशों का अथवा चान्द्र सूत्रांशों का प्रक्षेप किया, यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल है। काशिकाकार के संमुख पाणिनीय अष्टाध्यायी के लघु और बृहत् दोनों पाठ थे। उन में से उसने पाणिनि के बृहत् पाठ पर अपनी वृत्ति रची, और वह बृहत् पाठ प्राच्य पाठ था, यह हम अनुपद लिखेंगे। .. हमारे द्वारा इतने स्पष्ट प्रमाण उद्धृत करने पर भी डा० सत्यकाम वर्मा ने काशिका में विद्यमान पाठभेदों का उत्तरदायित्व काशिकाकार पर डालने की कैसे चेष्टा की, यह हमारी समझ में नहीं पाता । क्या इस का कारण कैयट आदि भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों के मत को विवेचना विना किये स्वीकार कर लेना नहीं है ? २० अष्टाध्यायी का त्रिविध पाठ पूर्व पृष्ठ २३२-२३३ पर हमने पतञ्जलि और जयादित्य जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों के उद्धरणों से यह प्रतिपादन किया है कि प्राचार्य पाणिनि ने अपने शास्त्र का अनेक बार और अनेकधा प्रवचन किया था। इस की पुष्टि काशिका ६।२।१०४ के पूर्वपाणिनोयाः, अपर- २५ पाणिनीयाः उदाहरणों से भी होती है। उस प्रवचनभेद से ही मूल शास्त्र में भी कुछ भेद हो गया था। प्राचार्य ने जिन शिष्यों को जैसा भी प्रवचन किया, उन की शिष्य-परम्परा में वही पाठ प्रचलित रहा। अष्टाध्यायी और उस के खिल पाठ (धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ) के विविध पाठों का सूक्ष्म अन्वेक्षण करके हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे ३० हैं कि आचार्य पाणिनि के पञ्चाङ्ग व्याकरण का ही विविध पाठ है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वह पाठ सम्प्रति प्राच्य, उदीच्य और दाक्षिणात्य दभे से त्रिधा विभक्त प्राच्य पाठ-अष्टाध्यायी के जिस पाठ पर काशिका वृत्ति है, वह प्राच्य पाठ है। औदीच्य पाठ-क्षीरस्वामी आदि कश्मीरदेशीय विद्वानों से आश्रीयमाण सूत्रपाठ पाठ औदीच्य पाठ है। दाक्षिणात्य पाठ--जिस पाठ पर कात्यायन ने अपने वार्तिक लिखे हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ हैं। वृद्ध लघु पाठ-ये तीन पाठ दो विभागों में विभक्त हैं--वृद्धपाठ १० और लघपाठ । प्राच्यपाठ वृद्धपाठ है, और औदीच्य तथा दाक्षिणात्य पाठ लघुपाठ हैं । औदीच्य और दाक्षिणात्य पाठों में अवान्तर भेद अति स्वल्प हैं। धातुपाठ, गणपाठ और उणादिपाठ के उक्त पाठवैविध्य का वर्णन हम ने उन-उन प्रकरणों में यथास्थान आगे किया है। इस के १५ लिए पाठक द्वितीय भाग में तत्तत्प्रकरण देखें। अन्य शास्त्रों के विविध पाठ-यह पाठवैविध्य अनेक प्राचीन शास्त्रों में उपलब्ध होता है। किसी के वृद्ध लघु दो पाठ हैं, तो किसी के वृद्ध मध्यम और लघु तीन पाठ । यथा-- १--निरुक्त को दुर्ग और स्कन्द की टीकाएं लघुपाठ पर हैं, और २० सायण द्वारा ऋग्भाष्य में उद्धत पाठ वृद्धपाठ है। निरुक्त के दोनों पाठों के द्विविध हस्तलेख अद्ययावत् उपलब्ध होते हैं। २--मनु और चाणक्य के साथ बहुत्र वृद्ध विशेषण देखा जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत वृद्धमनु के अनेक वचन वर्तमान मनु स्मृति में उपलब्ध नहीं होते । वर्तमान मनुपाठ लघुपाठ हैं। चाणक्य२५ नीति के वृद्ध और लघु पाठ आज भी उपलब्ध हैं। ३-हारिद्रवीय गृह्य के महापाठ का एक वचन कोषीतकि गृह्य की भवत्रात टीका पृष्ठ ६६ पर उद्धृत है। ४-भरत-नाट्यशास्त्र के १८००० श्लोकों का वृद्धपाठ, १२००० श्लोंकों का मध्यपाठ और ६००० श्लोकों का लघुपाठ था । वर्तमान Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३ε नाटयशास्त्र का पाठ लघुपाठ है । बड़ोदा के संस्करण में कहीं-कहीं [ ] कोष्ठान्तर्गत मध्य अथवा वृद्धपाठ भी निर्दिष्ट हैं । डा० सत्यकाम वर्मा को अष्टाध्यायी के लघु और बृहत् पाठ पर आपत्ति है। उनका कहना है कि - क्या अष्टाध्यायी का बृहत्पाठ स्वीकार करते ही पातञ्जल महाभाष्य का अधिकांश विचार निरर्थक ५ नहीं रह जाता ? और सब से बड़ी बात तो यह है कि जो बात पतञ्जलि और कात्यायन सदृश पाणिनि के निकटवर्ती वैयाकरणों को ज्ञात नहीं थी, उसे उन से भी आठ नौ सदी बाद आनेवाले वृत्ति - कार जयादित्य वा वामन कैसे जाने पाये ?' (पृष्ठ १४५) । १५ इस पर हमें यही कहना है कि डा० सत्यकाम वर्मा का लेख उन १० के स्वलेख के ही विपरीत है । वे इस से पूर्व पृष्ठ १४४ पर लिखते हैं- " इन शिष्यों में से कुछ ने पहले सूत्रपाठ को पढ़ा और प्रामाणिक माना होगा. जबकि कुछ ने दूसरे को ।" यदि इसे स्वीकार कर लिया जाये, तो उनकी पूर्व आपत्ति स्वयं समाहित हो जाती है । कात्यायन उस सम्प्रदाय के अनुयायी थे, जिस को हम लघुपाठ कहते हैं । उन्होंने उसी पाठ पर अपने वार्तिक लिखे । भाष्यकार ने कात्यायन के वार्तिकपाठ पर ही भाष्य रचा। बृहत्पाठ अन्य परम्परा में सुरक्षित रहा । उस पर जयादित्य वा वामन ने अपनी वृत्ति लिखी । हम लिख चुके हैं कि दाक्षिणात्य और औदिच्यपाठ लघुपाठ हैं । कात्यायन दाक्षिणात्य है और पतञ्जलि प्रौदीच्य ( कश्मीरी ) । अतः उनकी परम्परा में २० लघुपाठ ही प्रचलित था । पाणिनीय शास्त्र के नाम पाणिनीय शास्त्र के चार नाम उपलब्ध होते हैं - अष्टक, अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन और वृत्तिसूत्र । अष्टक, श्रष्टाध्यायी - पाणिनीय ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त २५ है, अतः उसके ये नाम प्रसिद्ध हुए । इनमें अष्टाध्यायी नाम सर्वलोकविश्रुत है । शब्दानुशासन - यह नाम महाभाष्य के प्रारम्भ में मिलता है । वहां लिखा है - प्रथेति शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते । शब्दानुशासनं नाम शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् । ३० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास प्राचार्य हेमचन्द्र के काव्यानुशासन और योगानुशासन भी तत्तद् विषयक ग्रन्थों के नाम द्रष्टव्य हैं । २४० ५ वृत्तिसूत्र - पाणिनीय सूत्रपाठ के लिये 'वृत्तिसूत्र' पद का प्रयोग महाभाष्य में दो स्थानों पर उपलब्ध होता है ।' चीनी यात्री इल्सिंग ने भी इस नाम का निर्देश किया है । जयन्तभट्टकृत न्यायमञ्जरी में उद्धृत एक श्लोक में वृत्तिसूत्र का उल्लेख मिलता है । 3 नागेश ने महाभाष्य २।१।१ के प्रदीपविवरण में लिखा है पाणिनीयसूत्राणां वृत्तिसद्‌भावाद् वातिकानां तदभावाच्च तयोवैषम्यबोधनादम् १० अर्थात् पाणिनीय सूत्र पर वृत्तियां हैं, वार्तिकों पर नहीं । अतः दोनों में भेद दर्शाने के लिये पाणिनीग सूत्रों के लिये वृत्तिसूत्र पद का प्रयोग किया है । २० नागेश का 'वातिकानां तदभावात्' हेतु सर्वथा ठीक है । भर्तृहरि महाभाष्यदीपिका में दो स्थानों पर वार्तिक के लिये 'भाष्यसूत्र' पद १५ का व्यवहार किया है । इससे स्पष्ट है कि वार्तिकों पर भाष्य ग्रन्थ ही लिखे गए, वृत्तियां नहीं लिखी गई । पाणिनीय सूत्रों पर वृत्तियां ही लिखी गई, उन पर सीधे भाष्य ग्रन्थों की रचना नहीं हुई । अन्य कारण - वृत्तिसूत्र नाम का एक अन्य कारण भी सम्भव है । यास्क ने लिखा है संशयवत्यो वृत्तयो भवन्ति । २ । १ ॥ यहां वृत्ति से व्याकरणशास्त्रीय कृत् तद्धित वृत्तियाँ अभिप्रेत हैं। १. महाभाष्य २०१११, पृष्ठ ३७१ २ २ २४, पृष्ठ ४२४ । २. इत्सिंग की भारतयात्रा, पृष्ठ २६८ । ३. वृत्तिसूत्रं तिला माषा: कपत्री कोद्रवौदनम् । श्रजडाय प्रदातव्यं जडी २५ करणमुत्तमम् ॥ भाग १, पृष्ठ ४१८ । पं० गुरुपद हालदार ने लिखा है भाष्य के अतिरिक्त 'वृत्तिसूत्र' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता ( व्या० द० इ० पृष्ठ ३६४) । यह लेख ठीक नहीं । ४. महाभाष्यदीपिका हस्तलेख पृष्ठ २८१, २५२ ; पूना सं० पृ० २१३ में दो बार ! Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४१ पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि २।४२ की स्वोपज्ञ वृत्ति में लिखा है-- विशेषणं विशेष्येण इति वृत्तिः । यहां 'विशेषणं विशेष्येण' यह पूज्यपाद के जैनेन्द्र व्याकरण १।३। का ५२ वां सूत्र है। इस आधार पर वृत्तिसूत्र का अर्थ होगा व्याकरणसूत्र । अपर कारण--वृत्ति शब्द का अर्थ पतञ्जलि ने शास्त्रप्रवृत्ति किया है ।' वैयाकरणों में व्याकरणशास्त्रीय सुप् कृत् तिड़ आदि पांच वृत्तियां अथवा प्रवृत्तियां प्रसिद्ध हैं। तदनुसार वृत्तिसूत्र शब्द का अर्थ होगा सुप् प्रादि वृत्तियों शास्त्र-प्रवृत्तियों के बोधक सूत्र। १० पं० गुरुपद हालदार ने 'वृत्तिसूत्र' पद का अर्थ न समझ कर विविध कल्पनाएं की हैं, वे चिन्त्य हैं। मूलशास्त्र--गार्ग्य गोपालयज्वा अपनी तैत्तिरीय प्रातिशाख्य की टीका में पाणिनीय शास्त्र का निर्देश मूलशास्त्र के नाम से करता है। यथा क--मूलशास्त्रे त्ववर्णपूर्वस्यापि कस्यचित् 'रोरि' इति लोपः . स्मयते। ख-तदुक्तं मूलशास्त्रे 'प्रोमभ्यादाने' अचः प्लुत इति ।। गोपालयज्वा का पाणिनीय शास्त्र को मूलशास्त्र कहने में क्या अभिप्राय है, यह हमें ज्ञात नही । हो सकता है वह प्रातिशाख्यों को २० अथवा तैत्तिरीय प्रातिशाख्य को पाणिनीयमूलक समझता हो । यदि उसका यही अभिप्राय हो, तो यह उसकी भ्रान्ति है । ते० प्रा० पाणिनीय शास्त्र से निश्चित ही प्राचीन है। . अष्टिका-पाणिनीयाष्टक का एक नाम अष्टिका भी है। १. महाभाष्य ११, प्रा० १ के अन्त में। २. व्या० द० इतिहास, पृष्ठ ३९४ । ३. ते० प्रा० ८ । १६, मैसूर सं०, पृष्ठ २४ । ४. ते० प्रा० १७ । ६, मैसूर सं०, पृष्ठ ४४७ । ५. अष्टिका पाणिनीयाष्टाध्यायी । बालमनोरमा । भाग, १, पृष्ठ ५१५ (लाहौर संस्क०)। ०३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास पाणिनीय शास्त्र का मुख्य उपजीव्य ५ पाणिनीय अष्टाध्यायी एवं पाणिनीय शिक्षा में जिस प्रकार आठ अध्याय एवं आठ प्रकरण हैं, उसी प्रकार पाणिनि से पूर्व भावी पि शलि के शब्दानुशासन एवं शिक्षा में भी आठ अध्याय और आठ प्रकरण हैं, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।' दोनों प्राचार्यों के दोनों ग्रन्थों में वर्तमान यह समानता यह इङ्गित करती है कि पाणिनीय तन्त्र का मुख्य उपजीव्य आपिशल-तन्त्र है । इतना ही नहीं, पदमञ्जरीकार तो इसे और भी स्पष्टरूप में कहता है २४२ 'कथं पुनरिदमाचार्येण पाणिनिनाऽवगतमेते साधव इति ? आप१० शलेन पूर्वव्याकरणेन । श्रपिशलिना तहि केनावगतम् ? ततः पूर्वव्याकरणेन' ।' पाणिनिरपि स्वकाले शब्दान् प्रत्यक्षयन्नापिशलादिना पूर्वस्मिन्नपि काले सत्तामनुसन्धत्ते; एवमापिशलिः' । पाणिनीय तन्त्र की विशेषता १५ आचार्य चन्द्रगोमी अपने व्याकरण २२२२६८ की स्वोपज्ञ - वृत्ति में एक उदाहरण देता है -- पाणिनोपज्ञमकालकं व्याकरणम् । २५ काशिका, सरस्वतीकण्ठाभरण* श्रोर वामनीय लिङ्गानुशासन की वृत्तियों में 'पाणिन्युपज्ञमकालकं व्याकरणम्' पाठ है। इन उदाहरणों का भाव यह है कि कालविषयक परिभाषाओं से २० रहित व्याकरण सर्वप्रथम पाणिनि ने ही बनाया। प्राचीन व्याकरणों में भूत भविष्यत् अनद्यतन आदि कालों की विविध परिभाषाएं लिखी श्रापिशल - शिक्षा पृष्ठ १. आपिशल व्याकरण का परिमाण, पृष्ठ १५०, २. पदमञ्जरी, 'शब्दानु०' भाग १, पृष्ठ ६ । १५७ ॥ ३. पदमञ्जरी, 'शब्दानु०' भाग १, पृष्ठ ७ । ४. काशिका २२४।२१ ॥ ५. दण्डनाथ - वृत्ति ३।३।१२६॥ ८. पृष्ठ ६, द्वि० सं० ६. कालकमिति कालपरिभाषारहितमित्यर्थः । न्यास ४ । ३ । १५५ ॥ पाणिनिना प्रथमं कालाधिकाररहितं व्याकरणं कर्तुं शक्यमिति परिज्ञातम् । वामनीय लिङ्गानुशासन, पृष्ठ ६, द्वि० सं० । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४३ 1 थीं । पाणिनि ने उनके लोकप्रसिद्ध होने से उन्हें छोड़ दिया । इस विषय को पाणिनि ने स्वयं निम्न सूत्र से दर्शाया है कालोपसर्जनने च तुल्यम् । १।२।५७॥ इसका भाव यह है कि काल और उपसर्जन संज्ञाएं शिष्य हैं, अर्थ के अन्य = लोक के प्रमाण होने से । अर्थात् -- काल की विविध ५ संज्ञानों के अर्थ लोक-विज्ञात होने से शास्त्र में परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है | इसके अतिरिक्त पाणिनीय तन्त्र में पूर्व व्याकरणों की अपेक्षा कई सूत्र अधिक हैं, यह हम पूर्व काशकृत्स्न के प्रकरण में लिख चुके हैं । जिन सूत्रों पर महाभाष्यकार ने अनर्थक्य की आशङ्का उठाकर उन १० की प्रयत्नपूर्वक आवश्यकता दर्शाई है, वे सूत्र निश्चय ही पणिनि के स्वोपज्ञ हैं, उससे पूर्वकालिक तन्त्रों में वे सूत्र नहीं थे । ' पाणिनीय तन्त्र पूर्व तन्त्रों से संक्षिप्त हमारे भारतीय वाङमय के प्रत्येक क्षेत्र में देखा जाता है कि उत्तरोत्तर ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्व - पूर्व ग्रन्थ अधिक विस्तृत थे, उनका १५ उत्तरोत्तर संक्षेप हुआ । व्याकरण के वाङ्मय में भी यही नियम उपलब्ध होता है । पाणिनीय व्याकरण के संक्षिप्त होने में निम्न प्रमाण हैं 1.3 १. पाणिनि ने 'प्रधानप्रत्ययार्थवचनमर्थस्यान्यप्रमाणत्वात् ' कालोपसर्जने च तुल्यम्' इन सूत्रों से दर्शाया है कि उसने अपने ग्रन्थ २० में प्रधान, प्रत्ययार्थवचन, भूत, भविष्यत्, अनद्यतन आदि काल तथा उपसर्जन आदि अनेक विषयों की परिभाषाएं नहीं रचीं । प्राचीन व्याकरणों में इनका उल्लेख था, परन्तु पाणिनि ने इनके लोकप्रसिद्ध होने से इन्हें छोड़ दिया । यही पाणिनीय तन्त्र की पूर्वतन्त्रों से उत्कृष्टता थी, यह हम ऊपर दर्शा चुके हैं । 1 २५ २. माघवीय धातुवृत्ति में 'क्षिणोति ऋणोणि तृणोति' आदि प्रयोगों में धातु की उपधा को गुण का निषेध करने के लिये आशिल १. पूर्व पृष्ठ १२३, १२४ । २. भ्रष्टा० १।२।५६ ॥ ३. भ्रष्टा० १।१।५७॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्याकरण के सूत्र उद्धृत किये हैं।' पाणिनीय व्याकरण में ऐसा कोई नियम उपलब्ध नहीं होता। अर्वाचीन वैयाकरण 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" इस कल्पित नियम के अनुसार 'क्षेणोति अर्णोति तर्णोति' प्रयोगों की कल्पना करते हैं, जो सर्वथा अयुक्त है। वैयाकरणों के शब्दनित्यत्व पक्ष में 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' की कल्पना उपपन्न ही नही हो सकती, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि 'क्षणोति अर्णोति तर्णोति' पदों का व्यवहार सम्प्रति उपलभ्य मान संस्कृत वाङमय में कहीं नहीं मिलता, परन्तु 'क्षिणोति ऋणोति' १० आदि प्रयोग उपलब्ध होते हैं । ३. चाक्रवर्मण व्याकरण के अनुसार 'द्वय' पद की सर्वनाम संज्ञा होती थी, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार केवल जस् विषय में विकल्प से इसकी सर्वनाम संज्ञा होती है। हमारे विचार में पाणिनीय व्याकरण के संक्षिप्त होने के कारण १५ उसमें कुछ नियम छूट गये हैं। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने स्पष्ट लिखा है नैकमुदाहरणं योगारम्म प्रयोजयति ।। अर्थात् एक उदाहरण के लिए सूत्र नहीं रचे गए। ४. राजशेखर ने काव्यमीमांसा में लिखा हैतद्धि शास्त्रप्रायोवादो यदुत तद्धितमूढाः पाणिनीयाः।" अर्थात्-शास्त्रों में यह प्रायोवाद है कि पाणिनीय तद्धित में मूढ़ होते हैं। १. धातुवृत्ति, पृष्ठ ३५६, ३५७ । २. महाभाष्यप्रदीपविवरण ३ । १। ८० ॥ २५ ३. देखो पृष्ठ ३७, टि. १, पृष्ठ १६६-१७१ । ४. क्षिणीति, रघुवंश २ ॥ ४० ॥ क्षिणोमि, यजुः ११ । १२॥ ऋणोति, यजुः ३४ ॥ २५ ॥ ऋ० १ । ३५। ६ ॥ दुर्गृहीत क्षिणोत्येव शस्त्रं शास्त्रमिवाबुधम् । चरक सिद्धि० १२१७८॥ ५. पूर्व पृष्ठ ३७, १६६ । ६. महाभाष्य १६६।। तुलना करो-नैकं प्रयोजनं योगारम्भं प्रयोज३० यति । महाभाष्य १।१।१२, ४१॥ ३॥११६७॥ ७. काव्यमीमांसा अ०६। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४५ यद्यपि राजशेखर ने पाणिनीयों के तद्धितमूढत्व में कोई कारण उपस्थापित नहीं किया, तथापि प्राचीन वाङ्मय के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पाणिनि का तद्धित प्रकरण यद्यपि दो अध्याय घेरे हुए है, तथापि वह अत्यन्त संक्षिप्त है । उस के द्वारा प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में प्रयुक्त सहस्रों तद्धित प्रयोग गतार्थ नहीं होते ।' ५ अर्थात् पाणिनि ने तद्धित प्रकरण में प्रत्यधिक संक्षेप किया है । ५. महाभारत का टीकाकार देवबोध माहेन्द्र = ऐन्द्र व्याकरण को समुद्र से उपमा देता है, और पाणिनीय तन्त्र को गोष्पद से । * अर्थात् ऐन्द्र तन्त्र की अपेक्षा पाणिनीय तन्त्र अत्यन्त संक्षिप्त है । ६. पाणिनीय तन्त्र के सूत्रों में लगभग १०० ऐसे प्रयोग हैं, जो १० पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते । यथा - 'जनिकर्तुः' तत्प्रयोजक:'३ पुराण:, सर्वनाम और ग्रन्थवाची ब्राह्मण शब्द । अत एव महाभाष्यकार ने पाणिनि के अनेक सूत्रों में छान्दस वा सौत्र कार्य माना है । इसी प्रकार पाणिनि के जाम्बवतीविजय काव्य में भी बहुत से प्रयोग ऐसे है. जो उसके व्याकरण के अनुसार साधु नहीं हैं । इसका १५ कारण केवल यही है कि पाणिनि ने इन ग्रन्थों में उस समय की व्यवहृत लोकभाषा को प्रयोग किया है, परन्तु उसका व्याकरण तत्कालिक भाषा का संक्षिप्त व्याकरण है । इसीलिये ये प्रयोग उसके व्याकरण से सिद्ध नहीं होते । इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि पाणिनि ने केवल प्राचीन व्याक - २० रणों का संक्षेप किया है, उनमें उसकी अपनी ऊहा कुछ नहीं । हम पूर्व लिख चुके हैं कि पाणिनि ने अपने व्याकरण में अनेक नये सूत्र रचे हैं, जो प्राचीन व्याकरणों में नहीं थे । वे उसकी सूक्ष्म पर्यवेक्षणबुद्धि के द्योतक हैं । लाघव करने के कारण कुछ नियमों का छूट जाना स्वाभाविक है । उसे दोष मानना स्व-प्रज्ञान को द्योतित करना है । २५ ..... १. तुलना के लिये महाभारत के पाण्डवेय प्रादि तद्धित प्रयोग तथा निरुक्त के 'दण्ड्यः .. दण्डमर्हतीति वा दण्डेन सम्पद्यत इति वा' (२/२) आदि द्वितार्थक निर्वचन देखे जा सकते हैं । २. अगले पृष्ठ में उद्ध्रियमाण श्लोक । ३. पूर्व पृष्ठ ३५, सन्दर्भ ८ । ४. पूर्व पृष्ठ ३५ की टि० ६ । ५. महाभाष्य १|१|१|| १ | ४ | ३ || ३ |४| ६०, ६४॥ ६. पूर्व पृष्ठ १२३-१२४, सन्दर्भ १ । ३० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इस से यह भी सिद्ध है जो पद पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते, उन्हें केवल अपाणिनीय होने के कारण अपशब्द नहीं कह सकते । प्राचीन आर्ष वाङमय में सहस्रशः ऐसे प्रयोग हैं, जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते।' अत एव महाभारत के टीकाकार ५ देवबोध ने लिखा है न दृष्ट इति वैयासे शब्दे मा संशयं कृथाः । प्रज्ञैरज्ञातमित्येवं पदं नहि न विद्यते ॥ ७ ॥ यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्यासो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ॥ ८॥ १० महाभाष्याकार ने भी अष्टाध्यायो का प्रयोजन 'शिष्ट-प्रयोगों के ज्ञान का मार्ग-प्रदर्शन कराना है, ऐसा लिखा हैं -शिष्टपरिज्ञानार्थी अष्टाध्यायी ६।३।१०६।। इतना ही नहीं सुधाकर नामक वैयाकरण का कहना है कि यदि लक्षण शिष्ट-प्रयोगों का अनुगमन नहीं करता, तो वह लक्षण ही नहीं है-'शिष्टप्रयोगोपगोतनाम्नः शब्दराशेरनाश्रयणे १५ प्रधानविरोधाल्लक्षणस्यालक्षणत्वं माभूत्।'देवम्, पृ० ८५,हमारा सं० । अष्टाध्यायी संहितापाठ में रची थी पानिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी संहितापाठ में रची थी। महाभाष्य १ । १ । ५० में लिखा है यथा पुनरियमन्तरतनिर्वृत्तिः, सा कि प्रकृतितो भवति२. स्थानिन्यन्तरतमे षष्ठीति । आहोस्विदादेशतः-स्थाने प्राप्यमाणा नामन्तरतम प्रादेशो भवतीति । कुतः पुनरियं विचारणा ? उभयथा हि तुल्या संहिता 'स्थानेन्तरतम उरण रपरः' इति ।। महाभाष्यकार ने अन्यत्र भी कई स्थानों में प्राचीन वृत्तिकारों के सूत्रविच्छेद को प्रामाणिक न मानकर नये-नये सूत्रविच्छेद दर्शाये हैं । २५ यथा नैवं विज्ञायते-कञ्क्वरपो यत्रश्चेति । कथं तहि ? कञ्क्वरपोऽयश्चेति । १. देखो पूर्व पृष्ठ २७-५६ । २. महाभारत टीका के प्रारम्भ में । ३. महाभाष्य ४॥ १।१६ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४७ इन प्रमाणों से विस्पष्ट है कि पाणिनि ने अष्टाध्यायी संहितापाठ में रची थी । यद्यपि पाणिनि ने प्रवचनकाल में सूत्रों का विच्छेद अवश्य किया होगा (क्योंकि उसके विना सूत्रार्थ का प्रवचन सम्भव नहीं), तथापि महाभाष्यकार ने उसके संहितापाठ को ही प्रामाणिक माना है। सूत्रपाठ एकश्रुतिस्वर में था महाभाष्य के अध्ययन से विदित होता है कि पाणिनि ने समस्त सूत्रपाठ एकश्रतिस्वर में पढ़ा था। टीकाकार कहीं-की स्वरविशेष की सिद्धि के लिए विशिष्टस्वर-युक्त पाठ मानते हैं। कैयट ने कुछ प्राचीन वैयाकरणों के मत में अष्टाध्यायी में एकश्रुतिस्वर ही १० माना है। ___ नागेशभट्ट सूत्रपाठ को एकश्रुतिस्वर में नहीं मानता। वह अपने पक्ष की सिद्धि में 'चतुरः शसि सूत्रस्थ महाभाष्य की 'पायुदात्तनिपाननं करिष्यते' पंक्ति को उद्धृत करता है। परन्तु यह पंक्ति ही स्पष्ट बता रही है कि सूत्रपाठ सस्वर नहीं था, एकश्रुति में था। १५ अन्यथा महाभाष्यकार 'करिष्यते' न लिख कर 'कृतम्' पद का प्रयोग करता । इतना ही नहीं, यदि अष्टाध्यायी की रचना पाणिनि ने सस्वर की होती, तो वह अस्थिधिसक्थ्यक्षणामनङ् उदात्त: (७।१। ७५) में उदात्त पद का निर्देश न करके 'अनङ' के प्रकार को ही उदात्त पढ़ देता । अतः सूत्रपाठ की रचना एकश्रुतिस्वर में मानना २० १. अभेदका गुणा इत्येव न्याय्यय । कुत एतत् ? यदम् 'अस्थिदघिसक्थ्यक्ष्णामनदात्तः' इत्युदात्तग्रहणं करोति । गदि हि भेदका गुणा: स्युः, उदात्तमेवोच्चारयेत् । महाभाष्य १११११॥ एकश्रुतिनिर्देशात् सिद्धम् । ६।४।१७२ ॥ २. अन्ये त्वाहुः--एकश्रुत्या सूत्राणि पठ्यन्ते इति । भाष्यप्रदीपोद्योत १। १३१॥ पृष्ठ १५३, निर्णयसागर संस्क०। ३. अष्टा० ६।१।१६७॥ २५ ४. नन्वेवमपि चतसर्याधुदात्ततिपातनसामर्थ्याच्चतस्र इत्यत्र 'चतुरः शसि' इत्यस्याप्रवत्तिरिति भाष्योक्तमनुपपन्नम् ... । सम्पूर्णाष्टाध्यायी आचार्येणैकश्रुत्या पठितेत्यत्र न मानम् । क्वचित्कस्यचित् पदस्यैकश्रुत्या पाठो यथा दाण्डिनायनादिसूत्रे ऐक्ष्वाकेति, एतावदेव भाष्याल्लभ्यते । भाष्यप्रदीपोद्योत १।१।१पृष्ठ १५३, निर्णयसागर संस्क० । परिभाषेन्दुशेखर में 'अभेदका ३० गुणा: परिभाषा (११८) के व्याख्यान में भी यही लिखा है । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास युक्त है । यह दूसरी बात है कि कहीं-कहीं इष्ट स्वर की सिद्धि के लिये व्याख्याकार सूत्रस्थ शब्दविशेष में स्वरविशेष का निर्दश स्वीकार करते हैं । यथा-सत्यादशपथे (५।४।६६) में सत्य शब्द के यत्प्रत्ययान्त होने से प्राद्य दात्तत्व की प्राप्ति (द्र०-६।१।२०७) में अन्तोदात्तत्व की सिद्धि के लिये 'सत्य' शब्द का अन्तोदात्त स्वर से निर्देश मानते हैं।' प्रतिज्ञापरिशिष्ट' में लिखा है-तान एवाङ्गोपाङ्गानाम् ।' अर्थात अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्यों मे तान अर्थात् एकच तिस्वर ही है।' सस्वरपाठ के कुछ हस्तलेख १० अष्टाध्यायी सूत्र-पाठ के जो कतिपय सस्वर हस्तलेख हमें देखने को मिले हैं, उन का नीचे उल्लेख किया जाता है १-भूतपूर्व डी० ए० वी० कालेज लाहौर के लालचन्द पुस्तकालय में अष्टाध्यायी का नं० ३१११ का एक हस्तलेख था । उस हस्तलेख में अष्टाध्यायो के केवल प्रथमपाद पर स्वर के चिह्न हैं। वे स्वरचिह्न स्वरशास्त्र के नियमों के अनुसार शत प्रतिशत अशुद्ध हैं । २-हमारे पास भी अष्टाध्यायी के कुछ हस्तलिखित पत्रे हैं। इन्हें हमने काशी मैं अध्ययन करते हुए संवत् १९६१ में गंगा के जलप्रवाह से प्राप्त किया था। उनके साथ कुछ अन्य ग्रन्थों के पत्रे भी थे । अष्टाध्यायी के उन पत्रों में सूत्रपाठ के किसी किसी अक्षर पर खड़ी रेखा अङ्कित है। हमने अपने कई मित्रों को वे पत्रे दिखाए, परन्तु उस चिह्न का अभिप्राय समझ में नहीं आया। ___३–'निपाणी' (जिला-बेळगांव, कर्नाटक) की 'पाणिनीय संस्कृत पाठशाला' के प्राचार्य श्री पं० माधव गणेश जोशी जी के संग्रह में अष्टाध्यायी के सूत्र-पाठ का एक ऐसा हस्तलेख है, जिस में समग्र १. द्र०--ऋग्वेद सायण भाष्य ११११५॥ २. प्रतिज्ञा-परिशष्ट दो प्रकार का है—एक प्रातिशाख्य का परिशिष्ट है, दूसरा श्रौतसूत्र का। ३. चौखम्बा सीरिज (काशी) मुद्रित यजुःप्रातिशाख्य के अन्त में मूद्रित । ४. हमारे पास निरुक्त के हस्तलेख के कुछ पत्रे हैं, जिन में निरुक्त के कुछ वाक्यों पर स्वरचिह्न हैं । निरुक्त निश्चय ही सस्वर था । इस के लिएदे खिए ३० हमारा 'वदिक-स्वर-मीमांसा' ग्रन्थ, पृष्ठ ४७, ४८ (द्वि० सं०) । २० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४६ सूत्रों पर स्वरचिह्न अङ्कित हैं । आप ने यह हस्तलेख हमें पूना विश्वविद्यालय में 8-१४ जुलाई १९८१ में सम्पन्न हुए 'इण्टर नेशनल सेमिनार प्रोन पाणिनि' के अवसर पर देखने के लिये दिया था। हम ने उस का स्वरशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्मता से निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि इस हस्तलेख में भी स्वरचिह्न प्रायः स्वरशास्त्र के ५ नियमों के प्रतिकूल हैं। प्रतीत होता है नागेश आदि के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखते हुए किन्ही स्वरप्रक्रिया से अनभिज्ञ व्यक्तियों ने मनमाने स्वर-चिह्न लगाने की धृष्टता की है, अन्यथा ये चिह्न सर्वथा अशुद्ध न होते । ____ अष्टाध्यायी में प्राचीन सूत्रों का उद्धार १० पाणिनि ने अपनी रचना सूत्रों में है। कई प्राचार्य सूत्र शब्द की व्युत्पत्ति 'सूचनात् सूत्रम्' अर्थात् संकेत करने वाला संक्षिप्त वचन करते हैं। पाणिनि ने कई स्थानों पर बहुत लाघव से काम लिया है । उसी के प्राधार पर अर्वाचीन वैयाकरणों में प्रसिद्ध है-अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः। सूत्ररचना में गुरुलाघव- १५ विचार का प्रारम्भ काशकृत्स्न प्राचार्य से हुआ था। पाणिनि ने शाब्दिक लाघव का ध्यान रखते हुए अर्थकृत लाघव को प्रधानता दी है। अत एव उस के व्याकरण में 'टि, घु' आदि अल्पाक्षर संजाओं १. इस हस्तलेख की प्रतिकृति (फोटो स्टेट कापी) हमारे पास भी है । २. सूचनात् सूत्रणाच्चैव ....."सूत्रस्थानं प्रचक्षते । सुश्रुत सूत्रस्थान ४ । २० १२॥ सूचयति सूते सूत्रयति वा सूत्रम् । दुर्गसिंह, कातन्त्रवृत्तिटीका, परिशिष्ट पृष्ठ ४०६ ॥ सूत्रं सूचनकृत्, सूत्र्यते प्रथ्यते इति सूत्रम्, सूचनाद्वा । हैम अभि० चिन्ता० पृष्ठ १०८ ॥ वायुपुराण ४६ । १४२ में सूत्र का लक्षण इस प्रकार किया है—अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ ३. परिभाषेन्दुशेखर, परिभाषा १३३। ५ ४. देखो पूर्व पृष्ठ १३०-१३१ ।। ५. ननु च पूर्वाचार्या अपि वैयाकरणत्वाल्लाघवमभिलषन्तः किमिति गरीयसी: स्वरादिसंज्ञाः प्रणीतवन्तः ? सत्यम्, अन्वर्थत्वात् तासाम् । अयमर्थः-द्विविधं हि लाघवं भवति-शब्दकृतमर्थकृतं च । तत्रार्थकृतमेव लाघवं प्रधानं परार्थप्रवृत्तत्वात्तेषामभीष्टम् । त्रिलोचनटीका, कातन्त्र-परिशिष्टम्, १० पृष्ठ ४७२। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के साथ सर्वनाम और सर्वनामस्थान जैसी महती संज्ञाएं भी उपलब्ध होती हैं। ये सब महती संज्ञाएं उसने प्राचीन ग्रन्थों से ली हैं, क्योंकि वे लोकप्रसिद्ध हो चुकी थीं। स्वशास्त्रीय विभाषा संज्ञा होने पर भी उसने कई सूत्रों में 'उभयथा अन्यतरस्याम्' आदि शब्दों से व्यवहार किया है, जो कि लोकविज्ञात होने से अर्थलाघव की दृष्टि से युक्त हैं । इसी दृष्टि से पाणिनि ने अपने शास्त्र में अनेक सूत्र अक्षरशः प्राचीन व्याकरणों के स्वीकार कर लिये हैं, कहीं-कहीं उनमें स्वल उचित परिवर्तन भी किया है। यही निरभिमानता ऋषियों की महत्ता और परोपकार-बुद्धि की धोतिका है। अन्यथा वे भी अर्वाचीन वैयाकरणों के सदृश सर्वथा नवीन शब्द-रचना करके अपने बुद्धिचातुर्य का प्रदर्शन कर सकते थे, परन्तु ऐसा करने से पाणिनीय व्याकरण अत्यन्त क्लिष्ट हो जाता, और छात्रों के लिये अधिक लाभकर न होता। पाणिनीय व्याकरण में कई स्थानों में स्पष्ट प्राचीन व्याकरणों के श्लोकांशों की झलक उपलब्ध होती है । यथा१५ १. पक्षिमत्स्यमृगान् हन्ति, परिपन्थं च तिष्ठति ।' अनुष्टुप् के दो चरण। २. तदस्मै दीयते युक्तं श्राणमांसौदनाटिठन् । ये अनुष्टुप् के दो चरण थे । इस में पाणिनि ने 'युक्तं' को 'नियुक्त' पढ़ कर दो सूत्रों का प्रवचन किया है। अथवा एकाक्षर अधिक होने पर भी अनुष्टुप्त्व २० रहता है। इस दृष्टि से सम्भव है पाणिनि से पूर्व पाठ ही 'नियुक्तं' रहा हो। ३. नोदात्तस्वरितोदयम् । अनुष्टुप् का एक चरण । ४. वृद्धिरादैजदे गुणः । अनुष्टुप् का एक चरण । प्रथम उद्धरण में अष्टाध्यायी के क्रमशः दो सूत्र हैं, उन्हें मिलाकर २५ १. अष्टा० ४।४।३५,३६॥ २. अष्टा० ४।४।६६,६७ । ३. लौकिक छन्दों में भी वैदिक छन्दों के समान एकाक्षर द्वयक्षर की न्यूनता वा अधिकता स्वीकार की जाती है । इसके लिये हमने 'वैदिक-छन्दोमीमांमा' ग्रन्थ के १५ वें अध्याय में (पृष्ठ २२४-२२७, द्वि० सं०) में अनेक प्राचीन आचायों के प्रमाण दिये हैं । ४. अष्टा० ८।४।६७॥ ५. अष्टा० १।१।१, २॥ ३० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २५१ पढ़ने पर वे अनुष्टुप् के दो चरण बन जाते हैं । उत्तर सूत्र में चकार से 'हन्ति' अर्थ का समुच्चय होता । अतः पाणिनीय पद्धत्यनुसार सूत्ररचना 'तिष्ठति च' ऐसी होनी चाहिए। काशिकाकार ने लिखा हैचकारो भिन्नक्रमः' प्रत्ययार्थ समुच्चिनोति । प्रतीत होता है पाणिनि ने ये दोनों सूत्र इसी रूप में किसी प्राचीन छन्दोबद्ध व्याकरण से लिये ५ हैं । छन्दोरचना में चकार को यहीं रखना आवश्यक है, अन्यथा छन्दोभङ्ग हो जाता है । द्वितीय उद्धरण में पाणिनीय सूत्र के 'नियुक्त' पद में से 'नि' का परित्याग करने से दो सूत्र अनुष्टुप् के दो चरण बन जाते हैं। तृतीय उद्धरण पाणिनीय सूत्र का एकदेश है । यह अनुष्टुप् का का एक चरण है। इस में उदय शब्द इस बात का स्पष्ट द्योतक है कि यह अक्षररचना पाणिनि की नहीं है । अन्यथा वह 'नोदात्तस्वरितयोः' इतना लिख कर कार्यनिर्वाह कर सकता था। ऋक्प्रातिशाख्य ३।१७ में पाठ है-स्वर्यतेऽन्तहितं न चेदुदात्तस्वरितोदयम् । सम्भव है पाणिनि ने इसी का अनुकरण किया हो । चौथा उद्धरण भी पाणिनि के दो सूत्रों का है, जो अनुष्टप् का एक चरण है। श्लोकबद्ध रचना १५ के कारण ही 'वृद्धि' शब्द का पूर्व प्रयोग हुआ है, जब कि अन्यत्र संज्ञी के निर्देश के पश्चात् संज्ञा का निर्देश किया जा सकता है।' ___ ऐसे श्लोकबद्ध सूत्रांश पाणिनीय धातुपाठ में भी मिलते हैं। इन का निर्देश २१ वें अध्याय में किया है। आपिशलि के कुछ सूत्र मिले हैं, वे पाणिनीय सूत्रों से बहुत २० मिलते हैं । पाणिनीन शिक्षासूत्र भी प्रापिशल शिक्षासूत्रों से बहुत .... समानता रखते हैं। पाणिनि शिक्षा का वृद्ध पाठ अधिक समान है।" पाणिनि से प्राचीन कोई सम्पूर्ण व्याकरण सम्प्रति उपलब्ध नहीं। । . १. तुलना करो—ऋक्प्रातिशाख्य १।२६॥ उब्वटभाष्य-चकारो भिन्नक्रमः समुच्चयार्थीयः। २. अत एव चान्द्रव्या० ३।४।३३ में 'परिपन्थं तिष्ठति च' पाठ है । ऐसा ही जैन शाकटायन ३।२।२३ में भी पाठ है। ३. तदेतदेकमाचार्यस्य मंगलार्थ मृष्यताम् (१।१।१) भाष्यवचन के आधार पर 'अपृक्त एकाल्प्रत्ययः' को कैयट आदि संज्ञासूत्र न मानकर परिभाषासूत्र मानते हैं। यह उनकी भूल है। संभव है यह भी किसी प्राचीन श्लोकबद्ध व्याकरण का अंश हो । उसी के अनुरोध से संज्ञा का पूर्व प्रयोग हो । ४. शिक्षा के वृद्ध और लघु दो पाठ हैं। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रातिशाख्यों और श्रौतसूत्रों के अनेक सूत्र पाणिनीय सूत्रों से समानता रखते हैं। बहुत से सूत्र अक्षरशः समान हैं। इस से प्रतीत होता है कि पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के अनेक सूत्र अपने ग्रन्थ में संग्रहीत किये हैं । हमारा विचार है कि यद्यपि पाणिनि ने स्वशास्त्र के प्रवचन में सम्पूर्ण प्राचीन व्याकरण वाङमय का उपयोग किया है, पुनरपि उस का प्रधान उपजीव्य आपिशल व्याकरण है।' . प्राचीन सूत्रों के परिज्ञान के कुछ उपाय पाणिनीय तन्त्र में कितने सूत्र वा सूत्रांश प्राचीन व्याकरणों से संगृहीत हैं, इस का कुछ परिज्ञान निम्न कतिपय उपायों से हो १० सकता है १. एक सूत्र अथवा अनेक सूत्र मिलकर अथवा सूत्रांश जो छन्दोरचना के अनुकूल हो । यथा वृद्धिरादैजदेगुणः -अनुष्टुप् का दूसरा चरण । इग्यणः सम्प्रसारणम् -" " " " तङानावात्मनेपदम् - ॥ " " " कृत्तद्धितसमासाश्च- ॥ ॥ प्रथम , २-एक सूत्र में अनेक चकारों का योग । तुलना करो अवर्णो ह्रस्वदीर्घप्लुतत्वाच्च त्रस्वर्योपनयेन च प्रानुनासिक्यभेदाच्च संख्यातोऽष्टावशात्मकः ।" इस पाणिनीय शिक्षासूत्र की प्रापिशल शिक्षा केह्रस्वदीर्घप्लुतत्वाच्च स्वर्योपनयेन च । प्रानुनासिक्यभेदाच्च संख्यातोऽष्टादशात्मकः॥ सूत्र के साथ । पाणिनि ने आपिशलि के श्लोकबद्ध सूत्र में ही 'अवर्ण' पद और जोड़ दिया। इससे वह गद्य बन गया। परन्तु २५ १. देखो पूर्व पृष्ठ १४६, पं०६। २. विशेष द्रष्टव्य 'मञ्जूषा पत्रिका, (कलकत्ता) वर्ष ५, अङ्क ४, पृष्ठ ११७, ११८ । ३. अष्टा० १।१।१,२॥ ४. अष्टा० १११॥४५॥ ५. अष्टा० १४.१००॥ ६. अष्टा० १।२।४६॥ ७. सूत्रात्मक पाणिनीय शिक्षा का लघुपाठ, प्रकरण ६ । .३० ८. आपिशल शिक्षा, प्रकरण ६ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २५३ आपिशल शिक्षा में छन्दोऽनुरोध से पठित अनेक चकार उसके सूत्र में वैसे ही पड़े रह गए। ३–चकार का प्रस्थान में पाठ । यथापक्षीमत्स्यमृगान् हन्ति परिपन्थं च तिष्ठति ।' ४--प्राचीन प्रत्यय आदि के प्रयोग । यथाप्राङि चापः। प्रौङ प्रापः । ५--प्राचीन संज्ञाओं का निर्देश । यथाउभयथर्वा । अन्यतरस्याम् ।। गोतो णित् । यूस्त्र्याख्यौ नदी। ६-प्राचीन धात्वादि का निर्देश था। यथाश्नसोरल्लोपः सूत्र में प्रापिशल ‘स भुवि" धातु का । १. इसी प्रकार प्राचीन इलोकात्मक सूत्रों से पाणिनीय सूत्रों में पाए हुए निष्प्रयोजन चकारों को दृष्टि में रखकर पतञ्जलि ने कहा है- 'एवं तर्हि सर्व चकाराः प्रत्याख्यायन्ते।' महा० १ । ३।६६ ॥ २. अष्टा० ४।४।३५, ३६ । द्र० पूर्व पृष्ठ २५० । इसी प्रकार चकार १५ का अस्थान में प्रयोग पाणिनीय धातुपाठ में मिलता है। यथा 'चते चदे च याचने' (क्षीरतरङ्गिणी ११६०८) । इस पर विशेष विचार के लिये क्षीरतरङ्गिणी के उक्त पाठ पर हमारी टिप्पणी, तथा इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग . में २१ वां अध्याय देखें। ३. अष्टा० ७३।१०५॥ ४. अष्टा० ७।१।१८॥ ५. अष्टा० ८।३।८।। ६. अष्टाध्यायी में बहुत प्रयुक्त। ७. अष्टा० ७११६०॥ इस सूत्र में प्रोकारान्तों की 'गो' संज्ञा प्राचीन 'प्राचार्यों की है। द्र० पूर्व पृष्ठ ८६ ।। ८. अष्टा० १ । ४ । ४॥ नदी संज्ञा प्राचीन आचार्यों की है। द्र० . पूर्व पृष्ठ ८५, पं० १७-२७ ॥ ६. अष्टा० ६।४।१११॥ १०. सकारमात्रमस्तिघातुमापिशलिराचार्यः प्रतिजानीते । तथाहि न तस्य पाणिनिरिव 'अस् भुवि' इति गणपाठः । किं तर्हि 'स भुवि' इति स पठति । न्यास ११३।२२।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ । संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास .७–कार्यो का षष्ठी से निर्दश करने के स्थान में प्रथमा से निर्देश ।' यथा अल्लोपोऽन:' में अत् । ति विशडिति में ति। व्याख्याकारों ने अत् और ति को पूर्वसूत्र निर्देशानुसार नपुंसक५ लिंग में प्रथमा का रूप न समझकर अविभक्त्यन्त पद माना है, वह चिन्त्य है। अष्टाध्यायी के पादों की संज्ञाएं अष्टाध्यायी के प्रत्येक पाद की विभिन्न संज्ञाएं उस उस पाद के प्रथम सूत्र के आधार पर रक्खी गई हैं । विक्रम की १५वीं शताब्दी से १० प्राचीन ग्रन्थों में इन संज्ञाओं का व्यवहार उपलब्ध होता है। सीरदेव की परिभाषावृत्ति से इन संज्ञाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखते हैं । यथागाङ्कुटादिपादः (१२) परिभाषावृत्ति पृष्ठ ३३' भूपादः (१३) द्विगुपादः (२१४) सम्बन्धपादः (३४) प्रङ्गपादः (६४) रावणार्जुनीय काव्य का रचयिता भीम भट्ट भी अपने ग्रन्थ में सर्वत्र 'गाकुटादिपादे' 'भूवादिपादे'प्रादि का ही व्यवहार करता हैं । ___ पाणिनि के अन्य व्याकरण ग्रन्थ पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन की पूर्ति के लिये निम्न ग्रन्थों का प्रवचन किया है। - १. पूर्वव्याकरणे प्रथमया कार्थी निर्दिश्यते । कैयट, महाभाष्य-प्रदीप ६ १११६३॥ पुनः वही ८।४७ पर लिखता है-पूर्वाचार्याः कार्यभाजान् षष्ठ्या २५ न निरदिक्षन् । २. अष्टा० ६।४११३४॥ . ३. अष्टा० ६।४।१४२॥ ४. यह पृष्ठ संख्या 'चौखम्बा सीरिज, काशी' के संस्करण की है। ५. अडियार पुस्तकालय के व्याकरण-विभाग के सूचीपत्र संख्या ३ ८४ पर निर्दिष्ट गणपाठ के हस्तलेख के आदि में लिखा है अष्टकं गणपाठश्च धातुपाठस्तथैव च । लिङ्गानुशासनं शिक्षा पाणिनीया ३० अमी क्रमात् ॥ " ६३ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि श्रौर उसका शब्दानुशासन १. धातुपाठ ३. उणादिसूत्र' २५५ २. गणपाठ ४. लिङ्गानुशासन ये चारों ग्रन्थ पाणिनीय शब्दानुशास के परिशिष्ट हैं । अत एव प्राचीन ग्रन्थकार इनका 'खिल' शब्द से व्यवहार करते हैं । इन ग्रन्थों का इतिहास द्वितीय भाग में लिया गया है, वहां देखिए । ५. श्रष्टाध्यायी की वृत्ति - पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन का स्वयं बहुधा प्रवचन किया था । प्रवचनकाल में सूत्रार्थपरिज्ञान के लिये वृत्ति का निर्देश करना आवश्यक है । पाणिनि ने अपने ग्रन्थ की कोई स्वोपज्ञ वृत्ति रची थी, इसमें अनेक प्रमाण हैं । इसका विशेष वर्णन 'अष्टाध्यायी के वत्तिकार' प्रकरण में आगे किया जायगा । १० पाणिनि के अन्य ग्रन्थ १. शिक्षा पाणिनि ने शब्दोच्चारण के यथार्थ परिज्ञान के लिये एक छोटा सा सूत्रात्मक शिक्षाग्रन्थ बनाया था। इसके अनेक सूत्र व्याकरण के विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं ।" जिस प्रकार आचार्य चन्द्रगोमी ने १५ पाणिनीय व्याकरण के आधार पर अपने चान्द्र व्याकरण की रचना की, उसी प्रकार उसने पाणिनीय शिक्षासूत्रों के आधार पर अपने शित्रासूत्र रचे । अर्वाचीन श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा का मूल ये ही शिक्षासूत्र हैं | श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा का विशेष प्रचार हो जाने से सूत्रात्मक ग्रन्थ लुप्तप्रायः हो गया है । शिक्षासूत्रों का उद्धार - पाणिनि के मूल शिक्षा ग्रन्थ के पुनरुद्धार का श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती को है । उन्होंने महान् परिश्रम से इसे उपलब्ध करके 'वर्णोच्चारण-शिक्षा' के नाम से संवत् १९३६ के अन्त में प्रकाशित किया था। छोटे बालकों के लाभार्थ १. उणादिसूत्र भी पाणिनीय है, इस के लिए देखिए इसी ग्रन्थ का २५ 'उणादिसूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्यता' शीर्षक २४ वां अध्याय । २. उपदेश: शास्त्रवाक्यानि सूत्रपाठ: खिलपाटश्च । काशिका १|३|२|| नहि उपदिशन्ति खिलपाठे ( उणादिपाठे ) । महाभाष्यदीपिका, हस्तलेख पृष्ठ १४६ ॥ पूना सं० पृष्ठ ११५ । ३. शिक्षासूत्राणि, पृष्ठ ९ - १८ टिप्प० । ४. इसका विशेष वर्णन हमने 'स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास' ३० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सूत्रों का भाषानुवाद भी साथ में दिया है । स्वामी दयानन्द सरस्वती के १० जनवरी सन् १८८० के पत्र से ज्ञात होता है कि उन्हें इस ग्रन्थ का हस्तलेख सन् १८७६ के अन्त में मिला था।' वर्णोच्चारणशिक्षा की भूमिका में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्वयं लिखा है___ऐसे ऐसे भ्रमों की निवृत्ति के लिये बड़े परिश्रम से पाणिनिमुनिकृत शिक्षा का पुस्तक प्राप्त कर उन सूत्रों की सुगम भाषा में व्याख्या करके वर्णोच्चारण विद्या की शुद्ध प्रसिद्धि करता हूं।' पाणिनि से प्राचीन आपिशल शिक्षा का वर्णन हम पृष्ठ १५७१५८ पर कर चुके हैं। उसके साथ पाणिनीय शिक्षा की तुलना करने १० से प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती को पाणिनीय शिक्षा सूत्रों का जो हस्तलेख मिला था, वह अपूर्ण और अव्यवस्थित था। जैसे आपिशल व्याकरण के सूत्र पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों से मिलते हैं, और दोनों में आठ-पाठ अध्याय समान हैं, उसी प्रकार प्रापिशल शिक्षा और पाणिनीय शिक्षा के सूत्रों में भी अत्यधिक समानता है, १५ और दोनों में आठ-पाठ प्रकरण हैं। ___शिक्षासूत्रों के दो पाठ-पाणिनीय शिक्षा-सूत्रों के अष्टाध्यायी के समान ही लघु और बृहत् दो प्रकार के पाठ हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस हस्तलेख के आधार पर शिक्षासूत्रों को प्रकाशित किया था, वह लघु पाठ का था (और वह खण्डित भी था)। इस का २० दूसरा एक वृद्ध पाठ भी है, जिस में कुछ सूत्र और सूत्रांश अधिक हैं। इन दोनों पाठों को हमने सम्पादित करके शिक्षा-सूत्राणि में प्रकाशित किया है। क्या पाणिनीय शिक्षासूत्र कल्पित हैं-डा. मनोमोहन घोष एम० ए० ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन् १९३८ में [श्लोका२५ त्मिका] पाणिनीय शिक्षा का एक संस्करण प्रकाशित किया है । उस की भूमिका में बड़े प्रयत्न से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि नामक ग्रन्थ में किया है । द्र०–दशम अध्याय, पृष्ठ २१८-२२३ (द्वि० सं०)। १. 'मेरा कस्द है कि पेशतर शिक्षा पुस्तक जो छोटी हाल में तसनीफ हुई है, छपवाई जावे । द्र० 'ऋ० द० के पत्र और विज्ञापन' भाग २, पृष्ठ ३० ३१६ (तृ० सं०, सं० २०३७) । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २५७ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिन शिक्षासूत्रों को पाणिनि के नाम से प्रकाशित किया है, वे उनके द्वारा कल्पित हैं । हमने 'मूल पाणिनीय शिक्षा' शीर्षक लेख में डा० मनोमोहन घोष के लेख की सप्रमाण आलोचना करते हुए अनेक प्रमाणों की उपस्थित करके यह सिद्ध किया है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित ५ पाणिनीय शिक्षासूत्र उनके द्वारा कल्पित नहीं हैं, अपितु के वास्तविक रूप में पाणिनीय हैं, और अनेक प्राचीन ग्रन्थकारों द्वारा उद्धत हैं। हमारा यह लेख ‘साहित्य' पत्रिका (पटना) के वर्ष ७ अङ्क ४ (सन् १६५७) में प्रकाशित हुआ है । इस लेख के पश्चात् पाणिनीय शिक्षासूत्रों का एक कोश और उपलब्ध हो गया। उस से यह सर्वथा १० प्रमाणित हो गया कि स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित पाणिनीय शिक्षासूत्र वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं । हमारा संस्करण-हमने सन् १९४९ में पाणिनीय शिक्षासूत्रों का एक पाठ प्रापिशल और चान्द्र शिक्षासूत्रों के साथ प्रकाशित किया था। वह पाठ स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित ही था। १५ नया संस्करण -तत्पश्चात पाणिनीय शिक्षा का एक नया कोश उपलब्ध हो गया। हमने विविध ग्रन्थों के साहाय्य से पाणिनीय शिक्षासूत्रों के लघु और वृद्ध दोनों पाठों का सम्पादन किया है। उस में विभिन्न ग्रन्थों में उद्धृत समस्त पाणिनीय शिक्षासूत्रों का तत्तत् स्थानों पर निर्देश कर दिया है। प्रारम्भ में बृहत् भूमिका में इन सूत्रों २' के विषय में ज्ञातव्य सभी विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला हैं। शिक्षासूत्रों के पाणिनीयत्व में नये प्रमाण उपस्थापित किये हैं। श्लोकात्मिका शिक्षा-इस शिक्षा के पाणिनि-प्रोक्त न होने का प्रत्यक्ष प्रमाण उसका प्रथम श्लोक ही हैअथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा । २५ इस अन्तःसाक्ष्य की उपस्थिति में भी श्लोकबद्ध शिक्षा को 'पाणिनि-प्रोक्त कहना, मानना वा सिद्ध करने का प्रयत्न करना 'मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त' कहावत के अनुसार निस्सार है । शिक्षाप्रकाश-टीका के रचयिता के मतानुसार श्लोकात्मिका Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पाणिनीय शिक्षा की रचना पाणिनीय के अनुज पिङ्गल ने की थी।' ___तोलकाप्पिय नामक तामिल व्याकरण, जो ईसा से बहुत पूर्व का है, में पाणिनीय शिक्षा के श्लोकों का अनुवाद मिलता है। भर्तृहरि भी वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ व्याख्या में इस शिक्षा का 'पात्मा बुद्धया समेत्यर्थान्' श्लोक को उद्धृत करता है ।' दो प्रकार के पाठ-श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा के भी दो पाठ हैं-एक लघु, दूसरा वृद्ध । लघु याजुष पाठ कहाता है, और वृद्ध आर्च पाठ। याजुष पाठ में ३५ श्लोक हैं, और आर्च पाठ में ६० श्लोक हैं। आर्च पाठ ११ वर्गअथवा खण्डों में विभक्त है। शिक्षा१० प्रकाश और शिक्षापञ्जिका टीकाएं लघु पाठ पर ही हैं । ___ सस्वर-पाठ-काशी से प्रकाशित शिक्षासंग्रह में पृष्ठ ३७८-३८४ तक आर्च पाठ का एक सस्वर-पाठ छपा है। इसमें स्वर-चिह्न बहुत अव्यवस्थित हैं । प्रतीत होता है लेखकों और पाठकों की उपेक्षा के कारण यह अव्यवस्था हुई। परन्तु इसके आधार पर इतना अवश्य १५ कहा जा सकता है कि मूल पाठ सस्वर था। २. जाम्बवती विजय इसका दूसरा नाम 'पातालविजय' भी है। इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण का पाताल में जाकर जाम्बवती की विजय और परिणय कथा का वर्णन है । इस काव्य को पाणिनि-विरचित मानने में आधु२. निक लेखकों ने अनेक आपत्तियां उपस्थित की हैं। हम ने उन सब का सप्रमाण समाधान इस ग्रन्थ के 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' शीर्षक तीसवें अध्याय में किया है । पाठक इस विषय में वह प्रकरण अवश्य देखें। अभिनव सूचना-कुछ समय हुमा काफिरकोट के पास से २५ पाकिस्तान के अधिकारियों को भामह के काव्यालङ्कार की किसी १. 'जेष्ठभ्रातृभिविहिते व्याकरणेऽनुजस्तत्र भगवान् पिङ्गलाचार्यस्तन्मतमनुभाव्य शिक्षां वक्तुप्रतिजानीते।' आदि में। २. द्र०—पार० एस० सुब्रह्मण्य शास्त्री का लेख, जर्नल प्रोरियण्टल रिसर्च, मद्रास, सन् १६३१, पृष्ठ १८३। ३. ब्रह्मकाण्ड श्लोक - ३० ११६, की व्याख्या में, पृष्ठ १०४, लाहौर संस्करण ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन व्याख्या कि एक जीर्ण प्रति उपलब्ध हुई। इस के विषय में यह . अनुमान किया जाता है कि यह उद्भट का विवरण है । इस प्रति का हस्तलेख भोजपत्रों पर दशम शती की शारदा लिपि में लिखा हुआ है। यह अभी अभी प्रकाशित हया । इस के ३४ वें पृष्ठ के अन्त में और ३५ वें पृष्ठ के आदि में निम्न पाठ है ....."इदमुदाहरणं समासोक्तेः-उपोढ [.......... परोऽपि मोहाद गलितं न रक्षित (म्) । अत्र शशिरजनी व्याषाणपरे य प्रxxx सहसुxत [. इस पर सम्पादक ने जो पाठशोधन करके पाठपूर्ति की है, वह इस प्रकार है उपरोपरागेण विलोलतारकं, तथा गृहीतं शशिना निशामुखम् । यथा समस्तं तिमिरांशुकं तथा परोऽपि रागाद् गलितं न लक्षितम् ॥ यह श्लोक प्रायः पाणिनि के नाम से स्मृत है। पो. पिटर्सन ने JRAS १८९१, पृष्ठ ३१३-३१६ में पाणिनि के नाम से उद्धृत वचनों का संग्रह किया है । और पिशल ने माना है कि काव्यकार पाणिनि ही वैयाकरण १५ पाणिनि है। ZDMG XXXIX पृष्ठ ६५-८, ३१३-३१६ । तथा अभी अभी के. उपाध्याय ने भी IHQ XIII, पृष्ठ १३७ में लिखा है । पैरिस से प्रकाशित दुर्घटवृत्ति भाग १ पृष्ठ ७३ में रेणु ने अनुमात किया है कि काव्यकार पाणिनि ६ वीं शती से पूर्व का है। अब इतना निश्चित हो गया कि काव्यकार पाणिनि उद्भट (पाठवीं शती) से पूर्वभावी। हमारा निश्चित मत है कि ज्यों-ज्यों पुरानी सामग्री प्रकाश में प्राती जाएगी, त्यों-त्यों काव्यकार पाणिनि और वैयाकरण पाणिनि का एकत्व भी सुदृढ़ होता जायगा। _हर्ष का विषय है कि डा० सत्यकाम वर्मा ने अपने 'सं० व्या० का उद्भव और विकास' अन्थ में पाश्चात्य मनोवृत्ति का त्याग करके इस २५ काव्य को वैयाकरण पाणिनि की कृति स्वीकार किया है । ३. द्विरूपकोश लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में द्विरूपकोश का एक हस्तलेख है। उसकी संख्या ७८६० है। यह कोश छ: पत्रों में पूर्ण है । ग्रन्थ के अन्त में 'इति पाणिनिमुनिना कृतं द्विरूपकोशं सम्पूर्णम्' लिखा है। १० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास यह कोश वैयाकरण पाणिनि की कृति है वा अन्य की, यह अज्ञात है। पूर्वपाणिनीयम् इस नाम का एक २४ सूत्रात्मक ग्रन्थ अभी-अभी काठियावाड़ से ५ प्रकाशित हुआ है। इस के अन्वेषण और सम्पादनकर्ता श्री पं० जीवराम कालिदास राजवैद्य हैं । उसके सूत्र इस प्रकार हैं __ ओम् नमः सिद्धम् १. अथ शब्दानुशासनम्। २. शब्दो धर्मः । ३. धर्मादर्थकामापवर्गाः । ४. शब्दार्थयोः । ५. सिद्धः । ६. सम्बन्धः । ७. ज्ञानं छन्दसि । ८. ततोऽन्यत्र । ६ सर्वमार्षम् । १०. छन्दोविरुद्धमन्यत् । ११. अदृष्टं वा। १२. ज्ञानाधारः। १३. सर्वः शब्दः । १४. सर्वार्थः । १५. नित्यः । १६. तन्त्रः । ५७. भाषास्वेकदशी। १८. अनित्यः ।। १६. लौकिकोऽत्र विशेषेण। २०. व्याकरणात् । २१. तज्ज्ञाने धर्मः । २२. अक्षराणि वर्णाः । २३. पदानि वर्णेभ्यः। २४. ते प्राक् । सम्पादक महोदय ने इस ग्रन्थ को पाणिनिविरचित सिद्ध करने का महान् प्रयत्न किया है, परन्तु उनकी एक भी युक्ति इसे पाणिनीय सिद्ध करने में समर्थ नहीं है । इस ग्रन्थ के उन्हें दो हस्तलेख प्राप्त हुए हैं। उनमें एक हस्तलेख के प्रारम्भ में 'कात्यायनसूत्रम्' । ऐसा लिखा है। हमारे विचार में ये सूत्र किसी अर्वाचीन कात्यायन २५ विरचित हैं। . महाभाष्यस्थ पूर्वसूत्र-महाभाष्य में निम्न स्थानों पर 'पूर्वसूत्र' पद का प्रयोग मिलता है। १. अथवा पूर्वसूत्रे वर्णस्याक्षरमिति संज्ञा क्रियते।' २. पूर्वसूत्रे गोत्रस्य वृद्धमिति संज्ञा क्रियते।' १. महा० अ० १, पा० १, प्रा० २ ॥ पृष्ठ ३६ (कीलहान सं०)। २. महा १।२।६८॥ पृष्ठ २४८ (वही)। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २६१ ३. पूर्वसूत्रनिर्देशो वापिशलमधीत इति । पूर्वसूत्रनिदेशो वा पुनरयं द्रष्टव्यः । सूत्रेऽप्रधानस्योपसर्जनमिति संज्ञा क्रियते।' ४. पूर्वसूत्रनिर्देशश्च । चित्त्वान् चित इति । ५. अथवा पूर्वसूत्रनिर्देशोऽयं, पूर्वसूत्रेषु च येऽनुबन्धा न तैरिहेकार्याणि क्रियन्ते । निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् ।' ६. पूर्वसूत्रनिर्देशश्च । महाभाष्य के इन ६ उद्धरणों में से केवल प्रथम उद्धरण पूर्वपाणिनीय के 'अक्षराणि वर्णाः'५ सूत्र के साथ मिलता है। भर्तृहरि ने महाभाष्यदीपिका में महाभाष्योक्त पूर्वसूत्र का पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है एवं ह्यन्ये पठन्ति–'वर्णा अक्षराणि' इति । इस से प्रतीत होता है कि ये पूर्वपाणिनीय सूत्र भर्तृहरि के समय विद्यमान नहीं थे। अन्यथा वह 'वर्णा अक्षराणि' के स्थान पर 'अक्षराणि वर्णाः' ऐसा पाठ उद्धृत करता। पूर्वपाणिनीय का शब्दार्थ-पूर्वपाणिनीय के सम्पादक को भ्रांति १५ होने का एक कारण इसके शब्दार्थ को ठोक न समझना है। उन्होंने पूर्वपाणिनीय नाम देखकर इसे पाणिनीय समझ लिया। वस्तुतः इस का अर्थ है-'पाणिनीयस्य पूर्व एकदेशः पूर्वपाणिनीयम्'; अर्थात् पाणिनीय शास्त्र का पूर्व भाग । पूर्वोत्तर भाग के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह एक व्यक्ति की रचना हो और समान काल की हो। २० विभिन्न रचयिता और विभिन्न काल की रचना होने पर भी पूर्वोत्तर विभाग माने जाते हैं। जैसे-पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा । कातन्त्र के भी इसी प्रकार दो भाग हैं । पूर्वपाणिनीय की प्राचीनता-पूर्वपाणिनीय के सम्पादक ने इस २५ १. महा० ४१११४॥ पृष्ठ २०५ (कीलहान सं०)। २. ६।१।१६३॥ पृष्ठ १०४ (वही)। ३. ७।१।१८॥ पृष्ठ २४७ (वही)। - ४. ८।४।७॥ पृष्ठ ४५५ (वही)। ५. पूर्वपाणिनीय सूत्र २२ । ६. महाभाष्यदीपिका, हस्तलेख, पृष्ठ ११६ । पूना सं० पृ० ६२ का पाठ है-'एवं ह्यन्यैर्वा पठयते वर्णा अक्षराणोति' । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास की प्राचीनता में जितने प्रमाण दिये हैं, वे सब निर्मूल हैं । अब हम इस को प्राचीनता में एक प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं काशिका ६।२।१०४ में एक प्रत्युदाहरण है-पूर्वपाणिनीयं शास्त्रम् ।' यहां शास्त्र पद का प्रयोग होने से स्पष्ट है कि काशिका५ कार का संकेत किसी 'पूर्वपाणिनीय' ग्रन्थ की ओर है। हरदत्त ने इस प्रत्युदाहरण की व्याख्या 'पाणिनीयशास्त्रं पूर्व चिरन्तनमित्यर्थः' की है । यह क्लिष्ट कल्पना है । सम्भव है उसे इस ग्रन्थ का ज्ञान न रहा हो। - इस अध्याय में हमने पाणिनि और उस के शब्दानुशासन तथा १० तद्विरचित अन्य ग्रन्थों का संक्षिप्त वर्णन किया है। अगले अध्याय में आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय का वर्णन करेंगे। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्याय आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान सस्कृत वाङ्मय पाणिनीय अष्टाध्यायी से भारतीय प्राचीन वाङमय और इतिहास पर बहुत प्रकाश पड़ता है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । इस अध्याय में हम पाणिनि के समय विद्यमान उसी वाङ्मय का उल्लेख ५ करेंगे, जिस पर पाणिनीय व्याकरण से प्रकाश पड़ता है । यद्यपि हमारे इस लेख का मुख्य प्राश्रय पाणिनीय सूत्रपाठ और गणपाठ है, तथापि उसका प्राशय व्यक्त करने के लिये कहीं-कहीं महाभाष्य और काशिकावृत्ति का भी प्राश्रय लिया है। हमारा विचार है कि काशिकावृत्ति के जितने उदाहरण हैं, वे प्रायः प्राचीन वृत्तियों के १. आधार पर है, और सभी प्राचीन वृत्तियों का आधार पाणिनीय वृत्ति है। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन पर स्वयं वत्ति लिखी थी, यह हम 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में सिद्ध करेंगे। इस प्रकार काशिका के उदाहरण बहत अंश तक अत्यन्त प्राचीन और प्रामाणिक है। पाणिनि ने अपने समय के समस्त संस्कृत वाङमय को निम्न भागों में बांटा १. दृष्ट, २. प्रोक्त, ३. उपज्ञात, ४. कृत, ५. व्याख्यान । दष्टादि शब्दों का प्रर्थ-पाणिनि ने प्राचीन वाङमय के विभागीकरण के लिये जिन दृष्ट प्रोक्त उपज्ञात कृत और व्याख्यान २० शब्दों का व्यवहार किया है, उन का अभिप्राय इस प्रकार है १. सकिखीति अपचितपरिमाणः श्रृगालः किखी, अप्रसिद्धोदाहरणं चिरन्तनप्रयोगात् । पदमञ्जरी २॥१॥३॥ गाग १, पृष्ठ ३४४ । काशिका में 'ससखि' उदाहरण छपा है, वह अशुद्ध है। अवतप्तेनकुलस्थितं तवैतदिति चिरन्तनप्रयोगः । पदमञ्जरी २०१७॥ भाग १, पृष्ठ ३७१।। २. रामचन्द्र, भट्टोजि दीक्षित आदि अर्वाचीन वैयाकरणों ने उन प्राचीन उदाहरणों को, जिससे भारतीय पुरातन इतिहास और वाङ्मय पर प्रकाश पड़ता था, हटाकर साम्प्रदायिक उदाहरणों का समावेश करके प्राचीन वाङ्मय और इतिहास की महती हानि की है। २५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १. दृष्ट-दृष्ट शब्द का अर्थ है-देखा गया । इस विभाग में पाणिनि ने उस वाङमय का निर्देश किया है, जो न किसी के द्वारा कृत है और न प्रोक्त । अर्थात् पूर्वतः विद्यमान वाङमय के विषय में ही किन्हीं विशेष विषयों का जो विशिष्ट दर्शन है, वह दृष्ट के अन्तर्गत ५ समझा जाता है। २. प्रोक्त-प्रोक्त का शब्दार्थ है-प्रकर्ष रूप में उक्त कथित । इस विभाग में वह सारा वाङमय आता है, जो पूवतः विद्यमान स्वस्व-विषयक वाङमय को ही देश-काल की परिस्थिति के अनुसार ढालकर विशेष रूप में शिष्यों को पढ़ाया जाता है । इस विभाग में १० सम्पूर्ण शास्त्रीय वाङमय का अन्तर्भाव होता है। ३. उपज्ञात-उपज्ञात शब्द का अर्थ है-ग्रन्थप्रवक्ता द्वारा स्व. मनीषा से विज्ञात । इसके अन्तर्गत प्रोक्त ग्रन्थों के वे विशिष्ट अंश सगृहीत होते हैं, जिन्हें पूर्व ग्रन्थों का देशकालानुसार प्रवचन करते हुए प्रवक्ता ने अपनो अपूर्व मेधा के आधार पर सर्वथा नए रूप में १५ सन्निविष्ट किया हो। ४. कृत-इस का सामान्य अर्थ है-बनाया हुअा। इस विभाग में वह वाङमय संगृहोत होता है, जिन की पूरी वर्णानुपूर्वी ग्रन्थकार की अपनी हो। ५. व्याख्यान--इस का भाव स्पष्ट है । समस्त टीका टिप्पणी २० और व्याख्या ग्रन्थ इसके अन्तर्गत आते हैं । हम भी इसी विभाग के अनुसार पाणिनीय व्याकरण में उल्लि. खित प्राचीन वाङमय का संक्षिप्त वर्णन करेंगे। १. दृष्ट पाणिनि सूत्र का है--दृष्ट साम' । यहां साम शब्द सामवेद में पठित ऋचारों के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ, अपितु जैमिनि के 'गोतिष सामाख्या लक्षण के अनुसार ऋचारों के गान का वाचक है। काशिका वृत्ति में 'दष्टं साम' सूत्र के उदाहरण 'क्रौञ्चम्, वासिष्ठम्, वैश्वामत्रम्' दिये हैं। वामदेव ऋषि से दृष्ट वामदेव्य साम के लिये 'वामदेवाड्ड्यड्डयौ च पृथक सूत्र बनाया है । वार्तिककार ३० १. अष्टा० ४।२।७॥ २. मीमांसा २॥१॥३६॥ ३. अय्टा० ४।२।८॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २६५ कात्यायन के मतानुसार आग्नेय, कालेय, प्रौशनस, प्रौशन, प्रौपगव सामों का भी उल्लेख मिलता है।' दृष्ट का अर्थ है जो देखा गया हो। यह कृत और प्रोक्त से भिन्न है । अतः इसका अर्थ है-जिस की रचना में मनुष्य का कोई सम्बन्ध न हो, अर्थात जो अपौरुषेय हो । यद्यपि ऋक् और यजुः मन्त्रों के अपौरुषेयत्व के विषय में ५ पाणिनि ने साक्षात् कुछ नहीं कहा, तथापि 'ऋच्यध्यूढं साम गीयते'२ इस वचन के अनुसार सामगान ऋचा के आधार पर होता है । इस लिये यदि आध्रियमाण साम दृष्ट अर्थात् अपौरुषेय हैं, तो उनके आधारभूत ऋक मन्त्रों का अपौरुषेयत्व स्वतः सिद्ध है । यजूमन्त्रों के के अपौरुषेयत्व के विषय में साक्षात् वा असाक्षात् कोई उल्लेख नहीं १० मिलता। सामगान के दो भेद हैं । एक–सामवेद की पूर्वाचिक की ऋचाओं में उत्पन्न साम । इसे प्रकृति-साम वा योनि-साम कहा जाता है । दूसरा-'यद् योन्यां गायति तदुत्तरयोर्गायति वचन द्वारा उत्तरार्चिक की ऋचाओं में प्रतिदिष्ट होता है । यह ऊह गान कहाता है । शबर- १५ स्वामी आदि मीमांसकों का सिद्धान्त है कि प्रकृति-गान अपौरुषेय है (पाणिनि ने भी इसे ही दृष्ट कहा है), ऊह गान प्रातिदेशिक होने से पौरुषेय है। __ यद्यपि पाणिनि ने इस प्रकरण में केवल साम का उल्लेख किया है, तथापि दृष्टम् इस योगविभाग से उन मन्त्रों और मन्त्रसमूहों २० में भी दृष्ट अर्थ में प्रत्यय होता है, जो किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा दृष्ट हैं । यथा - माधुच्छन्दसम् । वैश्वामित्रम् । गामिदम् । इस तथा एतत्-सदृश अन्य शब्दों का ब्राह्मण, आरण्यक और कल्पसूत्रों में जहां-जहां शंसति किया के साथ प्रयोग आया है, वहां २५ सर्वत्र तत्तद् ऋषियों द्वारा दृष्ट मन्त्र अथवा सूक्त अभिप्रेत हैं । यह १. सर्वत्राग्निकलिभ्यां ढक् । दृष्टे सामनि जाते चाऽप्यण् डिद द्विर्वा विधीयते । तीयादीकक् न विद्याया गोत्रादङ्कवदिष्यते ॥ महाभाष्य ४।२।७॥ २. छान्दोग्यो० ११६॥ तथा भाट्टदीपिका ६।२।२ पर पाठभेद से उद्धृत । ३. भाट्टदीपिका ६।२।२ पर उद्धृत । ४. देखो शावरभाष्य अ० ६, पाद २, अधि० २॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संस्कृत व्याकरण का इतिहास ध्यान रहे कि सम्पूर्ण भारतीय प्राचीन वाङमय में मन्त्र दृष्ट माने गए हैं, कृत नहीं। २. प्रोक्त प्रोक्त शब्द का अर्थ है–कहा हुअा, पढ़ाया हुआ। पढ़ाना स्वरचित ग्रन्थों का भी होता है, और पररचित ग्रन्थ का भी। 'तेन प्रोक्तम्" सूत्र से दोनों प्रकार के प्रवचन में प्रत्यय होता है । यथापाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, अन्येन कृता माथुरेण प्रोक्ता माथुरी वृत्तिः । 'प्रवचन' शास्त्र-रचना की एक विशिष्ट विधा है। यह भारतीय १० वाङ्मय में ही उपलब्ध होती है और वह भी आर्ष वाङमय में। इस विधा के ग्रन्थों में प्रवक्ता प्राचीन ग्रन्थों को ही देश काल के अनुरूप ढाल कर प्रवचन करता है । अतः प्रोक्त ग्रन्थों में प्राचीन ग्रन्थों के बहुत से अंश पूर्ववत् ही संगृहीत होते हैं, और कुछ परिवर्तित रूप में । प्रवचन-विधा में प्रवक्ता को अहंकार का त्याग करना पड़ता है। १५ अहंकार का त्याग नीरजस्तम ऋषि लोग ही कर सकते हैं । यतः ऐसे आचार्यों के प्रोक्त ग्रन्थों में सम्पूर्ण शब्दानुपूर्वी स्वीय नहीं होती है, अतः इनका 'कृत' संज्ञक विधा में अन्तर्भाव नहीं होता है। प्राचीन वाङमय में प्रोक्त अर्थ में संस्कृत तथा प्रतिसंस्कृत शब्द का भी व्यवहार मिलता है। कहीं-कहीं पर सुकृत और सुविहित २० शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है। संस्कृत-इस शब्द का व्यवहार आयुर्वेदीय चरक संहिता के सिद्धिस्थान अ० १२ में इस प्रकार मिलता है विस्तारयति लेशोक्तं संक्षिपत्यतिविस्तरम् ॥ ६५ ॥ संस्कर्ता कुरुते तन्त्र पुराणं च पुनर्नवम् । अतस्तन्त्रोत्तममिदं चरकेणातिबुद्धिना ।। ६६ ।। संस्कृतं तत्त्वसंपूर्ण... ......... ... ..." अर्थात् - [संस्कर्ता पूर्वाचार्यों द्वारा] संक्षेप में कहे गए विशिष्ट अर्थ को विस्तार से कहता है, और विस्तार से कहे गए अभिप्राय का संक्षेप करता है। इस प्रकार संस्कर्ता पुराने शास्त्र को पुनः नया ३. अर्थात् स्वदेशकाल के अनुसार उपयोगी बना देता है.....। १. अष्टा० ४।३।१०१॥ २. महाभाष्य ४१३१.१॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २६७ चरक के उक्त पाठ से संस्कर्ता अथवा प्रवक्ता के नए प्रवचन-कार्य का प्रयोजन भी व्यक्त हो जाता है। . प्रतिसंस्कृत-इस शब्द का प्रयोग भी आयुर्वेद की चरक संहिता के प्रत्यध्याय के अन्त में पठित निम्न वचन में मिलता है 'अग्निवेश-कृते तन्त्रे चरक-प्रतिसंस्कृते'। सुकृत-महाभाष्य १।४।८४ में कहा है शाकल्येन सुकृतां संहितामनुनिशम्य देवः प्रावर्षत् । यदि यहां संहिता शब्द से मन्त्रसंहिता अभिप्रेत है, तब तो यहां प्रोक्त अर्थ में ही सुकृत शब्द का व्यवहार है, यह स्पष्ट है । क्योंकि पाणिनि के मतानुसार संहिताएं प्रोक्त हैं । संहिता शब्द का व्यवहार १० पदपाठ के लिए भी होता है । इसलिये यदि यहां संहिता पद से शाकल्य की पदसंहिता अभिप्रेत हो, तो उस का भी सामवेश प्रोक्त के अन्तर्गत ही होगा। पदसंहिता का कृत विभाग में भी कथंचित् समावेश किया जा सकता है। सुविहित-महाभाष्य ४।२।६६ में लिखा है ___पाणिनीयं महत् सुविहितम् पाणिनीय शास्त्र प्रोक्त है, वह कृत नहीं है। इसलिए यहां सूविहितम् का अर्थ सुप्रोक्तम् ही है, सुकृतम् नहीं है । ___इसी प्रकार महाभाष्य २।३।६६ में पठित 'शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः वचन में तथा काशिका २।३।६६ में 'विचित्रा हि सूत्र- २० स्य कृति: पाणिनेः पाणिनिना वा' वचन में कृति का अर्थ प्रवचन ही समझना चाहिए। ___ इस-प्रोक्त-विभाग में पाणिनि ने अनेक प्रकार के ग्रन्थों का निर्देश किया है । हम यहां उनका सूत्रानुसार उल्लेख न कर के विषयविभागानुसार उल्लेख करेंगे । यथा संहिता-सहिताएं दो प्रकार की हैं। एक मूलरूप, और दूसरी व्याख्यारूप ।' दूसरी प्रकार की संहिताओं का शाखा शब्द से व्यव ___ १. वैदस्यापौरुषेयत्वेन स्वतःप्रामाण्ये सिद्धे तच्छाखानामपि तद्धेतुत्वात् प्रामाण्यमिति बादरायणादिभिः प्रतिपादितम् । शतपथ हरिस्वामी-भाष्य, प्रथम Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हार होता है । अनेक विद्वान् संहिताओं के उपर्युक्त दो विभाग नहीं मानते । उनके मत से सब संहिताएं समान हैं, परन्तु यह ठीक नहीं।' महाभाष्यकार के मतानुसार चारों वेदों को ११३१ संहिताएं हैं। यह संख्या कृष्ण द्वैपायन व्यास और उस के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त संहितारों की है। व्यास से प्राचीन ऐतरेय प्रभृति संहिताएं इन से पृथक् है। पाणिनि के सूत्रों और गणों में निम्न चरणों तथा शाखा ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है___४।३।२०२-तैत्तिरीय, वारतन्तीय, खाण्डिकीय, प्रौखीय । ४।३। १०४-हारिद्रव, तौम्बुरब, प्रौलप, पालम्ब, पालङ्गः, कामल, पारुण, १० प्रार्चाभ, ताण्ड, श्यामायन, । गणपाठ ४।३।१०६-शौनक, वाजसनेय, साङ्गरव, शाङ्गरव, साम्पेय, शाखेय, ( ?, शाभीय), खाडायन, स्कन्ध, स्कन्द, देवदत्तशठ, रज्जुकण्ठ, रज्जुभार, कठशाठ, कशाय, तलवकार, पुरुषासक, अश्वपेय । ४।३।१०७-कठ, चरक । ४।३।१०८-कालाप । ४।३।१०६-छागलेय । ४।३।१२८-शाकल । १५ ४।३।१२६-छन्दोग, औक्थिक, याज्ञिक, बहवच, । गणपाठ ६।२।३७ काण्ड का प्रारम्भ । यहां हरिस्वामी ने स्पष्टतया वेद और शाखामों का पार्थक्य माना है। "पार्यं जगत" पत्र (लाहौर) सं० २००४ ज्येष्ठ मास के अङ्क में मेरा 'वैदिक सिद्धान्त विमर्श' लेख सं० ४ । १. देखो पृष्ठ २६७ की टिप्पणी १। २० २. एकशतमध्वयु शाखा: सहस्रवा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह वृच्यम् नवधाथर्वणो वेदः । महा० १११। प्रा० १॥ ३. चरणों और शाखाओं में भेद है । शाखा चरण के अवान्तर विभाग का नाम है । तुलना करो-भोजवर्मा ( १२ वीं शताब्दी)का ताम्रपत्र-जमद ग्निप्रवराय वाजसनेयचरणाय यजुर्वेदकाण्वशाखाध्यायिने....."। वैदिक वाङ्मय २५ का इतिहास, भाग १, पृष्ठ २७३ (द्वि० सं०) पर उद्धृत । चरण के लिए प्रतिशाखा शब्द का, और शाखा के लिए अनुशाखा शब्द का भी व्यवहार होता है। इस के लिए देखिए इसी ग्रन्थ का 'प्रातिशाख्य के प्रवक्ता और व्याख्याता' शीर्षक अध्याय (भाग २)। पाश्चात्य तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वानों ने 'चरण' का अर्थ 'स्कूल' किया है। श्री वासुदेवशरण ३० अग्रवाल ने 'वैदिक-विद्यापीठ' माना है ।(पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृष्ठ २६०)। दोनों का अभिप्राय एक ही है । यह विचार भारतीय ऐतिह्य के विपरीत है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ् मय २६ε शाकल, प्रार्चाभ, मौद्गल, कठ, कलाप, कौथुम, लौगाक्ष, मौद, पैप्पलाद | ७|४ | ३८ - काठक | महाभाष्य ४।२।६६ में " क्रौड" और "काङ्कत", तथा पाणिनि से प्राचीन आपिशल शिक्षा के षष्ठ प्रकरण में “सात्यमुग्रीय" और "राणायनीय " का नाम मिलता है ।' पाणिनि ने सात्यमुनि प्राचार्य का ५ निर्देश अष्टा० ४।१।८१ में साक्षात् किया है । इन नामों में जो नाम गणपाठ में आये हैं, उन में कतिपय सन्दिग्ध हैं, और कतिपय नामों में केवल शाब्दिक भेद है । यथास्कन्ध और स्कन्द तथा साङ्गरव और शार्ङ्गरव आदि । संहिता ग्रन्थों के उपर्युक्त नाम सूत्र क्रमानुसार लिखे हैं । इन १० का वेदानुसार सम्बन्ध इस प्रकार है ऋग्वेद - बहवृच, शाकल, मौद्गल तथा हरदत्त के मत में काठक । इनमें शाकल संहिता पाणिनि से पुराणप्रोक्त ऐतरेय ब्राह्मण १४।५ में उद्धृत है । शुक्ल यजुर्वेद - वाजसनेय, शापेय । कृष्ण - यजर्वेद - तैत्तिरीय, वारतन्तीय, खण्डिकीय, औौखीय, हारिद्रव, तौम्बुरव प्रौलप, छागल, आलम्ब, पालङ्ग, कमल, प्रभ आरुण, ताण्ड, ?, श्यामायन, खाडायन, कठ, चरक, कालाप | १५ सामवेद- तलवकार, सात्यमुग्रीय, राणायनीय, कौथुम, लौगाक्ष, २० छन्दोग | श्रथर्ववेद - शौनक, मौद, पैप्पलाद । निश्चित - वेद-सम्बन्ध - वे शाखाएं जिन का सम्बन्ध हम किसी वेद के साथ निश्चित नहीं कर सके - प्रौक्थिक, ' याज्ञिक, साङ्गरव, १. छन्दोगानां सात्यमुग्रिराणयनीयाः ह्रस्वानि पठन्ति । द्र० - ननु च २५ भोश्छन्दोगानां सात्यमुग्रिराणयनीया अर्धमेका रमर्धमोकारं चाधीयते । महा० एग्रो सूत्र, तथा १।१।४७ ॥ २. पदमञ्जरी ७|४|३८|| महाभाष्य २२ २६ के 'कठश्चायं बह, वृश्च' पाठ से कठ शाखा का संबन्ध ऋग्वेद के साथ नहीं है, यही ध्वनित होता है । ३. ऐतरेय ब्राह्मण का वर्तमान पाठ शौनक प्रोक्त है । ४. उक्थसूत्र गार्ग्यकृत उपनिदान के अन्त स्मृत हैं । ३० Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शार्ङ्गरव, साम्पेय, शाखेय, (?, शाभीय), स्कन्ध, स्कन्द, देवदत्तशाठ, रज्जुकठ, रज्जुभार, कठशाठ, कशाय, पुरुषासक, अश्वपेयः क्रोड,, काङ्कत । इन शाखाओं का विशेष वर्णन श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत 'वैदिक ५ वाङमय का इतिहास, प्रथम भाग में देखना चाहिये। शाखामों से सम्बद्ध पदपाठ तथा क्रमपाठ का वर्णन आगे करेंगे। २. ब्राह्मण-वेद की जितनी शाखाएं प्रसिद्ध हैं, प्रायः उन सब के ब्राह्मग्रन्थ भी पुराकाल में विद्यमान थे। ब्राह्मणग्रन्थों का प्रवचन भी उन्हीं ऋषियों ने किया था, जिन्होंने उन की संहिताओं का । अतः १० पूर्वोद्धत शाखाग्रन्थों के निर्देश के साथ-साथ उन के ब्राह्मणग्रन्थों का भी निर्देश समझना चाहिये । इस सामान्य निर्देश के अतिरिक्त पाणिनीय सूत्रों में निम्न ब्राह्मणग्रन्थों का उल्लेख मिलता है ब्राह्मणों के भेद-पाणिनि ने 'छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि" सूत्र में ब्राह्मणग्रन्थों का सामान्य निर्देश किया है । 'पुराणप्रोक्तेषु १५ 'ब्राह्मणकल्पेषु सूत्र में ब्राह्मणग्रन्थों के प्राचीन और अर्वाचीन दो विभाग दर्शाए हैं। ___ पाणिनि-निर्दिष्ट पुराणप्रोक्त और अर्वाक्प्रोक्त ब्राह्मणग्रन्थों की सीमा का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। हमारे विचार में वह सीमा है-कृष्ण द्वैपायन का शाखा-प्रवचन । अर्थात् कृष्ण द्वैपायन के शाखा२० प्रवचन से पूर्व प्रोक्त पुराण ब्राह्मण और उस के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त अर्वाचीन हैं । इस की पुष्टि काशिकाकार के याज्ञवल्क्यादयोऽचिरकाला इत्याख्यानेषु वातों (४।३।-०५) वचन से भी होती हैं। काशिकाकार जयादित्य ने पुराण-प्रोक्त ब्राह्मणों में 'भाल्लव, शाट्यायन, ऐतरेय' का और अर्वाचीन ब्राह्मणों में 'याज्ञवल्क्य' अर्थात शतपथ ब्राह्मण का निर्देश किया है। शतपथब्राह्मण का दूसरा नाम वाजसनेय ब्राह्मण भी है। इस का निर्देश गणपाठ ४।२।१०६ में उपलब्ध होता है । अष्टाध्यायी ४।२।६६ की काशिकावृत्ति में भाल्लव आदि प्राचीन ब्राह्मणों के साथ 'ताण्ड', और अर्वाचीन ब्राह्मणों में याज्ञवल्क्य के साथ 'सौलभ' ब्राह्मण का भी नाम मिलता है। यह २० १. अष्टा० ४।२।६६॥ २. अष्टा० ४।३।१०।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २७१ सौलभ ब्राह्मण संभवत: उसी क्षत्रियकुल-संभूता ब्रह्मवादिनी संन्यासिनी सुलभा द्वारा प्रोक्त होगा, जिसका विदेह जनक के साथ ब्रह्मविद्या-विषयक संवाद हया था।' शांखायन गृह्य ४।६ तथा कौषीतकि गृह्म २।५ के तर्पण में 'सुलभा मैत्रयी' पाठ मिलता है । आश्वलायन आदि गृह्यसूत्रों के ऋषितर्पण में भी सुलभा का नाम उपलब्ध होता ५ है । अतः सम्भव है सौलभ ब्राह्मण ऋग्वेद का हो । ताण्ड-ताण्डय के सम्बन्ध में विशेष विचार-'तण्ड' शब्द गर्गादिगण ४।१।१०५ में पठित है। उस का गोत्रापत्य ताण्डय वैशम्पायनान्ते वासियों में अन्यतम है (द्र० काशिका ४।३।१०४)। 'तण्ड से प्रोक्त ब्राह्मण का अध्ययन करने वाले' इस अर्थ में अष्टा० १० ४।१।१०५ से णिनि प्रत्यय होने से वे ताण्डिन: कहाते हैं। ताण्ड्य प्रोक्त ब्राह्मण का अध्ययन करने वाले ताण्डाः कहाते हैं । यहां सौलभानि ब्राह्मणानि के समान अण प्रत्यय होता है। ताण्ड से आम्नाय अर्थ में वञ् (अष्टा० ४।३।१२६) होकर 'ताण्डकम्' प्रयोग होता है। तण्ड और ताण्डय दोनों से प्रोक्तार्थ में औसर्गिक अण् प्रत्यय होकर १५ ताण्डाः समानरूप भी निष्पन्न होता है। लाट्यायन श्रौत में एक सूत्र है-'तथा पुराणं ताण्डम्" । ऐसा ही सूत्र द्राह्यायण श्रौत २११॥३२ में भी है। इन दोनों में ताण्ड का पुराण विशेषण दिया है। इस सूत्र से पाणिनि द्वारा दर्शाए गये ब्राह्मणों के पुराण और अर्वाचीन दो विभागों तथा काशिका वृत्ति २० ४।२।६६ में पुराण ब्राह्मणों में निर्दिष्ट ताण्ड नाम की पुष्टि होती है। लाटयायन के सूत्र से यह भी विदित होता है कि ताण्ड ब्राह्मण भी दो प्रकार का था-एक प्राचीन और दूसरा अर्वाचीन । सम्भवतः वर्तमान ताण्ड्य ब्राह्मण अर्वाचीन हो । संक्षिप्तसार व्याकरण के टीकाकार गोयीचन्द्र पौत्थासानिक ने २५ 'प्रयाज्ञवल्क्यादेाह्मणे सूत्र की वृत्ति में पुराण-प्रोक्त ऐतरेय और शाटयायन ब्राह्मण के साथ 'भागुरि' ब्राह्मण का उल्लेख किया है। यह ब्राह्मण भी पुराण-प्रोक्त है । एक पुराण-प्रोक्त पैङ्गलायनि ब्राह्मण बौधायन श्रौत २७ में उद्धृत है। १. महाभारत शान्तिपर्व अ० ३२०। ३. तद्धित प्रकरण ४५४ । २. लाटया० श्रोत ७।१०।१७॥ ३० ४. पूर्व पृष्ठ २०५, टि० २।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ वातिककरोक्त पुराण की सोमा-कात्यायन ने 'याज्ञवल्क्यादिभ्यः प्रतिषेधस्तुल्यकालत्वात्' कह कर याज्ञवल्क्य ब्राह्मण को भी प्राचीन बताया है। सभव है कात्यायन ने पाणिनि के 'पुराण-प्रोक्त' शब्द का अर्थ 'सूत्रकार से पूर्वप्रोक्त' इतना सामान्य हो स्वीकार किया हो । महाभाष्यकार ने इस वार्तिक पर आदि पद से सौलभ ब्राह्मण का निर्दश किया है । इससे इतना स्पष्ट है कि याज्ञवल्क्य और सौलभ ब्राह्मण का प्रवचन पाणिनि से पूर्व हो गया था। वेद की शाखाओं का अनेक बार प्रवचन--सर्ग के आदि से लेकर कृष्ण द्वैपायन व्यास और उन के शिष्य-प्रशिष्यों पर्यन्त वेद की शाखाओं १. का अनेक बार प्रवचन हुप्रा है । भगवान् वेदव्यास और उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा जो शाखागों का प्रवचन हुअा, वह अन्तिम प्रवचन है। छान्दोग्य उपनिषद् और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण से विदित होता है कि ऐतरेय ब्राह्मण के प्रवक्ता महिदास ऐतरेय की मृत्यु इन की रचना से बहुत पूव हो चुकी थी। अत एव इन ग्रन्थों में उसके १५ लिये परोक्षभूत की क्रियाओं का प्रयोग हुअा है।' षड्गुरुशिष्य ने ऐतरेय ब्राह्मण की वृत्ति के प्रारम्भ में ऐतरेय को याज्ञवल्क्य की इतरा=कात्यायनी नाम्नी पत्नी में उत्पन्न कहा है। वह सर्वथा काल्पनिक कहा है। ऐतरेय ब्राह्मण कृष्ण द्वैपायन व्यास से पुराण-प्रोक्त है। परन्तु उस में शाकल संहिता का परोक्षरूप से उल्लेख मिलता है। इसका कारण यह है कि ऐतरेय ब्राह्मण का वर्तमान प्रवचन शौनक वा उस के शिष्य आश्वलायन का है । उसी ने अन्त के १० अध्याय भी जोड़ दिये हैं ! मूल ऐतरेय में ३० हो अध्याय थे । १. महाभाष्य ४।३।१०५॥ २५ २. यानि पूर्वैर्देवैर्विद्वद्भिर्ब्रह्माणमारभ्य याजकल्क्यवात्स्यायनजैमिन्यन्तै ऋषिभिश्चैतरेयशतपथादीनि भाष्याणि रचितान्यासन्...."। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, भाष्यकरण-शङ्कासमाधान विषय, पृष्ठ ३६४, रालाकट्र सं० । १. पर्व पृष्ठ १८५। ४. आसीद् विप्रो याज्ञवल्क्यो द्विभार्य:, तस्य द्वितीयामितरेति चाहुः । स ज्येष्ठयाऽकृष्टचितः प्रियां तामुक्त्वा ३० द्वितीयामितरेति होवे ॥ ५. पूर्व पृष्ठ १८५-१८६ । ६. द्र०--ऐतरेय आरण्यक के प्रथम तीन अध्याय ऐतरेय प्रोक्त हैं। चौथे Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २७३ __वायु आदि पुराणों में २८ व्यासों का वर्णन उपलब्ध होता है।' उन में कृष्ण द्वैपायन व्यास अट्ठाईसवां है। उससे विदित होता है कि कृष्ण द्वैपायन से पूर्व न्यूनातिन्यून २७ बार शाखा-प्रवचन अवश्य हो चुका था। पाणिनि ने 'त्रिशच्चत्वारिंशतोर्ब्राह्मणे संज्ञायां डण्" सूत्र में तीस । और चालोस अध्याय वाले 'श' और 'चात्वारिंश' संज्ञक ब्राह्मणों का निर्देश किया है। बैंश और चात्वारिंश नामों से किन ब्राह्मणग्रन्थों का उल्लेख है, यह अज्ञात है । सम्प्रति ऐतरेय ब्राह्मण में ४० अध्याय हैं । षड्गुरुशिष्य ने ऐतरेय ब्राह्मण की वृत्ति के प्रारम्भ में उसका 'चात्वारिंश' नाम से उल्लेख किया है। *श नाम ऐतरेय के १० प्रारम्भिक ३० अध्याओं का है, अन्तिम १० अध्याय अर्वाचीन हैं। इस की पुष्टि आश्वलायन गृह्य ३।४।४, कौषीतकि गृह्य २।५ तथा शांखायन गृह्य ४।६; ६१ के तर्पण प्रकरण में पठित ऐतरेय महैतरेय नामों से होती है। क्या ऐतरेय शब्द से प्राचीन ३० अध्याय और महैत रेय से उत्तरवर्ती १० अध्याय मिलाकर पूरे ४० अध्याय अभिप्रेत हैं ? १५ यह विचारणीय है । कौषीतकि और शांखायन ब्राह्मणों में भी ३० अध्याय उपलब्ध होते हैं। सम्भव है पाणिनि का श प्रयोग इन के लिए हो । कीथ के मत में पाणिनि ने चात्वारिंश शब्द से ऐतरेय का निर्देश किया और श शब्द से कौषीतकि का । पं० सत्यव्रत सामश्रमी के मत मेंपञ्चविंश के २५ प्रपाठक षविंश मन्त्र-ब्राह्मण छान्दोग्य उपनिषद् का प्रवचन आश्वलायन ने और पांचवें का शौनक ने किया । द्र० वैदिक वाङ्मय का इतिहास, ब्राह्मण आरण्यक भाग, ऐतरेय आरण्यक वर्णन। २५ १. वायु पुराण अ० २३ श्लोक ११४ से अन्त पर्यन्त । २. अष्टा० ५॥१॥६२॥ ३. त्रिशदध्यायाः परिमाणमेषां ब्राह्मणानां त्रैशानि ब्राह्मणानि, चात्वारिंशानि ब्राह्मणानि, कानिचिदेव ब्राह्मणान्युच्यन्ते । काशिका ५५११६२॥ ४. चात्वारिंशाख्यमध्यायाः चत्वारिंशदिति डण् । पृष्ठ २। =४० प्रपाठक Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४० प्रपाठक का कभी एक ही ताण्ड्य या छान्दोग्य ब्राह्मण था। प्राचार्य शंकर ने वेदान्त-भाष्य में मन्त्र-ब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषद् के वचन ताण्ड्य के नाम से उद्धृत किये हैं।' सायणाचार्य ताण्ड्य और षड्विंश ब्राह्मण में प्रपाठक के स्थान में अध्याय शब्द का व्यवहार करता है । छान्दोग्य उपनिषद् में भी प्रपाठक के स्थान में अध्याय शब्द का व्यवहार उपलब्ध होता है । अतः यह भी सम्भव है कि-चात्वारिंश नाम से पञ्चविंश, षड्विंश, मन्त्रब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषद् के सम्मिलित ४० अध्याय वाले ताण्ड्य ब्राह्मण का निर्देश हो, और त्रैश नाम से पञ्चविंश तथा षड्विंश के सम्मिलित १० ३० अध्यायों का संकेत हो । सौ अध्याय वाले शतपथ के १५, ६० और ८० अध्याय क्रमशः पञ्चदशपथ, षष्टिपथ और अशीतिपथ नाम से व्यवहृत होते हैं, यह अनुपद दर्शाएंगे। . 'शतषष्टेः षिकन् पथः" वार्तिक के उदाहरण में काशिकाकार ने 'शतपथ' और 'षष्टिपथ' का उल्लेख किया है। शतपथ का निर्देश १५ देवपथादिगण में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में १०० अध्याय हैं। षष्टिपथ शतपथ का ही एक अंश है। नवमकाण्ड पर्यन्त शतपथ ब्राह्मण में ६० अध्याय हैं। नवमकाण्ड में अग्निचयन का वर्णन है। प्रतीत होता है कि वार्तिककार के समय में शतपथ के ६० अध्यायों का पठन-पाठन विशेष रूप से होता था । काशिका २।११६ के २० 'साग्न्यधीते' उदाहरण से भी इसकी पुष्टि होती है, क्योंकि इस उदा १. वेदान्त भाष्य ३।३।२६--ताण्डिनां..... देव सवितः..... मन्त्र ब्रा० १११॥१॥ वेदान्त भाष्य ३।३।२६–अस्ति ताण्डिनां श्रुतिः-अश्व इव रोमाणि ....."छा० उप० ८।१३।१॥ वेदान्त भाष्य ३।३।३६–ताण्डिनामुपनिषदि - स प्रात्मा तत्त्वमसि...'छा० उप० ६।८७ इत्यादि । शंकराचार्य ने यहां २५ अर्वाचीन ताण्चय ब्राह्मण के अवयवभूत छान्दोग्य उपनिषद् और मन्त्र ब्राह्मण के लिये से 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु' (४।३।१०५) सूत्र से विहित णिनि प्रत्ययान्त शब्द का किया है, वह चिन्त्य है । प्रतीत होता है उन्हें ताण्ड ब्राह्मण के पुराण और अर्वाचीन दो भेदों का ज्ञान नहीं था। २. यह कात्यायन से भिन्न किसी प्राचार्य के श्लोकवात्तिक का एक अंश है। पूरा श्लोक काशिका में व्याख्यात है। महाभाष्य में इतना अंश ही व्यख्यात है। ३. अष्टा० ॥३॥१०॥ २. ९ । माग Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २७५ हरण में अग्निचयनान्त ग्रन्थ पढ़ने का निर्देश है । शतपथ के नवम काण्ड पर्यन्त विशेष पठन-पाठन होने का एक कारण यह भी है कि शतपथ के प्रथम & काण्डों में यजुर्वेद के प्रारम्भिक १८ अध्यायों के प्रायः सभी मन्त्र क्रमशः व्याख्यात हैं । आगे यह विशेषता नहीं है । कात्यायन श्रौतसूत्र के परिशिष्टरूप प्रतिज्ञा' सूत्र परिशिष्ट की ५ चतुर्थ कण्डिका में शतपथ के १५, ६० तथा ८० अध्यायात्मक 'पञ्चदशपथ ' ' षष्टिपथ' 'श्रशीतिपथ' तीन अवान्तर भेद दर्शाये हैं । ' 1 13 अष्टाध्यायी के 'न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तदात्त: सूत्र में 'सुब्रह्मण्य' निगद का उल्लेख है | सुब्रह्मण्य निगद माध्यन्दिन शतपथ में उपलब्ध होता है । स्वल्प पाठभेद से काण्व शतपथ में भी मिलता १० है । परन्तु पाणिनि तथा कात्यायन प्रदर्शित स्वर माध्यन्दिन और काण्व दोनों शतपथों में नहीं मिलता । शतपथ का तीसरा भेद कात्यान भी है ।" सम्भव है पाणिनि और वार्तिककार प्रदर्शित स्वर उसमें हो, अथवा इन दोनों का संकेत किसी अन्य ग्रन्थस्थ सुब्रह्मण्या निगद की ओर हो । सुब्रह्मण्या का व्याख्यान षड्विंश ब्राह्मण १।१८ से १।२ के अन्त तक मिलता है, परन्तु षड्विंश में सम्प्रति स्वरनिर्देश उपलब्ध नहीं होता । १५ ३. श्रनुब्राह्मण - पाणिनि ने 'अनुब्राह्मणादिनिः ६ सूत्र में 'अनुब्राह्मण' का साक्षात् उल्लेख किया है । अनुब्राह्मण का लक्षण - काशिकाकार ने अनुब्राह्मण के विषय में २० लिखा है - ब्राह्मणसदृशोऽयं ग्रन्थोऽनुब्राह्मणम् । इस से अनुब्राह्मण का स्वरूप अभिव्यक्त नहीं होता है । भट्ट भास्कर तै० सं० ११८ | १ के आरम्भ में लिखता है - द्विविधं ब्राह्मणम् । कर्मब्राह्मणं कल्पब्राह्मणं च । तत्र कर्मब्राह्मणं यत् केवलानि कर्माणि विधत्ते मन्त्रान् विनियुङ्क्ते, न प्रशंसां करोति न निन्दाम् । २५ १. कात्यायन प्रातिशाख्य से सम्बद्ध भी एक प्रतिज्ञा परिशिष्ट है । २. अथ ब्राह्मणम्—पञ्चदशपथः, षष्टिनाडीकमन्त्रः षष्टिपथः, अशीतिपथः, शतपथ:, अवध्या सम्मितः । ३. श्रष्टा० ११२२७॥ ४. शत० ३।४।१७-२० ॥ ५. देखो वैदिक वाङ्मय का इतिहास, भाग १, पृष्ठ २७७, द्वि० सं० ॥ ६. अष्टा० ४।२।६२॥ ३० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रर्थवादादियुक्तं कर्मविधानं कल्पब्राह्मणम् । अर्थात् - ब्राह्मण दो प्रकार के हैं - कर्मब्राह्मण और कल्पब्राह्मण । कर्मब्राह्मण केवल कर्मों का विधान करते हैं, मन्त्रों का विनियोग करते हैं । प्रशंसा निन्दा नहीं करते ।... अर्थवादादि से युक्त कर्म विधायक ५. कल्पब्राह्मण कहाता है । सायणाचार्य ने भी तै० सं० १।८।१ के आरम्भ में लिखा है-. श्रष्टमे मन्त्रकाण्डस्थे कर्मणां बहुलत्वतः । तत्तत्संनिधये प्रोक्ता मन्त्रा विधिपुरःसराः || ४ || अनूद्य तान् विधीन् प्रर्थवादो ब्राह्मण ईरितः । सम्प्रदाय विदोऽतोऽत्र ब्राह्मणद्वयमूचिरे ||५|| ब्राह्मणं मन्त्रकाण्डस्ध विधिजातमितीरितम् । धनुब्राह्मणमन्यत्तु कथितं सार्थवादकम् || ६ || संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास ܕ ११ इनका भाव यह है कि अष्टम मन्त्रकाण्ड में कर्मों की बहुलता है । उस उस कर्म की सन्निधि में विधिपुरस्सर मन्त्र पढ़े हैं । उन विधियों का अनुवाद कर के अर्थवाद ब्राह्मण का निर्देश है । इसलिये यहां सम्प्रदायवित् आचार्य दो प्रकार के ब्राह्मण कहते हैं । मन्त्र काण्डस्थ विधिरूप जो अंश है वह ब्राह्मण कहाता है और उस से भिन्न सार्थवाद अनुब्राह्मण कहता है । सायणाचार्य १।६।१२ के अन्त में प्रपाठक के अनुवाकों में कथित २० कार्य का संक्षेप लिखते हुए लिखता है - भ्रष्टमे संहितायां तु समन्त्रा विधयः स्मृताः । विधिव्याख्यानरूपत्वाद् अनुब्राह्मणमुच्यते ॥ इस वचन से जाना जाता है कि जो ब्राह्मण वचन विधिभाग के व्याख्यानरूप हैं, उन्हे अनुब्राह्मण कहते हैं । २५ संभवत: इसी दृष्टि से भट्ट भास्कर ने तै० सं० ११८०१ के भाष्य के आरम्भ में ही लिखा है अनुब्राह्मणं च भवति - प्रष्टावेतानि हवींषि भवन्ति ( तै० ब्रा० १।६।१ अन्ते) । शांखायन श्रौत के भाष्यकार प्रानर्तीय ब्रह्मदत्त ने १४ । २ । ३ में ३० लिला है Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ् मय एवं तर्ह्यनुब्राह्मणमेतत् महाकौषीतकोदाहृतं कल्पसूत्रकारेणाध्यायत्रयम् । २७७ इन उदाहरणों से विदित होता है कि विनियोजक विधिरूप ब्राह्मणवचनों के व्याख्यानरूप जो प्रर्थवादादिरूप वचन हैं उन्हें मुख्य विधिरूप ब्राह्मणों के व्याख्यानरूप वचन होने से अनुब्राह्मण कहते हैं । ५ इस से अनुब्राह्मण का स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर भी पाणिनी के अनु-ब्राह्मणादिनि: ( श्रष्टा० ४।२।२२ ) सूत्र से तथा उसकी व्याख्यानों से अनुब्राह्मणसंज्ञक किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की प्रतीति होती है । सत्यव्रत सामश्रमी ने निरुक्तालोचन में लिखा है - ताण्ड्यांशभूतानि ताण्ड्यपरिशिष्टानि वा अनुब्राह्मणानि वा १० ऽपराणि सप्ताधीयन्ते । पृष्ठ १६७ । इस लेख के अनुसार सत्यव्रत सामश्रमी के मत में सामवेद के आर्षेय, मन्त्र, वंश आदि सात ब्राह्मण अनुब्राह्मण हैं । हमें इन ब्राह्मणों के लिए अनुब्राह्मण शब्द का कहीं प्रयोग उपलब्ध नहीं हुआ । अतः हमारे विचार में सत्यव्रत सामश्रमी का लेख कल्पनामात्र है । वह भी सम्भव है कि पाणिनीयसूत्र पठित अनुब्राह्मण शब्द आरण्यक ग्रन्थों का वाचक हो, क्योंकि उसमें कर्मकाण्ड और ब्रह्मकाण्ड दोनों का सम्मिश्रण है और उनकी रचनाशैली भी ब्राह्मणग्रन्थानुसारिणी है। प्रारण्यक ग्रन्थों के प्रवक्ता भी प्रायः वे ही ऋषि हैं, जो तत्तत् शाखा वा ब्राह्मणप्रन्थों के प्रवक्ता हैं । बृहदारण्यक आदि कई आर- २० ण्यक साक्षात् ब्राह्मणग्रन्थों के अवयव हैं । अतः पाणिनि के ग्रन्थ में आरण्यक ग्रन्थों का साक्षात् निर्दश न होने पर भी वे पाणिनि द्वारा ज्ञात अवश्य थे । यह भी सम्भव है कि अनुब्राह्मण नामक कोई विशिष्ट ग्रन्थ रहा हो । · १५ ४. उपनिषद् - इस शब्द का अर्थ है - समीप बैठना । इसी प्रर्थ २५ को लेकर पाणिनि ने 'जीविकोपनिषदावोपम्ये" सूत्र में उपमार्थ में उपनिषत् शब्द का व्यवहार किया है । ग्रन्थवाची उपनिषत् शब्द का उल्लेख ऋगयनादिगण में मिलता है । इस गणपाठ से यह भी १. अष्टा० १२४ ७६ ॥ २. द्र०-- कौटिल्य अर्थशास्त्र का प्रोपनिषद प्रकरण | ३. श्रष्टा० ४ | ३ |७३॥ ३० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्यक्त होता है कि पाणिनि के काल में उपनिषदों पर व्याख्यान ग्रन्थों की रचना भी प्रारम्भ हो गई थी,' अथवा वे व्याख्यानयोग्य समझी जाती थीं। सम्प्रति उपलभ्यमान ईश आदि मुख्य १५ उपनिषदें संहिता ब्राह्मण और प्रारण्यक ग्रन्थों के हो विशिष्टांश हैं । अतः ये पाणिनि को अवश्य ज्ञात रही होंगी । अष्टाध्यायी ४।३।१२६ में छन्दोग शब्द से आम्नाय अर्थ में छान्दोग्य पद सिद्ध होता है । छान्दोग्य उपनिषद इसी छान्दोग्य प्रान्नाय से सम्बन्ध रखती है। एक पैङ्गलोपनिषद्, जिसका प्राचार्य पिङ्गल से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है, मिलती है, परन्तु यह नवीन रचना है । ५. कल्पसूत्र-इन में श्रौत, गृह्य और धर्म सम्बन्धी विविध सूत्रों का समावेश होता है। शुल्बसूत्र श्रौतसूत्रों के हि परिशिष्ट हैं । अष्टाध्यायी के 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु सूत्र में साक्षात् कल्पसूत्रों का निर्देश है। पाणिनि ने इसी सूत्र से उनके प्राचीन और नवीन दो भेद भी दर्शाए हैं । काशिकाकार ने इसी सूत्र पर पुराण १५ कल्पों में पैङ्गी तथा 'पारुणपराजी' को उद्घत किया, और अर्वा चीनों में 'प्राश्मरथ' को। काशिका का मुद्रित 'पारुणपराजः' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। सम्भव है यहां 'पारुणपराशरी' पाठ हो भट्ट कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक अ० १, पा० २, अधि०६ में लिखा है-'अरुणपराशरशाखाब्राह्मणस्य कल्परूपत्वात्' । 'पैङ्गली कल्प' का २० निर्देश जैन शाकटायन ३।१७४ की अमोघा और चिन्तामणि वृत्ति में है। बौबायन श्रौत २७ में एक पैङ्गलायनि ब्राह्मण उदधृत है, क्या पैङ्गलीकल्प का उसके साथ सम्बन्ध है, वा पैङ्गीकल्प का अपपाठ है ? पाणिनि ने 'काश्यपकौशिकाभ्यामृषिभ्यां णिनि:' सूत्र में 'काश्यप' और 'कौशिक' ग्रन्थों का उल्लेख किया है । कात्यायन के 'काश्यप२५ कौशिकग्रहणं कल्पे नियमार्थम् कार्तिक से प्रतीत होता है कि उक्त सत्र में काश्यप ओर कौशिक कल्पों का निर्देश है । कौशिक कल्प पाथवर्ण कौशिकसूत्र प्रतीत होता है । गृहपति शौनक पाणिनि का समकालिक वा किंचित् पौर्वकालिक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । १. यहां 'तस्य व्याख्यान:' अथं की अनुवृत्ति है। २. अष्टा० ४।३।१०५॥ ३. अष्टा० ४।३३१०३॥ ४. महाभाष्य ४।२॥६६॥ ५. पूर्व पृष्ठ २१८-२१६ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ् मय २७६ १४ उसका एक शिष्य आश्वलायन है ।' उसी ने आश्वलायन श्रौत और गृह्यसूत्रों का प्रवचन किया है । शौनक का दूसरा शिष्य कात्यायन है, जिसने कात्यायन श्रौत और गृह्यसूत्रों की रचना की ( वर्तमान में उपलब्ध कात्यायन स्मृति आधुनिक ) है | अतः ये ग्रन्थ पाणिनि के काल में अवश्य विद्यमान रहे होंगे । अष्टाध्यायी के 'यज्ञकर्मण्यजप - ५ न्यूङ्खसामसु " सूत्र में 'न्यूज' का उल्लेख है | ये न्यूङ्ख आश्वलायन श्रौत ७।११ में मिलते हैं । महाभाष्य ४ |२| ६० में 'विद्यालक्षणकल्पान्तादिति वक्तव्यम्' वार्तिक के उदाहरण 'पाराशरकल्पिकः, मातृकल्पिक:' दिये हैं । अष्टाध्यायी ४ | ३ | ६० र ४ | ३ | ६७, ७०, ७२ से विदित होता है कि पाणिनि के समय 'राजसूय, वाजपेय, श्रग्निष्टोम १० पाकयज्ञ, इष्टि' आदि विविध यज्ञों पर प्रक्रिया ग्रन्थ रचे जा चुके थे । पाणिनि के 'यज्ञे समि स्तुवः प्रे स्त्रोऽयज्ञे, ' परौ यज्ञे, प्रयाजानुयाजौ यज्ञाङ्गे" आदि सूत्रों में यज्ञविषयक कई पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख मिलता है । अष्टाध्यायी के छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबह वृचनटाञ्ञ्य: सूत्र में छन्दोग, प्रौक्थिक," याज्ञिक, बह वृच और नट १५ का निर्देश है । काशिकाकार ने कात्यायन के 'चरणाद्धर्माम्नाययोः" .99 वार्तिक का सम्बन्ध इस सूत्र में करके नट शब्द से भी धर्म और आम्नाय अर्थ में प्रत्यय का विधान किया है, " यह ठीक नहीं है, क्योंकि नट शब्द चरणवाची नहीं है । अत एव प्राचार्य चन्द्रगोमी 'यो नृत्ये "" पृथक सूत्र रच कर नट शब्द से केवल नृत्य अर्थ २० २. पं० भगवद्दत्तजी कृत 'भारतवर्ष का बृहद् इतिहास' भाग १, पृष्ठ २७ (द्वि० सं०) । २. एको हि शौनकाचार्य शिष्यो भगवान् कात्यायनः । वेदार्थदीपिका पृष्ठ ५७ ॥ ३. कात्यायनगृह्य पारस्करगृह्य से भिन्न हैं । इसका प्रकाशन हमने प्रथम वार इसी वर्ष (सं० २०४०) किया है । ४. अष्टा० १।२१३४॥ ५. अष्टा० ३।३।३१॥ ७. भ्रष्टा० ३।३।४७॥ ६. श्रष्टा० ३।३।३२॥ ८. अष्टा० ७७३।७२ ॥ ६. अष्टा० ४।३।१२६ ॥ १०. उक्थशास्त्र का निर्देश गार्ग्य के उपनिदान सूत्र के अन्त में तथा चरण व्यूह के याजुषखण्ड में भी उपलब्ध होता है । ११. १२. चरणाद्धर्माम्नाययो:,तत्साहचर्यान्नट शब्दादपि १३. चान्द्रव्याकरण ३ | ३ | ६१ ॥ २५ महाभाष्य ३।४।१२०॥ ३० धर्माम्नाययोरेव भवति । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास में प्रत्यय-विधान किया है । भोजदेव ने भी चान्द्र व्याकरण का हि अनुसरण किया है।' इस प्रकरण में प्राम्नाय शब्द से किन ग्रन्थों का ग्रहण है, यह अस्पष्ट हैं। हमारा विचार है कि यहाँ आम्नाय पद का अभिप्राय प्रत्येक शास्त्र के मूल ग्रन्थों से है। ५ ६. अनुकल्प-अष्टाध्यायी ४। २ । ६० के उक्थादिगण में 'अनुकल्प' का निर्देश है । अनुकल्प से पाणिनि को क्या अभिप्रेत है, यह अज्ञात है । सम्भव है यहां अनुकल्प पद से कल्पसूत्रों के आधार पर लिखे गये याज्ञिक पद्धतिग्रन्थों का निर्देश हो । आश्वलायन गह्य की हरदत्त की अनाविला टीका (पृष्ठ १०८) में अनुकल्प का निर्देश है। एक प्राचीन 'कल्पानुपद' सूत्र मिलता है । वह सामवेदीय याजिक ग्रन्थ है । मनुस्मृति ३ । १४७ में प्रथमकल्प और अनुकल्प का निर्देश है। उसका अभिप्राय प्रधान और गौण से है। ७. शिक्षा-जिन ग्रन्थों में वर्गों के स्थान प्रयत्न आदि का उल्लेख है, वे ग्रन्थ 'शिक्षा' कहाते हैं। पाणिनीय सूत्रपाठ में शिक्षा१५ ग्रन्थों का साक्षात् उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु गणपाठ ४।२।६१ में शिक्षा शब्द पढ़ा है और उसके अध्येता और विशेषज्ञ शैक्ष्यक कहाते थे । इस से व्यक्त है कि पाणिनि के काल में शिक्षा का पठनपाठन होता था, और उसके कई ग्रन्थ विद्यमान थे । काशिकाकार ने 'शौनकादिभ्यश्छन्दसि" के 'छन्दसि' पद का प्रत्युदाहरण 'शोनकोया २० शिक्षा' दिया है । ऋक्प्रातिशाख्य के व्याख्याकार विष्णुमित्र ने भी शौनकीय शिक्षा का निर्देश किया है। ऋप्रातिशाख्य के १३, १४ वें पटलों में वर्गों के स्थान प्रयत्न आदि का वर्णन होने से वे शिक्षा-पटल कहाते है । अत एव इन्हें वेदाङ्ग भी कहा है। सम्भव है काशिका के 'शौनकीया शिक्षा' प्रत्युदाहरण में इन्हीं का ग्रहण हो । एक शौन२५ कोया शिक्षा का हस्तलेख यडियार (मद्रास) के पुस्तकालय में विद्यमान है। यह प्राचीन आर्षग्रग्रन्थ है या अर्वाचीन, यह अज्ञात १. नटाभ्यो नृत्ते । सरस्वती कण्ठाभरण ४।३।२६१॥ २. अष्टा० ४।३।१०६॥ ३. भगवान् शौनको वेदार्थवित..... शिक्षाशास्त्र कृतवान् । ऋक्प्राति० वर्गद्वय-वृत्ति, पृष्ठ १३ । ३०४. चौदहवें 'पटल के अन्त में-कृत्स्नं च वेदाङ्गमनिन्द्य मार्षम् । श्लोक ६। ५. देखो सूचीपत्र भाग २, सन् १९२८, परिशिष्ट पृष्ठ २॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २८१ है। महाभारत शान्ति पर्व ३४२।१०४ से व्यक्त है कि आचार्य गालव ने गालवीय शिक्षा ग्रन्थ रचा था।' पाणिनि ने अष्टाध्यायी ८।४।६७ में गालव का निर्देश किया है। प्राचार्य प्रापिलि की शिक्षा सम्प्रति उपलब्ध है। प्रापिशलि का उल्लेख अष्टाध्यायी ६।१।६२ में मिलता है। पाणिनीय शिक्षासूत्रों में भी साक्षात् प्रापिशलि का ५ निर्देश किया है। इस का एक सुन्दर संस्करण हम ने प्रकाशित किया है। पाणिनि ने स्वयं शिक्षासूत्र रचे थे । उन्हीं के आधार पर श्लोकाकात्मक पाणिनीयशिक्षा की रचना हुई। इस श्लोकात्मक पाणिनीयशिक्षा का अधिक प्रचार होने से मूल सूत्रग्रन्थ लुप्त हो गया। इस लुप्त सूत्रग्रन्थ के उद्धार का श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती को है। उन्होंने १० महान् प्रयत्न से इसका एक हस्तलेख प्राप्त करके उसे हिन्दीव्याख्यासहित 'वर्णोच्चारणशिक्षा के नाम से प्रकाशित किया। स्वामी दयानन्द को पाणिनीयशिक्षा का जो हस्तलेख प्राप्त हुअा था, वह अनेक स्थानों पर खण्डित था। अब इस शिक्षा का दूसरा ग्रन्थ भी उपलब्ध हो गया है । उसके द्वारा यह आर्ष ग्रन्थ अब पूर्ण हो जाता है । १५ पाणिनीयशिक्षा के लघुपाठ के सप्तम प्रकरण में कौशिकशिक्षा के कुछ श्लोक उद्धत हैं। उन से स्पष्ट है कि पाणिनि के समय कौशिकशिक्षा भी विद्यमान थी। चारायणी शिक्षा का उल्लेख हम इसी ग्रन्थ में पूर्व पृष्ठ ११५ पर कर चुके हैं। गौतमशिक्षा नाम से एक ग्रन्थ काशी से प्रकाशित 'शिक्षासंग्रह' में छपा है । यह रचनाशैली २० से प्राचीन आर्ष ग्रन्थ प्रतीत होता है। इसी शिक्षासंग्रह में नारदी और माण्डूकी शिक्षाएं भी छपी हैं । वे भी प्राचीन आर्ष ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त जितनी शिक्षाएं शिक्षासंग्रह में मुद्रित हैं, वे सब अर्वाचीन हैं। भारद्वाजशिक्षा के नाम से एक शिक्षा छपी है। ग्रन्थ के • १. क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः । २. नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम् । ३. वा सुप्यापिशलेः। ४. स एवमापिशलेः पञ्चदशभेदख्या वर्णधर्मा भवन्ति । वृद्धपाठ ८॥२५॥ ५. इस सूत्रात्मक शिक्षा के भी दो पाठ हैं । एक लघु पाठ दूसरा वृद्ध पाठ । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशिन पाठ लघु पाठ है । और दूसरा उपलब्ध हुआ पाठ वृद्ध पाठ है । हम ने 'शिक्षा-सूत्राणि' में दोनों पाठों ३० का सम्पादन करके विस्तृत भूमिका समित प्रकाशन किया है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अन्त्यलेखानुसार इस का रचयिता भरद्वाज है।' इस का संबन्ध तैत्तिरीय शाखा के साथ है। हमें इस के प्राचीन होने में संन्देह है। कोहली शिक्षा भी छप चुका है। कोहल प्राचीन प्राचार्य है। याज्ञवल्क्यशिक्षा यदि याज्ञवल्क्य मुनि प्रोक्त हो तो वह भी पाणिनि से प्राचीन होगी। व्यास शिक्षा भी सं० १९७६ में प्रकाशित हुई है। इस वि चना से स्पष्ट है कि न्यून से न्यून शौनकीया, गालवीया, चारायणी, आपिशली, कौशिकीया, कोहली, याज्ञवल्कीया और पाणिनीया ये आठ शिक्षाएं तो पाणिनि के समय अवश्य विद्यमान थीं । शिक्षा के व्याख्यान ग्रन्थ-शिक्षा पद गणपाठ ४ । ३ ७३ में पढ़ा १. है। वहां 'तस्य व्याख्यानः' का प्रकरण होने से स्पष्ट है कि पाणिनि के समय शिक्षा पर व्याख्यान ग्रन्थ भी रचे जा चुके थे। प्रापिशलशिक्षा के वृत्तिकार नामक षष्ठ प्रकरण का प्रथम सूत्र है-स एवं व्याख्याने वृत्तिकाराः पठन्ति-अष्टादशप्रभेदमवर्णकुलम् इति । यहां वृत्ति कार पद से या तो व्याकरण के व्याख्याकारों का निर्देश है या शिक्षा १५ के। हमारा विचार है-यहां वृत्तिकार पद से शिक्षा के व्याख्याकार अभिप्रेत हैं। ऐसा ही एक प्रयोग भर्तृहरिविरचित वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञटीका में मिलता है-बहधा शिक्षासूत्रकारभाष्यकारमतानि दृश्यन्ते ।' इस पर टीकाकार वृषभदेव लिखता है शिक्षाकारमतस्योक्तत्वात् शिक्षाणामेव ये भाष्यकारास्ते गृह्यन्ते ।' २० पाणिनीय शिक्षा-सूत्रों के षष्ठ प्रकरण का नाम भी वतिकार ही है। इन उद्धरणों से व्यक्त है कि पाणिनि के समय शिक्षाग्रन्थ पर अनेक वृत्तियां बन चुकी थीं। ८. व्याकरण-अष्टाध्यायी के अवलोकन से विदित होता है कि पाणिनि के काल में व्याकरणशास्त्र का वाङमय अत्यन्त विशाल २५ था। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में दश प्राचीन वैयाकरणों का नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। वे दश आचार्य ये हैं-प्रापिशलि (६।१।९२), काश्यप (१।२।२१), गार्ग्य (८।३।२०), गालव (७।१।७४), चाक्रवर्मण (६।१।१३०), भारद्वाज (७२।६३), शाकटायन (३।४।१११), शाकल्य (१।१।१६), सेनक (५।४।११२), ३० १. यो जानाति भरद्वाजशिक्षाम्। पृष्ठ ६६ । २. पृष्ठ १०४, लाहौर संस्क० । ३. वही, पृष्ठ १०५ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २८३ स्फोटायन (६।१।१२३) । इन का वर्णन हम इस ग्रन्थ के चौथे अध्याय में कर चुके हैं । इन के अतिरिक्त 'प्राचार्याणाम् (७३।४६), उदीचाम् (४।१।१५३), ऐकेषाम् (८।३।१०४), प्राचाम् (४।१।१७) पदों द्वारा अनेक प्राचीन वैयाकरणों का निर्देश किया है । कात्यायन ने 'चयो द्वितीया शरि पौष्करसादेः' वार्तिक में पौष्करसादि प्राचार्य ५ का मत उद्धृत किया है। पौष्करसादि के पिता पुष्करसत् का उल्लेख गणपाठ २।४।६३; ४११६१; ७।३।२० में तीन स्थानों पर मिलता है। पौष्करसादि पद भी तौल्वल्यादिगण में पढ़ा है । 'न तौल्वलिभ्यः सूत्र से युव प्रत्यय के लोप का निषेध किया है। इससे व्यक्त है कि पाणिनि पौष्करसादि के पुत्र पौष्करसादायन से भी परिचित था। १० अतः पौष्करसादि प्राचार्य पाणिनि से निश्चय ही पूर्ववर्ती है । वृत्तिकार जयादित्य ने ४।३।११५ में काशकृत्स्न व्याकरण का उल्लेख किया है। पतञ्जलि ने 'काशकृत्स्नी मीमांसा' का निर्देश महाभाष्य में कई स्थानों पर किया है। काशकृत्स्न के पिता कशकृत्स्न का नाम उपकादिगण तथा काशकृत्स्न का नाम अरीहणादिगण' में १५ मिलता है। काशिकाकार ने ४।२।६५ में काशकृत्स्न व्याकरण का परिमाण तीन अध्याय लिखा है। यही परिमाण जैन शाकटायन व्याकरण की अमोधा वत्ति में दर्शाया है। काशिका ४ । २ । ६५ में दश अध्यायात्नक वैयाघ्रपदीय व्याकरण का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त 'शिव, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, भरद्वाज, चारायण, २० शन्तन, माध्यन्दिनि, रौढि, शौनकि, गौतम और व्याडि के व्याकरण पाणिनि से प्राचीन हैं। इन सब वैयाकरणों के विषय में हमने इस ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में विस्तार से लिखा है। प्रातिशाख्य-प्रातिशाख्य वैदिक चरणों के व्याकरण ग्रन्थ हैं। १. महाभाष्य ८।४।४८ ॥ २. अष्टा० २।४।६१॥ ३. काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । र ४. महाभाष्य ४।१।१४, ६३॥ ४॥३॥१५॥ ५. अष्टा० २।४।६६॥ पृ० १२१, टि० ३ द्र०। ६. अष्टा० ४।२।६५॥ ७. त्रिका: काशकृत्स्नाः । काशिका ५॥११५८ में त्रिकं काशकृत्स्नम् । ८. त्रिकं काशकृत्स्नीयम् । ३।२।१६२।। 'काशकृत्स्न व्याकरण और उस . १० के उपलब्ध सूत्र' निबन्ध देखें । ९. व्याकरणप्रधानत्वात् प्रातिशाख्यस्य । त० प्रा० वैदिकाभरण टीका, पृष्ठ ५२५ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन्हें पार्षद और पारिषद भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इनकी संख्या बहुत थी। इस समय ये प्रातिशाख्य उपलब्ध होते हैं-शौनककृत ऋक्प्रातिशाख्य कात्यायनविरचित शुक्लयजुःप्रातिशाख्य, कृष्ण यजुः के तैत्तिरीय और मैत्रायणोयप्रातिशाख्य, सामवेद का पुष्पसूत्र, ५ और शौनकप्रोक्त अथर्व प्रातिशाख्य । मैत्रायणीय प्रातिशाख्य इस समय हस्तलिखित रूप में ही प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त ऋग्वेद का आश्वलायन, शांखायन और बाष्कल प्रातिशाख्य तथा कृष्णयजुः का चारायणीय प्रातिशाख्य प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत हैं। इन में से कौन सा प्रातिशाख्य पाणिनि से प्राचीन है और कौनसा अर्वाचीन, यह कहना कठिन है । परन्तु शौनकीय शांखायन और बाष्कलीय ऋक्प्रातिशाख्य निश्चय ही पाणिनि. से पौवकालिक है। पाणिनोय गणपाठ ४ । ३ । ७३ में एक पद 'छन्दोभाषा' पढ़ा है। विष्ण मित्र ने ऋक्प्रातिशाख्य की वर्गद्वय-वृत्ति में छन्दोभाषा का अर्थ वैदिकभाषा किया है। १५ . निरुक्त-दुर्गाचार्य (विक्रम ६०० से पूर्व) ने अपनी निरुक्त वृत्ति में लिखा है-'निरुक्तं चतुर्दशप्रभेदम्", अर्थात् निरुक्त १४ प्रकार का है । यास्क ने अपने निरुक्त में १२, १३ प्राचीन नरुक्त आचार्यों का उल्लेख किया है। पाणिनि ने किसो विशेष निरुक्त वा नरुक्त आचार्य का उल्लेख नहीं किया । गणपाठ ४।२।६० में २० केवल 'निरुक्त' पद का निर्देश मिलता है। यास्कः, यास्को, यस्काः' पदों की सिद्धि के लिये पाणिनि ने 'यस्कादिभ्यो गोत्रे" सूत्र को रचना की है। यास्कीय निरुक्त में उद्धृत नैरुक्ताचार्यों के अनेक नाम पाणिनीय गणपाठ में मिलते हैं । यास्कीय निरुक्त में निर्दिष्ट १. पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । निरुक्त १।१७।। सर्ववेदपारिषदं २५ हीदं शास्त्रम् । महा० ६॥३॥१४॥ २. इन प्रातिशाख्यों तथा एतत् सदृश ऋक्तन्त्रादि अन्य वैदिक व्याकरणग्रन्थों के प्रवक्तामों और व्याख्याताओं का इतिहास इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग, अ० २८ में देखिए। ३. छन्दोभाषा पद के विविध अर्थों के लिए देखिए हमारा 'वैदिक३० छन्दोमीमांसा' ग्रन्थ, पृष्ठ ३८-४५ (द्वि० सं०)। ४. पृष्ठ ७४, आनन्दाश्रम पूना संस्क०। ५. अष्टा० २।४।६३॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २८५ गार्ग्य, गालव और शाकटायन के व्याकरण-संबन्धी नियम पाणिनि ने नामोल्लेखपूर्वक उद्धृत किये हैं। पतञ्जलि के काल में निरुक्त व्याख्यातव्य ग्रन्थ माना जाता था। महाभाष्य में लिखा है-निरुक्तं व्याख्यायते, व्याकरणं व्याख्यायते इत्युच्यते । यास्क और उससे प्राचीन नरुक्ताचार्यों के विषय में श्री पं० भगवद्दत्तजी विरचित ५ 'वैदिक वाङमय का इतिहास' का 'वेदों के भाष्यकार' शीर्षक भाग २ देखना चाहिये। १०. छन्दःशास्त्र-पाणिनि ने किसी विशेष छन्दःशास्त्र का नामोल्लेख अपने व्याकरण में नहीं किया, परन्तु गणपाठ ४।३।७३ में छन्दःशास्त्र के छन्दोविचिति, छन्दोमान, छन्दोभाषा' ये तीन' १० पर्याय पढ़े हैं। इनमें प्रथम दो पद छन्दःशास्त्र के लिये ही प्रयुक्त होते हैं । छन्दोभाषा पद किन्हीं के मत में वैदिक भाषा का वाचक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। परन्तु तस्य व्याख्यान: का प्रकरण होने से छन्दोभाषा भी ग्रन्थविशेष का ही वाचक है, यह निचित है। महाभाष्य ११२।३२ में छन्दःशास्त्र पद प्रातिशाख्य के लिये प्रयुक्त हुआ। १५ गणपाठ ४।३।७३ में निर्दिष्ट नामों से विविध प्रकार के छन्दःशास्त्रों और उनके व्याख्यानग्रन्थों ('तस्य व्याख्यान:' का प्रकरण होने से) का सद्भाव विस्पष्ट है। अष्टाध्यायी के 'छन्दोनाम्नि ५ सूत्र से छन्दोवाचक 'विष्टार' शब्द की सिद्धि दर्शाई है। यह वैदिक छन्द है। छन्दो के विविध प्रकार के 'प्रगाथ' संज्ञक समूहों के वाचक २० पदों की प्रसिद्धि के लिए पाणिनि ने 'सोऽस्यादिरिति च्छन्दसः प्रगाथेषु, सूत्र रचा है। प्रसिद्ध छन्दःशास्त्रकार पिङ्गल पाणिनि का अनुज था, यह हम पाणिनि के प्रकरण में लिख चुके हैं। पिङ्गल ने अपने छन्दःशास्त्र में क्रौष्टुकि (३।२९), यास्क (३।३०), ताण्डी (३.३६), सतव (५।१८७।१०), काश्यप (७६), रात (७.१३), २५ माण्डव्य (७॥३४) नामक सात छन्दःसूत्रकारों के मत उद्धृत किए - -- १. ४।३।३६॥ २. किन्हीं हस्तलेखों में 'छन्दोविजिनी' नाम भी मिलता है । तदनुसार चार पर्याय होंगे। ३. पूर्व पृष्ठ २८४ । ४. व्याकरणनामेयमुत्तरा विद्या। सोऽसी छन्दःशास्त्रेष्वभिविनीत उपलध्याधिगन्तुमुत्सहते । नागेश–छन्दःशास्त्रेषु प्रातिशाख्य शिक्षादिषु। ५. अष्टा० ३॥३॥३४॥ ६. अष्टा० ४।२।५५॥ ७. पूर्व पृष्ठ १९८ । ३० Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हैं। रात र माण्डव्य के मत भट्ट उत्पल ने बृहत्संहिता की विवृत्ति (पृष्ठ १२४८) में भी दिये हैं । सैतव का मत वृत्तरत्नाकर के दूसरे अध्याय में भी उद्धृत है । इस प्रकार पाणिनि के काल में ७ प्राचीन और १ पिङ्गल कृत: = ८ छन्दः शास्त्र अवश्य विद्यमान थे । वैदिक५ छन्दोमीमासा के चतुर्थ अध्याय के अन्त में हम ने ३० छन्दःशास्त्र - प्रवक्ता आचायों का उल्लेख किया है ( पृष्ठ ६२-६४ द्वि० सं०) ।' ११. ज्योतिष -- पाणिनि ने उक्थादिगण में एक गणसूत्र पढ़ा है - द्विपदी ज्योतिष । इस में से किसी ज्योतिश्शास्त्रसंबन्धिनी 'द्विपदो' दो पादबाली' पुस्तक का उल्लेख है । ज्योतिश्शास्त्र से १० संबन्ध रखने वाले 'उत्पात, संवत्सर, मूहूर्त' संबन्धी ग्रन्थों का निर्देश गणपाठ ४ | ३ | ७२ में मिलता है । नैमित्तिक मौहूर्तिक रूपधारी गुप्तचरों का वर्णन कौटिल्य अर्थशास्त्र में मिलता । नक्षत्रों का वर्णन पाणिनि ने तीन प्रकरणों (४/२/३ - ५,११,२२, ४१३/३४-३७ ) में किया है। इन प्रकरणों से विस्पष्ट है कि पाणिनि के काल में ज्योति १५ श्शास्त्र की उन्नति पराकाष्ठ पर थी । 1 १२. सूत्रग्रन्थ - पाणिनि के समय अनेक विषयों के सूत्र विद्यमान थे । शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द आदि अनेक विषयों के सूत्रग्रन्थों का वर्णन हम पूर्व कर चुके हैं । उन से अतिरिक्त जिन सूत्रग्रन्थों का निर्देश पाणिनीय शब्दानुशासन में मिलता, वे इस प्रकार हैं - २० भिक्षुसूत्र - पाणिनि ने अष्टाध्यायो ४ | ३ | ११०, १११ में पाराशर्य और कर्मन्दप्रोक्त भिक्षुसूत्रों का साक्षात् उल्लेख किया है। पाराशरी भिक्षु ब्राह्मणों के पारस्परिक विरोध का उल्लेख हर्षचरित उच्छ्वास ८ में मिलता है । भिक्षुसूत्र से यहां किस प्रकार के ग्रन्थों का ग्रहण अभिप्रत है, यह प्रज्ञात है । कई विद्वान् भिक्षसूत्र का अर्थ २५ वेदान्तविषयक सूत्र करते हैं, अन्य इसे सांख्यशास्त्र के प्राचीन सूत्र मानते हैं । सांख्याचार्य पञ्चशिख प्रादि के लिए भिक्षु पद का व्यव - हार देखा जाता है । हमारा विचार कि यहां भिक्षुसूत्र से उन ग्रन्थों १. इन के परिचय के लिए हमारा 'छन्द: शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ देखना चाहिए । यह अभी प्रकाशित नहीं हुआ । ".. ३ २. अष्टा० ४। २ ६० ।। . नैमित्तिक मौहूर्तिकव्यञ्जना ॥१॥१३॥ ४. पाराशयं शिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः कर्मन्दकृशाश्वादिनिः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २८७ का ग्रहण होना चाहिए, जिन में भिक्षुत्रों के रहन-सहन व्यवहार आदि नियमों का विधान हो । सम्भव है इन्हीं प्राचीन भिक्षुसूत्रों के आधार पर बौद्ध भिक्षयों के नियम बने हों। भिक्षयों की जीविका का साधन 'भिक्षा' पर लिखे गये ग्रन्थ का संकेत अष्टाध्यायी ४।३। ७३ के ऋगयनादि गण में मिलता है।' नटसूत्र-अष्टाध्यायी ४।३।११०, १११ में शिलाली और कृशाश्व प्रोक्त नट सूत्र का निर्देश उपलब्ध होता है ।' काशिका के अनुसार नटसम्बन्धी किसी प्राम्नाय का उल्लेख अष्टाध्यायी ४।३।१२६ में लिलता है। अमरकोश २।१०।१२ में नटों के शैला लिन, शैलूष, जायाजीव, कृशाश्विन और भरत पर्याय लिखे हैं। शैलूष पद यजुः १० संहिता ३०।६ में भी मिलता है । सम्भवतः ये नटसूत्र भरतनाट्यशास्त्र जैसे नाट्यशास्त्रविषयक ग्रन्थ रहे होंगे। १३. इतिहास पुराण-पाणिनि के प्रोक्ताधिकार के प्रकरण में इन का निर्देश नहीं किया। चान्द्र व्याकरण ३।१।७१ की वत्ति और भोजदेवविरचित सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३।२२६ की हृदय- १५ हारिणो टीका में 'कल्पे' का प्रत्युदाहरण काश्यपीया पुराणसंहिता' दिया है। पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट काश्यपप्रोक्त कल्प, व्याकरण और छन्दःशास्त्र का निर्देश हम पूर्व कर चुके हैं । हतिहासान्तर्गत महाभारत का साक्षात् उल्लेख पाणिनि ने अष्टाध्यायी ६।२।३८ में किया है। इस से स्पष्ट है कि पाणिनि से पूर्व २० व्यास की भारत संहिता महाभारत का रूप धारण कर चुकी थी। ___ महाभारत से ज्ञात होता है कि उस समय इतिहास पुराण के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे । सम्प्रति उपलभ्यमान पुराण तो अाधुनिक हैं. परन्तु इन की प्राचीन ऐतिह्यसम्बन्धी सामग्री अवश्य प्राचीन पुराणों और इतिहासग्रन्थों से संकलित की गई है। पाणिनि के 'कृत' २५ प्रकरण से कुछ प्राचीन इतिहासग्रन्थों का ज्ञान होता है । उन का उल्लेख हम अगले प्रकरण में करेंगे। १४. आयुर्वेद-पाणिनि ने आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ का साक्षात् १. काशिका में इसी गण के पाठान्तर में 'भिक्षा' शब्द का उल्लेख मिलता है। २. पूर्व पृष्ठ २८६ की टि० ४। ३० ३. महान् ब्रीह्यपरागृष्टीश्वासजाबालभारभारतहैलिहिलरौरवप्रवृद्धेषु । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास निर्देश नहीं किया, परन्तु गणपाठ ४।२।६० तथा ४।४।१०२ में आयुर्वेद पद पढ़ा है । आयुर्वेद के कौमारभृत्य तन्त्र को एकमात्र उपलब्ध काश्यपसंहिता के प्रवक्ता भगवान् काश्यप के कल्पसूत्र का उल्लेख पाणिनि ने अष्टाध्यायी ४।३।१०३ में किया है, और व्याकरण का अष्टाध्यायी १।२।२५ में । शल्यतन्त्र की सुश्रुत संहिता पाणिनि से प्राचीन है ! काशिका ६।२।६९ के 'भार्यासोश्रतः' उदाहरण में सुश्रुतापत्यों का उल्लेख है । चरक की मूल अग्निवेश संहिता के प्रवक्ता अग्निवेश का नाम गर्गादिगण में पढ़ा है। रसतन्त्र प्रणेता प्राचार्य व्याडि स्वयं पाणिनि का सम्बन्धी है । अनेक विद्वान् इसे पाणिनि के मामा का पुत्र=ममेरा भाई मानते हैं । परन्तु हमारा विचार है कि यह पाणिनि का मामा था । यह हम पूर्व विस्तार से लिख चुके हैं। १५-१६. पदपाठ-क्रमपाठ-पाणिनि ने उक्थादिगण में तीन पद एक साथ पढ़े हैं—'संहिता, पद, क्रम । इस साहचर्य से विदित होता है १५ कि यहां पठित 'पद' पार 'क्रम' शब्द निश्चय ही वेद के पदपाठ और क्रमपाठ के वाचक हैं । पाणिनि ने प्रत्ययान्तर के विधान के लिये क्रम और पद का निर्देश क्रमादिगण में भी पुनः किया है। पदपाठ से सम्बद्ध अवग्रह का साक्षात् निर्देश पाणिनि ने छन्दस्य॒दवग्रहात् सूत्र से किया है । ऊदनोर्दशे सूत्र में दीर्घ ऊकारादेश का विधान भी अवग्रह को २० दष्टि से किया है, ऐसा भाष्यकार का कथन है। ऋग्वेद के शाकल्य प्रोक्त पदपाठ के कुछ विशेष नियमों का निर्देश पाणिनि ने 'सम्बुद्धी शाकल्यस्येतावनार्षे, उन उँ' सूत्रों में किया है । शाकल्प के पदपाठ की एक भूल यास्क ने अपने निरुक्त में दर्शाई है।" पतञ्जलि ने १. पूर्व पृष्ठ १६० । २. अष्टा ४।१।१०५॥ ४. देखो संग्रहकार व्याडि नामक अगला अध्याय। ४. पूर्व पृष्ठ १६६ । ५. अष्टा० ४।२।६०॥ ६. अष्टा० ४।२।६१॥ ७. अष्टा० ८।४।२६॥ ८. अष्टा० ६॥३॥६॥ ६. न उदनोर्देश इत्येवोच्येत ? ...वग्रहे दोषः स्यात् । १०. अष्टा० १।१।१६-१८॥ ११. वायः-वा इति च य इति च चकार शाकल्यः, उदात्तं वेवमाख्यातम भविष्यदसुसमाप्तश्चार्थः। ६।२८॥ ३० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २८६ महाभाष्य १।४।८४ में शाकल्यकृत [पद] संहिता का निर्देश किया ___ महाभारत शान्तिपर्व ३४२ । १०३, १०४ से ज्ञात होता है कि प्राचार्य गालव ने वेद की किसी संहिता का सर्वप्रथम क्रमपाठ रचा था। ऋक्प्रातिशाख्य ११।६५ में इसे बाभ्रव्य पाञ्चाल के नाम से ५ स्मरण किया है। वात्स्यायन कामसूत्र १११।१० में इसे कामशास्त्रप्रणेता कहा है। गालवप्रोक्त शिक्षा, व्याकरण, और निरुक्त का निर्देश हम पूर्व कर चुके हैं । सम्भव है सभी संहिताओं के पदपाठ एवं क्रमपाठ पाणिनि से प्राचीन रहे हों। १७-२०. वास्तुविद्या, अङ्गविद्या, क्षत्रविद्या [नक्षत्रविद्या], १. उत्पाद (उत्पात), निमित्त विद्याओं के व्याख्यानग्रन्थों का ज्ञान गणपाठ ४।३।७३ से होता है। वास्तुविधा- इस के अन्तर्गत प्रासाद-भवन तथा नगर आदि निर्माण के निर्देशक ग्रन्थों का अन्तर्भाव होता है। मत्स्यपुराण अ० २५१ में अठारह वास्तुशास्त्रोपदेशकों का वर्णन मिलता है। ये सभी १५ पाणिनि से पूर्ववर्ती हैं। ___ अङ्गविद्या- इसे सामुद्रिकशास्त्र भी कहते हैं । शतपथ ८।५।४।३ में पुण्यलक्ष्मीक का निर्देश मिलता है । लक्षणे जायापत्योष्टक (३।२।५२) पाणिनीय सूत्र के महाभाष्य में जायाघ्न तिलकालक और पतिघ्नी पाणिरेखा का निर्देश है । कौटिल्य अर्थशास्त्र १११,१२ २० में अङ्गविद्या में निपुण गूढ पुरुषों का उल्लेख किया है। मनु ६ । ५० में अङ्गविद्या से जीविकार्जन का निषेध किया है। ___ क्षत्रविद्या [नक्षत्रविद्या] -गणपाठ ४।३।७३ में क्षत्रविद्या पाठ है। छान्दोग्य उपनिषद् ७७ में भूतविद्या के साथ क्षत्रविद्या का भो २५ १. शाकल्येन सुकृतां संहितामनुनिशम्य देव: प्रावर्षत् । २. पूर्व पृष्ठ १६६, टि० २। ३. पूर्व पृष्ठ १६७, टि०५॥ ४. पूर्व पृष्ठ १६८ टि० ३। ५. पूर्व पृष्ठ १६७ । ६. पूर्व पृष्ठ १६७ । ७. पूर्व पृष्ठ १६८ । ८. तस्य निमित्तं संयोगोत्पाती । अष्टा० ५।११३८॥ ६. द्र०-आगे उध्रियमाण मनुवचन । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० १० इस श्लोक से प्रतीत होता है कि गणपाठ में क्षत्रविद्या के स्थान में नक्षत्रविद्या पाठ उपयुक्त होगा । परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् ७१७ में क्षत्रविद्या के साथ-साथ नक्षत्रविद्या का भी निर्देश है । सम्भव है गणपाठ में 'क्षत्रविद्या' नक्षत्रविद्या' दोनों पाठ रहे हों, और समता के कारण लिपिकर दोष से 'नक्षत्रविद्या' पाठ नष्ट हो गया हो । २१ - २५. सर्पविद्या, वायस विद्या, धर्मविद्या, गोलक्षण, श्रश्वलक्षण- महाभाष्य ४ २ ६० में सपविद्या, वायस विद्या, धर्मविद्या, गोलक्षण और अश्वलक्षण के अध्येता और वेत्तानों का उल्लेख है | अतः उस समय इन विद्याओं के ग्रन्थ अवश्य विद्यमान रहे होगे । १५ वायस विद्या का अभिप्राय पक्षि-शास्त्र है । इसे बयोविद्या भी कहा जाता है । २५ २६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उल्लेख है | मनुस्मृति ६।५० के पूर्वार्ध में इसी गणपाठ में पठित अन्य शब्दों के साथ नक्षत्रविद्या का उल्लेख मिलता है | मनु का वचन इस प्रकार है ३० न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्गविद्यया । नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत् कर्हिचित् ॥' छान्दोग्य उपनिषद् ७19 में पित्र्य, राशि, देव, विधि, वाकोवाक्य, एकायन, देव, ब्रह्म, भूत, क्षत्र, नक्षत्र, सर्पदेवजन आदि विद्यानों का भी निर्देश मिलता है | ३. उपज्ञात 'उपज्ञात' वह कहता है, जो ग्रन्थकार की अपनी सूझ हो । काशिका आदि वृत्तिग्रन्थों में 'उपज्ञाते" के निम्न उदाहरण दिये हैंपाणिनीयमकालकं व्याकरणण् । काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । श्रापिशलं पुष्करणम् । पज्ञं काशिका ६।२।१४ में - 'प्रापिशल्युपज्ञं गुरुलाघवम्, व्याड्य प दुष्करणम्' उदाहरण दिये हैं । सरस्वतीकण्ठाभरण (४।३।२५५, २५४ ) की हृदयहारिणी वृत्ति में— ' चान्द्रमसंज्ञकं व्याकरणम्, काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्, प्रापिशलमान्तःकरणम्' पाठ मिलता है । १. वासिष्ठ धर्मसूत्र १०।२१ भी देखें 1 २. अष्टा० ४|४|११५ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २९१ इन उदाहरणों में पाणिनि, काशकृत्स्न, आपिशलि, व्याडि और चन्द्रगोमी के व्याकरणों का उल्लेख है। चन्द्रोपज्ञ व्याकरण पाणिनि से अर्वाचीन है । उपर्युक्त उदाहरणों की पारस्परिक तुलना से व्यक्त है कि इन का पाठ प्रशद्ध है। पाणिनि के विषय में सब का मत एक जैसा हैं । इस से स्पष्ट है कि पाणिनि ने सब से पूर्व स्वमति के काल- ५ परिभाषारहित व्याकरण रचा था।' इन व्याकरणों में अकालकत्व आदि अंश ही पाणिनि आदि के स्वोपज्ञ अंश हैं। इन व्याकरणों के अतिरिक्त और भी बहुत से उपज्ञात ग्रन्थ पाणिनि के काल में विद्यमान रहे होगे। ४. कृत कृत ग्रन्थों का उल्लेख पाणिनि ने दो स्थानों पर किया है'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' और 'कृते ग्रन्थे । प्रथम सूत्र के उदाहरण काशिकाकार ने 'सौभद्रः, गौरिमित्रः, यायातः' दिये हैं। इन का अर्थ है-सुभद्रा गौरिमित्र और ययाति के विषय में लिखे गए ग्रन्थ । महाभाष्यकार ने 'यवक्रीत, प्रियङ गु' और 'ययाति' के विषय में १५ लिखे गए 'यावक्रीत प्रेयङ्गव यायातिक पाख्यानग्रन्थों का उल्लेख किया है । पाणिनि ने 'शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्रजननादिभ्यश्छः५ में शिशुक्रन्द =बच्चों का रोना, यमसभा, द्वन्द्वमास=अग्निकाश्यप, श्येनकपोत और इन्द्रजनन =इन्द्र की उत्पत्ति, तथा आदि शब्द से प्रद्युम्नागमन आदि विषयों के ग्रन्थों का निर्देश किया है । वार्तिक- २० कार ने 'लुबाख्यायिकाभ्यो बहलम्' और 'देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधः'६ वार्तिकों से अनेक कृत ग्रन्थों की ओर संकेत किया है । पतञ्जलि ने १. विशेष विचार पृष्ठ २४२-२४३ पर किया है।। २. अष्टा० ४।३।८७॥ ३. अष्टा० ४।३।११६॥ ४. यावक्रीत और यायात प्राख्यान महाभारत में भी है। ५. अष्टा० ४।३।८८॥ ६. सर्वत्र 'शिशूनां क्रन्दनम्' बहुवचन से निर्देश होने से विदित होता है कि यह बालकों के रोगजनित विविध प्रकार के रोदन को लक्ष में रखकर लिखा गया 'शिशक्रन्दीय' ग्रन्थ का निर्देशक है । ७. श्येनकपोतीय आख्यान महाभारत वनपर्व अ० १३१ में द्रष्टव्य । ८. महाभाष्य ४।३।८७॥ ६. महाभाष्य ४।३।१८॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रथम वार्तिक के उदाहरण 'वासवदत्ता, सुमनोत्तरा" और प्रत्युदाहरण ‘भैमरथी' तथा द्वितीय वार्तिक के उदाहरण 'दैवासुरम्, राक्षोसुरम्' दिये हैं। श्लोक-काव्य-महाभाष्य ४।२।६६ में तित्तिरिप्रोक्त श्लोकों का उल्लेख मिलता है-तित्तिरिणा प्रोक्ताः श्लोका इति । तित्तिरि वैशम्पायन का कनिष्ठ भ्राता ओर उसका शिष्य था। वैशम्पायन का दूसरा नाम चरक था। उसका चरक नाम उसके कुष्ठी (=चरकी) हो जाने के कारण प्रसिद्ध हुअा था। इसी चरक द्वारा प्राक्त चारक श्लोकों का निर्देश काशिकावृत्ति ४।३।१०७ तथा अभिनव शाकटायन १. व्याकरण की चिन्तामणिवृत्ति ३।१।१७१ में मिलता है । सायण ने माधवीया धातुवृत्ति में उखप्रोक्त प्रौखीय श्लोकों का उल्लेख किया है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी ४।३।१०२ में तित्तिरि और उख का साक्षात् निर्देश किया है। चरक का उल्लेख अष्टाध्यायी ४।३। १०७ में मिलता है। काशिका २।४।२१ में वाल्मीकि द्वारा निर्मित १५ श्लोकों का निर्देश मिलता है। सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३।२२७ की हृदयहारिणी टीका में पिप्पलादप्रोक्त श्लोकों का उल्लेख है । काशिकाकार ने 'कृते ग्रन्थे" सत्र के उदाहरण 'वाररुचाः श्लोकाः, हैकुपादो ग्रन्थः, भैकुराटो ग्रन्थः, जालूकः' दिये हैं । इन में कौनसा ग्रन्थ पाणिनि से प्राचीन है, यह अज्ञात है । वररुचिकृत श्लोक निश्चय ही पाणिनि से अर्वाचीन हैं । यह वररुचि वातिककार कात्यायन है । पतञ्जाल ने महाभाष्य ४।३।१०१ में 'वाररुच काव्य' का निर्देश किया है । जैन शाकटायन की अमोघा और चिन्तामणि वृति ३।१॥ १८६ में 'वाररुचानि वाक्यानि' पाठ मिलता है, यह पाठ प्रशद्ध है। यहां शद्ध पाठ 'वाररुचानि काव्यानि' होना चाहिए । जल्हण की २५ सूक्तिमुक्तावली में राजशेखर का निम्न श्लोक उद्धृत है १. सुमनोत्तर की कहानी बौद्ध वाङ्मय में भी प्रसिद्ध है। २. पं० भगवद्दतजी विचिरत 'वैदिक वाङ्मय का इतिहास' भाग १, पृष्ठ २८१, द्वि० सं०। ३. हमारा 'दुष्कृताय चरकाचार्यम् मन्त्र पर विचार' नामक निबन्ध । वैदिक-सिद्धन्त-मीमांसा, पृष्ठ १७६-१९२ । ५. तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखाच्छण् । ४. काशी संस्क० पृष्ठ ५६ । ६. कठचरकाल्लुक् । ७. अष्टा० ४।३।११.६। ३० Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २९३ यथार्थतां कथं नाम्नि माभूद् वररुचेरिह । व्यधत्त कण्ठाभरणं य: सदारोहरणप्रियः ॥ कृष्णचरित की प्रस्तावनान्तगत मुनिकविवर्णन में लिखा यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि । काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः कविः ॥ इस श्लोक से प्रतीत होता है कि पूर्वोद्धृत राजशेखरीय श्लोक के चतुर्थ चरण का पाठ अशुद्ध है । वहां 'सदारोहरणप्रियः' के स्थान में 'स्वर्गारोहणप्रियः' पाठ होना चाहिए।' महाभाष्य के प्रथमाह्निक में पतञ्जलि ने भ्राजसंज्ञक श्लोकों का उल्लेख किया है, और तदन्तर्गत निम्न श्लोक वहां पढ़ा है- १० यस्तु प्रयुडक्ते कुशलो विशेषे शब्दान यथावद व्यवहारकाले। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।। कैयट आदि टीकाकारों के मतानुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक कात्यायन विरचित हैं। पानिणि ने स्वयं 'जाम्बवतीविजय' नामक एक महाकाव्य रचा १५ था। इसका दूसरा नाम 'पातालविजय' है । इस महाकाव्य में न्यूनातिन्यून १८ सर्ग थे । पाश्चात्य तथा तदनुगामी भारतीय विद्वान् जाम्बवतीविजय को सूत्रकार पाणिनि-विरचित नहीं मानते, परन्तु यह ठोक नहीं । भारतीय प्राचीन परम्परा के अनुसार यह काव्य व्याकरणप्रवक्ता महामुनि पाणिनि विरचित ही है । इस काव्य के विषय में २० हमने विस्तार से इसी ग्रन्थ के ३० वें अध्याय में लिखा है । ___ महाभारत जैसे बृहत्काव्य का साक्षात् निर्देश पाणिनि ने ६।२। ३८ में किया है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' * ऋतुग्रन्थ-पाणिनि ने 'वसन्तादिभ्यष्ठक' में वसन्त आदि ऋतुओं पर लिखे गये ग्रन्थों के पठन-पाठन का उल्लेख किया है। २५ वसन्तादि गण में 'वसन्त' वर्षा, हेमन्त, शरद, शिशिर' का पाठ है। इस से स्पष्ट है कि इन सब ऋतुओं पर ग्रन्थ लिखे गए थे। सम्भव १. वाररुच काव्य के विषय में देखो भाग २ में अध्याय ३० । २. पूर्व पृष्ठ २८७, टि० ३। ३. अष्टा० ४।२।६३॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास है कि ये काव्यग्रन्थ हों। कालिदासविरचित ऋतुसंहार इन्हीं प्राचीन ग्रन्थों के अनुकरण पर लिखा गया होगा। अनुक्रमणी-ग्रन्थ-अष्टाध्यायी के 'सास्य देवता' प्रकरण' से विदित होता कि उस समय वैदिक मन्त्रों के देवतानिर्दशक ग्रन्थों का ५ रचना हो चुकी थी। शौनक-कृत ऋग्वेद की ऋषि देवता आदि की १० अनुक्रमणियां निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती हैं । शौनकीय बृहदेवता भी देवतानुक्रमणी ग्रन्थ ही है। शौनक के शिष्य आश्वलायन और कात्यायन ने भी ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणियां रची हैं। आश्वलायन सर्वानुक्रमणी इस समय प्राप्त नहीं है, परन्तु अथर्ववेद को बृहत्सर्वानुक्रमणी में वह उद्धृत है ।' सामवेद को नैगेयानुक्रमणी भी प्रकाशित हो चुकी है, परन्तु वह प्राचीन है या अर्वाचीन, इस का अभी निर्णय नहीं हुआ। यजुर्वेद की एक सर्वानुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध है, परन्तु यह अर्वाचीन अप्रामाणिक ग्रन्थ है।' ___ संग्रह-दाक्षायण की प्रसिद्ध कृति 'संग्रह' ग्रन्थ पाणिनि का १५ समकालिक है। दाक्षायण का ही दूसरा नाम व्याडि है । दाक्षायण पाणिनि का संबन्धी है, यह पतञ्जलि के 'दाक्षिपुत्रस्य पाणिनेः४ वचन से स्पष्ट है । ऐतिहासक विद्वान् दाक्षायण को पाणिनि के मामा का पुत्र (ममेरा-भाई) मानते हैं, परन्तु हमारा विचार है कि दाक्षायण पाणिनि का मामा है । यह हम पाणिनि के प्रकरण में लिख चुके हैं । संग्रह नाम गणपाठ ४।२।६० में उपलब्ध होता है । कैयट आदि वैयाकरणों के मतानुसार संग्रह ग्रन्थ का परिमाण एक लक्ष श्लोक था। महावैयाकरण भर्तृहरि ने अपनी महाभाष्यदीपिका में लिखा है कि संग्रह में १४ सहस्र पदार्थों की परीक्षा है। भर्तृहरि के शब्द इस प्रकार हैं-'चतुर्दशसहस्राणि वस्तूनि अस्मिन् संग्रहग्रन्थे २५ (परीक्षितानि) । . इतिहास, पुराण, पाख्यान, आख्यायिका और कथाग्रन्थों का १. अष्टा० ४।२।२४-३५॥ २. ऋषिदेवतछन्दांयाश्वलायनानुक्रमानुसारेणानुक्रमिध्यामः । पृष्ठ १७८ । ३. देखो हमारा 'वैदिक छन्दोमीमांसा' लेखक का निवेदन', पृष्ठ १.२ । ४. महाभाष्य १।१।२०॥ ५. पूर्व पृष्ठ १६८। ६. हमारा हस्तलेख पृष्ठ २६, पूना संस्क० पृष्ठ २१ । . २० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय " २६५ अष्टाध्यायी में साक्षात् उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु पूर्वनिर्दिष्ट 'श्रधिकृत्य कृते ग्रन्थे " सूत्र तथा 'लुबाख्यायिकाभ्यो बहुलम्', 'देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधः ", और 'प्राख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च ४ वार्तिकों में इन विषयों के अनेक ग्रन्थों को ओर संकेत विद्यमान हैं । काश्यपप्रोक्त पुराणसंहिता का निर्देश हम पूर्व कर चुके हैं।' 'कथा - ५ दिभ्यष्ठक् " सूत्र में कथासंबन्धी ग्रन्थों की ओर संकेत है । उसके अनुसार कथा में चतुर व्यक्ति के लिए 'कथिक' शब्द का व्यवहार होता है । जैन कथाएं प्रायः इन्हीं प्राचीन कथा -ग्रन्थों के अनुकरण पर रची गई हैं । व्याख्यान पाणिनि की अष्टाध्यायी ४ | ३ |६६-७३ में 'तस्य व्याख्यान:' का प्रकरण है । इन प्रकरण में अनेक व्याख्यानग्रन्थों का निर्देश है । हम काशिकावृत्ति में दिये गए उदाहरण नीचे उद्धृत करते हैं 1 सूत्र ४ । ३ । ६६,६७ – सौपः, तैङः, षात्वणत्विकम्, नाताननिकम् । सूत्र ४ | ३ | ६८ - प्राग्निष्टोमिकः, वाजपेयिकः राजसूयिकः, १५ पाकयज्ञिकः, नावयज्ञिकः, पाञ्चौदनिकः, दाशौदनिकः । सूत्र ४ | ३ |७० - पौरोडाशिक:, पुरोडाशिकः । सूत्र ४।३।७२ - ऐष्टिक, पाशुकः, चातुर्होमिकः पाञ्चहोतृकः, ब्राह्मणिकः, श्राचिकः (ब्राह्मण और ऋचाओं के व्याख्यान), प्राथमिकः, श्राध्वरिकः, पौरश्चरणिकः । सूत्र ४ | ३ | ७३ में - ऋगयनादि गण पढ़ा है । उस में निम्न शब्द हैं, जिनसे व्याख्यान अर्थ में प्रत्यय होता है— ऋगयन, पदव्याख्यान, छन्दोमान, छन्दोभाषा, छन्दो विचिति, न्यास, पुनरुक्त, व्याकरण, निगम, वास्तुविद्या, क्षत्रविद्य [ नक्षत्रविद्या ], उत्पात, उत्पाद, संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त, उपनिषद्, शिक्षा । इस गण से स्पष्ट है कि पाणिनि के काल में इन विषयों के व्याख्यान ग्रन्थ अवश्य विद्यमान थे । १० १. श्रष्टा० ४ | ३ | ८७ । ३. महाभाष्य ४ | ३ |८८ || ५. पूर्व पृष्ठ १६० । २० २५ २. महाभाष्य ४ | ३ |८७ || ४. महाभाष्भ ४/२/६०॥ ६. भ्रष्टा० ४ । ४ । १०२ ।। ३० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हमने इस लेख में पाणिनीय शब्दानुशासन के आधार पर जितने ग्रन्थों के नाम सङ्कलित किए हैं, वे उस उस विषय के उदाहरणमात्र हैं । इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्रन्थ भी उस समय विद्यमान थे, जिन का पाणिनीय शब्दानुशासन में साक्षात् उल्लेख नहीं है । इतने ५ से अनुमान किया जा सकता है कि पाणिनि के समय में संस्कृत का वाङ् मय कितना विशाल था । प्रो० बलदेव उपाध्याय की भूले प्रो० बलदेव आध्याय एम० ए०, हिन्दु विश्वविद्यालय काशी, का इसी विषय का एक लेख 'प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ' के पृष्ठ ३७२१० ३७६ तक छपा है । उस में अनेक भूलें हैं, जिन में से कतिपय भूलों का दिग्दर्शन हम नीचे कराते हैं १. पृष्ठ ३७४ में निखा है - 'पाणिनि ने ग्रन्थ अर्थ में उपनिषद् शब्द का व्यवहार नहीं किया ।' १५ उपनिषद् शब्द ग्रन्थविशेष के अर्थ में 'ऋगयनादिभ्यश्च" सूत्र के ऋगयनादि गण में पढ़ा है। वहां 'तस्य व्याख्यान:' का प्रकरण होने से पाणिनि ने न केवल उपनिषद् का उल्लेख किया है, अपितु उनके व्याख्यान = टीकाग्रन्थों का भी निदश किया है । २. पृष्ठ ३७५ में लिखा है - 'पाणिनि के फुफेरे भाई संग्रहकार २० व्याडि ......।' महाभाष्य १।१।२० में पाणिनि को 'दाक्षीपुत्र' कहा है, अतः दाक्षायण अर्थात् व्याडि पाणिनि के मामा का पुत्र ( ममेरा भाई ) हो सकता है, न कि फफेरा । वस्तुतः दाक्षायण व्याडि पाणिनि का मामा था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । २५ ३० ३. पृष्ठ ३७६ में सिखा है - 'इन में ऋक्प्रातिशाख्य के रचयिता शाकल्य का नाम प्रति प्रसिद्ध है ।' उपलब्ध ऋक्प्रातिशाख्य का रचयिता शाकल्य नहीं है, अपितु आचार्य शौनक है । शाकल्य प्रातिशाख्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में वाणित भी नहीं है । ४. पृष्ठ ३७६ में 'सुनाग' को शौनग लिखा है । १. अष्टा० ४।३।७३॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २९७ ५. पृष्ठ ३७६ में लिखा है-'पतञ्जलि ने" कुणि का उल्लेख किया है।' महाभाष्य में कुणि का नाम कहीं नहीं मिलता। हां; महाभाष्य १२११७५ के 'एङ् प्राचां देशे शैषिकेषु' वार्तिक पर कैयट ने लिखा है-'भाष्यकारस्तु कुणिदर्शनमशिश्रियत्' । अर्थात् भाष्यकार ने कुणि ५ के मत का प्राश्रयण किया है। ६. पृष्ठ ३७६ में लिखा है-'४।२।६५ के ऊपर काशिका वृत्ति से व्याघ्रपद और काशकृत्स्न नामक व्याकरण के प्राचार्यों का पता चलता है।' . काशिका ४।२०६५ में 'उदाहरण है-"दशका वैयाघ्रपदीयाः।' १० इस में वर्णित वैयाघ्रपदीय व्याकरण के प्रवक्ता का नाम 'वैयाघ्रपद्य' था, व्याघ्रपद नहीं । व्याघ्रपद से प्रोक्त अर्थ में तद्धित प्रत्यय होकर वैयाघ्रपदीय शब्द उपपन्न नहीं होता, व्याघ्रपदीय होगा। प्रो० बलदेव उपाध्याय के लेख की कुछ भूलें हमने ऊपर दर्शाई हैं । इसी प्रकार की अनेक भूलें लेख में विद्यमान हैं। अगले अध्याय में हम संग्रहकार व्याडि का वर्णन करेंगे। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्याय . संग्रहकार व्याडि (२९०० वि० पूर्व) प्राचार्य व्याडि अपर नाम दाक्षायण ने संग्रह' नाम का एक ग्रन्थ रचा था। वह पाणिनीय व्याकरण पर था, ऐसी पाणिनीय वैयाकरणों की धारणा है। महाराज समुद्रगुप्त ने भी व्याडि को 'दाक्षिपुत्रवचोव्याख्यापटुः' लिखा है। पतञ्जलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में 'संग्रह' का उल्लेख किया है, और महाभाष्य २।३।६६ में 'संग्रह' को दाक्षायण की कृति कहा है । संग्रह पद पाणिनीय गणपाठ ४।४।६० में उपलब्ध होता है । संग्रह शब्द का एक अर्थ हैं-संक्षिप्त वचन । १. चरक में पठनीय ग्रन्थों के गुणों का वर्णन करते हुए ससंग्रहम विशेषण दिया है । टीकाकार इसका अर्थ 'संक्षिप्त वचन' ही करते हैं । अतः गणपाठ में पठित 'संग्रह' शब्द से क्या अभिप्रेत है, यह विचारणीय है। परिचय पर्याय-पुरुषोत्तमदेव ने त्रिकाण्ड-शेष में व्याडि के विन्ध्यस्य, १५ नन्दिनीसुत और मेधावी तीन पर्याय लिखे हैं। विन्ध्यस्थ-आचार्य हेमचन्द्र इस का पाठान्तर विन्ध्यवासी', और केशव विन्ध्यनिवासी लिखता है। अर्थ तोनों का एक है एक १. संग्रह का लक्षण-विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां सूत्रभाष्योः । निबन्धो यः समासेन संग्रहं तं विदुर्बुधाः ॥ भरतनाटय० ६६॥ २. संग्रहो व्याडिकृतो लक्षसंख्यो ग्रन्थः । महाभाष्यप्रदीपोद्योत, निर्णयसागर संस्क० पृष्ठ ५५ । तथा नीचे इसी पृष्ठ (२६८) की तीसरी टिप्पणी । ३. संग्रहोऽप्यस्यैव शास्त्रस्यैकदेश: । महाभाष्यदीपिका भर्तृहरिकृत, पूना सं० पृष्ठ २३ । इह पुरा पाणिनोयेऽस्मिन् व्याकरणे व्याड्युपरचितं लक्षग्रन्थ परिमाणं संग्रहाभिधानं निबन्धमासीत् । पुण्यराजकृत वाक्ययपदीयटीका, काशी २५ संस्क० पृष्ठ ३८३। ४. कृष्णचरित, नुनिकविवर्णन, श्लोक १६ । ५. संग्रह एतत् प्राधान्येन परीत्रितम् ।..... संग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे ......। अ० १, पाद १, प्रा० १॥ ६. शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः। ७. अभिघानचिन्तामणि, मर्त्यकाण्ड ५१६, पृष्ठ ३४० । ३० ८. शब्दकल्पद्रुम, पृष्ठ ८३ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि २९६ विन्ध्यवासी सांख्याचार्य सांख्यकारिका की युक्तिदीपिका टीका में बहुधा उद्धृत है।' किसी विन्ध्यवासी ने बसुबन्धु के गुरु बुद्धमित्र को दाद में पराजित किया था। वह विन्ध्यवासी विक्रम का समकालिक था। नन्दिनीसुत -इस नाम का उल्लेख कोशग्रन्थों से अन्यत्र हमें नहीं ५ मिला। मेधावी-भामह अलङ्कार शास्त्र २।४०,८८ में किसी अलङ्कारशास्त्र-प्रवक्ता 'मेधावी' को उद्धृत करता है । ___ इन पर्यायों में व्याडि के प्रसिद्धतम दाक्षायण नाम का उल्लेख नहीं हैं। अतः प्रतीत होता है कि हेम केशव और पुरुषोत्तमदेव के १० लिखे हए पर्याय प्राचीन व्याडि प्राचार्य के नहीं हैं। व्याडि नाम के कई व्यक्ति हुए है, यह हम अनुपद लिखेंगे । ___ व्याडि-वैयाकरण व्याडि आचार्य का उल्लेख ऋक्प्रातिशाख्य" महाभाष्य, काशिकावृत्ति और भाषावृत्ति आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है। . व्याडि पद का अर्थ-धातुवृत्तिकार सायण व्याडि पद का अर्थ " इस प्रकार लिखता है अडो वृश्चिकलाङ्ग्लम्, तेन च तैक्षण्यं लक्ष्यते, विशिष्टोऽडस्तैक्ष्ण्यमस्य व्यडः, तस्यापत्यं व्याडिः । अत इन्, स्वागतादीनां चेति वृद्धिप्रतिषेधैजागमयोनिषेधः । । अनेक व्याडि-व्याडि नाम के अनेक प्राचार्य हुए हैं। प्राचीन व्याडि संग्रह ग्रन्थ का रचयिता है। इस व्याडि का उल्लेख ऋक्प्रातिशाख्य आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता हैं । एक व्याडि कोशकार है। १. पृष्ठ पंक्ति–४;७ । १०८; ७, १०, ११, १२, १३ । १४४; २० । १४६; १०॥ २. पं० भगवद्दत्तजी कृत भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, , द्वि० संस्क०, पृष्ठ ३३७ । ३. वही, पृष्ठ ३३७। ४. २१२३, २८; " ६१४६; १३।३१, ३७ ॥ ५. प्रापिशलपाणिनीयव्याडीयगौतमीयाः । ६।२।३६॥ द्रव्याभिधानं व्याडिः । ।२।६८। ६. पूर्व पृष्ठ १४४ । ७. इकां यभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्तव्यम् । ८. धातुवृत्ति पृष्ठ ८२, 'चौखम्बा' संस्क० । तुलना करो-काशिका ३० ७३७; प्रक्रिया को० पूर्वार्ध, पृष्ठ ६१४; गणरत्नमहोदधि पृष्ठ ३६ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इसके कोश के अनेक उद्धरण कोशग्रन्थों की टीकाओं में उपलब्ध होते हैं | आचार्य हेमचन्द्र के निर्देशानुसार व्याडि के कोश में २४ बौद्ध जातकों के नाम मिलते हैं ।' अतः यह महात्मा बुद्ध से उत्तरवर्ती है, यह स्पष्ट है । प्रसिद्ध मुसलमान यात्री अल्बेरूनी ने एक रसज्ञ व्याडि का उल्लेख किया है । ५ दाक्षायण - इस नाम का उल्लेख महाभाष्य २।३।६६ में मिलता है । मैत्रायणी संहिता १८६ में दाक्षायणों का निर्देश है । दर्शपौर्णमास की प्रवृत्तिरूप एक इष्टि भी दाक्षायण इष्टि कहाती है । क्या इस इष्टि का इस दाक्षि अथवा दाक्षायण से कुछ सम्बन्ध है ? दाक्षि- वामन ने काशिका ६।२।६९ में इस नाम का उल्लेख किया है । मत्स्य पुराण १६५।२५ में दाक्षि गोत्र का निर्देश उपलब्ध हो है । यद्यपि दाक्षि और दाक्षायण नामों में गोत्र और युव प्रत्यय के भेद से अर्थ की विभिन्नता प्रतीत होती है, तथापि पाणिन और १५ पाणिनि, तथा काशकृत्स्न और काशकृत्स्नि आदि के समान दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं । इसकी पुष्टि काशिका ४।१।१६६ के 'तत्र भवान् दाक्षायणः, दाक्षिर्वा' उदाहरण से होती है । वंश - व्याडि नाम से इसके पिता का नाम व्यड प्रतीत होता है । माता का नाम अज्ञात है । दाक्षि और दाक्षायण नामों से इस वंश के २० मूल पुरुष का नाम 'दक्ष' विदित होता है । मत्स्य पुराण १६५।२५ में दाक्षि को अङ्गिरा वंश का कहा है । न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि के लेखानुसार व्याडि दाक्षायण का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था । स्वसा - पाणिनि ने क्रौड्यादि गण में व्याडि का निर्देश किया १. अभिधानचिन्तामणि देवकाण्ड, श्लोक १४७ की टीका, पृष्ठ १००, २. पूर्व पृष्ठ २६८, टि०६ । ३. एतद्ध स्म वा आहुर्दाक्षायणास्तन्तून्त्समवृक्षद् गामन्वव्यावर्तयेति । ४. कुमारीदाक्षाः । ५. कपितरः स्वस्तितरो दाक्षिः शक्तिः पतञ्जलिः । ६. ब्राह्मणगोत्रप्रतिषेधादहि न भवति - दाक्षायण इति । न्यास २|४|१८, ३० पृष्ठ ४७० । ७. अष्टा० ४।११८०॥ २५ १०१ ॥ , Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि ३०१ है । उसके अनुसार उसकी किसी भागिनि का नाम 'व्याड्या' प्रतीत होता है। पाणिनि की माता का नाम दाक्षी था, यह पूर्व लिख चुके हैं।' यह पितृव्यपदेशज नाम है । इसी का व्याड्या नाम भ्रातृव्यपदेशज हो सकता है (यथा-यम यमी, रुक्मी रुक्मिणी)। दाक्षि और दाक्षायण के एक होने पर वह व्याडि की बहिन होगी, और पाणिनि उनका भानजा। ५ प्राचार्य-विकृतवल्ली नाम का एक लक्षणग्रन्थ व्याडि-विरचित माना जाता है। उसके प्रारम्भ में शौनक को नमस्कार किया है।' आर्ष ग्रन्थों में इस प्रकार की नमस्कार शैली उपलब्ध नहीं होती। अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त होगा, वा यह ग्रन्थ किसी अर्वाचीन व्याडि विरचित होगा, वा किसी ने व्याडि के नाम से इस ग्रन्थ की रचना १० की होगी। व्याडि शौनक का समकालिक है । शौनक ने अपने ऋक्प्रातिशाख्य में व्याडि का उल्लेख किया है। अतः सम्भव हो सकता है कि व्याडि ने शौनक से विद्याध्ययन किया हो। प्राचीन आचार्य अपने ग्रन्थों में अपने शिष्य के मत उद्धृत करने में संकोच नहीं करते थे । कृष्ण द्वैपायन ने अपने शिष्य जैमिनि के अनेक मत १५ अपने ब्रह्मसूत्र में उद्धृत किये हैं।' देश-पुरुषोत्तमदेव आदि ने व्याडि का एक पर्याय विन्ध्यस्थ = विन्ध्यवासी विन्ध्यनिवासी लिखा है। तदनुसार यह विन्ध्य पर्वत का निवासी था। काशिका २।४।६० में 'प्राचामिति किम् - दाक्षिः पिता, दाक्षायणः पुत्रः' लिखा है । पाणिनि पश्चिमोत्तर सीमान्त २० प्रदेश का रहने वाला था, यह हम पूर्व लिख चके हैं। अत उसका सम्बन्धी दाक्षायण भी उसी के समीप का निवासी होगा। इस से भी प्रतीत होता है कि पुरुषोत्तमदेव के लिखे हुए व्याडि के पर्याय आर्षकालीन व्याडि के नहीं हैं । काशिका ४।१।१६० में दाक्षि को प्राग्वेशीय लिखा है। यह उस के पूर्वोक्त वचन से विरुद्ध है। हो सकता २५ है कि दो दाक्षि रहे हों। अभिनव शाकटायन व्याकरण २।४।११७ की अमोधा और चिन्तामणि वत्ति में प्राङ्ग बाङ्ग प्राग्देशवासियों के साथ दाक्षि पद पढ़ा है। क्या यह दाक्षि विन्ध्यस्थ हो सकता है ? १. पूर्व पृष्ठ १६८। २. नत्वादौ शौनकाचार्य गुरु वन्दे महामुनिम् । ३. वेदान्तदर्शन १२२।२८, ३१; ३।२।४०; ३१४११८, ४०; ४१३॥१२॥ ३० ४. पूर्व पृष्ठ २०२। ५. क्वचिन्न भवत्येव-दाक्षिः । ६. अङ्गबङ्गदाक्षयः, आङ्कबाङ्गदाक्षयः । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ दाक्षायण देश-दाक्षि तथा दाक्षायणों का कुल बहुत विस्तृत और समृद्ध था । वह कुल जहां बसा हुआ था, वह स्थान (देश) दाक्षक' और दाक्षायणभक्त' के नाम से प्रसिद्ध था । काशिका ४।२।१४२ में 'दाक्षिपलद, दाक्षिनगर, दाक्षिग्राम, दाक्षिहद, दाक्षिकन्या'' संज्ञक ग्रामों का उल्लेख है। काशिका के अनुसार ये ग्राम वाहिक =सतलज और सिन्धु के मध्य थे । काशिका ६।२।८५ में 'दाक्षिघोष, दाक्षिकट, दाक्षिपल्वल, दाक्षिह्नद, दाक्षिबदरी, दाक्ष्यश्वत्थ, दाक्षिशाल्मली, दाक्षिपिङ्गल, दाक्षिपिशङ्ग, दाक्षिरक्ष, दाक्षिशिल्पी, दाक्षिपुस, दाक्षिकूट' का निर्देश मिलता है। - व्याडिशाला-पाणिनि ने अष्टाध्यायी ५।२।८६ के छात्र्यादिगण में व्याडि पद का निर्देश किया है । तदनुसार शाला उत्तरपद होने पर 'व्याडिशाला' पद आद्य दात्त होता है । यहां शालाशब्द पाठशाला का वाचक है, यह हम आपिशालिशाला के प्रकरण में लिख चुके हैं।' व्याडिशाला की प्रसिद्धि-काशिका ६।२।६९ में लिखा है१५ कुमारीदाक्षाः । कुमार्यादिलाभकामाः ये दाक्ष्यादिभिः प्रोक्तानि शास्त्राण्यधीयते तच्छिष्यतां वा प्रतिपद्यन्ते त एवं क्षिप्यन्ते । अर्थात् जो कुमारी की प्राप्ति के लिए दाक्षिप्रोक्त शास्त्र का अध्ययन करते हैं, अथवा उसकी शिष्यता स्वीकार करते हैं, वे पूर्व पदान्तोदात्त कुमारीदाक्ष पद से आक्षिप्त किए जाते हैं।' २. पाणिनि के द्वारा ६।२।८६ में दाक्षिशाला का निर्देश होने से तथा काशिका के उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि प्राचार्य व्याडि का विद्यालय उस समय अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था । १. दाक्षि+अक्, राजन्याभ्यिो वुन् । अष्टा० ४।२।५३॥ २. दाक्षि+भक्त, भौरिक्याद्येषकार्यादिभ्यो विघल्भक्तलो। अष्टा० ४। ३. दाक्षिग्राम: ... दाक्ष्यादयो निवसन्ति यस्मिन् ग्रामे स तेषापिति व्यपदिश्यते । काशिका ६।२॥४॥ ४. ग्रामविशेषस्य संज्ञा । वामनीय लिङ्गानुशासन। पृष्ठ , पं० २६ । ५. पञ्चानां सिन्धुषष्ठानामन्तरं ये समश्रिताः । वाहिका नाम ते देशाः ...... । महाभारत कर्णपर्व, महाभाष्यप्रदीपोद्योत १३१।७५ में उदधृत । ६. पृष्ठ १४८ । ७. तुलना करो-'अजर्घा यो न जानाति यो न जानाति वर्वरीः । अचीकमत् यो न जानाति तस्मै कन्या न दीयते ॥ किंवदन्ती। २५ २०५४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि. . ३०३ व्याडि का वर्णन महाराज समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित की प्रस्तावना के अन्तर्गत मुनिकविवर्णन में लिखा है रसाचार्यः कविाडि: शब्दब्रह्म कवाङमुनिः । दाक्षिपुत्रवचोव्याख्यापटुर्मीमांसकाग्रणीः ॥१६॥ बलचरितं कृत्वा यो जिगाय भारतं व्यासं च । महाकाव्यविनिर्माणे तन्मार्गस्य प्रदीपमिव ॥१७॥ इन श्लोकों से विदित होता है कि संग्रहकार व्याडि दाक्षीपुत्रवचन (अष्टाध्यायी) का व्याख्याता, रसाचार्य और श्रेष्ठ मीमांसक था। उसने बलरामचरित लिख कर व्यास और भारत को जोत १० लिया था, अर्थात् उसका बलचरित भारत से भी महान् था। - रसाचार्य-कृष्णचरित के उपर्युक्त उद्धरण में व्याडि को रसाचार्य कहा है। वाग्भट्ट ने रसरत्नसमुच्चय के प्रारम्भ में प्राचीन रसाचार्यों में व्याडि का उल्लेख किया है।' पार्वतीपुत्र नित्यनाथसिद्ध-विरचित रसरत्न के वादिखण्ड उपदेश १, श्लोक ६६-७० में १५ २७ प्राचीन रसाचार्यों के नाम लिखे हैं, उन में सब से प्रथम नाम 'व्यालाचार्य' है। ड-ल का अभेद होने से सम्भव है, यहां शुद्धपाठ व्याड्याचार्य हो । रामराजा के रसरत्नप्रदीप में भी व्याडि का उल्लेख मिलता। गरुड पुराण में रसाचार्य व्याडि-पं० रामशंकर भट्टाचार्य का 'रसाचाय व्याडि का पौराणिक निर्देश' शीर्षक एक टिप्पण वेदवाणी मासिक-पत्रिका के वर्ष १०, अङ्क ६, पृष्ठ २० पर प्रकाशित हुआ है। उस में गरुड पुराण पूर्वार्ध अ० ६६, श्लोक ३५-३७ उद्घत करके बताया है कि व्याडि का रसाचर्यत्व पुराण साहित्य में भी प्रसिद्ध है । वे श्लोक इस प्रकार हैं १. इन्द्रदो गोमुखश्चैव काम्बलिाडिरेव च । १॥३॥ • २. रसरत्नसमुच्चय में भी २७ रसाचार्यों का उल्लेख है। ३. कलायस्त्रिपुट: प्रोक्तः सतीलो वर्तु लो मतः । हरेणु कण्टका ज्ञेयेति व्याडिरिति भरतः। हिस्ट्री आफ दी इण्डियन मेडिशन, पृष्ठ ७५८, ७५६ में उदघृत। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रादाय तत्सकलमेव ततोऽन्नभाण्डं जम्बीरजातरसयोजनया विपक्वम् । घृष्टं ततो मृदुतनकृतपिण्डमूलैः ____कुर्यात् यथेष्टमनुमौक्तिकमाशु विद्धम् ॥३५।। मुल्लिप्तमत्स्यपुटमध्यगतं तु कृत्वा पश्चात् पचेत् तनु ततश्च विधानपत्या। दुग्धे ततः पयसि तं विपचेत् सुधायां पक्वं ततोऽपि पयसा शुचिचिक्कणेन ॥३६॥ शुद्धं ततो विमलवस्त्रनिघर्षणेन स्यान्मौक्तिकं विपुलसद्गुणकान्तियुक्तम् । व्याडिर्जगाद जगतां हि महाप्रभाव सिद्धो विदग्धहिततत्परया कृपालुः ॥३७॥ - यहां ३५ वें श्लोक के रसयोजनया शब्द स्पष्ट है । ३७ वें में महाप्रभावसिद्ध शब्द भी रसशास्त्र का परिभाषिक पद है। १५ उपर्युक्त निर्देशों से स्पष्ट है कि प्राचार्य व्यादि रस पारद शास्त्र का विशिष्ट प्रवक्ता था। ___ नागागुर्जन रसशास्त्र का उपजाता नहीं-लोक में किंवदन्ती है कि अौषधरूप में रसपारद के व्यवहार का उपज्ञाता बौद्ध विद्वान नागार्जुन है। वस्तुतः यह मिथ्या भ्रम है । रसचिकित्सा भी उतनी २० ही प्राचीन है, जितनी प्रोद्भिजचिकित्सा । चरक अोर सुश्रुत मुख्यतया प्रौद्धिज और शल्यचिकित्सा के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं । इसलिये उन में रसचिकित्सा का विशेष उल्लेख नहीं मिलता । अग्निवेश आदि रसचिकित्सा से परिचित नहीं थे, यह धारणा मिथ्या है। चरक चिकित्सास्थान अध्याय ७ में लिखा है- . श्रेष्ठं गन्धकसंयोगात् सुवर्णमाक्षिकप्रयोगाद्वा ।। सर्वव्याधिविनाशमनद्यात् कुष्ठी रसं च निगृहीतम् ॥ चरक में इस के अतिरिक्त अन्य रसों का भी उल्लेख है। प्रो० दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी ने रसरत्नसमुच्चयटीका की भूमिका पृष्ठ २. ३ पर अन्य रसों का भी वर्णन दर्शाया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र १. अध्याय ३४ में सुवर्ण का एक भेद 'रसविद्ध' =पारद निर्मित बताया है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि ३०५ वस्तुतः प्राचीन काल में एक-एक विषय पर ग्रन्थ लिखने की परिपाटी थी। प्राचीन ग्रन्थाकार स्वप्रतिपाद्यविषय से भिन्न विषय में हस्तक्षेप नहीं करते थे। इसलिये चरक सुश्रुत में रसचिकित्सा का विधान नहीं है। मीमांसक व्याडि कृष्णचरित में व्याडि को 'मीमांसकाग्रणी' लिखा । अतः सम्भव है कि व्याडि ने मीमांसाशास्त्र पर भी कोई ग्रन्थ लिखा हो । जैमिनि प्राकृति को पदार्थ मानता है। महाभाष्य १।२।६४ में व्याडि को द्रव्यपदार्थवादी लिखा है। इससे स्पष्ट है कि व्याडि 'द्रव्यपदार्थवादी मीमांसक' रहा होगा । महाभाष्य में काशकृत्स्न- १. प्रोक्त मीमांसा का उल्लेख मिलता है। वह द्रव्यपदार्थवादी था वा प्राकृतिपदार्थवादी, यह अज्ञात है। काल व्याडि का उल्लेख गृहपति शौनक ने अपने ऋक्प्रातिशाख्य में अनेक स्थानों पर किया है। गहपति शौनक ने ऋक्प्रातिशाख्य का १५ प्रवचन भारतयुद्ध के लगभग १०० वर्ष पश्चात् किया था, यह हम पूर्व लिख चके हैं। व्याडि अपर नाम दाक्षायण पाणिनि का मामा था, यह भी पूर्व लिखा जा चुका है। अतः व्याडि का काल भारतयुद्ध के पश्चात् १००-२०० वर्षों के मध्य है। संग्रह का परिचय २० महाभाष्य २।३।६६ में लिखा है शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः । . अर्थात् दाक्षायणविरचित संग्रह की कृति मनोहर है। १. तेषामभिव्यक्तिरभिप्रदिष्टा शालाक्यतन्त्रेषु चिकित्सितं च । पराधिकारे तु न विस्तरोक्तिः शस्तेति तेनात्र न न: प्रयासः ॥ चरक चिकित्सा० २६॥ २५ १३०.१३१॥ २. प्राकृतिस्तु क्रियार्थत्वात् । मीमांसा ॥३॥३३॥ ___३. द्रव्याभिधानं व्याडिः। ४. ४।१।१४, ६३; ४।३।१५५।। ५. पूर्व पृष्ठ २१७, टि०८। ६. पूर्व पृष्ठ २१६ । ७. पूर्व पृष्ठ १९८-१६६ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाभाष्यकार जैसा विवेचनात्मक बुद्धि रखने वाला व्यक्ति जिस कृति को सुन्दर मानता हो, उसकी प्रामाणिकता और उत्कृटता में क्या सन्देह हो सकता है ? संग्रह का स्वरूप-संग्रह ग्रन्थ चिरकाल से लुप्त है । इसलिए ५. इसका क्या का स्वरूप था, यह हम नहीं कह सकते । इस के जो उद्धरण उपलब्ध हुए हैं, उनके अनुसार इसके विषय में कुछ लिखा जाता है__ संग्रह में ५ अध्याय-चान्द्र व्याकरण ४।१।६२ की वृत्ति में एक उदाहरण है-पञ्चक: संग्रहः । इसकी 'अष्टकं पाणिनीयम्' उदाहरण १. से तुलना करने पर विदित होता है कि संग्रह में पांच अध्याय थे । संग्रह का परिमाण-वाक्यपदीय का टीकाकार पुण्यराज लिखता है इह पुरा पाणिनीयेऽस्मिन् व्याकरणे व्याड्य परचितं लक्षग्रन्थपरिमाणं संग्रहाभिधानं निबन्धमासीत् ।' १५ नागेश भो संग्रह का परिमाण लक्ष श्लोक परिमित मानता है।' संग्रहसूत्र--महाभाष्य ४।२।६० में एक उदाहरण है-सांग्रहसूत्रिकः । इस से प्रतीत होता है कि संग्रहग्रन्थ सूत्रात्मक था। ___ संग्रह दार्शनिक ग्रन्थ था-पतञ्जलि महाभाष्य के प्रारम्भ में लिखता है२० संग्रहे तावत् प्राधान्येन परीक्षितम्-नित्यो वा स्यात् कार्यो वा । तत्रोक्ता: दोषाः, प्रयोजनान्यप्युक्तानि । तत्र त्वेष निर्णय:-यद्यव नित्योऽथापि कार्यः, उभयथापि लक्षणं प्रवय॑म् ।। आगे पुनः लिखता है-- संग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे नित्यपर्यायवाचिनो २५ ग्रहणमिति । इन दोनों उद्धरणों से, तथा भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय की स्वोपत्र १. वाक्यपदीय टीका, काशी संस्क० पृष्ठ २८३ । २. संग्रहो व्याडिकृतो लक्षश्लोकसंख्यो ग्रन्थ इति प्रसिद्धिः । नवाह्निक, निर्णयसागर संस्क० पृष्ठ २३ । ३. अ० १ । पा० १ प्रा० १॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि ३०७ टीका में उदधृत संग्रह के पाठों से विदित होता है कि संग्रह वाक्यपदीय के समान प्रधानतया व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ था । पाणिनीय श्र - अष्टक - व्याख्यान -- नागेशकृत भाष्यप्रदीपोद्योत ४ | ३ | ३९ में लिखा है -- एवं च संग्रहादिषु तदुदाहरणदानमसंगतं स्यात् । इस से प्रतीत होता है कि संग्रह में कहीं कहीं अष्टाध्यायी के सूत्रों के उदाहरण भी दिये गए थे । न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि काशिकाविवरणपञ्जिका ७।२1११ में लिखता है— श्वभूतिव्याडि प्रभूतयः श्रच कः हेतुना चर्श्वभूतो गकार: प्रश्लिष्टः इत्येवमाचक्षते । कितीत्यत्र द्विककार निर्देशेन १० कः किति ( ७/२/११ ) सूत्र की उक्त व्याख्या सम्भवतः संग्रह में की होगी 1 यह भी संभव हो सकता है कि व्याडि ने अष्टाध्यायी की कोई व्याख्या लिखी हो । इसकी पुष्टि कृष्णचरित के पूर्व उद्धृत श्लोक १५ के दाक्षिपुत्रवचोव्याख्यापटु पद से भी होती है। संग्रह में १४ सहस्र पदार्थों की परीक्षा -- महाभाष्य के 'संग्रहे तावत् प्राधान्येन परीक्षितम्' इस वचन की व्याख्या में भर्तृहरि लिखता है - 1 चतुर्दशसहस्राणि वस्तूनि श्रस्मिन् संग्रहग्रन्थे ( परीक्षितानि) ।' अर्थात् संग्रह में १४ सहस्र पदार्थों की परीक्षा की थी । यदि भर्तृहरि का यह वचन ठीक हो: तो संग्रह का एक लक्ष श्लोक परिमाण अवश्य रहा होगा । २५ संग्रह की प्रतिष्ठा --संग्रह ग्रन्थ किसी समय अत्यन्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था । काशिका ६।२२६९ के 'कुमारीदाक्षा:' उदाहरण से व्यक्त होता है कि अनेक व्यक्ति कुमारी की प्राप्ति ( विवाह) के लिये झूठमूठ अपने को दाक्षि- प्रोक्त ग्रन्थ के ज्ञाता बताया करते थे । काशिकाकार ने इस उदाहरण की जो व्याख्या की है, वह = २० १. हमारा हस्तलेख पृष्ठ २६, पूना सं० पृ० २१ । २. तुलना करो पूर्व पृष्ठ ३०२, टि०७ मै उद्धृत 'अजर्घा' यो न श्लोक के साथ । ३० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास. 1 चिन्त्य है | प्रतीत होता है, उसने इस उदाहरण का भाव नहीं समझा । सूत्रस्थ उदाहरणों की 'दाक्षादिभिः प्रोक्तानि शास्त्राण्यधीयते ' व्याख्या में 'दाक्षादिभि:' पाठ शुद्ध है, वहां 'दाक्ष्यादिभिः' पाठ होना चाहिए । संग्रह ग्रन्थ की प्रौढता का अनुमान पतञ्जलि के द्वारा निर्दिष्ट ५ निम्न श्लोक से भी होता है । - पतञ्जलि ने महाभाष्य २।३।६६ में दाक्षायण विरचित संग्रह की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है- १० शोभना खलु दाक्षाणस्य संग्रहस्य कृतिः । इन उद्धरणों से संग्रह ग्रन्थ का वैशिष्ट्य सूर्य के समान विस्पष्ट है । संग्रह के उद्धरण - संग्रह के उद्धरण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । भर्तृहरि - विरचित वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञ - टीका में संग्रह के १० (दस) वचन उद्धृत हैं। श्री पं० चारुदेवजी १५ ने स्वसम्पादित वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड के अन्त में उन्हें संगृहीत कर दिया है। प्रथम और दशम वचन का द्वितीय उद्धरण का स्थान हम ने ढूंढा है । आज तक संग्रह के जितने वचन उपलब्ध हुए हैं, उन्हें हम नीचे उद्धृत करते हैं २० किरति चर्करीतान्तं पचतीत्यत्र यो नयेत् । प्राप्तिज्ञं तमहं मन्ये प्रारब्धस्तेन संग्रहः ॥" २५ ३० १. नहि किञ्चित् पदं नाम रूपेण नियतं क्वचित् । पदानां रूपमर्थो वा वाक्यार्थादेव जायते || २. अर्थात् पदं साभिधेयं पदाद् वाक्यार्थनिर्णयः । पदसंघातजं वाक्यं वर्णसंघातजं पदम् ॥3 ३. शब्दार्थयोरसंभेदे व्यवहारे पृथक् क्रिया । यतः शब्दार्थयोस्तत्त्वमेकं तत्समवस्थितम् ॥* १. महा० ७|४|१२|| कैयट ने पतञ्जलि के भाव को संभवतः न समझकर संग्रह शब्द का अर्थं 'साधुशब्दराशि' लिखा है २. वाक्यपदीय टीका लाहौर संस्क० पृष्ठ ४२ । यह वचन पुण्यराज ने वाक्यपदीय २।३१९ की व्याख्या में भी उद्धृत किया है। वहां तृतीय चरण का पाठ 'पदानामर्थरूपं च' है, सम्भवतः वह अशुद्ध है । ३. वही, पृष्ठ ४३ ॥ ४. वही, पृष्ठ ४३ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि ४. संबन्धस्य न कर्त्तास्ति शब्दानां लोकवेदयोः । शब्देरेव हि शब्दानां संबन्धः स्यात् कृतः कथम् ॥' ५. वाचक उपादानः स्वरूपवानव्युत्पत्तिपक्षे । व्युत्पत्तिपक्षे त्वर्थाविहितं समाश्रितं निमित्तं शब्दव्युत्पत्तिकर्मणि प्रयोजकम् । उपादानो द्योतक इत्येके । सोऽयमितिव्यपदेशेन संबन्धोपयोगस्य ५ शक्यत्वात् । ' ६. नहि स्वरूपं शब्दानां गोपिण्डादिवत् करणे संनिविशते । तत्तु नित्यमभिधेयमेवाभिधानसंनिवेशे सति तुल्यरूपत्वादसंनिविष्टमपि समुच्चार्यमाणत्वेनावसीयते । ७. शब्दस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते । स्थितिभेदे निमित्तत्वं वैकृतः प्रतिपद्यते ॥ * ८. प्रसतश्चान्तराले याञ्छन्दानस्तीति मन्यते । प्रतिपत्तुरशक्तिः सा ग्रहणोपाय एव सः ॥ प्रतिपत्तये । ६. यथाद्यसंख्याग्रहणमुपायः ३०६ संख्यान्तराणां भेदेऽपि तथा शब्दान्तरश्रुतिः ॥ १०. शब्दप्रकृतिरभ्रंशः । ११. शुद्धस्योच्चारणे स्वार्थः प्रसिद्धो यस्य गम्यते । स मुख्य इति विज्ञेयो रूपमात्रनिबन्धनः || १० १५ I १२. सस्त्यानं संहननं तमो निवृत्तिरशक्तिरूपरतिः प्रवृत्तिप्रतिबन्धतिरोभाव; स्त्रीत्वम् । प्रसवो विष्वग्भावो वृद्धिशक्तिलाभोऽभ्युद्रेकः २० प्रवृत्तिराविर्भाव इति पुंस्त्वम् । श्रविवक्षातः साम्यस्थिति रौत्सुक्यनिवृत्तिरपदार्थत्वमङ्गाङ्गिभावनिवृत्तिः कैवल्यमिति नपुंसकत्वमिति । I १. वाक्यपदीय टीका लाहौर सं०, पृष्ठ ४३ । २. वही, पृष्ठ ५५ । ३. वही, पृष्ठ ६६ ॥ ४. वही, पृष्ठ ७९ । तथा — यदाह संग्रहकारःशब्दस्य ग्रहणे हेतु ......। श्रीदेव विरचित स्याद्वादरत्नाकर भाग ३, पृष्ठ ६४५ । २५ ६. वही, पृष्ठ ८८ । तथा स्याद्वादरत्नाकर ५. वही, पृष्ठ ८६ । भाग ३, पृष्ठ ६४९ । ७. अही, पृष्ठ १३४ । तथा हेलाराजटीका काण्ड ३, पृष्ठ १११, काशी संस्क० । ८. एतदेव संग्रहकारोक्त श्लोक प्रदर्शनेन संवादयितुमाह । वाक्य ० टीका पुण्यराज, काण्ड २, श्लोक, २६७ । ६. वाक्य ० टीका हेलाराज, पृष्ठ ४३१, काशी संस्क० । लिङ्गसमुद्देश- ३० कारिका १-२ | Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ३१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १३. इकां यभिर्व्यवधानमेकेषामिति संग्रहः ।' १४. जाज्वलीति संग्रहे। १५. यस्त्वन्यस्य प्रयोगेण यत्नादिव नियुज्यते । तमप्रसिद्धं मन्यन्ते गौणार्थाभिनिवेशिनम् ॥ १६. शब्दे तां जाति शब्दमेवार्थजातौ जाति: शुक्लादौ द्रव्यशब्दगुणं कृत्तत्संयोगं योगि चाभिन्नरूपं वाच्यं वाच्येषु [शुक्ल ] त्वादयो बोधयन्ति । १७. कि कार्यः शब्दोऽथ नित्य इति ।' १८. असति प्रत्यक्षाभिमाने ।' १६. काश्यपस्तु प्रात्त्वपक्षे दिदासते इत्येके इत्युक्त्वा संग्रह इत्त्वव्यतिरिक्तस्य घुकार्यस्योक्तत्वाद् इस्भाव उपदित्सत इत्याह । २०. ज्ञानं द्विविधं सम्यगसम्यक् च ।' १. जैनेन्द्र व्या० महानन्दिटीका १२।१, पृष्ठ २३ । तुलना करो-इकां यभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्तव्यम् । भाषावृत्ति ६॥१७॥ १५ २. श्रीकविकण्ठाहारकृत चकरीतरहस्य । इण्डिया आफिस का हस्तलेख, सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ २०८ । ३. गौणार्थस्य स्वरूपमप्याह-वाक्य० कां० २, श्लोक २६८ की उत्त्थानिका पुण्यराज की । तुलना करो-- उद्धरण संख्या ११ (कारिका २३७) की उत्थानिका के साथ । ४. कृत्तत्संयोगं योगिनाभिन्नरूपम्' पाठा०, पृष्ठ ७७ । ५. शृङ्गारप्रकाश, पृष्ठ ४६ । इस उद्धरण की उत्त्यानिका इस प्रकार है-'यदाह यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशः स तस्य भावः, तदाभिघाने त्वतलौं । तस्योपसंग्रहात् संग्रहकारः पठति-शब्दे तां....।' ६. भर्तृ ० महाभाष्यदीपिका, हमारा हस्तलेख पृष्ठ ३०, पूना सं० पृष्ठ २३ । इस की उत्थानिका—एवं संग्रह एतत प्रस्तुतम्-किं नित्यः... ..।' २५ ७. स्याद्वादरत्नाकर, पृष्ठ १०७६ । इस की उत्थानिका-एवं च यदाह व्याडि:--असति......। यहां इतना ही उद्धरण दिया है। आगे इस की व्याख्या की है। ८. घातुवृत्ति, पृष्ठ २८७, काशी सं० । यहां ग्रन्थकार ने संग्रह का अभिप्राय स्वशब्दों में लिखा है । ६. भाष्यव्याख्याप्रपञ्च, वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी बंगाल से प्रकाशित १ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ संग्रहकार व्याडि २१. श्रोंकारश्चाथ शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुराः । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तेन मांगलिकावुभौ ॥' इनमें से अन्तिम उद्धरण व्याडि के कोषग्रन्थ का प्रतीत होता है । संग्रह के उपर्युक्त वचनों से विदित होता है कि संग्रह में गद्य, पद्य दोनों थे 1 इनके अतिरिक्त न्यास, महाभाष्यप्रदीप, पदमञ्जरी, योगव्यासभाष्य श्रादि में संग्रह नाम से कुछ वचन उपलब्ध होते हैं । श्री डा० सत्यकाम वर्मा की भूल वर्माजी ने 'भाषातत्त्व और वाक्यपदीय' में सं० १० के वचन का अर्थ 'शब्दों की प्रकृति अपभ्रंश शब्द है' लिखा है | यह व्याख्या संग्रहवचन के उद्धर्त्ता भर्तृहरि की १० व्याख्या के तथा वैयाकरण मत के विपरीत है । उन्होंने पाश्चात्य मत के साथ तुलना के लिये उक्त व्याख्या की है । वस्तुत: इस वचन का अर्थ है - अपभ्रंशों की प्रकृति साधु शब्द हैं। शब्दप्रकृति में बहुव्रीहि समास है - शब्द: प्रकृतिरस्य । षष्ठीसमास 'शब्दानां प्रकृति:' मान कर डाक्टर जी ने भूल की है । न्यास और संग्रह - न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि ने पांच वचन संग्रह के नाम से उद्धृत किए हैं। वे महाभाष्य में उपलब्ध होते हैं । न्यास के पाठ में संग्रह का अर्थ संक्षेपवचन हो सकता है । महाभाष्याप्रदीप और संग्रह - कैट ने महाभाष्य में पठित कई श्लोकों के विषय में 'पूर्वात्तार्थसंग्रहश्लोकाः " लिखा है । इस वाक्य २० के दो अथ हो सकते हैं । - 13 १. महाभाष्य में पूर्व प्रतिपादित अर्थ की पुष्टि में संग्रह ग्रन्थ के श्लोक | २. पूर्व में विस्तार से प्रतिपादित अर्थ को संग्रह = संक्षेप से कहने वाले श्लोक | २५ पुरुषोक्तम देवीय परिभाषावृत्ति प्रादि के अन्त में पृष्ठ १२५ । इस उद्धरण की उत्थानिका -- ' अत एव व्याडि: - ज्ञानं १५ १. भाष्यव्याख्याप्रपञ्च । वही संस्क०, पृष्ठ १२५ । इस उद्धरण का अन्त्य पाठ —— 'नोंकारश्च वुभौ ॥ इति व्याडिलिखनात् ।' २. ४२८, पृष्ठ ६३० ४।२६, पृष्ठ ६३१ ६ १ ६८, पृष्ठ २४३; ८।१।६६, पृष्ठ ४१; ८|२| १०८, पृष्ठ १०३० ।। ३. ५।२।४८ ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कई विद्वान् कैयट की पंक्ति का प्रथम अर्थ समझ कर महाभाष्यनिर्दिष्ट श्लोकों को संग्रह के श्लोक मानते हैं। परन्तु हमारा विचार है कि ये श्लोक महाभाष्यकार के हैं । पदमञ्जरी और संग्रह-हरदत्त ने पदमजरी में आठ स्थानों पर संग्रहश्लोक लिखे है ।' उन में कुछ महाभाष्यपठित श्लोक हैं, और कुछ हरदत्त के स्वविरचित प्रतीत होते हैं । हरदत्त ने जिस विषय को प्रथम गद्य में विस्तार से लिखा, अन्त में उसी को संक्षेप से श्लोकों में संग्रहीत कर दिया । प्रक्रियाकौमुदी-टोका और संग्रह-विट्ठल काशिका में उद्धृत १० 'एकस्मान्ङाणवटा' आदि श्लोक को संग्रह के नाम से उद्धृत करता है। यहां संग्रह शब्द से व्याडि का ग्रन्थ अभिप्रेत नहीं है। व्यासभाष्य और संग्रह-योगदर्शन के व्यासभाष्य में एक संग्रह श्लोक उद्धृत है। वह व्याडि का नहीं है । चरक और संग्रह--चरक सूत्रस्थान अध्याय २६ में 'संग्रह' शब्द १५ का प्रयोग मिलता हैं-त्रिविधस्यायुर्वेदसूत्रस्य ससंग्रहव्याकरणस्य... प्रवक्तारः । यह संग्रहपद संक्षिप्त वचन के लिए प्रयुक्त हुआ । यज्ञकल-नाटक और संग्रह-कुछ वर्ष हुए गोण्डल (काठियावाड़) से भास के नाम से एक यज्ञफल नाटक प्रकाशित हया है। उस के पृष्ठ ११६ पर लिखा है-ससूत्रार्थसंग्रहं व्याकरणम । ___रामायण उत्तरकाण्ड और संग्रह-रामायण उत्तरकाण्ड में लिखा है-हनुमान ने संग्रहसहित व्याकरण का अध्ययन किया था। उत्तरकाण्ड आदिकवि वाल्मीकि की रचना नहीं है, पर है पर्याप्त प्राचीन १. ४।२१७८, पृष्ठ ६८; ४।२१८, ६ पृष्ठ १२७; ५।३।८३, पृष्ठ ३६२; ६।११६८, पृष्ठ ४५१; ६३११६९ पृष्ठ ४५३ इत्यादि । २५ २. संग्रहश्लोकानुसारेण कथयति-एकस्मान् । भाग १, पृष्ठ २० । भाषावृत्ति का व्याख्याता सृष्टिधर इसे भाष्यवचन कहता है । यह उस की भूल है । महाभाष्य में यह वचन उपलब्ध नहीं होता। ३. ब्राह्मस्त्रिभूमिको लोकः प्राजापत्यस्ततो महान् । माहेन्द्रश्च स्वरित्युक्तो दिवि तारा भुवि प्रजाः ॥ इति संग्रहश्लोकः । व्यासभाष्य ३।२६ ॥ ४. ससूत्रवृत्त्यर्थपदं महार्थं ससंग्रहं सिध्यति वै कपीन्द्रः ३६।४४ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि उस का संकेत व्याडिविरचित संग्रह ग्रन्थ की ओर मानना अनुचित है। क्या प्राचीन काल में अन्य भी संग्रह ग्रन्थ थे ? ___ संग्रह के नाम से अन्य ग्रन्थों के उद्धरण-सायण ने अपने वेदभाष्यों में अनेक स्थानों पर स्वविरचित जैमिनीयन्यायाधिकरणमाला के श्लोक 'संग्रह' के नाम से उदधत किये हैं। अतः संग्रह नाम से ५ उद्धत सब वचनों को व्याडिकृत संग्रह के वचन नहीं समझना चाहिए। संग्रह का लोप-भर्तृहरि वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड के अन्त में लिखता हे प्रायेण संक्षेपरुचीन अल्पविद्यापरिग्रहान् । संप्राप्य वैयाकरणान् संग्रहेऽस्तमुपागते ॥ ४८४ ॥ कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदर्शिना । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥ ४८५ ॥ इस उद्धरण से विदित होता है कि संग्रह जैसे महाकाय ग्रन्थ के दठन-पाठन का उच्छेद पतञ्जलि से पूर्व ही हो गया था, और शनैः १५ शनैः ग्रन्थ भी नष्ट हो रहे थे । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की स्वोपज्ञटीका में संग्रह के कुछ उद्धरण दिए हैं।' अतः उसके काल तक संग्रह ग्रन्थ पूर्ण वा खण्डित रूप में अवश्य विद्यमान था । भट्ट वाण ने भी हर्षचरित में संग्रह का उल्लेख किया है। उससे बाण के काल में उसकी सत्ता में अवश्य प्रमाणित होती है। परन्तु न्यासकार जैसे २. प्राचीन ग्रन्थकार द्वारा 'संग्रह' का उल्लेख न होना सन्देहजनक है। बाण और न्यासकार के काल में अधिक अन्तर नहीं है। हेलाराज ने प्रकीर्णकाण्ड की टीका में 'संग्रह' का एक लम्बा वचन उदधत किया है। यदि उसने वह उद्धरण किसी प्राचीन टीकाग्रन्थ से उदधत न किया हो, तो ११ वीं शताब्दी तक संग्रह ग्रन्थ के कछ अंशों की विद्य- २५ मानता स्वीकार करनी होगी। अन्य ग्रन्थ १. व्याकरण-व्याडि ने एक व्याकरणशास्त्र रचा था, उस में १. देखो पूर्व पृष्ठ ३०८-३०६, संख्या १-१० तक उद्धरण । २. सुकृतसंग्रहाभ्यासगुरवो लब्धसाधुशब्दा लोक इव व्याकरणेऽपि । उच्छ- ३. वास ३, पृष्ठ ८७। ३. देखो पूर्व पृष्ठ ३०६, संख्या १२ का उद्धरण । । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास दश अध्याय थे । उसका वर्णन हम 'पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित आचार्य' नामक प्रकरण में पूर्व पृष्ठ १४३ पर कर चुके हैं। . २. बलचरित-महाराज समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित के मुनिकवि-वर्णन के जो दो श्लोक पूर्व पृष्ठ ३०३ पर उद्धृत किये हैं, उनसे स्पष्ट है कि व्याडि प्राचार्य ने बल-बलराम-चरित का निर्माण करके भारत और व्यास को भी जीत लिया था। आचार्य व्याडि के काव्य के लिये देखिए इस ग्रन्थ का 'काव्यशास्त्र कार वैयाकरण कवि' शीर्षक अध्याय ३० ___ अत्रिदेव विद्यालंकार लिखते हैं-'मीमांसकजी...'व्याडि का समय भारतयुद्ध के पीछे २००-३०० वर्ष मानते हैं, जो अभी तक मान्य नहीं, क्योंकि काव्यरचना में अश्वघोष या कालिदास ही प्रथम माने जाते हैं........" प्रत्येक भारतीय इतिहास के ज्ञान से शून्य पाश्चात्त्य विद्वानों के प्रस्थापित मतों को आंख मीच कर लिखने वाला व्यक्ति ऐसी ही ऊट१५ पटांग बातें लिखेगा। ३. परिभाषा-पाठ-व्याडि ने किसी परिभाषापाठ का प्रवचन किया था, इसके अनेक प्रमाण विभिन्न ग्रन्थों में मिलते हैं। कई एक परिभाषापाठ के हस्तलेख व्याडि के नाम से निर्दिष्ट विभिन्न पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। व्याडि-प्रोक्त परिभाषापाठ के विषय में इस ग्रन्थ के अध्याय २६ में विस्तार से लिखा है । अतः इस विषय में वहीं देखें। ४. लिङ्गानुशासन-व्याडिकृत, लिङ्गानुशासन का उल्लेख वामन, हर्षवर्धन' तथा हेमचन्द्र के लिङ्गानुशासनों में मिलता है। इसका विशेष वर्णन हमने अध्याय २५ में किया है। ५ ५. विकृतिवल्ली-विकृतिवल्ली संज्ञक ऋग्वेद का एक परिशिष्ट उपलब्ध होता है। वह प्राचार्य व्याडिकृत माना जाता है । उसके १. आयुर्वेद का बृहद् इतिहास, पृष्ठ ४०० । २. यद् व्याडिप्रमुखः, पृष्ठ १, २। व्याडिप्रणीतमथ, पृष्ठ २० । ३. व्याडे: शङ्करचन्द्रयोर्वररुचे विद्यानिधेः पाणिनेः । कारिका ६७ ॥ ३० ४. हैम लिङ्गानुशासन विवरण, पृष्ठ १०३ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकार व्याडि पारम्भिक श्लोक में प्राचार्य शौनक को नमस्कार किया है। आर्षग्रन्थों में इस प्रकार नमस्कार की शैली उपलब्ध नही होती है। अतः . यह श्लोक या तो किसी शौनकभक्त ने मिलाया होगा, या यह ग्रन्थ अर्वाचीन व्याडिकृत होगा। ६. कोश-व्याडि के कोश के उद्धरण कोशग्रन्थों की अनेक ५ टीकाओं में उपलब्ध होते हैं। यह कोश विक्रम-समकालिक अर्वाचीन व्याडि का बनाया हुआ है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। इस का नाम उत्पलिनी था, ऐसा गुरुपद हालदार का मत है।' इस अध्याय में हमने महावैयाकरण व्याडि और उस के 'संग्रह' अन्य का संक्षिप्त वर्णन किया है । अगले अध्याय में अष्टाध्यायी के १० वार्तिककारों के विषय में लिखा जाएगा। २. पृष्ठ ३००, पं०-२४ । - १. पृष्ठ ३०२, टि० २। । ३. बृहत्त्रयी, पृष्ठ ६८ । .. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्याय अष्टाध्यायी के वार्त्तिककार ( २८०० विक्रम पूर्व ) ५ पाणिनीय अष्टाध्यायी पर अनेक आचार्यों ने वार्तिकपाठ रचे थे । उन के ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध हैं। बहुत से वार्तिककारों के नाम भी अज्ञात हैं । महाभाष्य में अनेक अज्ञातनामा आचार्यो के वचन 'अपर ग्राह' निर्देशपूर्वक उल्लिखित हैं । वे प्रायः पूर्वाचार्यों के वार्तिक हैं । पतञ्जलि ने कहीं-कहीं वार्तिककारों के नामों का निर्देश भी किया है, परन्तु बहुत स्वल्प । महाभाष्य में निम्न वार्तिक१० कारों के नाम उपलब्ध होते हैं 1 २. भारद्वाज । ५. बाडव । १. कात्य वा कात्यायन । ३. सुनाग । ४. क्रोष्टा । इनके अतिरिक्त निम्न दो वार्तिककारों के नाम महाभाष्य की टीकाओं से विदित होते हैं६. व्याघ्रभूति । १५ ७. वैयाघ्रपद्य । वार्तिक नाम से व्यवहृत ग्रन्थों के दो प्रकार - एक वार्तिक वे हैं, जिन की रचना सूत्रों पर हुई, और उन पर भाष्य रचे गये । इसी लिये कात्यायनीय वार्तिकों के लिये भाष्यसूत्र शब्द का व्यवहार होता है । यह प्रकार केवल व्याकरणशास्त्र में उपलब्ध होता है । दूसरे २० वार्तिक ग्रन्थ वे हैं, जिन की भाष्यों पर रचना की गई । जैसे न्यायभाष्यवार्तिक ।' २५ वार्तिक का लक्षण पराशर उपपुराण में वार्तिक का निम्न लक्षण लिखा हैउक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते । तं ग्रन्थं वातिकं प्राहुवासिकज्ञा मनीषिणः ॥' 1 १. इसी प्रकार शाबरभाष्य पर कुमारिल के श्लोक वार्तिक, तन्त्रवार्तिक । शंकर के बृहदारण्यक आदि भाष्यों पर सुरेश्वराचार्य के वार्तिक ग्रन्थ । २. तुलना करो - उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्ता वार्तिकम् । काव्यमीमांसा पृष्ठ ५ । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३१७ अर्थात्-जिस में उक्त अनुक्त दुरुक्त विषयों का विचार किया जाता है, उस ग्रन्थ को वार्तिकज मनीषी वार्तिक कहते हैं। इसी प्रकार हेमचन्द्र, राजशेखर, नागेश, शेषनारायण, हरदत्त प्रभृति विद्वानों ने भी वार्तिक के लक्षण लिखें हैं।' __ गोल्डस्टुकर, बेवर, वरनेल, एस० सी० चक्रवर्ती, रजनीकान्त गुप्त ५ कीलहान प्रभृति ने वार्तिक के उपर्युक्त लक्षण को ध्यान में रख कर वार्तिककार कात्यायन के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये गये हैं, वे सर्वथा भ्रामक है। यदि कात्यायन वस्तुतः पाणिनि का द्वेषी होता वा दोषदृष्टि-प्रधान होता तो न केवल पतञ्जलि उस के वार्तिकों पर महाभाष्य के रूप में व्याख्या लिखते और ना ही पाणिनीय १० सम्प्रदाय में वार्तिकाकार को त्रिमनि व्याकरणस्य त्रिमुनि व्याकरण के रूप में सम्मान ही मिलता । वस्तुतः पराशर उपपुराण का वार्तिक का लक्षण उन वार्तिक ग्रन्थों पर घटित होता है जो भाष्य ग्रन्थों पर वार्तिक लिखे गये । यथा-न्यायभाष्य पर उद्योतकर की न्यायवार्तिक, शाबरभाष्य पर १५ कुमारिल का श्लोकवातिक तथा तन्त्रवातिक आदि । ___ हरदत्त, शेष नारायण और नागेश आदि ने पराशर उपपुराण के । वार्तिक लक्षण को ही विना सोचे समझे लिखा है। नवीन वैयाकरणों का यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम् सिद्धान्त भी इन की अज्ञता को बोधित करता है। विष्णुधर्मोत्तर में वार्तिक का लक्षण इस प्रकार दर्शाया हैप्रयोजनं संशयनिर्णयौ च व्याख्याविशेषो गुरुलाघवं च।। कृतव्युदासोऽकृतशासनं च स वातिको धर्मगुणोऽष्टकश्च ॥ . १. इन लेखकों के वार्तिक लक्षणों के लिये देखिए 'व्याकरण वार्तिकएक समीक्षात्मक अध्यायन', पृष्ठ २२, २३ । . २५ २. इन ग्रन्थकारों के मतों के परिज्ञान के लिये 'व्याकरण वार्तिकएक समीक्षात्मक अध्यायन' का दूसरा अध्याय देखें। वहां इन विद्वानों के • मत की सम्यक् परीक्षा करके उन की भ्रान्तता भले प्रकार दर्शाई है । ३. काशिका २॥१॥१६॥ ४. व्याकरण वार्तिक-एक समीक्षात्मक अध्यायन, पृष्ठ २३ पर उद्धृत। ३० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ यह वार्तिक लक्षण अधिकांश रूप में कात्यायनीय वार्तिकों पर भी घटता है। वैयाकरणीय वार्तिक पद का अथ - वैयाकरण निकाय में 'व्याकरण शास्त्र की प्रवृत्ति के लिए वृत्ति ५ शब्द का व्यवहार होता है । यथा का पुनर्वृति: ? शास्त्रप्रवृत्तिः।' निरुक्त २ । १ के 'संशयवत्यो वृत्तयो भवन्ति' वाक्य में भी वृत्ति शब्द का अर्थ व्याकरणशास्त्र प्रवृत्ति ही है । . कात्यायन ने भी वृत्ति शब्द का यही अर्थ स्वीकार करके लिखा तत्रानुवृत्तिनिर्दशे सवर्णाग्रहणम् अनणत्वात्' । इस की व्याख्या में कैयट लिखता हैवृत्तिः शास्त्रस्य लक्ष्ये प्रवृत्तिः, तदनुगतो निर्देशोऽनुवृत्तिनिर्देशः । शास्त्रप्रवृत्ति की वास्तविक प्रतीति केवल सूत्रों से नहीं होती। १५ उस के लिए सूत्रव्याख्यान की अपेक्षा होती है । इसलिए सूत्रों के लघु व्याख्यान ग्रन्थ, जिन में पदच्छेद विभक्ति अनुवृत्ति उदाहरण प्रत्युदाहरण आदि द्वारा सूत्र के तात्पर्य को व्यक्त किया जाता है, को भी वृत्ति कहा जाता है । इसी दृष्टि से मूलभूत शब्दानुशासन के लिए वृत्तिसूत्र पद का व्यवहार होता है। २० वृत्ति शब्द के उक्त अर्थ के प्रकाश में 'वार्तिक' पद का अर्थ होगा वृत्तेाख्यानं वार्तिकम् । अर्थात् जो वृत्ति का व्याख्यान हो, वह 'वार्तिक' कहाता है। वैयाकरणीय वार्तिकों की सूक्ष्म विवेचना से भी यही बात व्यक्त होती है, कि उनकी की मीमांसा का आधारभूत विषय वृत्ति शास्त्र २५ प्रवृत्ति ग्रन्थ हैं। वार्तिकों के अन्य नाम वातिकों के लिए वैयाकरण वाङ् मय में वाक्य, व्याख्यान-सूत्र, १. महा० अ० १, प्रा० १ के अन्त में। २. महा० ११, अ इ उण् ३. द्र०--पूर्व पृष्ठ २४०, २४१ । सूत्रभाष्य। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३१६ भाष्यसूत्र, अनुतन्त्र, और अनुस्मृति शब्दों का व्यवहार होता है । यथा वाक्य-वातिकों के लिए स्वतन्त्ररूप से वाक्य पद का निर्देश कैयट के महाभाष्यप्रदीप में दो स्थानों पर, न्यास' तथा देवकृत दैव' में एक एक स्थान पर उपलब्ध होता हैं। हां, वार्तिककार के लिए ५ वाक्यकार पद का प्रयोग तो असकृत् उपलब्ध होता है।' वाक्य पद का अर्थ-वार्तिक के लिए वाक्य पद का प्रयोग सम्भवतः इसलिए होता है कि सूत्रों में क्रिया-पद का प्रयोग नहीं होता । अतः उन में वाक्यत्व लक्षण व्याप्त नहीं होता। वार्तिकों में प्रायः क्रिया-पद भी प्रयुक्त होता है। अतः उन में वाक्यत्व का लक्षण १० भले प्रकार उपपन्न हो जाता है, अर्थात् वातिक सूत्रवत् संक्षिप्त वचन न होकर वाक्यरूप विस्तृत हैं। व्याख्यान-सूत्र-व्याख्यानसूत्र पद का प्रयोग केवल कैयट के महाभाष्यप्रदीप में उपलब्ध होता है।' व्याख्यानसूत्र का अर्थ-जिन सूत्रों का व्याख्यान किया जाए, वह १५ 'व्याख्यानसूत्र' कहाते हैं। वार्तिकों पर भाष्यरूपी व्याख्यान ग्रन्थ लिखे गए, अतः इन्हें 'व्याख्यानसूत्र' कहा जाता है । ___ भाष्यसूत्र-भर्तृहरि ने महाभाष्यदीपिका" में, तथा स्वामी १. सूत्रव्याख्यानार्थत्वाद् वाक्यानाम् ....."। ६॥३॥३४॥ तुल्यविचारत्वाद् भाष्ये त्रिसूत्री पठित्वा वाक्यं पठितम्--सपुकानामिति । ८।३॥५॥ २० २. भाष्यं कात्यायनेन प्रणीतानां वाक्यानां विवरणं पतञ्जलिप्रणीतम् । पृष्ठ १। ३. उपलम्भे शपेक्यिात् । श्लोक १३१ । ४. द्रष्टव्य--अगला प्रकरण 'वातिककार वाक्यकार'। .. ५. एकतिङ् वाक्यम् । महा० २।१३१॥ ६. व्याख्यानसूत्रेषु लाघवाऽनादरात् । कयट, महाभाष्यप्रदीय ८।२।६॥ २५ इसी पर नागेश लिखता है—व्याख्यानसूत्रेष्विति वार्तिकेष्वित्यर्थः। ___७. भाष्यसूत्रे गुरुलाघवस्यानाश्रितत्वात्, लक्षणप्रपञ्चयोस्तु मूलसूत्रेऽप्याश्रयणाद् इहापि लक्षप्रपञ्चाभ्यां प्रवृतिः। हस्तलेख पृष्ठ ४८; पूना सं० पृष्ठ ३६ । न च तेषु भाष्यसूत्रेषु गुरुलघुभावं प्रति यत्न: कियते । तथा [हि]नहीदानीमाचार्याः सूत्राणि कृत्वा निर्वतयन्ति इति ॥ भाष्यसूत्राणि हि लक्षणप्र. ३० पञ्चाभ्यां समर्थतराणि । हस्तलेख पृष्ठ २८१, २०२; पूना सं० पृष्ठ २२३ । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास दयानन्द सरस्वती ने स्वीय ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में वार्तिकों के लिए 'भाष्यसूत्र' पद का प्रयोग किया है । हर्षवर्धनकृत लिङ्गानुशासन की टीका में वार्तिक' पद का अर्थ ही भाष्यसूत्र लिखा है।' भाष्यसूत्र पद का अर्थ-जिन सूत्रों पर भाष्यग्रन्थ लिखे जाएं, ५ अथवा जो भाष्यग्रन्थों के मूलभूत आधार वाक्यरूप सूत्र हों, उन्हें 'भाष्यसूत्र' कहा जाता है। अनुतन्त्र-भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञ टीका में वार्तिको को 'अनुतन्त्र' नाम से उद्धृत किया है ।' अनुस्मृति-सायण ने धातुवृत्ति में वार्तिकों के लिये 'अनुस्मृति' १० शब्द का व्यवहार किया है।' अनुतन्त्र और अनुस्मृति शब्दों में तन्त्र और स्मृति शब्द से पाणिनीय शास्त्र अभिप्रेत है । यतः वार्तिक उस का अनुगमन करते हैं, अतः उन के लिए अनुतन्त्र और अनुस्मृति शब्दों का व्यवहार होता वार्तिककार==वाक्यकार भर्तृहरि, कुमारिल, जिनेन्द्रबुद्धि, क्षीरस्वामी, हेलाराज, १. अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग इति भाष्यसूत्रम् । वैदिकलोकिकसामान्यविशेषनियम प्रकरण, पृष्ठ ३७६, तृ० सं० । २. 'वार्तिकं भाष्यसूत्राणि ।' नपुं० प्रकरण कारिका ४४, श पुस्तक का २० पाठान्तर। . ३. अनुतन्त्रे खल्वपि --सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे इति । पृष्ठ ३५, लाहौर संस्क०। ४. अनुस्मृती कारशब्दस्य स्थाने करशब्द: पठ्यते । पृष्ठ ३० । ५. एषा भाष्यकारस्य कल्पना, न वाक्यकारस्य । महाभाष्यदीपिका, हस्त० पृष्ठ १६२, पूना सं० पृष्ठ १२३ । यदेवोक्त वाक्यकारेण वृत्तिसम वायार्थ उपदेशः । महाभाष्यदीपिका, हस्त० पृष्ठ ११६, पूना सं० पृष्ठ १२ । २५ ६. धर्माय नियमं चाह वाक्यकारः प्रयोजनम् । तन्त्रवातिक ११३॥ पृष्ठ २७८, पूना सं०। ७. न्यास ६॥२॥११॥ ८. सौत्राश्चुलुम्पादयश्च वाक्यकारीया घातवः । क्षीरत० पृष्ठ ३२२ (हमारा संस्करण)। ६. वाक्यपदीय टीका काण्ड ३, पृष्ठ २, १२, २७ आदि, काशी संस्क० । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३२१ २ हेमचन्द्र,' हरदत्त, सायण' और नागेश प्रभृति विद्वान वार्तिककार के लिए वाक्यकार शब्द का प्रयोग करते हैं । कातन्त्र - दुर्गवृति की दुर्गटीका में वाक्यकार शब्द का प्रयोग वार्तिककार के लिए मिलता है । परन्तु वह वार्तिक पाणिनीय तन्त्र सबन्धी नहीं है । वाक्यकरण - हेमहंसगणि' श्री गुणरत्नसूरि वार्तिककारोक्त ५ धातु के लिए वाक्यकरणीय शब्द का प्रयोग करते हैं । वाक्यार्थविद् - भट्ट नारायण ने गोभिल गृह्यसूत्र ३ | १०१६, तथा ४।१।२१ के भाष्य में 'वाक्यार्थविद्' के नाम से दो वचन उद्धृत किए हैं। इन में से प्रथम कात्यायन विरचित कर्मप्रदीप ( ३|१|१६ ) में उपलब्ध होता है । कात्यायन ने लिए प्रयुक्त वाक्यकार पद के १० साथ वाक्यार्थविद् शब्द की तुलना करनी चाहिये । पदकार - सांख्यसप्तति की युक्तिदीपिका टीका में वार्तिककार के लिये पदकार शब्द का प्रयोग मिलता है ।" पदकार शब्द का प्रयोग महाभाष्यकार पतञ्जलि के लिए होता है, यह हम भाष्यकार १५ पतञ्जलि के प्रकरण में लिखेंगे। हमारा विचार है कि युक्तिदीपिका में उद्धृत वचन कात्यायन का वार्तिक नहीं है, महाभाष्यकार पतञ्जलि का वचन हैं । न्यासकार ने भी ३।२।१२ में पदकार के नाम से एक वचन १. सौत्राश्चुलुम्पादयश्च वाक्यकारीया घातव उदाहार्या: । हैम -- धातु- २० पारायण के अन्त में पृष्ठ ३५७ । २. यद्विस्मृतमदृष्टं वा सूत्रकारेण तत्स्फुटम् । वाक्यकारो ब्रवीत्येवं तेना दृष्टं च भाष्यकृत् ॥ पदमञ्जरी 'अथ शब्दा० ' भाग १, पृष्ठ ७ । ३. चुलुम्पादयो वाक्यकारीया: । धातुवृत्ति, पृष्ठ ४०२ । ४. वाक्यकारो वार्तिकमारभते । भाष्यप्रदीपोद्योत ६ । १।१३५॥ ५. तस्माद् वाक्यकार आह— बी श्रमविभाषा । मञ्जूषा पत्रिका वर्ष ४, अंक १, पृष्ठ १६ पर उद्धृत । ६. एव लौकिकवाक्यकरणीयानाम् | न्याय -संग्रह, पृष्ठ १२२ ॥ अथ वाक्यकरणीया: ...... वही, पृष्ठ १३० । ७. चुलुम्पादयो वाक्यकरणीयाः । क्रियारत्नसमुच्चय, पृष्ठ २८४ । ८. पदकारश्चाह----जातिवाचकत्वात् । पृष्ठ ७ । तुलना करो — दम्भेर्हल्• ग्रहणस्य जातिवाचकत्वात् । वार्तिक १।२।१० ॥ २५ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उद्धृत किया है। वह न पूर्णतया वार्तिकपाठ से मिलता है, न भाष्यपाठ से। १. कात्यायन पाणिनीय व्याकरण पर जितने वातिक लिखे गये, उन में ५ कात्यायन का वार्तिकपाठ ही प्रसिद्ध है। महाभाष्य में मुख्यतया कात्यायन के वार्तिकों का व्याख्यान है। पतञ्जलि ने महाभाष्य में दो स्थानों पर कात्यायन को स्पष्ट शब्दों में 'वात्तिककार' कहा है।' पर्याय–पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकाण्डशेष कोष में कात्यायन के १ कात्य, २ कात्यायन, ३ पुनर्वसु, ४ मेधाजित् और ५ वररुचि १० नामान्तर लिखे हैं। १. कात्य-यह गोत्रप्रत्ययान्त नाम है। महाभाष्य ३।२।३ में वार्तिककार के लिए इस नाम का उल्लेख मिलता है। बौधायन श्रौत ७।४ में भी 'कात्य' स्मृत है । . २. कात्यायन-यह युवप्रत्ययान्त नाम है। पूज्य व्यक्ति के १५ सम्मान के लिये उसे युवप्रत्ययान्त नाम से स्मरण करते हैं। महाभाष्य ३।२।११८ में इस नाम का उल्लेख है । ३. पुनर्दसु-यह नाक्षत्र नाम है । भाषावृत्ति ४।३।३४ में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय लिखा है। महाभाष्य ११।६३ में 'पूनर्वसू माणवक' नाम मिलता है। परन्तु यह कात्यायन के लिये नहीं है । २०. ४. मेधाजित्-इसका प्रयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया । ५. वररुचि-महाभाष्य ४।३।१०१ में वाररुच काव्य का वर्णन १. न स्म पुराद्यतन इति ब्रुवता कात्यायनेनेह । स्मादिविधिः पुरान्तो यद्यविशेषेण भवति, किं बार्तिककारः प्रतिषेधेन करोति-न स्म पुराद्यतन इति ३।२।११८॥ सिद्धत्येवं यत्त्विदं वार्तिककार: पठति-'विप्रतिषेधात्तु टापो २५ बलीयस्त्वम्' इति एतदसंगृहीत भवति । ७।१।१॥ २. मेधाजित् कात्यायनश्च सः । पुनर्वसुर्वररुचिः । ३. प्रोवाच भगवान् कात्यस्तेनासिद्धिर्यणस्तु ते । ४. वृद्धस्य च पूजायाम् । महाभाष्य वार्तिक ४।१।१६३॥ ५. देखो, यही पृष्ठ, ३२२, टि० १। ६. पुनर्वसुर्वररुचिः। ३० ७. तिष्यश्च माणवकः, पुनर्वसू च माणवको तिष्यपुनर्वसवः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार .. ३२३ है।' महाराज समुद्रगुप्त ने कृष्णचरित में वररुचि को स्वर्गारोहण काव्य का कर्ता कहा है। उस के अनुसार यह वररुचि वार्तिककार कात्यायन ही हैं। कथासरित्सागर और बृहत्कथामञ्जरी में कात्यायन का श्रुतधर नाम भी मिलता है । हमें संख्या ३, ४ के नामों में सन्देह है । कदाचित् ये नाम उत्तरकालीन कात्यायन वररुचि के रहे होंगे । वंश-कात्य पद गोत्र प्रत्ययान्त है । इस से इतना स्पष्ट है कि कात्य वा कात्यायन का मूल पुरुष 'कत' है। अनेक कात्यायन-प्राचीन वाङमय में अनेक कात्यायनों का १० उल्लेख मिलता है । एक कात्यायन कौशिक है, दूसरा आङ्गिरस है, तीसरा भार्गव है, और चौथा द्वयामुष्यायण है। चरक सूत्रस्थान १२१० में एक कात्यायन स्मत है। यह शालाक्य तन्त्र का रचयिता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र समयाचारिक प्रकरण अधि० ५ ० ५ में भी एक कात्यायन स्मृत है । याज्ञवल्क्य-पुत्र कात्यायन-स्कन्द पुराण नागर खण्ड अ० १३० श्लोक ७१ के अनुसार एक कात्यायन याज्ञवल्क्य का पुत्र है। इसने वेदसूत्र की रचना की थी। स्कन्द में ही इस कात्यायन को यज्ञविद्याविचक्षण भी कहा है, और उसके वररुचि नामक पुत्र का उल्लेख किया है। याज्ञवल्क्य-पुत्र कात्यायन ने ही श्रौत, गृह्य, धर्म और २० शुक्लयजुःपार्षत् आदि सूत्रग्रन्थों की रचना की है। यह कात्यायन कौशिक पक्ष का है। इसने वाजसनेयों की प्रादित्यायन के छोड़कर ५ १. वाररुचं काव्यम् । २. द्र० आगे स्वर्गारोहणकाव्य के प्रसङ्ग में उद्धरिव्यमाण श्लोक । ३. कथासरित्सागर लम्बक १, तरङ्ग २, श्लोक ६६-७० । ४. अष्टाङ्गहृदय, वाग्भट्ट-विमर्श, पृष्ठ १७ । .. ५. अयमुच्चः सिञ्चतीति कात्यायनः । आदित: अ० ६५ । '६. कात्यायनसुतं प्राप्य वेदसूत्रस्य कारकम् । ७. कात्यायनाभिधं च यज्ञविद्याविचक्षणम् । पुत्रो वररुचिर्यस्य बभूव गुणसागरः॥ अ० १३१, श्लोक ४८, ४६ । । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास आङ्गिरसायन' स्वीकार कर लिया था । वह स्वयं प्रतिज्ञापरिशिष्ट में लिखता है - ३० ३२४ एवं वाजसनेयानामङ्गिरसां वर्णानां सोऽहं कौशिकपक्षः शिष्यः' पार्षदः पञ्चदशसु तत्तच्छाखासु साधीयक्रमः हमारा विचार है कि याज्ञवल्क्य का पौत्र, कात्यायन का पुत्र वररुचि कात्यायन प्रष्टाध्यायी का वार्तिककार है । इसमें निम्न हेतु हैं१. काशिकाकार ने 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु " सूत्र पर आख्यानों के आधार पर शतपथ ब्राह्मण को अचिरकालकृत लिखा है । परन्तु वार्तिककार ने 'याज्ञवल्क्या दिभ्यः प्रतिषेधस्तुल्यकालत्वात्" में याज्ञवल्क्यप्रोक्त शतपथ ब्राह्मण को अन्य ब्राह्मणों का समकालिक कहा है। इससे प्रतीत होता कि वार्तिककार का याज्ञवल्क्य के साथ १५ कोई विशेष सम्बन्ध था । अत एव उसने तुल्यकालत्वहेतु से शतपथ को पुराणोक्त सिद्ध करने का यत्न किया है । अन्यथा पुराणप्रोक्त होने पर भी उक्त हेतु निर्देश के विना 'याज्ञवल्क्यादिः प्रतिषेधः ' इतने वार्तिक से ही कार्य चल सकता था । २० २. महाभाष्य से विदित होता है कि कात्यायन दाक्षिणात्य था । " १. वाजसनेर्थों के दो अयन हैं— द्वयान्येव यजूंषि, आदित्यानामङ्गिरसानां च । प्रतिज्ञासूत्र (श्रोत-परिशिष्ट ) कण्डिका ६, सूत्र ४ । इन दोनों का निर्देश माध्यन्दिन शतपथ ४|४|१५ १६, २० में भी मिलता है । २५ २. प्रतिज्ञापरिष्ट के व्याख्याता अण्णा शास्त्री ने 'शिष्य' पद का सम्बन्ध भी कौशिक के साथ लगाया है, परन्तु हमारा विचार है कि शिष्य पद का सम्बन्ध 'आङ्गिरसानां वर्णानां' के साथ है। उन्होंने याज्ञवल्क्यचरित ( पृष्ठ ५५) में याज्ञवल्क्यपुत्र कात्यायन से भिन्नता दर्शाने के लिए प्रवरभेद का निर्देश किया है, परन्तु वह ठीक नहीं । श्राङ्गिरसायन को स्वीकार कर लेने पर श्राङ्गिरस आदि भिन्न प्रवरों का निर्देश युक्त है । यही कात्यायन शुक्ल यजुर्वेद के आङ्गिरसायन की कात्यायन शाखाका प्रवतक है । कात्यायन शाखा का प्रचार विन्ध्य के दक्षिण में महाराष्ट्र आदि प्रदेश में रहा है । ३. प्रतिज्ञापरिशिष्ट, अण्णाशास्त्री द्वारा प्रकाशित, कण्डिका ३१ सूत्र ५ । ४. याज्ञवल्क्यचरित पृष्ठ ८७ से आगे लगा 'शुक्लयजुः' शाखा चित्रपट | ५. अष्टा० ४ | ३ | १०५ ।। ६. महाभाष्य ४ |२| ६६ ॥ ७. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः । यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा लौकिकवैदिकेषु प्रयञ्जते । अ० १, पा० १ ० १ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्त्तिककार ३२५. कात्यायत शाखा का अध्ययन भी प्रायः महाराष्ट्र में रहा है । यह हम पूर्व लिख चुके हैं । ३. शुक्लयजुः प्रातिशाख्य के अनेक सूत्र कात्यायनीय वार्तिकों से समानता रखते हैं । यह समानता भी इनके पारस्परिक सम्बन्ध को पुष्ट करती है । ४, वाजसनेय प्रातिशाख्य में एक सूत्र है - पूर्वो द्वन्द्वेष्ववायुषु ( ३।१२७) । इस में प्रवायुषु पद द्वन्द्वेषु का विशेषण है । इसका अभिप्राय यह है कि जिस द्वन्द्व में वायु पूर्वपद में या उत्तरपद में हो, उसके पूर्वपद को दीर्घ नहीं होता । जैसे - इन्द्रवायुभ्याम् त्वा । वाजसनेय संहिता में पूर्वपदस्थ वायु का उदाहरण नहीं मिलता, परन्तु १० मै० सं० ३ | १५ | ११ में वायुसवितृभ्याम् में भी दीर्घत्वाभाव देखा जाता है । वार्तिककार ने भी वाजसनेय प्रातिशाख्य के अनुसार उभयत्र वायोः प्रतिषेधो वक्तव्य : ( महा० ६ | ३ |२६ ) कहा है । परन्तु महाभाष्य में अग्निवायू वाय्वग्नी जो उदाहरण दर्शाये हैं वहां उत्तरपदस्थ वायु वाला उदाहरण तो ठीक है, परन्तु वाय्वग्नी में यदि वायु १५ दीर्घ हो भी जाता है तब भी सन्धि का रूप यही होगा । इस से स्पष्ट है कि प्रातिशाख्य सूत्र के अनुकरण पर ही वार्तिक रचा गया है, परन्तु जैसे वहां वायु पूर्वपद का उदाहरण नहीं मिलता, इसी प्रकार भाष्यस्थ उदाहरण में भी प्रतिषेध का कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । उभयत्र पूर्वपदस्थ वायु को दीर्घ का प्रतिषेध कहना समान २० रूप से व्यर्थ है। हां, पूर्व प्रदर्शित उदाहरणान्तर 'वायुसवितृभ्याम्' में दोनों की उपयोगिता हो सकती है । ५. वार्तिककार ने सिद्धमेड : सस्थानत्वात् वार्तिक द्वारा इ उ और ए ओ का समान स्थान ( तालु प्रौर प्रोष्ठ ) मानकर ए ओ के ह्रस्वादेश में इ उ का स्वतः प्राप्त होना दर्शाया है । शुक्लयजुः प्राति- २५ शांख्य के इचशेयास्तालौ, उवोपोपध्मा श्रोष्ठे (१।६६,७०) सूत्रों में 'ए' का तालु और 'प्रो' का प्रोष्ठ स्थान लिखा है । इस से भी दोनों का एकत्व सिद्ध होता है । ६. पाणिनि जहां समासाभाव अथवा एकपदत्वाभाव अर्थात् स्वतन्त्र अनेक पद मान कर कार्य का विधान करता है, वहां वार्तिक- ३० कार शुक्लयजुः प्रातिशाख्य के समान समासवत् अथवा एकपदवत् मानकर कार्य का विधान करता हैं । यथा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ क-पाणिनि तिङि चोदात्तवति (१७१) में गति और तिङ्पदों को पृथक्-पृथक् दो पद मानकर गति को अनुदात्त विधान करता है, वहां कात्यायन उदात्तगतिमता च तिङा' (२।२।१८) वार्तिक द्वारा समास का विधान करता है। ___ख-पाणिनि सर्वस्य द्वे, अनुदात्तं च (८।१।१-२) द्वारा द्विवचन में दोनों को स्वतन्त्र पद मानता है, परन्तु कात्यायन अव्यय के द्विर्वचन में अव्ययमव्यथेन' (२।२।१८) वार्तिक द्वारा समास का विधान करता है। ग-पाणिनि इव शब्द के प्रयोग में दोनों को स्वतन्त्र पद मानता १० है और इव को चादयोऽनुदात्ताः नियम के अनुसार अनुदात्त स्वीकार करता है, परन्तु कात्यायन इवेन विभक्तयलोपः पूर्वपदप्रकुतिस्वरत्वं च (२।२।१८) वार्तिक द्वारा उसके समास का विधान करता है और पूर्वपदप्रकृतिस्वर का विधान करके इव को अनुदात्तं पदमेकवर्जम (६।१।१५८) नियम से अनुदात्त मानता है। शुक्लयजुःप्रातिशाख्य में उदात्ततिङ्युक्त गति (उपसर्ग), द्विवचन और इव पद के प्रयोग को समासरूप मानकर पदपाठ में अन्य समासों के समान अवग्रह से निर्देश करने का विधान किया है। यथा अनुदात्तोपसर्गे चाख्याते। ५।१६।। उपस्तृणन्तीत्युप स्तृणन्ति । अवधावतीत्यव धावति । ___ इवकारानेडितायनेषु च । ५ । १८॥ सुचीवेतिनुचि इव । प्रतिप्रप्र। ५. सायण ने अपने ऋग्वेद-भाष्य की भूमिका में स्पष्ट रूप से वार्तिककार का नाम वररुचि लिखा है। डा० वर्मा के मिथ्या आक्षेप और उनका उत्तर २५ श्री डा. सत्यकाम वर्मा ने अपने 'संस्कृत व्याकरण का उदभव १. किन्ही संस्करणों में यह वार्तिक नहीं मिलता । वहां इसका व्याख्यान भाग-'उदात्तवता तिडा गतिमता चाव्ययं समस्यत इति वक्तव्यम्' विद्यमान है। २. इस विषय में कीलहान संस्क० भाग १, पृष्ठ ४१७ पर टिप्पणी देखें (तृ० सं०)। ३० ३. तस्यैतस्य व्याकरणस्य प्रयोजनविशेषो वररुचिना वातिककारेण दर्शितः रक्षोहागमलध्वसन्देहा: प्रयोजनम्। षडङ्ग प्रकरण, पृष्ठ २५, पूना संस्करण । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३२७ और विकास' नामक ग्रन्थ (जो प्रायः पाश्चात्य विद्वानों के मतों का संग्रह रूप है) में, वार्तिककार कात्यायन के प्रसङ्ग में हमने जो सप्रमाण स्थापनाएं की हैं, उनका सप्रमाण उत्तर न देकर पाश्चात्य मत के प्रवाह में बहते हुए हमारे लेख पर जो मिथ्या आक्षेप किये हैं, उनका उत्तर भी हम यहां प्रसङ्गवश देना उचित समझते हैं । ५ वर्मा जी लिखते हैं (क) मीमांसक का यह अनुमान कि वाररुच निरुक्त-समुच्चय का लेखक भी वररुचि कात्यायन था। पहली धारणा (अनेक कात्यायन रूप) का फिर भी एक बड़ा आधार है, जब कि दूसरी धारणा (कात्यायन के नाम से निर्दिष्ट सभी ग्रन्थ एक ही व्यक्ति के हैं) का १० उतना भी आधार नहीं। कारण यह कि कि निरुक्त-समुच्चय का कर्ता अपने संरक्षक राजा और अपने विषय में जो परिचय देता है उस से वह पतञ्जलि से परवर्ती सिद्ध होता है । (पृष्ठ १८३) उत्तर-वर्मा जी का लेख मिथ्या है । मैंने कहीं पर भी निरुक्तसमुच्चयकार वररुचि कात्यायन को वार्तिककार कात्यायन नहीं १५ कहा। इस के विपरीत वत्तिकार वररुचि के प्रसङ्ग में मैंने इसे विक्रम समकालिक ही माना है। मैं स्वयं अनेक कात्यायन मानता हूं और उन का निर्देश भी मैंने इसी ग्रन्थ में (पृष्ठ ३२३) किया है । तब यह लिखना कि मैं निरुक्त-समुच्चयकार और वातिककार को एक मानता हूं, नितान्त मिथ्या है। किसी लेखक के लेख को मिथ्या रूप से उद्धृत २० करके उसका खण्डन करना विद्वानों के लिये शोभास्पद नहीं है । ___ उक्त उद्धरण का उत्तरार्ध भी मिथ्या है । निरुक्तसमुच्चयकार ने अपने ग्रन्थ में कहीं भी अपने संरक्षक का उल्लेख नहीं किया, और ना ही अपना परिचय दिया है। निरुक्तसमुच्चयकार ने तो केवल इतना ही लिखा है २५ युष्मत्प्रसादादहं क्षपितसमस्तकल्मषः सर्वसम्पत्संगतो धर्मानुष्ठानयोग्यश्च जातः । निरुक्तसमु० पृष्ठ ५१, संस्क० २ ॥ इस के अतिरिक्त निरुक्तसमुच्चय में कोई भी संकेत नहीं है । हम ने वृत्तिकार वररुचि (विक्रम समकालिक) के प्रसङ्ग में इस वचन को उद्धृत करके 'यह किसी राजा का धर्माधिकारी था', इतना ही ३० लिखा है । हां, इस अर्वाचीन वररुचि के अन्य ग्रन्थों के अन्त्यवचनों Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के साथ तुलना करके हमने इसे विक्रम-समकालिक माना है। (ख) क्या तब निरुक्तसमुच्चय का कर्ता वररुचि, जिसे मीमांसक कात्यायन भी कहते हैं, इस वार्तिककार से भिन्न ठहर सकता हैं ? जब कि दोनों का नाम और वंश मिलते हैं। पर वहां वे उनके बीच सदियों का व्यवधान मानते हैं । (पृष्ठ १८४) उत्तर-वर्मा जी को तो यथाकथंचित् यह सिद्ध करना है कि वार्तिककार कात्यायन उतना प्राचीन व्यक्ति नहीं है, जितना भारतीय वाङमय से सिद्ध होता है । वास्तविक बात यह है कि इतिहास में केवल नाम और वंश के सादृश्य से न तो एकता सिद्ध हो १० सकती है, और न पार्थक्य का निषेध किया जा सकता है। यह तो पाश्चात्य मतानुयायियों की ही हठधर्मिता है कि नामसादृश्य मात्र से विभिन्न व्यक्तियों को एक बना देते हैं । बौद्ध ग्रन्थों में आश्वलायन आदि गोत्रनामवाले व्यक्तियों का उल्लेख देख कर उन्होंने इन्हें ही आश्वलायन आदि शाखा का प्रवक्ता मान लिया। उनका तो यह १५ दुःसाहस सकारण है । उन्हें तो प्राचीन आर्ष वाङमय को भी बलात् खींच कर अधिक से अधिक १००० ईसा पूर्व तक लाना है। परन्तु वर्मा जी के पाश्चात्य मत के अन्धानुकरण का प्रयोजन विचारणीय है। एक प्राचीन वररुचि कात्यायन का पुत्र है, और वह कात्यायन याज्ञवल्क्य का पुत्र है, यह मैंने कल्पना से नहीं लिखा (प्रमाण ऊपर २० देखें)। हां, याज्ञवल्क्य पौत्र कात्यायन वररुचि को वार्तिककार सिद्ध करने के लिए मैंने जो अनेक प्रमाण दिये हैं, उन की वर्मा जी ने कुछ भी समीक्षा न करके 'तब क्या यह अनिवार्य है कि इन्हें पिता-पुत्र ही स्वीकार किया जाये ? यह सम्बन्ध तीन चार पीढ़ी के अन्तर से क्यों नहीं ?' (पृष्ठ १८४), इतना ही लिख कर सन्तोष २५ किया है । इतिहास में कल्पना का कोई स्थान नहीं । भारतीय इतिहास को जानबूझ कर भ्रष्ट करने के लिये कल्पना करने का दषित उपक्रम तो पाश्चात्य विद्वानों ने किया है । वर्मा जी भी इन्हीं के अनुगामी हैं। (ग) इस से पूर्व वे (मीमांसक) स्वयं ही वार्तिककार और ३० प्रातिशाख्य के कर्ता को एक ही बताकर उसे पाणिनि का समकालिक सिद्ध कर चुके हैं । पदे पदे मत बदलने की अपेक्षा यह अधिक उचित होगा कि उक्त दोनों को अलग-अलग ही मानें। (पृष्ठ १८४) Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३२६ उत्तर-हमें वर्मा जी से यह आशा नहीं थी कि वे किसी की समीक्षा करते हुए लेखक के अभिप्राय वा कथन को मिथ्यारूप से उद्धृत करेंगे। मैंने कहीं भी वातिककार और प्रातिशाख्य के कर्ता को एक नहीं लिखा । मैंने तो स्पष्ट लिखा है कि वार्तिककार वररुचि कात्यायन (कात्यायन का पुत्र) है, और प्रातिशाख्यकार कात्यायन ५ याज्ञवल्क्य का पुत्र है। यह तो वर्मा जी का ही दोष है, जो पृथक्पृथक् प्रसंगों के लेखों को लेखक के अभिप्राय के विरुद्ध इकट्ठा करके उदधत करते हैं। अतः पदे पदे मत बदलने का दोष मेरे पर थोपना निन्तान्त मिथ्या है। (घ) पाश्चर्य इस बात का है कि अन्तिम बात को कहते हुए १० वेद-प्रवक्ता, परिशिष्ट-प्रवक्ता, वातिककार और प्रातिशाख्यकार आदि के रूप में प्रसिद्ध व्यक्तियों को एक ही व्यक्ति मान बैठे हैं । पृष्ठ १८४, १८५ । उत्तर-वर्मा जी का यह लेख भी मिथ्या हो है। मैंने वार्तिककार और प्रातिशाख्यकार को एक लिखा ही नहीं। दोनों में क्रमशः पुत्र- १५ पिता का सम्बन्ध दर्शाया है। अब रही अनेक ग्रन्थों के प्रवक्ता समान नामधारी अनेक व्यक्ति हैं वा एक ही व्यक्ति । इस विषय में दोनों ही बातें हो सकती हैंसमान नामधारो भिन्न-भिन्न व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक भी। इस का निर्णय तो ऐतिहासिक तथ्य पर निर्भर है । पाश्चात्य २० विद्वानों ने मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, सूत्रकाल आदि विविध कालों की जो कल्पना की है, वह भारतीय अनविच्छिन्न इतिहास के विपरीत है। हम प्रथम अध्याय में ही जैमिनि और वात्स्यायन सदश प्राप्त पुरुषों के वचनों के आधार पर लिख चुके हैं कि मन्त्र-ब्राह्मण-धर्मसूत्र एवं आयुर्वेद के प्रवक्ता प्रायः एक हो व्यक्ति थे। बाधक प्रमाण उपस्थित २५ न होने पर इन प्राप्त पुरुषों के वचनों को प्रमाण मान कर यदि कात्यायन-संहिता कात्यायन-शतपथ कात्यायन-श्रौत-गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य के कर्ता को एक माना है, तो कुछ अनुचित नहीं किया है। क्योंकि भारतीय प्राचीन वाङमय के प्रमाणों से इस तथ्य को ही पूष्टि होती है । श्री वर्मा जो पाश्चात्य विद्वानों पर अन्ध विश्वास ३० करके भारतीय ऋषि-मुनि-प्राचार्यों को 'झूठा' मान सकते हैं, पर १. पूर्व पृष्ठ २१-२४। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हम अपने नीरजस्तम ऋषियों को झूठा मानने को तैयार नहीं। समस्त प्राचीन आर्ष वाङ मय उन्हीं नीरजस्तम ऋचि-मुनि-प्राचार्यों द्वारा प्रोक्त है, जिनके विषय में आयुर्वेदीय चरक संहिता में कहा हैप्राप्तास्तावत् रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्तपोजानबलेन ये । . येषां त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतं सदा ॥ प्राप्ता; शिष्टा विबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम् । सत्यम्, वक्ष्यन्ति ते कस्मादसत्यं नीरजस्तमाः ॥' इसी प्रकार श्री वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ में अन्यत्र भी कई स्थानों १० पर हमारे लेख को मिथ्या रूप में उद्धृत करके समालोचना की है। उन में से कुछ आवश्यक अंशों का निर्देश आगे तत्तत् प्रकरण में करेंगे। ___ पाणिनि का शिष्य-पूर्व पृष्ठ २०१ पर लिख चुके हैं । कि नागेश भट्ट के मतानुसार वार्तिककार कात्यायन पाणिनि का साक्षात् शिष्य है। १५ देश-महाभाष्य पस्पशाह्निक में 'यथा लौकिकवैदिकेषु' वार्तिक की व्याख्या करते हुए लिखा है प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः । यथा लोके वेदे च प्रयोक्तव्ये यथा लौकिकवैदिकेषु प्रयुञ्जते । इससे विदित होता है कि वात्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य था । २० कथासरित्सागर में वात्तिककार कात्यायन को कौशाम्बी का निवासी लिखा है, वह प्रमाणमूत पतञ्ज ल के ववन से विरुद्ध होने के कारण अप्रमाण है। सम्भव है उत्तरकालीन वररुचि कात्यायन कौशाम्बी का निवासी रहा हो । नाम-सादृश्य से कथासरित्सागर के निर्देश में भूल हुई होगी। २५ स्कन्द पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य का प्राश्रम आनर्त=गुजरात में था। सम्भव है याज्ञवल्क्य के मिथिला चले जाने पर उसका पुत्र १. चरक, सूत्रस्थान ११ । १८, १६ ॥ २. महाभाष्य अ० १, पाद १ प्रा० १॥ ३. द्र०-१। ३ तथा ४ ॥ ४. नागर खण्ड १७४१५५॥ ५. इस लेख पर डा० वर्मा ने आपत्ति की है-'मिथिलि की यह जिद्द ३०. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३३१ कात्यायन महाराष्ट्र की ओर चला गया हो । और उसका पौत्र वात्तिककार वररुचि कात्यायन दाक्षिण में ही रहता रहा हो। अन्य प्रमाण-वात्तिककार के दाक्षिणात्य होने में एक अन्य प्रमाण भी है। हमने पाणिनीय सूत्रपाठ धातुपाठ और उणादिपाठों के प्रकरण में लिखा है कि इन ग्रन्थों के दाक्षिणात्य औदीच्य और ५ प्राच्य तीन प्रकार के पाठ थे। इनमें प्रथम दो पाठ लघुपाठ हैं, और प्राच्य पाठ वृद्धपाठ है । कात्यायनीय वार्तिक अष्टाध्यायी के लघुपाठ पर ही लिखे गये हैं, यह वात्तिकपाठ की पाणिनीय सूत्रपाठ के लघुवृद्ध पाठों की तुलना से स्पष्ट है । यद्यपि दाक्षिणात्य और प्रौदीच्य दोनों पाठ लघु हैं, तथापि दोनों में कुछ अन्तर भी है । वात्तिकपाठ के १० अष्टाध्यायी के लघुपाठ पर आश्रित होने से भी वात्तिककार का दाक्षिणात्यत्व सुतरां सिद्ध है। डा० सत्यकाम वर्मा ने बेबर मैक्समूलर और गोल्डस्टुकर के मतानुसार उसे प्राग्देशीय माना है। वर्मा जी ने भाष्यकार के कथन की संगति लगाने के लिये कात्यायन गोत्र को दाक्षिणात्य स्वीकार १५ करके भी वात्तिककार को प्राच्य मानने का प्राग्रह किया है। हम बेबर आदि के साध्यसम हेत्वाभासों के आधार पर उन्हें प्राच्य माने या भाष्यकार के कथन को प्रामाणिक माने, यह विचारणीय है। यतः वर्मा जी का एतद्ग्रन्थ-विषयक सारा चिन्तन स्व-ज्ञान के अभाव में पाश्चात्य मत पर आश्रित है, अतः वे उनके मत को छोड़ने में असमर्थ २० क्यों ? वैदेह जनक के साथ उपनिषद् और आरण्यककार याज्ञवल्क्य के सान्निध्य के कारण ? तो क्या वे यह मानते हैं कि वैदेह जनक भी महाभारत से कुछ पहले ही हुए ? क्या सचमुच याज्ञवल्क्य अनेक नहीं हुए ? (सं० व्या० का उद्भव और विकास, पृष्ठ १८६)' । बलिहारी है वर्मा जी के ज्ञान की ! यदि भारतीय इतिहास थोड़ा सा भी पढ़ा होता, तो उन्हें ज्ञात हो जाता कि 'जनक' नाम एक व्यक्ति का नहीं है, कुल का नाम है, और वैदेह देशज विशेषण है। उन्होंने सम्भवत: उपनिषद् में उल्लिखित वैदेह जनक को सीता के पिता ही समझा है । उन्हें मालूम होना चाहिए कि उपनिषत् में श्रुत वैदेह जनक का स्वनाम निमि था और सीता के पिता का नाम सीरध्वज था। ऐतिहासिक तथ्य का ज्ञान न होने से उलटे याज्ञवल्क्य की अनेकता मान बैठे । जबकि सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में दूसरे याज्ञवल्क्य का कहीं भी कोई संकेत नहीं है। . Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कात्यायन की प्रामाणिकता - पतञ्जलि ने कात्य ( कात्यायन ) के लिये 'भगवान्' शब्द का प्रयोग किया है।' इस से वार्तिककार की प्रामाणिकता स्पष्ट है । न्यासकार भी लिखता है - ३३२ एतच्च कात्यायनप्रभृतीनां प्रमाणभूतानां वचनाद् विज्ञायते । ' कात्यायनवचनप्रामाण्याद् घातुत्वं वेदितव्यम् । कात्यायन और शबरस्वामी - ऐसे प्रमाणभूत आचार्य के विषय में मीमांसाभाष्यकार शबरस्वामी लिखता है... सद्वादित्वात् पाणिनेवचनं प्रमाणम्, श्रसद्वादित्वान्न कात्यायनस्य । * शबरस्वामी का कात्यायन के लिये “प्रसद्वादी" शब्द का प्रयोग १० करना चिन्त्य है । ३० शबर के दोषारोपण का कारण - शबर ने वार्त्तिककार कात्यायन के लिये जो 'असद्वादी' विशेषण का प्रयोग किया है, उसका कारण सम्भवतः यह है कि शबर ने कात्यायन के प्रकृत वार्तिक का अभिप्राय नहीं समझा । अथवा दूसरा कारण यह हो सकता है कि महाभाष्य १५ ( १ । १ । ७३ ) में जिह्वाकात्य पद का निर्देश मिलता है, और न्यासकार श्रादि इसका अर्थ जिह्वाचपलः कात्यः करते हैं । जैन शाकटायन २ । ४ । २ की व्याख्या में भी यही अर्थ लिखा है । संभवत: इस चापल्य से प्रभावित होकर शबर ने कात्यायन को प्रसद्वादी कहा हो । कात्यायन का जिह्वाचापल्य = आवश्यकता से अधिक कहने का २० स्वभाव उसके वार्तिकों से भी व्यक्त होता है । काल यदि हमारा पूर्व विचार ठीक हो, अर्थात् वातिककार याज्ञवल्क्य का पौत्र हो, तो वार्तिककार पाणिनि से कुछ उत्तरवर्ती होगा । यदि वह पाणिनि का साक्षात् शिष्य हो, जैसा कि पूर्व लिख चुके हैं, तो वह पाणिनि का समकालिक होगा । अतः वार्तिककार कात्यायन का काल विक्रम से लगभग २६०० - ३००० वर्ष पूर्व है । २५ १. प्रोवाच भगवान् कात्यः ३ २०३ ॥ २. न्यास ६ । ३ ५०, भाग २, पृष्ठ ४५३, ४५४ ॥ ३. न्यास ३|१|३५, भाग १, पृष्ठ ५२७ । ४. मीमांसाभाष्य १०|८|४|| Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार आधुनिक ऐतिहासिकों की भूल-अनेक आधुनिक ऐतिहासिक 'वहीनरस्येद् वचनम्" वार्तिक में 'वहीनर' शब्द का प्रयोग देखकर वातिककार कात्यायन को उदयनपुत्र वहीनर से अर्वाचीन मानते हैं, परन्तु यह मत सर्वथा अयुक्त है । वैहिनरि अत्यन्त प्राचीन व्यक्ति हैं। इसका उल्लेख बौधयन श्रौतसूत्र के प्रवराध्याय (३) में मिलता ५ है । वहां उसे भृगवंश्य कहा है । मत्स्य पुराण १६४ । १६ में भी भृगुवंश्य वैहिनरि का उल्लेख है । वहां उसका अपना नाम 'विरूपाक्ष' लिखा है । महाभाष्यकार ने उपर्युक्त वार्तिक की व्याख्या में लिखा है कुणरवाडवस्त्वाह नैष वहीनरः कर्ताह ? विहीनर एषः । १० विहीनो नरः कामभोगाभ्याम् । विहीनरस्यापत्यं वैहोनरिः। अर्थात् वहीनरि प्रयोग वहीनर से नहीं बना, इसकी प्रकृति विहीनर है। कामभोग से रहित =विहीनर का पुत्र हिनरि है। इस वार्तिक में उदयनपुत्र वहीनर का निर्देश नहीं हो सकता। क्योंकि उनके मत' में उदयनपुत्र वहीनर भी महाभाष्यकार से कुछ शताब्दी १५ पूर्ववर्ती है। अत: निश्चय ही पतञ्जलि को उदयनपुत्र का वास्तविक नाम ज्ञात रहा होगा। ऐसी अवस्था में वह कुणरवाडव की व्युत्पत्ति को कभी स्वीकर न करता । कुणरवाडव के 'काम भोग से विहीन' अर्थ से प्रतीत होता है कि वैहीनरि का पिता ऋषि था, राजा नहीं । वैहीनरि पद की व्युत्पत्ति 'वहीनर' और 'विहीनर' दो पदों से दर्शाई २० है। इससे प्रतीत होता कि वहीनर और विहीनर दोनों नाम एक ही व्यक्ति के थे । वहीनर वास्तविक नाम था, और विहीनर विहीनो नरः कामभोगाभ्यम् निर्देशानुसार औपाधिक । अपत्यार्थक शब्दों के प्रयोग अनेक बार अप्रसिद्ध शब्दों से निष्पन्न होते हैं । यथा व्यासपत्र शक के लिए वैयासकि का सम्बन्ध अप्रसिद्ध व्यासक प्रकृति के २५ साथ है, प्रसिद्ध शब्द व्यास के साथ नहीं है । जिस प्रकार कात्यायन पाठ। १. महाभाष्य ७।३।१॥ २. देखो पूर्व पृष्ठ १४६ टि० ३ में उद्धृत ३. वैहिनरिविरूपाक्षो रौहित्यायनिरेव च । ४. 'विहीन' शब्द से मत्वर्थीय 'र' प्रत्यय, अष्टा० ५।२।१००। ५. अर्थात् पाश्चात्यो के मत में । हमारे मत में महाभाष्यकार उदयनपुत्र ३० वहीनर से पूर्ववर्ती हैं। इसके लिये महाभाष्यकार पतञ्जलि का प्रकरण देखें । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ने वैयासकि पद का सम्बन्ध व्यास से जोड़ कर 'अकङ' का विधान किया, उसी प्रकार वैहीनरि का भी वहीनर से सम्बन्ध व्यक्त करके इत्त्व का विधान किया है। परन्तु जैसे पतञ्जलि ने वैयासकि की मूल प्रकृति व्यासक बताई, उसी प्रकार कुणरवाडव ने भी वहीनरि ५ की मूल प्रकृति विहीनर की ओर संकेत किया। ___ इस विवेचना से स्पष्ट है कि उक्त वार्तिक के प्रमाण से वात्तिककार कात्यायन और कुणरवाडव दोनों उदयनपुत्र वहीनर से अर्वानहीं हो सकते । कथासरित्सागर आदि में उल्लिखित श्रतधर कात्यायन वात्तिककार कात्यायन से भिन्न व्यक्ति है। - वार्तिक पाठ कात्यायन का वात्तिकपाठ पागिनोय व्याकरण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। इस के विना पाणिनीय व्याकरण अधूरा रहता है । पतञ्जलि ने कात्यायनीय वात्तिकों के आधार पर अपना महा भाष्य रचा है। कात्यायन का वात्तिक-पाठ स्वतन्त्ररूप में सम्प्रति १५ उपलब्ध नहीं होता । महाभाष्य से भी कात्यायन के वतिकों की निश्चित संख्या प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि उस में बहत्र अन्य वातिककारों के वचन भी संग्रहीत हैं। महाभाष्यकार ने ४-५ को छोड़कर किसी के नाम का निर्देश नहीं किया। प्रयम वातिक–आधुनिक वैयाकरण 'सिद्ध शब्दार्थसम्बन्धे" २० को कात्यायन का प्रथम वातिक समझते हैं, यह उनकी भूल है । इस भूल का कारण भी वही है, जो हमने पृष्ठ २३० पर पाणिनीय आदिम सूत्र के सम्बन्ध में दर्शाया है। महाभाष्य में लिखा है___ माङ्गलिक प्राचार्यो महतः शास्त्रौघस्य मङ्गलार्थ सिद्धशब्द मादितः प्रयुङ्क्ते । २५ हमारा विचार है यहां भो 'प्रादि' पद मुख्यार्थ का वाचक नहीं है। कात्यायन का प्रथम वार्तिक 'रक्षोहागमलध्वसन्देहा: प्रयोजनम् है। इसमें निम्न प्रमाण हैं १. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ ६ । २. द्र० पूर्व पृष्ठ ३१७ । ३. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ ६, ७ । २० ४. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ १। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३३५ १-सायण अपने ऋग्भाष्य के उपोद्घात में लिखता है तस्यतस्य व्याकरणस्य प्रयोजनविशेषो वररुचिना वार्तिके दर्शितः-रक्षोहागमलध्वसन्देहाः प्रयोजनम् इति । एतानि रक्षादीनि प्रयोजनानि प्रयोजनान्तराणि च महाभाष्ये पतञ्जलिना स्पम्टीकृतानि ।' __अर्थात् वररुचि कात्यायन ने व्याकरणाध्ययन के प्रयोजन 'रक्षोहागम' आदि वात्तिक में दर्शाये हैं । २-व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का अन्वाख्यान करके पतजलि ने लिखा है एवं विप्रतिपन्नबुद्धिभ्योऽध्येतृभ्यः सुहृद् भूत्वाऽचार्य इदं शास्त्र- १० मन्वाचष्टे, इमानि प्रयोजनान्यध्येयं व्याकरणम् इति । . यहां आचार्य पद निश्चय ही कात्यायन का वाचक है, और इदं शास्त्रं का अर्थ वार्तिकान्वाख्यान शास्त्र ही है। प्राचार्य पद महाभाष्य में केवल पाणिनि और कात्यायन के लिए ही प्रयुक्त होता है, यह हम पूर्व' कह चुके हैं । यदि व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का १५ निर्देशक रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् वार्तिककार का न माना जाये, तो यह प्राचार्य पद भाष्यकार का बोधक होगा। तो क्या भाष्यकार अपने लिये स्वयं प्राचार्य पद का प्रयोग कर रहे हैं ? ३-महाभाष्य के इस प्रकरण की तुलना 'विङति च" सूत्र के महाभाष्य से की जाये, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि रक्षादि पांच २० प्रयोजन वार्तिककार द्वारा कथित हैं, और 'इमानि च भूयः" वाक्यनिर्दिष्ट १३ प्रयोजन भाष्यकार द्वारा प्रतिपादित हैं। 'क्ङिति च' सूत्र पर प्रयोजनवात्तिक इस प्रकार है-विङति प्रतिषेधे तन्निमित्तग्रहणमुपधारोरवीत्यर्थम् । महाभाष्यकार ने इस वात्तिक में निर्दिष्ट प्रयोजनों की व्याख्या २५ करके लिखा है-इमानि च भूयः तन्निमित्तग्रहणस्य प्रयोजनानि । १. षडङ्ग प्रकरण, पृष्ठ २६, पूना संस्क० । तुलना करो-कात्यायनोऽपि व्याकरणप्रोजनान्युदाजहार-रक्षोहागमलध्वसंदेहाः प्रयोजनम् । ते० सं० सायणभाष्य, भाग १ पृष्ठ ३० । २. महा० १११॥ प्रा० १॥ ३. पूर्व पृष्ठ २२६ । ४. अष्टा० १३१॥५॥ ३० ५. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ २। । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन दोनों स्थलों पर 'इमानि च भूय: ' "प्रयोजनानि' पद समान लेखनशैली के निर्देशक हैं । और दोनों स्थलों पर 'इमानि च भूय:' वाक्यनिर्दिष्ट प्रयोजन महाभाष्यकार प्रदर्शित हैं, यह सर्वसम्मत है । इसी प्रकार क्ङिति च सूत्र के प्रारंम्भिक दो प्रयोजन ५ वार्तिककार निर्दिष्ट हैं, यह भी निर्विवाद है । अतः उसी शैली से लिखे हुए 'रक्षोहागम' आदि वाक्य निर्दिष्ट पांच प्रयोजन निःसन्देह कात्यायन के समझने चाहिये । इसलिए कात्यायन के वार्तिक-पाठ का प्रारम्भ - ' रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्' से ही होता है । डा० सत्यकाम वर्मा द्वारा हमारा श्रसत्य उल्लेख - वर्मा जी ने १० अपनी पुस्तक के पृष्ठ १८० पर लिखा है - 'परम्परा से कात्यायन प्रणीत रूप में मान्य 'सिद्धे शब्दार्थसबन्धे' पर श्री मीमांसक जी आपत्ति उठाते हैं कि यह वार्त्तिक कात्यायन का नहीं है । और यथा लौकिकवैदिकेषु को वे कात्यायन का प्रथम वार्तिक सिद्ध करने का प्रयास करते हैं......।' पाठक स्वयं विचारों कि हमने सिद्धे शब्दार्थ - १५ सम्बन्धे वार्त्तिक कात्यायन का नहीं है, और यथा लौकिकवेदिकेषु उस का प्रथम वार्त्तिक है, यह कहां लिखा है ? हमने तो इतना ही निर्देश किया है कि सिद्धे शब्दार्थसंबन्धे कात्यायन का प्रथम वार्तिक नहीं हैं, अपितु उससे पूर्वपठित रक्षोहागमलभ्वसन्देहाः प्रयोजनम् प्रथम वार्त्तिक है । वर्मा जी ने इसी प्रकार बहुत स्थानों पर हमारे २० नाम से मिथ्या बातें लिखकर हमारा खण्डन करके अपने पाण्डित्य का डिण्डिमघोष करने की अनार्थ चेष्टा की है । 1 महाभाष्य व्याख्यात वात्तिक श्रनेक श्राचार्यों के हैं में जितने वार्तिक व्याख्यात हैं, वे सब कात्यायनमहाभाष्य विरचित नहीं हैं । पतञ्जलि ने अनेक प्राचार्यों के उपयोगी वचनों २५ का संग्रह अपने ग्रन्थ में किया है, कुछ स्थानों पर पतञ्जलि ने विभिन्न वार्तिककारों के नामों का उल्लेख किया है, परन्तु अनेक स्थानों पर नामनिर्देश किये बिना ही अन्य आचार्यों के वार्तिक उद्धृत किये हैं । यथा १ – महाभाष्य ६ । १ । १४४ में एक वार्तिक पढ़ा हैं - समो हित३० तयोर्वा लोपः । यहां वार्तिककार के नाम का उल्लेख न होने से यह कात्यायन का वार्तिक प्रतीत होता है । परन्तु 'सर्वादीनि सर्वनामानि " अष्टा० १|१|२७| Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३३७ सूत्र के भाष्य से विदित होता है कि यह वचन अन्य वैयाकरणों का है। वहां स्पष्ट लिखा-इहान्ये वैयाकरणाः समस्तते विभाषा लोपमारभन्ते-समो हितततयोर्वा इति । २-महाभाष्य ४।१।१५ में वार्तिक पढ़ा है-नस्नजीकक्ल्यु। स्तरुणतलुनानामुपसंख्यानम् । यहां भी वार्तिककार के नाम का निर्देश ५ न होने से यह कात्यायन का वचन प्रतीत होता है, परन्तु महाभाष्य ३१२१५६ तथा ४।११८७ में इसे सौनागों का वार्तिक कहा है। इस विषय पर अधिक विचार हमने इस अध्याय के अन्त में 'महाभाष्यस्थ वार्तिकों पर एक दृष्टि' प्रकरण में किया है । अन्य ग्रन्थ १० स्वर्गारोहण काव्य-महाभाष्य ४।३।१०१ में वाररुच काव्य का उल्लेख मिलता है। वररुचि कात्ययनगोत्र का होने से उसे भी कात्यायन कहा जाता है । यह हम पूर्व लिख चुके हैं । महाराज समुद्रगुप्त ने कृष्णचरित के मुनिकविवर्णन में लिखा है-- यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि । काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः कविः ॥ न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवातिकर्यः । काव्येऽपि भूयोऽनुचकार तं वै कात्यायनोऽसौ कविकर्मदक्षः ॥ अर्थात्-जो स्वर्ग में जाकर (श्लेष से स्वर्गारोहण-संज्ञक काव्य रचकर) स्वर्ग को पृथिवी पर ले आया, वह वररुचि अपने मनोहर २० काव्य से विख्यात है । उस महाकवि कात्यायन ने केवल पाणिनीय व्याकरण को ही अपने वार्तिकों से पुष्ट नहीं किया, अपितु काव्यरचना में भी उसी का अनुकरण किया है। • यहां समुद्रगुप्त ने भी दोनों नामों से एक ही व्यक्ति को स्मरण किया है। ___ कात्यायन के स्वर्गारोहण काव्य का उल्लेख जल्हणकृत सूक्तिमुक्तावली में भी मिलता है। उसमें राजशेखर के नाम से निम्न श्लोक उद्धृत है यथार्थतां कथं नाम्नि मा भूद् वररुचेरिह । व्यवत्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इस श्लोक के चतुर्थ चरण का पाठ कुछ विकृत है । वहां 'सदारोहणप्रियः' के स्थान में 'स्वर्गारोहणप्रियः' पाठ होना चाहिये । आचार्य वररुचि के अनेक श्लोक शाङ्गघरपद्धति, सदुक्तिकर्णामृत, और सुभाषिमुक्तावली आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। ___कात्यायन मुनि विरचित काव्य के लिये इस ग्रन्थ का 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' नामक ३०वां अध्याय देखिये। २. भ्राज-संज्ञक श्लोक-महाभाष्य अ० १, पाद १, आह्निक १ में 'भ्राजसंज्ञक' श्लोकों का उल्लेख मिलता है।' कैयट, हरदत्त, और नागेश भट्ट आदि का मत है कि भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार १० कात्यायन की रचना हैं । ये श्लोक इस समय अप्राप्य हैं। इन श्लोकों में से 'यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे०' श्लोक पतञ्जलि ने महाभाष्य में उद्धृत किया है', ऐसा टीकाकारों का मत है। अन्य श्लोक-महाभाष्यप्रदीप ३ । १ । १ में पठित 'अर्थविशेष उपाधिः' श्लोक भी भ्राजान्तर्गत है । ऐसा पं० रामशंकर भट्टाचार्य १५ का मत है। ३. छन्दःशास्त्र वा साहित्य-शास्त्र-कात्यायन ने कोई छन्द:शास्त्र अथवा साहित्य-शास्त्र का ग्रन्थ भी लिखा था। इसके लिए इसी ग्रन्थ के अध्याय ३० में कात्यायन के प्रसंग में अभिनव गुप्त का उद्धरण देखें। २० ४. स्मृति-षड्गुरु-शिष्य ने कात्यायन स्मृति और भ्राजसंज्ञक श्लोकों का कर्ता वार्तिककार को माना है। वर्तमान में जो कात्यायन १. क्व पुनरिदं पठितम् ? भ्राजा नाम श्लोकाः । २. कात्यायनोपनिबद्धभ्राजाख्यश्लोकमध्यपठितस्य ......। महाभाष्यप्रदीय, नवाह्निक, निर्णयसागर सं०, पृष्ठ ३४ । ३. कात्यायनप्रणीतेषु २५ भ्राजाख्यश्लोकेषु मध्ये पठितोऽयं श्लोकः । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ १० । ___ ४. भ्राजा नाम कात्यायनप्रणीताः श्लोका इत्याहुः। महाभाष्यप्रदीपोद्योत, नवाह्निक, निर्णयसागर सं०, पृष्ठ, ३३ । ५. महाभाष्य प्रथमाह्निक । ६. द्र०-पूना पोरियण्टलिस्ट, भाग xiii में रामशंकर भट्टाचार्य का लेख । ७. स्मृतेश्च कर्ता श्लोकानां भ्राजनाम्नां च कारकः । निदानसूत्र की ३० भूमिका पृष्ठ २७ पर उद्धृत (लाहौर संस्क०) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार .. ३३६ स्मृति उपलब्ध होती है, वह संभवतः अर्वाचीन है । इस का मूल कोई प्राचीन कात्यायन स्मृति रही होगी। ५. सामुद्रिक ग्रन्थ-शारीरिक लक्षणों के आधार पर शुभाशुभ का निदर्शन कराने वाला शास्त्र 'सामुद्रिकशास्त्र' कहाता है। इसी को 'अङ्गविद्या' भी कहा जाता है । यह विद्या भी अतिप्राचीन ५ काल से लब्धास्पद है। (द्र०-पूर्व पृष्ठ २८६) । रामायण वालकाण्ड सर्ग १ श्लोक ६ की रामायण की तिलकटीका में तथा चोक्तं वररुचिना' निर्देश करके इस शास्त्र का एक वचन उद्बत है। गोविन्दराजीय टीका में श्लोक ११ की व्याख्या में भी 'तत्रोक्तं वररुचिना' निर्देश पूर्वक एक वचन निर्दिष्ट है। श्लोक १० की रामायण तिलक- १० टीका में इसी शास्त्र का एक वचन उद्धृत करके 'इति कात्यायनः का निर्देश है । इन से विदित होता है कि वणरुचि कात्यायन का सामुद्रिक विद्या पर भी कोई ग्रन्थ था । ... यदि संख्या ४-५ के ग्रन्थ आदि वातिककार वररुचि कात्यायन के न हों, तो वे विक्रमकालीन वररुचि कात्यायन के होंगे। ६. उभयसारिका-भाण-मद्रास से चतुर्भाणी प्रकाशित हुई है। उस में वररुचिकृत 'उभयसारिका' नामक एक भाण छपा है। उसके अन्त में लिखा है इति श्रीमद्वररुचिमुनिकृतिरुभयसारिकानामभाणः समाप्तः । इस वाक्य में यद्यपि वररुचि का विशेषण 'मुनि' लिखा है, २० तथापि यह वार्तिककार वररुचिकृत प्रतीत नहीं होता । महाभाष्य पस्पशाह्निक में वार्तिककार को तद्धितप्रिय' लिखा है, परन्त उभयसारिका में तद्धितप्रियता उपलब्ध नहीं होती । उसमें तद्धितप्रयोग अत्यल्प हैं, कृत्प्रयोगों का बाहुल्य है । अतः ‘कृत्प्रयोगरुचय उदीच्या:" इस नियम के अनुसार उपर्युक्त भाण का कर्ता कोई औदीच्य कवि २५ है। सम्भव है यह भाण विक्रमकालिक वररुचि कवि कृत हो। अनेक ग्रन्थ -अाफेक्ट कृत बृहद् हस्तलेख-सूचीपत्र में कात्यायन तथा वररुचि के नाम से अनेक ग्रन्थ उद्धृत हैं। उनमें से कितने ग्रन्थ वार्तिककार कात्यायन कृत हैं, यह अभी निश्चेतव्य है । हमें उनमें अधिक ग्रन्थ विक्रमकालिक वररुचिकृत प्रतीत होते हैं। १. पृष्ठ ३३० पर उद्धृत वचन । २. काव्यमीमांसा पृष्ठ २२ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २. भारद्वाज भगवान् पतञ्जलि ने भारद्वाजीय वार्तिकों का उल्लेख महाभाष्य में अनेक स्थानों पर किया है। ये वार्तिक पाणिनीयाष्टक पर ही रचे गये थे, यह बात महाभाष्य में उद्धृत भारद्वाजीय वार्तिकों के ५ सूक्ष्म पर्यवेक्षण से स्पष्ट हो जाती है।' __ भारद्वाजीय वार्तिक कात्यायनीय वार्तिकों से कुछ विस्तृत थे। यथा कात्या०-घुसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिदर्यम् ।' भार०-घुसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिद्विकृतार्थम् । कात्या०-यक्चिणोः प्रतिषेधे हेतुमणिधिनामुपसंख्यानम् ।। भार०–यक्चिणोः प्रतिषेधे णिप्रिन्यिग्रन्थिबजामात्मनेपदाकर्मकाणामुपसंख्यानम् । इन भारद्वाजीय वातिकों का रचयिता कौन भारद्वाज है, कह अज्ञात है । यदि ये वार्तिक पाणिनीय व्याकरण पर नहीं लिखे गये १५ हों, तो अवश्य ही पूर्वनिर्दिष्ट भारद्वाज व्याकरण पर रहे होंगे। परन्तु भारद्वाजीय वार्तिकों को भारद्वाज व्याकरण के साथ संम्बन्ध मानने पर 'भारद्वाजीय' में प्रोक्तार्थ में प्रत्यय न होकर 'पाणिनीय-वात्तिक' के समान संबन्ध में होगा। भाष्यकार की शैली के अनुसार यहां प्रोक्तार्थ में 'छ' (ईय) प्रत्यय है । यथा क्रोष्ट्रीयाः पठन्नि (महा० २१११३) में २० 'छ' और सौनागाः पठन्ति (महा० ४।३।१२४) में 'अण' प्रोक्तार्थ में है। अतः भारद्वाजीय वात्तिक निश्चय ही पाणिनीय व्याकरण पर लिखे गये थे। १. महाभाष्य १३१३२०, ५६॥ १।२।२२॥ २३॥६७॥ ३॥११३८, ४८, २५ ८६॥ ४११७६॥ ६।४।४७, १५५॥ २. भारद्वाजीयाः पठिन्त-नित्यमकित्त्वमिडाद्योः, क्त्वाग्रहणमुत्तरार्थम् । महाभाष्य १२।२२॥ न्यासकार लिखता है-पूङचेत्यत्र सूत्रे द्वयोविभाषयोमध्ये ये विधयस्ते नित्या भवन्तीति मन्यमानैर्भारद्वाजीयरिदमुक्तम्-नित्यमकित्त्वमिडाद्योरिति । भाग १, पृष्ठ १६१ । भारद्वाजीयाः पठन्ति-भ्रस्जो रोपधयोर्लोपः, पागमो रम् विघयते। महाभाष्य ६।४।४७॥ ३. महाभाष्य ११॥२०॥ ४. महाभाष्य ३॥१८॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३. सुनाग महाभाष्य में अनेक स्थानों पर सौनाग वातिक उद्धृत है।' हरदत्त के लेखानुसार इन वाकिों के रचयिता का नाम सुनाग था।' कैयट विरचित महाभाष्यप्रदीप २।२।१८ से विदित होता है कि सुनाग प्राचार्य कात्यायन से अर्वाचीन है। सौनाग वार्तिक अष्टाध्यायी पर थे महाभाष्य ४।३।१५५ से प्रतीत होता है कि सौनाग वार्तिक पाणिनीय अष्टक पर रचे गये थे। पतञ्जलि में लिखा है-'इह हि सोनागाः पठन्ति-वुअश्चाञ्कृतप्रसंगः । इस पर कैयट लिखता हैपाणिनीयलक्षणे दोषोद्भावनमेतत् । इसी प्रकार पतञ्जलि ने 'प्रोमाङोश्चः' सूत्रस्थ चकार का प्रत्याख्यान करके लिखा है-एवं हि सोनागाः पठन्ति-चोऽनर्थकोऽबिकारादेङः । श्री पं० गुरुपद हालदार ने सुनाग को पाणिनि से पूर्ववर्ती माना है। उनका मत ठीक नहीं है, यह उपर्युक्त उद्घारणों से स्पष्ट है । १५ हालदार महोदय ने सुनाग आचार्य को नागवंशीय लिखा है, वह सम्भवतः नामसादृश्य मूलक है। सौनाग वार्तिकों का स्वरूप सौनाग वार्तिक कात्यायनीय वार्तिकों की अपेक्षा बहुत विस्तृत हैं । अत एव महाभाष्य २।२।१८ में कात्यायनीय वार्तिक की व्याख्या २० के अनन्तर पतञ्जलि ने लिखा है-एतदेव च सौनागैविस्तरतरकेण पठितम् । __ महाभाष्य ४।१।१५ में लिखा है-अत्यल्पमिदमुच्यते-ख्युन इति । नस्नमोकक्ल्युंस्तरुणतलुनानामुपसंख्यानम् । - यद्यपि महाभाष्य में यहां 'नस्न' आदि वार्तिकों के कर्ता का २५ नाम नहीं लिखा, तथापि महाभाष्य ३।२।५६ तथा ४।१।८७ में इसे १. महाभाष्य २।२।१८।। ३।२।५६॥ ४।१।७४, । ८७॥ ४।३।१५।। • ६११६५। ६।३॥४३॥ २. सुनागस्याचार्यस्य शिष्याः सोनागाः । पदमञ्जरी ७१२१७; भाग २, पृष्ठ ७६१ । ३. कात्यायनाभिप्रायमेव प्रदर्शयितु सौनागरतिविस्तरेण पठितमित्यर्थ, । ३. ४. महाभाष्य ६।१।९५॥ ५. व्याक० दर्श० इतिहास, पृष्ठ ४४५ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोक्त उद्धारणों से स्पष्ट है कि सौनाग वार्तिक कात्यायनीय वार्तिकों से अत्यधिक विस्तृत थे । महाभाष्य ४ | १ | १५ में 'अत्यल्प - मिदमुच्यते' लिख कर उद्धृत किया हुआ वार्तिक सौनागों का है, यह पूर्व लेख से स्पष्ट है । महाभाष्य में अनेक स्थानों पर 'प्रत्यल्पमिदमुच्यते' लिखकर कात्यायनीय वार्तिकों से विस्तृत वार्तिक उद्धृत किये हैं ।" बहुत सम्भव है वे सब सौनाग वार्तिक हों । १० शृङ्गारप्रकाश में महावातिककार के नाम से महाभाष्य २।११५१ में पठित एकवार्तिक उद्धृत है । हमारा मत है कि यह महावार्तिककार सौनाग है । ५ ३४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सौनागों का वार्तिक कहा है । अतः यह सौनाग वार्तिक है, यह स्पष्ट है | यह वार्तिक भी कात्यायनीय वार्तिक से बहुत विस्तृत हैं । महाभाष्यस्य सौनाग वार्तिकों की पहचान महाभाष्य ४ २ ६५ में महावार्तिक के अध्येताओं के लिए प्रयुज्यमान माहावातिक पद का निर्देश मिलता है। ये महावार्तिक १५ सम्भवतः सौनाग के वार्तिक ही हैं। सौनाग मत का अन्यत्र उल्लेख २० ६ महाभाष्य के अतिरिक्त भर्तृहरि की महाभाष्य टीका काशिका, भाषावृत्ति क्षीरतरङ्गिणी, धातुवृत्ति तथा मल्लवादिकृत द्वादशार १. एवं हि सोनागाः पठन्ति — नस्नीक० । २. महाभाष्य २/४/४६ || ३|१|१४, २२, २५, ६७।३।२।२६ इत्यादि ॥ ३. ननु च द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचन मिति माहावार्तिककारः पठति । शृङ्गारप्रकाश, पृष्ठ २६ । ४. इह मा भूत - माहावार्तिकः । ५. नैव सौनागदर्शनमाश्रीयते । हस्तलेख, पृष्ठ ३१; पूना सं० पृ० २३१ ६. सौनागाः कर्मणि निष्ठायां शकेरिटमिच्छन्ति विकल्पेन, 1 ७।२।१७।।· २५ ७. निष्ठायां कर्मणि शकेरिड् वेति सौनागाः । ७।२।१७ ॥ ८. धातूनामर्थनिर्देशोऽयं प्रदर्ननार्थ इति सौनागाः । यदाहु:--क्रियावाचित्वमाख्यातुमेकोऽत्रार्थः प्रदर्शितः । प्रयोगतोऽनुगन्तव्या अनेकार्था हि घातवः ।। देखो मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्कालय का सूचीपत्र, पृष्ठ १८४६ । रोमनाक्षरों में मुद्रित जर्मन संस्करण में 'घातूना यदाहुः' पाठ नहीं है । 'क्रियावाचित्वमाख्यातुम्' श्लोक चान्द्रधातुपाठ के अन्त में भी मिलता है । द्र०-क्षीरत/ ३० ङ्गिणी पृ० ३, हमारा संस्क० । ६. शक धातु पृष्ठ ३०१, अस् धातु पृष्ठ ३०७, शक्ल धातु पृष्ठ ३१६ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार नयचक्र की सिंहसूरि गणि की टीका' आदि ग्रन्थों में सौनाग के अनेक मत उद्धृत हैं। ३४३ ४. क्रोष्टा इस आचार्य के वार्तिक का उल्लेख महाभाष्य १।१।३ में केवल ५ एक स्थान पर मिलता है । पतञ्जलि लिखता है - परिभाषान्तरमिति च कृत्वा क्रोष्ट्रीयाः पठन्ति - नियमादिको गुणवृद्धी भवतो विप्रतिषेधेने । इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि क्रोष्ट्रीय वार्तिक पाणिनीय अष्टाध्यायी पर ही थे । क्रोष्ट्रीय वार्तिकों का उल्लेख अन्यत्र नहीं १० मिलता । ५. वाडव (कुणरवाडव ? ) महाभाष्य ८।२।१०६ में लिखा है - प्रनिष्टिज्ञो वाडव: पठति 1 इस पर नागेश भट्ट महाभाष्य प्रदीपोद्योत में लिखता - सिद्धं त्विदि- १५ तोरिति वार्तिकं वाडवस्य । इस वार्तिककार के संबध में इससे अधिक कुछ ज्ञान नहीं । क्या वाडव और कुरवाडव एक है ? महाभष्य ३।२।१४ में लिखा है- कुणरवाडवस्त्वाह--नैषा शंकरा, शंगरेषा, । गुणातिः शब्दकर्मा २० तस्यैव प्रयोगः । पुनः महाभाष्य ७।३।१ में लिखा है कृणरवाडवस्त्वाह- नैष वहीनरः, कस्तहि ? विहीनर एषः । विहीनो नर, कामभोगाभ्याम् । विहीनरस्यात्यं वैहिनरिः । १. ष्ठिविसिव्योल्युट् परयोर्दीर्घत्वं वष्टि भागुरिः । करोतेः कर्त्तृभावे च २५ सोनागा हि प्रचक्षते । भाग १, पृष्ठ ४१, बड़ोदा सं० । २. भाष्य, यकृत प्रदीय आदि ग्रन्थों के पर्यालोचन के हमें 'तत्रायथेष्ट प्रसंग:' वार्तिक वाडव आचार्य का प्रतीत होता है । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास महाभाष्य के इन उद्धरणों में 'कुणरवाडव' प्राचार्य का उल्लेख मिलता है । क्या महाभाष्य ८ २ १०६ में स्मृत वाडव 'पदेषु पदेकदेशान्' नियम से कुणरवाडव हो सकता हैं ? कुणरवाडव का उल्लेख आगे किया जायेगा । ३४४ ६. व्याघ्रभूति महाभाष्य में व्याघ्रभूति प्राचार्य का साक्षात् उल्लेख नहीं है । महाभाष्य २।४ । ३६ में 'जग्धिविधियपि' इत्यादि एक श्लोकवार्तिक उद्धत है । कैयट के मतानुसार यह श्लोकवार्तिक व्याघ्रभूतिविरचित है । काशिका ७ १६४ में एक श्लोक उद्धृत है । कातन्त्रवृति १० पञ्जिका का कर्त्ता त्रिलोचनदास उसे व्याघ्रभूति के नाम से उद्धृत करता है । वह लिखता है २० तथा च व्याघ्रभूतिः -- संबोधने तुशनसस्त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तमिति । सुपद्यमकरन्दकार ने भी इसे व्याघ्रभूति का वचन माना है ।" १५ न्यासकार इसे आगम वचन लिखता है ।" काशिका ७ । २ । १० में उद्धृत अनिट् कारिकाएं भी व्याघ्रभूति - विरचित मानी जाती है। पं० गुरुपद हालदार ने इसे पाणिनि का साक्षात् शिष्य लिखा है । इसमें प्रमाण अन्वेषणीय है । ७. वैयाघ्रपद्य आचार्य वैयाघ्रपद्य का नाम उदाहरणरूप में महाभाष्य में बहुधा १ श्रयमेवार्थी व्याघ्रभूतिनान्युक्त इत्याह । २५ २. संबोधने तुशनसस्त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । माध्यदिनिष्ट गुणवन्ते नपुंसके व्याघ्रपदां वरिष्ठः । ३. कातन्त्र, चतुष्टय | ४. सुपद्म, सुवन्त २४ । ५. न्यास ७।१।६४ ॥ ६. थमिमन्तेष्वनिडेक इष्यते इति व्याघ्रभूतिना व्याहृतस्य । शब्दकौस्तुभ अ० १, पाद १, ० २, पृष्ठ ८२ । तप तिपिमिति व्याघ्रभूतिवचनविरोधाच्च । धातुवृत्ति पृष्ठ ८२ । ७. व्याक० दर्श० इतिहास पृष्ठ ४४४ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३४५ उद्धृत है । वैयाघ्रपद्य ने एक व्याकरणशास्त्र भी रचा था । उसका उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं । ' ૪૪ काशिका ८।२।१ पर 'शुष्किका शुष्कजङ्घा च' एक श्लोक उद्धृत है। भट्टोजि दीक्षित ने इसे वैयाघ्रपद्य विरचित वार्तिक माना है | यदि भट्टोज दीक्षित का लेख ठीक हो और उक्त श्लोक भ्रष्टा- ५ ध्याय ८ । २ । १ का प्रयोजन निदर्शक वार्तिक ही हो, तो निश्चय ही यह पाणिनि से अर्वाचीन होगा । हमारा विचार है, यह श्लोक वैयाघ्रपदीय व्याकरण का है, परन्तु पाणिनीय सूत्र के साथ भी संगत होने से प्राचीन वैयाकरणों ने इसका सम्बन्ध अष्टाध्यायी ८ । २ । १ के साथ जोड़ दिया है । महाभाष्य में यह श्लोक नहीं है । अथवा वैयाघ्रपद्य शब्द के गोत्रप्रत्ययान्त होने से दो व्यक्ति माने जा सकते हैं—- एक व्याकरण - शास्त्र प्रवक्ता और दूसरा वार्तिककार । प्राचार्य वैयाघ्रपद्य के विषय में हम पूर्व पृष्ठ १३४ - १३५ पर लिख चुके हैं । १० महाभाष्य में स्मृत अन्य वैयाकरण उपर्युक्त वार्तिककारों के अतिरिक्त निम्न वैयाकरणों के मत महाभाष्य में उद्धृत हैं ३. सौर्य भगवान् आचार्य अष्टाध्यायी के वार्तिककार थे, वा वृत्तिकार, वा २० इनका संबन्ध किसी अन्य व्याकरण के साथ था, यह अज्ञात है । १. गोनदिय १. गोनर्दो ४. कुणरवाडव २. गोणिकापुत्र ५. भवन्तः ? गोनर्दीय आचार्य के मत महाभाष्य में निम्न स्थानों में उद्धृत हैंगोनदयस्त्वाह- सत्यमेतत् 'सति त्वन्यस्मिन्निति' । १५ गोनदयस्त्वाह- कच्स्वरौ तु कर्तव्यौ प्रत्यङ्कं मुक्तसंशयो । २५ त्वकल्पितृको मत्पितृक इत्येव भवितव्यमिति । " १. पूर्व पृष्ठ १३४ - १३५ ॥ २. अत एव शुष्किका • इति वैयाघ्रपदीयवार्तिके जिशब्द एव पठ्यते । शब्दकौस्तुभ १।१।५६ ।। ३. महाभाष्य १।१।२१ ॥ ४. महाभाष्य १।१।२६। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास न तर्हि इदानीमिदं भवति–इच्छाम्यहं काशकटीकारमिति । इष्टमेवैतद् गोनीयस्य । गोनीयस्त्वाह-इष्टमेवैतत् संगृहीतं भवति-प्रतिजरमतिजरैरिति भवितव्यम् । परिचय गोनर्दीय नाम देशनिमित्तक है । इससे प्रतीत होता है कि गोनर्दीय आचार्य गोनर्द का है। इसका वास्तविक नाम अज्ञात है। गोनर्द देश-उत्तर प्रान्त का वर्तमान गोंडा जिला सम्भवतः प्राचीन गोनई है। काशिका १ । १ । ७५ में गोनर्द को प्राच्य देश १० माना है। कई ऐतिहासिक गोनर्द को कश्मीर में मानते हैं। राज तरङ्गिणी नामक कश्मीर के ऐतिहासिक ग्रन्थ में गोनर्द नामक तीन राजाओं का उल्लेख है । सम्भव है उनके सम्बन्ध से कश्मीर का भी कोई प्रान्त गोनदं नाम से प्रसिद्ध रहा हो । ऐसी अवस्था में गोनर्द नाम के दो देश मानने होंगे। १५ गोनर्दीय शब्द में विद्यमान तद्धित प्रत्यय से स्पष्ट है कि गोनर्दीय आचार्य प्राच्य गोनदं देश का था। गोनर्दीय और पतञ्जलि । भर्तहरि कैयट राजशेखर आदि ग्रन्थकार गोनर्दीय शब्द को पतञ्जलि का नामान्तर मानते हैं । वैजयन्ती-कोषकार भी इसे २० पतञ्जलि का पर्याय लिखता है। वात्स्यायन कामसूत्र में गोनर्दीय १. महाभाष्य ३।१।१२॥ २. महाभाष्य ७।२।१०२॥ ३. गोनर्द शब्द की एक प्राचां देशे' (११११७५) सूत्र से वृद्ध संज्ञा होने पर ही 'वृद्धाच्छः' (४।२।११४) से 'छ' प्रत्यय संभव है। ४. गोनीयस्त्वाह..... तस्मादेतद् भाष्यकारो व्याचक्षति (?, व्याचष्टे) २५ सूत्रमिति । भाष्यदीपिका (१।१।२१) हमारा हस्तलेख पृष्ठ २७६; पूना सं० पृष्ठ २११। ५. भाष्यकारस्त्वाह-प्रदीप ११११२१॥ गोनर्दीयपदं व्याचष्टे-भाष्यकार इति । उद्योत १११॥२१॥ ६. यस्तु प्रयुङ्क्ते तत्प्रमाणमेवेति गोनीयः । काव्यमीमांसा, पृष्ठ २६॥ ३० । ७. गोनर्दीयः पतञ्जलिः । पृष्ठ ६६, श्लोक १५७ । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३४७ प्राचार्य का उल्लेख बहुधा मिलता है । कामन्दकनीतिसार की उपाध्याय निरपेक्षणी नाम्नी प्राचीन टीका का रचयिता कामसूत्र को आचार्य कौटिल्य की कृति मानता है । डा० कीलहार्न का मत है कि गोनर्दीय प्राचार्य महाभाष्यकार से भिन्न व्यक्ति है । ५ हां, पतञ्जलि के कश्मीरदेशज होते हुए भी गोनर्दीय शब्द का व्यवहार सम्भव है । महाभारत शान्तिपर्वस्थ शिव सहस्रनाम में शिव का एक नाम गोनर्द भी लिखा है। उससे वा नामधेयस्य ( १ । १ । ७३) वार्तिक से वृद्ध संज्ञा होकर 'गोनर्दीय' शब्द भाष्यकार के लिये प्रयुक्त हो सकता है, यदि यह बात कथंचित् सुदृढ़ रूपेण सिद्ध हो जाये कि पतञ्जलि शैव सम्प्रदाय के प्राचार्य थे । महाभाष्य में इसका १० किञ्चिन्मात्र भी संकेत उपलब्ध नहीं होता । हमारे मत में गोनर्दीय प्राचार्य महाभाष्यकार पतञ्जलि नहीं है । महाभाष्यकार पतञ्जलि कश्मीरदेशज है, यह हम आगे महाभाष्य के प्रकरण में लिखेंगे । यदि कोषकारों की प्रसिद्धि को प्रामाणिक माना जाय, तो यह १५ पतञ्जलि महाष्यकार न होकर निदानसूत्रकार पतञ्जलि हो सकता है । सम्भव है कैयट प्रादि को नाम सादृश्य से भ्रम हुआ हो । २. गोणिका पुत्र इस प्राचार्य का मत पतञ्जलि ने महाभाष्य १ । ४ । ५१ में १. ११।१५।। १|५|२५|| ४ | ३ |२५|| यह सूत्र संख्या 'दुर्गा प्रिंटिंग प्रेस २० अजमेर' में मुद्रित कामसूत्र हिन्दी अनुवाद के अनुसार है । यह कामसूत्र का संक्षिप्त संस्करण है | प्रकाशितः, २. न्याय- कौटिल्य- वात्स्यायन- गौतमीयस्मृति-भाष्य चतुष्टयेन प्रकाशित पुरुषार्थ चतुष्टयोपाय इति भुवि महीतले प्रख्यातः । अलवर राजकीय पुस्तकालय सूचीपत्र, परिशिष्ट पृष्ठ ११० । भाष्य शब्द का प्रत्येक के साथ २५ संबन्ध है । न्यासभाष्य, कौटिल्यभाष्य (अर्थशास्त्र), वात्स्यायन भाष्य ( काम - शास्त्र), और गोतमस्मृतिभाष्य । अर्थशास्त्र और कामशास्त्र का प्रथमाध्याय सूत्रग्रन्थ है, शेष संपूर्ण ग्रन्थ उन सूत्रों का भाष्य है । कामन्दकनीतिसार ११५ में 'चाणक्य का विशेषण 'एकाकी ' है । गोतम धर्मसूत्र के मस्करीभाष्य में भाष्य बहुधा उद्धृत है । एकाकी और असहाय शब्दों के पर्यायवाची होने से ३० क्या ग्रहासाय भाष्य कौटिल्यविरचित हो सकता है ? असहाय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ३४८ । संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उद्धृत किया है-उभयथा गोणिकापुत्र इति । इस पर नागेश लिखता है-गोणिकापुत्रो भाष्यकार इत्याहुः । 'पाहुः पद से प्रतीत होता है कि नागेश को यह मत अभीष्ट नहीं है । वात्स्यायन कामसूत्र में गोणिकापुत्र का भी उल्लेख मिलता है। कोशकार पतञ्जलि के पर्यायों में इस नाम को नहीं पढ़ते । अतः यह निश्चय ही महाभाष्यकार से भिन्न व्यक्ति है। ३. सौर्य भगवान् पतञ्जलि महाभाष्य ८।२।१०६ में लिखता है-तत्र सौर्यभगवता उक्तम्-अनिष्टिज्ञो वाडवः पठति । ___कैयट के मतानुसार यह आचार्य 'सौर्य' नामक नगर का निवासी था। सौर्य नगर का उल्लेख काशिका २।४।७ में मिलता है।' महाभाष्यकार ने इस प्राचार्य के नाम के साथ भगवान् शब्द का प्रयोग किया है। इससे इस प्राचार्य की महती प्रामाणिकता प्रतीत होती है । पतञ्जलि के लेख से यह भी विदित होता है कि सौर्य आचार्य १५ वाडव प्राचार्य से अर्वाचीन है। ४. कुणरवाडव कुणरवाडव प्राचार्य का मत महाभाष्य ३ । २ । १४ तथा ७ । ३।१ में उद्धृत है। क्या यह पदैकदेश न्यास से पूर्वोक्त वार्तिककार वाडव हो सकता है ? ५. भवन्तः ? महाभाष्य ३।१।८ में लिखा है-इह भवन्तस्त्वाहुः-न भवितव्यमिति । पतञ्जलि ने यहां 'भवन्तः पद से किस प्राचार्य वा किन आचार्यों को स्मरण किया है, यह अज्ञात है। १. गोंणिकापुत्रः पारदारिकम् । १११११६॥ संबन्धिसखिश्रोत्रियराजदार२५ वर्जमिति गोणिकापुत्रः । १।५।३१ । २. सौर्य नाम नगरं तत्रत्येनाचायें णेदमुक्तम् । भाष्यप्रदीय ८।२।१०६ ॥ ३. सौर्यं च नगरं कैतवतं च ग्रामः । ४. कुणरवाडवस्त्वाह-नषा शंकरा, शंगरेषा । कुत एतत् ? गृणातिः शब्दकर्मा तस्यैष प्रयोगः ॥ कुणरवाडवस्त्वाह-नैष वहीनरः, कस्तहि ? विहीनर ३० एषः । विहीनो नरः कामभोगाभ्यां विहीनरः । विहीनरस्यापत्यं वैहीनरिः । २० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३४६ भर्तृहरि ने भी अपनी महाभाष्यदीपिका में चार स्थानों में 'इह भवन्तस्त्वाहुः" निर्देश करके कुछ मत उद्धृत किये हैं। महाभाष्यदीपिका पृष्ठ २६६° में 'इन्द्रभवस्त्वाहुः' पाठ है । यह अशुद्ध प्रतीत है, यहां भी कदाचित् ‘इह भवन्तस्त्वाहुः' पाठ हो। पतञ्जलि और भर्तृहरि किसी एक ही प्राचार्य के मत उधत करते हैं, वा भिन्न ५ भिन्न के, यह भी विचारणीय है। __ न्यायवार्तिक ४।१।२१ में भी इह भवन्तः का निर्देश करके सांख्य मत का निर्देश किया है । इनके अतिरिक्त महाभाष्य में अन्य अपर आदि शब्दों से अनेक आचार्यों के मत उद्धृत हैं, परन्तु उनके नाम अज्ञात हैं। ___महाभाष्यस्थ वार्तिकों पर एक दृष्टि यद्यपि महाभाष्य में प्रधानतया कात्यायनीय वार्तिकों का उल्लेख है, तथापि उस में अन्य वार्तिककारों के वार्तिक भी उद्धृत हैं। कुछ वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य से विदित हो जाते हैं, अनेक वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य में नहीं लिखें, यह १५ हम पूर्व लिख चुके हैं। इन सब वार्तिकों के अतिरिक्त महाभाष्य में बहुत से ऐसे वचनों का संग्रह है, जो वार्तिक प्रतीत होते हैं, परन्तु वार्तिक नहीं हैं । महाभाष्यकार ने अन्य व्याकरणों से उन-उन नियमों का संग्रह किया है, कहीं पूर्वाचार्यों के शब्दों में और कहीं स्वल्प शब्दान्तर से । यथा १.-महाभाष्य ६।१।१४४ में वचन है-समो हितततयोर्वा लोपः । यह वार्तिक प्रतीत होता है, परन्तु महाभाष्य १।१।२७ में इसे अन्य वैयाकरों का वचन लिखा है-इहान्ये वैयाकरणाः समस्तते विभाषा लोपमारभन्ते, समो हितततयोर्वा इति । महाभाष्य ६।१।१४४. में अन्य कई नियम उद्धृत हैं। वे अन्य २५ वैयाकरणों के ग्रन्थों से संग्रहीत प्रतीत होते हैं। महाभाष्यकार ने . १. हस्तलेख, पृष्ठ ६१, १०७, १२५, २७२ । पूना सं० पृष्ठ ५१, ८६, १०८ (?), २०७। २. इह भवन्तः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थां प्रकृति वर्णयन्ति । पृष्ठ ४५८ । ३. समो हितततयोर्वा लोपः। संतुमुनोः कामे। मनसि च । अवश्यमः कृत्ये। ३० Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ -- महाभाष्य ४।२।६० में लिखा है - सर्वसादद्विगोश्च लः | यह वचन प्रचीन वैयाकरणों की किसी कारिका का एक चरण है । ५ महाभाष्य के कई हस्तलेखों में इस सूत्र के अन्त में कारिका का पूरा पाठ मिलता है ।" वह निम्न प्रकार है १५ ३५० संस्कृत व्याकरण का इतिहास इन नियमों का संग्रह जिस प्राचीन कारिका के अधार पर किया है, वह काशिका ६।१।१४४ में उद्धृत है ।' ३ - महाभाष्य ४।१।२७ में पढ़ा है - हायनो वयसि स्मृतः । १० यह पाठ भी किसी प्राचीन कारिका का एक चरण है | कारिका में ही ' स्मृतः' पद श्लोक र्त्यर्थ लगाया जा सकता है, अन्यथा वह व्यर्थ होगा । २५ अनुसूर्लक्ष्यलक्षणे सर्वसादेद्विगोश्च लः । इकन् पदोत्तरपदात् शतषष्टेः षिकन् पथः ॥ १३० ४ - महाभाष्य में कहीं-कहीं पूरी-पूरी कारिकाएं भी प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। यथा इन कारिकायों में 'इष्णुच्' और 'डावतु' प्रत्यय पर विचार २० किया है । अष्टाध्यायी में ये प्रत्यय नहीं हैं । उस में इन के स्थान में क्रमशः 'खिष्णुच्' और 'वतुप्' प्रत्यय हैं। परन्तु इन कारिकाओं में जो विचार किया है, वह अष्टाध्यायी के तत्तत् प्रकरणों में भी उपयोगी है | अतः महाभाष्यकार ने वहां-वहां विना किसी परिवर्तन के इन प्राचोन कारिकाओं का उद्धृत कर दिया है । इष्णु इकारादित्वमुदा तत्वात् कृतं भुवः । नमःतु स्वर सिद्ध्यर्थ मिकारादित्वमिष्णुचः ॥ ३ डावतावर्थ वैशिष्या निर्देश: पृथगुच्यते । मात्राद्यप्रतिघाताय भावः सिद्धश्च डावतोः ॥ * १. लुम्पेदवश्यमः कृत्ये तुङ्काममनसोरपि । समो हितततयोर्वा मांसस्य पचिनोः ॥ २. कैट ने पूरी कारिका की व्याख्या की है, परन्तु महाभाष्य के कई हस्तलेखों में पूरी कारिका उपलब्ध नहीं होती । ३. महाभाष्य ३।२।५७॥ ४. महाभाष्य २२५६॥ देखो - 'डावताविति – पूर्वाचार्य प्रक्रियापेक्ष निर्देश:', इसी सूत्र पर कैयट । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३५१ ५--महाभाष्य ४।३।६० में किसी प्राचीन व्याकरण की निम्न तोन कारिकाएं उद्धृत हैं-- समानस्य तदोदेश्चाध्यात्मादिषु चेष्यते। ऊवं दमाच्च देहाच्च लोकोत्तरपदस्य च ।। मुखपार्वतसोरीयः कुजनपरस्य च । ईयः कार्योऽय मध्यस्य मण्मीयौ चापि प्रत्ययौ । मध्यो मध्यं दिनण् चास्मात् स्थाम्नो लुगजिनात्तथा । बाह्मो दैव्यः पाञ्चजन्यः गम्भीरायः इष्यते ॥ कैयट नागेश आदि टीकाकारों ने इन कारिकाओं को अष्टाध्यायी ४।३।६० पर वातिक समझ कर इनकी पूर्वापर सङ्गति लगाने के १० लिये अत्यन्त क्लिष्ट कल्पनाएं की हैं। क्लिष्ट कल्पनाएं करने पर भी इन्हें अष्टाध्यायी पर वार्तिक मानने से जो अनेक पुनरुक्ति दोष उपस्थित होते हैं, उनका वे पूर्ण परिहार नहीं कर सके। इन्हें वार्तिक मानने पर तृतीय कारिका का चतुर्थ चरण स्पष्टतया व्यर्थ है, क्योंकि अष्टाध्यायी ४ । ३ । ५८ में 'गम्भीराज्य सूत्र विद्यमान है । इसी १५ प्रकार गहादि गण (४।२।१३८) में "मुखपावतसोर्लोपः, जनपरयोः कुक च" गणसूत्र पठित है। अतः द्वितोय कारिका का पूर्वार्ध भी पिष्टपेषणवत् व्यर्थ है । इसलिये ये निश्चय ही किसी प्राचीन व्याकरण की कारिकाएं हैं। इनमें अपूर्व विधायक अंश की अधिकता होने से महाभाष्यकार ने इनका पूरा पाठ उद्धृत कर दिया। इन उद्धरणों से व्यक्त है कि महाभाष्य में उद्धृत अनेक वचन वातिककारों के वार्तिक नहीं हैं। __पं० वेदपति मिश्र ने अपने व्याकरण-वातिक - एक समीक्षात्मक अध्ययन में महाभाष्यस्थ वार्तिकों के सम्बन्ध में गम्भीर विवेचन किया है। पाठक उसे भी देखें। इस अध्याय में हमने पाणिनीयाष्टक पर वातिक रचने वाले सात वार्तिककारों और पांच अन्य वैयाकरणों (जिनके मत महाभाष्य में उद्धृत हैं) का सक्षेप से वर्णन किया है । अगले अध्याय में वार्तिकों के भाष्यकारों का वर्णन होगा। २० Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नववां अध्याय वार्तिकों के भाष्यकार भाष्य का लक्षण विष्णुधर्मोत्तर के तृतीय खण्ड के चतुर्थाध्याय में भाष्य का ५ लक्षण इस प्रकार लिखा है सूत्रार्थो वण्यते यत्र वाक्यः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाप्यं भाष्यविदो विदुः ॥ अर्थात्-जिस ग्रन्थ में सूत्राथ, सूत्रानुसारी वाक्यों वातिर्को तथा अपने पदों का व्याख्यान किया जाता है, उसे भाष्य को जानने १. वाले भाष्य कहते हैं। भाष्य पद का प्रयोग-पतञ्जलि-विरचित महाभाष्य में दो स्थानों पर लिखा है--उक्तो भावभेदो भाष्ये ।' इस पर कैयट आदि टीकाकार लिखते हैं हि यहां 'भाष्य' पद से 'सार्वधातुके यक्' सूत्र के महाभाष्य की ओर संकेत हैं, परन्तु १५ हमारा विचार है कि पतञ्जलि का संकेत किसो प्राचीन भाष्यग्रन्थ की ओर है । इस में निम्न प्रमाण हैं-- १. महाभाष्य के 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' वाक्य की तुलना 'संग्रहे एतत् प्रधान्येन परीक्षितम्" संग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे'६ इत्यादि महाभाष्यस्थ-वचनों से की जाये, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि २० उक्त वाक्य में संग्रह के समान कोई प्राचीन भाष्य'नामक ग्रन्थ अभिप्रेत है। अन्यथा पतञ्जलि अपनी शैली के अनुसार स्वग्रन्थ के निर्देश के लिए 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' में 'भाष्ये' शब्द का प्रयोग नहीं करता। १. द्र०-पूर्व पृष्ठ ३१६ । . २. ३॥३१६।। ३।४।६७॥ ३. अष्टा० ३३११६७॥ २५ ४. सार्वधातुके भावभेदः । ३।३।१९। सार्वधातुके यगित्यत्र बाह्याभ्यन्यरयोर्भावयोविशेषो दर्शितः । ३।४।६७।। ५. महाभाष्य अ० १, पा० १ आ. १, पृष्ठ ६ । ६. महाभाष्य अ० १, पा० १, प्रा० १, पृष्ठ ६ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिकों के भाष्यकार ३५३ २. भर्तृहरि वाक्यपदीय २०४२ को स्वोपज्ञव्याख्या में भाष्य के नाम से एक लम्बा पाठ उद्धृत करता है स चायं वाक्यपदयोराधिक्यभेदो भाष्य एवोपव्याख्यातः । श्रतश्च तत्र भवान् श्रह — 'यथैकपदगतप्रातिपदिके हेतुराहायते ।' यह पाठ पातञ्जल महाभाष्य में उपलब्ध नहीं होता । ३. क्षीरतरङ्गिणी में क्षीरस्वामी लिखता हैं-भाष्ये नत्वं नेष्यते ।' यह मत महाभाष्य में नहीं मिलता । ૪૬ ४. महाभाष्य शब्द में 'महत्' विशेषण इस बात का द्योतक है। है कि उससे पूर्व कोई 'भाष्य' ग्रन्थ विद्यामान था । अन्यथा 'महत्' विशेषण व्यर्थ है । तुलना करो भारत - महाभारत, ऐतरेय - महैतरेय, कौषीतकि महाकौषीतकि शब्दों के साथ ।' १५ ५. भर्तृहरि महाभाष्य प्रदीपिका में दो स्थानों पर वार्त्तिकों के लिये 'भाव्यसूत्र' पद का प्रयोग करता है।' पाणिनोयसूत्रों के लिये 'वृत्तिसूत्र' पद का प्रयोग अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । भाष्य सूत्र और वृत्तिसूत्र पदों की पारस्परिक तुलना से व्यक्त होता है कि पाणिनीय सूत्रों पर केवल वृत्तियां हो लिखी गई थीं, अत एव उनका 'वृत्तिसूत्र' पद से व्यवहार होता है । वार्तिकों पर सीधे भाष्य ग्रन्थ लिखे गये, इसलिए वार्तिकों को 'भाष्यसूत्र' कहते हैं । वार्तिकों के लिए 'भाष्यसूत्र' नाम का व्यवहार इस बात २० का स्पष्ट द्योतक है कि वार्तिकों पर जो व्याख्यानग्रन्थ रवे गये, वे 'भाष्य' कहाते थे । 1 अनेक भाष्यकार महाभाष्य के अवलोकन से विदित होता है कि उस से पूर्व वार्तिों पर अनेक भाष्य ग्रन्थ लिखे गये थे । वे इस समय अनुपलब्ध ४ महाभाष्य में अनेक स्थानों पर 'अपर आहे' लिख कर वार्तिकों १. क्षीरत० १६४६ | पृष्ठ १३२, हमारा संस्क० । २. कोषीतकि गृह्य २३|| ३. देखो पूर्व पृष्ठ ३१६, पृष्ठ ३२०, टि० १ । प्राश्व० गृह्य ३ | ४ | ४ | शांखा गृह्य ४ ६ | टिप्पणी ७ । ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पूर्व ४.२४०-२४१ । ३० Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास की कई विभिन्न व्याख्याएं उद्धृत की हैं । यथा अभ्रकुसादीनामिति वक्तव्यम् । भ्रुकुसः, भ्रूकुंसः, भ्रुकुटि; भृकुटि: । ___ अपर माह-प्रकारो भ्रूकुसादीनामिति वक्तव्यम । भ्रकुसः, भ्रकुटिः । ६।३।६१॥ ___ यहां एक व्याख्या में वार्तिकस्थ 'अ' वर्ण निषेधार्थक है, और दूसरी व्याख्या में 'अ' का विधान किया है। इसी प्रकार महाभाष्य १११११० में सिद्धमनच्त्वाद् वाक्यपरिसमाप्तेर्वा' वार्तिक की दो व्याख्याएं उद्धृत की हैं। महाभाष्य २।१११ में 'समर्थतराणां वा' वार्तिक की 'अपर आहे लिख कर तीन व्याख्याएं उधृत की हैं । ___ इन उद्धरणों से व्यक्त है कि महाभाष्य से पूर्व वार्तिकों पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई थीं। केवल कात्यायन के वार्तिक पाठ पर न्यूनातिन्नून तीन व्याख्याएं महाभाष्य से पूर्व अवश्य विद्यमान १५ थीं। इसी प्रकार भारद्वाज, सौनाग आदि के वार्तिकों पर भी अनेक भाष्य ग्रन्थ लिखे गये होंगे। यह प्राचीन महतो ग्रन्थराशि इस समय सर्वथा लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों वा ग्रन्थकारों के नाम तक भी ज्ञात नहीं हैं। __ भर्तृहरि की विशिष्ट सूचना-भर्तृहरि ने अनेक भाष्यों की २० सूचना-सूत्राणां सानुतन्त्राणां भाष्याणां च प्रणेतृभिः' कारिका में दी हैं। इसका भाव यह है कि सूत्रों, अनुतन्त्रों (वार्तिकों) और भाष्यों के प्रणेताओं........" अर्वाचीन वार्तिक व्याख्याकार महाभाष्य की रचना के अनन्तर भी कई निद्वानों ने वार्तिकों २५ पर व्याख्याएं लिखीं, परन्तु हमें उन में से केवल तीन व्याख्याकारों का ज्ञान है १. हेलाराज हेलाराजकृत वाक्यपदीय की टीका से विदित होता है कि उस ने वार्तिकपाठ पर 'वातिकोन्मेष' नाम्नी एक व्याख्या लिखी ३० थी। वह लिखता है १. वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड, २३ । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्तिकों के भाष्यकार ३५५ वाक्यकारस्यापि तदेव दर्शनमिति वातिकोन्मेषे कथितमस्माभिः । वातिकोन्मेषे विस्तरेण यथातत्त्वमस्माभिर्व्याख्यातमिति तत एवावधार्यम् । वातिकोन्मेषे यथागमं व्याख्यातम्, तत एवावधार्यम् । ५ वार्तिकोमेन्ष ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है। हेलाराज का विशेष वर्णन आगे व्याकरण के 'दार्शनिक ग्रन्थकार' नामक २६ वें अध्याय के अन्तर्गत वाक्यपदीय के प्रकरण में किया जायगा। ___२. राघवसूरी राघवसूरि ने वार्तिकों की 'अर्थप्रकाशिका' नाम्नी व्याख्या लिखी १. है। इसका एक हस्तलेख मद्रास के राजकीय हस्तलेख संग्रह में । विद्यमान है। देखो सूचीपत्र भाग ४ खण्ड १C. पृष्ठ ५८०४ ग्रन्थाङ्क ३६१२ B.। ३. राजरुद्र राजरुद्र नामक किसी पण्डित ने काशिकावृत्ति में उद्धृत श्लोक- १५ वार्तिकों की व्याख्या लिखी है। राजरुद्र के पिता का नाम 'गन्नय' था। इसका एक हस्तलेख मद्रास के राजकीय पुस्तकालय के हस्तलेखसंग्रह में विद्यमान है । यह भाग ४ खण्ड १ C. पृष्ठ ५८०३, ग्रन्थाङ्क ३६१२ A. पर निर्दिष्ट है । - इसका अन्त में निम्न पाठ इति राजरुद्रिये (काशिका) वृत्तिश्लोकव्याख्यानेऽष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः । इन दोनों ग्रन्थकारों का काल अज्ञात । इस अध्याय में वार्तिकों के प्राचीन भाष्यकारों का संकेत और तीन अर्वाचीन व्याख्याकारों का संक्षेप से वर्णन किया है। अगले २५ अध्याय में महाभाष्यकार पतञ्जलि का वर्णन किया जायगा । १. तृतीय काण्ड पृष्ठ ४४३, काशी सं०।। २. तृतीय काण्ड पृष्ठ ४४४ । ३. तृतीय काण्ड पृष्ठ ४६ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवां अध्याय महाभाष्यकार पतञ्जलि (२००० वि० पू०) महामुनि पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण पर एक महती व्याख्या लिखी है । यह संस्कृत वाङमय में महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में भगवान् पतञ्जलि ने व्याकरण जैसे दुरूह और शुष्क समझे जाने वाले विषय को जिस सरल और सरस रूप से हृदयङ्गम कराया है, वह देखते ही बनता है। ग्रन्थ की भाषा इतनी सरल और प्राञ्जल है कि जो भी विद्वान् इसे देखता है, इस के रचनासौष्ठव की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करता है। वस्तुतः यह ग्रन्थ १० न केवल व्याकरण सम्प्रदाय में, अपितु सकल संस्कृत वाङमय में अपने ढंग का एक अद्भुत ग्रन्थ है। महाभाष्य पाणिनीय व्याकरण का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। समस्त वैयाकरण इसके सन्मुख नतमस्तक हैं। अर्वाचीन वैयाकरण जहां सूत्र, वार्तिक और महाभाष्य में परस्पर विरोध समझते हैं, वहां वे महाभाष्य को ही प्रामाणिक मानते है।' परिचय नामान्तर-विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों में पतञ्जलि को गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, फणिभृत्, शेषराज, शेषाहि, चूर्णिकार और पदकार आदि नामों से स्मरण किया है। ___ गोनर्दीय-यादवप्रकाश आदि कोषकारों ने इस नाम को पत. २० ञ्जलि का पर्याय लिखा है । महाभाष्य १।१२१, २६॥ ३॥११६२।। ७।२।१०१ में 'गोनीय' आचार्य के मत निर्दिष्ट हैं। भतृहरि और कैयट आदि टोकाकारों के मत में यहां गोनर्दीय का अर्थ पतञ्जलि है। किसी गोनर्दीय आचार्य का मत वात्स्यायन कामसूत्र में भी १. यथोत्तरं हि मुनित्रयस्य प्रामाण्यम् । कैयट, भाष्यप्रदीय ॥१॥२६॥ २५ यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम् । नागेश, उद्योत ३।११८७॥ २. पूर्व पृष्ठ ३४६ टि० ७। ३. पूर्व पृष्ठ ३४५, ३४६ पर उद्धृत उद्धरण। ४. पूर्व पृष्ठ ३४६, टि० ४,५। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यकार पतञ्जलि ३५७ मिलता है।' गोनर्दीय की भिन्नता और अभिन्नता की सम्भावना का निर्देश हम पूर्व (पृष्ठ ३४७) चुके हैं। गोणिका-पुत्र-महाभाष्य ११४५१ में गोणिकापूत्र का एक मत निर्दिष्ट है । नागेश की व्याख्या से प्रतीत होता है कि कई प्राचीन टीकाकार गोणिकापूत्र का अर्थ यहां पतञ्जलि समझते थे। ५ वात्स्यायन कामसूत्र में भी गोणिका-पुत्र का निर्देश मिलता है। हमारा विचार है कि गोणिकापुत्र पतञ्जलि से पृथक् व्यक्ति है। नागनाथ-कयट ने महाभाष्य ४।२।६३ की व्याख्या में पतञ्जलि के लिये नागनाथ नाम का प्रयोग किया है । ५ अहिपति-चक्रपाणि ने चरक-टीका के प्रारम्भ में अहिपति नाम १० से पतञ्जलि को नमस्कार किया है। फणिभृत्-भोजराज ने योगसूत्र-वृत्ति के प्रारम्भ में फणिभृत् पद से पतञ्जलि का निर्देश किया है। शेषराज-अमरचन्द्र सूरि ने हैम-बृहद्वृत्त्यवचूणि में महाभाष्य का एक पाठ शेषराज के नाम से उद्धृत किया है। १५ शेषाहि-बल्लभदेव ने शिशुपालवध २१११२ की टीका में पतञ्जलि को शेषाहि नाम से स्मरण किया। ___ चूर्णिकार-भर्तृहरिविरचित महाभाष्यदीपिका में तीन वार चर्णिकार पद से पतञ्जलि का उल्लेख मिलता है। सांख्यकारिका की युक्तिदीपिका टीका में महाभाष्य १।४।२१ का वचन चूर्णिकार २० १. पूर्व पृष्ठ ३४७ टि० १। २. उभयथा गोणिकापुत्र इति । - ३. गोणिकापुत्रो भाष्यकार इत्याहुः। ४. पूर्व पृष्ठ ३४८ टि० १। .५. तत्र जात इत्यत्र तु सूत्रेऽस्य लक्षणत्वमाश्रित्यतेषां सिद्धिमधास्यति नागनाथः। ६. पातञ्जलमहाभाष्यचरकप्रतिसंस्कृतैः । मनोवाक्कायदोषाणां हन्त्रे- २५ ऽहिपतये नमः॥ ७. वाक्चेतोवपुषां मलः फणिभृता भत्रैव येनोद्धृतः । . ८. यदाह श्रीशेषराजः-नहि गोधाः सर्पन्तीति सर्पणादहिर्भवति । (महाभाष्य में अनेकत्र यह पाठ है ) ६. पदं शेषाहिविरचितं भाष्यम् । १०. हस्तलेख पृष्ठ १७६, १३६, २१६ । पूना सं० पृष्ठ १३६, १५४, .. १८०॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास * 3 के नाम से उद्धृत है ।' स्कन्दस्वामी निरुक्त ३।१६ की व्याख्या में चूर्णिकार के नाम से महाभाष्य १।१।५७ का पाठ उद्धृत करता है । स्कन्दस्वामी की निरुक्त टीका ८२ में चूर्णिकार के नाम से एक पाठ और उद्धृत है, परन्तु वह पाठ महाभाष्य का नहीं है, वह ५. मीमांसा १| ३ | ३० के शाबर भाष्य का पाठ है । आधुनिक पाणिनीशिक्षा का शिक्षा प्रकाश - टीकाकार शाबर भाष्य के इस पाठ को महा भाष्य के नाम से उद्धृत करता है । बौद्ध चीनी यात्री इसिंग ने महाभाष्य का चूर्णि नाम से उल्लेख किया है । * चूर्णिपद का अर्थ - क्षीरस्वामी ने अमरटीका में चूर्णि और १० भाष्य का पर्याय माना है । श्री गुरुपद हालदार ने वृद्धत्रयी पृष्ठ २६० पद चूर्णि का अर्थ दुर्गसिंह कृत उणादि वृत्ति ३|१८३ के अतुसार सूत्रवार्तिकभाष्य लिखा है । परन्तु छपी हुई कातन्त्र उणादि वृत्ति (३।६१ ) में चरतोति चूणिः ग्रन्थ विशेषः पाठ मिलता है । पदकार - स्कन्दस्वामी निरुक्तटीका १३ में पदकार के नाम से १५ महाभाष्य ५|२| २८ का पाठ उद्धृत किया हैं । उव्वट ने भी ऋक्प्रातिशाख्य १३ | १९ की टीका में पदकार शब्द से महाभाष्य १।१।१६ का पाठ उद्धृत किया है ।" आत्मानन्द ने प्रस्यवामीय सूक्त के भाष्य में पदकार के नाम से महाभाष्य १११।४७ को ओर संकेत किया हैं । १. कदाचित् गुणो गुणिविशेषको भवति, कदाचित्तु गुणिना गुणो विशेष्यते २० इति चूर्णिकारस्य प्रयोगः । पृष्ठ ७ । २. तथा च चूर्णिकारः पठति – वतिनिर्देशोऽयं सन्ति न सन्तीति । ३. चूर्णिकारो ब्रूते - य एव लौकिका : शब्दा • • इति । ४. य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकास्त एव च तेषामर्था इति महाभाष्योक्तेः । शिक्षासंग्रह, पृष्ठ ३८६ काशी सं० ॥ ...... ५. इत्सिंग की भारत यात्रा, पृष्ठ २७२ ॥ ६. भाष्यं चूर्णि: ३।५।३१ ॥ पृष्ठ ३५३ ॥ ७. पदकार ग्रह — उपसर्गाश्च पुनरेवमात्मका • क्रियामाहुः | ८. पदकारेणाप्युक्तम् — प्रथमद्वितीया: " - महाप्रणा इति । ६. पदकारास्तु परभक्तं नुममाहुः । पृष्ठ १३ । महाभाष्यकार ने ३० सिद्धान्त पक्ष में नुम् को पूर्वभक्त माना है । कैयट लिखता है - उदत्र निर्दो .... षत्वात् पूर्वान्तपक्षः स्थितः । २५ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३५६ भामह ने अपने अलङ्कार ग्रन्थ में सूत्रकार के साथ पदकार को स्मरण किया है।' क्षीरस्वामी ने अमरकोश ३।११३५ की टीका में पदकार के नाम से एक पाठ उद्धृत किया है, परन्तु वह महाभाष्य में नहीं मिलता। सांख्यकारिका की युक्तिदीपिका टीका में पदकार के नाम से एक वात्तिक उद्धृत है। न्यास ३।२।२७ में जिनेन्द्रबुद्धि ने एक ५ पदकार का पाठ उद्धृत किया है, वह वार्तिक और उसके भाष्य से अक्षरशः नहीं मिलता है। अनुपदकार-दुर्घटवृत्ति पृष्ठ १२६ पर अनुपदकार के एक मत का उल्लेख मिलता है।' मैत्रेयरक्षित ने भी तन्त्रप्रदीप ७।४।१ में अनुपदकार का मत उद्धृत किया है। ये अनुपदकार के नाम से १० उद्धृत मत महाभाष्य में नहीं मिलते। पदशेषकार-काशिका ७२।५८ में पदशेषकार का एक मत उद्धृत है, वह भी महाभाष्य में नहीं मिलता । पदशेषकार का एक उद्धरण पुरुषोत्तमत्तदेवविरचित महाभाष्य-लघुवृत्ति की 'भाष्यव्याख्याप्रपञ्च' नाम्नी टीका में भी उपलब्ध होता है।' १५ १. सूत्रकृत्पदकारेष्टप्रयोगाद् योऽन्यथा भवेत् । ४।२२। यहां पदकार शब्द महाभाष्यकार के लिये प्रयुक्त हुआ है । मुद्रितग्रन्थ में 'पादकार' छपा है वह अशुद्ध है। २. यजजप इत्यत्र वदेरनुपदेशः कार्य इति पदकारवाक्यादूकः । ३. पदकारस्त्वाह-जातिवाचकत्वात् । पृष्ठ ७। नुलना करो—दम्भेर्हल्ग्रहणस्य जातिवाचकत्वात् सिद्धम्, वार्तिक । २२।१०॥ हो सकता है यह २० वार्तिक न हो, भाष्य वचन ही हो। ४. तथाहि पदकारः पठतिउपपदविधौ भयाढ्यादि-ग्रहणं तदन्तविधि प्रयोजयतीति । ५. उपपदविधो भयाढ्यादिग्रहणम् । उपपदविधौ भयाढ्यादिग्रहणं प्रयोजनम् । महाभाष्य १॥१७२॥ ६. प्रेन्वनमिति । अनुपदकारेणानुम उदाहरणमुपन्यस्तम् । __७. एवं च युवानमाख्यत् अचीकलदित्यादिप्रयोगोऽनुपदकारेण नेष्यते इति लक्ष्यते । देखो भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६४ की टिप्पणी में उद्धृत । , ७. पदशेषकारस्य पुनरिदं दर्शनम्.......॥ पदशेषो ग्रन्थविशेष इति पदमञ्जरी । काशिका का उद्धृत पाठ धातुवृत्ति में भी उद्धृत हैं । देखो गम घातु, पृष्ठ १९२। ९. पदशेषकारस्तु शब्दाध्याहार शेषमिति वदति। ३० इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, सेप्टेम्बर १९४३, पृष्ठ २०७ में उद्धृत । २५ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - अनुपदकार और पदशेषकार दोनों एक ही हैं, अथवा भिन्न व्यक्ति है, यह विचारणीय हैं। . महाभाष्य कार को 'पदकार' क्यों कहते हैं ? इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते । महाभाष्य में पाणिनीय सूत्रों के प्रायः प्रत्येक पद पर विचार किया है । संभव है इसलिये महाभाष्यकार को 'पदकार' कहा जाता हो । शिशुपालवध के 'अनुत्सूत्रपदन्यासा" इत्यादि श्लोक की व्याख्या में बल्लभदेव लिखता हैपदं शेषाहिविरचितं भाध्यन् । बल्लभदेव ने 'पद' का अर्थ पतञ्जलि विरचित महाभाष्य' किस आधार पर किया, यह अज्ञात है। यदि यह १० अर्थ ठीक हो, तो काशिका और भाष्यव्याख्याप्रपञ्च में निर्दिष्ट 'पदशेषकार' का अर्थ 'महाभाष्य-शेष का रचयिता' होगा । जैसे 'त्रिकाण्ड शेष' अमरकोष का शेष है । वंश और देश-पतञ्जलि ने महाभाष्य जैसे विशालकाय ग्रन्थ में अपना किञ्चिन्मात्र परिचय नहीं दिया । अतः पतञ्जलि का १५ इतिवृत्त सर्वथा अन्वकारावृत है। हम पूर्व लिख चुके हैं कि महाभाष्य के कुछ व्याख्याकार 'गोणिकापुत्र' शब्द का अर्थ पतञ्जलि मानते हैं। यदि वह ठीक हो पतञ्जलि को माता का नाम 'गोणिका' रहा होगा, परन्तु हमें यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता। ___कुछ ग्रन्यकार 'गोनर्दीय' को पतञ्जलि का पर्याय मानते हैं । यदि उनका मत प्रामाणिक हो, तो महाभाष्यकार की जन्मभूमि गोनर्द होगी । गोन देश वर्तमान गोंडा जिले के आसमास का प्रदेश माना जाता है। एक गोनर्द देश कश्मीर में भी है। परन्तु गोनर्दीय को पतञ्जलि का पर्याय मानने पर उसे प्राग्देशवासो मानना होगा। २५ क्योंकि गोनर्दोय पद में गोनर्द को एक प्राचां देशे से वद्ध संज्ञा होकर छ - ईय प्रत्यय होता है । 'गोनद' शिव का नाम है, उससे भी गोनर्दीय शब्द उत्पन्न हो सकता है। परन्तु महाभाष्यकार शैवमतान्यायी थे, इसका कहीं से कुछ भी संकेत नहीं उपलब्ध नहीं होता, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । अतः हमारा विचार है कि गोनर्दीय ३०. १. २०११२॥ २. अष्टा० १३१७५।। ३. मत्स्य पुराण ११३॥ ४३ में गोनर्द प्राचजनपदों में गिना गया है। ४. पूर्व पृष्ठ ३४७ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि पतञ्जलि से भिन्न व्यक्ति है, और महाभाष्यकार भी प्राग्देशान्तर्गत गोनद का नहीं है । वह कश्मीरज है, यह अनुपद लिखेंगे । महाभाष्य ३।२।११४ में अभिजानासि देवदत्त कश्मीरान् गमिज्यामः, तत्र सक्तून् पास्यामः' इत्यादि उदाहरणों में असकृत् कश्मीरगमन का उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है जैसे ५ कश्मीर जाने की बड़ी उत्कण्ठा हो रही हो । इन उदाहरणों के आधार पर कुछ एक विद्वानों का मत है कि पतञ्जलि की जन्मभूमि कश्मीर थी। महाभाष्य ३।२।१२३ से प्रतीत होता है कि पतञ्जलि अधिकतर पाटलिपुत्र में निवास करता था । महाभाष्य में विविध निर्देशों से व्यक्त होता है कि पतञ्जलि मथुरा, साकेत, कौशाम्बी और पाटलि- १० पुत्र प्रादि से भली प्रकार विज था। अत: पतञ्जलि की जन्मभूमि कौन सी थी, यह सन्दिग्ध है। पुनरपि कश्मीर के राजा अभिमन्यु और जयापीड द्वारा महाभाष्य का पुनः-पुनः उद्धार कराना' व्यक्त करता है कि पतञ्जलि का कश्मीर से कोई विशिष्ट सम्बन्ध अवश्य था । शाखा और चरण-महाभाष्य पतञ्जलि किस शाखा के अध्येता १५ थे, इस का कोई साक्षात् प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। कतिपय व्यक्तियों की मान्यता है कि वे अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा के अध्येता थे। इस में यह हेतु देते हैं कि महाभाष्य के प्रारम्भ में चारों वेदों के जो आदि मन्त्रों की प्रतीकें दी हैं। उनमें अथर्ववेद का आदि मन्त्र शन्नो देवी उद्धृत किया है। यह पैप्पलाद शाखा का प्रथम २० मन्त्र है। हमने महाभाष्य में उद्धृत कतिपय वैदिक पाठों की सम्प्रति उपलब्ध शाखाओं के पाठों से तुलना की है। उससे हम इस परिणाम पहुंचे हैं कि पतञ्जलि काठक संहिता के पाठों को मुख्यता देते हैं । निदर्शनार्थ हम महाभाष्य में निर्दिष्ट कुछ पाठों को उद्धृत २५ करते हैं (क)-महाभाष्य २।११४–पुनरुत्स्यूतं वासो देयम्, पुननिष्कृतो रयः। तुलना करो १. द्रष्टव्य-पागे 'महाभाष्य का अनेक बार लुप्त होना' अनुशीर्षक लेख। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास काठक संo - पुनरुत्स्यूतं वासो देयम्, पुनरुत्सृष्टोऽमड्वान्, पुन 0 १५ ३६२ निष्कृतो रथः । ८|१५|| मंत्रायणी संo - पुनरुत्स्यूतं वासो देयम्, पुनर्णवो रथः, पुनरुत्सृष्टो नड्वान् | १|७|२|| तैत्तिरीय सं० - पुनर्निष्कृतो रथो दक्षिणा, पुनरुत्स्यूतं वासः । १ । ५.२।। कैयट महाभाष्य में उद्धृत उद्धरण को काठक संहिता का वचन मानता है वह लिखता है - काठकेऽन्तोदात्तः पठ्यते, तदभिप्रायेण पुनः शब्दस्य गतित्वाभावादिदमुदाहरणम् । संप्रति काठक संहिता में १० ब्राह्मण भाग पर स्वरचिह्न उपलब्ध नहीं होते । मैत्रायणो और तैत्तिरीय संहिता में भी अन्तोदात्तत्व देखा जाता है, पुनरपि श्रानुपूर्वी काठकसंहिता से अधिक साम्यता रखती है । २२५ - श्राम्बानां चरुः, नाम्बानां चरुरिति ( ख ) - महाभाष्य प्राप्ते । तुलना करो - काठक सं० - श्राम्बानां चरुः १५|५|| तैत्तिरीय सं० - श्राम्बानां चरुम् | १|८|१०|| मैत्रायणी सं० - नाम्बानां चरुम् । २२६|६|| ( ग ) महाभाष्य २२४१८१ – चक्षुष्कामं याजयांचकार पाठ " उदधृत किया है । यह पाठ उपलब्ध वैदिक वाङ् मय में केवल काठक - २० संहिता ११।१ में मिलता है । (घ) महाभाष्य १।१।१०--परश्शतानि कार्याणि । तुलना करो -- काठक सं० -- परशतानि कार्याणि | ३६ | ६ || मैत्रायणी सं० --- परःशतानि कार्याणि । १।१०1१२ ॥ इस तुलना से स्पष्ट है कि महाभाष्यकार काठक शाखा के पाठ २५ का प्राथमिकता देते हैं । इतना ही नहीं, महाभाष्य ४।१।१०१ में लिखते हैं-- ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते। यहां काठक संहिता का विशेष निर्देश किया है । इस से स्पष्ट विदित होता है कि पतञ्जलि का काठक शाखा के साथ कोई विशिष्ट संबन्ध था । काठक शाखा चरक चरणान्तर्गत है । अतः इसके अध्येता चरक अथवा चरकाध्वर्यु कहे जाते हैं । ३० काठक संहिता प्राचीन काल में कश्मीर देश में प्रचलित थी Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि । ३६३ पैप्पलाद संहिता का भी प्रचार क्षेत्र कश्मोर ही रहा है । इस से यह भी स्पष्ट हो जाता है महाभाष्यकार मूलतः कश्मीर के रहने वाले थे। . . पतञ्जलि-चरित-रामभद्र दोक्षित ने एक पतञ्जलि-चरित लिखा है, पर वह ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा अप्रामाणिक है। अनेक पतञ्जलि पतञ्जलि-विरचित तीन ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं-सामवेदीय निदानसूत्र, योगसूत्र और महाभाष्य । सामवेद की एक पातञ्जलशाखा भी थी, इसका निर्देश कई ग्रन्थों में मिलता है।' योगसूत्र के व्यासभाष्य में किसी पतञ्जलि का एक मत उद्धृत है।' वाचस्पतिमिश्र ने न्यायवार्तिकतात्पर्य-टीका में योगदर्शन के व्यासभाष्य ४।१० १० के पाठ को स्वशब्दों में उद्धृत करते हुए पतञ्जलि के नाम से स्मरण किया है। सांख्यकारिका की युक्तिदीपिकाटीका में पतञ्जलि के सांख्यसिद्धान्त-विषयक अनेक मत उद्धृत हैं। आयुर्वेद की चरक-संहिता भी पतञ्जलि द्वारा परिष्कृत मानी जाती है। समुद्रगुप्त-विरचित कृष्णचरित के अनुसार पतञ्जलि ने चरक १५ में कुछ धर्माविरुद्ध योगों का सन्निवेश किया था । चक्रपाणि .१. देखो वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृष्ठ ३१२ (द्वि० सं०) । १२. अयुतसिद्धावयवभेदानुगतः समूहो द्रव्यमिति पतञ्जलिः । ३॥४४॥ तुलना करो-सेश्वरसांख्यानामाचार्यस्य पतञ्जलेरित्यर्थः । गुणसमूहो द्रव्यमिति पतञ्जलिः' इति योगभाष्ये स्पष्टम् । नागेश उद्योत ४।१॥४॥ ३. यथास्तत्र भवन्तः पतञ्जलिपादा:-'को हि योगप्रभावादृते अगत्स्यइव समुद्रं पिबति स इव च दण्डकारण्यं सृजति' इति । न्या० वा. ता० टीका १३१३१॥ पृष्ठ ९ । तुलना करो व्यासभाष्य ४११०-दण्डकारण्यं च चित्तबलव्यतिरेकेण शरीरेण कर्मणा शून्यं कः कतु मुत्सहेत, समुद्रमगस्त्यवद् वा पिबेत् । हमारे विचार में योगदर्शन का व्यासभाष्य पतञ्जलि प्रोक्त है । व्यास १ शब्द का अर्थ है विस्तृत। इससे यह भी ध्वनित होता है कि पतञ्जलि ने स्वदर्शन पर व्यास (=विस्तृत) तथा समास (=संक्षिप्त) दो भाष्य रचे थे। ४. पृष्ठ ३२, १००, १३६ १४५, १४६, १७५ । ५. धर्मावियुक्ताश्चरके योगा रोगमुषः कृताः । मुनिकविवर्णन । आयुर्वेदीय चरकसंहिता में पतञ्जलि ने योगों का सनिवेश किस प्रकार किया, इसका .. निर्देश हम आगे करेंगे। ६. द्र०-पूर्व पृष्ठ ३५७ टि० ६ ।। २० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पुण्यराज' और भोजदेव' आदि अनेक ग्रन्थकार महाभाष्य, योग-सूत्र और चरकसंहिता इन तीनों का कर्ता एक मानते हैं। मैक्समूलर ने षड्गुरुशिष्य का एक पाठ उद्धृत किया है, जिसके अनुसार योगदर्शन और निदानसूत्र का कर्ता एक व्यक्ति है।' ५ महाराजा समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित की प्रस्तावना में पतञ्जलि के लिये लिखा है-- विद्ययोद्रिक्तगुणतया भूमावरतां गतः। पतञ्जलिमुनिवरो नमस्यो विदुषां सदा ॥ कृतं येन व्याकरणभाष्यं वचनशोधनम् । धर्मावियुक्ताश्चरके योगा रोगमुषः कृताः ॥ महानन्दमयं काव्यं योगदर्शनमद्भुतम् । योगव्याख्यानभूतं तद् रचितं चित्तदोषहम् ॥ अर्थात् महाभाष्य के रचयिता पतञ्जलि ने चरक में धर्मानुकूल कुछ योग सम्मिलित किये, और योग की विभूतियों का निदर्शक १५ योगव्याख्यानभूत 'महानन्दकाव्य' रचा । ___ इस वर्णन से स्पष्ट है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि का चरकसंहिता और योगदर्शन के साथ कुछ सम्बन्ध अवश्य है । चक्रपाणि आदि ग्रन्थकारों का लेख सर्वथा काल्पनिक नहीं है। हमारा विचार है कि पातञ्जल शाखा, निदानसूत्र और योगदर्शन का रचयिता पत२० जलि एक ही व्यक्ति है, यह अति प्राचीन ऋषि है । आनिरस पतञ्जलि का उल्लेख मत्स्य पुराण १६५ । २५ में मिलता है । पाणिनि ने २।४।६६ में उपकादिगण में पतञ्जलि पद पढ़ा है। महाभाष्यकार इनसे भिन्न व्यक्ति है और वह इनकी अपेक्षा अर्वा चीन है। २५ १. तदेवं ब्रह्मकाण्डे 'कायवाग्बुद्धिविषया ये मलाः' (कारिका १४७) इत्यादिश्लोकेन भाष्यकारप्रशंसोक्ता । वाक्यपदीयटीका काण्ड २, पृष्ठ २८४ काशी संस्करण । वस्तुतः इस कारिका में भाष्यकार की प्रशंसा का न कोई प्रसङ्ग ही है, और न भर्तृहरि ने अपनी स्वोपशव्याख्या में इसकी भाष्यकार की प्रशंसापरक व्याख्या ही की है। अतः पुण्यराज की यह अप्रासंगिक क्लिष्ट ३० कल्पना है। २. पूर्व पृष्ठ ३५७ टि०७। ३. योगाचार्यः स्वयं कर्ता योगशास्त्रनिदानयोः। A. L. S. पृष्ठ २३६ में उद्धृत । ४. कपितरः स्वस्तितरो दाक्षिः शक्तिः पतञ्जलिः । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३६५ १५ काल पतञ्जलि का इतिवृत्त अन्धकारावृत है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। पतञ्जलि के काल-निर्णय में जो सहायक सामग्री महाभाष्य में उपलब्ध होती है, वह इस प्रकार है-- १. अनुशोणं पाटलिपुत्रम् । २।१।१५॥ २. जेयो वृषलः । ॥१॥५०॥ ३. काण्डीभूतं वृषलकुलम् । कुड्यीभूतं वृषलकुलम् । ६।३।६१॥ ४. मौर्ये हिरण्यार्थिभिरर्चाः प्रकल्पिताः । ५॥३॥६६॥ ५. परगद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् । ३।२।१११॥ १० ६. पुष्यमित्रसभा, चन्द्रगुप्तसभा। १।१६८।। ७. महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्यमाणवाः । एष प्रयोग उपपन्नो भवति । ७।२।२३॥ . ८. इह पुष्यमित्रं याजयामः । ३।२।१२३॥ ६. पुष्यमित्रो यजते, याजका याजयन्ति । ३।१।२६ । २०. यदा भवद्विधः क्षत्रियं याजयेत् । यदि भवद्विधः क्षत्रियं याजयेत् । ३।३।१४७॥ इन उद्धरणों से निम्न परिणाम निकलते हैं १-प्रथम उद्धरण में पाटलिपुत्र का उल्लेख है। महाभाष्य में पाटलिपुत्र का नाम अनेक बार आया है वायु पुराण ६६।३१८ के २० अनुसार महाराज उदयी (उदायी) ने गंगा के दक्षिण कल पर कुसुमपुर बसाया था।' साम्प्रतिक ऐतिहासिकों का मत है कि कुसुमपुर पाटलिपुत्र का ही नामान्तर है । अतः उनके मत में महाभाष्यकार महाराज उदयी से अर्वाचीन है। . २-संख्या २, ३ में वषल और वषलकूल का निर्देश है। संख्या २५ २ में वृषल को 'जीतने योग्य' कहा । संख्या ३ में किसी महान् वृषलकुल के कुड्य के सदृश अतिसंकीर्ण होने का संकेत है । यह वृषलकुल मौर्यकल है। मुद्राराक्षस में चाणक्य चन्द्रगुप्त को प्रायः 'वृषल' नाम से संबोधित करता है। महाभाष्य के इन दो उद्धरणों की ओर श्री १. उदायी भविता यस्मात् त्रयस्त्रिशत्समा नृपः । स वै पुरवरं राजा ३० पृथिव्यां कुसुमाह्वयम् । गङ्गाया दक्षिणे कूले चतुर्थेऽब्दे करिष्यति ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पं० भगवद्दत्त जी ने सबसे प्रथम विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है ।' वृषल शब्द का अर्थ - सम्प्रति 'वृषल' शब्द का अर्थ शूद्र समझा जाता है । विश्वप्रकाश - कोश में वृषल का अर्थ शूद्र, चन्द्रगुप्त मौर अश्व लिखा है । वस्तुतः वृषल शब्द देवानांप्रियः " के समान द्वयर्थक ५ है । उसका एक अर्थ है पापी, और दूसरा धर्मात्मा । निरुक्त ३|१६ में 'वृषल' शब्द का अर्थ लिखा है ब्राह्मणवद् वृषलवद् । ब्राह्मण इव, वृषल इव । वृषलो वृषशीलो भवति, वृषाशीलो वा । अर्थात् वृषल का अर्थ वृष = धर्म * + शील और वृष = धर्मं + १० प्रशील है । द्वितीय अर्थ में शकन्धु' के समान प्रकार का पररूप होगा । इन्हीं दो प्रथों में वृषलशब्द की दो व्युत्पत्तियां भी उपलब्ध होती हैं । एक वृषं - धर्मं लाति प्रादत्ते इति वृषलः है । इसी में 'वृषादिभ्यश्चित्' । इस उणादिसूत्र से वृष धातु से कर्त्ता में कल १५ प्रत्यय होने पर 'वर्षतीति' वृषलः' व्युत्पत्ति होती है । दूसरा अर्थ मनुस्मृति में लिखा है— वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् । वृषलं तं विदुर्दवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ॥ इन्हीं विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्तों को दर्शाने के लिए निरुक्तकार २० ने दो निर्वचन दर्शाये हैं । अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने मौर्य चन्द्रगुप्त के लिये वृषल शब्द का प्रयोग देखकर 'मुरा' नाम्नी शूद्र स्त्री से चन्द्रगुप्त के उत्पन्न होने की कल्पना की है । यह कल्पना ऐतिह्य - विरुद्ध .३० १. भारतवर्ष का इतिहास पृष्ठ २६३, २७४ द्वितीय संस्करण । २. वृषलः कथितः शूद्रे चन्द्रगुप्ते च वाजिनि । पृष्ठ १५६, श्लोक ० । 'वाजिनि' के स्थान पर 'राजनि' पाठ युक्त प्रतीत होता है । २५ ३. देवताओं का प्यारा और मूर्ख । इसको न समझकर भट्टोजि दीक्षित ने 'देवानां प्रिय इति चोपसंख्यानम्' ( महाभाष्य ६ । ३ । २१ ) वार्तिक में 'भूख' पद का प्रक्षेप कर दिया । सि० कौ० सूत्रसंख्या ६७६ । ४. वृषो हि भगवान् धर्मः । मनु० ८ | १६ || ५. शक + अन्धुः =शकन्धुः । शकन्ध्वादिषु च । वार्तिक ६।१।९४।। ६. पञ्च० उणा० १।१०१ ॥ दश० उणा० ८।१०६ ।। ७. मनु० ८ १६ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३६७ होने से त्याज्य है। मौर्य क्षत्रिय वंश था।' व्याकरण के नियमानुसार मुरा की संतति मौरेय कहायेगी, मौर्य नहीं। . ___ इस विवेचना से स्पष्ट है कि महाभाष्य के संख्या २, ३ के उद्धरणों में मौर्य बृहद्रथ समकालिक मौर्यकल की हीनता का उल्लेख है। संख्या ४ के उद्धरण में स्पष्ट मौर्यशब्द का उल्लेख है। अतः ५ महाभाष्यकार मौर्य राज्य के अनन्तर हुअा होगा। ३-संख्या ५ में अयोध्या और माध्ममिका नगरी पर किसी यवन के आक्रमण का उल्लेख है। गार्गीसंहिता के अनुसार इस यवनराज का नाम धर्ममीत था। व्याकरण के नियमानुसार 'अरुणत् शब्द का प्रयोगकर्ता भाष्यकार यवनराज धर्ममीत का समकालिक १० होना चाहिये । ४-संख्या ६-६ चार उद्धरणों में स्पष्ट पुष्यमित्र का उल्लेख है। कई विद्वानों का मत है कि संख्या ८ में महाभाष्यकार के पुष्यमित्रीय अश्वमेध का ऋत्विक् होने का संकेत है। संख्या १० से इस की पुष्टि होती है। इस में क्षत्रिय को यज्ञ कराने की निन्दा की है। १५ पतञ्जलि का यजमान पुष्यमित्र ब्राह्मण वंश का था। ५-महाराज समुद्रगुप्त के कृष्णचरित का अंश हमने पूर्व उद्धृत किया है । उससे ज्ञात होता है कि महामुनि पतञ्जलि ने कोई 'महानन्दमय' काव्य बनाया था। यदि महानन्द शब्द श्लेष से महानन्द पद्म का वाचक हो, तो निश्चय ही पतञ्जलि महानन्द पद्म का २० उत्तरवर्ती होगा। ___ इन प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि शुङ्गवंश्य महाराज पुष्यमित्र का समकालीन है।' पाश्चात्य १. चन्द्रगुप्ताय मौर्यकुलप्रसूताय । कामन्दक नीतिसार की उपाघ्यायनिरपेक्षा टीका । अलवर राजकीय पुस्तकालय सूचीपत्र, परिशिष्ट पृ० ११० । २५ २. अष्टा० ४।१।१२१॥ ३. नागेश उद्धरणान्तर्गत मौर्य पद का अर्थ 'विक्रेतु प्रतिमाशिल्पवन्तः' करता है। ४ यह चित्तौड़गढ़ से ६ मील पूर्वोत्तर दिशा में है। सम्प्रति 'नगरी' नाम से प्रसिद्ध है। ५. परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्त दर्शनविषये । महाभाष्य ३।२।१११॥ ६. यह लोकप्रसिद्ध मतानुसार लिखा है । अपना मत हम आगे लिखेगे। ३० Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तथा तदनुयायी भारतीय ऐतिहासिक पुष्यमित्र का काल विक्रम से लगभग १५० वर्ष पूर्व मानते हैं । परन्तु अनेक प्रमाणों से यह मत युक्त प्रतीत नहीं होता । इस में संशोधन की पर्याप्त आवश्यकता है । भारतीय पौराणिक कालगणनानुसार पुष्यमित्र का काल विक्रम से ५ लगभग १२०० वर्ष पूर्व ठहरता है । चीनी विद्वान् महात्मा बुद्ध का निर्वाण विक्रम से ६०० से १५०० वर्ष पूर्व विभिन्नकालों में मानते हैं । इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में महावीर स्वामी के निर्वाण की विभिन्न तिथियां उपलब्ध होती हैं ।' अतः विना विशेष परीक्षा किये पाश्चात्त्य ऐतिहासिकों द्वारा निर्धारित कालक्रम माननीय नहीं हो सकता । १० अब हम महाभाष्यकार के कालनिर्णय के लिये बाह्यसाक्ष्य उपस्थित करते हैं चन्द्राचार्य द्वारा महाभाष्य का उद्धार . श्राचार्य भर्तृहरि और कल्हण के लेख से विदित होता है कि चन्द्राचार्य ने विलुप्तप्राय महाभाष्य का पुनरुद्धार किया था । अतः १५ महाभाष्यकार के कालनिर्णय में चन्द्राचार्य का कालज्ञान महान् सहायक है । चन्द्राचार्य का काल भी विवादास्पद है, इसलिये हम प्रथम चन्द्राचार्य के काल के विषय में लिखते हैं चन्द्राचार्य का काल कल्हण के लेखानुसार चन्द्राचार्य कश्मीराधिपति महाराज अभि२० मन्यु का समकालिक था। उसके मतानुसार अभिमन्यु कनिष्क का उत्तरवर्ती है । कल्हण ने कनिष्क को बुद्धनिर्वाण के १५० वर्ष पश्चात् लिखा है । बुद्धनिर्वाण के विषय में अनेक मत हैं । कल्हण ने बुद्धनिर्वाण की कौनसी तिथि मान कर कनिष्क को १५० वर्ष पश्चात् लिखा है, यह अज्ञात है। चीनी यात्रो ह्यूनसांग लिखता है - - ' बुद्ध २५ १. भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग १ पृष्ठ १२१, १२२ ( द्वि० [सं० ) । २. पर्वतादागमं लब्ध्वा भाष्यबीजानुसारिभिः । स नीतो बहुशाखत्वं चन्द्रावार्यादिभिः पुनः ॥ वाक्यपदीय २२४५६ || चन्द्राचार्यादिभिर्लब्ध्वादेशं तस्मात्तदागमम् । प्रवर्तितं महाभाष्यं स्वं च व्याकरणं कृतम् । राजतरङ्गिणी, तरङ्ग १, श्लोक १७६ ॥ ३. राजतरङ्गिणी १।१७४, १७६ ॥ ४. राजतरङ्गिणी १।१७२॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३६६ की मृत्यु से ठीक ४०० वर्ष पीछे कनिष्क संपूर्ण जम्बू द्वीप का सम्राट बना। चीनी ग्रन्थकार बुद्धनिर्वाण की विक्रम से १००-१५०० वर्ष पूर्व अनेक विभिन्न तिथियां मानते हैं। कल्हणविरचित राजतरङ्गिणो के अनुसार अभिमन्यु से प्रतापादित्य तक २१ राजा हुए (कई प्रतापादित्य को विक्रमादित्य मानते हैं)। राजतरङ्गिणी के अनुसार इन' ५ का राज्यकाल १०१४ वर्ष ६ मास ६ दिन का था । कल्हण के लेखानुसार विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राजा बनाया था। मातृगूप्त अभिमन्यु से ३१ पीढ़ी पश्चात् हुमा है । उसका काल अभिमन्यु से १३०० वर्षे ११ मास और ६ दिन उत्तरवर्ती हैं। कल्हण ने प्राचीन ऐतिहासिक आधार पर प्रत्येक राजा का वर्ष, मास और १० दिनों तक की पूरी-पूरी संख्या दी है । अतः उस के काल को सहसा अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। पाश्चात्त्य ऐतिहासिकों ने अभिमन्यु का काल बहुत अर्वाचीन और भिन्न-भिन्न माना है । बिल्फर्ड ४२३ वर्ष ईसापूर्व, बोथलिंग १०० वर्ष ईसापूर्व, प्रिंसिप् ७३ वर्ष ईसापूर्व, लासेन ४० वर्ष ईसापश्चात्, और स्टाईन ४००-५०० १५ वर्ष ईसा पश्चात अभिमन्यु को रखते हैं।' पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा निर्धारित कालक्रम की अपेक्षा भारतीय पौराणिक और राजतरङ्गिणी की कालगणना अधिक विश्वासनीय है । राजतरङ्गिणी की कालगणना में थोड़ी सी भूल है, यदि उसे दूर कर दिया जाए, तो दोनों गणनाएं लगभग समान हो जाती हैं। चन्द्राचार्य के कालनिर्णय में एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए। वह है चान्द्रव्याकरण १।२।८१ का उदाहरण-अजयत जों हूणान् अर्थात् जर्त ने हूणों को जीता । जत एक सीमान्त की पुरानी जाति है । महाभारत सभा पूर्व ४७।२६ में जर्तों के लिए लोमशाः 'शृङ्गिणो नराः' प्रयोग मिलता है। दुर्गसिंह ने उणादि २१६८ की २५ वृत्ति में 'जतः दीर्घरोमा लिखा है । वर्धमान गणरत्नमहोदधि कारिका २०१ में 'शक' और 'खस' के साथ 'जत' शब्द पढ़ता है। हेमचन्द्र उणादिवृत्ति (सूत्र २००) में जर्त का अर्थ राजा करता है। १. निरुक्तालोचना पृष्ठ ६५ द्रष्टव्य । २. 'जत' शब्द का निर्देश पञ्च० उ० ५।४६ तथा दश० उ० ६।२५ में १० मिलता है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सम्भव है, हेमचन्द्र का संकेत उसी जर्त राजा की प्रोर हो, जिसकी हूणों की विजय का उल्लेख चान्द्रव्याकरण की वृत्ति में मिलता है । रमेशचन्द्र मजुमदार ने चान्द्रव्याकरण के 'प्रजयत् जत हूणान्' पाठ को बदल कर 'श्रजयद् गुप्तो हूणान्' बना दिया है ।" यह भयङ्कर ५ भूल है । अनेक विद्वानों ने मजुमदार महोदय का अनुकरण करके चन्द्रगोमी के श्राश्रयदाता : अभिमन्यु का काल गुप्तकाल के अन्त में विक्रम की पांचवी शताब्दी में माना है । और उसी के आधार पर वाक्यपदीयकार भर्तृहरि को भी बहुत अर्वाचीन बना दिया है । पाश्चात्य मतानुयायी प्रपने काल-विषयक आग्रह को सिद्ध करने के १० लिये प्राचीन ग्रन्थों के पाठों को किस प्रकार बदलते हैं, यह इस बात का एक उदाहरण है । पाठ बदलते समय मूल पाठ का निर्देश भी न करता, उनकी दुरभिसन्धि को सूचित करता है । इस प्रकार महाभाष्यकार को महाराज पुष्यमित्र का समकालिके मानने पर वह भारतीय गणनानुसारे विक्रम से लगभग १२०० वर्ष १५ पूर्ववर्ती अवश्य है । महाभाष्यकार को पुष्यमित्र का समकालिक मानने में एक कठिनाई भी है । उसका यहां निर्देश करना आवश्यक हैं इससे भावी इतिहास शोधकों को विचार करने में सुगमता होगी । हम पूर्व लिख चुके हैं कि वायु पुराण ६६।३१९ के अनुसार महा२० राज उदयी ने गङ्गा के दक्षिणकूल पर कुसुमपुर नगर बसाया था, वही कालान्तर में पाटलिपुत्र के नाम से विख्यात हुआ, ऐसा साम्प्रतिक ऐतिहासिकों का मत है । गङ्गा के दक्षिणकूल पर स्थति होने १. ए न्यू हि० आफ दि इ० पी० भाग ६, पृष्ठ १६७ । यही भूल डा० वेल्वाल्कर ने 'सिस्टम्स् ग्राफ संस्कृत ग्रामर पृष्ठ ५८ पर तथा विश्वेश्वरनाथ २५ रेऊ ने 'भारत के प्राचीन राजवंश' पृष्ठ २८८ पर की है । 'जैन सत्यप्रकाश' वर्ष ७ दीपोत्सवी अंक पृष्ठ ८० पर भी यही भूल है । आश्चर्य की बात तो यह है कि चान्द्रवृत्ति में स्पष्ट जर्त पाठ है । उस मूल पाठ को किसी ने भी देखने का यत्न नहीं किया। इस का नाम है अन्धपरम्परा अथवा 'गतानुगति को लोकः' । २. श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत भारतवर्ष ३० का इतिहास द्वितीय संस्करण पृष्ठ ३२५ । ३. देखो - गुप्त साम्राज्य का इतिहास, द्वितीय भाग, पृष्ठ १५६. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ महाभाष्यकार पतञ्जलि पर अनुशोण स्थिति उत्पन्न हो सकती है। मुद्राराक्षस नाटक में मौर्य चन्द्रगुप्त के समय पाटलिपुत्र की स्थिति अनुगङ्ग कही है, यह अनुगङ्ग स्थिति उत्तरकूल पर थी, और इस समय भी अनुगङ्ग स्थिति उत्तरकूल पर है। परन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि पाटलिपुत्र को अनुशोण लिखता है। यदि महाभाष्यकार को शुङ्गकाल में माना ५ जाये, तो उसका पाटलिपुत्र को अनुशोण लिखना उपपन्न नहीं हो सकता। अनेक पाटलिपुत्र नागेश महाभाष्य २११११ के 'कूतो भवान पाटलिपुत्रात्' वचन की व्याख्या में लिखता है-कस्मात् पाटलिपुत्राद् भवानागत इत्यर्थः, १० अनेकत्वात् पाटलिपुत्रस्य, तदवयवानां वा प्रश्नः । इससे सन्देह होता है कि पाटलिपुत्र नाम कदाचित् अनेक नगरों का रहा हो। पाटलिपुत्र का अनेक बार बसना पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने महावंश नामक बौद्धग्रन्थ के आधार पर लिखा है-'शाक्यमुनि के जीवनकाल में अजातशत्र ने सोन के १५ किनारे पाटली में ग्राम में दुर्गनिर्माण किया, उसे देख कर भगवान् बुद्ध ने भविष्यवाणो की-'यह भविष्य में प्रधान नगर होगा' ।' महाराज अजातशत्रु उदयो का पूर्वज है। इससे स्पष्ट है कि उदयो के कुसुमपुर बसनि से पूर्व कोई पाटली ग्राम विद्यमान था। हमारा विचार है कि पाटलिपुत्र अत्यन्त प्राचीन नगर है, और २० वह इन्द्रप्रस्थ के समान अनेक बार उजड़ा और बसा है। पाणिनि से पूर्व पाटलिपुत्र का उजड़ना, पाटलिपुत्र पाणिनि से बहुत प्राचीन नगर है। वह पाणिनि से पूर्व एक बार उजड़ चुका था। गणरत्नमहोदधि में वर्धमान लिखता हैं'पुरगा नाम काचिद् राक्षसी तया भक्षितं पाटलिपुत्रम्, तस्या २५ निवासः। . अर्थात् किसी पुरगा नाम की राक्षसी ने पाटलिपुत्र को उजाड़ दिया था। १. निरुक्तालोचन पृष्ठ ७१। २. पृष्ठ १७६ । । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास Ac यह इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। इसको सुरक्षित रखने का श्रेय वर्धमान सूरि को है । पाटलिपुत्र के उजड़ने की यह घटना पाणिनि से प्राचीन है, क्योंकि पाणिनि ने ८ । ४ । ४ में साक्षात् पुरगावण का उल्लेख किया है। सम्भव है, इसलिये महाभारत आदि में पाटलिपुत्र का वर्णन नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र को उदयो ने ही नहीं बसाया था। वह प्राचीन नगर है, और कई बार उजड़ा और कई बार बसा । भगवान् तथागत के समय पाटली ग्राम को विद्यमानता भी इसी को पुष्ट करती है। अतः महाभाष्य में पाटलिपुत्र का उल्लेख होने मात्र से वह उदयी के अनन्तर नहीं हो १० सकता। पूर्व उद्धरणों पर भिन्नरूप से विचार १-महाभाष्य में कहीं पर भी पुष्यमित्र का शुङ्ग वा राजा विशेषण उपलब्ध नहीं हो सकता, और न कहीं पुष्यमित्र के अश्वमेध करने का ही संकेत है । अतः यह नाम भी देवदत्त यज्ञदत्त विष्णुमित्र १५ आदि के तुल्य सामान्य पद नहीं है, इसमें कोई हेतु नहीं। २-यदि 'इह पुष्यमित्रं याजयामः' वाक्य में 'इह पद को पाटलिपुत्र का निर्देशक माना जाये. तो उससे उत्तरवर्ती 'इह अधीमहे वाक्य से मानना होगा कि पतञ्जलि पुष्यमित्र के अश्वमेघ के समय पाटलिपुत्र में अध्ययन कर रहा था। यह अर्थ मानने पर अश्वमेध कराना, और गुरुमुख से अध्ययन करना, दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते । अतः इन वाक्यों का किसी अथविशेष में संकेत मानना अनुपपन्न होगा। ३–'चन्द्रगुप्तसभा उदाहरण अनेक हस्तलेखों में उपलब्ध नहीं होता, और जिनमें मिलता है, उनमें भी 'पुष्यमित्रसभा' के अनन्तर २५ उपलब्ध होता है। यह पाठक्रम ऐतिहासिक दृष्टि से अयुक्त है। ४-महाभाष्य के पूर्व उद्धृत उद्धरण में 'वृषल' शब्द का बहुप्रसिद्ध अधर्मात्मा अर्थ भी हो सकता है । वृषल का अर्थ केवल चन्द्रगुप्त ही नहीं है। ५-मौर्यवश प्राचीन है, उसका प्रारम्भ चन्द्रगुप्त से ही नहीं ३० १. वनं पुरगामिश्रकासिध्रकासारिकाकोटराग्रेभ्यः । २० Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३७३ हुआ । अतः केवल मौर्यपद का उल्लेख होने से विशेष परिणाम नहीं निकाला जा सकता । महाभाष्य के टीकाकारों के मत में मौर्य शब्द शिल्पिवाचक है।' ६-'अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम' में किसी यवन राजविशेष का साक्षात उल्लेख नहीं है । इतना ही नहीं, ५ कालयवन नामक अति प्राचीन यवन सम्राट् ने भारत के एक बड़े भाग पर आक्रमण किया था, और इस देश पर भारी अत्याचार किये थे। इसे श्रीकृष्ण ने मारा था। भारतीय आर्य बहुत प्राचीन काल से यवनों से परिचित थे। रामायण-महाभारत आदि में यवनों का बहुधा उल्लेख उपलब्ध होता है। अतः केवल इतने निर्दश से कालविशेष १० की सिद्धि नहीं हो सकती। ७-भर्तृहरि और कल्हण के प्रमाण से हम पूर्व लिख चुके हैं कि चन्द्राचार्य ने नष्ट हुये महाभाष्य का पुनरुद्धार किया था। महान् प्रयत्न करने पर उसे दक्षिण से एकमात्र प्रति उपलब्ध हुई थी। बहुत सम्भव है चन्द्राचार्य ने नष्ट हुये महाभाष्य का उसी प्रकार परिष्कार १५ किया हो, जैसे नष्ट हुई अग्निवेश-संहिता का चरक और दृढबल ने, तथा काश्यप-संहिता का जीवक ने परिष्कार किया था। समुद्रगुप्तकृत कृष्णचरित का संकेत समुद्रगुप्त-विरचित 'कृष्णचरित' का जो अंश उपलब्ध हुआ है, उसमें मुनिकवियों और राजकवियों का जो भी वर्णन किया गया है, २० वह कालक्रमानुसार है । यह बात दोनों प्रकार के कविवर्णनों से स्पष्टः है। समुद्रगुप्त ने पतञ्जलि का वर्णन देवल के पश्चात और भास स पूर्व किया है। यद्यपि भास का काल भी विवादास्पद ही है, तथापि भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण नाटक के एक श्लोक का निर्देश कौटल्य अर्थ- ५ शास्त्र में होने से इतना स्पष्ट है कि भास आचार्य चाणक्य से अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्वभावी है। अधिक सम्भावना यही है कि वह • १. मौर्याः-विक्रेतु प्रतिमाशिल्पवन्तः । नागेश, भाष्यप्रदीपोद्योत । ५३६६॥ २. द्र०-पूर्व पृ० २१०, टि०३ । ३. नवं शरावं सलिलस्य पूर्ण.........। १० यौ० ४।२। अर्थशास्त्र १०॥३॥ ३० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाराज उदयन का समकालिक हो । अतः भारतीय इतिहास के अनुसार भास का काल विक्रम से लगभग १५०० वर्ष पूर्व है । इस यतः समुद्रगुप्त ने पतञ्जलि का वर्णन भास से पूर्व किया है, लिये उसका काल १५०० वि० पूर्व से अवश्य ही पूर्व होना चाहिये । उक्त मत का साधक प्रमाणान्तर श्रायुर्वेदीय चरक संहिता में लिखा है कि इस काल में अर्थात कलि के प्रारम्भ में मनुष्यों की औसत आयु १०० वर्ष है ।' प्रत्येक - १०० वर्ष के पश्चात् मनुष्य की औसत आयु में एक वर्ष का ह्रास होता है ।" महाभाष्यकार पतञ्जलि ने प्रथमाह्निक में लिखा है-कि पुनरद्यत्वे यः सर्वथा चिरं जीवति वर्षशतं जीवति । इससे स्पष्ट है कि भाष्यकार के समय मनुष्य की प्रायिक आयु १०० वर्ष नहीं थी । चरक - वचन का उपोद्बलक बाह्य साक्ष्य - चरक संहिता में मनुष्य १५ कीं श्रायु का जो निर्देश किया है, और उत्तरोत्तर प्रायु ह्रास के जिस वैज्ञानिक तत्त्व का संकेत किया है, उसका साक्ष्य अभारतीय ग्रन्थों में भी मिलता है | बाइबल में लिखा है हमारी आयु के बरस सत्तर तो होते हैं, और चाहे बल के कारण अस्सी बरस भी हों, तो भी उन पर का घमण्ड कष्ट और व्यर्थ बात २० ठहरता है। इससे स्पष्ट है कि ईसामसीह के समय मनुष्य की प्रायिक प्रायु ७० वर्ष की मानी जाती थीं । भारतीय ऐतिहासिक कालगणनानुसार ईसामसीह का काल कलि संवत् ३१०० में है । इस प्रकार कलिआरम्भ से लेकर ईसामसीह तक ३००० वर्ष में चरक के प्रति सौ ५ वर्ष में १ वर्ष के ह्रास के नियमानुसार ३० वर्ष का ह्रास होना स्वाभाविक है । इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि चरक संहिता १. वर्षशतं खल्वायुषः प्रमाणमस्मिन् काले । शारीर ६।२६ ॥ २. संवत्सरे शते पूर्णे यात संवत्सरः क्षयम् । देहिनामायुषः काले यत्र यन्मानमिष्यते । विमान ३।३१ ॥ ३. पुराना नियम, भजन संहिता अ० ε० पृष्ठ ५६७, मिशन प्रेस इलाहाबाद, सन् १९१६ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३७५ ईसामसीह से ३००० वर्ष प्राचीन तो अवश्य है । अर्थात् भारतीय कालगणना ठीक है । पाश्चात्त्य विद्वानों ने ईसा से १४०० वर्ष पूर्व जो भारत युद्ध की स्थापना की है, वह नितान्त अशुद्ध है। उक्त नियमानुसार भाष्यकार का काल-पतञ्जलि ने 'यः सर्वथा चिरं जीवति' शब्दों से जिस भाव को व्यक्त किया है, उसी भाव को ५ बाइबल में चाहे बल के कारण शब्दों से प्रकट किया गया है। इसलिये इन दोनों वर्णनों की तुलना से स्पष्ट है कि सामान्य प्रायु को प्रयत्नपूर्वक १० वर्ष और बढ़ाया जा सकता है। इसी नियम के अनुसार भाष्यकार के शब्दों से यही अभिप्राय निकलता है कि भाष्यकार के समय सामान्य प्रायु ६० वर्ष की थी, और चिरजीवी १०० १० वर्ष तक भी जीते थे। इस प्रकार चरक के आयुर्विज्ञान के नियमानुसार पतञ्जलि का काल २००० विक्रम पूर्व होना चाहिये उससे उत्तरवर्ती नहीं माना जा सकता। २००० वि० पू० मानने में आपत्ति-महाभाष्यकार को २००० वि० पूर्व मानने में सबसे बड़ी आपत्ति यही आती हैं कि महाभाष्य में १५ पाटलिपुत्र वृषलकुल (= चन्द्रगुप्त मौर्यकुल), साकेत और माध्यमिका पर यवन प्राक्रमण, पुष्यमित्र, चन्द्रगुप्त आदि का वर्णन मिलता है।' इनके कारण महाभाष्यकार को शुङ्गवंशीय पुष्यमित्र से पूर्व का नहीं माना जा सकता। समाधान-इन आपत्तियों का सामान्य समाधान हमने पूर्व पृष्ठ २० ३६६-३७३ तक किया है । विशेष यहां लिखते हैं - महाभाष्य का परिष्कार-महाभाष्य का जो पाठ इस समय मिलता है, वह अक्षरशः पतञ्जलिविरचित ही है, ऐसा कहना भारतीय ऐतिहासिक परम्परा से मुंह मोड़ना है । भारतीय परम्परा में पचासों ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनका उत्तरोत्तर प्राचार्यों द्वारा परिष्कार २५ होने पर भी वे ग्रन्थ मूल ग्रन्थकार अथवा प्राद्य परिष्कारक के नाम : से ही विख्यात है मानवधर्मशास्त्र का न्यूनातिन्यून . तीन वार, परिष्कार हुआ, पुनरपि वह मूलतः मनुस्मति के नाम से ही प्रसिद्ध है। महाभारत का वर्तमान स्वरूप भी व्यासप्रणीत भारत के तीन परिष्कारों के अनन्तर ३० १. द्र०—पूर्व पृष्ठ ३६३-३६६ । ...। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सम्पन्न हुअा है, परन्तु इसे व्यास-विरचित ही कहा जाता है । वाल्मीकि रामायण के तीन पाठ सम्प्रति प्रत्यक्ष हैं, ये परिष्कार भेद से सम्पन्न हुए हैं, परन्तु तीनों वाल्मोकि-विरचित कहे जाते हैं । चरक-संहिता के भी ३-४ वार परिष्कार हुये। इसी प्रकार अन्य ग्रन्थों की भी व्यवस्था समझनी चाहिये। महाभाष्य के वर्तमान पाठ का परिष्कारक -महाभाष्य का वर्तमान में जो पाठ मिलता है, उसका प्रधान परिष्कारक है प्राचार्य चन्द्रगोमी । भर्तृहरि और कल्हण के प्रमाण हम पूर्व पृष्ठ (३६८, टि. २) पर उद्धृत कर चुके हैं, और अनुपद पुनः उद्धृत करेंगे । उनसे १० स्पष्ट है कि कश्मीराधिपति महाराज अभिमन्यु के पूर्व महाभाष्य का न केवल पठन-पाठन ही लुप्त हो गया था, अपितु उसके हस्तलेख भी नष्टप्रायः हो चुके थे। चन्द्राचार्य ने महान् प्रयत्न करके दक्षिण के किसी पार्वत्य प्रदेश से उसका एकमात्र हस्तलेख प्राप्त किया। ग्रन्थ के पठन-पाठन के लुप्त हो जाने से, तथा हस्तलेखों के दुर्लभ १५ हो जाने पर ग्रन्थों की क्या दुर्दशा होतो है, यह किसी भी विज्ञ विद्वान् से छिपी नहीं है। इस प्रकार ग्रन्थ के अव्यवस्थित हो जाने पर उसका पुनः परिष्कार अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। उस परिष्कार में परिष्कर्ता द्वारा नवीन अंशों का समावेश साधारण बात है । इसलिये हमारा दृढ मत है कि महाभाष्य में जो पूर्व-निर्दिष्ट प्रसंग २० आये हैं, वे परिष्कर्ता चन्द्राचार्य द्वारा सन्निविष्ट हये हैं। महाभाष्य कार पतञ्जलि शुङ्गवंशीय पुष्यमित्र से बहुत प्राचीन है, अन्यथा भारतीय ऐतिह्य-परम्परा का महान् ज्ञाता महाराज समुद्रगुप्त अपने कृष्णचरित में पतञ्जलि का वणन महाकवि भास से पूर्व कदापि न करता। १. दृढ़वल ने जब चरक का परिष्कार किया, उस समय चरक के चिकित्सास्थान के १३ वें अध्याय से आगे के ४० अध्याय नष्ट हो चुके थे। उन्हें दडबल के अनेक तन्त्रों के साहाय्य से पूरा किया। परन्तु शैली वही रक्खी, जो ग्रन्य में प्रारम्भ से विद्यमान थी। दृढ़बल स्वयं लिखता है - अतस्तेन्त्रोतमभिदं चरकेणातिबुद्धिना ॥ संस्कृतं तत्त्वसंपूर्ण त्रिभागेनोप30 लक्ष्यते । तच्छेकर भूतपति सम्प्रसाद्य समापयत् ॥ अखण्डा) दृढबलो जातः पञ्चनदे पुरे । सिद्धि० १२ । ६६-६८ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३७७ इस विवेचना का सार यही है कि महाभाष्य के चन्द्रगोमी द्वारा परिष्कृत वर्तमान पाठ के आधार पर भाष्यकार पतञ्जलि के काल का निर्धारण करना अन्याय्य है । यदि हमारे द्वारा प्रदर्शित २००० वि० पूर्व काल न भी माना जाये, और शुङ्गवंशीय पुष्यमित्र का समकालिक ही माना जाये, तब भी वह विक्रम पूर्व १२०० वर्ष से ५ उत्तरवर्ती नहीं हो सकता । पाश्चात्त्य विद्वानों का पुष्यमित्र को १५० वर्ष ईसा पूर्व में रखना सर्वथा भारतीय सत्य ऐतिहासिक काल-गणना के विपरीत है। निश्चय ही पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा निर्धारित भारत के प्राचीन इतिहास की रूपरेखा ईसाईयत के पक्षपात और राजनैतिक दुरभिसन्धि के कारण वड़े प्रयत्न से निर्मित है । अतः वह प्रांख मूद १० कर किसी विज्ञ भारतीय द्वारा स्वीकृत नहीं की जा सकती। उसे अपरीक्षित-कारक के समान स्वीकार करना भारतीय ज्ञान-विज्ञान और स्वीय सामर्थ्य का अपमान करना है । महाभाष्य की रचनाशली यद्यपि महाभाष्य व्याकरणशास्त्र का ग्रन्थ है, तथापि अन्य व्याक- १५ रण ग्रन्थों के सदश वह शुष्क और एकाङ्गी नहीं हैं । इस में व्याकरण जैसे क्लिष्ट और शुष्क विषय को अत्यन्त सरल और रसस ढंग से हृदयंगम कराया है। इसकी भाषा लम्बे-लम्बे समासों से रहित, छोटे-छोटे वाक्यों से युक्त, अत्यन्त सरल, परन्तु बहुत प्राञ्जल और सरस है। कोई भी असंस्कृतज्ञ व्यक्ति दो तीन मास के परिश्रम से २० इसे समझने योग्य संस्कृत सीख सकता है । लेखनशैली को दृष्टि से यह ग्रन्थ संस्कृत-वाङमय में सब से अद्भुत है। कोई भी अन्य इस की रचना-शैली की समता नहीं कर सकता । शबर स्वामी ने महाभाष्य के प्रादर्श पर अपना मीमांसा-भाष्य लिखने का प्रयास किया, परन्तु उसकी भाषा इतनी प्राञ्जल नहीं है, वाक्यरचना लड़खड़ाती २५ है, और अनेक स्थानों में उसकी भाषा अपने भाव को व्यक्त करने में असमर्थ हैं। स्वामी शंकराचार्यकृत वेदान्तभाष्य की भाषा यद्यपि प्राञ्जल और भाव व्यक्त करने में समर्थ है, तथापि महाभाष्य जैसी सरल और स्वाभाविक नहीं है । चरक-संहिता के गद्यभाग की भाषा यद्यपि महाभाष्य जैसी सरल प्राञ्जल और स्वाभाविक है, तथापि ३० उसकी विषय-प्रतिपादन शैली महाभाष्य जैसी उत्कृष्ट नहीं है । अतः Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भाषा की सरलता, प्राञ्जलता, स्वाभाविकता, और विषय प्रतिपादन - शैली की उत्कृष्टता आदि की दृष्टि से यह ग्रन्थ समस्त संस्कृतवाङ्मय में प्रार्दशभूत है । महाभाष्य की महत्ता महाभाष्य व्याकरणशास्त्र का अत्यन्त प्रमाणिक ग्रन्थ है । क्या प्राचीन क्या नवीन समस्त पाणिनीय वैयाकरण महाभाष्य के सन्मुख नतमस्तक हैं । महामुनि पतञ्जलि के काल में पाणिनीय और अन्य प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों की महती ग्रन्थराशि विद्यमान थी । पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त १० ग्रन्थों का सारसंग्रह कर दिया । महाभाष्य में उल्लिखित प्राचीन आचार्यों का निर्देश हम वार्तिककार के प्रकरण में कर चुके हैं । इसी प्रकार महाभाष्य में अन्य प्राचीन व्याकरण-ग्रन्थों से उद्घृत कतिपय वचनों का उल्लेख भी पूर्व हो चुका है । महाभाष्य का सूक्ष्म पर्यालोचन करने से विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल व्याकरणशास्त्र १५ का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु समस्त विद्याओं का प्राकरग्रन्थ है । अत एव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ( २२४६६ ) में लिखा है - कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदशना । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥ महाभाष्य का अनेक बार लुप्त होना २० उपर्युक्त लेख से स्पष्ट है कि पातञ्जल महाभाष्य बहुत प्राचीन ग्रन्थ है | इतने सुदीर्घ काल में महाभाष्य के पठन-पाठन का श्रनेक वारा उच्छेद हुआ । इतिहास से विदित होता है कि महाभाष्य का लोप न्यूनातिन्यून तीन वार अवश्य हुआ । यथा ३० - प्रथम वार - भर्तृहरि के लेख से विदित होता है कि बैजि सौभव २५ और हर्यक्ष प्रादि शुष्क तार्किकों ने महाभाष्य का प्रचार नष्ट कर दिया था | चन्द्राचार्य ने महान् परिश्रम करके दक्षिण के किसी पार्वत्य प्रदेश से एक हस्तलेख प्राप्त कर उसका पुनः प्रचार किया । भर्तृहरि का लेख इस प्रकार है बैजिसौभव हर्यक्षः शुष्कतर्कानुसारिभिः । श्रार्षे विप्लाविते ग्रन्थे संग्रहप्रतिकञ्चुके || Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि यः पतञ्जलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागमः । काले स दाक्षिणात्येषु ग्रन्थमात्रे व्यवस्थितः || पर्वतादागमं लब्ध्वा भाष्यबीजानुसारिभिः । स नीतो बहुशाखत्वं चन्द्राचार्यादिभिः पुनः ॥' ३७९ कल्हण ने लिखा है कि चन्द्राचार्य ने महाराज अभिमन्यु के प्रदेश ५ से महाभाष्य का उद्धार किया था । द्वितीय वार - कल्हण की राजतरङ्गिणी से ज्ञात होता है कि विक्रम की ८ वीं शताब्दी में महाभाष्य का प्रचार पुनः नष्ट हो गया था । कश्मीर के महाराज जयापीड ने देशान्तर से 'क्षीर' संज्ञक शब्द - विद्योपाध्याय को बुलाकर विच्छिन्न महाभाष्य का प्रचार पुनः १० कराया । कल्हण का लेख इस प्रकार हैं देशान्तरादागमय्याथ व्याचक्षाणान् क्षमापतिः । प्रावर्तयत विच्छिन्नं महाभाष्यं स्वमण्डले । क्षोराभिधानाच्छन्दविद्योपाध्यायात् संभृतश्रुतः । बुधैः सह ययौ वृद्धिं स जयापीड पण्डितः ॥ १५ महाराज जयापीड का शासन काल विक्रम सं० ८०८ - ८३९ तक है । एक वैयाकरण क्षीरस्वामी क्षीरतरङ्गिणी, अमरकोशटीका आदि अनेक ग्रन्थों का रचयिता है। कल्हण द्वारा स्मृत ' क्षीर' इस क्षीरस्वामी से भिन्न व्यक्ति है । क्षीरस्वामी अपने ग्रन्थों में महाराज भोज और उसके सरस्वतीकण्ठाभरण को बहुधा उद्धृत करता है । अतः २० इस क्षीरस्वामी का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । * तृतीय वार - विक्रम की १८वीं और १६वीं शताब्दी में सिद्धान्तकौमुदी और लघुशब्देन्दुशेखर आदि अर्वाचीन ग्रन्थों के अत्यधिक प्रचार के कारण महाभाष्य का पठन-पाठन प्रायः लुप्त हो गया था । काशी के अनेक वैयाकरणों की अभी तक धारणा है १. वाक्यपदीय २४८७, ४८८, ४८६ ॥ २. चन्द्राचार्यादिभिर्लब्ध्वादेशं तस्मात्तदागमम् । प्रवर्तितं महाभाष्यं स्वं च व्याकरणं कृतम् ॥ राजतरङ्गिणी १।१७६ ॥ ३. राजतरङ्गिणी ११४८८, ४८६॥ ४. क्षीरतरङ्गिणी की रचना जयसिंह के राज्यकाल ( वि० सं० १९८५ - १९९५) में हुई । द्र० – पाणिनीय धातुपाठ व्याख्याता, श्र० २१ । ३०. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ३८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः । कौमुदी यद्यकण्ठस्था वथा भाष्ये परिश्रमः ॥' पहिले दो वार आचार्य चन्द्र और क्षीर ने महाभाष्य का उद्धार तात्कालिक सम्राटों की सहायता से किया, परन्तु इस वार महाभाष्य का उद्धार कौपीनमात्रधारी परमहंस दण्डी स्वामी विरजानन्द और उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया। श्री स्वामी विरजानन्द ने तात्कालिक पण्डितों की पूर्वोक्त धारणा के विपरीत घोषणा की थी अष्टाध्यायीमहाभाष्ये द्वे व्याकरणपुस्तके । ततोऽन्यत् पुस्तकं यत्तु तत्सर्व धूर्तचेष्टितम् ॥ आज भारतवर्ष में यत्र-तत्र जो कुछ थोड़ा-बहुत महाभाष्य का पठन-पाठन उपलब्ध होता है, उसका श्रेय इन्हीं दोनों गुरु-शिष्यों को १० महाभाष्य के पाठ की अव्यवस्था १५ हमारे पूर्व लेख से स्पष्ट है कि महाभाष्य के पठन-पाठन का अनेक वार उच्छेद हुआ है । इस उच्छेद के कारण महाभाष्य के पाठों में बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है। भर्तृहरि, कैयट और नागेश श्रादि टीकाकार अनेक स्थानों पर पाठान्तरों को उधत करते हैं। नागेश कई स्थानों में महाभाष्य के अपपाठों का निदर्शन कराता है। २० अनेक स्थानों में महाभाष्य का पाठ पूर्वापर व्यस्त हो गया है । टीकाकारों ने कहीं-कहीं उसका निर्देश किया है, कई स्थान विना निर्देश किये छोड़ दिये हैं । सम्भव है टीकाकारों के समय वे पाठ ठीक रहे हों, और पीछे से मूल तथा टीका का पाठ व्यस्त हो गया हो। इसी प्रकार अनेक स्थानों में महाभाष्य के पाठ नष्ट हो २५ गये हैं। हम उनमें से कुछ स्थलों का निर्देश करते हैं १-अष्टाध्यायी के 'अव्ययीभावश्च" सूत्र के भाष्य में लिखा है१. इसका एक पाठान्तर इस प्रकार है कौमुदी यदि नायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः। कौमुदी यदि चायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः॥ भाव दोनों का एक ही है। २. अष्टा० १३१॥४१॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३५१ प्रस्य च्वौ-अव्ययप्रतिषेधश्चोद्यते, दोषाभूतमहर्दिवाभूता रात्रिरित्येवमर्थम् । स इहापि प्राप्नोति-उपकुम्भीभूतम्, उपमणिकीभूतम् । ___ महाभाष्यकार ने 'प्रस्य च्वौ' सूत्र के विषय में 'अव्ययप्रतिषेधश्चोद्यते' लिखा है । सम्प्रति महाभाष्य में 'अस्य च्वौ' सूत्र का भाष्य उपलब्ध नहीं होता। सम्पूर्ण महाभाष्य में कहीं अन्यत्र भी 'अस्य ५ च्वौ' के विषय में 'अव्ययप्रतिषेधः' का विधान नहीं । अतः स्पष्ट है कि महाभाष्य में 'प्रस्य च्वौ' सूत्र-सम्बन्धी भाष्य नष्ट हो गया है। २-महाभाष्य ४ । २।६० के अन्त में निम्न कारिका उद्घृत है अनुसूर्लक्ष्यलक्षणे सर्वसाद्विगोश्च लः । इकन पदोत्तरपदात् शतषष्टे: षिकन् पथः ॥ महाभाष्य में इस कारिका के केवल द्वितीय चरण की व्याख्या उपलब्ध होती है। इससे प्रतीत होता है कि कभी महाभाष्य में शेष तीन चरणों की व्याख्या भी अवश्य रही होगी, जो इस समय अनुपलब्ध है। ३-पतञ्जलि ने 'कृन्मेजन्तः" सूत्र के भाष्य में 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' परिभाषा के कुछ दोष गिनाये हैं। कैयट इस सूत्र के प्रदीप के अन्त में उन दोषों का समाधान दर्शाता हुआ सब से प्रथम 'कष्टाय' पद में दीर्घत्व की प्राप्ति का समाधान करता है। महाभाष्य में पूर्वोक्त परिभाषा के दोष-परिगणन प्रसंग में 'कष्टाय २० पदसम्बन्धी दीर्घत्व की अप्राप्ति' दोष का निर्देश उपलब्ध नहीं होता। अतः नागेश लिखता है___ कष्टायेति यादेशो दीर्घत्वस्येति ग्रन्थो भाष्यपुस्तकेषु भ्रष्टोऽतो न दोषः । अर्थात्-दोष-निदर्शन प्रसंग में 'कष्टायेति यादेशो दीर्घत्वस्य' २५ इत्यादि पाठ भाष्य में खण्डित हो गया है। अतः कैयट का दोष- परिहार करना प्रयुक्त नहीं। • ४-कैयट ८।४।४७ के महाभष्य-प्रदीप में लिखता है 'नायं प्रसज्यप्रतिषेधः' इति पाठोऽयं लेखकप्रमादान्नष्टः । १. अष्टा० ११॥३६॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास ' अर्थात्-महाभाष्य में 'नायं प्रसज्यप्रतिषेधः' पाठ लेखक-प्रमाद से नष्ट हो गया, अर्थात् अपभ्रष्ट हो गया । - ५–वाक्यपदीय २४२ की स्वोपज्ञ व्याख्या में भर्तृहरि भाष्य के नाम से एक लम्बा पाठ उदधृत करता है। यह पाठ महाभाष्य में ५. सम्प्रति उपलब्ध नहीं होता ।' । इन कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट है कि महाभाष्य का जो पाठ सम्प्रति उपलब्ध होता है, वह कई स्थानों पर खण्डित है । - महाभाष्य का प्रकाशन यद्यपि कई स्थानों से हुआ है, तथापि इसका अभी तक जैसा उत्कृष्ट परिशुद्ध संस्करण होना चाहिये, वैसा प्रकाशित नहीं हुआ। डा. कीलहान का संस्करण हो इस समय सर्वोत्कृष्ट है । परन्तु उस में अभी संशोधन की पर्याप्त अपेक्षा है । डा० कीलहान के अनन्तर महाभाष्य के अनेक प्राचीन हस्तलेख और टीकायें उपलब्ध हो गई हैं, उनका भी पूरा-पूरा उपयोग नये संस्करण में होना चाहिये। ___ अन्य ग्रन्थ - हम प्रारम्भ में लिख चुके हैं कि पतञ्जलि के नाम से सम्प्रति तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं–निदानसूत्र, योगदर्शन और महाभाष्य । इनमें से निदानसूत्र और योगदर्शन दोनों किसी प्राचीन पतञ्जलि की रचनायें हैं। १-महानन्द काव्य -महाराजा समुद्रगुप्त विरचितं कृष्णचरित के तीन पद्य हमने पूर्व पृष्ठ ३६४ में उद्धृत किये हैं। उनसे विदित होता है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि ने 'महानन्द' वा 'महानन्दमय' नाम महाकाव्य रचा था। इस काव्य में पतञ्जलि ने काव्य के मिष से योग की व्याख्या की थी। इस ‘महानन्द' काव्य का मगध२५ सम्राट् महानन्द से कोई सम्बन्ध नहीं था। ..२-चरक का परिष्कार-हम पूर्व लिख चुके हैं कि चक्रपाणि, पुण्यराज और भोजदेव आदि अनेक ग्रन्थकार पतञ्जलि को चरकसंहिता का प्रति संस्कारक मानते हैं । समुद्रगुप्तविरचित कृष्गवरित के १. स चायं वाक्यपदयोराधिक्ययोर्भेदो भाष्य एवोपव्याख्यातः । अतश्च 10 तत्र भवान् माह-पथैकपदगतप्रातिपदिके हेतुराख्यायते। ..... Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ३८३ पूर्व पृष्ठ ३६४ में उद्धृत श्लोकों से भी प्रतीत होता है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि ने चरक-संहिता में कुछ धर्माविरुद्ध योगों का सनिवेश किया था। चरक संहिता के प्रत्येक स्थान के अन्त में लिखा है-'अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते ।' क्या चरक पतञ्जलि का ही नामान्तर है ? ___ हमने पूर्व पृष्ठ ३६२ महाभाष्य में उद्धृत कुछ वैदिक पाठों की सम्प्रति उपलभ्यमान शाखाओं के पाठों से तुलना प्रस्तुत की है । उससे हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि पतञ्जलि का संबन्ध कृष्णयजुर्वेदीय काठक-संहिता के साथ था । काठक-संहिता 'चरक' चरणान्तर्गत है । अतः उसका 'चरक' चरण होने से उसे 'चरक' कह १० सकते हैं।' श्री पं० गुरुपद हालदार ने 'वृद्धत्रयी' में लिखा है कि-पतञ्जलि ने आयुर्वेदीय चरक-संहिता पर कोई वार्तिक ग्रन्थ लिखा था।' इस वार्तिक का कर्ता महाभाष्यकार पतञ्जलि है। पण्डित गुरुपद हालदार ने रस-रसायन-धातु-व्यायार-विषयक पतञ्जलि के कई १५ वचन भी उधृत किये हैं।' ३- सिद्धान्त-सारावली-वातस्कन्धपैत्तस्कन्धोपेत-सिद्धान्तसारा.वली नामक वैद्यक ग्रन्थ पतञ्जलि-विरचित है, ऐसा पं० गुरुपद हालदार ने लिखा है। __४-कोष-कोष-ग्रन्थों की अनेक टीकानों में वासुकि, शेष, २० भोगीन्द्र, फणिपति आदि नामों से किसी कोष-ग्रन्थ के उद्धरण उपलब्ध होते हैं। हेमचन्द्र अपने 'अभिधानचिन्तामणि कोष की टोका' के प्रारम्भ में अन्य कोषकारों के साथ वासुकि का निर्देश करता है। परन्तु ग्रन्थ में उस के अनेक पाठ शेष के नाम से उधत करता है। अतः शेष और वासुकि दोनों एक हैं। 'विश्वप्रकाश कोष' के प्रारम्भ २५ (१।१६, १९) में भोगीन्द्र और फणिपति दोनों नाम मिलते हैं । राघव 'नानार्थमञ्जरी' के प्रारम्भ में शेषकार का नाम उद्धृत करता १. द्र०—कठचरकाल्लुक् (अष्टा० ४।३।१०७) चरकप्रोक्तां संहिताम् प्रधीयते विदन्ति वा ते चरकाः। २. वृद्धत्रयी, पृष्ठ २६.३१ ॥ ३. वृद्धत्रयी, पृ० २६, ३० । । ४. वृद्धत्रयी, पृष्ठ २६ । ३० Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ संस्कृत व्याकरण का इतिहास है । कैयट 'महाभाष्य' ४।२।६३ के प्रदीप में पतञ्जलि को नागनाथ के नाम से स्मरण करता है।' चक्रपाणि 'चरकटीका' के आदि में पतञ्जलि का अहिपति नाम से निर्देश करता है। अतः शेष, वासुकि, भोगोन्द्र, फणिपति, अहिपति और नागनाथ प्रादि सब नाम पर्याय हैं। अनेक ग्रन्थकार पतञ्जलि को पदकार के नाम से स्मरण करते हैं।' इस से प्रतीत होता है कि पतञ्जलि ने कोई कोष-ग्रन्थ भी रचा था । हेमचन्द्र द्वारा अभिधानचिन्तामणि की टीका' (पृष्ठ १०१) में शेष के नाम से उद्धृत पाठ में बुद्ध के पर्यायों का निर्देश उपलब्ध होता है। सम्भव है यह कोष आधुनिक हो। ५-सांख्य-शास्त्र-शेष ने सेश्वर सांख्य का एक कारिकाग्रन्य रचा था । उसका नाम था 'प्रार्यापञ्चाशोति' । अभिनवगुप्त ने इसी में कुछ परिवर्तन करके इसका नाम 'परमार्थसार' रक्खा है । सांख्यकारिका की युक्तिदीपिका-टीका में पतञ्जलि के सांख्यविषयक अनेक मत उद्धृत हैं। पतञ्जलि का एक मत योगसूत्र के व्यासभाष्य में १५ भी उद्धृत है। ६-साहित्यशास्त्र-गायकवाड़ संस्कृत ग्रन्थमाला में प्रकाशित शारदातनय-विरचित 'भावप्रकाशन' के पृष्ठ ३७, ४७ में वासकिविरचित किसी साहित्यशास्त्र से भावों द्वारा रसोत्पत्ति का उल्लेख उपलब्ध होता है। - ७-लोहशास्त्र-शिवदास ने चक्रदत्त की टीका में पतञ्जलि विरचित 'लोहशास्त्र' का उल्लेख किया है।' संख्या ५, ६, ७ ग्रन्थों में से कौन-कौनसा ग्रन्थ महाभाष्यकार पतञ्जलि विरचित है, यह अज्ञात है। अब हम अगले अध्याय में महाभाष्य के टीकाकारों का वर्णन करेंगे। १. पूर्व पृष्ठ ३५७, टि०५। २. पूर्व पृष्ठ ३५७, टि.६। ३. पूर्व पृष्ठ ३५८, टि०७-६; पृष्ठ ३५९, टि. १-३ । ५. बुद्धे तु भगवान् योगी बुधो विज्ञानदेशनः । महासत्त्वो लोकनाथो बोधिरहन सुनिश्चित: । गुणाब्धिबिगतद्वन्द्व-..। ५. पूर्व पृष्ठ ३६३, टि० ४। ६. पूर्व पृष्ठ ३६३, टि. २ । ७. उत्पत्तिस्तु रसानां या पुरा वासुकिनोदिता। नानाद्रव्योषधः पाकैव्यंजनं भाव्यते यथा ॥ एवं भावा भावयन्ति रसानभिनयः सह । इति वासुकिनाप्युक्तो भावेभ्यो रससम्भवः ॥ ८. यदाह पतञ्जलिः-दिव्यं दावं समादाय लोहकर्म समाचरेत्' इति । द्र०-वृद्धत्रयी, पृष्ठ २६ । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां अध्याय महाभाष्य के टीकाकार महाभाष्य पर अनेक विद्वानों ने टीकाएं लिखी हैं । उनमें से अनेक टीकाएं संप्रति अनुपलब्ध हैं। बहुत से टीकाकारों के नाम भी ज्ञात हैं । महाभाष्य पर रची गई जितनी टीकाओं का हमें ज्ञान हो ५ सका, उनका संक्षिप्त वर्णन हम आगे करते हैं भतृहरि से प्राचीन टीकाएं भर्तृहरि - विरचितं महाभाष्य की टीका का जितना भाग इस समय उपलब्ध है, उसके अवलोकन से ज्ञात होता है कि उससे पूर्व भी महाभाष्य पर अनेक टीकाएं लिखी गई थीं । भर्तृहरि ने अपनी टीका १० में 'अन्ये, परे, केचित्' आदि शब्दों द्वारा अनेक प्राचीन टीका के पाठ उद्धृत किये है |' परन्तु टीकाकारों के नाम अज्ञात होने से उनका वर्णन सम्भव नहीं है । भर्तृहरि विरचित महाभाष्यटीका के अवलोकन से हम इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि उससे पूर्व महाभाष्य पर न्यूनातिन्यून तीन टीकाएं अवश्य लिखी गई थीं । यदि महाभाष्य १५ की ये प्राचीन टीकाएं उपलब्ध होतीं, तो अनेक ऐतिहासिक भ्रम अनायास दूर हो जाते । 1 भर्तृहरि (वि० सं० ४०० से पूत्र ) महाभाष्य की उपलब्ध तथा ज्ञात टीकाओं में भर्तृहरि की टीका सब से प्राचीन और प्रामाणिक है । वैयाकरण- निकाय में पतञ्जलि २० के अनन्तर भर्तृहरि ही ऐसा व्यक्ति है, जिसे सब वैयाकरण प्रमाण मानते हैं । परिचय भर्तृहरि ने अपने किसी ग्रन्थ में अपना कोई परिचय नहीं दिया अतः भर्तृहरि के विषय में हमारा ज्ञान अत्यल्प है । २५ १. हस्तलेख की पृष्ठ संख्या - प्रन्ये ४, ५७, ७०, १५४ ( पूना सं० ४, ४८, ६०, ११८) इत्यादि । अपरे ७०, ७६, १७६ ( पूना सं० ६०, ६४, १३६) इत्यादि । केचित् ४, ६१, १६७, १७६ ( पूना सं० ३, ५१, १२७, १३६) इत्यादि । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गुरु-भर्तृहरि ने अपने गुरु का साक्षात् निर्देश नहीं किया । पुण्यराज ने भर्तृहरि के गुरु का नाम वसुरात लिखा है। वह लिखता है न तेनास्मद्गुरोस्तत्र भवतो वसुरातादन्यः । पृष्ठ २८४ । पुनः 'प्रणीतो गुरुणास्माकमयमागमसंग्रहः' श्लोक की अवतरणिका में लिखता है-तत्र भगवता वसुरातगुरुणा ममायमागमः संज्ञाय वात्सल्यात् प्रणीतः। पृष्ठ २८६ । पुनः पृष्ठ २६० पर लिखता है। प्राचार्यवसुरातेन न्यायमार्गान् विचिन्त्य सः । प्रणीतो विधिवच्चायं मम व्याकरणागमः ॥ क्या भर्तृहरि बौद्ध था ? चीनी यात्री इत्सिग लिखता है कि-'वाक्यपदीय और महाभाष्यव्याख्या का रचयिता आचार्य भर्तृहरि बौद्धमतानुयायी था। उसने सात वार प्रव्रज्या ग्रहण की थी।" १५ इत्सिग की भूल-वाक्यपदीय और महाभाष्य टीका के पर्यनु शीलन से विदित होता है कि भर्तृहरि वैदिकधर्मी था वह वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में लिखता है न चागमादते धर्मस्तकण व्यवतिष्ठते ।। ४६ ॥ पुनः वह लिखता हैवेदशास्त्राविरोधी च तर्कश्चक्षुरपश्यताम् । १।१३६ ॥ वेद के विषय में ऐसे उद्गार वेदविरोधी बौद्ध विद्वान् कभी व्यक्त नहीं कर सकता । जैन विद्वान् वर्धमानसूरि भर्तृहरिकृत महाभाष्यटीका का उद्धरण देकर लिखता है 'यस्त्वयं वेदविदामलङ्कारभूतो वेदाङ्गत्वात् प्रमाणितशब्दशास्त्रः २ सर्वशमन्य उपमीयते तेन कथमेतत् प्रयुक्तम् । उत्पल 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' में 'तत्र भगवद्भर्तृहरिणा ? ऽपि न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके.....' इत्यादि वाक्यपदीय की ३ कारिकाएं उद्धृत करके लिखता है ३० १. इत्सिग की भारतयात्रा पृष्ठ २७४ । २. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ १२३ । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ३८७ बौद्धैरपि अध्यवसायापेक्षं प्रकाशस्य प्रामाण्यं वदभिरुपगतप्रायएवायमर्थः । इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि भर्तृहरि बौद्धमतावलम्बी नहीं था । हमारे मित्र डा० श्री के० माधवशर्मा का भी यही मत है।' इत्सिग को यह भ्रान्ति क्यों हुई, इसका निरूपण हम आगे करगे । काल भर्तृहरि का काल अभी तक विवादास्पद है। कई विद्वान् इत्सिग के लेखानुसार भर्तृहरि का काल विक्रम की सप्तम शताब्दी का उत्तरार्घ मानते हैं । अब अनेक विद्वान् इत्सिग के लेख को भ्रमपूर्ण मानने लगे हैं। भारतीय जनश्रुति के अनुसार भतृहरि महाराज विक्रमादित्य १० का सदोहर भ्राता है। इसमें कोई विशिष्ट साधक बाधक प्रमाण नहीं हैं । अतः हम गन्थान्तरों में उपलब्ध उद्धरणों के आधार पर ही भर्तृहरि के काल-निर्णय का प्रयत्न करते हैं १-प्रसिद्ध बौद्ध चीनी यात्री इत्सिग लिखता है-'उस (भर्तृहरि) की मृत्यु हुऐ चालीस वर्ष हुए।" ऐतिहासिकों के मतानुसार इत्सिग ने अपना भारतयात्रा-वृत्तान्त विक्रम संवत् ७४६ के लगभग लिखा था। तदनुसार भर्तृहरि की मृत्यु संवत् ७०८,७०६ के लगभग माननी होगी। २-काशिका ४।३।८८ के उदाहरणों में भर्तृहरिकृत 'वाक्य'. पदीय' ग्रन्थ का उल्लेख है । काशिका की रचना सं०६८०, ७०१ के २० मध्य हुई थी, यह हम 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में सप्रमाण । लिखेंगे। कन्नड पञ्चतन्त्र के अनुसार जयादित्य और वामन गुप्तवंशीय विक्रमाङ्क साहसाङ्क के समकालिक हैं । यह गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय है। पाश्चात्त्य मतानुसार इसका काल वि० सं० ४६७. ४७० तक माना जाता है। फिर भी उक्त निर्देश से इतना स्पष्ट है २५ कि वाक्यपदीय ग्रन्थ काशिका से पूर्व लिखा गया है। १. भर्तृहरि नाट बुद्धिष्ट' दि पूना अोरियण्टलिस्ट, अप्रैल १९४० । हमारे इन आदरणीय मित्र महानुभाव का सं० २०२६ (सन् १९६६) में स्वर्गवास हो गया। २. इत्सिग की भारतयात्रा पृष्ठ २७५ । ३. विशेष देखें अष्टाध्यायी के वृत्तिकार नामक १४ वें अध्याय में काशिका , के प्रकरण में । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३-कातन्त्र व्याकरण की दुर्गसिंहकृत वृत्ति काशिका से प्राचीन है। धातुवृत्तिकार सायण के मतानुसार वामन ने काशिका ७।४।१३ में दुर्गवृत्ति का प्रत्याख्यान किया है।' दुर्गसिंह कातन्त्र १२१२६ को वृत्ति में लिखता हैतथा चोक्तम्-यावसिद्धमसिद्धं वा साध्यत्वेन प्रतीयते । प्राश्रितक्रमरूपत्वात् सा क्रियेत्यभिधीयते ॥ यह कारिका वाक्यपदीय की है।' दुर्गसिंह पुनः ३।२।४१ की वृत्ति में वाक्यपदीय की एक कारिका उद्धृत करता है । अतः भर्तृ. हरि काशिका से पूर्वभावी दुर्गसिंह से भी पूर्ववर्ती है । ४-शतपथ ब्राह्मण का व्याख्याता हरिस्वामी प्रथम काण्ड की व्याख्या में वाक्यपदीय के प्रथम श्लोक के उत्तरार्ध के एकदेश को उद्धृत करता है-अन्ये तु शब्दब्रह्म वेदं विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया इत्यत प्राहुः। हरिस्वामी अपनी शतपथ-व्याख्या के प्रथम काण्ड के अन्त में . १५ लिखता है श्रीमतोऽवन्तिनाथस्य विक्रमार्कस्य भूपतेः । धर्माध्यक्षो हरिस्वामी व्याख्यच्छातपथीं श्रुतिम् ।। यदाब्दानां कलेर्जग्मुः सप्तत्रिंशच्छतानि वै॥ चत्वारिंशत् समाश्चान्यास्तदा भाष्यमिदं कृतम् ॥ २० द्वितीय श्लोक के अनुसार कलि संवत् ३७४० अर्थात् वि० सं० ६९५ में हरिस्वामी ने शतपथ प्रथम काण्ड की रचना की । अभीअभी ग्वालियर से प्रकाशित विक्रम-द्विसहस्राब्दी स्मारक ग्रन्थ में पं० सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे का एक लेख मुद्रित हुअा है, उसमें पूर्वोक्त १. यत्तु कातन्त्र मतान्तरेणोक्तम्-इत्त्वदीर्घयोः अजीजागरत् इति भव२५ तीति, तदप्येदं प्रत्युक्तम् । वृत्तिकारात्रेयवर्धमानादिभिरप्येतद् दूषितम् पृ. २६६ । २. काण्ड ३, क्रियासमुद्देश कारिका १ । वाक्यपदीय में द्वितीय चरण का 'साध्यत्वेनाभिधीयते' और चतुर्थ चरण का 'सा क्रियेति प्रतीयते' पाठ है। ३. क्रियमाणं तु यत्कर्म स्वयमेव प्रसिद्धयति । सुकरैः स्वगुणैः कर्तुः कर्मकर्तेति तद्विदुः ॥ ३ ४. विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः । यह उत्तरार्ध का पूरा पाठ है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ३८९ दोनों श्लोकों का सामञ्जस्य करने के लिये द्वितीय श्लोक का अर्थ 'कलि संवत् ३०४७' किया है। उन्होंने 'सप्त' को पृथक् पद माना है । 'व' पद का प्रयोग होने से इस प्रकार कालनिर्देश हो सकता है। यदि यह व्याख्या ठीक हो तो द्वितीय श्लोक की पूर्व श्लोक के साथ संगति ठीक बैठ जाती है। विक्रम संवत् का प्रारम्भ कलि संवत् ५ ३०४५ से होता है। ३७४० कल्यब्द अर्थ करने में सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उस काल अर्थात् विक्रम संवत् ५६४ में अवन्ति=उज्जैन में कोई विक्रम था, इसकी अभी तक इतिहास से सिद्धि नहीं हुई। यदि ३०४७ अर्थ को ठीक न मानें, तब भी इतना स्पष्ट है कि भर्तृ - हरि हरिस्वामी से पूर्ववर्ती है। अभी कुछ वर्ष पूर्व उज्जैन से एक शिलालेख प्राप्त हया है। उस से भी हरिस्वामी का विक्रम समकालीनत्व प्रमाणित होता है। द्र० हिन्दुस्तान (साप्ताहिक) १८ अगस्त ६४ के विजयदशमी के अंक में डा० एकान्तबिहारी का लेख । अनेक विद्वान् इस शिलालेख को जाली सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील हैं। हरिस्वामी के द्वितीय श्लोक का अर्थ कलि संवत् ३०४७ करने में यह प्रधान आपत्ति दी जाती है कि जब हरिस्वामी के आश्रयदाता विक्रमार्क का संवत् प्रवृत्त हो चुका था, तब उस ने विक्रम संवत् का उल्लेख क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर सीधा सा है विक्रम संवत् को आरम्भ हुए अभी दो ही वर्ष हुए थे, जबकि कलि संवत् तीन सहस्र २० वर्ष से लोक व्यवहार में प्रचलित था । संस्कृत वाङमय में ऐसे अन्य ग्रन्थकार भी हैं, जिनके आश्रयदातानों का संवत् विद्यमान होते हुए भी उन्होंने कलि, विक्रम वा मालव संवत् का प्रयोग किया है। ५-हरिस्वामी ने शतपथ की व्याख्या में प्रभाकर मतानुयायियों के मत को उद्धृत किया है।' प्रभाकर भट्ट कुमारिल का शिष्य माना २५ जाता है । कुमारिल तन्त्रवार्तिक अ० १ पा० ३ अघि० ८ में वाक्यपदीय ११३ के वचन को उद्धृत करके उसका खण्डन करता है।' . १. अथवा सूत्राणि यथा विध्युद्देश इति प्राभाकरा:-अप: प्रणयतीति यथा । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ५। २. यदपि केनचिदुक्तम्-तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते । ३० तद्रूपरसगन्धेष्वपि वक्तव्यमासीत् इत्यादि । पूना संस्क० भा० १ पृष्ठ २६६ ।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इससे स्पष्ट है कि हरिस्वामी से पूर्ववर्ती प्रभाकर उससे पूर्ववर्ती कुमारिल और उससे प्राचीन भर्तृहरि है । ६-हरिस्वामी के गुरु स्कन्दस्वामी ने निरुक्त टोका १२२ में वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड का 'पूर्वामवस्थामजहत्' इत्यादि पूर्ण ५ श्लोक उद्धृत किया है। इसी प्रकार निरुक्त टीका भाग १ पृष्ठ १० पर क्रिया के विषय में जितने पक्षान्तर दर्शाये हैं, वे सब वाक्यपदीय के क्रियासमुद्देश के आधार पर लिखे हैं । निरुक्त टीका ५२१६ में उद्धृत 'साहचर्य विरोधिना' पाठ भी वाक्यपदीय २।३१७ का है। यहां साहचर्य विरोधिता' पाठ होना चाहिये। अतः वाक्यपदीय की १० रचना स्कन्द के निरुक्तभाष्य से पूर्व हो चुकी थी, यह स्पष्ट है । ७-स्कन्द का सहयोगी महेश्वर निरुक्त टीका ८२ में एक वचन उद्धृत करता है यथा चोक्तं भट्टारकेणापि पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचःश्रुतौ । ... रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ।। यह श्लोक भट्ट कुमारिल कृत श्लोकवार्तिक का है ।' निरुक्त टीका का मुद्रित पाठ अशुद्ध है । भट्ट कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक में वाक्यपदीय का श्लोक उद्धृत करके उसका खण्डन किया है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। इस से स्पष्ट है कि भर्तृहरि संवत् ६९५ से बहुत २० पूर्ववर्ती है । आधुनिक ऐतिहासिक भट्ट कुमारिल का काल विक्रम की आठवीं शताब्दो मानते हैं, वह अशुद्ध है, यह भी प्रमाण संख्या ५, ७ से स्पष्ट है। -इत्सिग अपनो भारतयात्रा में लिखता है-"इसके अनन्तर ___ 'पेइ-न' है, इसमें ३००० श्लोक हैं और इसका टोका भाग १४००० २५ श्लोकों में है। श्लोक भाग भर्तृहरि को रचना है और टोका भाग शास्त्र के उपाध्याय धर्मपाल का माना जाता है।"3 कई ऐतिहासिक 'पेइ-न' को वाक्यपदोय का तृतोय 'प्रकोण' काण्ड मानते हैं। यदि यह ठोक हो, तो वाक्यपदोय को रचना धर्मपाल से १. काशी संस्क० पृष्ठ ४६३ । २. ३८६ पृष्ठ, टि० २। ३. इत्सिग की भारतयात्रा पृष्ठ २७६ । ३० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ महाभाष्य के टीकाकार पूर्व माननी होगी। धर्मपाल की मृत्यु संवत ६२७ वि० (सन् ५७०) में हो गई थी।' अतः वाक्यपदीय की रचना निश्चय ही संवत् ६०० से पूर्व हुई होगी। __-अष्टाङ्गसंग्रह का टीकाकार वाग्भट्ट का साक्षात् शिष्य इन्दु उत्तरतन्त्र अ० ५० की टीका में लिखता है पदार्थयोजनास्तु व्युत्पन्नानां प्रसिद्ध एवेत्यत प्राचार्येण नोक्ताः । तासु च तत्र भवतो हरेः श्लोको संसर्गो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता। अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः ॥ सामर्थ्यमौचितिर्देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ अनयोरर्थः । इनमें प्रथम कारिका भर्तृहरिविरचित वाक्यपदीव २।३१७ में उपलब्ध होती है। दूसरी कारिका यद्यपि काशीसंस्करण में उपलब्ध नहीं होती, तथापि प्रथम कारिका की पुण्यराज की टीका पृष्ठ २१६ पंक्ति १६ में द्वितीय कारिका की व्याख्या छपी हुई है । इस से प्रतीत १५ होता है कि द्वितीय कारिका मुद्रित ग्रन्थ में टूट गई है । वाक्यपदीय के कई हस्तलेखों तथा इसके नये संस्करणों में द्वितीय कारिका भी विद्यमान है । वाग्भट्ट का काल प्रायः निश्चित सा है । अष्टाङ्गसंग्रह उत्तरतन्त्र अ० ४६ के पलाण्डु रसायन प्रकरण में लिखा है-- रसोनानन्तरं वायोः पलाण्डुः परमौषधम् । साक्षादिव स्थितं यत्र शकाधिपतिजीवितम् ॥ यस्योपयोगेन शकाङ्गनानां लावण्यसारादिव निर्मितानाम् । कपोलकान्त्या विजितः शशाङ्को रसातलं गच्छति निविदेव ।। इस श्लोक के आधार पर अनेक ऐतिहासिक वाग्भट्ट को चन्द्रगुप्त २५ द्वितीय के काल में मानते हैं। पाश्चात्त्य ऐतिहासिक चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल विक्रम संवत् ४३७-४७० तक स्थिर करते है । पं० भगवद्दत्त 1. Introduction to Vaisheshilks philosophy according to the Dashapadarthi Shastra-By H. U. I. 1917 P. 10. २. अष्टाङ्गहृदय की भूमिका पृष्ठ १४, १५ निर्णयसागर संस्क०। ३० Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जी ने अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' में ७६ प्रमाणों से सिद्ध किया है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ही विक्रम संवत् प्रवर्तक प्रसिद्ध विक्रमादित्य था।' अष्टाङ्गहृदय की इन्दुटीका के सम्पादक ने भूमिका में लिखा है जर्मन विद्वान् वाग्भट्ट को ईसा की द्वितीय शताब्दी में मानते हैं।' ५ इन्दु के उपर्युक्त उद्धरण से इतना तो स्पष्ट है कि भर्तहरि किसी प्रकार वि० सं० ४०० से अर्वाचीन नहीं है। १०--श्री पं० भगवद्दत्तजी ने 'वैदिक वाङमय का इतिहास' भाग १ खण्ड २ पृष्ठ २०६ पर लिखा है-- 'अभी-अभी अध्यापक रामकृष्ण कवि ने सूचना भेजी है कि १० भर्तृहरि की मीमांसावृत्ति के कुछ भाग मिले हैं, वे शाबर से पहले - इस के अनन्तर 'प्राचार्य पुष्पाञ्जलि वाल्यूम' में पं० रामकृष्ण कवि का एक लेख प्रकाशित हुप्रा । उसमें पृष्ठ ५१ पर लिखा है 'वाक्यपदीयकार भर्तृहरि कृत जैमिनीय मीमांसा की वृत्ति शबर से १५ प्राचोन है ।' भर्तृहरिकृत महाभाष्य-दीपिका तथा वाक्यपदीय के अवलोकन से स्पष्ट विदित होता है कि भर्तृहरि मीमांसा का महान् पण्डित था। भर्तृहरि शवर स्वामी से प्राचीन है, इसको पुष्टि महाभाष्य-दीपिका से भी होती है । भर्तृहरि लिखता है धर्मप्रयोजनो वेति मोमांसकदर्शनम् । अवस्थित एव धर्मः, स त्वग्निहोत्रादिभिरभिव्यज्यो, तत्प्रेरितस्तु फलदो भवति । यथा स्वामो भूत्यैः सेवायां प्रेर्यते । १. भारतवर्ष का इतिहास द्वि० सं० पृष्ठ ३२६-३४ । हमें पं० भगवदत्त जी का उक्त मत मान्य नहीं हैं, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य २५ भवन्ति (=उज्जैन) पर नहीं था। यह सर्वमान्य तथ्य है। २. अष्टाङ्गहृदय की भूमिका भाग १, पृष्ठ ५--केषांचिज्जर्मनदेशीयविपश्चितां मते खोस्ताब्दस्य द्वितीयशताब्द्यां वाग्भट्टो बभूव । ३. महाभाष्यदीपिका पष्ठ ३८, हमारा हस्तलेख, पूना सं० पृष्ठ ३१ । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय १।१४५ को स्वोपज्ञ विवरण में 'न प्रकृत्या किञ्चत् ३० कर्मदृष्टमष्टं वा शास्त्रानुष्ठानातु केवलाद् धर्माभिव्यक्ति.' वचन द्वारा किसी मीमांसा का मत उद्धृत किया है। श्लोकवात्तिक न्यायरत्नाकर टीका (पष्ठ ४ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० महाभाष्य के टोकाकार ३६३ ___ श्लोकवातिक न्यायरत्नाकर टोका (पृष्ठ ४६ चौखम्बा, काशी) के अनुसार यह मत भर्तृ मित्र नामक प्राचीन मीमांसक का है। इसकी तुलना न्यायमञ्जरीकार भट्टजयन्त के निम्न वचन के . साथ करनी चाहिए वृद्धमीमांसका यागादिकर्मनिर्वत्यमपूर्व नाम धर्ममभिवदन्ति । ५ यागादिकर्मैव शाबरा ब्रुवते । इन दोनों पाठों की तुलना से व्यक्त होता है कि धर्म के विषय में मीमांसकों में तीन मत हैं। (क) भर्तृहरि के मत में धर्म नित्य है, यागादि से उसकी अभिव्यक्ति होती है-- (ख) वृद्ध मीमांसक यागादि से उत्पन्न होने वाले अपूर्व को धर्म मानते हैं। (ग) शबर स्वामी यागादि कर्म को ही धर्म मानता है । वह ।। मीमांसाभाष्य १११।२ में लिखता है यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते । यश्च यस्य १५ कर्ता स तेन व्यपदिश्यते। । - धर्म के उपर्युक्त स्वरूपों पर विचार करने से स्पष्ट है कि भट्ट जयन्तोक्त वृद्धमीमांसकं शबर से पूर्ववर्ती हैं, और भर्तृहरि उन वृद्धमीमांसकों से भी प्राचीन है । भर्तृहरि की महाभाष्यदीपिका में अन्यत्र भी अनेक स्थानों पर जी मीमांसक मतों का उल्लेख मिलता २० है, वे प्रायः शाबर मतों से नहीं मिलते। ११-हमारे मित्र पं० साधुराम एम० ए० ने अनेक प्रमाणों के आधार पर भर्तृहरि का काल ईसा की तृतीय शती दर्शाया है। १. १२-भारतीय जनश्रुति के अनुसार भर्तृहरि विक्रम का सहोदर भ्राता है । 'नामूला जनश्रुतिः' के नियमानुसार इसमें कुछ तथ्यांश २५ अवश्य है। चौखम्वा, काशी) के अनुसार यह मत भ'मित्र नामक प्राचीन मीमांसक का है। १. न्यायमञ्जरी पृष्ठ २७६, लाजरस प्रेस काशी की छपी। २. 'भर्तृहरिज़ डेट' जरनल गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग १५ अङ्क २-४ (सम्मिलित)। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १३-काशो के समीपवर्ती चुनारगढ़ के किले में भर्तृहरि की एक गुफा विद्यमान है। यह किला विक्रमादित्य का बनाया हुना है, ऐसी वहां प्रसिद्धि है । इसी प्रकार विक्रम की राजधानी उज्जैन में भी भर्तृहरि की गुफा प्रसिद्ध है। इससे प्रतीत होता है कि भर्तृहरि पौर ५ विक्रमादित्य का कुछ पारस्परिक सम्बन्ध अवश्य था। १४-प्रबन्ध-चिन्तामणि में भर्तृहरि को महाराज शूद्रक का भाई लिखा है ।' महाराजाधिराज समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित के अनुसार शूद्रक किसी विक्रम संवत् का प्रवर्तक था।' पण्डित भगवद्दत जी ने अनेक प्रमाणों से शूद्रक का काल विक्रम से लगभग १० ५०० वर्ष पूर्व निश्चित किया है। देखो भारतवर्ष का इतिहास पृष्ठ २६१-३०५ द्वितीय संस्करण । . १५-श्री चन्द्रकान्त बाली (देहली) ने ११-७-६३ ई० के पत्र में लिखा है कि विक्रमादित्य और शूद्रक दोनों भाई थे। दोनों ही संवत् प्रवर्तक थे। विक्रमादित्य का समय ६६ ई० सन् और शूद्रक का ७८ १५ ई० सन् काल है । अतः भर्तृहरि का काल ६०-७० ईस्वी है। ___ इन सब प्रमाणों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि भर्तृहरि निश्चय ही बहुत प्राचीन ग्रन्थकार है। जो लोग इत्सिग के वचनानुसार इसे विक्रम की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मानते हैं, वे भूल करते हैं । यदि किन्हीं प्रमाणान्तरों से योरोपियन विद्वानों द्वारा निर्धारित चोनी-यात्रियों की तिथियां पीछे हट जावें तो इस प्रकार के विरोध अनायास दूर हो सकते हैं । अन्यथा इत्सिग का वचन अप्रामाणिक मानना होगा। भर्तृहरिविषयक इत्सिंग की एक भूल का निर्देश पूर्व कराया जा चुका है । इत्सिंग के वर्णन को पढ़ने से प्रतीत १. पृष्ठ १५१ । २. वत्सरं स्वं शकान् जित्वा प्रावर्तयत वैक्रमम् । राजकविवर्णन ११ । ३. भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २, पृष्ठ २६१-३०५। ४. विक्रमादित्यपर्यायः महेन्द्रादित्यसम्भवः' । असो विषमशीलोऽपि साहसाङ्कः शकोत्तरः ॥ १. विक्रमादित्यः विषमादित्यः। २. कथाग्रन्थेषु विक्रमस्य पितुर्नाम महेन्द्रादित्यः श्रूयते । ३. साहसाङ्कः शकोत्तर:तस्य लघुभ्राता विक्रमाङ्कः । यह उक्त पत्र में ही टिप्पणी है । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ३६५ होता है कि उसने भर्तृहरि का कोई ग्रन्थ नहीं देखा था। भर्तृहरि विरचित-ग्रन्थों के विषय में उसका दिया हुआ परिचय अत्यन्त भ्रमपूर्ण है। अनेक भर्तृहरि हमारा विचार है कि भर्तृहरि नाम के अनेक व्यक्ति हो चुके हैं। ५ उन का ठीक-ठीक विभाग ज्ञात न होने से इतिहास में अनेक उलझनें पड़ी हैं। विक्रमादित्य, सातवाहन, कालिदास और भोज आदि के विषय में भी ऐसी ही अनेक उलझनें हैं। पाश्चात्त्य विद्वान् उन उलझनों को सुलझाने का प्रयत्न नहीं करते, किन्तु अपनी मनमानी कल्पना के अनुसार काल निर्धारण करके उन्हें और अधिक उलझा देते हैं। और १० उन के मत में जो बाधक प्रमाण उपस्थित होते हैं उन्हें अप्रामाणिक कह कर टाल देते हैं । भर्तृहरि नाम का एक व्यक्ति हुआ है वा अनेक, अब इस के विषय में विचार करते हैं। इस के लिये यह आवश्यक है कि भर्तृहरि के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थों पर पहले विचार किया जाये। भर्तृहरि-विरचित ग्रन्थ संस्कृत वाङमय में भर्तृहरि-विरचित निम्न ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं१. महाभाष्य-दीपिका । २. वाक्यपदीय काण्ड १, २, ३ । ३. वाक्यपदीय काण्ड १, २ को स्वोपज्ञटोका। ४. भट्टिकाव्य। ५. भागवृत्ति । ६. शतक त्रय-नीति, शगार, वैराग्य (तथा 'विज्ञान' भी)। इनके अतिरिक्त भर्तृहरि-विरचित तीन ग्रन्थ और ज्ञात हुए हैं .७. मीमांसाभाष्य ८. वेदान्तसूत्रवृत्ति २५ • शब्दधातुसमीक्षा १०. षष्ठीश्रावी भर्तृहरिवृत्ति।' भर्तृहरि विषयक उलझन को सुलझाने के लिये हमें इन ग्रन्थों की अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परीक्षा करनी होगी। १. यह ग्रन्थ कुछ समय पूर्व ही प्रकाशन में पाया है। अभी इसका भर्तृहरिकृतत्व संदिग्ध है। . २. कोशकल्पतरु, पृष्ठ ६५। ३० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ महाभाष्यदीपिका, वाक्यपदीय और उसकी ठीका समानकर्तृक हैं महाभाष्यदीपिका, वाक्यपदीय और उसकी स्वोपज्ञटीका की परस्पर तुलना करने से विदित होता है कि इन तीन ग्रन्थों का कर्ता ५ एक व्यक्ति ही है । यथा- .. ...........। महाभाष्यदीपिका-यथैव गतं गोत्वमेवमिङ्गितादयोऽप्यर्थतः महिप्यादिषु दृष्टं व्युत्पत्त्यापि कर्मण्याश्रीयमाणो गमिवत्, विशेषणं दुरान्वाख्यानम्, उपाददानो गच्छति गर्जति गदति वा गौरिति ।'.... वाक्यपदीय-कैश्चिन्निर्वचनं भिन्न गिरतेगर्जतेर्गमः । .. . गवतेर्गदतेर्वाप्ति यौरित्यत्र दर्शितम् ॥ वाक्यपदीय स्वोपज्ञटीका-यथैव हि गमिक्रिया जात्यन्तरेकस... मवायिनीभ्यो गमिक्रियाभ्योऽत्यन्तभिन्ना तुल्यरूपत्वविधौ त्वन्तरेणैव गमिमभिधीयमाना गौरिति शब्दव्युत्पत्तिकर्मणि निमित्तत्वेनाश्रीयते तथैव गिरति गर्जति गदति इत्येवमादयः साधारणाः सामान्यशब्द१५ निबन्धनाः क्रियाविशेषास्तैस्तैराचार्यं!शब्दव्युत्पादनक्रियायां परि गृहीताः । - इसी प्रकार अन्यत्र भी तीनों ग्रन्थों में परस्पर महती समानता है, जिनसे इन तीनों ग्रन्थों का एककर्तृत्व सिद्ध है । वाक्यपदीय की रचना वि० सं० ४०० से. अर्वाचीन नहीं है, यह हम पूर्व सप्रमाण २० निरूपण कर चुके हैं । अतः महाभाष्य की टीका भी वि० सं० ४०० से अर्वाचीन नहीं है। भट्टिकाव्य-भट्टिकाव्य के विषय में दो मत हैं । भट्टि का जयमंगलाटीका का रचयिता ग्रन्थकार का नाम भट्टिस्वामो लिखता है। मल्लीनाथ आदि अन्य सब टीकाकार भटिकाव्य को भर्तहरिविरचित मानते हैं । पञ्चपादो उणादिवृत्तिकार श्वेतवनवासी भट्टि को भर्तृहरि के नाम से उद्धृत करता है। हमारा विचार है, ये दोनों मत ठीक हैं । ग्रन्थकार का अपना नाम भट्टिस्वामी है, परन्तु उसके असाधारण वैयाकरण होने के कारण वह औपाधिक भर्तृहरि नाम से १. हस्तलेख पृष्ठ ३, पूना सं० पृष्ठ ३। २. काण्ड २ कारिका १७५ । १० ३. काण्ड २ कारिका १७५ की टीका, लाहौर संस्क० पृष्ठ ६२। ४. तथा च भर्तृकाव्य प्रयोगः । पृष्ठ ८३, १२६ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ३९७ भी व्याख्यात हुआ।' संस्कृत वाङमय में दो तीन कालीदास इसी प्रकार प्रसिद्ध हो चुके हैं। महाराज समुद्रगुप्त के कृष्णचरित से व्यक्त होता है कि शाकन्तल नाटक का कर्ता आद्य कालीदास था, परन्तु रघुवंश महाकाव्य का रचयिता हरिषेण कालिदास नाम से प्रसिद्ध हुआ। भट्टिकाव्य की रचना वलभी के राजा श्रीधरसेन के काल में ५ हुई है। वलभी के राजकल में श्रीधरसेन नाम के चार राजा हुये हैं, जिनका राज्यकाल संवत् ५५० से ७०५ तक माना जाता है । अतः भट्टिकाव्य का कर्ता भर्तृहरि वाक्यपदीयकार प्राद्य भर्तृहरि नहीं हो सकता.। भट्टिकाव्य के विषय में विशेष विचार 'लक्ष्यप्रधान वैयाकरण - कवि' नामक ३० वें अध्याय में किया है। : भागवृत्ति-भागवृत्ति अष्टाध्यायी की एक प्राचीन प्रामाणिक वृत्ति है। इसके उद्धरण व्याकरण के अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं । भाषावृत्ति का टीकाकार सृष्टिधराचार्य लिखता है--भर्तृहरि ने श्रीधरसेन की आज्ञा से भागवत्ति की रचना की। कातन्त्र परिशिष्ट के कर्ता श्रीपतिदत्त ने भागवत्ति के रचयिता का नाम विमलमति १५ लिखा है। क्या संभव हो सकता है कि भागवृत्ति के कर्ता का वास्तविक नाम विमलमति हो, और भर्तहरि उसका औपाधिक नाम हो । भागवृत्ति की रचना काशिका के अनन्तर हुई है, यह निर्विवाद है । असः भागवृत्तिकार भर्तृहरि वाक्यपदीयकार से भिन्न हैं । इस पर विशेष विवेचन 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में करेंगे। २० .. भट्टिकार और भागवृत्तिकार में भेद-यदि भट्टिकाव्य और १. इस विषय में विशेष विचार इस ग्रन्थ के 'लक्ष्यप्रधान वैयाकरण कवि' नामक ३० वें अध्याय में देखें। २. राजकविवर्णन श्लोक २५, १६ । ३. राजकविवर्णन श्लोक २४, २६ । ४. काव्यमिदं विहितं मया वलभ्यां श्रीधरसेननरेन्द्रपालितायाम् । २२॥३५॥ ५. देखो, ओरियण्टल कालेज मेगजीन लाहौर, नवम्बर १९४० में 'भागवत्तिसंकलन' नामक हमारा लेख, पृष्ठ ६७ । तथा इसी ग्रन्थ के अष्टाघ्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में ‘भागवृत्तिकार' का वर्णन । ६. भागवृत्तिर्भर्तृहरिणा श्रीधरसेननरेन्द्रादिष्टा विरचिता ८।४।६८॥ ७. तथा च भागवृत्तिकृता विमलमतिना निपातितः । सन्धि-सूत्र १४२ । ३० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भागवृत्ति के रचयिता का नाम भर्तृहरि स्वीकार कर लें, तब भी ये दोनों ग्रन्थ एक व्यक्ति की रचना नहीं हो सकते । इन दोनों की विभिन्नता में निम्न हेतु हैं १-भाषावृत्ति २।४।७४ में पुरुषोत्तमदेव ने भागवृत्ति का खण्डन ५ करते हुए स्वपक्ष की सिद्ध में भट्टिकाव्य का प्रमाण उपस्थित किया है। २-भाषावृत्ति ५।२।११२ के अवलोकन करने से विदित होता है कि भागवृत्तिकार भट्टिकाव्य के छन्दोभङ्ग दोष का समाधान करता ३-भागवत्ति के जितने उद्धरण उपलब्ध हुये हैं, उनके देखने से ज्ञात होता है कि भागवृत्तिकार महाभाष्य के नियम से किञ्चिमात्र भी इतस्ततः होना नहीं चाहता, परन्तु भट्टिकाव्य में अनेक प्रयोग महाभाष्य के विपरीत हैं।' ___ इन हेतुओं से स्पष्ट है कि भट्टिकाव्य और भागवृत्ति का कर्ता एक नहीं है । १५ महाभाष्य व्याख्याता और भागवत्तिकार में भेद-भागवत्ति को भर्तृहरि की कृति मानने पर भी वह भर्तृहरि महाभाष्यव्याख्याता आद्य भर्तृहरि से भिन्न व्यक्ति है। इसमें निम्न प्रमाण हैं १--गतताच्छोल्ये इति भागवृत्तिः । गतविधप्रकारास्तुल्यार्था इति भर्तृहरिः । १. भागवृत्ति के जितने उद्धरण उपलब्ध हुए, उनका संग्रह 'भागवृत्ति. संकलनम' के नाम से प्रओरियण्टल कालेज लाहौर के मेगजीन नवम्बर १९४० के अंक में हमने प्रकाशित किये थे। देखो पृष्ठ ६८-८२ । उसका परिवहित संस्करण 'संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी' की 'सारस्वती सुषमा' पत्रिका के वर्ष ८ अङ्क १-४ अङ्कों में छपा है । इसका पुनः परिष्कृित परिवर्धित संस्करण भी हमने सं० २०२१ में स्वतन्त्र पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। २. उक्षां प्र चक्रुर्नगरस्य मार्गान् । ३१५॥ बिभयां प्रचकारासो । ६।२।। 'व्यवहितनिवृत्त्यर्थं च' इस वार्तिक (महाभाष्य ३।१।४०) के अनुसार व्यवहित प्रयोग नहीं हो सकता । निर्णयसागर से प्रकाशित भट्टिकाव्य में क्रमशः "उक्षान प्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान" तथा "प्रबिभयां चकारासौ" परिवर्तित पाठ छपा है । द्र० महाभाष्य ३।१।४०, निर्णयसागर संस्क० पृ० ६०, टि० ३ । ३. दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ १६ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ३६६ २ - यथालक्षणमप्रयुक्ते इति उद्याम उपराम इत्येव भवतीति भर्तृहरिणा भागवृत्ति कृता चोक्तम् ।' ३—भर्तृहरिणा च नित्यार्थतैवास्योक्ता तथा च भागवृत्तिका रेण प्रत्युदाहरणमुपन्यस्तम्, तन्त्र उतम् - तन्त्रयुतम् । ४ - भर्तृहरिणा तुक्तम्- 'यः प्रातिपदिकान्तो नकारो न भवति ५ तदर्थं नुम्ग्रहणं प्राहिण्वनिति । अत्र हि हिवेलुङि नुमो णत्वमिति ।" 'तत्र पूर्वपदाधिकारः समासे च पूर्वोत्तरपदव्यवहारः, तत्कथं णत्वमिति न व्यक्तीकृतम् इति भागवृत्तिका रेणोक्तम् । ५ - प्राहिण्वन् इति णत्वार्थं भर्तृहरिणा व्याख्यातम् इति भागवृत्तिः । * ६ - प्राहिण्वन् । भर्तृहरिसम्मतमिदमुदाहरणम्, भागवृत्तिकृताऽप्युदाहृतम् । १० इन उद्धरणों में प्रथम और तृतीय उद्धरण में भर्तृहरि और भागवृत्तिकार का मतभेद दर्शाया है। चतुर्थ उद्धरण से व्यक्त होता है कि भागवृत्तिकार ने किसी भर्तृहरि का कहीं कहीं खण्डन भी किया था । १५. अतः इन उद्धरणों से भर्तृहरि और भागवृत्तिकार का पार्थक्य स्पष्ट 1 ६ शतक-त्रय - नीति, शृङ्गार और वैराग्य ये तीन शतक भर्तृहरि के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनका रचयिता कौन सा भर्तृहरि है, यह अज्ञात है । जैन ग्रन्थकार वर्धमान सूरि गणरत्नमहोदधि में लिखता है २० वार्त्तव वर्तम् । यथा-— हरिराकुमारमखिलाभिधानवित् स्वजनस्य वार्तामन्वयुङ्क्त सः । क्या गणरत्नमहोदधि में उद्धृत पद्य का संकेत नीतिशतक के १. दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ २१७ । २. तन्त्रप्रदीप ८ | ३ | ११ ॥ ३. सीरदेवीय परिभाषावृत्ति पृष्ठ १२ । परिभाषासंग्रह पृष्ठ १६७ ॥ ४. पुरुषोत्तमदेवकृत ज्ञापकसमुच्चय, पृष्ठ 8६ । २५ ५. संक्षिप्तसार टीका, सन्धि ३२८ । ६. विज्ञान शतक भी भर्तृहरि के नाम से छपा मिलता है, परन्तु उप का प्रामाण्य अभी साध्य है । ७. पृष्ठ १२० । ३० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'यां चिन्तयामि मयि सा विरक्ता" श्लोक की ओर हो सकता है ? यदि यह कल्पना ठीक हो, तो नीतिशतक आद्य भर्तृहरिकृत होगा, क्योंकि इसमें हरि का विशेषण 'अखिलाभिधानवित्' लिखा है । वर्ष मान अन्यत्र भी आद्य भर्तृहरि के लिये 'वेदविदामलकारभूतः', ५ 'प्रमाणितशब्दशास्त्रः' आदि विशेषणों का प्रयोग करता है। मीमांसा-सूत्रवृत्ति-यदि पण्डित रामकृष्ण कवि का पूर्वोक्त (पृष्ठ ३६२) लेख ठीक हो तो निश्चय हों यह वृत्ति प्राद्य भर्तृहरि ' विरचित होगी। वेदान्त-सूत्रवृत्ति-यह वृत्ति अनुपलब्ध है। यामुनाचार्य ने एक १० सिद्धित्रय' नामक ग्रन्थ लिखा है । उस में वेदान्त सूत्र के व्याख्याता टङ्क, भर्तृ प्रपञ्च, भर्तृ मित्र, ब्रह्मदत्त, शंकर, श्रीवत्सांक और भास्कर के साथ भर्तृहरि का भी उल्लेख किया है। इस से भर्तृहरिकृत •, वेदान्तसूत्रवृत्ति की कछ सम्भावना प्रतीत होती है। शब्दधातुसमीक्षा-यह ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया। इस का १५ उल्लेख हमारे मित्र श्री पं० माधव-कृष्ण शर्मा ने अपने 'भत हरि नाट ए बौद्धिस्ट' नामक लेख में किया है। यह लेख 'दि पूना ओरियण्टलिस्ट' पत्रिका अप्रेल सन् १९४० में छपा है। .. ... :: .. इत्सिग की भूल का कारण भट्टिकाव्य और भागवृत्ति के रचयितात्रों के वास्तविक नाम २० चाहे कुछ रहे हों, परन्तु इतना स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ भी भर्तृहरि के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में न्यून से न्यून तीन भर्तृहरि अवश्य हुए हैं। इन का काल पृथक-पृथक है। इन की ऐति हासिक शृङ खला जोड़ने से इत्सिग के वचन में इतनी सत्यता अवश्य ... १. श्लोक २ । पुरोहित गोपीनाथ एम० ए० संपादित, वेंकटेश्वर प्रेस २५ बम्बई, सन् १८६५ । कई संस्करणों में यह श्लोक नहीं है । ___. यस्त्वयं वेदविदामल कारभूतो वेदाङ्गत्वात् प्रमाणितशब्दाशास्त्र: सर्वज्ञंमन्य उपमीयते । गणरत्नमहोदधि पृष्ठ १२३ । . . ३. तथापि प्राचार्यटङ्क-भर्तृप्रपञ्च-भर्तृ मित्र-भर्तृहरि-ब्रह्मदत्त-शंकर श्रीवत्साङ्क-भास्करादिविरचितसितविविधनिबन्धश्रद्धाविप्रलब्धबुधयो न १ यथान्यथा च प्रतिपद्यन्ते इति तत्प्रीतये युक्तः प्रकरणप्रक्रमः। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ . महाभाष्य के टीकाकार प्रतीत होती है कि वि० सं०७०७ के लगभग कोई भर्तृहरि नामा विद्वान अवश्य विद्यमान था। इत्सिग स्वयं वलभी नहीं गया था। अतः सम्भव हो सकता हैं कि उसने वलभीनिवासी किसी भर्तृहरि की मृत्यु सुन कर उस का उल्लेख वाक्यपदीय आदि प्राचीन ग्रन्थों के रचयिता के प्रसंग में कर दिया हो । इत्सिग ने भर्तहरि को बौद्ध ५ लिखा है, वह भागवृत्तिकार विमलमति उपनाम भर्तृहरि के लिये उपयुक्त हो सकता है, क्योंकि विमलमति एक प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थकार भर्तृहरि-त्रय के उद्धरणों का विभाग अनेक व्यक्यिों का भर्तृहरि नाम होने पर एक बड़ी कठिनाई यह १० उपस्थित होती है कि प्राचीन ग्रन्थों में भर्तृहरि के नाम से उपलभ्यमान उद्धरण किस भर्तृहरि के समझे जावें । हमने वाक्यपदीय, उसकी स्वोपज्ञटीका, महाभाष्यदीपिका, भट्टिकाव्य और भागवृत्ति के उपलभ्यमान सभी उद्धरणों पर महती सूक्ष्मता से विचार करके निम्न परिणाम निकाले हैं १-प्राचीन ग्रन्थों में भर्तृहरि वा हरि के नाम से जितने उद्धरण उपलब्ध होते हैं, वे सब आद्य भर्तृहरि के हैं। . २-भट्टिकाव्य के सभी उद्धरण भट्टि के नाम से दिये गये हैं। केवल श्वेतवनवासी विरचित उणादिवृत्ति के हस्तलेख में भट्टिकाव्य के उद्धरण भर्तृ काव्य के नाम से दिये हैं। दूसरे हस्तलेख में उसके २० स्थान में भट्टिकाव्य ही पाठ है ।' ३-भागवृत्ति के उद्धरण भागवृत्ति, भागवृत्तिकृत अथवा भागवृत्तिकार नाम से दिये गये हैं । भागवृत्ति का कोई उद्धरण-भर्तृहरि के नाम से नहीं दिया गया। ।' यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अर्वाचीन वैयाकरणों ने तोनों के २५ उद्धरण सर्वत्र पृथक्-पृथक् नामों से उद्धृत किये हैं, उन्होंने कहीं पर इन तीनों का सांकर्य नहीं किया। भाषावृत्ति के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने इस विभाग को न समझकर अनेक भूलें की हैं। भावी १. देखो पृष्ठ ८३, पाठान्तर ४ । २. भाषावृत्ति के राजशाही (बंगला देश) संस्करण के सम्पादक ने 'गतविया कारास्तुल्यार्थ इति भर्तृहरि' इस उद्वरग को भागवृत्ति के रचयिता' । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ग्रन्थसंपादकों को इस विभाग का परिज्ञान अवश्य होना चाहिये, अन्यथा भयङ्कर भूलें होने की सम्भावना है । भर्तृहरि के विषय में इतना लिखने के अनन्तर प्रकृत विषय का निरूपण किया जाता है। महाभाष्यदीपिका का परिचय आचार्य भर्तृहरि ने महाभाष्य की एक विस्तृत और प्रौढ़ व्याख्या लिखी है । इसका नाम 'महाभाष्यदीपिका' है।' इस व्याख्या के उद्धरण व्याकरण के अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। वर्तमान में महाभाष्यदीपिका का सर्वप्रथम परिचय देने का श्रेय डा० कीलहान १० को है। . __महाभाष्यदीपिका का परिमाण-इत्सिग ने अपनी भारतयात्राविवरण में दीपिका का परिमाण २५००० श्लोक लिखा है। परन्तु इस लेख से यह विदित नहीं होता कि भर्तृहरि ने सम्पूर्ण महाभाष्य पर टीका लिखी थी, अथवा कुछ भाग पर । विक्रम की १२ वीं १५ शताब्दी का ग्रन्थकार वर्धमान लिखता है - भर्तृहरिक्यिपदीयप्रकीर्णयोः कर्ता महाभाष्यत्रिपाद्या व्याख्याता इसी प्रकार प्रकीर्णकाण्ड की व्याख्या की समाप्ति पर हेलाराज भी लिखता है त्रैलोक्यगामिनी येन त्रिकाण्डी त्रिपदी कृता । तस्मै समस्तविद्याश्रीकान्ताय हरये नमः ॥ इस श्लोक में त्रिपदी पद त्रिकाण्डी वाक्यपदीय का विशेषण भी हो सकता है, अतः यह प्रमाण सन्दिग्ध है। का लिखा है । देखो भाषावृत्ति पृष्ठ ३२, टि० ३० । परन्तु दुर्घटवृत्ति में यहां २५ भागवत्ति और भर्तृहरि के भिन्न-भिन्न पाठ उदधृत किये हैं यथा-गतता च्छील्ये इति भागवृत्तिः, गतिविधप्रकारास्तुल्यार्था इति भर्तृहरिः । दुर्घटवृत्ति पृष्ठ १६ । इसी प्रकार भाषावृत्ति के सम्पादक ने ३३१३१६ में उद्धृत भर्तृहरि के पाठ को भागवृत्तिकार का लिखा है। १. इति महामहोपाध्यायभर्तृहरिविरचितायां श्रीमहाभाष्यदीपिकायां ३० प्रथमाध्यास्य प्रथमपादे द्वितीयमाह्निकम् । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ११७ । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि वर्तमान में उपलब्ध महाभाष्यदीपिका का जितना परिमाण है, उसे देखते हुए २५००० श्लोक परिमाण तीन पाद से अधिक ग्रन्थ का नहीं हो सकता । डा० कीलहान का भी यही मत है। द्वितीय तृतीय पाद की दीपिका के उद्धरण-पुरुषोत्तमदेव ने अपनी परिभाषावृत्ति में महाभाष्य १।२।४५ की दीपिका का पाठ इस ५ प्रकार उद्धृत किया हैं अर्थवत्सूत्रे (१।२।४५) च 'अस्ति हि सुबन्तानामसुबन्तेन समासः गतिकारकोपपदानां कृद्धिः' इति भर्तृहरिणोक्तम् ।' पुनः १।३।२१ की भाषावृत्ति में पुरुषोत्तमदेव लिखता है-गतविधिप्रकारास्तुल्यार्या इति भर्तृहरिः'। १० भाषावृत्ति के सम्पादक ने इस पाठ को भागवृत्तिकार का कहा हैं, वह चिन्त्य है । ___ महाभाष्यप्रदीप ११३।२१ की उद्योत टीका में नागेश लिखता हैं-'प्रतएव हरिणतदुदाहरणे शपिद्विकर्मक इति व्याख्यातम्' । संम्पूर्ण महाभाष्य को टोका-व्याकरण के ग्रन्थों में अनेक ऐसे १५ उद्धरण उपलब्ध होते हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि भर्तृहरि ने महाभाष्य के प्रारम्भिक तीन पादों पर ही व्याख्या नहीं लिखो, अपितु सम्पूर्ण महाभाष्य पर टीका लिखी थी। इस के लिए हम तीन पाद से प्रागे के प्रमाण उपस्थित करते हैं । यथा १–भर्तृहरि वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड की स्वोपजटीका में २० लिखता है , 'संहितासूत्रभाष्यविवरणे बहुधा विचारितम्' ।' संहिता-सूत्र अर्थात् 'परः सन्निकर्षः संहिता' प्रथमाध्याय के चतुर्थ पाद का १०६ वां सूत्र है। २-पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति ३।१।१६ पर भर्तृहरि का एक २५ उद्धरण दिया है। वह इसी सूत्र की टीका का हो सकता है । भाषा १. राजशाही संस्करण, पृष्ठ २४ । २. इसके विषय में पृष्ठ ४०१ की टि० २ देखिये । ३. भाग १, पृष्ठ ८२, लाहौर संस्करण । ४. धूमाच्चेति भर्तृहरिः। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ - व्याकरण के 'दैवम्' ग्रन्थ का व्याख्याता कृष्ण लीलाशुक मुनि अपनी 'पुरुषकार' नाम्नी व्याख्या में लिखता है - 'प्राह चैतत् सर्वं ५ सुधाकरः प्रनेन वर्तमाने क्तेन भूते प्राप्तः क्तो बाध्यते इति भर्तृहरिः । भाष्यटीकाकृतस्तु भूतेऽपि क्तो भवतीत्यूचुः । तथा च पूजितो गतः पूजितो यातीति भूतकालवाच्यः, न तु पूज्यमानो वर्तमानः' ।' ४०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वृत्ति के सम्पादक ने इस उद्धरण को भागवृत्तिकार का माना है, परन्तु यह ठीक नहीं ।' भर्तृहरि का कथन अष्टा० ५।१।११६ की महाभाष्य की व्याख्या १५ में हो सकता है । २५ भर्तृहरि का यह लेख महाभाष्य ३।२।१८८ की व्याख्या में ही हो सकता है । ४ - हरिभास्कर ने परिभाषा - भास्कर के अन्त में भर्तृहरि का एक वचन उद्धृत किया है - श्रत्रोत्पत्तिमत्स्वपिपदार्थेषु सच्छन्दः संबन्धं न व्यभिचरतीति तत उत्पन्नो भावप्रत्ययः क्रिया सम्बन्धं नाह, अपि तु सामान्यम् । इदं च भर्तृ हरेर्वचनमित्युक्तम् ॥ ३० ६ - मैत्रेय रक्षित तन्त्रप्रदीप ८ । । २१ में लिखता है - 'भतृ २० हरिणा चास्य नित्यार्थतैवोक्ता । तथा च भागवृत्तिकृता प्रत्युदाहरणमुपन्यस्तम्-तन्त्रे उतम् तन्त्रयुत्रम् इति' ।" ५ - शरणदेव दुर्घटवृत्ति ७।३।३४ में लिखता है - 'यथालक्षणमप्रयुक्ते इति उपराम उद्याम इत्येव भवतीति भर्तृहरिणा भागवृत्तिकृता चोक्तम्' ।" ७ – सीरदेव अपनी परिभाषावृत्ति में लिखता है - 'भर्तृहरिणा तूक्तम् यः प्रातिपदिकान्तो नकारो न भवति तदर्थं नुम्ग्रहणं प्राहिवदिति । " १. द्र० पृष्ठ ४०१ टि० २ । २. हमारा संस्करण, पृष्ठ ६७ । ३. परिभाषासंग्रह, पूना संस्क० (सन् १९६७), पृष्ठ ३७४ ॥ ४. पृष्ठ ११७, संस्करण २, पृष्ठ १२८ । ५. न्यास की भूमिका पृष्ठ १४ में उद्धृत । ६. पृष्ठ १२ परिभाषा - संग्रह, पृष्ठ १६७ | 4 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४०५ ८. पुरुषोत्तमदेव ज्ञापक- समुच्चय में लिखता है - 'प्राहिण्वन् इति णत्वार्थं भर्तृहरिणा व्याख्यातमिति भागवृत्तिः । ' 8- संक्षिप्तसार टीका का कर्त्ता भी लिखता है - प्राहिण्वन् भर्तृहरिसम्मतमिदमुदाहरणम्, भागवृत्तिकृताप्युदाहृतम्' भर्तृहरि के ये उद्धरण महाभाष्य ८ । ४ । ११ को टीका से ही लिये जा सकते हैं । अन्यत्र महाभाष्य में इसका कोई प्रसङ्ग नहीं है । ५ इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि भर्तृहरि का कोई ग्रन्थ सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर अवश्य था । भर्तृहरि ने अष्टाध्यायी पर वृत्ति लिखी हो, ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । अतः यही मानना उचित प्रतीत होता है कि उसने सम्पूर्ण महाभाष्य पर १० व्याख्या लिखी थी । प्रतीत होता है, इत्सिंग के काल में 'महाभाष्यदीपिका' का जितना अंश उपलब्ध था, उसने उतने ग्रन्थ का ही परिमाण लिख दिया । वर्धमान के काल में दीपिका के केवल तीन पाद ही शेष रह गये होंगे । सम्प्रति उसका एक पाद भी पूर्ण उपलब्ध.: नहीं होता । कृष्ण लीलाशुक मुनि और सीरदेव ने तीसरे और १५ आठवें अध्याय के जो उद्धरण दिये हैं, वे सुधाकर के ग्रन्थ तथा भाग - वृत्ति से उदधृत किये हैं, यह उन उद्धरणों से स्पष्ट है । पुरुषोत्तमदेव और संक्षिप्तसार- टीका के उद्धरण भी भागवृत्ति से उद्धृत प्रतीत होते हैं । सम्भव है तन्त्रप्रदीपस्थ उद्धरण भी ग्रन्थान्तर से उद्धृत किया गया हो । महाभाष्यदीपिका का वर्तमान हस्तलेख भर्तृहरि - विरचित महाभाष्य - दीपिका का जो हस्तलेख इस समय उपलब्ध है, वह जर्मनी की राजधानी बर्लिन के पुस्तकालय में था । इसकी सर्वप्रथम सूचना देने का सौभाग्य डा० कीलहान को है। इस हस्तलेख के फोटो लाहौर और मद्रास आदि के पुस्तकालयों में २५ विद्यमान हैं । - दीपिका का दूसरा हस्तलेख अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ । उपलब्ध - हस्तलेख का परिमाण - इस हस्तलेख का प्रथम पत्र २० १. पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के साथ मुद्रित ( राजशाही सं० ), पृष्ठ ६९ २. सन्धि, सूत्र ३२८ ॥ ३० Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास खण्डित है । हस्तलेखका अन्त ङिच्च १|१| ५३ सूत्र पर होता है । इसमें २१७ पत्रे अर्थात् ४३४ पृष्ठ हैं । प्रतिपृष्ठ १२ पंक्तियां तथा प्रति पंक्ति लगभग ३५ अक्षर हैं । इस प्रकार संपूर्ण हस्तलेख का परिमाण लगभग ५७०० श्लोक है । ५ यह हस्तलेख अनेक व्यक्तियों के हाथ का लिखा हुआ है । कहींकहीं पर पृष्ठमात्राएं भी प्रयुक्त हुई हैं । अतः यह हस्तलेख न्यूनाति - न्यून ३०० वर्ष प्राचोन अवश्य है । इस हस्तलेख का पाठ अत्यन्त विकृत है | प्रतीत होता है, इसके लेखक सर्वथा अपठित थे । sto सत्यकाम वर्मा का मत - श्री वर्मा जी ने 'संस्कृत व्याकरण १० का उद्भव और विकास' ग्रन्थ में पृष्ठ २१२, २१३ तथा २२७, २२८ पृष्ठों पर महाभाष्यदीपिका के परिमाण के विषय में कई अन्यथा बातें लिखी हैं यथा १. वर्तमान उपलब्ध प्रति का लेखक एक पृष्ठ के हाशिये पर अपने ही लेख में लिखता है - 'खण्डित प्रति' पृष्ठ संख्या २००० (दो १५ सहस्र ) । सम्पूर्ण पृष्ठ २१३, २२७ । २. दूसरे स्थान पर उसने ही टिप्पणी दो है - ' इसमें दो प्रकरण त्रुटित हैं ।' पृष्ठ २२७ ॥ ३० ३. जो अंश उपलब्ध हैं, उसमें से भो एक स्थल पर एक साथ चार सूत्रों का प्रकरण ही गायब है । पृष्ठ २१२ । २० ४. उसी प्रसङ्ग में सूत्र का एक अंश, बीच में अन्यसूत्र की व्याख्या हो जाने के बाद अचानक हो आरम्भ होकर समाप्त हो जाता है |...... पृष्ठ संख्या निर्वाध देता गया है । पृष्ठ २१२ । ५. एक अन्य स्थान पर हमने लिखा पाया है - 'महाभाष्य टीका ग्रन्थ ६ हजार साठि । २२७, २२८ ॥ २५ ६. 'ग्रन्थ' शब्द का क्या अर्थ है, यह हम मोमांसका जी जैसे विचारक विद्वान् के विचार के लिये ही छोड़ते हैं । पृष्ठ २२८ । ७. जिस प्रतिलिपिकार 'राम' के हाथ की यह प्रतिलिपि है, उसी के हाथ की अन्य अनेक प्रतिलिपियां प्रातिशाख्य आदि की भी देखने में आई हैं । पृष्ठ २२८ । ८. अन्यत्र उल्लेख है - 'खण्डितप्रति पृष्ठ संख्या २०००, (दो Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाभाष्य के टीकाकार ४०७ हजार)।' परन्तु उसी गणना-पद्धति से उपलब्ध पृष्ठों की संख्या २१७ है ।...""इसके १८०० पृष्ठ कहीं भारत में बचे होंगे। पृष्ठ २१३। ___समीक्षा-अब हम उपर्युक्त उद्धरणों की समीक्षा करते हैं। समीक्षा से पूर्व हम यह लिख देना आवश्यक समझते हैं कि हमारे ५ पास दीपिका की जो हस्तलिखित प्रति हैं, वह पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर में मंगवाई गई फोटो कापी से 'मक्षिकास्थाने मक्षिकापातः' न्यायानुसार यथावत् की गई है। प्रतिलिपि करते समय सम्पूर्ण पाठ, चाहे वह हाशिये पर ऊपर नीचे कहीं भी हो, लिखा गया है। प्रतिलिपि के पश्चात उसका मूल ग्रन्थ से पुनः पाठ मिलाया गया है। १. प्रतिलिपि करते समय एक पृष्ठ का पाठ एक पृष्ठ में लिखा है। अर्थात् हमारी प्रतिलिपि फोटो कापी की सर्वथा अनुरूप कापी है। अतः हम जो भी समीक्षा करेंगे, वह सर्वथा यथार्थ होगी 1 श्री वर्माजी ने फोटोकापी से की हई प्रतिलिपि के आधार पर और कुछ स्मति के अनुसार लिखा है। अतएव उन्होंने मूल ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या भी १५ प्रति विषय नहीं दी। १. प्रथम उद्धरण की बात मूल हस्तलेख में कहीं नहीं है। साथ ही ध्यान रहे कि मूल हस्तलेख ३०० वर्ष पुराना है । उस काल में 'पृष्ठ' शब्द का व्यवहार नहीं होता था, 'पत्रा' शब्द व्यवहार में आता था। दोनों ओर से लिखे पत्रे पर एक ही पत्रासंख्या डाली २० जाती थी। अतः वर्मा जी के उद्धरण में 'पृष्ठ संख्या २०००' लेख मूल प्रतिलिपिकार का हो ही नहीं सकता। हमारी प्रतिलिपि में ऐसा कोई पाठ अङ्कित नहीं है । अतः यह लेख सर्वथा चिन्त्य है । २. दूसरे उद्धरण की भी यही दशा है । मूल हस्तलेख में इस का कोई संकेत नहीं है। सम्भव है वर्मा जी को प्राप्त फोटो कापी २५ की प्रतिलिपि में लिपिकार ने कहीं प्रकरण-संगत प्रतीत न होने पर अपनी ओर से उक्तपंक्ति लिख दी होगी। ३. उद्धरण ३-४ के विषय में इतना ही कहना है कि जिस फोटो कापी की उन्हें प्रतिलिपि प्राप्त हुई, उस फोटो कापी पर भूल से पृष्ठ संख्या अशुद्ध लिखी गई। हमने जिस फोटो कापी से प्रतिलिपि ३० की थी, उसमें भी कुछ पृष्ठों पर पृष्ठ संख्या अशुद्ध डाली हुई थी। भाष्यक्रमानुसार हमने उन अशुद्ध संख्यावाले पृष्ठों को यथास्थान Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जोड़ दिया, तो सारा पाठ यथावत् मिल गया। हमने अपनी प्रतिलिपि में फोटो प्रति की संख्या भी डाल रखी है। कोई भी व्यक्ति आकर देख सकता है । फोटो प्रति की पृष्ठ-सख्या में अशुद्ध होने का कारण अति साधारण है । हस्तलिखित ग्रन्थों में पत्रे के एक ओर ही संख्या रहती है, दूसरे भाग पर संख्या नहीं होती। अत: संख्यारहित भागों को फोटो कापी करने वा क्रमशः रखने में ये पृष्ठ आगेपीछे हो गये। यह साधारण सी भूल भी वर्मा जी नहीं समझ पाये । इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि उन्होंने कभी किसी ग्रन्थ का हस्तलेखों के आधार पर सम्पादन कार्य नहीं किया ।' । ४. उद्धरण संख्या ५ का हाशिया पर लिखा पाठ हमारे हस्तलेख में विद्यमान है। अतः स्पष्ट है कि हमारी प्रतिलिपि यथावत है। हां, हमारी प्रतिलिपि में 'भाष्यटीका ग्रन्थ ६ हजार साठि' इतना ही है । 'महा' पद वर्मा जी का बढ़ाया हुअा प्रतोत होता है। . ५. उद्धरण संख्या ५ में हाशिए पर लिखे 'भाष्यटीका ग्रन्य ६ १५ हजार साठि' का अभिप्राय वर्मा जी की समझ में नहीं आया । अतः वें उद्धरण सं० ६ में 'ग्रन्थ' शब्द का क्या अर्थ है..."मीमांसक जी....." छोड़ते हैं, लिख कर बात को टालना चाहते हैं । स्पष्ट है वर्मा जी को ग्रन्थ-परिमाण-बोधक प्राचीन परिपाटी का ज्ञान नहीं है इस का सीधा-साधा अर्थ है--भाष्यटोका का परिमाण ६०६० श्लोक है। हम २० ने अपनी गणना के अनुसार उपलब्ध भाष्यटीका का परिमाण ५७०० श्लोक बताया है। उससे यह संस्था अत्यधिक मेल खाती है किसी भी गद्यग्रन्थ के अक्षरों को गणना करके उसमें अनुष्टुप् के ३२ अक्षरसंख्या का भाग देकर प्रत्यारिमाण बताने को प्राचीन परिसाटों है ।। ६, सांतवां उद्धरण बता रहा है कि वर्मा जी ने कभी हस्त लेखों २५ पर कार्य नहीं किया, अन्यथा उन्हें पता होता कि हस्तलेखों के पत्रों के हाशिए पर तथा अन्त में (कहीं-कहीं मध्य में भो) 'राम' शब्द १. पंजाब विश्वविद्यालय के प्रिंसिपल वूलहर कहा करते थे कि जिसने छोटा शोधकार्य (लोवर रिसर्च = अन्य सम्पादन) नहीं किया वह बड़ा शोधकार्य, (हाई रिसर्च) नहीं कर सकता। इसलिये उन्होंने अपने समस्त ३. डीलिट (उस समय पी एच० डी० नहीं थी) के छात्रों से ग्रन्थ सम्पादन ही. करवाया था। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ महाभाष्य के टीकाकार ४०६ प्राचीन लिपिकार मंगलार्थ लिखते थे । अतः 'राम' शब्द को देखकर लिपिकार के 'राम' नाम की कल्पना करना चिन्त्य है । उससे भी हास्यास्पद बात है - अन्य हस्तलेखों पर लिखे 'राम' नाम के आधार पर उन्हें दीपिका के लेखक का लिखा स्वीकार करना । यदि वर्मा जी ने दीपिका की फोटो का भी दर्शन कर लिया होता, तो वे यह ५ भूल न करते । फोटो कापी से स्पष्ट विदित होता है कि इसकी मूल प्रति कई लेखकों के हाथ की लिखी हुई है । 1 ७. उद्धरण सं०८ में लिखी कल्पना 'खण्डित प्रति पृष्ठ संख्या २००० (दो हजार ) ' शब्दों पर आधृत है । जब यह पाठ ही मूल कोश में नहीं है, तब वर्मा जो की कल्पना स्वयं ढह जाती है । इस विवेचना से स्पष्ट है कि दीपिका के ग्रन्थपरिमाण, और उसमें दो प्रकरण त्रुटित होने के विषय में वर्मा जी ने जो कुछ लिखा है, वह सब भ्रान्तिमूलक है । ग्रन्थ का साक्षात् दर्शन किये विना किसी विषय पर लिखना प्रायः अशुद्ध एवं भ्रान्तिजनक होता है । महाभाष्यदीपिका के उद्धरण - इसके उद्धरण कैयट, वर्धमान १५ शेषनारायण, शिवरामेन्द्र सरस्वती, नागेश और वैद्यनाथ पायगुण्डे आदि के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । अन्तिम चार ग्रन्थकार विक्रम की १८ वीं शताब्दी के हैं । अतः प्रयत्न करने पर इस टीका के अन्य हस्तलेख मिलने की पूरी सम्भावना है । २० महाभाष्यदीपिका की प्रतिलिपि -- पञ्जाब यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय में वर्तमान दीपिका का फोटो पाकिस्तान में रह गया है । बड़े सौभाग्य की बात है कि हमारे प्राचार्य महावैयाकरण श्री पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु ने सं० १९८७ में पञ्जाब यूनिवर्सिटी के पुस्तका - लय से महान् परिश्रम से दीपिका का हस्तलेख प्राप्त करके अपने उपयोग के लिए उसकी एक प्रतिलिपि करली थी । वह इस समय २५ रामलाल कपूर ट्रस्ट के पुस्तक संग्रह में सुरक्षित है । महाभाष्यदीपिका का सम्पादन सं० १९९१ में हमारे आचार्य श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने महाभाष्य दीपिका का सम्पादन प्रारम्भ किया था । परन्तु उसके केवल चार फार्म ( ३२ पृष्ठ) ही काशी को 'सुप्रभातम्' पत्रिका में प्रकाशित हुए ३० Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास थे । कार्यावरोध का कारण प्राचार्यवर का स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत यजुर्वेद-भाष्य के सम्पादन और उस पर विवरण लिखने में प्रवत्त हो जाना था। इस कारण वे दीपिका का प्रकाशन पूरा न कर सके । यदि वह संस्करण पूर्ण प्रकाशित हो जाता, तो अगले संस्करणों की ५ आवश्यकता ही न रहती। आचार्यवर द्वारा किया गया सम्पादन अगले सम्पादनों की अपेक्षा अधिक उत्तम है। इसके पश्चात् महाभाष्य-दीपिका का दो स्थानों से प्रकाशन हुआ है । एक के सम्पादक हैं-श्री पं० काशीनाथ अभ्यङ्कर । यह भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना से प्रकाशित हुआ है। दूसरे के १. सम्पादक हैं-श्री वी० स्वामिनाथन् । यह हिन्दू विश्वविद्यालय काशी से प्रकाशित हुआ है। प्रथम संस्करण में उपलब्धांश पूरा छपा है, जब कि दूसरे में ४ आह्निक तक ही छपा है । पुनः सम्पादन की आवश्यकता-हमने ये दोनों संस्करण देखे हैं । उसके आधार पर हम निस्संशय कह सकते हैं कि इन संस्करणों के १३ प्रकाशित हो जाने पर भी इसके एक संस्करण की और आवश्यकता है। यद्यपि इन संस्करणों के सम्पादकों ने पर्याप्त परिश्रम किया है, पुनरपि इन दोनों के वैयाकरण न होने से अनेक स्थल संशोधनाह रह गये हैं। भर्तृहरि के अन्य ग्रन्थ २०. आद्य भर्तृहरि के 'महाभाष्यदीपिका' के अतिरिक्त निम्न ग्रन्थ और हैं- . . . . . . . . १-वाक्यपदीय (प्रथम द्वितीय काण्ड)। २-प्रकीर्णकाण्ड (तृतीय काण्ड)।: :..: . : ३-वाक्यपदीय (काण्ड १, २) की स्वोपज्ञटीका।। ४-वेदान्तसूत्र-वृत्ति। :'. '..:.. : . ५-मीमांसासूत्र-वत्ति। . इन में संख्या १, २, ३, पर विचार 'व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार' नामक २६ वें अध्याय में किया जायेगा। संख्या ४, ५ का संक्षिप्त वर्णन हम पूर्व कर चुके हैं। . : ::. . ३० . महाभाष्यदीपिका के विशेष उद्धरण - हमने भर्तृहरिविरचित 'महाभाष्यदीपिका' का अनेकधा पारायण Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४११ किया है। उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण वचन हैं। हम उनमें से कुछ एक अत्यन्त आवश्यक वचनों को नीचे उद्धृत करते हैं १-यथा तैत्तिरीयाः कृतणत्वमग्निशब्दमुच्चारयन्ति ।' हस्तलेख पृष्ठ १; पूना सं० पृष्ठ १ । २-एवं ह्य क्तम्-स्फोट: शब्दो ध्वनिस्तस्य व्यायामादुपजायते । ५ हस्तलेख पृष्ठ ५; पूना सं० ४ । ३-अस्ति हि स्मृतिः-एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः......४ । १६।१२। ४-इळे अग्निनाग्निनेति विवृतिर्दृष्टा बह वृच्सूत्रभाष्ये । १७। २३ । ५. प्राश्वलायनसूत्रे-ये यजामहे .....।१७।१३। ६. आपस्तम्बसूत्रे-अग्नाग्ने......।१७।१३। ७. शब्दपारायणं रूढिशब्दोऽयं कस्यचिद् ग्रन्थस्य । २१।१७। ८. संग्रह एतत् प्राधान्येन परीक्षितम्-नित्यो वा स्यात् कार्यो वेति । चतुर्दश सहस्राणि वस्तूनि अस्मिन् संग्रहग्रन्थे [परीक्षितानि] ।२६।२१। - ६. सिद्धा द्यौः, सिद्धा पृथिवी, सिद्धमाकाशमिति । पाहतानां मीमांसकानां च नैवास्ति विनाश एषाम् ।२६।२२। १०. एवं संग्रह एतत् प्रस्तुतम्-कि कार्यः शब्दोऽथ नित्य इति १३०॥२३॥ ११. इहापि तदेव, कुतः ? संग्रहोऽप्यस्यैव शास्त्रस्यैकदेशः, तत्रक- २० तन्त्रत्वाद् व्याडेश्च प्रामाण्यादिहापि तथैव सिद्धशब्द उपात्तः ।३०१२३ १. तुलना करो-यद्यपि च अग्निर्वृत्राणि जङ्घनदिति वेदे कृतणत्वमग्निशब्दं पठन्ति । न्यायमञ्जरी पृष्ठ २८८। यहां उद्धृत पाठ प्राय: हस्तलेखानुसारी हैं। पूना संस्करण का पाठ साथ में दी गई पूना सं० की पृष्ठ संख्या पर देखें। २. यह वचन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञटीका में भी उद्धत किया है । देखो—पृष्ठ ३५ (लाहौर सं०)। ३. पागे उद्धरण के अन्त में दी गई प्रथम संख्या हस्तलेख के पृष्ठ की है और दूसरी पूना संस्करण की। ४. महाभाष्य ६।१८४॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १२. अन्ये वर्णयन्ति -यदुक्तं दर्शनस्य परार्थत्वाद् (ज० मी० १।१।१८) अपि प्रवृत्तित्वादिति । यदेव तेन भाष्येणोक्तमितिकार्याणां वाग्विनियोगादप्यन्यदर्शनान्तरमस्ति । उत्पत्ति प्रति तु प्रस्य यदर्शनं योपलब्धिः या निष्पत्तिः सा परार्थरूपा इव, नहि परार्थता५ शून्यः कालः क्वचिदस्ति । तस्मादेतत्प्रतिपत्तव्यम-अवस्थित एवासौ प्रयोक्तृकरणादिसन्निपातेन अभिव्यज्यत इति ।३६।२६ ।। १३. धर्मप्रयोजनो वेति मीमांसकदर्शनम् । अवस्थित एब धर्मः, स त्वग्निहोत्रादिभिरभिव्यज्यते,' तत्प्रेरितस्तु फलदो भवति । यथा स्वामो भृत्यैः सेवायां प्रर्यते । ३८ । ३१॥ १४. निरुक्ते त्वेवं पठ्यते-विकारमस्यार्येषु भाषन्ते शव इति।' तत्रायमर्थः शवतेरसुन् प्रत्ययान्तस्य यो विकारः एकदेशस्तमेव भाषन्ते, न शवति सर्वप्रत्ययान्तां प्रकृतिमिति । ४२ । ३४-३५ । १५. तत्रैवोक्तम् -दीप्ताग्नयः खसहाराः कर्मनित्या महोदराः । ये नराः प्रति तांश्चिन्त्यं नावश्यं गुरुलाघवम् ॥४४॥३६ । । १६. भाष्यसूत्रेषु गुरुलाघवस्यानाश्रितत्वात् लक्षणप्रपञ्चयोस्तु मूलसूत्रेप्याश्रयणात् इहापि लक्षणप्रपञ्चाभ्यां प्रवृत्तिः । ४८ । ३६ । १७. एवं हि तत्रोक्तम् -स्फोटस्तावानेव, केवलं वृत्तिभेदः, ततश्च सर्वाषु वृत्तिषु तत्कालत्वमिति । ५८ । ४८-४६ । १. भर्तृहरि ने यहां मीमांसा १११११८ के किसी प्राचीन भाष्य को उद्धृत किया है। २. तुलमा करो-वृद्धमीमांसका यागादिकर्मनिर्वयमपूर्व नाम धर्ममभिवदन्ति । यागादिकमव शाबरा ब्रुवते । न्यायमञ्जरी पृष्ठ २७६ । यो हि याग मनुतिष्ठति तं धार्मिक इत्याचक्षते । यश्च यस्य कर्ता स तेन व्यपदिश्यते । २५ शाबरभाष्य १३१॥२॥ इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि भर्तृहरि शबरस्वामी से बहुत प्राचीन है। ३. निरुक्त २॥२॥ ४. चरक सूत्रस्थान २७।३४३॥ ५. तुलना करो ते वै विधयः सुपरिगृहीता भवन्ति, येषां लक्षणं प्रपञ्चश्च । महाभाष्य ६॥३॥१४॥ ३० ६. यह महाभाष्य ११११७० के 'स्फोटस्तावानेव भवति ध्वनिकृता वृद्धिः पाठ की कोई प्राचीन व्याख्या प्रतीत होती है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार १८. केषांचित् वर्णोऽक्षरम्, केषाञ्चित् पदम्, वाक्यं च । ११।१। १६. एवं ह्यन्ये पठन्ति-वर्णो अक्षराणीति ।' ११६ । १२ । २०. यदेवोक्तं वाक्यकारेण वृत्तिसमवायार्थ उपदेश इति । तदेव श्लोकवातिककारोऽप्याह । ११६ १६२ । २१. इति महामहोपाध्यायभर्तृहरिविरचितायां श्रीमहाभाष्यदीपिकायां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् । ११७ । ६२ । २२. नान्तः [पादमिति] पाठमाश्रित्येदमुपन्यस्तम्, न प्रकृत्यान्तःपादमिति । १४२ । ११० । २३. अयमेवार्थो वृत्तिकारेण दर्शित:-धात्वैकदेशलोपो धातुलोप १० इति ।..."एवं च केचिद् वृत्तिकारा धातुलोप इति किमर्थमिति पठन्ति । १४५, १४६ । ११२ । २४. प्रजापति यत्किचन मनसा दोधेत तदधीतयजुभिरेव प्राप्नोति तदधीतयजुषामधोतयजुष्ट्वं एतत्रिस्क्ते (एतं निरुक्तं) ध्यायेते वर्ण्यते । अयं हि तत्र व्याख्यानग्रन्थः-प्रजापति यत्किचन १५ मनसा ऽध्यायत् तदिति राप्तवानिति । १६५ । १२६ । २५. यदप्युच्यत इति अयं ग्रन्थोऽस्मादनन्तरं युक्तरूपो दृश्यते । १७५।१३५॥ २६. तत्कथमिवसमुदाये कार्यभाजिनि अवयवा न लभन्ते । १७५ । १३५। २७. अस्मिस्तु दर्शने पाणिनिना मुखग्रहणं पठितमिति दृश्यते। चूर्णिकारस्तु भागप्रविभागमाश्रित्य प्रत्याचष्टे । १७६ । १३५ । २८. संवारविवाराविति । यथा चैते बाह्यास्तथा शिक्षायां विस्त. रेण प्रतिपादितम् । १८४ । १३४ । २६. प्रस्यां शिक्षायां भिन्त्रस्थानत्वात् ( ? भिन्नप्रयत्नत्वाद्) २५ नास्ति अवर्णहकारयोः सवर्णसंज्ञेति । १८४।१४४ । १. तुलना करो-व्याकरणान्तरे वर्णा अक्षराणीति वचनात् । महाभाष्यप्रदीप, अ० १, पा० १, प्रा० २॥ . यह किसी संहिता ग्रन्थ का प्राचीन व्याख्यान है। इस सारे उद्धरण का पाठ बहुत अशुद्ध है। २० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास ३०. प्राचार्येणापि सर्वनामशब्दः शक्तिद्वयं परिगृह्य प्रयुक्तः । यथा - इदं विष्णुविचक्रमे ' इत्यत्र एक एव विष्णुशब्दोऽनेकशक्तिः सन् प्रधिदेवतमध्यात्ममधियज्ञं चात्मनि नारायणे चषाले च तथा शक्त्या प्रवर्तते । एवं च कृत्वा वृको मासकृदित्यत्राव ग्रह मेदोऽपि भवति, चन्द्र५ मसि प्रयुक्तो मास [कृत् ] शब्दोऽवगृह्यते वृको मासकृदिति । २६८ । २०३-२०४ । ३१. इहान्ये वैयाकरणाः पठन्ति - प्रत्ययोत्तरपदयोर द्विवचनटापोरस्योभयः । श्रन्येषाम् उभस्य नित्यं द्विवचनं टाप् च लोपश्च तय: । टाबिति टाबादयो निर्दिश्यन्ते । अन्येषामेवं पाठः - १० प्रद्विवचनयपूवति (?) । केचित् पुनरेवं पठन्ति - उभस्योभयोरद्विवचने । उभस्योभयो भवति प्रद्विवचन इति । २७० । २०५ । ३२. तत्रैतस्मिन्न भाष्यकारस्याभिप्रायमेवं व्याख्यातारः समर्थयन्ते । २८१ । २१३ । 54 ३३. न च तेषु भाष्यसूत्रेषु' गुरुलघुप्रयत्नः क्रियते । तथा चाह १५ नहीदानीमाचार्याः कृत्वा सूत्राणि निवर्तयन्ति इति । भाष्यसूत्राणि हि लक्षणप्रपञ्चाभ्यां निदर्शनसमर्थतराणि । २८१, २८२ । २१३ ॥ १. ऋग्वेद १।२२।१७ ॥ २. तुलना करो - अरुणो मासकृत् (ऋ० ११०५।१८ ) न्मासानां चार्घमासानां च कर्त्ता भवति चन्द्रमाः । निरुक्त ५। २१ ।। १० ३. एवं च भर्तृहरिणा उभयोन्यत्रेति वार्तिकमूलभूतम् 'उभयस्य द्विवचन टापू च लोपश्च यस्य' इति व्याकरणान्तरसूत्रमुदाहृतम् । नागेश, महाभाष्यप्रदीपोद्योत १।१।२७॥ पृष्ठ ३०२, कालम १ ४. तुलना करो - प्रापिशलस्त्वेवमर्थं सूत्रयत्येव -- उभस्योभयोरद्विवचनटापोः । तन्त्रप्रदीप २|३|८|| देखो - भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८३५ । २५ ५. बहुवचन निर्देश से स्पष्ट है कि भर्तृहरि से पूर्व महाभाष्य की अनेक व्याख्याएं रची गई थीं । "मासकृ ६. भाष्यसूत्र से यहां वार्तिकों का ग्रहण है। इससे प्रतीत होता है कि ष्टाध्यायी पर वृत्तियां ही लिखी गईं, अत एव उसका नाम 'वृत्तिसूत्र' है । देखो - पूर्व पृष्ठ २४० । वार्तिकों पर वृत्तियां नहीं बनीं, उस पर भाष्य ही लिखे गये । ७. महाभाष्य, अ० १, पाद १, प्रा० १, पृष्ठ १२ । ३० Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टोकाकार ४१५ ३४. इह त्यदादीन्यापिशलैः किमादीन्यस्मत्पर्यन्तानि ततः पूर्वपराधरेति..."। २८७ । २१६ । ३५. विग्रहभेदं प्रतिपन्नाः वृत्तिकाराः ।२६५ । २२१ । ३६. अस्मिन् विग्रहे क्रियमाणे सूत्रे यो दोषः स उक्तः । इदानीं वृत्तिकारान्तर[मत] मुपन्यस्यति ।३०६॥ २२८ । ___३७. प्रत एषां व्यावृत्त्यर्थं कुणिनापि तद्धितग्रहणं कर्तव्यम् । प्रतो गणपाठ एव ज्यायानस्यापि वृत्तिकारस्य, इत्येतदनेन प्रतिपावयति । ३०९।२३३। ३८. नैव सौनागदर्शनामाधीयते । ३१०२३१ । ३६. तस्मादनर्थकमन्तग्रहणं दृश्यते । न्यासे' तु प्रयोजनमन्तग्रहण- १० स्योक्तम्-स्वभावैजन्तप्रतिपत्त्यर्थम् इह मा भूत् कुम्भका[रेभ्यः] इति । ३१४॥ २६३ । ४०. मा नः समस्य दूढ्य' इति । एतस्य निरुक्तकारो व्याख्यानं करोति-मा नः सर्वस्य दुधियः पापधिय इति । ३२३॥ २४० । ४१. अन्येषां पुनर्लक्षणे 'समो युक्ते' समशब्दो युक्तेऽर्थे न्याय्ये- १५ ज्ये वर्तते सर्वनामसंज्ञो भवति । इह तु न समशब्दो युक्तार्थे प्रयुक्त इति दोषाभावः । ३२३ । २४०। ४२. सर्वव्याख्यानकार रिदमवसितं मुखस्वरेणैव भवितव्यमुपाग्निमख इति । अन्ये वर्णयन्ति" । ३२८ । २४३ । १. तुलना करो-त्यदादीनि पठित्वा गणे कैश्चित् पूर्वादीनि पठितानि । २० कैयट, महाभाष्यप्रदीप १॥१॥३४॥ २. यह न्यास जितेन्द्रबुद्धिविरचित 'न्यास' अपरनाम 'काशिकाविवरणपञ्जिका' से भिन्न ग्रन्थ है। क्योंकि उसमें यह पाठ नहीं है। भामह ने काव्यालंकार ६३६ में किसी न्यासकार का उल्लेख किया है। भामह स्कन्दस्वामी (वि० सं० ६८७) का पूर्ववर्ती है । अनेक विद्वान भामह और जिनेन्द्रबुद्धि का २५ पौणिर्य संबन्ध निश्चित करते रहे, वह सब वृथा है। क्योंकि प्राचीन काल में न्यासग्रन्थ अनेक थे। अतः भामह किस न्यासकार का उल्लेख करता है, यह प्रज्ञात है। ३. ऋग्वेद ८७५६॥ ४. निरुक्त ॥२३॥ ५. इससे भी महाभाष्य पर अनेक प्राचीन व्याख्याओं की सूचना मिलती है। ३० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ४१६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४३. कथं तदुक्तं भारद्वाजा प्रस्मात् मतात् प्रच्याव्यते इति उच्यते । यथानेन स्मृत्योपनिबद्धं ततः प्रच्याव्यत इति । ३५६ २६१। 1 ४४. उभयथा प्राचार्येण शिष्याः प्रतिपादिताः - केचिद् वाक्यस्थ केचिद् वर्णस्येति' । ३७२ । २७० । ४५. श्रुतेरर्थात् पाठाच्च प्रसृतेऽथ मनीषिणः । स्थानान्मुख्याच्च धर्माणामाहुः श्रुतिर्वेद क्रमात् । श्रुतेः क्रममाहुः - हृदयस्याग्रेऽवद्यति, श्रथ जिह्वायाः, श्रथ वक्षसः । प्रथशब्दोऽनन्तरार्थस्य द्योतकः श्रूयते । तत्र इदं कृत्वा इदं कर्तव्यमिति । क्रमप्रवृत्तिरर्थक्रमो यदार्थ एवमुच्यते -देवदत्तं भोजय स्नान१० पयानुलेपयोद्वर्तयाभ्यञ्जयेति । श्रर्थात् क्रमो नियम्यते - अभ्यञ्जनमु द्वर्तनं स्नापनमनुलेपनं भोजनमिति । पाठक्रमो नियतानुपूर्वके श्रुतिवेदवाक्येने कार्योपादाने उद्देशिनामनुदेशिनां च सकृदथित्वेन व्यवति ष्ठते । यथा स्मृतौ परिमार्जन प्रदाहनेक्षणनिर्णेजनानि तैजसमात्रिकद्वारवतामिति । ३७७ । २७४ । 1 १५ ४६. इहास्तेः केचिद् सकारमात्रमुपदिश्य पित्सु श्रडागमं विदधति, ' केचिद् कारलोपम पित्सु वचनेषु । ३८० । २७५ । ४७ तत्रेदं दर्शनं - पदप्रकृतिः संहितेति । ४११ । २६६ । महाभाष्यदीपिका में प्राचीन भाष्ययाख्याओं का उल्लेख २५ महाभाष्यदीपिका में केचित् श्रपरे धन्ये प्रादि शब्दों से महा२० भाष्य के अनेक प्राचीन व्याख्याकारों के पाठ उद्धृत हैं । हम यहां उनका संकेतमात्र करते हैं केचित् – ४, ६, १६७, १७६, १७६, १८६, २०४, २०५, २११, २८०, ३२१, ३३३, ३७४, ४००, ४०४, ४०७, ४२४ । पूना संस्क, में क्रमश: पृष्ठ पंक्ति - ३, २३ । ५१, १६ । १२७, १३ । १३६, १० । १३६, ११ । १४८, १० । १५६, १ । १५६, १६ । १६३, १० । १. इससे प्रतीत होता है कि बनाई थी । २. यह आपिशलि का मत है । देखो -- अष्टा० ११३१२३ की काशिकाविवरणपञ्जिका और पदमञ्जरी । ३. निरुक्त १।१७॥ तुलना करो -- ऋक्प्राति० २॥१॥ पाणिनि ने अष्टाध्यायी की वृत्ति भी Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य क टाकाकार २१२, १६ । २३६, ४।२४६, १०। २७२, ४।२८८, १९ । २६२, ५२२६३, १६ । ३०५,२ ।। केषाञ्चित्-३६, १७८ । पूना सं० ३१, १८, १३८,६ । अन्ये-४, ५७, ७०, १५४, १६०, १६६, १७६, १७६, १८३, १८५,२७६, २८०, ३०८,३३६, ३७४, ३७४, ३८२, ३६१, ५ ३६७, ३६६ । ३२४ । पूना सं० पृष्ठ पंक्ति -३, २६।४८, ६॥ ६०,७॥ ११८, १४।१२२. १०।१२६, १४।१३५, २२। १३६, १११४३, १२॥१४५, १०।२१२, ३३२१२,२०१२३०, ६।२४६, १६।२७२, ४।२७७, ७२८२, २०१२८७, ५, २८६, ११३०५, २। अन्येषाम्-१८, ३६, ४६, १६५। पूना सं० १३, २०१३१, १९॥ ३७, २५॥ १२५, १६ । अपरे-७०, ७६, १६४, १७६, १७८, १८६, २०५, ३२६, ३६५, ३६८, ४००,। पूना सं० पृष्ठ पंक्ति-६०, ८१६४, ७॥ १२५, १०। १३६, १०११३८, १६१४८, ११११५४, १६।१५६, ७ १५ २४३, २२॥ २६५, २१॥ २६७, १३॥ २८६, १८ । महाभाष्य की प्राचीन टोकानों में पाठान्तर-१५, १६, १००, १०४, १६५, १६८,१८१, ४१५, ४३० । पूना सं० पृष्ठ पंक्ति-११, १२॥१४, २४१८१, ११।८३, २२।१२५, १६।१२८, २१॥ १४०, २३॥ २६८, १९३३०१, २३।३०६, ८। २० विशिष्ट पदों का व्यवहार वाक्यकार (=वातिककार)-६२, ११६, १६२, २८०, ३७८, ४१४ । पूना संस्क० पृष्ठ पंक्ति-५३, ९९२, ९।१२३, २३।२१३, १-२२७४, १०२९८,७। . . चूर्णिकार-(=महाभाष्यकार)-१७६, १९९, २३६ । पूना २५ सं० पृष्ठ पंक्ति-१३६, १७। १५५, १६।१८०, ११ ॥ . इह भवन्तस्त्वाहुः-६१, १०७, १२५, २६९', २७२ । पूना सं० पृष्ठ पंक्ति-५१, २२८६, २०६८,७४३ २०४, २४।२०७, ३ । १. महाभाष्य ३।१।८ में भी 'इह भवन्तस्त्वाहुः' का उद्धरण मिलता है । २. यहां हस्तलेख में 'इन्द्रभवस्वाहुः' अपपाठ है। द्र-पूर्व पृष्ठ ३४६ । ३० ३. यहां मुद्रित पाठ 'इह भवतु' है यह प्रयुक्त है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतितास २. अज्ञातकर्तृक (सं० ६८० वि० से पूर्व) स्कन्दस्वामी ऋग्वेद का एक प्रसिद्ध भाष्यकार है। उसने निरुक्त पर भी टीका लिखी है। वह निरुक्त ११२ को टीका में लिखता है - अन्ये वर्णयन्ति-भावशब्दः शब्दपर्यायः । तथा च प्रयोगः-'यद्वा ५ सर्वे भावाः स्वेन भावेन भवन्ति स तेषां भावः' इति, 'सर्वे शब्दाः स्वेना थेनार्थभूताः संबद्धा भवन्ति स तेषां स्वभावः' इति तत्र व्याख्यायते । यहां स्कन्दस्वामी ने पहिले 'यद्वा "भावः' पाठ उद्धृत किया हैं । यह पाठ महाभाष्य ५। १ । ११६ का हैं । तदनन्तर 'सर्वे "स्वभावः' पाठ लिखकर अन्त में 'तत्र व्याख्यायते' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि १० स्कन्दस्वामी ने उत्तर पाठ महाभाष्य की किसी प्राचीन टीका ग्रन्थ से उद्धृत किया है। स्कन्दस्वामी हरिस्वामी का गुरु है । हरिस्वामी ने शतपथ ब्राह्मण प्रथम काण्ड का भाष्य संवत् ६९५ वि० में लिखा हैं। यदि हरिस्वामी की तिथि कलि सं. ३०४७ हो, जैसा कि पूर्व पृष्ठ ३८८-३८९ १५ पर लिखा है, तो स्कन्दस्वामी की निरुक्त टीका में उद्धृत महाभाष्यव्याख्या विक्रम संवत् प्रवर्तन से भी पूर्ववर्ती होगी। ३. कैयट (सं० ११०० वि० से पूर्व) कैयट ने महाभाष्य की 'प्रदीप' नाम्नी एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या लिखी है । महाभाष्य पर उपलब्ध टीकात्रों में भर्तृहरि की महाभाष्य२० दीपिका के अनन्तर यहीं सब से प्राचीन टीका है। परिचय वंश-कैयटविरचित महाभाष्यप्रदीप के प्रत्येक अध्याय के अन्त में जो वाक्य उपलब्ध होता है, उसके अनुसार कैयट के पिता का नाम 'जैयट उपाध्याय' था। २५ मम्मटकृत काव्यप्रकाश की 'सुधासागर' नाम्नी टीका में भीमसेन ने कैयट और उव्वट को मम्मट का अनुज लिखा है । यजुर्वेदभाष्य के अन्त में उव्वट ने अपने पिता का नाम 'वज्रट' लिखा है। अतः १. देखो--पूर्व पृष्ठ ३८८ । २. इत्युपाध्यायजयटपुत्रकैयटकृते महाभाष्यप्रदीपे......॥ ३. आनन्दपुरवास्तव्यवज्रटस्य च सूनुना । उवटेन कृतं भाष्यं ....॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४१६ भीमसेन का लेख अशुद्ध होने से प्रमाण योग्य नहीं है। भीमसेन का काल सं० १७७६ है । प्रतीत होता है कि उसे कैयट, उध्दट और मम्मट नामों के सादृश्य के कारण भ्रम हुआ। __ अानन्दवर्धनाचार्यकृत 'देवीशतक' की एक कैयटकृत व्याख्या उपलब्ध होती है। व्याख्या का लेखन काल कलि संवत् ४०७८ अर्थात् ५ विक्रम सं० १०३४ है । देवीशतक की व्याख्या में कैयट के पिता का नाम 'चन्द्रादित्य' मिलता है । अतः यह कैयट भी प्रदीपकार कैयट से भिन्न है। ___ गुरु–वेल्वाल्कर ने कैयट के गुरु का नाम 'महेश्वर' लिखा है।' इसमें प्रमाण अन्वेषणीय है। : शिष्य-कैपट ने निस्सन्देह अनेक छात्रों के लिए महाभाष्य का प्रवचन किया होगा। परन्तु हमें उनमें से केवल एक शिष्य का नाम ज्ञात हुआ है, वह है-'उद्योतकर' । यह उद्योतकर न्यायवार्तिक के रचयिता नैयायिक उद्योतकर से भिन्न व्यक्ति है । कैयट-शिष्य उद्योतकर ने भी व्याकरण पर कोई ग्रन्थ रचा था। उसके कुछ उद्धरण पं० १५ चन्द्रसागरसूरि ने हैमबृहद्वत्ति की आनन्दबोधिनी टीका में उद्धृत किये हैं। उनमें से एक इस प्रकार है. ...."स्वगुरुमतमुपदर्शयन्नुद्योतकर आह-यथात्र भवानस्पदुपाध्यायोव्याकरणरत्नकार-पूर्णचन्द्रमाः कैयटाख्यः शिष्यसाथमिदमवोचत्-भृत्यापेक्षायात्र षष्ठी कृता, साध्यापेक्षया .....' ... श्री विजयानन्दसूरि के शिष्य अमरचन्द्र विरचित हैंमबृहद्वत्त्यवचूर्णि में भी पृष्ठ १४३ पर उद्योतकर का निम्न पाठ उद्धत है- उद्योतकरस्त्ववाह-सितोतेरेव ग्रहणं न्याय्यं सयेत्यनेन साहच र्यात् । किं च स्यतिग्रहणे नियमार्थता जायते, सिनोतिग्रहगे तु विध्य.. थता। विधिनियमसंभवे च विधिरेव ज्यायान् । न च वाच्यमेकनव २५ सितग्रहणेन स्यतिसिनोत्युभयोपादानाद्विध्यर्थता नियमार्थताऽपि स्यात्' . इति। १. द्र०--सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैराग्राफ २८ । २. हैमबृहद्वत्ति भाग १, पृष्ठ १८८, २१० । ३. हैमबृहद्वृत्ति भाग १, पृष्ठ २१० । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० महाभाष्य के टीकाकार इस बृहद् हैमवृत्त्यवचूणि ग्रन्थ का लेखनकाल सं० १२६४ वि० श्रा० शु० ३ रविवार है।' देश-कैयट ने अपने जन्म से किस देश को गौरवान्वित किया यह अज्ञात है, परन्तु कयट मम्मट रुद्रट उद्भट आदि नामों के सादृश्य से प्रतीत होता है कि कैयट कश्मीर देश का निवासी था। काशी के पुरानी पीढ़ी के वैयाकरणों में प्रसिद्धि रही है कि एक बार कैयट काशी की पण्डित-सभा में उपस्थित हुअा था। पायजामा पहरे होने के कारण उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया, परन्तु शास्त्रीयतत्त्वविशेष पर, जो सभा में प्रस्तूयमान था, कयट ने समाधान प्रस्तुत किया, तो पण्डित-मण्डली चकित रह गई इस अनुश्रुति से भी कैयट का कश्मीरदेशज होना प्रकट होता है। ' महाभाष्य १।२।६४ के 'वृक्षस्थोऽवतानो वृक्षे छिन्नेऽपि न नश्यति के व्याख्यान में कैयट लिखता है--'यथा वृक्षोपरि द्राक्षादिलता".."। इस दृष्टान्त से भी कैयट का कश्मीरदेशज होना पुष्ट होता है। पुरा१५ काल में द्राक्षालता भारत में कश्मीर प्रदेश में ही प्रधानरूप से होती थी। काल कैयट ने अपने विषय में कुछ भी संकेत नहीं किया । अतः उसका इतिवृत्त तथा काल अज्ञात है। हम उसके काल-निर्णायक बाह्यसा. २० क्ष्यरूप कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-सर्वानन्द ने अमरकोष की टीकासर्वस्व नाम्नी व्याख्या संवत् १२१६ में लिखी है । उसमें वह मैत्रेयरक्षित-विरचित धातुप्रदीप' और किसी टीका' को उद्धृत करता है। २--मैत्रेयरक्षित तन्त्रप्रदीप १२१ नामनिर्देशपूर्वक कैयट को २५ १. हैमबृहद्वृत्त्यवचूणि पृष्ठ २०७, वि० सं० २००४ में सूरत से प्रकाशित । २. यह किंवदन्ती हमने काशी के वैयाकरण-मूर्धन्य श्री पं० देव नारायण जी त्रिवेदी (तिवारी) से अध्ययनकाल (सन् १९२७) में सुनी थी। ३. भाग १, पृष्ठ ५५, १५३, १५७ इत्यादि। ४. भाग ४, पृष्ठ ३० । दुर्घटवृत्ति (सं० १२२६ वि०) में भी धातुप्रदीय' ___३. टीका पृष्ठ १०३ पर उद्धृत है। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ महाभाष्य के टीकाकार स्मरण करता है-कज्जटस्तु कार्तिक्याः प्रभृतीति भाष्यकारवचनादेवंविषिविषये पञ्चमी भवतीति मन्यते ।' ३-मैत्रेयरक्षित अपने तन्त्रप्रदोप' और धातुप्रदीप में धर्मकीर्ति तथा तद्रचित रूपावतार को उद्धृत करना है । ४--धर्मकीति रूपावतार में पदमञ्जरीकार हरदत्त का उल्लेख ५ करता है। ५--हरदत्तविरचित पदमञ्जरी और कैयटविरचित महाभाष्यप्रदीप की तुलना करने से विदित होता कि अनेक स्थानों में दोनों ग्रन्थ अक्षरशः समान हैं । इससे सिद्ध होता है कि दोनों में से कोई एक दूसरे के ग्रम्प की प्रतिलिपि करता है । यद्यपि किसी ने किसी के १० नाम का निर्देश नहीं किया, तथापि निम्न पाठों की तुलना करने से प्रतीत होता है कि कैयट हरदत्त से प्राचीन है। कयट--यद्वा प्रतिपरसमनुभ्योऽक्ष्ण इति टच् समासान्तः । स च यद्यप्यव्योभावे विधीयते, तथापि परशब्दस्याक्षिशब्देनाव्ययीभावासंभवात् समासान्तरे विज्ञायते । हरदत्त-अन्ये तु प्रतिपरसमनुभ्योऽक्षण इति शरत्प्रभृतिषु पाठात् टच् सामासान्त इत्याहुः। स च यद्यप्यव्ययीभावे विधीयते, तथापि परशब्देनाव्ययीभावासंभवात् समासान्तरे विज्ञायते । एवं तु क्रियायां परोक्षायामितिभाष्यप्रयोगे टिल्लक्षणो डोष प्राप्नोति, तस्मादजन्त एवायम् । कयट-ऊध्वं दमाच्चेति-दमशब्दे उत्तरपदे ठसन्नियोगेनोर्ध्वशम्बस्य मकारान्तत्वं निपात्यते।' १५ १. भारतकोमुदी भाग २, पृष्ठ ८६३ की टिप्पणी मै उद्धृत । २. अविनीतकीर्तिना [धर्म] कीर्तिना त्वाहोपुरुषिकया लिखितम्-- तनिपतिदरिद्रातिभ्यो वेड् वाच्य इत्यनार्षमिति । तन्त्रप्रदीप ॥२॥४६) धातु- २५ प्रदीप की भूमिका पृष्ठ ३ में उद्धृत। ३. रूपावतारे बु णिलोपे प्रत्ययो त्पत्तेः प्रागेव कृते सत्येकाच्त्वात् यदाहृत: चोचूर्यत इति । धातुप्रदीप पृष्ठ १३१॥ ४: दीर्घान्त एवायं हरदत्ताभिमतः । रूपावतार भाग २, पृष्ठ १५७ । ५. प्रदीप ३॥२॥११॥ ६. पदमञ्जरी ३१२।११५॥ ७. प्रदीप ४।३६०॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हरदत्त-ऊवंशब्देन समालार्थ ऊर्ध्वं शब्द इति, स चैतवृत्तिविषय एव । अपर आह-ठसन्नियोगेन दमशब्द उत्तरपदे ऊर्वशब्दस्यैव मान्तत्वं निपात्यत इति । कैयट-गुणो वृद्धिगुणो वृद्धिः प्रतिषेधो विकल्पनम् । पुनर्वद्धिनिषेधश्च यापूर्वाः प्राप्तयो नव ।। इति संग्रहश्लोकः।' हरदत्त-आह च गुणो वृद्धिगुणो वृद्धिः प्रतिषेधो विकल्पनम् । पुनर्वृद्धिनिषेधश्च यापूर्वाः प्राप्तयो नव ॥' १० इनमें प्रथम उद्धरण में हरदत्त 'अन्ये..."आहुः' शब्दों से कैयट के मत का अनुवाद करके उसका खण्डन करता है। द्वितीय में 'अपर' पाह' और तृतीय में 'प्राह च' लिखकर कैयट के पाठ को उदधत करता है। इन पाठों से स्पष्ट होता है कि कैयट हरदत्त से प्राचीन है, और हरदत्त कैयट के पाठों की प्रतिलिपि करता है। १५ अब हम हरदत्त का एक ऐसा वचन उद्धृत करते हैं, जिसमें हरदत्त स्पष्टरूप से कयट कृत महाभाष्य-व्याख्या को उद्धृत करता है। यथा अन्ये तु 'हे प्विति प्राप्ते हे पो इति भवतीति भाष्यं व्याचक्षाणा नित्यमेव गुणमिच्छन्ति । पदमञ्जरी ७।१॥७२॥ २० तुलना करो महाभाष्यप्रदोप-हे त्रपु हे पो इति-हे पु इति प्राप्ते हे पो इति भवतीत्यर्थः । ७।१।७२॥ 'भाष्यव्याख्याप्रपञकार भी हरदत्त को कैयटानुसारी लिखता - पदमजरी और महाभाष्यप्रदीप में एक स्थल ऐसा भी है, २५ जिससे प्रतीत होता है कि प्रदीपकार कैयट हरदत्त के पाठ को उद्धृत करता है । यथा । १. पदमञ्जरी ४।३।६०॥ २. प्रदीप ७।२॥५॥ ३. पदमजरी ७।२।५॥ ४. प्राचीनवृत्तिटीकायां कज्जटमतानुसारिणा हरिमिश्रेणापि .....। पत्रा ३६ क । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभन्ष्य के टीकाकार ४२३ तच्छब्दान्तरमेव अव्युत्पन्नमेव प्रबन्धस्य वाचकम् । पारम्पर्यमित्यपि तस्मादेव स्वार्थे व्याज भवति । कयं पारोवविद् इति ? असाधुरेवायम्, खप्रत्ययसन्नियोगेन परोवरेति निपातनात् । पदमञ्जरी ५।२।१०॥ तुलना करो महाभाष्यप्रदीप-अन्ये तु परम्पराशब्दमव्युत्पन्न- ५ माचक्षते । तस्मात् स्वार्थे ष्यिनि 'पारम्पर्यम्' इति भवति । 'पारोवर्यविद्' इत्यस्यासाधुत्वमाहुः, प्रत्ययसन्नियोगेनैव निपातनस्य युक्तत्वं मन्यमानाः ।।२।१०॥ इस पाठ की उपस्थिति में पुनः यह सन्देह उत्पन्न हो जाता है कि कैयट और हरदत्त दोनों में कौन प्राचीन है।' इस संदेह की १० निवृत्ति पुरुषोत्तमदेव विरचित भाष्यव्याख्या पर किसी अज्ञातनामा 'प्रपञ्च' नाम्नी टीका के लेखक के निम्न वचन से हो जाती हैं अतः एव प्राचीनवृत्तिटीकायां कज्जट मतानुसारिणा हरिमिश्रेणापिभाष्यवचनमनूद्य..."।' . इससे स्पष्ट है कि कैयट हरदत्त से प्राचीन है । हो सकता है कि १५ कयट ने उक्त उद्धरण किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ से उद्धृत किया हो, और हरदत्त ने उसी मत को प्रमाण मान कर ‘पदमञ्जरो' में स्वीकार किया हो। यद्यपि पूर्वनिर्दिष्ट ग्रन्थकारों में मैत्रेयरक्षित, धर्मकीर्ति और हरदत्त का काल भी अनिश्चित है, तथापि परस्पर एक दूसरे को उद्- २० धत करने वाले ग्रन्थकारों में न्यूनानिन्यून २५ वर्ष का अन्तर मान कर इन का काल इस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है प्रन्थकर्ता ग्रन्थनाम काल सर्वानन्द टीकासर्वस्व १२१५ वि० सं० ........." धातुप्रदीपटीका ११६० । १. भविष्यत् पुराण के आधार पर डा० याकोबी ने हरदत्त का देहावसान् ८७८ ई. लगभग माना है। जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी बम्बई, • भाग १३, पृष्ठ ३१ । । २. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टली, सेप्टेम्बर १९४३, पृष्ठ २०७ में उद्धृत । इस भाष्यव्याख्या प्रपञ्च के विषय में हम मागे लिखेंगे। .. ३० Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास मैत्रेयरक्षित धापूप्रदीप ११६५ वि० सं० धर्मकीर्ति रूपावतार' ११४० " . हरदत्त पदमञ्जरी १११५ ॥ कैयट महाभाष्यप्रदीप १०६० , ५ . इस प्रकार कैयट का काल अधिक से अधिक विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता है। यह उपर्युक्त ग्रन्थकारों में न्यूनातिन्यून २५ वर्ष का अन्तर मानकर उत्तर सीमा हो सकती है। अर्थात् इस उत्तर काल में कैयट को नहीं रख सकते । सम्भव है कैयट इस से भी अधिक प्राचीन ग्रन्थकार हो, परन्तु दृढ़तर प्रमाण के १० अभाव में अभी इतना ही कहा जा सकता है। महाभाष्य-प्रदीप कयट ने अपनी टीका के प्रारम्भ में लिखा है कि मैंने यह व्याख्या भर्तृहरिनिबद्ध साररूप ग्रन्थसेतु के आश्रय से रची है। यहां कैयट का अप्रिाय भर्तृहरिविरचित 'वाक्यप्रदीय' और 'प्रकीर्णकाण्ड' से १५ है । यह 'सार' शब्द के निर्देश से स्पष्ट है। कैयट ने सम्पूर्ण प्रदीप में केवल एक स्थान पर भर्तृहरिविरचित 'महाभाष्यदीपिका' की ओर संकेत किया है, दीपिका का पाठ कहीं पर उद्धृत नहीं किया । इसके विपरीत 'वाक्यपदीय' और 'प्रकीर्णकाण्ड' के शतशः उद्धरण भाष्यप्रदीप में उद्धृत हैं । प्रदीप से कैयट का व्याकरण-विषयक प्रौढ़ पाण्डित्य स्पष्ट विदित होता है । सम्प्रति महाभाष्य जैसे दुरुह ग्रन्थ को समझने में एकमात्र सहारा प्रदीप ग्रन्थ है। इसके विना महाभाष्य पूर्णतया समझ में नहीं आ सकता। प्रतः पाणिनीय संप्रदाय में कयटकृत 'महाभाष्यप्रदीप' अत्यन्त महत्त्व रखता है। १. रूपावतार और धर्मकीति को हेमचन्द्र ने लिङ्गानुशासन की स्वोपज्ञबत्ति में (पृ०७१) उद्धृत किया है--वाः वारि, रूपावतारे तु धर्मकीर्तिनास्य नपंसकत्वमुक्तम । हेमचन्द्राचार्य ने स्वव्याकरण की रचना सम्भवतः सं० १९६५ के लगभग की थी। ऐसा हम आगे निरूपण करेंगे। २. तथापि हरिबद्धन सारेण ग्रन्थसेतुना.... ३. विस्तरेण भर्तृहरिणा प्रदर्शित ऊहः । नवाह्निक निर्णयसागर संस्करण पृष्ठ २०॥ २० Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४२५ महाभाष्य-प्रदीप के टीकाकार | महाभाष्यप्रदोप के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के कारण अनेक वैयाकरणों ने इस पर टीकाएं लिखो हैं। उनमें से निम्न टीकाकारों की टीकाएं उपलब्ध या ज्ञात हैं१, चिन्तामणि ८. नारायण शास्त्री २. मल्लय यज्वा ६. नागेशभद्र ३. रामचन्द्र सरस्वती १०. प्रवर्तकोपाध्याय ४. ईश्वरानन्द सरस्वती ११. प्रादेन ५. अन्न भट्ट १२. सर्वेश्वर सोमयाजी ६. नारायण १३. हरिराम ७. रामसेवक १४. अज्ञातकर्तृक इन टीकाकारों का वर्णन हम 'महाभाष्य-प्रदीप के व्याख्याकार' नामक बारहवें अध्याय में करेंगे। ४. ज्येष्ठकलश (सं० १०८५-११३५ वि०) १५ ज्येष्ठकलश ने महाभाष्य की एक टीका लिखी थी, ऐसी ऐतिहासिकों में प्रसिद्धि है। परन्तु गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज काशी से प्रकाशित 'विक्रमाङ्कदेवचरित' के सम्पादक पं० मुरारीलाल शास्त्री नागर का मत है कि ज्येष्ठकलश ने महाभाष्य पर कोई टीका नहों रची। हमारा भी यही विचार है । बिल्हण का लेख इस प्रकार है- २० महाभाष्यव्याख्यामखिलजनवन्द्यां विदधतः, सदा यस्यच्छात्रैस्तिलकितमभूत् प्राङ्गणमपि ।' यहां 'विदधतः' वर्तमान काल का निर्देश और छात्रों से शोभित प्राङ्गण (-बरामदा) का वर्णन होने से प्रतीत होता है कि ज्येष्ठ १. कृष्णमाचार्य कृत 'हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' पृष्ठ २५ १५५ । २. विक्रमाङ्कदेवचरित की भूमिका पृष्ठ ११ । ३. विकमाङ्कदेवचरित सर्ग १८, श्लोक ७६ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कलश ने महाभाष्य की टीका नहीं रची थी । उक्त श्लोक में केवल उसके महाभाष्य के प्रवचन में अत्यन्त पट होने का उल्लेख किया है, फिर भी ऐतिहासिकों को इस विषय पर अनुसंधान करना चाहिए, ऐसा हमारा विचार है। परिचय वंश-ज्येष्ठकलश कौशिक गोत्र का ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम राजकलश और पितामह का नाम मुक्तिकलश था। ये सब श्रोत्रिय और अग्निहोत्री थे। ज्येष्ठकलश की पत्नी का नाम नागदेवी था । ज्येष्ठकलश के बिल्हण इष्टराम और आनन्द नामक तीन पुत्र १. थे। ये सब विद्वान् और कवि थे। बिल्हण ने 'विक्रमाङ्कदेवचरित' नामक महाकाव्य की रचना की है। देश-ज्येष्ठकलश कश्मीर में 'प्रवरपुर' के पास 'कोनमुख' ग्राम का निवासी था। वह मूलतः मध्यदेशीय ब्राह्मण था। काल १५ ज्येष्ठकलश का पुत्र बिल्हण कश्मीर छोड़ कर दक्षिण देश में चला गया । वह कल्याणी के चालुक्यवंशी षष्ठ विक्रमादित्य त्रिभुवनमल्ल का सभा-पण्डित था। उसने बिल्हण को 'विद्यापति' की उपाधि से विभूषित किया था। इस विक्रमादित्य का काल वि० सं० ११३३ ११८४ तक माना जाता है । अतः बिल्हण के पिता ज्येष्ठकलश का २० काल वि० सं० १०८५-११३५ तक रहा होगा। बिल्हण ने 'विक्रमाङ्कदेवचरित' के अठारहवें सर्ग में अपने वंश का विस्तार से परिचय दिया है। २५ ५. मैत्रय रक्षित (सं० ११४५-११७५ वि०) मैत्रेय रक्षित बौद्ध वैयाकरणों में विशिष्ट स्थान रखता है। सीरदेव ने परिभाषा-वृत्ति में मैत्रेय रक्षित को बहुशः उद्धृत किया है। उनमें कुछ उद्धरण ऐसे हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि मैत्रेय रक्षित ने महाभाष्य की कोई टीका रची थी। सीरदेव के वे उद्धरण नीचे लिखे जाते हैं Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि ४२७ १-एनच्च 'प्रातो लोप इटि च' (अष्टा० ६ । ४ । ६४) इत्यत्र 'टित प्रात्मनेपदानां टेरे(अष्टा० ३ । ४ । ७९) इत्यत्र च भाष्यव्याख्यानं रक्षितेनोक्तम् । परि० पृ० ७१ ।' २-एतच्च ‘सर्वस्य द्वे' (अष्टा० ८ । १ । १) इत्यत्र भाष्यव्याख्यानं रक्षितेनोक्तम् । परि० पृष्ठ ५१ । परिभाषासंग्रह पृष्ठ १८६ ५ १-तत्रतस्मिन् भाष्ये रक्षितेनोक्तम् । परि० पृष्ठ ७१ । परिभाषा संग्रह पृष्ठ २०१ ४-अत एव 'नाग्लोपिशास्वृदिताम्' (अष्टा० ७ । ४ । २) इत्यत्र रक्षितेनोक्तम्-हलचोरादेशो न स्थानिवदिति, यदि हि स्यात्...। इह पुनरलोपिग्रहणसामर्थ्यात् समुदायलोपीत्याश्रीयते । केवलाग्लोपे १० प्रतिषेषस्यानर्थक्यादिति भाष्यटोकायां निरूपितम् । परि० पृष्ठ १५४ । परिभाषासंग्रह पृष्ठ २५० । इन उद्धरणों में 'भाष्यव्याख्यान' और भाष्यटीका शब्दों का निर्देश महत्त्वपूर्ण है। परन्तु चतुर्थ उद्धरणस्य 'अग्लोपिग्रहण' से लेकर 'प्रतिषेधस्यानीक्यात्' पाठ के कैयट की प्रदीप टीका (७।४।२) १५ में उपलब्ध होने से यह उद्धरण सांशयिक हैं । देश-मैत्रेय रक्षित सम्भवतः बंग देश का निवासी है। इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के 'धातु-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २१ वें अध्याय में मैत्रय रक्षित विरचित 'घातप्रदीप' के प्रकरण में प्रकाश डाला है। काल-मैत्रेय रक्षित का निश्चित समय अज्ञात हैं । कैयट के काल-निर्देश में हमने मैत्रेय रक्षित के 'धातप्रदीप' का आनुमानिक रचनाकाल संवत् ११६५ वि० लिखा है (द्र०—पृष्ठ ४२४) । तदनुसार मैत्रेय रक्षित का काल सं० ११४५-११७५ वि० के आसपास माना जा सकता है। अन्य ग्रन्थ मैत्रेय रक्षित ने न्यास की 'तन्त्रप्रदीप' नाम्नी महती टीका, १. यहां परिभाषावृत्ति (काशी सं०)की पृष्ठ संख्या देने में भूले हुई है । पुनरावलोकन के समय उक्त पृष्ठ पर यह पाठ नहीं मिला। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास धातुप्रदीप और दुर्घटवृत्ति लिखी थी। इनका वर्णन हम आगे तत्तत् प्रकरणों में करेंगे।' ६. पुरुषोत्तमदेव (सं० १२०० वि०) पुरुषोत्तमदेव ने महाभाष्य पर 'प्राणपणा' नाम की एक लघुवृत्ति लिखी थी। इस वृत्ति की व्याख्या का टीकाकार मणिकण्ठ इसका नाम 'प्राणपणित" लिखता है । पुरुषोत्तमदेव बङ्गप्रान्तीय वैयाकरणों में प्रामाणिक व्यक्ति माना जाता है। अनेक ग्रन्थकार पुरुषोत्तमदेव के मत प्रमाणकोटि में १० उपस्थित करते हैं। कई स्थानों में इसे केवल 'देव' नाम से स्मरण किया है परिचय पुरुषोत्तमदेव ने अपने किसी ग्रन्थ में अपना कोई परिचय नहीं दिया । अतः उसका वृत्तान्त अज्ञात है देश-पुरुषोत्तमदेव ने अष्टाध्यायी की भाषावृत्ति में प्रत्याहारों का परिगणन करते हुए लिखा है-अश् हश् वश् झर जश् पुनर्बश् ।' इस वाक्य में 'पुनः' पद के प्रयोग से ज्ञात होता है कि पुरुषोत्तमदेव बंगदेश निवासी था। क्योंकि बंगप्रान्त में 'ब' और 'व' का उच्चारण समान अर्थात् पवर्गीय 'ब' होता है । अत एव पुरुषोत्तमदेव ने २० उच्चारणजन्य पुनरुक्तदोष परिहारार्थ 'पुनः' शब्द का प्रयोग किया है। मत-देव ने महाभाष्य और अष्टाध्यायी की व्याख्यानों के मंगव श्लोक में 'बुद्ध' को नमस्कार किया है। भाषावृत्ति में अन्यत्र श्री १५ १. तन्त्रप्रदीप—'काशिका के व्याख्याता' नामक १५ वें अध्याय में न्यास के व्याख्यात प्रकरण में । घातुप्रदीप--'धातुपाठ के प्रवक्ता और २५ व्याख्याता' नामक २१ वें अध्याय में । दुर्घटवृत्ति--'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' नामक १४ वें अध्याय में। २. देखो-पागे पृष्ठ ४३०, टि० २। ३. भाषावृत्ति पृष्ठ १। ४. महाभाष्य० --नमो बुधाय बुद्धाय । भाषावृत्ति-नमो बुद्धाय.....। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४२६ जिन, बौद्धदर्शन और महाबोधि के प्रति आदरभाव सूचित किया है।' इन से स्पष्ट है कि पुरुषोत्तमदेव बौद्धमतानुयायी था। काल भाषावृत्ति के व्याख्याता सृष्टिधराचार्य ने लिखा है कि राजा लक्ष्मणसेन' की आज्ञा से पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति बनाई थी। ५ राजा लक्ष्मणसेन का राज्यकाल अभी तक सांशयिक है । अनेक व्यक्ति लक्ष्मणसेन के राज्यकाल का प्रारम्भ विक्रम संवत् ११७४ के लगभग मानते हैं । पुरुषोत्तमदेव का लगभग यही काल प्रमाणान्तरों से भी ज्ञात होता है। यथा १-शरणदेव ने शकाब्द १०९५ तदनुसार विक्रम संवत् १२३० १० में दुर्घटवृत्ति की रचना की। दुर्घटवृत्ति में पुरुषोत्तमदेव और उसकी भाषावृत्ति अनेक स्थानों पर उदधृत है । अतः पुरुषोत्तमदेव संवत् १२३० वि० से पूर्वभावी है, यह निश्चित है। २-वन्द्यघटीय सर्वानन्द ने 'अमरटीकासर्वस्य' शकाब्द १०८१ तदनुसार विक्रम संवत् १२१६ में रचा। सर्वानन्द ने अनेक स्थानों १५ पर पुरुषोत्तमदेव और उसके भाषावृत्ति, त्रिकाण्डशेष, हारावली और वर्णदेशना आदि अनेक ग्रन्थ उद्धृत किये हैं। अतः पुरुषोत्तमदेव ने अपने ग्रन्थ संवत् १२१६ से पूर्व अवश्य रच लिये थे, यह निर्विवाद है । १. जिनः पातु वः ।३।३।१७३॥ न दोषप्रति बौद्धदर्शने ।।रामहाबोधि गन्तास्म ।३।३।११७॥ प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तायिने ।१।४।३२॥ २० २. श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती प्रभृति कुछ लोग लक्ष्मणसेन युवराजत्व काल में भाषावृत्ति की रचना मानते हैं (द्र०–सं० व्या० का उद्भव और विकास, पृष्ठ २८८) यह चिन्त्य है । क्योंकि सृष्टिधराचार्य ने के लक्ष्मणसेन को राजा लिखा है, कि युवराज । इस का कारण यह है कि वे लक्ष्मणसेन का राज्य काल ११६६ ई० (=सं० १२२६ वि०) से मानते हैं । यह मान्यता भी २५ अशुद्ध है। *३. वैदिकप्रयोगानथिनो लक्ष्मणसेनस्य राज्ञ प्राज्ञया प्रकृते कर्मणि प्रसजन । भाषावृत्त्यर्थविवृत्ति के प्रारम्भ में । ' ४. शाकमहीपतिवत्सरमाने एकनभोनवपञ्चविताने पृष्ठ १ । ५. इदानीं चंकाशीतिवर्षाधिकसहस्रकपर्यन्तेन शकाब्दकालेन (१०८१) ३० .....। भाग १, पृष्ठ ६१ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाभाष्य-लघुवृत्ति पुरुषोत्तमदेव विरचित भाष्यवृत्ति का प्रथम परिचय पं० दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने दिया है। इसका नाम प्राणपणा था। पुरुषोत्तम देवकृत भाष्यवृत्ति का व्याख्याता शंकर पण्डित लिखता है 'प्रथ भाष्यवृत्तिव्याचिख्यासुर्देवो विघ्नविनाशाय सदाचारपरिप्राप्तमिष्टदेवतानतिस्वरूपं मङ्गलमाचवार । तत्पद्यं यथा नमो बुवाय बुद्धाय यथात्रिमुनिलक्षणम् । विधोयते प्राणपणा भाषायां लघुवृत्तिका ॥ इति देव ।' शंकर-विरचित व्याख्या के टीकाकार मणिकण्ठ ने देवकृत १० व्याख्या का नाम 'प्राणपणित' लिखा है।' पुरुषोत्तमदेव की भाष्य व्याख्या को नागेशभट्ट का शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्डे उद्योत की छाया टीका में उदघत करके उसका खण्डन करता 'यत्तु च्छ्वोरित्यूड् इति देवः, तन्न....।' १५. अन्य व्याकरण-ग्रन्थ १-कुण्डली-व्याख्यान-श्रुतपाल ने 'कुण्डली' नामक कोई व्याकरण ग्रन्थ लिखा था । श्रुतपाल के व्याकरण-विषयक अनेक मत भाषावृत्ति, ललितपरिभाषा', कातन्त्रवृत्तिटीकाऔर जैन शाक १. देखो-इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी सेप्टेम्बर १९४३, पृष्ठ २० २०१। पुरुषोत्तमदेव की भाष्यवृत्ति और उसके व्याख्याताओं का वर्णन हमने इसी लेख के आधार पर किया है । तया वारेन्द्र रिसर्च म्यूजियम राजशाही. बंगाल (वर्तमान में बंगलादेश) से मुद्रित पुरुषात्तमदेव विरचित 'परिभाषात्ति' के अन्त में भी ये सब अंच अधिक विस्तार से छपे हैं। २. श्री देवयाख्यातप्राणपणितभाष्यग्रन्थस्य ...."इ० हि० क्वार्टी २५ पृष्ठ ३०३ ॥ ३. नवाह्निक, निर्णयसागर संस्क०, पृष्ठ १८२. कालम २। ४. अत्र संस्करोतेः कैयटश्रुतपालयोमतभेदात् ।।३।५॥ ५. कार्मस्ताच्छील्ये (अष्टा० ५४१७२) इत्यत्र श्रुतपालेन ज्ञापितो ह्ययमर्थः । 'वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी' हस्तलेख नं० ६३०, पत्रा ३२ क । ६. कृतप्रकरण, ६८॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४३१ टायन की अमोघा वृत्ति' में उपलब्ध होते हैं । शङ्कर ‘कुण्डली' ग्रन्थ के विषय में लिखता है 'फणिभाष्येऽत्र दुर्गत्वं कन्जटेन प्रकाशितम् । श्रुतपालस्य राद्धान्तः कुण्डल्यां कुण्डलायते ॥' शङ्कर पण्डित देवविरचित कुण्डली-व्याख्यान के विषय में ५ लिखता है 'समाख्यातश्च पुरुषोत्तमदेवः परिसमाप्तसकलक्रियाकलापः कुण्डली-व्याख्याने बद्धपरिकरः प्रतिजानीते कुण्डलीसप्तके येऽर्था दुर्बोध्याः फणिभाषिताः। ते सर्व प्रतिपाद्यन्ते साधुशन्देन भाषया । यदि दुष्प्रयोगशाली स्यां फणिभक्ष्यो भवाम्यहम् ॥' २-कारक-कारिका-इस ग्रन्थ में कारक का विवेचन है। यह इस के नाम से ही व्यक्त है। इनके अतिरिक्त पुरुषोत्तमदेव ने व्याकरण पर अनेक ग्रन्थ रचे थे। उनमें से निम्न ग्रन्थ ज्ञात हैं३-भाषावृत्ति ६-ज्ञापक-समुच्चय ४-दुर्घटवृत्ति ७-उणादिवृत्ति ५-परिभाषावृत्ति ८-कारकचक्र इन ग्रन्थों का वर्णन यथाप्रकरण इस ग्रन्थ में प्रागे किया जायगा। अन्य ग्रन्थ-उपर्युक्त व्याकरण-ग्रन्थों के अतिरिक्त त्रिकाण्डशेष-अमरकोष-परिशिष्ट, हारावली-कोष और वर्णदेशना आदि ग्रन्थ पुरुषोत्तमदेव ने रचे थे। त्रिकाण्डशेष और हारावली मुद्रित हो चुके हैं। महाभाष्य-लघुवृत्ति के व्याख्याता १. शंकर नवद्वीप निवासी किसी शंकर नामक पण्डित ने पुरुषोत्तमदेव की १. ३।१।१८२, १८३ । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाभाष्य लघुवृत्ति पर एक व्याख्या लिखी थी। उसका कुछ अंश उपलब्ध हुआ है ।' शंकरकृत व्याख्या का टीकाकार-मणिकण्ठ शंकरकृत लघुवृत्ति-व्याख्या पर पण्डित मणिकण्ठ ने एक विस्तृत ५ टीका लिखी है । इस टीका का भी कुछ अंश उपलब्ध हुआ है। इस टीका में 'कारक-विवेक' नामक ग्रन्थ की एक कारिका और भार्याचार्य का भाव का लक्षण उद्धृत है। कारक-विवेक के नाम से उद्धृत वचन वाक्यपदीय और पुरुषोत्तमदेव-विरचित कारक कारिका के पाठ से मिलता है। भार्याचार्य का नाम अन्यत्र उपलब्ध १० नहीं होता। ___ मणिकण्ठ भट्टाचार्य ने कातन्त्रवृत्ति-पञ्जिका को 'त्रिलोचनचन्द्रिका' नाम्नी टीका लिखी है। हमारे विवार में शंकरकृत भाष्यव्याख्या का टीकाकार और 'त्रिलोचन-चन्द्रिका' का लेखक एक ही मणिकण्ठ नामा व्यक्ति है । २. भाष्यव्याख्याप्रपञ्चकार पुरुषोत्तमदेवविरचित भाष्यव्याख्या पर किसी अज्ञातनामा विद्वान् ने एक व्याख्या लिखी है । उसका नाम है-भाष्यव्याख्याप्रपञ्च' । इसका केवल प्रथमाध्याय का प्रथमपाद उपलब्ध हुअा है। उसके अन्त में निम्न लेख है२० इति फणोन्द्रप्रणीतमहाभाष्यार्थदुरुहतात्पर्यव्याख्यानप्रवृत्तश्री १. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी सेन्टेम्बर १९४३ । .. २. वही इं० हि० क्वा० । - ३. सम्बन्धिभेदात् सत्तैव भिद्यमाना गवादिषु । जातिरित्युच्यते सोऽर्थो जातिशब्दे पृथक्-पृथक् । इत्यादि कारकविवेके लिखनात् । इ. हि० क्वार्टर्ली .. पृष्ठ २०४ । ४. तस्मात् 'भवतोऽस्मादभिधानप्रत्ययाद्' इति भावः' इति भार्याचार्य लक्षणं शरणम् । इं• हि• क्वार्टर्ली पृष्ठ २०४ । . ५. वाक्यपदीय काण्ड ३, क्रियासमुद्देश । ६. जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः । ई० हि० क्वार्टी पृष्ठ २०४ । ७.द्र. इस ग्रन्थ के प्र० ३. १७ में 'कातन्त्र व्याकरण के व्याख्याता' प्रकरण । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार मद्देवप्रणीतव्याख्याप्रपञ्चे अष्टाध्यायोगतार्थबोधक: प्रथमः पादः समाप्तः । श्रीशिवरुद्रशर्मणः स्वाक्षरश्च शकाब्द १७२ ॥ शाके पक्षनभोद्रिचन्द्रगणिते वारे शनावाश्विने, भाष्यग्रन्थनितान्तदुर्गविपिनप्रोद्दामदन्तावलः । ग्रन्थोऽपि पुरुषोत्तमेन रचितो व्यालोकि यत्नान्मया, नत्वा श्रीपरदेवताघ्रिकमलं सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ॥' - श्लोक में ग्रन्थलेखन काल शकाब्द १७०२ लिखा है। अङ्कों में 'शकाब्द १७२' पाठ है। प्रतीत होता है कि लेखनप्रमाद से ७ संख्या से आगे शून्य का लिखना रह गया है। पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के अन्त में (पृष्ठ १५६, वारेन्द्र रि० म्यू० राजशाही) १८३७ का १० इस ग्रन्थ में निम्न उद्धरण' द्रष्टव्य हैं। _ 'कृतमङ्गलाः प्राशुच्याद् विमुच्यन्ते इत्यत्र कृतमङ्गलाः कृतगोभूहिरण्यशान्त्युदकस्पर्शा इति हरिशर्मा ।' पत्रा ३ क । 'पदशेषकारस्तु शब्दाध्याहारं शेषमिति वदति ।' पत्रा ३ ख । 'मोंकारश्चाथशब्दश्च इति व्याडिलिखनात् ।' पत्रा ५ ख । 'प्रतः एव व्याडि:-ज्ञानं द्विविधं सम्यगसम्यक् च ।' ७ क । तथा चाभिहितसूत्रे उक्तम् (इन्दुमित्रेण)एक एकक इत्याहुवित्यन्ये त्रयोऽपरे । चतुष्कः पञ्चकश्चैव चतुष्के सूत्रमुच्यते।' पत्रा ३१ ख । 'यत्पुनरिन्दुमित्रेगोत्तम् -न तिङन्तान्येक शेषं प्रयोजयन्ति ..... २० तत्पूर्वपक्षमात्रं... "प्रतः एव प्राचीनवृत्तिटीकायां कज्जटमतानुसारिणा हरिमिश्रेणापि भाष्यववनमनूध ....।' पत्रा ३६ । क । 'समानमेव हि संकेतितवदिति मीमांसा । तेन समासस्य शक्तिः कल्प्यते, तन्मते तु लक्षणादिरिति हरिशर्मलिखनात् वैयाकरणस्तन्मतमेवाद्रियते ।' पत्रा ७१ ख । २५ - इन उद्धरणों में उदधृत हरिशर्मा सर्वथा अज्ञात हैं। हरिमिश्र निश्चय ही 'पदमञ्जरोकार' हरदत्त मिश्र है। क्योंकि वही कैयट का अनुगामी और प्राचीनवृत्ति (=काशिका) का टीकाकार है । पद १. 'भाष्यव्याख्याप्रपञ्च' के सब उद्धरण इ० हि• क्वार्टी सेप्टेम्वर १९४३, पृष्ठ २०७ से उद्धृत किये हैं। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शेषकार काशिका' और 'माधवीया धातुवृत्ति" में उद्धृत है । इन्दुमित्र काशिका का व्याख्याता है । इसका वर्णन काशिका के व्याख्याता' प्रकरण में होगा। व्याडि के दोनों वचन उसके किस ग्रन्थ से उद्धृत किये गये हैं, यह अज्ञात है। सम्भव है कि 'प्रोंकारश्च' ५ इत्यादि श्लोक उसके कोष ग्रन्थ से उद्धृत किया गया हो, और 'ज्ञानं द्विविधं' इत्यादि उसके सांख्यग्रन्थ से लिया गया हो। - - ७. धनेश्वर (सं० १२५०-१३०० वि०) पण्डित धनेश्वर ने महाभाष्य की चिन्तामणि नाम्नी टीका लिखी १० हैं। इसका 'धनेश' भी नामान्तर है । यह वैयाकरण वोपदेव का गुरु है। धनेश्वरविरचित प्रक्रियारत्नमणि नामक ग्रन्थ अडियार के पुस्तकालय में विद्यमान है। डा० बेल्वेल्कर ने इसका नाम 'प्रक्रियामणि' लिखा है। धनेश्वरविरचित महाभाष्यटीका का उल्लेख श्री पं० गुरुपद हाल१५ दार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' पृष्ठ ४५७ पर किया है । . वोपदेव का काल विक्रम की १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्व है। अतः धनेश्वर का काल भी तेरहवीं शती का मध्य होगा। ८. शेष नारायण (सं० १५-१००५५० वि०) शेषवंशावतंस नारायण ने महाभाष्य की 'सूक्तिरत्नाकर' नाम्नी एक प्रौढ़ व्याख्या लिखी है । इस व्याख्या के हस्तलेख अनेक पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। बड़ोदा के. 'राजकीय प्राच्यशोध हस्तलेख पुस्तकालय' में इस व्याख्या का एक हस्तलेख फिरिदाय भट्ट कृत महाभाष्य-टीका के नाम से विद्यमान है । इस हस्तलेख को हमने वि० २५ सं० २०१७ के भाद्रमास में देखा था। १. ७।२।५८॥ २. गम्लु धातु, पृष्ठ १६२ । मुद्रित पाठ 'पुरुषकारदर्शन, पाठान्तर-परिशेषकार है, वह अशुद्ध है। यहां 'पदशेषकारदर्शन' पाठ होना चाहिये। ३. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ १००, पं० ३। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४३५ १० परिचय वंश-शेष नारायण ने श्रौतसर्वस्व के अन्त में अपना परिचय इस प्रकार दिया है इति श्रीमद्वोधायनमार्गप्रवर्तकाचार्यश्रीशेषअनन्तदीक्षितसुतश्रीशेषवासुदेवदीक्षिततनद्भवमहामीमांसकदीक्षितशेषनारायणनिर्णोते श्रौत- ५ सर्वस्वेऽव्यङ्गादिविचारो नाम द्वितीयः।' ____ इससे विदित होता है कि शेष नारायण के पिता का नाम वासुदेव दीक्षित और पितामह या नाम अनन्त दीक्षित था। इस शेष नारायण ने बौधायन श्रौतसर्वस्व के अतिरिक्त बौधायन अग्निष्टोम प्रयोगादि ग्रन्थ भी रचे थे।' .. प्राफेक्ट की भूल-आफेक्ट ने अपने बृहत् सूचीपत्र में शेष नारायण के पिता का नाम 'कृष्णसूरि' लिखा है, वह ठीक नहीं । कृष्णसूरि तो शेष नारायण का पुत्र है। सूक्तिरत्नाकर में अनेक स्थानों पर निम्न श्लोक मिलते हैं श्रीमत्फिरिन्दापराजराजः श्रीशेषनारायणपण्डितेन। १५ फणीन्द्रभाष्यस्य सुबोधटीकामकारयद् विश्वजनोपकृत्यै ॥ भाट्टे भट इव प्रभाकर इव प्राभाकरे योऽभवत, कृष्णः सूरिरतोऽभवद् बुधवरो नारायणस्तत्कृतौ । नानाशास्त्रविचारसारचतुरे सत्तर्कपूर्णे महा भाष्यस्याखिलभावगूढविवृतौ श्रीसूक्तिरत्नाकरे ॥ २० 'सम्भव है कि आफेक्ट ने द्वितीय श्लोक के द्वितीय चरण का किसी हस्तलेख में 'कृष्णसूरितोऽभवद्'अशुद्ध पाठ देखकर शेष नारायण को कृष्णसूरि का पुत्र लिखा होगा । कृष्णमाचार्य की भूल-पं० कृष्णमाचार्य ने 'हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' पृष्ठ ६५४ में 'सूक्तिरत्नाकर' के कर्ता शेष २५ नासयण को शेषकृष्ण का पुत्र और वीरेश्वर का भाई लिखा है, वह भी अशुद्ध है। १. इण्डिया प्राफिस लन्दन का सूचीपत्र भाग १, पृष्ठ ७०, ग्रन्थाङ्क ३६०। २. द्र०–बौधायनश्रोत दर्शपूर्णमास भाग के सायण भाष्य के सम्पादक रूपनारायण पाण्डेय लिखित प्रास्ताविक, पृष्ठ २३ । (प्रयागमुद्रित)। ३० Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास आफेक्ट ने शेषनारायण के एक शिष्य का नाम शेष रामचन्द्र लिखा है। यह शेषकुलोत्पन्न नागोजि पण्डित का पुत्र है। इसने पाणिनीय व्याकरणस्थ स्वरविधायक सूत्रों की 'स्वर-प्रक्रिया' नाम्नी व्याख्या लिखी है।' यह आनन्दाश्रम पूना से सन् १९७४ में प्रकाशित वंशवृक्ष-शेषवंश पाणिनीय व्याकरण-निकाय में एक विशेष स्थान रखता है । इस वंश के अनेक व्यक्तियों ने व्याकरण-सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं, जिनका बणन इस ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर होगा। अतः हम इस वंश का पूर्ण परिचायक वंशवृक्ष नीचे देते हैं, जिससे १० अनेक स्थानों पर कालनिर्देश करने में सुगमता होगी अनन्ताचार्य नसिंह गोपालाचार्य' विटठलाचार्य कृष्णाचार्य रामचन्द्र अनन्त . नृसिंह रामचन्द्र जानकीनन्दन वासूदेव । । चिन्तामणि कृष्ण नृसिंह अनन्त शेषनारायण । रामेश्वर 'नागनाथ विट्ठल कृष्णसूरि रामचन्द्र लक्ष्मीधर महादेवसूरि अनन्त शेष विष्णु ... १. इति शेषकुलोत्पन्नेन नागोजिपण्डितानां पुत्रेण रामचन्द्रपण्डितविरचिता स्वरप्रक्रिया समाप्ता । सं० १८४८ वि० । जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय का सूचीपत्र, पृष्ठ २६३ पर उद्धृत । मानन्दाश्रम पूना से प्रकाशित ग्रन्थ में सं० १९१४ लिखा है। २० विशेष—इस पृष्ठ की शेष २, ३, ४, ५, ६, ७, टिप्पणियां अगले पृष्ठ पर देख । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४३७ उपयुक्त वंशवृक्ष में निर्देशित महादेवसूरि का पुत्र कृष्णसूरि का पौत्र शेष विष्णु से भिन्न एक शेष कृष्ण - पुत्र शेषविष्णु और उपलब्ध होता है । शेषकृष्ण श्रात्मज शेष विष्णु - इस शेषविष्णुकृत परिभाषा - प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम पाद पर्यन्त का एक हस्तलेख भण्डारकर प्राच्य ५ ( पिछले पृष्ठ की शेष टिप्पणियां) २. रामचन्द्राचार्यकृत 'कालनिर्णयदीपिका' के अन्त में 'इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्यगोपाल गुरुपूज्यपाद रामचन्द्राचार्य कृत कालदीपिका समाप्ता' पाठ उपलब्ध होता है । इस से ज्ञात होता है कि गोपालाचार्य संन्यासी हो गया था । १० ३. 'मनोरमाकुचमर्दन' और 'महाभाष्यप्रदीपोद्योतन' में इसका नाम वीरेश्वर लिखा है । चक्रपाणिदत्त ने 'प्रौढमनोरमाखण्डन' में 'वटेश्वर' नाम लिखा है । इसका एक हस्तलेख इण्डिया अफिस लन्दन के पुस्तकालय में विद्यमान है, उस में 'वीरेश्वर' पाठ ही है। सूची ० भाग २, पृष्ठ १६२ ग्रन्थाङ्क ७२८ । सम्भव है 'वटेश्वर' वीरेश्वर का लिपिकर - प्रमाद जन्य पाठ १५ हो । कौण्ड भट्ट ने वैयाकरण भूषणसार के प्रारम्भ में वीरेश्वर को 'सर्वेश्वर ' नाम से स्मरण किया है । ४. नागनाथ को नागोजि भी कहते हैं । ५. विट्ठल ने प्रक्रिया कौमुदी के अन्त में १४ वें श्लोक में स्मृति अपने समसामयिक 'जगन्नाथाश्रम' का नाम लिखा है । उसका शिष्य 'नृसिंहाश्रम' २० और उसका शिष्य 'नारायणाश्रम' था। नृसिंहाश्रम ने 'तत्त्वविवेक' की पूर्ति सं ० १६०४ वि० में की थी, और इस पर स्वयं 'तत्त्वार्थविवेकदीपन' टीका भी लिखी है। ये नर्मदा तीरवासी थे । अप्पय्य दीक्षित ने न्यायरक्षामणि, परिमल प्रादि ग्रन्थ नृसिहाश्रम की प्रेरणा से लिखे थे । नारायणश्रम ने नृसिंहाश्रम के ग्रन्थों पर व्याख्याएं लिखी हैं। हिन्दुत्व, पृष्ठ ६२४, ६२५, ६२७ ॥ २५ ६. आफ्रेक्ट ने कृष्णसूरि को शेष नारायण का पिता लिखा है, वह अशुद्ध है। यह हम पूर्व (पृष्ठ ४३२) लिख चुके हैं । ७. यह 'स्वरप्रक्रिया' का रचयिता है। द्र० – पृष्ठ ४३६, टि० १ । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ संस्कृत व्याकरण का इतिहास शोध प्रतिष्ठान पूना के हस्तलेख-संग्रह में विद्यमान है ।' इस के आदि में निम्न पाठ है शेषावतं शेषांशं जगत्रितयपूजितम् । चक्रपाणि तथा नत्वा, पितरं कृष्णपण्डितम् ॥२॥ भ्रातरं च जगन्नाथं विष्णुशेषेण धीमता ।... ॥३॥ अन्त का पाठ इस प्रकार है इति श्रीमच्छेषकृष्णपण्डितात्मजशेषविष्णुपंडितविरचितपरिभाषाप्रकाशे प्रथमः पादः । उपर्युक्त श्लोक में निदर्शित शेष चक्रपाणि सम्भवतः शेष विष्णु १० का पितामह अथवा ताऊ (पिता का बड़ा भाई) होगा, क्योंकि उसका निर्देश पिता कृष्ण से पूर्व किया है अथवा चाचा भी हो सकता है । 'इण्डिया आफिस लन्दन' के पुस्तकालय में 'शेष अनन्त' कृत 'पदार्थ-चन्द्रिका' का संवत् १६५८ का हस्तलेख है। देखो-ग्रन्थाङ्क २०८६ । उसमें शेष अनन्त अपने गुरु का नाम शेष शार्ङ्गधर लिखता १५ है। शेष नारायण का एक शिष्य नागोजि पुत्र शेष रामचन्द्र है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । हमारा विचार है कि ‘पदार्थ-चन्द्रिका' का कर्ता अनन्त लक्ष्मीधर का पुत्र अनन्त है। शेष नागोजि सम्भवतः नागनाथ है। उसका पुत्र रामचन्द्र है । रामचन्द्र का गुरु प्रसिद्ध महाभाष्य टीकाकार शेष नारायण है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। 'नागरी प्रचारिणी सभा काशी' के हस्तलेखसंग्रह में शेष गोविन्द कृत 'अग्निष्टोमप्रयोग' का एक पूर्ण हस्तलेख है । उसके ६६ वें पत्रे पर काल (संभवतः लिपिकाल) सं० १८१० वि० लिखा है। इस प्रकार शेष-वंश के ज्ञात पांच व्यक्ति 'चक्रपाणि' 'विष्णुशेष' जगन्नाथ, अनन्त-गुरु 'शेष शाङ्गवर' और अग्निष्टोमप्रयोगकृत 'शेष २५ गोविन्द' का सम्बन्ध इस वंशावली में जोड़ना शेष रह जाता है। इस वश से सम्बन्ध रखनेबाली एक प्रमुख गुरुशिष्य-परम्परा का चित्र निम्न प्रकार है १. द्र-सूचीपत्र व्याकरण विभाग, भाग १, पष्ठ २३३, हस्तलेख संख्या ३०० (४८२॥ १८८४-८७) सन् १९३८ में मुद्रित । ३. २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४३६ की टिप्पणी १ । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ महाभाष्य के टीकाकार गोपालाचार्य कृष्णाचार्य रामचन्द्र कृष्ण नृसिंह रामेश्वर (वीरेश्वर) विट्ठल जगन्नाथ भट्टोजिदीक्षित चक्रपाणिदत्त उक्त वंशचित्र विट्ठलकृत 'प्रक्रियाकौमुदी-प्रसाद' तथा अन्य ५ ग्रन्थों के आधार पर बनाया है । प्रक्रियाकौमुदी के सम्पादक ने विट्ठलाचार्य और अनन्त को रामेश्वर के नीचे और गोपालगुरु तथा रामचन्द्र को नागनाथ के नीचे निम्न प्रकार जोड़ा है कृष्ण रामेश्वर विठ्ठलाचार्य नागनाथ गोपालगुरु अनन्त रामचन्द्र यह सम्बन्ध ठोक नहीं है। क्योंकि विट्ठल-लिखित गोपाल गुरु पूर्वलिखित गोपालाचार्य है । संन्यास लेने पर वह गोपालगुरु नाम से १० प्रसिद्ध हुआ, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। 'प्रक्रियाप्रसाद' के अन्त के छठे श्लोक से ज्ञात होता है कि नृसिंह (प्रथम) के कई पुत्र थे, न्यून से न्यून तीन अवश्य थे। क्योंकि 'गोपालाचार्यमुख्याः प्रथितगुणगणास्तस्य पुत्रा प्रभूवन्'श्लोकांश में बहुवचन से निर्देश किया है। ज्येष्ठ का नाम गोपालाचार्य और कनिष्ठ का नाम कृष्णाचार्य था, यह स्पष्ट है। परन्तु मध्यम पुत्र के नाम का उल्लेख नहीं। विट्ठल ने विट्ठलाचार्य गुरु के पुत्र अनन्त को नमस्कार किया है । उससे प्रतीत १. देखो--पृष्ठ ४३७, टि० २। २. देखो- पृष्ठ ४३७, टि० १ । ३. श्री विठ्ठलाचार्यगुरोस्तनूजं सौजन्यभाजजितवादिराजम् । अनन्तसंज्ञ पदवाक्यविज्ञं प्रमाणविज्ञं तमहं नमामि ।। अन्त में मुद्रित ११ वां श्लोक । २० Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास होता है कि गोपालाचार्य और कृष्णाचार्य का मध्यम सहोदर विठ्ठल था। काल शेषवंश की जो वंशावली हमने ऊपर दी है। उसके अनुसार शेष नारायण शेष कृष्ण के पुत्र वीरेश्वर का समकालिक वा उससे कुछ पूर्ववर्ती है। वीरेश्वर-शिष्य विट्ठलकृत 'प्रक्रियाकौमुदीप्रसाद' का संवत् १५३६ वि० का एक हस्तलेख लन्दन के इण्डिया आफिस के पुस्तकालय में विद्यमान है।' अतः निश्चय ही विट्ठल ने 'प्रक्रिया कौमुदी' की टीका सं० १५३६ वि० से पूर्व रची होगी। इसलिये १० वीरेश्वर का जन्म संवत् १५०० वि० के अनन्तर नहीं हो सकता । लगभग यही काल शेष नारायण का भो समझना चाहिये । पूर्वोद्धृत श्लोकों में स्मत 'फिरिन्दापराज' कौन है, यह अज्ञात है। यदि फिरिन्दापराज का निश्चय हो जावे, तो शेषनारायण का । निश्चित काल ज्ञात हो सकता है। १५ 'सूक्तिरत्नाकर' का सब से प्राचीन सं० १६७५ वि. का हस्तलेख इण्डिया माफिस लन्दन के पुस्तकालय में है। देखो-सूचीपत्र भाग १, खण्ड २, ग्रन्थाङ्क ५६० । बड़ोदा के हस्तलेख-संग्रह में फिरदाप भट्ट के नाम से जो हस्तलेख विद्यमान है, वह अनुमानतः विक्रम की १६ वीं शती का प्रतीत होता है। ९. विष्णुमिश्र (सं० १६०० वि०) 'विष्णमिश्र' नाम के किसो वैयाकरण ने महाभाष्य पर 'क्षीरोद' नामक टिप्पण लिखा था। इस ग्रन्थ का उल्लेख शिवरामेन्द्र सरस्वती विरचित महाभाष्यटोका' और भट्टोजिदीक्षितकृत शब्दको२५ स्तुभ में मिलता है । इन दो ग्रन्यों से अन्यत्र विष्णुमित्र अथवा १. देखो -सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ १६७, ग्रन्याङ्क ६१६ । २. तदिदं सर्व क्षीरोदाख्ये लिङ्गार्किकविष्यमित्रविरचिते महाभाष्यटिप्पणे सष्टम् । काशी सरस्वती भवन का हस्तलेख, पत्रा ६ । प्रदीपव्याख्या नानि, भाग २, पृष्ठ ५७ । ३० ३. हयवरट्सूत्रे क्षीरोदकारोऽप्याह । शब्दकौस्तुभ १।१८, पृष्ठ १४४ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४४१ क्षीरोद का उल्लेख हमें नहीं मिला। अतः क्षीरोद का निश्चित काल अज्ञात है। भट्टोजि दीक्षित का काल अधिक से अधिक सं० १५५०-१६५० वि० तक है, यह हम प्रागे सप्रमाण दर्शावेंगे। अतः विष्णुमिश्र के काल के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि वह सं० १६०० ५ वि० के.समीप रहा होगा। हमते काशी के सरस्वती भवन के हस्तलेख के पाठ में "विष्णुमित्र' नाम पढ़ा था। पाण्डिचेरी से प्रकाशित 'प्रदीपव्याख्यानानि' में 'विष्णुमिश्र' नाम छपा है। इस संस्करण में हम ने मुद्रित ग्रन्थ के अनुसार ही नाम का संशोधन कर दिया है। १० १०. नीलकण्ठ वाजपेयी (सं० १६००-१६७५ वि०) नीलकण्ठ वाजपेयी ने महाभाष्य की 'भाष्यतत्त्वविवेक' नाम्नी व्याख्या लिखी है । इसका एक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' के सूचीपत्र भाग २ खण्ड १ A. पृष्ठ १६१२, ग्रन्थाङ्क १५ १२८८ पर निर्दिष्ट है । इस हस्तलेख के अन्त में टीकाकार का नाम नीलकण्ठ यज्वा' लिखा है । यह सूचना श्री सीताराम दांतरे (रीवा) ने १०-३-६३ ई० के पत्र में दी है। परिचय वंश-नीलकण्ठ वाजपेयी ने सिद्धान्तकौमुदी की 'सुखबोधिनी २० व्याख्या के प्रारम्भ में अपना परिचय इस प्रकार दिया है रामचन्द्रमहेन्द्राख्यं पितामहमहं भजे ॥ मात्रेयाग्धिकलानिधिः कविबुधालंकारचूडामणिः । तातः श्रीवरदेश्वरो मखिवरो योऽयष्ट देवान् मखैः मध्यष्टाप्पयदीक्षितार्यतनयात् तन्त्राणि काश्यां पुनः । षड्वर्गाणि त्यजेष्टशिवतां प्राप नस्सोऽवतात ॥ श्रीवाजपेयिना नीलकण्ठेन विदुषां मुदे। सिद्धान्तकौमुदीव्याख्या क्रियते सुखबोधिनी। अस्मद्गुरुकृतां व्याख्यां बह्वां तत्त्वबोधिनीम् । विभाव्य तत्रानुक्तं च व्याख्यास्येऽहं यथामति ॥ .:. ३० Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतितास ५ इन श्लोकों से विदित होता है कि नीलकण्ठ रामचन्द्र का पौत्र और वरदेश्वर का पुत्र था । वरदेश्वर ने अप्पयदीक्षित के पुत्र से विद्याध्ययन किया था। नीलकण्ठ ने तत्त्वबोधिनीकार ज्ञानेन्द्र सरस्वती से विद्या पढ़ी थी। काल काशी में किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि 'भट्टोजि दीक्षित ने स्वविरचित सिद्धान्तकौमुदी पर व्याख्या लिखने के लिए ज्ञानेन्द्र सरस्वती से अनेक बार प्रार्थना की। उनके अनुमत न होने पर ज्ञानेन्द्रसरस्वती को भिक्षामिष से अपने गह पर बुलाकर ताड़ना की। अन्त में ज्ञानेन्द्र सरस्वती ने टीका लिखना स्वीकार किया'।' इस किंवदन्तो से विदित होता है कि भट्रोजि दीक्षित और ज्ञानेन्द्र सरस्वती लगभग समकालिक थे। पण्डित जगन्नाथ के पिता पेरंभट्ट ने इसी ज्ञानेन्द्र भिक्षु से वेदान्तशास्त्र पढ़ा था। इससे पूर्वलिखित काल की पुष्टि होती है । अतः नीलकण्ठ का काल विक्रम संवत् १६००-१६७५ वि० के मध्य होना १५ चाहिये। अन्य व्याकरण नीलकण्ठ ने व्याकरण-विषयक निम्न ग्रन्थ लिखे हैं१-पाणिनीयदीपिका २-परिभाषावृत्ति ३- सिद्धान्तकौमुदी की सुखबोधिनी टीका ४-तत्त्वबोधिनीव्याख्यान गूढार्थदीपिका । इनका वर्णन अगले अध्यायों में यथाप्रकरण किया जाएगा। ११. शेष विष्णु (सं० १६००-१६५० वि०) शेष विष्णु विरचित 'महाभाष्यप्रकाशिका' का एक हस्तलेख हमने २५ बीकानेर के 'अनप संस्कृत पुस्तकालय' में देखा है। उसका ग्रन्थाङ्ग ५७७४ है । यह हस्तलेख महाभाष्य के प्रारम्भिक दो आह्निक का है । उसके प्रथमाह्निक के अन्त में निम्न पाठ उपलब्ध होता है - १. यह किंवदन्ती हमने काशी के कई प्रामाणिक पण्डित महानुभावों से सुनी है। यहां पर इसका उल्लेख केवल समकालिकत्व दर्शाने के लिए किया है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टोकाकार ४४३ इति श्रीमन्महादेवसूरिसुतशेषविष्णुविरचितायां महाभाष्यप्रकाशिकायां प्रथमाध्यायस्य प्रथमाह्निकम् । . वंश-शेष विष्णु का संबन्ध वैयाकरणप्रसिद्ध शेष-कुल से है। इस के पिता का नाम महादेवसूरि, पितामह का नाम कृष्णसूरि, और प्रपितामह का नाम शेष नारायण था। देखो-शेष-वंश-वृक्ष पृष्ठ ५ - इस वंशपरम्परा से ज्ञात होता है कि शेष विष्णु का काल लगभग सं० १६००-१६५० वि० के मध्य रहा होगा। ... एक शेषकृष्ण के पुत्र शेषविष्णु ने परिभाषापाठ पर 'परिभाषाप्रकाश' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसका उल्लेख हम दूसरे भाग में १० परिभाषा के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २६ वें अध्याय में करेंगे । इस शेष कृष्ण के पुत्र शेष विष्णु का सम्बन्ध हम पूर्व (पृष्ठ) विदिष्ट वंशावली में जोड़ने में असमर्थ रहे । १२. तिरुमल यज्वा (सं० १५५० वि० के लगभग) १५ तिरुमल यज्वा ने महाभाष्य की 'अनुपदा' नाम्नी व्याख्या लिखी २० परिचय वंश-तिरुमल के पिता का नाम मल्लय यज्वा था। तिरुमल यज्वा अपने 'दर्शपौर्णमासमन्त्र-भाष्य' के अन्त में लिखता है 'इति श्रीमद्राघवसोमयाजिकुलावतंसचतुर्दशविद्यावल्लभमल्लयसूनुना तिरुमलसर्वतोमुखयाजिना महाभाष्यस्यानुपदटीकाकृता रचितं दर्शपौर्णमासमन्त्रभाष्यं सम्पूर्णम् ।" तिरुमल के पिता मल्लय यज्वा ने कैयट विरचित 'महाभाष्यप्रदीप' पर टिप्पणी लिखी है । उनका उल्लेख अगले अध्याय में किया २५ जायेगा । तिरुमल का काल अज्ञात है। हमारा विचार है कि यह १. देखो- 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' का सूचीपत्र भाग २, खण्ड १C, पृष्ठ २३६२, ग्रन्थाङ्क १६६४ । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तिरुमस यज्वा अन्नम्भट्ट का पिता है। दोनों के नाम के साथ 'राघवसोमयाजिकुलावतंस' विशेषण समानरूप से निर्दिष्ट है । अतः इसन काल सं० १५५० वि० के लगभग होगा। १३. गोपालकृष्ण शास्त्री (सं० १६५०-१७०० वि०) . अडियार पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग २ पृष्ठ ७४ पर गोपालकृष्ण शास्त्री विरचित 'शाब्दिकचिन्तामणि' नामक महाभाष्यटीका का उल्लेख है। इसका एक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय' में भी है (देखो-सूचीपत्र भाग १, खण्ड १ A, पृष्ठ २३१, ग्रन्थाङ्क १४३)। १० सूचीपत्र में निर्दिष्ट हस्तलेख के आद्यन्त पाठ से प्रतीत होता है कि यह भट्टोजि दीक्षित विरचित शब्दकौस्तुभ के सदृश अष्टाध्यायी की स्वतन्त्र व्याख्या है। हमें इसके महाभाष्य की व्याख्या होने में सन्देह ___ गोपालशास्त्री के पिता का नाम वैद्यनाथ, और गुरु का नाम १५ रामभद्र अध्वरी था। रामभद्र का काल विक्रम की १७ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है, यह हम आगे 'उणादिसूत्रों के वृत्तिकार' नामक २४ वें अध्याय में लिखेंगे। १४. शिवरामेन्द्र सरस्वती (सं० १६७५-१७५०) . २० शिवरामेन्द्र सरस्वती ने सम्पूर्ण महाभाष्य पर "सिद्धान्तरत्न प्रकाश' नाम्नी एक सरल सुबोध व्याख्या लिखी है। यह व्याख्या छात्रों एवं महाभाष्य के विशेष अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी . हमने इस ग्रन्थ के प्रथम द्वितीय और तृतीय संस्करणों में जो २५ १. देखो—'महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार' नामक १२ वें अध्याय में अन्नम्भट्टकृत 'प्रदीपोद्योतन' का अन्त्यापाठ । २. इति श्रीवत्सकुलतिलकवैद्यनाथसुमतिसूनोः वैयाकरणाचार्यसार्वभौमश्रीरामभद्राध्वरिगुरुचरणश्लाघितकुशलस्य गोपालकृष्णशास्त्रिणः कृतौ शाब्दिकचिन्तामणी प्रथमाध्यायस्य प्रथमे पादेऽष्टममाह्निकम् । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टोकाकार ४४५ वर्णन किया था, उसका आधार काशी के 'सरस्वती भवन' पुस्तकात लय में विद्यमान नवाह्निक मात्र भाग का हस्तलिखित कोश था । अब यह व्याख्या पाण्डिचेरी स्थित 'फ्रांसिस इण्डोलोजि इंस्टीट्यूट' द्वारा महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि के अन्तर्गत षष्ठ अध्याय तक छप चुकी है । इसके सम्पादक एम० एस० नरसिंहाचार्य हैं । । सिद्धान्तरत्नप्रकाश कयट कृत प्रदीप पर व्याख्यारूप नहीं है । फिर भी प्रदीपव्याख्यानानि के अन्तर्गत इसे किस कारण छापा है, इसका निर्देश सम्पादक ने नहीं किया है । कुछ भो कारण रहा हो, परन्तु इस व्याख्या के मुद्रण से वैयाकरणों को बहुत लाभ होगा, ऐसा हमारा विचार है । सिद्धान्तरत्नप्रकाश में पदे पदे कैयट की व्याख्या का खण्डन उपलब्ध होता है । कैयट का प्रधान आधार भर्तृहरि कृत महाभाष्यदीपिका तथा वाक्यपदीय ग्रन्थ है। इस प्रकार कयट के प्रत्याख्यान स्थलों में बहुत्र परम्परातः भर्तृहरि के मत का खण्डन भी इस व्याख्या द्वारा किया है । अनेक स्थलों पर शिवरामेन्द्र सरस्वती का चिन्तन अत्यन्त गम्भीर है, तथा कई स्थानों पर १५ परम्परागत लीक से हट कर भी हैं । शिवरामेन्द्र सरस्वती ने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया । इस कारण इसका देश काल आदि अज्ञात है। सिद्धान्तरत्नप्रकाश के प्रतिपाद के अन्त में इस प्रकार निर्देश मिलता है श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यहरिहरेन्द्रभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रोशिव- २० रामेन्द्रसरस्वती योगीन्द्रविरचिते महाभाष्यसिद्धान्तरत्नप्रकाशे ""। इस से केवल इतना विदित होता है कि शिवरामेन्द्र सरस्वती के गुरु का नाम हरिहरेन्द्र सरस्वती था, तथा शिवरामेन्द्र सरस्वती योगी था । शिवरामेन्द्र सरस्वती ने अपनी महाभाष्य की व्याख्या में कैयट २५ अथवा प्रदीप के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों का नामोल्लेखन पूर्वक खण्डन किया है, वे निम्न ग्रन्थ हैं १. विष्णुमिश्रविरचित क्षीरोदाख्य महाभाष्य टिप्पण । इसका वर्णन पूर्व कर चुके हैं (पृष्ठ ४४०-४४१) । द्र० सिद्धान्तरत्नप्रकाश भाग २, पृष्ठ ५७ । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - २. विवरण-विवरण नाम के दो व्याख्यान कैयटकृत प्रदीप पर है (इनका वर्णन अगले अध्याय में करेंगे) । इनके भेद के लिए विवरण के सम्पादक ने इनका निर्देश लघुविवरण और विवरण शब्दों से किया है। __सम्पादक ने 'प्रदीपव्याख्यानानि' के प्रथम भाग के उपोद्धात में पृष्ठ XVIII (१८) पर सिद्धान्तरत्नप्रकाश में विवरण के खण्डन में लिखे गये कुछ वचन उद्धृत किये हैं। यथा तृतीया समासे (१।१।३०) इति सूत्रे-एतेन 'सादृश्यमर्थतः प्रयोगार्हत्वेन वेति' विवरणं प्रत्युक्तम् । द्र० भाग १, पृष्ठ १७७ । __ यहां शिवरामेन्द्र सरस्वती ने जिस विवरण के पाठ का खण्डन किया है, वह बृहद विवरण का है। द्र० भाग २, पृष्ठ १७७ । यहां केवल 'च' शब्द का भेद है । वस्तुतः सिद्धान्तरत्नप्रकाश के पाठ में भी 'च' पाठ ही होना चाहिये । 'वा' पद का सम्बन्ध उपपन्न नहीं होता है । उरण रपरः (१११।५१) इति सूत्रे-एतेन पैतृष्वसेय इति । १५ लोपवचने तु सर्वादेशार्थ स्यादिति कैयटः । रपरत्वाभिधानमुखेन सर्वा देशत्वं लोपस्याभिधित्सितम् -रपरत्वं चाविवक्षितम, तेनंतन्न चोदनीयम-यदि सर्वादेशो लोपस्तदा उःस्थाने न भवतीति कथं रपरः स्यादिति' तद्विवरणं च निरस्तम् । द्र० भाग २, पृष्ठ ३३८ । यहां विवरण के जिस पाठ को उद्धृत करके शिवरामेन्द्र सरस्वती २० ने खण्डन किया है, वह भी [बृहद्] विवरण का है। द्र० भाग २ पृष्ठ ३३६ । ३. शब्दकौस्तुभ-शिवरामेन्द्र सरस्वती ने कौस्तुभ वा शब्दकोस्तुभ नाम से भट्टोजि दीक्षित विरचित शब्दकौस्तुभ ग्रन्थ का खण्डन किया है । यथा-सूत्र १।१।१, ४, ५६, ६३, ६५ की सिद्धान्तरत्न२५ प्रकाश व्याख्या। ४. सिद्धान्तकौमुदी-मिदचोऽन्त्यात परः (१३१४७) की व्याख्या में शिवरामेन्द्र सरस्वती ने लिखा है अत एव ह्येतद् भाष्यश्रद्धाजाड्य नेतादृश एव प्रकृतंसूत्रार्थ प्राश्रितः सिद्धान्तकौमुद्याम् । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार , ४४७ ५. प्रौढमनोरमा-महाभाष्य ११६९ की व्याख्या में शिवरा मेन्द्र सरस्वती ने लिखा है एतेन प्रत्याहाराणां तद्वाच्यवाच्ये निरूढलक्षणेति मनोरमा प्रत्युक्ता। द्र० भाग ३, पृष्ठ २३२ । शिवरामेन्द्र सरस्वती द्वारा प्रत्याख्यात मनोरमावचन प्रौढ़मनो- ५ रमा के प्रारम्भ में द्रष्टव्य है। द्र० चौखम्बा मुद्रित, पृष्ठ १६ । ६. मयूखमाला-शिवरामेन्द्र सरस्वती ने महाभाष्य १।१।५ की व्याख्या में लिखा है शासिवसिघसीनां चेति सूत्रे घसिग्रहणज्ञापकात् कार्यकालपक्ष सिद्धिरिति प्रपञ्चितं मयूखमालिकायाम् । भाग १, पृष्ठ ३२६ । १. वाक्यरचना से यह मयूखमालिका ग्रन्थ शिवरामेन्द्रकृत प्रतीत होता है। उपर्युक्त ग्रन्थों में से शब्दकौस्तुभ सिद्धान्तकौमुदो और प्रौढ़मनोरमा का निर्देश करने से स्पष्ट होता है कि शिवरामेन्द्र सरस्वती भट्टोजि दीक्षित से कुछ उत्तरवर्ती अथवा समकालिक है । यह इसकी १५ पूर्व सीमा है। नागेश भट्ट शिवरामेन्द्र सरस्वती के प्राशय को नहीं स्वीकार करता है, कहीं-कहीं अपरोक्षरूप से खण्डन करता है। यथा १. विति च (अष्टा० १।१।५) के 'लकारस्य ङित्त्वादादेशेषु' वार्तिक के प्रदीप के 'पिद् ङिन्न' प्रतीक को उद्धृत करके नागेश २० लिखता है___ सार्वधातुकमित्यत्रापिदिति योगविभागेन प्रसज्यप्रतिषेधेनायमर्थो 'लभ्यते । तत्र योगविभागसामर्थ्यात् स्थानिवत्त्वप्राप्ता या अन्या वा ङित्त्वप्राप्तिः सर्वा प्रतिषिध्यत इत्याशयः ।' इस पर नागेश का शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्ड लिखता है- २५ लडो ङित्त्वस्य नित्यं डित इत्यादौ साफल्येन मिपः पित्त्वस्य टिल्लकारादेशत्वे साफल्येन लङादेश मिप्यातिदेशिक ङित्त्वं स्यादेव, १. नवाह्निक निर्णयसागर संस्क० पृष्ठ १६५, कालम २ । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास यत्र तु तयोरन्यतरदनवकाशं तत्रैव डिच्च पिन्नेत्यादिप्रवृत्तिरितिरत्नोक्तिं खण्डयतुमाह-सार्वेति ।' __छायाकार वैद्यनाथ के कथनानुसार नागेश ने सार्वधातुकमाश्रित्य मादि पङिक्त शिवरामेन्द्र सरस्वती के भाष्यव्याख्यान के खण्डन के लिये लिखी है । छायाकार द्वारा उद्धृत पङिक्त सिद्धान्तरत्नप्रकाश में भाग १, पृष्ठ ३३० पं० ११-१३ पर स्वल्प पाठभेद से उपलब्ध होती है। २. इसी प्रकार वृद्धिरादैच् (१।१।१) सूत्र के षष्ठीनिदिष्टस्यादेशा उच्यन्ते भाष्य के प्रदीप की व्याख्या करते हए नागेश ने लिखा १. हैं-वस्तुतस्तु स्थानप्रसङ्ग एव..."वदन्ति ।" __इसकी व्याख्या में वैद्यनाथ पायगुण्ड ने सिद्धान्तरत्नप्रकाश वी नवाह्निक, भाग १. पृष्ठ २३० पं० २८ 'स्थानशब्दस्यानुपात्तत्वेन से लेकर पृष्ठ २३१, पं० ७ 'भवतस्तात्पर्यात्' पर्यन्त भाग को स्वशब्दों में उद्धृत करके लिखा है-इति रत्नोक्तमपास्तम् । ___ इस प्रकार अनेक प्रसंग उद्धृत किये जा सकते हैं। परन्तु उक्त दो उद्धरणों से ही यह स्पष्ट होता है कि शिवरामेन्द्र सरस्वती नागेश भट्ट से कुछ पौर्वकालिक है अथवा समकालिक होने पर भी शिवरामेन्द्र सरस्वती ने स्वभाष्य-व्याख्या नागेशकृत उद्योत से पूर्व लिखी थी। यह स्पष्ट है । अतः शिवरामेन्द्र सरस्वती का काल सामान्यरूप से २० सं० १६७५-१७५० के मध्य माना जा सकता है। आफेक्ट ने अपने हस्तलेखों के बृहत्सूचोपत्र में शिवरामेन्द्र सरस्वती कृत सिद्धान्तकौमुदी की रत्नाकर टोका का उल्लेख किया है। जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में शिवरामेन्द्र यति विरचित 'णेरणा १. द्र०. नवाह्निक, निर्णयसागर संस्क० २, पृष्ठ १६५, कालम २ टि. १६ 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के सम्पादक ने उपोद्घात, पृष्ठ XIX(१९) पर टि० संख्या ४ में इस पाठ का निर्देश निर्णयसागरीय संस्क० पृष्ठः २१८ लिखा है । यह पाठ पृष्ठ १९५ पर है। २. नवाह्निक महा० निर्णय० सं० २, पृष्ठ १४४, कालम २। । ३. नवाह्निक, निर्णय० सं० २, पृष्ठ १४४ कालम २, टि. १० । यह दिप्पणी पृष्ठ १४५ कालम १ पर समाप्त हुई है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ महाभाष्य के टीकाकार ४४६ वितिसूत्रस्य व्याख्यानम' नाम का एक ग्रन्थ है द्र०-सूचीपत्र पृष्ठ ४१ । सूचीपत्र के सम्पादक स्टाईन ने इस पर टिप्पणी दी है'सम्पूर्णम् । विरचनकाल सं० १७०१। इस पुस्तक का रचयिता शिवरामेन्द्र यति । १५. प्रयागवेङ्कटाद्रि प्रयागवेङ्कटाद्रि नाम के पण्डित ने महाभाष्य पर 'विद्वन्मुखभूषण' नाम्नी टिप्पणी लिखी है। इसका एक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय' के सूचीपत्र भाग २, खण्ड १C, पृष्ठ २३४७, ग्रन्थाङ्क १६५१ पर निदिष्ट है । इसका दूसरा हस्तलेख अडियार के पुस्तकालय में है। उसके सूचीपत्र खण्ड २ पृष्ठ ७४ पर ग्रन्थ का नाम 'विद्व १० न्मुखमण्डन' लिखा है । भूषण और मण्डन पर्यायवाची हैं। . ग्रन्थकार का देश-काल आदि अज्ञात है। .. १६. कुमारतातय (१७वीं शती शि०) कुमारतातय ने महाभाष्य की कोई टीका लिखी थी, ऐसा उसके १५ 'पारिजात नाटक" से ध्वनित होता है । यह कुमारतातय वेङ्कटार्य का पुत्र, और कांची का रहने वाला था। ग्रन्थकार 'पारिजात नाटक' के प्रारम्भ में अपना परिचय देते हुए लिखता है। व्याख्याता फणिराटकणादकपिलश्रीभाष्यकारादि ग्रन्थानां पुनरीदृशां च करणे ख्यातः कृतीनामसौ । फणिराट् शब्द से पतञ्जलि का ही ग्रहण होता है । अता प्रतीत होता है कि कुमारतातय ने महाभाष्य की व्याख्या अवश्य लिखी थी। इसका अन्यत्र उल्लेख हमारी दृष्टि में नहीं आया। कुमारतातय का काल कुछ विद्वान् विक्रम की १७वीं शती मानते हैं। . . १७-सत्यप्रिय तीर्थ स्वामी (सं० १७९४-१८०१ वि०) । उत्तरमठाधीश सत्यप्रिय तीर्थ ने महाभाष्य पर एक विवरण १. मद्रास रा० १० पु० सूचीपत्र भाग २, खण्ड १ C, ग्रन्थाङ्क १६७२, . पृष्ठ २३७६ । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास लिखा था । इसका लेखन काल सं० १७९४ - ९८०१ है । इसका हस्तलेख विद्यमान है । यह सूचना हमारे प्रभिन्न- हृदय सुहृद् बन्धु श्री पद्मनाभराव (आत्मकूर-ग्रांध्र) ने १०/११/६३ ई० के पत्र में दी है । इस पत्र में अनेक लेखकों का निर्देश होने से हम इसे तृतीय भाग में छाप रहे हैं वहां देखें । ५ १८. राजन सिंह प्राचार्य राजसिंह कृत 'शब्दबृहतो' नाम्नी महाभाष्य-व्याख्या का एक हस्तलेख 'मैसूर के राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है । १० देखो – सूचीपत्र पृष्ठ ३२२ । इसके विषय में हम कुछ नहीं जानते । १९. नारायण नारायणविरचित 'महाभाष्यविवरण' का एक हस्तलेख 'नयपाल १५ दरबार के पुस्तकालय' में सुरक्षित है । देखो - सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ २११ । किसी नारायण ने महाभाष्यप्रदीप पर एक विवरण लिखा है । इस विवरण का वर्णन हम अगले अध्याय में करेंगे। हमारा विचार कि है यह हस्तलेख 'महाभाष्य-प्रदीप विवरण' का ही है । २० २०. सर्वेश्वर दीक्षित सर्वेश्वर दीक्षित विरचित 'महाभाष्यस्फूर्ति' नाम्नी व्याख्या एक हस्तलेख 'मैसूर राजकीय पुस्तकालय' के सूचीपत्र पृष्ठ ३१९ ग्रन्थाङ्ग ४३४ पर निर्दिष्ट है । प्रडियार के पुस्तकालय के सूचीपत्र २५ में इसका नाम 'महाभाष्य- प्रवीपस्फूर्ति' लिखा है । प्रतः यह महाभाष्य की व्याख्या है अथवा प्रदीप की, यह सन्दिग्ध है । ३० 'मैसूर राजकीय पुस्तकालय' का हस्तलेख सप्तम और अष्टम अध्याय का है । अतः यह ग्रन्थ पूर्ण रचा गया था, यह निर्विवाद है । इसका रचनाकाल अज्ञात है । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य के टीकाकार ४५१ २१. सदाशिव (सं० १७२३ वि०) सदाशिव नामक विद्वान् ने 'महाभाष्य-गूढार्थ-दीपिनी' नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । इसका एक हस्तलेख 'भण्डारकर प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान पूना' के संग्रह में विद्यमान है। देखो-व्याकरणविषयक सूचोपत्र नं० ५६ । १०४/A १८८३-८४ । परिचय-इसके पिता का नाम नीलकण्ठ और गुरु का नाम कमलाकर दीक्षित है । कमलाकर दीक्षित के गुरु का नाम दत्तात्रेय है। काल-उक्त हस्तलेख के अन्त में निम्न श्लोक मिलता हैअङ्काष्टौ तिथियुक् शाके प्रवङ्गे कातिके सिते । चतुर्दशमिते वस्त्रे लिखितं भाष्यटिप्पणम् ॥ तदनुसार इसका काल शक सं १५८६=वि० सं० १७२४ है । २२. राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगढकर - ये आचार्य सातारा (महाराष्ट्र) नगर के रहने वाले थे । इन्होंने महाभाष्य की व्याख्या लिखी थी । इनका 'त्रिपथगा' एक १५ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। २३. छलारी नरसिंहाचार्य इनका निवास स्थान गोदावरी-तीरस्थ धर्मपुरी था। ये आन्ध्र प्रदेश में उत्पन्न हुए थे । इन्होंने 'शाब्दिक-कण्ठमणि' नामक महा- २० भाष्य की टीका लिखी थी । इनका काल १७वीं शती वि० का उत्तरार्ध था।' १. इनका निर्देश श्री पं० पद्मनाभ रावजी ने १०१११११९६३ ई. के पत्र में किया है । इस अध्याय में पृष्ठ ४५० तथा अगले अध्याय की टिप्पणियों २५ में मित्रवर श्री पं० पद्मनाभ राव जी के १०-११-१९६३ के जिस पत्र का पर-बार उल्लेख किया है, उसे तृतीय भाग में देखें। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २४. अज्ञातकर्तृक _ 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' के सूचीपत्र भाग ५, खण्ड १८ पृष्ठ ६४६६, ग्रन्थाङ्क ४४३६ पर 'महाभाष्यव्याख्या' का एक हस्तलेख निर्दिष्ट है । ग्रन्थकर्ता का नाम और काल अज्ञात है । उस ५ में एक स्थान पर निम्न पाठ उपलब्ध होता है 'स्पष्टं चेदं सर्व भाष्य इति भाष्यप्रदीपोद्योतने निरूपितमित्याहुः।' यह 'भाष्यप्रदीपोद्योतन' अन्नम्भट्ट-विरचित है । अतः सका काल १६वीं शती का पूर्वार्ध होना चाहिए । अन्नम्भट्टविरचित प्रदीपोद्योतन का वर्णन हम अगले अध्याय में करेंगे । ग्रन्थकार का नाम ज्ञात न १० होने से हमने इसे अन्त में रखा है। हमने इस अध्याय में महाभाष्य के २४ टीकाकारों का निरूपण किया है। अगले अध्याय में कैयटकृत 'महाभाष्यप्रदीप' के व्याख्याकारों का वर्णन होगा। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्याय महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार महाभाष्य की महामहोपाध्याय कैयट विरचित 'प्रदीप' नाम्नी व्याख्या का वर्णन हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं। यह 'महाभाष्यप्रदीप' वैयाकरण वाङमय में विशेष महत्त्व रखता है। इसलिए ५ अनेक विद्वानों ने महाभाष्य की व्याख्या न करके महाभाष्यप्रदीप की व्याख्याएं रची हैं । इन में से रामचन्द्र सरस्वती कृत (लघु) विवरण, ईश्वरानन्द सरस्वती कृत (बहद्) विवरण, अन्नम्भट्ट कृत उद्योतन, नारायण शास्त्री कृत प्रदीपविवरण (अध्याय ३-६ तक), धर्मयज्वा के शिष्य नारायण कृत प्रदीपव्याख्या, तथा शिवरामेन्द्र सरस्वती कृत १० सिद्धान्तरत्नप्रकाश (जो कैयट की व्याख्या नहीं है, सीधे भाष्य की व्याख्या है) सहित'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के नाम से पाण्डिचेरी स्थित 'INSTITUT FRANCHAIS D' INDOLOGIE' संस्थान प्रकाशित कर रहा है । ९-१० भाग छप चुके हैं । प्रदीप की जो व्याख्यायें इस समय उपलब्ध(वा ज्ञात हैं, उनका १५ वर्णन हम इस मध्याय में करेंगे १. चिन्तामणि (१५००-१५५० वि० ?) चिन्तामणि नाम के किसी वैयाकरण ने महाभाष्यप्रदीप की एक संक्षिप्त व्याख्या लिखी है। इसका नाम है-'महाभाष्यकैयटप्रकाश'। इसका एक हस्तलेख बीकानेर के 'अनूप संस्कृत पुस्तकालय' में विद्य- २० मान है । उसका ग्रन्थाङ्क ५७७३ है । यह हस्तलेख आदि और अन्त में खण्डित है। इसका प्रारम्भ 'मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः' (१ । १।८) से होता है, और 'प्रचः परस्मिन् (१।११५७) पर समाप्त होता है। परिचय 'महाभाष्यकैयटप्रकाश' के प्रत्येक प्राह्निक के अन्त में निम्न प्रकार पाठ मिलता है Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इति श्रीमद्गणेशांघ्रिस्मरणादाप्तसन्मतिः । गूढं प्रकाशयच्चिन्तामणिश्चतुर्थ प्राह्निके ॥ चिन्तामणि नाम के अनेक विद्वान् हो चुके हैं । अतः यह ग्रन्थ किस चिन्तामणि का रचा है, यह अज्ञात है। एक चिन्तामणि शेष ५ नृसिंह का पुत्र और प्रसिद्ध वैयाकरण शेष कृष्ण का सहोदर भ्राता है। शेष कृष्ण का वंश व्याकरणशास्त्र की प्रवीणता के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। शेषवंश के अनेक व्यक्तियों ने महाभाष्य तथा महाभाष्यप्रदीप पर व्याख्यायें लिखी हैं। प्रता सम्भव है कि इस टीका का रचयिता चिन्तामणि शेष कृष्ण का सहोदर शेष चिन्तामणि हो। यदि हमारा अनुमान ठोक हो तो इस का काल संवत् १५००-१५५० के मध्य होना चाहिए। क्योंकि शेष कृष्ण के पुत्र रामेश्वर अपरनाम वीरेश्वर से प्रक्रियाकोमुदो के टोकाकार विट्ठल ने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था। विठ्ठल कृत प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रसाद' टीका का सं० १५३६ का लिखा एक हस्तलेख इण्डिया माफिस लन्दन के १५ संग्रहालय में विद्यमान हैं । उस के अन्त का लेख इस प्रकार है सं० १५३६ वर्षे माघवदि एकादशी रवौ श्रीमदानन्दपुर स्थानोत्तमे प्राभ्यन्तर नगर जातीय पण्डित अनन्तसुत पण्डितनारायणादीनां पठनार्थ कुठारी व्यवगहितसुतेन विश्व रूपेण लिखितम् ।' ___ यह तो प्रतिलिपि है। विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की रचना सं० २० १५३६ से पूर्व की होगी। २. मल्लय यज्वा (सं० १५२५१ वि० के लगभग) ; मल्लय यज्वा ने कयटविरचित महाभाष्यप्रदीप पर एक टिप्पणी लिखी थी। इस की सूचना मल्लय यज्वा के पुत्र तिरुमल यज्वा ने २५ अपनी दर्शपौर्णमासमन्त्रभाष्य' के प्रारम्भ में दी है। उसका लेख इस प्रकार है___चतुर्दशसु विद्यासु वल्लभं पितरं गुरुम् । वन्दे कूष्माण्डदातारं मल्लययज्वानमन्वहम् ।। १. इण्डिया आफिस लन्दन के पुस्तकालय का सूचीपत्र,भाग २, पृष्ठ ३० १६७, ग्रन्थाङ्क ६१६ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४५५ पितामहस्तु यस्येदं मन्त्रभाष्यं चकार च । श्रीकृष्णाभ्युदयं काव्यमनुवादं गुरोर्मते ॥ यत्पित्रा तु कृता टीका मण्यालोकस्य धीमता। तथा तत्त्वविवेकस्य कैयटस्यापि टिप्पणी ॥' देखो-'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' का सूचीपत्र भाग ५ २, खण्ड १ C, पृष्ठ २३६२, ग्रन्थाङ्क १६६४ । मल्लय यज्वा के पुत्र तिरुमल यज्वा ने महाभाष्य की व्याख्या लिखी थी। इसका वर्णन हम पिछले अध्याय में पृष्ठ ४४३ पर कर चुके हैं । यदि हमारा अनुमान कि यह 'तिरुमल यज्वा अन्नम्भट्ट का का पिता है' युक्त हो तो मल्लय यज्वा का काल सं० १५२५ वि० के १० लगभग होगा। ३. रामचन्द्र सरस्वती (सं० १५२५-१६०० वि०) रामचन्द्र सरस्वती ने महाभाष्य पर 'विवरण' नाम्नी लघु व्याख्या लिखी हैं । यद्यपि हस्तलेखों की अन्तिम पडिक्तयों में केवल १५ विवरण नाम का ही उल्लेख मिलता है, तथापि ईश्वरानन्द सरस्वती विरचित 'विवरण' की अपेक्षा इस विवरण के लघुकाय होने से इसके उद्धर्ता दोनों विवरणों में भेद दर्शाने के लिए लघुविवरण शब्द का और ईश्वरानन्द सरस्वती विरचित विवरण के बृहत्काय होने से बृहद्विवरण शब्द का प्रयोग करते हैं । हम भी इस प्रकरण में दोनों २० विवरणों में भेद दर्शाने के लिए लघु और बृहद शब्द का प्रयोग करेंगे। __इस विवरण का एक हस्तलेख मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग ४, खण्ड १C, पृष्ठ ५७३१, ग्रन्थाङ्क ३८६७ पर निर्दिष्ट है । दूसरा हस्तलेख मैसूर राजकीय पुस्तकालय के सूची- २५ पत्र, पृष्ठ ३१९ पर उल्लिखित है। रामचन्द्र सरस्वती विरचित लघुविवरण 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या१. कयटलघुविवरणकाकारोऽप्येवम् । बृहविवरणकारस्तु.....। शब्दकौस्तुभम्, 'अचः परस्मिन्' १।११५७ सूत्र, पृष्ठ २६० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नानि' के अन्तर्गत फ्रेंच भारतीय कलासंकाय पाण्डिचेरि से छप रहा है। इस के ६-१० भाग छप चुके हैं । __ आफेक्ट ने रामचन्द्र का दूसरा नाम सत्यानन्द लिखा है। यदि यह. ठीक हो तो रामचन्द्र सरस्वती ईश्वरानन्द सरस्वती का गुरु होगा । ५ ईश्रानन्द विरचित 'महाभाष्यप्रदीपविवरण' का एक हस्तलेख जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में विद्यमान है । उस के सूचीपत्र के पृष्ठ ४४ पर इसका लेखन काल सं० १६०३ अङ्कित है। इसी प्रसंग में सूचीपत्र के निर्माता एम० ए० स्टाईन ने टिप्पणी दी है रामचन्द्रसरस्वतीत्यपि कर्तृर्नाम दृष्टम् । १० लघु और बृहद् विवरणों के लेखकों के नामों में हस्तलेखों में वैमत्यसा उपलब्ध होता है । अतः उस पर विचार किया जाता है कर्तृ नाम-विचार-फ्रेञ्चभारतीय कला विमर्शालय (INSTITUT FRANCHAIS D' INDOLOGIE) पाण्डचेरी की ओर से कैयट विरचित. प्रदीप की समस्त उपलब्ध अद्य यावत् अमुद्रित अथवा १५ स्वल्प मुद्रित व्याख्याओं का प्रकाशन सन् १९७३ हो रहा हैं । अभी तक (सन् १८५३)इस के ६ भाग छप चुके है । इस के सम्पादक एम० ए० नरसिंहाचार्य ने प्रथमभाग के उपोद्धात में लघविवरण और वृहविवरण के रचयिताओं के नामों के सम्बन्ध में लिखा है "लघुविवरण की प्राप्त ड-ढ-ण संकेतित तीनों मातृकानों में से २० प्रथम और द्वितीय मातृकाओं के सातों आह्निकों के अन्त में 'इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीरामचन्द्रसरस्वतीश्रीचरणविरचितेभाध्यप्रदीपविवरणे......' लिखा है । तृतीय मातृका में तृतीय आह्निक से सप्तमप्राह्निक पर्यन्त कर्ता के नाम का निर्देश नहीं है । अष्टम पाह्निक के अन्त में इति श्रीरामचन्द्रसरस्वतीश्रीचरणकृते महाभाष्यप्रदीपविवरणे........' लेख मिलता है । नवम आह्निक के अन्त में 'इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमदमरेश्वरभारतीशिष्यरामचन्द्रसरस्वतीश्वरानन्दापरनामधेयविरचितमहाभाष्यप्रदीप विवरणे ....' निर्देश उपलब्ध होता है। बृदविवरण की प्राप्त च-छ-ज-झ-अ-ट, संकेतित छ मातृकानों में ३० कृर्तृनाम का निर्देश भिन्न-भिन्न प्रकार से देखा जाता है। छहों मात काओं में प्रथम आह्निक के अन्त में 'सत्यानन्दशिष्येश्वरानन्दविरचित Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४५७ समान रूप से मिलता है। द्वितीय आह्निक के अन्त में प्रथम (च) मातृका को छोड़ कर अन्यों में पूर्ववत् ही उल्लेख मिलत है । तृतीय आह्निक के अन्त में च-छ-ट संकेतित मातृकामों में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' उपलब्ध होता है। चतुर्थ आह्निक की उपलब्ध च-छ-झ ञ ट संज्ञक पांचों मातृकानों में तथा पञ्चम पाह्निक की ५ उपलब्ध चार मातृकानों में आह्निक के अन्त में नाम का निर्देश नहीं है। च-छ-त्र संकेतित तीन मातृकाओं में षष्ठ आह्निक के अन्त में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' निर्देश मिलता है । सप्तम अष्टम आह्निक की चारों मातृकाओं में लेखक का नाम नहीं है। नवम आह्निक के अन्त में च-छ मातृकाओं में लेखक के नाम का निर्देश १० नहीं है । ञ संकेतित मातृका में 'सत्यानन्दशिष्येश्वरानन्दविरचिते' लेख उपलब्ध होता है। ट मातृका में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' ऐसा ही निर्देश मिलता है।" इसका सार इस प्रकार है लघुविवरण के रचयिता का नाम कहीं 'रामचन्द्र सरस्वती' १५ लिखा है तो कहीं 'अमरेश्वरभारतो-शिष्य रामचन्द्रसरस्वती अपर नाम ईश्वरानन्द' उपलब्ध होता है। बृहविवरण के कर्ता का नाम कहीं 'सत्यानन्दशिष्य ईश्वरानन्द' लिखा है तो कहीं 'रामचन्द्रसरस्वती'। नामसांकर्य में सम्पादक का विचार-'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ' २० (११११५७) सूत्र के शब्दकौस्तुभ में लघुविवरणकार और बृहद्विवरणकार के भिन्न-भिन्न मतों का उल्लेख' होने से इन दोनों ग्रन्थों का भिन्न कर्तृत्व स्वरसतः प्रतीत होता है। हस्तलेखों में विद्यमान नाम-सांकर्य के निम्न समाधान प्रस्तुत किये हैं १. महाभाष्यप्रदीप व्याख्यानानि, उपोद्घात, प्रथम भाग, पृष्ठ Xv २५ (१५) । अन्तरङ्गपरिभाषाया निरपवादत्वाद् प्रसिद्धपरिभाषास्तु नाजानन्तर्ये इति सापवादत्वाद् उभयोरवकाशवतो विप्रतिषेधसूत्रस्थं भाष्यं त्वम्युच्चयपरमेवेति भागवृत्तिकाराः, कैयटलघुविवरणकारादयोऽप्येवम् । वृद्धविवरणकारस्तुनाजानन्तर्य इति परिभाषा मास्तु. तज्ज्ञापकताया यत्संमतं तेनासिद्धपरिभाषाया अनित्यत्वमेव ज्ञाप्यते । शब्दकौस्तुभ ११११५७, २६० । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ संस्कृत व्याकरण का इतिहास १. बृहद्विवरण ईश्वरानन्दकर्तृक है, क्वचित् हस्तलेखों में रामचन्द्र सरस्वती के नाम का लेखन प्रमाद कृत है। २. लघुविवरण के कर्ता का प्रधान नाम रामचन्द्र है, ईश्वरानन्द उपनाम है । यह अमरेश्वर भारती का शिष्य है। बृहद्विवरण के ५ कर्ता का प्रधान नाम ईश्वरानन्द है और रामचन्द्र सरस्वती उपनाम है। यह सत्यानन्द का शिष्य है।' हमारा विचार है कि यदि रामचन्द्रसरस्वती का ही सत्यानन्दनामान्तर स्वीकार कर लिया जाए (जैसा कि आफेक्ट का मत है) और गुरु शिष्य दोनों ने मिल कर दोनों विवरण लिखे, ऐसा मान १. लिया जाये तो नामसांकर्य का दोष नहीं रहता और मत-भेद भी उप लब्ध हो सकता है । स्कन्द के नाम से प्रसिद्ध निरुक्त टोका स्कन्द और उस के शिष्य महेश्वर ने मिलकर लिखी थी। अतः उस टीका में भी स्कन्द और महेश्वर के नामों का सांकर्य देखा जाता है । इतना ही नहीं, निघण्टु व्याख्याकार देवराज यज्वा तो इस टीका के सभी १५ उद्धरण स्कन्द के नाम से ही उद्धृत करता है। वस्तुतः यह एक ऐसी समस्या है, जिसका यथोचित हल निकालना दुष्कर अवश्य है। गुरु-पाण्डिचेरि से प्रकाशित रामचन्द्रसरस्वतीविरचित लघुविवरण के प्रथमाध्याय के प्रथम पाद के नवम आह्निक के अन्त में पाठ उपलब्ध होता हैं इति परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमदमरेश्वरभारतीशिष्यरामचन्द्रसरस्वतीश्वरानन्दापरनामधेयविरचितेमहाभाष्यविवरणेप्रथमाध्यायस्य प्रथमे पादे नवममाह्निक समाप्तम् । इस लेख से विदित होता है कि रामचन्द्र सरस्वती के गुरु का २५ नाम अमरेश्वर भारती था। तथा ईश्वरानन्दापरनामधेय पाठ के स्थान में सत्यानन्दापरनामधेय पाठ होना चाहिये । हो सकता है यहां लेखक भ्रान्ति से पाठ भ्रष्ट हुआ हो । रामचन्द्रसरस्वती का अपर नाम सत्यानन्दसरस्वती था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। . . .. काल-भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ १।१।५७ में कैयटलघु १. महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि, भाग १, उपोद्घात पृष्ठ XVI(१६) । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप केव्याख्याकार ४५६ विवरण का उल्लेख किया है और इसके साथ ही बृहविवरण का भी निर्देश किया है । इस से विदित होता है कि रामचन्द्रसरस्वती और ईश्वरान्नदसरस्वती दोनों का काल सं० १५२५-१६०० तक रहा होगा। भट्टोजि दीक्षित के काल पर विशेष विचार 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में आगे किया जायेगा। ४. ईश्वरानन्द सरस्वती (सं० १५५०-१६०० वि०) ईश्वरानन्द ने कैयट ग्रन्य पर 'महाभाष्यप्रदीपविवरण' नाम्नी बृहती टीका लिखी हैं । ग्रन्थकार अपने गुरु का नाम सत्यानन्द सरस्वती लिखता है । अाफेक्ट के मतानुसार सत्यानन्द रामचन्द्र का ही १० नामान्तर है। इसके दो हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान हैं । देखो-सूचीपत्र भाग ४, खण्ड १C. पृष्ठ ५७२६, ५७८०, ग्रन्थाङ्क ३८६६, ३८६४ । एक हस्तलेख 'जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय' में है। 'भण्डारकर प्रच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना' में भी इसके दो हस्तलेख हैं । देखो-व्याकरणविभागीय हस्तलेख १५ सूचीपत्र नं. ५७ । ३७/A १८७२-७३; नं० ५८ । १८४/A १८८२८३ । ईश्वरानन्द सरस्वती के सम्बन्ध में रामचन्द्र सरस्वती के प्रसंग में लिख चुके हैं। ईश्वरानन्द कृत महाभाष्यप्रदीपविवरण 'महाभाष्यप्रदीपव्या- २० ख्यानानि' के अन्तर्गत पाण्डिचेरि से प्रकाशित हो रहा है । ६-१० भाग छप चुके हैं। काल-जम्मू के हस्तलेख के अन्त में लेखनकाल १६०३ लिखा है। इससे निश्चित है कि ईश्वरानन्द का काल सं० १६०३ वि० से पर्व है। भट्रोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ १।१।५७ में 'कैयटबृह- २५ द्विवरण को उद्धृत किया है । प्रत। इस का काल सं० १५५०१६.. वि० तक मानना युक्त हैं । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अन्नम्मट्ट (सं० १५५०-१६०० वि०) अन्नम्भट्ट ने प्रदीप की 'प्रदीपोद्योतेन' नाम्नी व्याख्या लिखी है। 'महाभाष्यप्रदीपोद्योतन' के हस्तलेख मद्रास और अडियार के पुस्त कालयों में विद्यमान हैं । इस का प्रथमाध्याय का प्रथम पाद दो भागों ५ में मद्रास से छप चुका है। पाण्डिचेरि से प्रकाश्यमाण 'महाभाष्यव्याख्यानानि' में ६ अध्याय तक छप चुका है। परिचय अन्नम्भट्ट के पिता का नाम अद्वैतविद्याचार्य तिरुमल था। राघव सोमयाजी के वंश में इसका जन्म हुआ था। यह तैलङ्ग देश का रहने १० वाला था। अन्नम्भट्ट ने काशी में जाकर विद्याध्ययन किया था । इसकी सूचना 'काशी गमनमात्रेण नान्नभट्टायते द्विजः' लोकोक्ति से मिलती है। साथ ही अन्नम्भट्ट को विद्वत्ता का भी बोध इस लोकोक्ति से होता है। वंश-अन्नम्भट्ट के 'प्रदीपोद्योतन' के प्रत्येक आह्निक के अन्त में १५ निम्न पाठ उपलब्ध होता है 'इति श्रीमहामहोपाध्यायाद्वैतविद्याचार्यराघवसोमयाजिकुलावतंसश्रीतिरुमलाचार्यस्य सूनोरन्नम्भट्टस्य कृतौ महाभाष्यप्रदीपोद्यने ।' इस से विदित होता है कि अन्नम्भट्ट राघव सोमयाजी कुल का था और पिता का नाम 'तिरुमलाचार्य था । काल-अन्नम्भट्ट का गुरु शेष वीरेश्वर अपरनाम रामेश्वर था । अतः अन्नम्भट्ट का काल विक्रम की १६ शती का उत्तरार्ध होगा। .. गुरु-प्रदीपोद्योतन के प्रारम्भ में एक श्लोक है श्रीशेषवीरेश्वरपण्डितेन्द्रं शेषायितं शेषवचो विशेषे। सर्वेषु तन्त्रेषु च कर्तृतुल्यं वन्दे महाभाष्यगुरुं ममाग्रयम् ।। २५ इस से विदित होता है कि अन्नम्भट्ट ने शेष वीरेश्वर से महाभाष्य का अध्ययन किया था । अन्नम्भट्ट ने वृद्धिरादैच् (१।१११) के प्रदीपोद्योतन में ईश्वरानन्द विरचित विवरण का पाठ उद्धृत किया १. 'समुदायावयवसन्निधौ (क्व द्वियतात्पर्यमिति वक्ष्यमाणविचारासंगतेश्च Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार एक तिरुमल यज्वा कृत महाभाष्य की 'अनुपदा' नाम्नी व्याख्या का हम पूर्व (पृष्ठ ४४३) निर्देश कर चुके हैं । वह भी राघव सोमयाजी कुल है। उसके पिता का नाम मल्लय यज्वा है । यदि दोनों तिरुमल यज्वा और तिरुमलाचार्य एक ही व्यक्ति हों तो अन्नंभट के पितामह का नाम मल्लय यज्वा होगा। यह संभावनामात्र है । एक कुल ५ में समान नामवाले अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। उस पर भी दक्षिण देशस्थ परिपाटी के अनुसार पितामह का जो नाम होता है, पौत्र का भी वही नाम प्रायः रखा जाता है। कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थ-अन्नम्भट्ट विरचित बहुत से ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उन में मीमांसान्यायसुधा की राणकोज्जीवनी टोका, ब्रह्म- १० सूत्र की व्याख्या, अष्टाध्यायी मिताक्षरा वृत्ति, मण्यालोक की सिद्धान्ताजन टीका और तर्कसंग्रह आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । अष्टाध्यायी की वृत्ति का नाम 'पाणिनीय मिताक्षरा' हैं । इस का वर्णन 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में किया जायगा। __अन्नम्भट्ट ने 'पाणिनीय मिताक्षरा' की रचना 'प्रदीपोद्योतन' से १५ पूर्व की थी। द्र०-'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' भाग १, का सम्पादकीय उपोद्घात, पृष्ठ XVII (१७) । इसका विशेष उल्लेख आगे यथास्थान करेंगे। ६. नारायण (सं० १६५४ से पूर्व) किसी नारायण नामा विद्वान् ने महाभाष्य की 'प्रदीप' व्याख्या पर विवरण नाम से व्याख्या लिखी है। इस विवरण के हस्तलेख कई पुस्तकालयों में विद्यमान हैं । देखो-मद्रास राजकीय हस्तलेख सूचीपत्र, भाग ४, खण्ड १ A, पृष्ठ ४३०२, ग्रन्थाङ्क २६६६; कलकत्ता संस्कृत कालेज पुस्तकालय सूचीपत्र, भाग ८, ग्रन्थाङ्क ७४; लाहौर २५ डी० ए० वी० कालेज लालचन्द पुस्तकालय (सम्प्रति-विश्वेश्वरानन्द शोध-संस्थान, होशियारपुर), संख्या ३८१६, सूचीपत्र भाग १, पृष्ठ त्वमेव सम्यगिति विवरणकृतः' द्र०-प्रदीपव्याख्यानानि, भाग १, पृष्ठ २२८, पं०४-५ । अन्नम्भट्ट द्वारा उद्धृत यह पंक्ति ईश्वरानन्दकृत विवरण में इसी भाग के पृष्ठ २०५, पं० २०-२१ पर मिलती है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६६ तथा भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (ोरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यट) पूना के व्याकरणविभागीय सूचीपत्र, नं ५५, ८४/A २८८६८०/ तथा नं० ५६, ४८७/१९८४-१८८७ । परिचय-'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के सम्पादक एम. एस. ५ नरसिंहाचार्य ने भाग ६ में उपोद्घातान्तर्गत 'घ' संकेतित हस्तलेख के विवरण में लिखा है' 'होशियारपुर विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान से प्राप्त नारायणीय विवरण ताड़पत्र पर लिखित है। उसके अन्त में कुछ श्लोक हैं। तदनुसार नारायण केरलदेशीय अग्रहार का निवासी ऋ. ग्वेदी साङ्गवेदाध्यायो ब्राह्मण था। इस के पिता का नाम 'देवशर्मा' और माता का नाम 'आर्या' था। इस ने समग्र व्याकरण का अध्ययन करके बहुबार शिष्यों को व्याकरणशास्त्र पढ़ाया था। काल-भण्डारकर प्रच्यविद्या प्रतिष्ठान के संग्रह में विद्यमान संख्या ५५, ८४/A १८७६-८० संकेतित हस्तलेख के अन्त में निम्न १५ पाठ मिलता है इति नारायणीये श्रीमन्महाभाष्ये प्रदीपविवरणे अष्टमाध्यायस्य चतुर्थे पादे प्रथमाह्निकम्, पादश्चाध्यायश्च समाप्तः । शुभं भवतु । सं० १६५४ समये श्रावन वदि ४ चतुर्थी वार बुधवारे । लिखितं माधव ब्राह्मण विद्यार्थी काशीवासी ॥ श्री विश्वनाथ ॥' ___ इस लेख से यह स्पष्ट है कि इस प्रदीपविवरणकार नारायण का काल सं० १६५४ से पूर्ववर्ती है, क्योंकि सं० १६५४ काल माधव विद्यार्थी द्वारा प्रतिलिपि करने का है । नारायण ने ग्रन्थ का लेखन सं० १६५४ से पूर्व किया होगा। प्रकृत नाराणीय प्रदोपविवरण का नागेश भट्ट ने प्रदीपोद्योत में २५ नाम निर्देश के विना बहुत्र उल्लेख किया है। उन स्थानों पर प्रदी पोद्योत-छाया के रचयिता पायगुण्ड ने 'विवरणकृन्नारायणादिभिः' के रूप में निर्देश किया है । यथा-नवाह्निक, निर्णयसागर सं० २, पृष्ठ १८१, कालम २, टि०१७ पृष्ठ १८७, कालम २, टि. ११ का अन्त । १. अमला परिचय संस्कृत में लिखे गये विवरण के प्रधार पर लिखा गया है। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४६३ विशेष ग्रन्थ का उद्धरण-नारायण ने पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (अ० ६।३।१०६) सूत्र के प्रदीपविवरण में निरुक्त ११२० का साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः आदि पाठ उद्धृत करके लिखा हैतथा च व्याख्यातम् प्रथमा प्रतिभानेन द्वितीयास्तूपदेशतः। अभ्यासेन तृतीयास्तु वेदार्थान् प्रतिपेदिरे ॥ इति यह निरुक्त का व्याख्यान केरलदेशीय नीलकण्ठ गार्य विरचित निरुक्तश्लोकवातिक (१।६।१९८-१९६) से उद्धृत किया है । दोनों के समानदेशीय होने से इस निरुक्तव्याख्यान का उद्धृत होना स्वाभाविक है । निरुक्तश्लोकवातिककार का काल न्यूनातिन्यून विक्रम की १४वी १० शताब्दी है । यह ग्रन्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा छप चुका है। पाश्चर्य-'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के सम्पादक ने नारायणीय प्रदीपविवरण का मुद्रण अ० ३ से प्रारम्भ किया है । सम्पादक ने हमारे द्वारा संकेतित ४ स्थानों के हस्तलेखों में से केवल होशियारपुरीय विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान में विद्यमान हस्तलेख को १५ छोड़ कर अन्य किन्हीं हस्तलेखों का उपयोग नहीं किया है। भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान का संख्या ५४ का हस्तलेख तो अ० ३ से अ० ८ पर्यन्त (बीच में कहीं-कहीं त्रुटित) का होने से उन के लिये बहुत उपयोगी था। ७-रामसेवक (सं० १६५०-१७०० वि० रामसेवक नाम के किसी विद्वान् ने 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या' की रचना की थी। इसका एक हस्तलेख अडियार (मद्रास) के पुस्तकालय में हैं । देखो-सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ७३ ॥ परिचय-रामसेवक के पिता का नाम देवीदत्त था । रामसेवक के पुत्र कृष्णमित्र ने भट्टोजि दीक्षित विरचित 'शब्दकौस्तुभ' की २५ 'भावप्रदीप' और 'सिद्धान्तकौमुदी' की 'रत्नार्णव' नाम्नी व्याख्या लिखी है । (इन का वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा) । इस से सम्भव है रामसेवक का काल सं० १६५०-१७०० के मध्य रहा हो । ३० ८. नारायणशास्त्री (सं० १७१०-१७३० वि०) नारायण शास्त्रीकृत 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या' का निर्देश प्राफेक्ट Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के बृहत् सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ६५ पर मिलता है। इसका एक हस्तलेख 'मद्रास के राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है। देखोसूचीपत्र भाग १, खण्ड १ A, पृष्ठ ५७, ग्रन्थाङ्क: । इस नारायणीय प्रदीपव्याख्या के प्रारम्भ के दो अध्याय पाण्डिचेरि से मुद्रयमाण 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के १-५ भागों में छप गये हैं। वंश-नारायण शास्त्री के माता-पिता का नाम अजात है। इसकी एक कन्या थी, उसका विवाह नल्ला दोक्षित के पुत्र नारायण दीक्षित के साथ हुआ था। इसका पुत्र रङ्गनाथ यज्वा था। इसने हरदत्त-विरचित 'पदमञ्जरी' की व्याख्या रची थो। गुरु-नारायण शास्त्री कृत 'प्रदीपव्याख्या' का जो हस्तलेख 'मद्रास के राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है, उसके प्रथमाध्याय के प्रथम पाद के अन्त में निम्न लेख है 'इति श्रीमहामहोपाध्यायधर्मराजयज्वशिष्यशास्त्रिनारायणकृतौ कैयटव्याख्यायां प्रथमाध्याये प्रथमे पादे प्रथमाह्निकम् ।' १५ यह धर्मराज यज्वा कौण्डिन्य गोत्रज नल्ला दीक्षित का भाई और नारायण दीक्षित का पुत्र है। यज्वा वा दीक्षित वंश के अनेक व्यक्तियों ने व्याकरण के कई ग्रन्थ लिखे हैं । अतः इस वंश के कई व्यक्तियों का उल्लेख इस इतिहास में होगा। अतः हम अनेक ग्रन्थों के आधार पर इस वंश का चित्र नीचे देते हैं। वह उनके काल-ज्ञान २० में सहायक होगा त्रिवेदी नारायण दीक्षित नारायण शास्त्री नल्ला दीक्षित धर्मराज यज्वा कन्या + नारायण दीक्षित यज्ञराम दीक्षित चोक्का दीक्षित' रंगनाथ यज्वा । कन्या रामभद्र मखी+कन्या . वामनाचार्य वैद्यनाथ वामनाचार्य वैद्यनाथ वरदराज कृष्णगोपाल (इस पृष्ठ की टिप्पणियां मागे देखें) Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४६५ काल नल्ला दीक्षित के पौत्र रामभद्र यज्वा ने उणादिवृत्ति' और परिभाषावत्ति' की व्याख्या में अपने को तजौर के राजा शाह का सम: कालिक कहा है । शाह के राज्य का प्रारम्भ सं०१७४४ वि० से माना जाता है। अतः नारायण शास्त्री का काल लगभग सं० १७००- ५ १७६० वि० मानना उचित होगा। ९. प्रवर्तकोपाध्याय (सं० १६५०-१७३०) प्रवर्तकोध्याय-विरचित 'महाभाष्यप्रदीपप्रकाशिका' के अनेक हस्तलेख अडियार, मैसूर और ट्वेिण्डम के पुस्तकालयों में विद्यमान १० हैं। कहीं-कहीं इस ग्रन्थ का नाम 'महाभाष्यप्रदीपप्रकाश' भी मिलता प्रवर्तकोपाध्याय का कुल, देश, काल आदि अज्ञात है पुनरपि इस के काल पर निम्न लेखों से कुछ प्रकाश पड़ता है १. 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के सम्पादक एम. एस. नर- १५ सिंहाचार्य ने अन्नम्भट्टीय उद्योतन के प्रसंग में भाग २, के उपोद्घात के पृष्ठ XVII (१७) पर लिखा है प्रथमाह्निके द्वितीयाह्निके च बहुवास्मिन् उद्योतने प्रवर्तकोपाध्याय कृत प्रदीपप्रकाशानुकरणं खण्डनं च दृश्यते । अर्थात् अन्नम्भट्टीय प्रदीपोद्योतन के प्रथम और द्वितीयाह्निक में २० बहुत स्थानों पर प्रवर्तकोपाध्याय कृत प्रदोपप्रकाश का अनुकरण और खण्डन दिखाई पड़ता है। [पिछले पृष्ठ को शेष १-३ टिप्पणियां १. कुप्पुस्वामी ने रामभद्र के श्वसुर का नाम नीलकण्ठ मखीन्द्र लिखा है। द्र०-सं० का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ २१२ । २. इस के पति का नाम रत्नगिरि था । ____३. रामभद्र का शिष्य श्रीनिवास 'स्वरसिद्धान्तमञ्चरी' (पृष्ठ २) का कर्ता है। १. रामभद्र यज्वा विरचित उणादिवत्ति और परिभाषावृत्ति का वर्णन द्वितीय भाग में यथास्थान आगे किया जायेगा । २५ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतितास हमारी दृष्टि में प्रदीपोद्योतन में प्रवर्तकोपाध्याय का नामोल्लेख पूर्वक निर्देश नहीं पाया। हमारे पास प्रवर्तकोपाध्याय का प्रदीपप्रकाश नहीं है । अतः सम्पादक ने नीचे टिप्पणी में जिन ११०, १११, ११५, ११६ पृष्ठों का संकेत किया है, उन से लाभ नहीं उठा सके । इसलिए ५ हमने प्रवर्तकोपाध्याय का उल्लेख अन्नम्भट्ट से पूर्व नहीं किया। २. वैद्यनाथ ने वृद्धिरादैच् (१।१।१) सूत्र के भाष्य के अमेवकागुणाः के व्याख्यान में नागेश भट्ट कृत उद्योत की व्याख्या करते हुए लिखा है अनादिषूदात्तोच्चारणादियत्नविशेषाश्रयणादेव सिद्धे तदानर्थक्या१० पत्तेरतो मूलशैथिल्यात् कथं ज्ञापकतेतिनारायणादयः । तत्खण्डिका तदाशयप्रतिपादिकां प्रवर्तकोक्तिमाह-ए-केति ।' इस लेख से दो बातें सिद्ध होती हैं-एक प्रवर्तकोपाध्याय से विवरणकृन्नारायण पूर्व भावी है और वह उसकी उक्ति का खण्डन करता है । दूसरा 'एकश्रुतिश्च' इत्यादि प्रवर्तकोपाध्याय का वचन १५ नागेश द्वारा उद्धृत है। इस से स्पष्ट है कि प्रवर्तकोपाध्याय विवरण कृत नारायण से उत्तरकालीन और नागेश से पूर्व भावी है । इसी प्रकार वैद्यनाथ पायगुण्ड ने अन्यत्र भी बहुत्र प्रवर्तकोपाध्याय के नामोल्लेख पूर्वक उद्धरण दिये हैं। ____ हमारी दृष्टि में प्रवर्तकोपाध्याय का नागेश पूर्वभावित्व स्पष्ट हैं । अतः हमने इसे नागेश से पूर्व रखा है । विवरण कृत नारायण सं० १६५४ से पूर्वभावी है और नागेश का काल सं० १७३०-१८१० है । अतः सामान्य रूप से प्रवर्तकोपाध्याय का काल सं० १६५० से १७३० के मध्य माना जा सकता है। यदि ‘महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के २५ सम्पादक नरसिंहाचार्य का लेख प्रामाणिक माना जाये तो प्रवर्तको पाध्याय का काल १५५० के प्रासपास मानना होगा। उस अवस्था में विवरण कृत नारायण भी अन्नम्भट्ट से पूर्ववर्ती होगा। १. नवाह्निक, निर्णय सागरीय सं०, पृष्ठ १५३, कालम २, टि. १२ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार १०. नागेश भट्ट (सं० १७३० - १८१० वि० ) नागेश भट्ट ने कैयटविरचित महाभाष्यप्रदीप की 'उद्योत' अपरनाम 'विवरण' नाम्नी प्रौढ़ व्याख्या लिखी है | परिचय 1 वंश - नागेश भट्ट महाराष्ट्रीय ब्राह्मण था । इसका दूसरा नाम नागोजि भट्ट था । नागोजि भट्ट के पिता का नाम शिव भट्ट, और माता का नाम सतीदेवी था।' 'लघुशब्देन्दुशेखर' के अन्तिम श्लोक से विदित होता है कि नागेश के कोई संतान न थी ।' गुरु और शिष्य - नागेश ने भट्टोजि दीक्षित के पौत्र हरि दीक्षित से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था । वैद्यनाथ पायगुण्ड नागेश भट्ट का प्रधान शिष्य था । नागेशभट्ट की गुरुशिष्य - परम्परा इस प्रकार है रामाश्रम हरि दीक्षित ४६७ नागेश I बाल शर्मा वैद्यनाथ मनुदेव पाण्डित्य - नागेश भट्ट व्याकरण, साहित्य, अलंकार, धर्मशास्त्र, सांख्य, योग, पूर्वोत्तर-मीमांसा, और ज्योतिष प्रादि अनेक विषयों १० १. इति श्रीमदुपाध्यायोपनामक शिवभट्ट सुत सतीगर्भजनागेशभट्टविरचितलघुशब्देन्दुशेखरे ......। २. शन्देन्दुशेखरः पुत्रो मञ्जूषा चैव कन्यका । स्वमती सम्यगुत्पाद्य शिवयोरपितो मया ॥ ३. प्रफ्रेक्ट ने इसे भट्टोजि दीक्षित का पुत्र लिखा है । बृहत्सूचीपत्र भाग १, पृष्ठ ५२५ । ४. यह वैद्यनाथ का पुत्र है । देखो - एतत्कृत 'धर्मशास्त्रसंग्रह' का प्रारम्भ । १५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास का प्रकाण्ड पण्डित था । वैयाकरण निकाय में भर्तृहरि के पश्चात् यही एक प्रामाणिक व्यक्ति माना जाता है। काशी के वैयाकरणों में किंवदन्ती है कि नागेश भट्ट ने महाभाष्य का १८ वार गुरुमुख से अध्ययन किया था। आधुनिक वैयाकरणों में नागेश भट्ट विरचित महाभाष्यप्रदीपोद्योत, लघशब्देन्दुशेखर और परिभाषेन्दुशेखर ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक माने जाते हैं। नागेश भट्ट ने महाभाष्यप्रदीपोद्योत में 'लघुमञ्जूषा और 'शब्देन्दुशेखर' को उद्धृत किया है। पाम एकान्तर सूत्र ने शन्देन्दु शेखर में उद्योत भी उद्धृत है। अतः सम्भव है कि दोनों की स्वना १० साथ-साथ हुई हो। काल सहायक-प्रयाग के समीपस्थ शृङ्गवेरपुर का राजा रामसिंह नागेश भट्ट का वृत्तिदाता था। नागेश भट्ट कब से कब तक जीवित रहा, यह अज्ञात है । अनु१५ श्रुति है कि सं० १७७२ में जयपुराधीश ने जो अश्वमेध यज्ञ किया था, उसमें उसने नागेशभट्ट को भी निमन्त्रित किया था। परन्तु नागेश भट्ट ने संन्यासी हो जाने, अथवा क्षेत्रनिवासवत के कारण यह निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया। भानुदत्तकृत 'रसमञ्जरी' पर नागेश भट्ट की एक टीका है। इस टीका का हस्तलेख इण्डिया प्राफिस २० लन्दन के पुस्तकालय' में विद्यमान है । उसका लेखनकाल संवत १७६६ वि० है। देखो-ग्रन्थाङ्क१२२२ । वैद्यनाथ पायगुण्ड का पुत्र बालशर्मा नागेश भट्ट का शिष्य था। उसने धर्मशास्त्री मन्नुदेव की सहायता और हेनरी टामस कोलबुक की आज्ञा से 'धर्मशास्त्रसंग्रह' ग्रन्थ रचा था। कोलबुक सन् १७८३-१८१५ अर्थात् वि० संवत् २५ १. अधिक मञ्जूषायां द्रष्टव्यम् । प्रदीपोद्योत ४ । ३ । १०१ ॥ २. शब्देन्दुशेखरे निरूपितमस्माभिः । प्रदीपोद्योत २ ॥१॥ २२ ॥ निर्णयसागर संस्करण पृष्ठ ३६८ । ३. प्लुतो नैवेलि भाष्यप्रदीपोद्योते निरूपितम् । भाग २, पृष्ठ ११०८ । ४. देखो-'धर्मशास्त्रसंग्रह' का इण्डिया आफिस का हस्तलेख, ग्रन्थाङ्क ३० १५०७ का प्रारम्भिक भाग । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४६९ १८४०-१८७२ तक भारतवर्ष में रहा था।' अतः नागेश भट्ट सं० १७३० से १८१० वि० के मध्य रहा होगा। ___ इससे अधिक हम नागेश भट्ट के विषय में कुछ नहीं जानते । यह कितने दुःख की बात है कि हम लगभग २०० वर्ष पूर्ववर्ती प्रकाण्ड पण्डित नागेश भट्ट के इतिवृत्त से सर्वथा अपरिचित हैं । अन्य व्याकरण-ग्रन्थ नागेशभट्ट ने 'महाभाष्यप्रदीपोद्योत' के अतिरिक्त व्याकरण के निम्न ग्रन्थ रचे हैं१. लघुशब्देन्दुशेखर ५. परमलघुमञ्जूषा २. बृहच्छब्देन्दुशेखर ६. स्फोटवाद ३. परिभाषेन्दुशेखर ७. महाभाष्यप्रत्याख्यान४. लघुमञ्जूषा संग्रह इनका वर्णन इस इतिहास में यथाप्रकरण किया जायगा । नागेश भट्ट ने व्याकरण के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, दर्शन, ज्योतिष, अलंकार आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थ रचे हैं। उद्योतव्याख्याकार-वैद्यनाथ पायगुण्ड (सं० १७५०-१८२५ वि०) नागेश भट्ट के प्रमुख शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्ड ने महाभाष्यप्रदीपोद्योत की 'छाया' नाम्नी व्याख्या लिखी है.। यह व्याख्या केवल नवाह्निक पर उपलब्ध होती है । इसका कुछ अंश पं० शिवदत्त शर्मा ने निर्णयसागर यन्त्रालय बम्बई से प्रकाशित महाभाष्य के प्रथम भाग २० में छापा है। वैद्यनाथ का पुत्र बालशर्मा और मन्नुदेव था। बालशर्मा ने कोलन क साहब की आज्ञा, तथा धर्मशास्त्री मन्नुदेव और महादेव की सहायता से 'धर्मशास्त्रसंग्रह' रचा था । बालशर्मा नागेश भट्ट का शिष्य और कोलब्रक से लब्धजीविक था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। २५ . १. 'सरस्वती' जुलाई १९१४, पृष्ठ ४०० । २. इसका एक हस्तलेख 'काशी के सरस्वती भवन के पुस्तकालय' में है, उसकी प्रतिलिपि हमारे पास भी है । अव यह वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय की 'सारस्वती सुषमा' में छप चुका है। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० संस्कृतव्याकरण त्र-शास्त्र का इतिहास ११. आदेन्न आदेन नाम के किसी वैयाकरण ने 'महाभाष्यप्रदीपस्फूत्ति' संजक ग्रन्थ लिखा है । इस के पिता का नाम वेङ्कट अतिरात्राप्तोर्यामयाजी है । इस ग्रन्थ के तीन हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय के सूची पत्र' भाग ३, पृष्ठ ६३२-९३४, ग्रन्थाङ्क १३०५-१३०७ पर निर्दिष्ट हैं। प्रात्मकूर (कर्नूल-आन्ध्र) के मित्रवर श्री पं० पद्मनाभराव जी ने १०।११।६३ ई० के पत्र में लिखा है आदेन्न प्रादीति नामैकदेशग्रहणादयम् प्रादिनारायणो वा स्याद् पादिशेषो वा व्यवहारश्चायमान्ध्रेषु सर्वथा सुलभः। अन्न, अप्प, १० अय्य, अम्म एवमादिभ्रात्रादिवाचिनशब्दा नाम्नामन्ते निवेशनमेवात्र सम्प्रदायः। यदि पं० पद्मनाभराव का मत स्वीकार किया जाये तो यह ग्रन्थकार आन्ध्र प्रदेश का निवासी था । १२. सर्वेश्वर सोमयाजी १५ सर्वेश्वर सोमयाजी विरचित 'महाभाष्यप्रदीपस्फूति' का एकहस्तलेख 'अडियार पुस्तकालय के सूचीपत्र' भाग २, पृष्ठ ७३ पर निर्दिष्ट है । १३. हरिराम आफेक्ट ने अपने बृहत् सूचीपत्र में हरिराम कृत 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या' का उल्लेख किया है। हमारी दृष्टि में इसका उल्लेख अन्यत्र २० नहीं आया। १४. अज्ञातकर्तृक 'दयानन्द एङ ग्लो वैदिक कालेज लाहौर के लालचन्द पुस्तकालय' में एक 'प्रदीपव्याख्या' ग्रन्थ विद्यमान है। इसका ग्रन्थाङ्क ६६०६ है। इस ग्रन्थ के कर्ता का नाम अज्ञात है । २५ इस अध्याय में कैयट-विरचित 'महाभाष्यप्रदीप' के चौदह टीका कारों का संक्षिप्त वर्णन किया है। इस प्रकार हमने ११वें और १२ वें अध्याय में महाभाष्य और उसकी टीका-प्रटीकाओं पर लिखने वाले वैयाकरणों का वर्णन किया है। अगले अध्याय में अनुपदकार ... और पदशेषकार नामक वैयाकरणों का उल्लेख होगा। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्याय अनुपदकार और पदशेषकार व्याकरण के वाङमय में अनुपदकार और पदशेषकार नामक वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है। अनेक ग्रन्थकार पदकार के नाम से पातञ्जल महाभाष्य के उद्धरण उद्धृत करते हैं।' तदनुसार ५ पतञ्जलि का पदकार नामान्तर होने से स्पष्ट है कि महाभाष्य का एक नाम 'पद' भी था। शिशुपालवध के 'अनुत्सूत्रपदन्यासा" श्लोक की व्याख्या में बल्लभदेव भी 'पद' शब्द का अर्थ 'पद शेषाहिविरचितं भाष्यम्' करता है । इससे स्पष्ट है कि 'अनुपदकार' का अर्थ अनुपद=महाभाष्य के अनन्तर रचे गये ग्रन्थ का रचयिता, और पद- १० शेषकार का अर्थ पदशेष=महाभाष्य से बचे हुए विषय के प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थ का रचयिता है । इसीलिये इनका वर्णन हम महाभाष्य और उस पर रची गई व्याख्यानों के अनन्तर करते हैं __ अनुपदकार अनुपदकार का अर्थ-अनुपदकार का अर्थ है-'अनुपद' का १५ रचयिता। अनुपद-'चरणव्यूह यजुर्वेद खण्ड' में एक अनुपद उपाङ्गों में गिना गया है । 'अनुपद' नाम का सामवेद का एक सूत्रग्रन्थ भी है। प्रकृत में 'अनुपद' का अर्थ पूर्वलिखित 'पद-महाभाष्य के अनु= अनुकूल लिखा गया ग्रन्थ' ही है। क्योंकि अनुपदकार नाम से प्रागे २० उध्रियमाण वचन व्याकरण-विषयक हैं। अनुपदकार का निर्देश-धूर्तस्वामी ने आपस्तम्ब श्रौत ११ । ६।२ के भाष्य में अनुपदकार का उल्लेख किया हैं। यह वैदिक ग्रन्थकार है। रामाण्डार ने आपस्तम्ब श्रौत ११ । ६ । २ की धूर्त २५ . १. देखो-पूर्व पृष्ठ ३५८-५६। २. २ । ११२॥ ३. तुलना करो पदशेषो ग्रन्थविशेषः । पदमञ्जरी ७ । २६८॥ ४. तुलना करो-अनुन्यास पद । तथा देखो-अगले पृष्ठ का विवरण । ५. अनुपदकारस्य तूर्ध्वबाहुना..............। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास स्वामी कृत भाष्य की वृत्ति में अनुपदकार को छान्दोग्य षड्विंश ब्राह्मण का व्याख्याता कहा है।' व्याकरण-वाङमय में अनुपदकार-व्याकरण-वाङमय में भी अनुपदकार का निर्देश अनेक स्थानों पर उपलब्ध होता है । यथा____ मैत्रेयरक्षित विरचित न्यासव्याख्या-तन्त्रप्रदीप और शरणदेव रचित दुर्घटवृत्ति में 'अनुपदकार' के नाम से व्याकरण-विषयक दो उद्धरण उपलब्ध होते हैं । यथा १-एवं च युवानमाख्यत् प्रचीकलदित्यादिप्रयोगोऽनुपदकारेण नेष्यत इति लक्ष्यते । १० २-प्रेण्वनमिति अनुपदकारेणानुम उदाहरणमुपन्यस्तम्। सम्भवतः ये उद्धरण यथाक्रम अष्टाध्यायी ७ । ४ । १ तथा ८ । ४ । २ के ग्रन्थ से उद्धृत किये गये है। 'संक्षिप्तसार व्याकरण' के वृत्ति और गोयीचन्द्रकृत व्याख्या में निर्दिष्ट अनुपदकार के चार मत निम्न प्रकार हैं। - १५ १-'शषसे वर्गाद्यात्तद् द्वितीय इत्यनुपदकारः । सन्धिपाद । २-'पवमानोऽवर्तमानकाले, यजमानोऽवर्तमानकालेऽकार्ये क्रियाफलेऽपोत्यनुपदकार इति ।' लङ् लुङ वत्'० सूत्रवृत्ति में । ३-'जयादित्यादीनां तु व्यवस्थया यद्यप्येनच्छित' इति लक्ष्यते प्रत्येनदिति च, तथापि न तदिहेष्टं भाण्यानुपदकारादीनां मतेन विरो२० धात् ।' द्वितीया टौसन्तस्य समासे सूत्रवृत्ति की गोयीचन्द्र की व्याख्या। १. अनुपदकारः छान्दोग्यषड्विंशव्याख्याता.........। २. भारतकीमुदी भाग २, पृष्ठ ८६४। ३. दुर्घटवृत्ति पृष्ठ १२६ । ४. मञ्जूषा पत्रिका वर्ष ५, अंक ८, पृष्ठ २५६ । ५. पाणिनीय तन्त्र में वात्तिक है-चयो द्वितीया शरि पौष्करसादेः। महा० ८।४।४८॥ पौष्करसादि पाणिनि से पूर्ववर्ती है। द्र० पूर्व पृष्ठ ११० । यही मत यहां अनुपदकार के नाम से उद्धृत है। ६. महाभाष्य २।४।३८ में 'एनच्छितक:' पाठ है । भाष्यकार इसे स्वीकार करता है वा नहीं, इस में व्याख्याताओं का मतभेद है। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपदकार और पदशेषकारं ४७३ ४-'युवालितिसूत्रे युवजरन्निति भाष्ये नोदाहृतम् । अनुपर्दकारेण पुनरेतन्निश्चितमेव ।' 'जरतपलित०' सूत्रवृत्ति की गोयीचन्द्र की व्याख्या। ___इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि 'अनुपद' ग्रन्थ सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर था । यह सम्प्रति अप्राप्त हैं। . व्याकरण के वाङ्मय में जिनेन्द्रबुद्धिविरचित 'न्यास' अपरनाम काशिकाविवरणपञ्जिका के अनन्तर इन्दुमित्र नामक वैयाकरण ने काशिका की 'अनुन्यास' नामक एक व्याख्या लिखी थी । इसके उद्धरण अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं।' 'अनुन्यास' पद से तुलना करने पर स्पष्ट विदित होता है कि अनुपद का हमारा पूर्व १० लिखित अर्थ युक्त है । इस 'अनुपद' ग्रंन्य के रचयिता का नाम और काल प्रज्ञात है। पदशेषकार पदशेषकार के नाम से व्याकरणविषयक कुछ उद्धरण काशिकावृत्ति, माधवीया धातुवृत्ति, और पुरुषोत्तमदेवविरचित महाभाष्य १५ लघवृत्ति की 'भाष्यव्याख्याप्रपञ्च' नाम्नी टीका में उपलब्ध होते हैं यथा १-'पदशेषकारस्य पुनरिदं दर्शनम्-गम्युपलक्षणार्थ परस्मैपदग्रहणम्, परस्मैपदेषु यो गमिरुपलक्षितस्तस्मात् सकारादेरार्धधातुकस्येड् भवति'। २-'अत एव भाष्यवातिकविरोधात् 'गमेरिट' इत्यत्र परस्मैपदग्रहणं गम्युपलक्षणार्थम्, परस्मैपदेषु यो गमिनिदिष्ट इति पदशेषकार' वर्शनमुपेक्यम्।' ३-'पदशेषकारस्तु शब्दाघ्याहारं शेषमिति वदति' ।। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि 'पदशेष' नामक कोई ग्रन्थ अष्टा- २५ ध्यायी पर लिखा गया था। 'पदशेष' नाम से यह भी विदित होता है · १-देखो – 'काशिकावृत्ति के व्याख्याकार' नामक १५ वां अध्याय । २. काशिका ७ । २।५८ ॥ ३. पृष्ठ ४३४ की टि० २। . ४. गम धातु, उष्ठ १९२। ५. देखो-इ० हि० क्वार्टी सेप्टेम्बर १९४३, पृष्ठ २७ । तथा पूर्व पृष्ठ ४३३ पं० १४ । १० Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कि यह ग्रन्थ पद =महाभाष्य के अनन्तर रचा गया था और उस में सम्भवतः महाभाष्य से अवशिष्ट विषयों पर विचार किया गया होगा । यथा-पुरुषोत्तमदेवविरचित त्रिकाण्ड शेष अमरकोश का शेष है.। . . . in ETERरण अभी तक कोशिकावृत्ति ५. पदशेषकार का सब से पुराना उद्धरण अभा तक काशिकावृत्त में मिला है। तदनुसार यह ग्रन्थ विक्रम की ७ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है, केवल इतना ही कहा जा सकता है । ग्रन्थकार का नाम अज्ञात ___ हम पूर्व पृष्ठ ३६० पर लिख आए हैं कि 'अनुपदकार' और १० पदशेषकार दोनों एक ही हैं अथवा भिन्न व्यक्ति है, यह विचारणीय है । यतः दोनों पदों के अर्थों में भिन्नता है, अतः इन्हें भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानना ही युक्त है । अब हम अगले अध्याय में. अष्टाध्यायी, के वत्तिकारों का वर्णन करेंगे । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्याय अष्टाध्यायी के वृत्तिकार सूत्र-ग्रन्थों की रचना में अत्यन्त लाघव से कार्य लिया जाता है। 'सूत्र' शब्द 'सूत्र वेष्टने' चौरादिक ण्यन्तधातु से 'अच्' अथवा पक्षान्तर' में 'घ' प्रत्यय होकर बनता है । प्राचीन ग्रन्थकार सूत्र शब्द ५ का अर्थ 'सूचनात् सूत्रम्" भी दर्शाते हैं। तदनुसार सूत्र-तन्तु के अवयवों के समान अनेक अर्थों को वेष्टित अपने में गुम्फित करने वाले अथवा विस्तृत अर्थों की सूचना देनेवाले संकेतमात्र सूत्रों का अभिप्राय हृदयंगम करने वा कराने के लिए व्याख्यान-ग्रन्थों की भावश्यकता होती है । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस प्रकार के व्या- १० ख्यान-ग्रन्थों का स्वरूप निम्न शब्दों में प्रकट किया है- 'न केचलं चर्चापदानि व्याख्यानम् =वृद्धिः प्रात् ऐज् इति । कि तहि ? 'उदाहरणम् प्रत्युदाहरणम्, वाक्याध्याहारः' इत्येतत् समुदितं . व्याख्यानं भवति'। अर्थात्-व्याख्यान में पदच्छेद, वाक्याध्याहार (पूर्वप्रकरणस्थ १५ पदों की अनुवृत्ति वा सूत्रबाह्य पद का योग) उदाहरण और प्रत्युदाहरण होने चाहिएं। । पञ्चधा व्याख्यान-वैयाकरणों में एक श्लोक प्रसिद्ध है 'पदच्छेदः पदार्थोक्तिविग्रहो वाक्ययोजना। पूर्वपक्षसमाधानं व्याख्यानं पञ्चलक्षणम्' ।' अर्थात्-पदच्छेद, पदों का अर्थ, समस्तपदों का विग्रह, वाक्ययोजना, पूर्वपक्ष और समाधान ये पांच व्याख्यान के अवयव हैं। १. एरजण्यन्तानाम् इति काशिका । ३३३॥५६॥ २. इसी लक्षण को किसी ने विस्तार से इस प्रकार कहा है- 'लघुनि सूचितार्थानि स्वल्पाक्षरपदानि च । सर्वतः सारभूतानि सूत्राण्याहुर्मनीषिणः ॥ २५ भामती (वेदान्त १११११) में उद्धृत। ३. महाभाष्य ११.प्रा० १॥ .. ४. भाषावृत्ति की सृष्टिधर-विरचित विवृति में (भाषावृत्ति के प्रारम्भ में पृष्ठ १६ पर)। in pvj: A for ६ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास षविधि व्याख्यान-नागेशकृत 'उद्योत की छायाटीका' के आरम्भ में 'षड्विधा व्याख्या' का निर्देश मिलता है। इस षड्विधा व्याख्या के तीन प्रकार छायाकार ने 'विष्णुधर्मोत्तर' से उधृत किये इन वचनों से स्पष्ट है कि सूत्रग्रन्यों के प्रारभिक व्याख्यानों में पदच्छेद, पदार्थ, समास-विग्रह, अनुवृत्ति, वाक्ययोजना=अर्थ, उदाहरण, प्रत्युदाहरण, पूर्वपक्ष और समाधान ये अंश प्रायः रहा करते थे। इसी प्रकार के लघु-व्याख्यानरूप ग्रन्थ 'वृत्ति' शब्द से व्यवहृत होते हैं। १० पाणिनीय अष्टाध्यायी पर प्राचीन अर्वाचीन अनेक प्राचार्यों ने वृत्तिग्रन्थ लिखे हैं। पतञ्जलि-विरचित महाभाष्य के अवलोकन से विदित होता है कि उससे पूर्व अष्टाध्यायी पर अनेक वृत्तियों की रचना हो चुकी थी। महाभाष्य ११११५६ में लिखा है 'यत्तदस्य योगस्य मूर्धाभिषिक्तमुदाहरणं तदपि संगृहीतं भवति ? १५ किं पुनस्तत् ? पट्ट्या मृद्व्येति ।' इस पर कैयट लिखता है-'मूर्धाभिषिक्तमिति- सर्ववृत्तिषदाहतत्वात् ।' प्राचीन वृत्तियों का स्वरूप अष्टाध्यायी की प्राचीन वृत्तियों का क्या स्वरूप था ? इस पर २० जिन कतिपय वचनों से प्रकाश पड़ता है उन्हें हम नीचे उद्धृत करते हैं १. वृद्धिरादैच् (प्रा० १११।१) के महाभाष्य में लिखा है इहैव तावद् व्याचक्षाणा पाहः-वृद्धिशब्दः संज्ञा प्रादेचिनः संज्ञिनः । अपरे पुनः सिचिवृद्धिः (७।२।१) इत्युक्त्वाऽऽकारकारौकारा२५ बुदाहरन्ति। .' इसका तत्पर्य यह है कि कुछ वृत्तिकार इसी सूत्र पर 'प्राकार ऐकार औकार की वृद्धिसंज्ञा होती है ऐसा कहते हैं (उदाहरण नहीं ___१. यह निबन्ध 'अोरियण्टल कालेज मैगजीन' लाहौर के नवम्बर १९३९ के अङ्क में छपा था। अब यह शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'मीमांसक लेखा३० वली' भाग २ (वेदाङ्ग-मीमांसा) में छपेगा। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ४७७ देते) अन्य वृत्तिकार सिचिवृद्धिः (अ० ७।२।१) सूत्र पर ही वृद्धि संज्ञक आकार ऐकार प्रौकार के उदाहरण देते हैं। यही तत्पर्य धर्मराज यज्वा के शिष्य नारायण ने कैयट की टीका में दर्शाया है । द्र० महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि, भाग २, पृष्ठ २३३ । २. महाभाष्य के उपर्युक्त पाठ के व्याख्यान में शिवरामेन्द्र ५ सरस्वती ने लिखा है क्वचित् संज्ञासूत्राणां वृत्तिरुदाहरणं च नोपलभ्यते, विधिसूत्राणां तूदाहरणमात्रं दृश्यते । द्र०-महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि, भाग २, पृष्ठ २३१, पं० २५, २६ । इसका भाव है-कुछ वृत्तियों में संज्ञा सूत्रों की वृत्ति और उदा- १० हरण नहीं मिलते हैं, विधि सूत्रों के उदाहरण मात्र दिखाई पड़ते हैं । [कुछ वृत्तियों में संज्ञा सूत्रों पर वृत्तिमात्र मिलती है, उदाहरण नहीं मिलते] ३. हरदत्त पदमञ्जरी के प्रारम्भ में लिखता है वृत्त्यन्तरेषु सूत्राण्येव व्याख्यायन्ते..."वृत्त्यन्तरेषु गणपाठ एव १५ नास्ति । भाग १, पृष्ठ ४। ४. पतञ्जलि ने अष्टाध्यायी १२१ के भाष्य में इस सूत्र के चार अर्थों पर विचार किया है। वे हैं क–गाकुटादिभ्यो परो योऽञ्णित् प्रत्ययः इत्संज्ञकङकार इत्यर्थः । द्र०-उद्योत। __ ख-गाकुटादिभ्यो परो योऽणित् प्रत्ययः स द्भिवति डकार इत्संज्ञकस्तस्य भवतीत्यर्थः । ०-प्रदीप। . ग-संज्ञाकरणं तीदम्- गाङकुटादिभ्यो इञ्णित् प्रत्ययो कित्संज्ञो भवति । महाभाष्य। घ-यदवदतिदेशस्तरं यम्-गाङकुटाविभ्योऽञ्णित् द्विद् प्रत्ययो २५ डित्संज्ञो भवति । महाभाष्य। ' इन चार प्रकार के अर्थों का उदभावन पतञ्जलि ने से स्वकल्पना नहीं किया । अपि तु निश्चय ही ये चार प्रकार के अर्थ विभिन्न प्राचीन वृत्तियों में रहे होंगे । इस का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि दश Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पादी उणादि के प्राचीन वृत्तिकार (माणिक्यदेव) ने उणादि सूत्रों में जहां-जहां कित्, ङित् चित्, णित् प्रादि पद पठित हैं, वहां सर्वत्र कित्संज्ञक, डित्संज्ञक, चित्संज्ञक, णित्संज्ञक अर्थ ही किये हैं । महाभाष्य के इस प्रकरण पर हमने 'अष्टाध्यायी की महाभाष्य से प्राचीन वत्तियों का स्वरूप' नामक निबन्ध में विस्तार से लिखा हैं।' महाभाष्य के अध्ययन से यह सुस्पष्ट विदित होता है कि महाभाष्य की रचना से पूर्व अष्टाध्यायी को न्यून से न्यून ४-५ वृत्तियां अवश्य बन चुकी थीं। महाभाष्य' के अनन्तर भी अनेक वैयाकरणों ने अष्टाध्यायो की वृत्तियां लिखी हैं। ____ महाभाष्य से अर्वाचीन अष्टाध्यायी की जितनी वृत्तियां लिखी गईं, उनका मुख्य आधार पातञ्जल महाभाष्य है। पतञ्जलि ने पाणिनीयाष्टक की निर्दोषता सिद्ध करने के लिये जिस प्रकार अनेक सूत्रों वा सूत्रांशों का परिष्कार दर्शाया, उसी प्रकार उसने कतिपय सूत्रों की वृत्तियों का भी परिष्कार किया । अतः महाभाष्य से उत्तर४ कालीन वृत्तियों से पाणिनीय सूत्रों को उन प्राचीन सूत्रवृत्तियों का यथावत् परिज्ञान नहीं होता, जिनके आधार पर महाभाष्य की रचना हुई । इस कारण प्राचीन अनुपलब्ध वृत्तियों के आधार पर लिखे महाभयष्य के अनेक पाठ अर्वाचीन वृत्तियों के अनुसार असंबद्ध उन्मत्तप्रलापंवत् प्रतीत होते हैं ।, यथा अष्टाध्यायी के कटाय समणे (३ । १ । १४) सूत्र की वृत्ति काशिका में 'कष्टशब्दाच्चतुर्थीसमर्थात् क्रमणेऽर्थेऽनार्जवे क्यङ् प्रत्ययो भवति' लिखी है.। जिस छात्र ने यह वृत्ति पड़ी है, उसे इस सूत्र के महाभाष्य को 'कष्टायेति कि निपात्यते ? 'कष्टशब्दाच्चतुर्थीसमर्थात् क्रमणेऽनार्जवे क्यङ् निपात्यते 'पङ क्ति देखकर आश्चर्य होगा कि इस सूत्र में निपातन का कोई प्रसङ्ग ही नहीं, फिर महाभाष्यकार ने निपातनविषयक आशङ्का क्यों उठाई ? इसलियो महाभाष्य का '' अध्ययन करते समय इस बात का विशेष ध्यान प्राबश्य रखना चाहिये। अष्टाध्यायी पर रची गई महाभाष्य से प्राचीन और पर्याचीन ३० वृत्तियों में से जितनी वृत्तियों का ज्ञान हमें हो सका, उन का संक्षे, से वर्णन करते हैं । AR Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टाध्यायी के वृत्तिकार, १. पाणिनि ( २९०० वि० पूर्व ) पाणिनि ने स्वोपज्ञ, 'अकालक' व्याकरण का स्वर्ये अनेक वार प्रवचन किया था महाभाष्य १ ४ १ में लिखा है 3 11 ४७६ 13 कथं त्वेतत् सूत्रं पठितव्यम् । किमाकडाराबेका संज्ञा, श्राहोस्वित् प्राक्कडारात् परं कार्यमिति । कुतः पुनरयं सन्देहः ? उभयथा ५ ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिता: केचिदाकडारादेका संज्ञेति, केचित् प्राक्कडारात् परं कार्यमिति । . २ - काशिका • ४।१।११७ में लिखा है - 'शुङ्गाशब्दं स्त्रीलिङ्गमन्ये पठन्ति ततो ढकं प्रत्युदाहरन्ति शौङ्गय इति । द्वयमपि चैतत् प्रमाणम्, उभयथा सूत्रप्रणयनात् । ३ - काशिका ६ । २ । १०४ में उदाहरण दिये हैं- 'पूर्वपाणिनीयाः, श्रपरपाणिनीया: । इन से पाणिनि के शिष्यों के दो विभाग : दर्शाए हैं । १० इन उपर्युक्त वचनों से स्पष्ट है कि सूत्रकार ने अपने सूत्रों का स्वयं अनेकधा प्रवचन किया था। सूत्रप्रवचन- काल में सूत्रों की वृत्ति, १५ उदाहरण, प्रत्युदाहरण दर्शाना आवश्यक है । क्योंकि इनके विना सूत्रमात्र का प्रवचन नहीं हो सकता, अथवा वह निरर्थक होगा । अतः यह श्रापाततः स्वीकार करना होगा कि पाणिनि ने अपने सूत्रों की स्वयं किसी वृत्ति का भी अवश्य प्रवचन किया था । पाणिनि के शिष्यों ने सूत्रपाठ के समान उस का भी रक्षण किया । इसकी पुष्टि २० निम्नलिखित प्रमाणों से भी होती है 817 .. १ - भर्तृहरि 'इग्यण: संप्रसारणम् ( ० १ ११४५ ) सूत्र के विषय में 'महाभाष्यदीपिका' में लिखता है - 63 'उभयथा ह्याचार्येण शिष्याः प्रतिपादिताः केचिद् वाक्यस्य, केचिद्वर्णस्य | D.* 21 122 193425B 1 T २५ ९०१ म अर्थात् - पाणिनि ने शिष्यों को इग्यणः संप्रसारणम् सत्र के दो श्रर्थं पढ़ाये हैं । किन्हीं को 'यणाः स्थाने इक इस वाक्य की सम्प्रसारण संज्ञा बताई, और किन्हीं को यण् के स्थान पर होनेवाले इक् वर्ण की 1 18318 7 150. P ०६ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास २- अष्टाध्याय ५ । १ । ५० की दो प्रकार से व्याख्या करके जयादित्य लिखता है | २० 'सूत्रार्थद्वयमपि चेतदाचार्येण शिष्याः प्रतिपादिताः । तदुभयमपि ग्राह्यम्' । अर्थात् - प्राचार्य ( पाणिनि ) ने सूत्र के दोनों ग्रंथ शिष्यों को बताए, इसलिये दोनों अर्थ प्रमाण हैं । ऐसी ही दो प्रकार की व्याख्या जयादित्य ने ५ । १ । ६४ की भी की है ।' ३ – महाभाष्य ६ । १ । ४५ में पतञ्जलि ने लिखा है'यत्ताह मीनातिमोनोतिदोङां ल्यपि चेत्यंत्र राज्ग्रहणमनुवर्तयति ।' यहाँ धेनुवर्तयति ( अनुवृत्ति लाता है) क्रिया का कर्त्ता पाणिनि के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता । ४ - महाभाष्य ३ । १ । ६४ में लिखा है 'ननु च य एवं तस्य समयस्य कर्त्ता स एवेदमप्याह । यद्यसौ तत्र १५ प्रमाणमिहापि प्रमाणं भवितुमर्हति । प्रमाणं चासौ तत्र चेह च ।' अर्थात् - 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या न च केवलः प्रत्यय:" इस नियम का जो कर्ता हैं, वहीं 'वासरूपोऽस्त्रियाम् " सूत्र का भी रचयिता है। यदि वह नियम में प्रमाण हैं, तो सूत्र के विषय में भी प्रमाण होगा। वह उस में भी प्रमाण हैं, और इस में भी । यह नियमन पाणिनि के सूत्रपाठ में उपलब्ध होता है, और न खिलपाठ में । भाष्यकार के वचन से स्पष्ट हैं कि इस नियम का कर्त्ता १. ऐसी दो-दो प्रकार की व्याख्या श्वेतवनवासी ने पञ्चपादी उणादि में कतिपय सूत्रों की की है, द्रष्टव्य - ४११५, ११७, १२० | श्वेतवनवासी ने इन सूत्रों की द्वितीय व्याख्या दशपादीवृत्ति के आधार पर की है । द्र० – दश२५ पादीवृत्ति १० १६, १७; ८।१४।। २. शबरस्वामी ने मीमांसा ३।४।१३ के भाष्य में 'प्रकृतिप्रत्ययो सहार्थ ब्रूतः' वचन प्राचार्योपदेश कहा है इसी प्रसंग में सूत्रकार का भी निर्देश है । अतः उसके मत में यह प्राचार्य पाणिनि से भिन्न है । ३० ३. अष्टा० ३।१।६४ । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४०१ , पामिनि है । अतः प्रतीत होता है कि पाणिनि ने उपर्युक्त नियम का प्रतिपादन सूत्रपाठ की वृत्ति में किया होगा। ५-गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान सूरि कौड्याद्यन्तर्गत 'चैतयत" पद पर लिखता है-'पाणिनिस्तु चित संवेदने इत्यस्य चैतयत इत्याह । वर्धमान ने यह व्युत्पत्ति निश्चय ही 'क्रौड्यादिभ्यश्च सूत्र की पाणिनीय वृत्ति से उद्धृत की होगी। ___ इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन की वृत्ति का प्रवचन अवश्य किया था। ___ पाणिनि के परिचय और काल के विषय में हम (पूर्व पृष्ठ १० १९३-२२१) विस्तार से लिख चुके हैं । २. श्वोभूति (२९०० वि० पूर्व) आचार्य श्वोभूति ने अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी थी। उसका उल्लेख जिनेन्द्रबुद्धि ने अपने न्यास ग्रन्थ में किया है। काशिका १५ ७२।११ के 'केचिदत्र द्विककारनिर्दशेन गकारप्रश्लेषं वर्णयन्ति' पर वह लिखता है 'केचित् श्वभूतिव्याडिप्रभृतयः 'श्रय कः किति' इत्यत्र विककारनिर्दशेन हेतुना चर्वभूतो गकारः प्रश्लिष्ट इत्येवमाचक्षते ।' यहाँ श्वोभूति का पाठान्तर 'सुभूति' है सुभूति न्यासकार से अर्वा- २० चीन ग्रन्थकार है। हमारा विचार है कि न्यास में व्याडि के साहचर्य से 'श्वोभूति' पाठ शुद्ध है। परिचय श्वोभूति प्राचार्य का कुछ भी इतिवृत्त विदित नहीं है। महाभाष्य १।११५६ में एक श्वोभूति का उल्लेख मिलता है । वचन इस २५ प्रकार है-- १. काशिका में 'चैटयत' पाठ है। २. गणरत्नमहोदवि पृष्ठ ३७ । ३. मष्टा० ४.१०॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'स्तोष्याम्यहं पादिकमोदवाहि ततः श्वोभूते शातनीं पातनीं च । नेतारावागच्छन्तं धाणि रावण च ततः पश्चात् स्रंस्यते ध्वंस्यते च ' ॥ ४८२ उक्त वचन श्वोभूति को सम्बोधनरूप से निर्देश होने से प्रतीत होता है कि श्वोभूति इस श्लोक के रचयिता का शिष्य था । प्रदीपकार कंट का भी यही मत है ।' इस श्लोक के रचयिता का नाम अज्ञात है । ५ १० लक्ष्यानुसारी काव्यवचन - हमारे विचार में उक्त श्लोक पाणिनीय सूत्रों को लक्ष्य में रख कर रावणार्जुनीय, भट्टि आदि काव्यों के सदृश लक्ष्य प्रधान काव्य का है । | काल - किन्हीं विद्वानों का मत है कि श्वोभूति पाणिनि का साक्षात् शिष्य है ( हमारा भी यही विचार है ) । यदि यह बात प्रमाणान्तर से पुष्ट हो जाए, तो खोभूति का काल निश्चय ही २६ सौ वर्ष विक्रमपूर्व होगा। महाभाष्य में श्वोभूति का उल्लेख होने से इतना विस्पष्ट है कि श्वोभूति महाभाष्यकार पतञ्जलि से प्राचीन १५ है । ३. व्याडि ( २८०० वि० पूर्व ) श्वोभति के प्रसङ्ग में न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि का जो वचन उद्घृत किया है, उससे विदित होता है कि व्याडि ने भी श्वोभूति के २० समान अष्टाध्यायी की कोई वृत्ति लिखी थी । यदि व्याडि ने अष्टाध्यायी ७ । २ । ११ सूत्र की उक्त व्याख्या संग्रह में न की हो तो निश्चय ही व्याडि ने अष्टाध्यायी की वृति लिखी होगी । व्याडि के विषय में हम 'संग्रहकार व्याडि नामक प्रकरण में (पूर्व २५ पृष्ठ २९९ - ३१५) विस्तार से लिख चुके हैं । ४. कुणि (२००० वि० पूर्व से प्राचीन) भर्तृहरि कैयट और हरदत्त आदि ग्रन्थकार प्राचार्य कुणि १. श्वोभूतिर्नाम शिष्यः । कैयट महाभाष्यप्रदीप १ । १ ५६ ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ४८३ विरचित 'अष्टाध्यायीवृत्ति' का उल्लेख करते हैं । भर्तृहरि महाभाष्य १।१।३८ की व्याख्या में लिखता है___'अतः एषां व्यावृत्त्यर्थ कुणिनापि तद्धितग्रहणं कर्तव्यम् ।..." अतो गणपाठ एव ज्यायान् अस्यापि वृत्तिकारस्य इत्येतदनेन प्रतिपादयति ।" कैयट महाभाष्य ११११७५ की टीका में लिखता है 'कुणिना प्राग्ग्रहणमाचार्यनिर्दशार्थ व्यवस्थितविभाषार्थं च व्याख्यातम् । ...."भाष्याकारस्तु कुणिदर्शनमशिश्रयत् ।' हरदत्त भी 'पदमजरी' में लिखता है-'कुणिना तु प्राचां ग्रहणमाचार्यनिर्देशार्थ व्याख्यातम्, भाष्यकारोऽपि तथैवाशिश्रयत् । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य कुणि ने अष्टाध्यायी की कोई वृत्ति अवश्य रची थी। परिचय वृत्तिकार प्राचार्य कुणि का इतिवृत्त सर्वथा अन्धकारावृत्त है। हम उस के विषय में कुछ नहीं जानते। 'ब्रह्माण्ड पुराण' तीसरा पाद ८९७ के अनुसार एक 'कुणि' वसिष्ठ का पुत्र था। इस का दूसरा नाम 'इन्द्रप्रमति' था। एक इन्द्रप्रमति ऋग्वेद के प्रवक्ता प्राचार्य पैल का शिष्य था । निश्चय ही वृत्तिकार कुणि इन दोनों से भिन्न व्यक्ति है । काल प्राचार्य कुणि का इतिवृत्त-अजात होने से उसका काल भी अज्ञात है। भर्तृहरि आदि के उपर्युक्त उद्धरणों से केवल इतना प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य महाभाष्यकार पतञ्जलि से पूर्ववर्ती है। १. इमारा हस्तलेख पृष्ठ ३०६, पूना सं० पृष्ठ २३० । २. पदमञ्जरी १।१७५, भाग १, पृष्ठ १४५ । ३. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृष्ठ ७८ प्र० सं० । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५. माथुर (२००० वि० पूर्व से प्राचीन) भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तमदेव ने अष्टाध्यायी १।२।५७ की वृत्ति में आचार्य माथुर-प्रोक्त वृत्ति का उल्लेख किया है। महाभाष्य ४।३। १०१ में भो माथुर नामक प्राचार्य-प्रोक्त किसी वृत्ति का उल्लेख ५ मिलता है। परिचय माथुर नाम तद्धितप्रत्ययान्त है, तदनुसार इस का अर्थ 'मथुरा में रहनेवाला' अथवा 'मथुरा अभिजनवाला' है । ग्रन्थकार का वास्तविक नाम अज्ञात है । महाभाष्य में इसका उल्लेख होने से इतना स्पष्ट है १० कि यह प्राचार्य पतञ्जलि से प्राचीन है। - माथुरी-वृत्ति महाभाष्य में लिखा है-यत्तेन प्रोक्तं न च तेन कृतम् माथुरी वृत्तिः' ।' इस उद्धरण से यह भी स्पष्ट है कि 'माथुरी-वृत्ति' का रचयिता १५ माथुर' से भिन्न व्यक्ति था । माथुर तो केवल उसका प्रवक्ता है। . माथुरी वृत्ति का उद्धरण संस्कृत वाङमय में अभी तक 'माथुरी-वृत्ति' का केवल एक उद्धरण उपलब्ध हुआ है । पुरुषोत्तमदेव भाषावृत्ति १।२।५७ में लिखता है२० . माथु- तु वृत्तावशिष्यग्रहणमापादमनुवर्तते।' ___ अर्थात् माथुरी वृत्ति में 'तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात् सूत्र के 'प्रशिष्य' पद की अनुवृत्ति प्रथमाध्याय के द्वितीय पाद की समाप्ति तक हैं। १. डा. कीलहान ने 'माधुरी वृत्तिः' पाठ माना है । उसके चार हस्त२५ लेखों में 'माधुरी वृत्तिः' पाठ भी है। तुलना करो—'अन्येन कृता माथुरेण प्रोक्ता माथुरी वृत्तिः।' काशिका ४।३।१०१॥ २. माथुर+अण् । प्रदीप ४।३। १०१॥ ३. अष्टा० १।२।५३ ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार .. ४८५ माथुरी वृत्ति और और चान्द्र व्याकरण महाभाष्यकार पतञ्जलि ने 'अशिष्य' पद की अनुवृत्ति १२२५७ तक मानी है। माथरी वृत्ति में इस पद की अनुवत्ति श२७३ तक जाती है। अतः माथुरी-वृत्ति के अनुसार अष्टाध्यायी ॥२॥५८ से १।२।७३ तक १६ सूत्र भी अशिष्य हैं। चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण ५ में जिस प्रकार अष्टाध्यायी १।२।५३-५७ सूत्रस्थ विषयों का अशिष्य होने से समावेश नहीं किया, उसी प्रकार उसने अष्टाध्यायी १।२।५८-७३ सूत्रस्थ वचनातिदेश और एकशेष का निर्देश भी नहीं किया । इस से प्रतीत होता है कि प्राचार्य चन्द्रगोमी ने इन विषयों को भी अशिष्य माना है। इस समानता से विदित होता है कि चन्द्रा- १० चार्य ने अपने व्याकरण की रचना में 'माथरी-वत्ति' का साहाय्य अवश्य लिया था। महाभाष्यकार ने भी जाति और व्यक्ति दोनों को पदार्थ मान कर अष्टाध्यायी १३१४५८-७३ सूत्रों का प्रत्याख्यान किया है। सम्भव है कि पतञ्जलि ने भी इन के प्रत्याख्यान में माथरी वृत्ति का आश्रय लिया हो। ६. वररुचि (विक्रम-समकालिक) प्राचार्य वररुचि ने अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी थी। यह वररुचि वार्तिककार कात्यायन वररुचि से भिन्न अर्वाचीन व्यक्ति है । वररुचिविरचित अष्टाध्यायीवृत्ति का उल्लेख आफेक्ट ने अपने बृहत् २० सूचीपत्र में किया है । 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' में इस नाम का एक हस्तलेख विद्यमान है। देखो-सूचीपत्र सन् १८८० का छपा, पृष्ठ ३४२। परिचय • यह वररुचि भी कात्यायन गोत्र का है । 'सदुक्तिकर्णामृत' के एक २५ श्लोक से विदित होता है कि इसका एक नाम श्रुतिधर भी था।' वाररुच निरुक्तसमुच्चय से प्रतीत होता है कि यह किसी राजा का धर्माधिकारी था।' अनेक व्यक्ति इसे विक्रमादित्य का पुरोहित १. ख्यातो यश्च श्रुतिधरतया विक्रमादित्यगोष्ठी-विद्याभवु: खलु वररुचेराससाद प्रतिष्ठाम् । पृष्ठ २६७ । २. युष्मत्प्रसादादहं क्षपितसमस्त- ३० कल्मषः सर्वसंपत्संगतो धर्मानुष्ठानयोग्यश्च संजात: । पृष्ठ ५१ (द्वि० सं०) Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ संस्कृत व्याकरण का इतिहास मानते हैं।' इसका भागिनेय वासवदत्ता-लेखक सुबन्धु था। इससे अधिक हम इसके विषय में कुछ नहीं जानते। काल ___ भारतीय अनुश्रुति के अनुसार प्राचार्य वररुचि संवत्-प्रवर्तक महाराजा विक्रमादित्य का सभ्य था। कई ऐतिहासिक इस संबन्ध को काल्पनिक मानते हैं। अतः हम वररुचि के कालनिर्णयक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-काशिका के प्राचीन कातन्त्रवृत्तिकार दुर्गसिंह के मतानुसार कातन्त्र व्याकरण का कृदन्त भाग वररुचि कात्यायन कृत है।' १. २-संवत् ६९५ वि० में शतपय का भाष्य लिखने वाले हरि स्वामी का गुरु स्कन्दस्वामी निरुक्तटीका में वररुचि निरुक्तसमुच्चय से पर्याप्त सहायता लेता है, और उसके पाठ उद्धृत करता है। ३-स्कन्द महेश्वर की 'निरुक्तटीका' २०१६ के भामह के अलंकार ग्रन्थ का २२१७ श्लोक उद्धृत है। भामह ने वररुचि के . १५ 'प्राकृतप्रकाश' की 'प्राकृतमनोरमा' नाम्नी टोका लिखी है। अतः वररुचि निश्चय ही संवत् ६०० वि० से पूर्ववर्ती है । पं० सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे के मतानुसार हरिस्वामी संवत् प्रवर्तक विक्रम का समकालिक है। ___ भारतीय इतिहास के प्रामाणिक विद्वान् श्री पं० भगवद्दत्त जी ने २० अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' ग्रन्थ में वररुचि और विक्रम साह साङ्क की समकालिकता में अनेक प्रमाण दिये हैं। उनमें से कछ एक नीचे लिखे हैं १. पं० भगवद्दतजी कृत भारतवर्ष का इतिहास, पृ. ६ (द्वि सं०) । २. भारतवर्ष का बृहद् इतिहास भाग १, पृष्ठ ६८ (द्वि० सं०)। . ३. ६०-आगे पृष्ठ ४४५ पर काल-निर्देशक ८ वां प्रमाण । ४. वृक्षादिवदमी रूढा न कृतिना कृताः कृतः । कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धप्रतिपत्तये। ५. देखो-हमारे द्वारा सम्पादित 'निरुक्तसमुच्चय' की भूमिका पृष्ठ १ । ६. ग्वालियर से प्रकाशित 'विक्रमादित्य ग्रन्थ' में पं. सदाशिव कात्रे का ७. देखो-द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ३२७ तथा ३४१ । ३० देख। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४ - वररुचि अपने 'लिङ्गानुशासन' के अन्त में लिखता है - ' इति श्रीमदखिलवाग्विलासमण्डित - सरस्वती - कण्ठाभरण -अनेक विशरण - श्रीनरपति - विक्रमादित्य - किरीटकोटिनिघुष्टचरणारवि+ न्दनाचार्यवररुचिविरचितो लिङ्गविशेषविधिः समाप्तः । ५ - वररुचि अपनी 'पत्रकौमुदी' के प्रारम्भ में लिखता है - विक्रमादित्यभूपस्य कीर्ति सिद्धेनिदेशतः । श्रीमान् वररुचिर्धीमांस्तनोति पत्रकौमुदीम् ॥ ६ - वररुचि अपने 'विद्यासुन्दर काव्य' के अन्त में लिखता है - ' इति समस्तमही मण्डलाधिपमहाराजविक्रमादित्यनिदेशलब्धश्री+ मन्महापण्डितवररुचिविरचितं विद्यासुन्दरप्रसंगकाव्यं समाप्तम् । १० ७- लक्ष्मणसेन (वि० सं० १९७६ ) के सभापण्डित घोयी का एक श्लोक 'सदुक्तिकर्णामृत' में उद्धृत है । उसमें लिखा हैख्यातो यश्च श्रुतिधरतया विक्रमादित्यगोष्ठीविद्याभर्तुः खलु वररुचेराससाद प्रतिष्ठाम् ॥' ૪૭ ५. <- - कालिदास अपने 'ज्योतिर्विदाभरण' २२ । १० में लिखता है - १५ धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिहशङ्क वेतालभट्टघट खर्पर कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥' ४- ८ तक के पांच प्रमाणों से वररुचि और विक्रमादित्य का सम्बन्ध विस्पष्ट है । आठवें प्रमाण में 'वराहमिहिर' का उल्लेख है । वराहमिहिर ने बृहत्संहिता' में ५५० शक का उल्लेख किया है । यह २० शालिवाहन शक नहीं है । 'शक' शब्द संवत्सर का पर्याय है।' इस तथ्य को न जान कर इसे शालिवाहन शक मान कर आधुनिक ऐतिहासिकों ने महती भूल की है। विक्रम से पूर्व नन्दाब्द, चन्द्रगुप्तान्द शुद्रकाब्द आदि अनेक शक प्रचलित थे । वराहमिहिर ने किस शक का उल्लेख किया है, यह अज्ञात है । २५ १. सदुक्तिकर्णामृत पृष्ठ २६७ ॥ २. महाभाष्य २।१।६८ में एक वार्तिक ' शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च । इसका एक उदाहरण है - शाकपार्थिवः । शाकपार्थिव वे कहाते हैं जिन्होंने स्वसंवत् चलाया । यहां शक शब्द संवत् वाचक है । प्रज्ञादित्वात् अण् होकर प्रज्ञ एव प्राज्ञः के समान शक एवं शाक: शब्द निप्पन्न होता है । ३० Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वाररुचि-वृत्ति का हस्तलेख हमने "मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' में विद्यमान वाररुचः वृत्ति की प्रतिलिपि मंगवाई है । यह प्रारम्भ से अष्टाध्यायी ॥४॥३४ सूत्र पर्यन्त है। यदि यह प्रतिलिपि भूल से अन्य को न भेजी गई हो, तो निश्चय ही वह हस्तलेख वाररुच-वृत्ति का नहीं है। इस ग्रन्थ में भट्टोजि दीक्षित विरचित सिद्धान्तकोमुदो को हो सूत्रवृत्ति सूत्रक्रमानुसार तत्तत् सूत्रों पर संगृहीत है। वररुचि के कतिपय अन्य ग्रन्थ वररुचि के नाम से अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । उन में कुछ१० एक निम्नलिखित है। १-तैत्तिरीय प्रातिशाख्य-व्याख्या-इस व्याख्या के अनेक उद्धरण तैत्तरीयप्रातिशाख्य के 'त्रिरत्लभाष्य' और वीरराघवकृत 'शब्दब्रह्मविलास' नामक टोका में मिलते हैं। इसका विरोष वर्णन 'प्राति शाख्य और उसके टोकाकार' नामक २८ वें अध्याय में किया १५ जायगा। .. २-निरुक्तसमुच्चय-इस ग्रन्य में आवार्य वररुचि ने १०० मन्त्रों की व्याख्या नरुक्तसम्प्रदायानुसार की है । यह निरुक्त-सम्प्रदाय का प्रामाणिस ग्रन्य है। इस का सम्मादन हमने किया है । ३-सारसमुच्चय--इस ग्रन्थ में वररुचि ने महाभारत से २० आचार-व्यवहार सम्बन्धी अनेक विषयों के श्लोकों का संग्रह किया है। यह ग्रन्थ बालि द्वीप से प्राप्त हुप्रा है । इस पर बालि भाषा में व्याख्या भी है। इसका सुन्दर संस्करण अभी-अभी श्री डा० रघुवीर ने 'सरस्वती विहार' से प्रकाशित किया हैं । ४-लिङ्गविशेषविधि -इसका वर्णन 'लिङ्गानुशासन और उसके २५ वृत्तिकार' नामक २५ वें अध्याय में किया जायगा। ५-प्रयोगविधि-यह व्याकरणविषयक लघु ग्रन्थ है। यह नारायणकृत टोका सहित ट्रिवेण्डम से प्रकाशित हो चुका है। . १. इसका परिष्कृत द्वितीय संस्करण २०२२ वि० में पुन: छपवाया है। तृतीय संस्करण सं० २०४० में पुनः छपा है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४८६ ६-कातन्त्र उत्तरार्ध-इसका वर्णन 'कातन्त्र' व्याकरण के प्रकरण में किया जाएगा। ७-प्राकृतप्रकाश-यह प्राकृत भाषा का व्याकरण है । इस पर भामह की 'प्राकृतमनोरमा' टीका छप चुकी है। ८-कोश-अमरकोश आदि की विविध टीकानों में कात्य, ५ कात्यायन तथा वररुचि के नाम से किसी कोष-ग्रन्य के अनेक वचन उद्धृत हैं । वररुचिकृत कोष का एक सटीक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है, देखो-सूचीपत्र भाग २६ खण्ड १ ग्रन्थाङ्क १५६७२ । __-उपसर्ग-सूत्र-माधवनिदान की मकोष व्याख्या में वररुचि १० का एक उपसर्ग-सूत्र उद्धृत है।' १०-पत्रकौमुदी ११-विद्यासुन्दरप्रसंग काव्य । ७. देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) 'जैनेन्द्र-शब्दानुशासन' के रचयिता देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद १५ ने पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतारन्यास' नाम्नी टीका लिखी थी। इस में निम्न प्रमाण हैं १-शिमोगा जिले की 'नगर' तहसील के ४३ वें शिलालेख में लिखा है 'न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनतं पाणिनीयस्य भूयो, न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपादः, । स्वामो भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः ॥ अर्थात्-पूज्यपाद ने अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र न्यास, पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार-न्यास, वैद्यक का ग्रन्थ और तत्त्वार्थसूत्र की २५ टीका लिखी है । २० १. वररुचेरुपसर्गसूत्रम्-'नि निश्चयनिषेधयोः । 'निर्णयसागर सं० पृ०५ । २. 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ १०७, टि० १; द्वि० सं० पृष्ठ ३३ टि० २। देवनन्दी का प्रकरण प्रायः इसी ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २-वि० सं० १२१७ के वृत्तविलास ने 'धर्मपरीक्षा' नामक कन्नड भाषा के काव्य की प्रशस्ति में लिखा है 'भरदि जैनेन्द्रभासुरं एनल मोरेदं पाणिनीयक्के टीकुम्" इस में पाणिनीय व्याकरण पर किसी टीका-ग्रन्थ के लिखने का ५ उल्लेख है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य देवनन्दी ने पाणिनीय व्याकरण पर कोई टीका-ग्रन्थ अवश्य रचा था। प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित 'शब्दावतार-न्यास' इस समय अप्राप्य है। परिचय १० चन्द्रय्य कवि ने कन्नड भाषा में पूज्यपाद का चरित लिखा है। उसमें लेखक लिखता है 'देवनन्दी के पिता का नाम 'माधव भट्ट' और माता नाम 'श्रीदेवी' था। ये दोनों वैदिक मतानुयायी थे। इनका जन्म कर्नाटक देश के 'काले' नामक ग्राम में हुआ था। माधव भट्ट ने अपनी स्त्री के कहने १५ से जैन मत स्वीकार किया था। पूज्यपाद को एक उद्यान में मेंढक को सांप के मुंह में फंसा हुआ देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे जैन साधु बन गए।' (जैन सा० और इ०, पृष्ठ ५०, संस्क० २) ___यह चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से अनुपादेय माना जाता है। अतः उपर्युक्त लेख कहां तक सत्य है, यह नहीं कह सकते । फिर भी यह २० सम्भावना ठीक प्रतीत होती है कि देवनन्दी के पिता वैदिक मता नुयायी रहे हों । ऐतिह्य-प्रसिद्ध जैन ग्रन्थकारों में अनेक ग्रन्थकार पहले स्वयं वैदिकधर्मी थे, अथवा उनके पूर्वज वैदिकमतानुयायी थे। देवनन्दी जैनमत के प्रामाणिक प्राचार्य हैं। जैन लेखक इन्हें पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धि के नाम से स्मरण करते हैं । गणरत्नमहो२५ दधि के कर्ता वर्धमान ने इन्हें 'दिग्वस्त्र' नाम से स्मरण किया है।' प्राचार्य देवनन्दी का काल अभी तक अनिश्चित है । उनके काल १. 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ ६३, टि० २ (प्र० सं०) । २. शालातुरीयशकटाङ्गजचन्द्रमोमिदिग्वस्त्रभर्तृहरिवामनभोजमुख्याः ।... ३० दिग्वस्त्रो देवनन्दी। पृष्ठ १, २। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार - निर्णायक जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, उन में से कुछ इस प्रकार हैं१ - जैन ग्रन्थकार वर्धमान ने वि० सं० ११६७ में अपना 'गणरत्नमहोदधि' ग्रन्थ रचा उस में प्राचार्य देवनन्दी को 'दिग्वस्त्र' नाम से बहुत्र स्मरण किया है । X&? २- राष्ट्रकूट के जगत्तुङ्ग राजा का समकालिक वामन अपने ५ 'लिङ्गानुशासन' में प्राचार्य देवनन्दी - विरचित जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन को बहुधा उद्धृत करता है ।' जगत्तुङ्ग का राज्यकाल वि० सं० ८५१-८७१ तक था । ३ –— कर्नाटककविचरित्र के कर्त्ता ने गङ्गवंशीय राजा दुर्विनीत को पूज्यपाद का शिष्य लिखा है । दुर्विनीत के पिता महाराजा प्रवि- १० नीत का मर्करा (कुर्ग ) से शकाब्द ३८८ का एक ताम्रपत्र मिला है । तदनुसार प्रविनीत वि० सं० ५२३ में राज्य कर रहा था । 'हिस्ट्री आफ कनाडी लिटरेचर' और 'कर्नाटककविचरित्र' के अनुसार महाराज दुर्विनीत का राज्यकाल वि० सं० ५३६ ५६६ तक रहा है । 3 ४ - वि० सं० ६६० में बने हुए 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ में १५ लिखा है सिरिपुज्जपादसीसो द्राविडसंघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥ पंचस छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिण महरा जादो दाविणसंघो महामोहो || अर्थात् पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम के मरण के पश्चात् ५२६ वें वर्ष में दक्षिण मथुरा वा मदुरा में द्रविड़संघ की स्थापना की थी । प्रमाणाङ्क ३ र ४ से विस्पष्ट होता है कि प्राचार्य देवनन्दी का काल विक्रम की षष्ठ शताब्दी का पूर्वार्ध है । १. व्याडप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । श्लोक ३१ । 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ ११६ ( प्र० सं० ) । ३. वही, पृष्ठ ११६ प्र० (सं० ) । इतिहास, टि० प्र० सं० पृष्ठ ११७; द्वि० सं० पृष्ठ ४३, टि० १ ४. जैन साहित्य श्रीर २० २५ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५ २० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विवेचना - श्री नाथूराम प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य प्रोर इतिहास' के द्वितीय संस्करण में पृष्ठ ४४ पर पूज्यपाद और राजा दुर्विनीत के गुरुशिष्य भाव का खण्डन कर दिया है । प्रायः सभी वैयाकरणों ने एक विशेष नियम का विधान किया है, १० जिसके अनुसार 'ऐसी कोई घटना जो लोकविश्रुत हो, प्रयोक्ता ने उसे साक्षात् न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ता के दर्शन का विषय सम्भव हो, अर्थात् प्रयोक्ता के जीवनकाल में घटी हो, तो उसको कहने के लिए भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है' २५ ૪૨૨ नया प्रमाण - 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' से प्रकाशित जैनेन्द्र व्याकरण के प्रारम्भ में 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ' प्रकरण ( पृष्ठ ४२ ) में आचार्य पूज्यपाद के काल के निश्चय के लिए नया प्रमाण उपस्थित किया था । उसे ही संक्षेप से यहां उपस्थित करते हैं - 'परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये । " इस नियम के निम्न उदाहरण व्याकरण-ग्रन्थों में मिलते हैंअरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् । महा० ३ । २।११ ॥ 1 श्रजयज्जत हूणान् । चान्द्र १ । २ । ८१ ।। श्ररुणन्महेन्द्रो मथुराम् | जैनेन्द्र' २ । २ । ९२ ।। श्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् । शाक० ४ । ३ । २०८ ।। श्ररुणत्ं सिद्धवर्षोऽवन्तीम् । हैम ५ । २ । ८ ।। इनमें अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा स्पष्ट हैं । श्राचार्य पाल्यकीर्ति [शाकटायन] अमोघवर्ष, और प्राचार्य हेमचन्द्र सिद्धराज के काल में विद्यमान थे, इसमें किसी को विप्रतिपत्ति नहीं । परन्तु जर्त १. कात्यायन वार्तिक । महा० ३ । २ । ११ ॥ २. पाश्चात्त्य मतानुयायियों ने 'जर्तः' के स्थान पर 'गुप्त' पाठ घड़ लिया है । द्र०- - पूर्व पृष्ठ ३६६, ३७० तथा पृष्ठ ३७० टि० १ । ३. यद्यपि यह तथा इसके पूर्व उदाहरण क्रमशः धर्मदास और अभयनन्दी की वृत्तियों से लिये हैं, परन्तु इन वृत्तिकारों ने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपाद की स्वोपज्ञ वृत्ति से लिए हैं । ३० Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४६३ और महेन्द्र नामक व्यक्ति को इतिहास में साक्षात् न पाकर पाश्चात्त्य मतानुयायी भारतीय विद्वानों ने जर्त को गुप्त' और महेन्द्र को मेनेन्द्रमिनण्डर' बनाकर अनर्गल कल्पनाएं को हैं । इस प्रकार की कल्पनाओं से इतिहास नष्ट हो जाता है । हमारे विचार में जैनेन्द्र का श्ररुणन्महेन्द्रो मथुराम् पाठ सर्वथा ठीक है । उसमें किञ्चिन्मात्र ५ भ्रान्ति की सम्भावना नहीं । आचार्य पूज्यपाद के जीवनकाल को यह महत्त्वपूर्ण घटना इतिहास में सुरक्षित है । १० जैनेन्द्र उल्लिखित महेन्द्र - जैनेन्द्र व्याकरण में स्मृत महेन्द्र गुप्तवंशीय कुमारगुप्त है। उसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है । जैनेन्द्र के विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम् ( ४|१|१३९ ) वार्तिक, अथवा पदेषु पदैकदेशान् न्याय के अनुसार महेन्द्रकुमार के लिए महेन्द्र अथवा कुमार शब्दों का प्रयोग इतिहास में मिलता है । कुमारगुप्त की मुद्राओं पर महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्रवर्मा, महेन्द्रकुमार श्रादि कई नाम उपलब्ध होते हैं । महेन्द्र का मथुरा विजय - तिब्बतीय ग्रन्थ 'चन्द्रगर्भ परिपृच्छा' १५ सूत्र में लिखा हैं - ' यवनों बल्हिकों शकुनों (कुशनों) ने मिलकर तीन लाख सेना लेकर महेन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया । गङ्गा के उत्तर प्रदेश जीत लिए । महेन्द्रसेन के युवा कुमार ने दो लाख सेना लेकर उन पर आक्रमण किया, और विजय प्राप्त की। लौटने पर पिता ने उसका अभिषेक कर दिया' । 'चन्द्रगर्भसूत्र' में निर्दिष्ट महेन्द्र निश्चय ही महाराज महेन्द्र = कुमार गुप्त है, और उसका युवराज स्कन्दगुप्त । 'मञ्जुश्रीमूलकल्प' श्लोक ६४६ में श्री महेन्द्र और उसके सकारादि पुत्र ( - स्कन्दगुप्त ) को स्मरण किया है। १. देखो - पूर्व ४९२ पृष्ठ की टि० २ । २५ २. 'जैनेन्द्र महावृत्ति' भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण की श्री डा० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखित भूमिका पृष्ठ १०-११ । ३. पं० भगवद्दत्त कृत भारतवर्ष का वृहद् इतिहास भाग २, पृष्ठ ३०७ । ४. इम्पीरियल हिस्ट्री आफ इण्डिया, जायसवाल, पृष्ठ ३६, तथा भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २, पृष्ठ ३४८ ॥ ५. महेन्द्रनृपवरो मुख्यः सकाराद्यो मतः परम् । ३० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतितास 'चन्द्रगर्भसूत्र' में लिखित घटना की जैनेन्द्र के उदाहरण में उल्लिखत घटना के साथ तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के उदाहरण में उक्त महत्त्वपूर्ण घटना का ही संकेत है। प्रतः उक्त उदाहरण से यह भी विदित होता है कि विदेशी आक्रान्तानों ने गङ्गा के पास-पास का प्रदेश जीतकर मथुरा को अपना केन्द्र बनाया था। इसलिए महेन्द्र को सेना ने मथुरा का ही घेरा डाला । ___ जैनेन्द्र के उक्त उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि उक्त ऐतिहासिक घटना प्राचार्य पूज्यपाद के जीवनकाल में घटी थी। अतः प्राचार्य पूज्यपाद और महाराज महेन्द्रकुमार-कुमारगुप्त समका१० लिक हैं। महेन्द्रकुमार का काल-महाराज महेन्द्रकुमार अपरनाम कुमारगुप्त का काल पाश्चात्त्य विद्वानों ने वि० सं० ४७०-५१२ (= ४१३४५५ ई०) माना है । भारतीय कालगणनानुसार कुमारगुप्त का काल विक्रम सं० ६६-१३६ तक निश्चित है । क्योंकि उसके शिलालेख १५ उक्त संवत्सरों के उपलब्ध हो चुके हैं। यदि भारतीय कालगणना को अभी स्वीकार न भी किया जाए, तो भी पाश्चात्त्य मतानुसार इतना तो निश्चित है कि पूज्यपाद का काल विक्रम की पांचवीं शती के उत्तरार्ध से षष्ठी शती के प्रथम चरण के मध्य है। ___ इस विवेचना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुण२० महेन्द्रो मथुराम्' उदाहरण में महेन्द्र को विदेशी आक्रामक मेनेन्द्र = मिनण्डर समझना भी भारी भ्रम है । ___ डा० काशीनाथ बापूजी पाठक की भूल स्वर्गीय डा० काशीनाथ बापूजी पाठक का शाकटायन व्याकरण के सम्बन्ध में एक लेख 'इण्डियन एण्टिक्वेरी' (जिल्द ४३ पृष्ठ २०५२५ २१२) में छपा है । उसमें उन्होंने लिखा है "पाणिनीय व्याकरण में वार्षगण्य पद की सिद्धि नही है । जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण में इस का उल्लेख मिलता है। पाणिनि के शरद्वच्छनकर्भाद् भृगुवत्सानायणेषु सूत्र के स्थान में जनेन्द्र का सूत्र १. यहां हमने संक्षेप से लिखा है। विशेष देखो-जैन साहित्य और ३० इतिहास' प्र० सं० पृष्ठ ११७.११६ । २. अष्टा० ४।१।१०२॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४६५ है-शरद्वच्छनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भगुवत्साग्रायणब्राह्मणवसिष्ठे।' इसी का अनुकरण करते हुए शाकटायन ने सूत्र रचा है-शरद्वच्छनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भृगुवत्सवसिष्ठवृषगणब्राह्मणामायणे ।' की अमोघा वृत्ति में 'आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, प्राग्निमिरन्यः' व्याख्या की है। वार्षगण्य सांख्यकारिका के रचयिता ईश्वरकृष्ण का दूसरा ५ नाम है। चीनी विद्वान् टक्कुसु के मतानुसार ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान था। जैनेन्द्र व्याकरण में उसका उल्लेख होने से जैनेन्द्र व्याकरण वि० सं० ५०७ के बाद का है । इस लेख में पाठक महोदय ने चार भयानक भूलें की हैं । यथा प्रथम-सांख्यशास्त्र के साथ संबद्ध वार्षगण्य नाम सांख्यकारिका- १० कार ईश्वरकृष्ण का है, यह लिखना सर्वथा अशुद्ध है। सांख्यकारिका की युक्ति-दीपिका नाम्नी व्याख्या में 'वार्षगण्य' और 'वार्षगणाः' के नाम के अनेक उद्धरण उद्धत हैं, वे ईश्वरकृष्ण-विरचित सांख्यकारिका में उपलब्ध नहीं होते । प्राचार्य भर्तृहरि विरचित वाक्य पदीय ब्रह्मकाण्ड में 'इदं फेनो न' और 'अन्धो मणिमविन्दद्' दो पद्य १५ पढ़े हैं। इन में से द्वितीय पद्य तैत्तिरीय आरण्यक १।११।५ में तथा योगदर्शन ४।३१ के व्यासभाष्य में स्वल्प पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है । वाक्यपदीय के प्राचीन व्याख्याकार वृषभदेव के मतानुसार ये पद्य सांख्यशास्त्र के षष्टितन्त्र ग्रन्थ के हैं। अनेक लेखकों के मत में षष्टितन्त्र भगवान वार्षगण्य की कृति है। यदि यह ठीक हो, तो २० मानना होगा कि वार्षगण्य आचार्य तैत्तिरीय प्रारण्यक के प्रवचनकाल अर्थात विक्रम से लगभग तीन सहस्र वर्ष से प्राचीन है । महाभारत में भी सांख्यशास्त्रकार वार्षगण्य का बहुधा उल्लेख मिलता है। इस से स्पष्ट है कि वार्षगण्य अत्यन्त प्राचीन आचार्य है। उसका ईश्वरकृष्ण के साथ सम्बन्ध जोड़ना महती भ्रान्ति है। २५ १. शब्दार्णव ३।१।१३४॥ २. २।४।३६॥ ३. कारिका ८, ६ । ४. इदं फेन इति । षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायं यावदभ्यपूजयदिति । पृष्ठ १८ । . ५. देखो-हमारे मित्र विद्वद्वर श्री० पं० उदयवीरजी शास्त्री 'कृत 'सांख्य दर्शन का इतिहास' पृष्ठ ८६। ६. 'सांख्य दर्शन का इतिहास' ग्रन्थ में माननीय शास्त्री जी ने वार्षगण्य को तैत्तिरीयारण्यक से उत्तर काल का ३० माना है। परन्तु हमारा विचार है कि वह तैत्तिरीयारण्यक से पूर्ववर्ती है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतव्याकरण त्र-शास्त्र का इतिहास द्वितीय-जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण के जिन सूत्रों के उद्धरण देकर पाठक महोदय ने वार्षगण्य पद की सिद्धि दर्शाई है, वह भी चिन्त्य है। उक्त सूत्रों में वार्षगण्य' पद की सिद्धि नहीं है, अपितु उन में बताया है कि यदि अग्निशर्मा वृषगण-गोत्र का होगा, ५ तो उसका अपत्य 'आग्निशर्मायण' कहलावेगा । और यदि वह वृषगणगोत्र का न होगा, तो उसका अपत्य 'प्राग्निमि' होगा। इस बात को पाठक महोदय द्वारा उद्धृत अमोघा वृत्ति का पाठ स्पष्ट दर्शा रहा है। व्याकरण का साधारण सा भो बोध न होने से कैसी भयङ्कर भूलें होती हैं, यह पाठक महोदय के लेख से स्पष्ट है। तृतीय-जैनेन्द्र व्याकरण के नाम से पाठक महोदय ने जो सूत्र उद्धृत किया है, वह जैनेन्द्र व्याकरण का नहीं है वह है जैनेन्द्र व्याकरण के गुणनन्दी द्वारा परिष्कृत 'शब्दार्णव' संज्ञक संस्करण का।' गुणनन्दी का काल विक्रम की दशम शताब्दी है। अतः उसके आधार पर प्राचार्य पूज्यपाद का काल निर्धारण करना सर्वथा प्रयुक्त है। १५ चतुर्थ-पाठक महोदक जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण के जिन सूत्रों में वार्षगण्य पद का निर्देश समझकर पाणिनीय व्याकरण में उसका अभाव बताते हैं, वह भी अनुचित है । क्योंकि पाणिनि ने वार्षगण्य गोत्र के आग्निशर्मायण की सिद्धि के लिये नडादिगण में 'अग्निशमन् वृषगणे' सूत्र पढ़ा है । अतः पाणिनि उसका पुनः सूत्रपाठ २० में निर्देश क्यों करता ? प्राचार्य पूज्यपाद ने भी इस विषय में पाणिनि का ही अनुकरण किया है। उसने आग्निशर्मायण वार्षगग्य का साधक 'अग्निशमन् वृषगणे' सूत्र नडादिगण में पढ़ा है। (पाठक महोदय ने जैनेन्द्रव्याकरण नाम से जो सूत्र उद्धृत किया है, वह मूल जैनेन्द्र व्याकरण का नहीं है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं) । शास्त्र के पूर्वापर २५ का भले प्रकार अनुशीलन किये विना उसके विषय में किसी प्रकार का मत निर्धारित कर लेने से कितनी भयङ्कर भूलें हो जाती हैं, यह भी इस विवेचन से स्पष्ट है। १. जैन साहित्य और इतिहास प्र० सं०, पृष्ठ १००-१०६ । तथा इसी इतिहास' का पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वा अध्याय । २. 'जैन साहित्य और इतिहास' प्र० सं०, पृष्ठ १११, तथा इसी इतिहास का १७ वां अध्याय । ३. गणपाठ ४ । १०५ ॥ ४. जैनेन्द्र गणपाठ ४११९८॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ४६७ ___ डा० काशीनाथ बापूजी पाठक के लेख को डा० वेल्वाल्कर' तथा श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में उद्धृत करके उन के परिणाम को स्वीकार किया है। अतः इनके लेखों में भी उपर्युक्त सब भूलें विद्यमान हैं। प्रेमी जी की निरभिमानता-मैंने ८ अगस्त सन् १९४८ के पत्र ५ में श्रीमान प्रेमीजी का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया था। उसके उत्तर में आपने २१-८-१९४६ के पत्र में इस प्रकार लिखा___ 'आपने मेरे जैनेन्द्र-सम्बन्धी लेख में दो न्यूनताएं बतलाई, उन पर मैंने विचार किया। आपने जो प्रमाण दिये, वे बिल्कुल ठीक हैं। इनके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं । यदि 'जैन साहित्य और इतिहास' १० को फिर छपवाने का अवसर प्राया, तो उक्त न्यूनताएं दूर कर दी जायेंगी।......... इस निरभिमानता और सहृदयता के लिये मैं उन का आभारी हूं। स्वर्गीय प्रेमजी ने 'जैन साहित्य और इतिहास' के द्वितीय संस्करण में मेरे सुझावो को स्वीकार करके वार्षगण्य सम्बन्धी प्रकरण १५ निकाल दिया है। व्याकरण के अन्य ग्रन्य आचार्य देवनन्दी विरचित व्याकरण के निम्न ग्रन्थ और हैं १-जैनेन्द्र व्याकरण-इसका वर्णन 'पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक प्रकरण में किया जायगा। २० २-घातुपाठ ३-गणपाठ ४–लिङ्गानुशासन ५-परिभाषापाठ, इनका वर्णन यथास्थान तत्तत् प्रकरणों में किया जायगा। ५-शिक्षा-सूत्र-देवनन्दी ने प्रापिशलि पाणिनि तथा चन्दाचार्य के समान शिक्षा-सूत्रों का भी प्रवचन किया था । यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु अभयनन्दी ने स्वीय महावृत्ति (१।१।२) में ४० २५ शिक्षासूत्र उद्धृत किये हैं। दुर्विनीत (सं० ५३६-५६९ वि०) महाराज पृथिवीकोंकण के दानपत्र में लिखा है१. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं० ४६ । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ११७-११६. (प्र० स०) । ३० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'श्रीमत्कोंकणमहाराजाधिराजस्याविनीतनाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारतीनिबद्धबृहत्कथेन किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारेण दुविनीतनामधेयेन .।' __ अर्थात् महाराजा दुविनीत ने 'शब्दावतार', 'संस्कृत की बृहत्कथा' ५ और किरातार्जुनीय के पन्द्रहवें या पन्द्रह सर्गों की व्याख्या लिखी थी। ___ इस से प्रतीत होता है कि महाराजा दुविनीत ने 'शब्दावतार' नामक ग्रन्थ लिखा था । अनेक विद्वानों का मत है कि यह शब्दावतार नामक ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण की टीका है। ___हम ऊपर लिख चके हैं कि प्राचार्य पूज्यपाद ने भी पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतार' संज्ञक एक ग्रन्थ रचा था। महाराज दुर्विनीत-विरचित ग्रन्थ का नाम भी उपर्युक्त दानपत्र में 'शब्दावतार' लिखा है। महाराज दुविनीत प्राचार्य पूज्यपाद का शिष्य है, यह पूर्व लिखा १५ जा चुका है। गुरु-शिष्य दोनों के पाणिनीय व्याकरण पर लिखे ग्रन्थ का एक ही नाम होने से यह सम्भावना होती है कि आचार्य पूज्यपाद ने ग्रन्थ लिख कर अपने शिष्य के नाम से प्रचरित कर दिया हो। ८. चुल्लि भट्टि (सं० ७०० वि० से पूर्व) चुल्लि भट्टि विरचित 'अष्टाध्यायी-वृत्ति का उल्लेख जिनेन्द्रबुद्धिन २. कृत न्यास और उसकी तन्त्रप्रदीप नाम्नी टीका में उपलब्ध होता है। काशिका के प्रथम श्लोक की व्याख्या में न्यासकार लिखता है___ 'वृत्तिः पाणिनीयसूत्राणां विवरणं चुल्लिभट्टिनिलू रादिविर: चितम् । इस वचन से व्यक्त होता है कि 'चुल्लि भट्टि' और 'निज़र' २५ विरचित दोनों वृत्तियां काशिका से प्राचीन हैं। १. पं० कृष्णमाचार्यविरचित 'हिस्ट्री प्राफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' पृष्ठ १४० में उद्धृत । २. न्यास भाग १, पृष्ठ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार तन्त्रप्रदीप ८।३।७ में मैत्रेय रक्षित लिखता है -- 'सव्येष्ठा इति सारथिवचनोऽयम् । श्रत्र चुल्लिभट्टिवृत्तावपि तत्पुरुषे कृति बहुलमित्यलुग् दृश्यते ।" 'हरिनामामृत' सूत्र १४७० की वृत्ति में लिखा है - 'हृदयङ्गमा वागिति चुल्लिभट्टिः ।' हरदत्त ने काशिका के प्रथम श्लोक की व्याख्या में 'कुणि' का उल्लेख किया है । न्यास के उपर्युक्त वचन का पाठान्तर 'चुन्नि' है । इसकी 'कुणि' और 'चुणि' दोनों से समानता हैं । ९. निर्लर (सं० ७०० वि० से पूर्व ) निल र विरचित वृत्ति का उल्लेख न्यास के पूर्वोद्धृत पाठ में १० उपलब्ध होता है । काशिका के व्याख्याता विद्यासागर मुनि ने भी इस वृत्ति का उल्लेख किया है ।' श्रीपतिदत्त ने 'कातन्त्र परिशिष्ट' में निरवृत्ति का निम्न पाठ उद्धृत किया हैं निल रवृत्तौ चोक्तम् - भाषायामपि यङ्लुगस्तीति । " 2 ૪૨& पुरुषोत्तमदेव अपने 'ज्ञापक- समुच्चय' में लिखता है -- 'तेन बोभवीति इति सिद्धयतीति नैलू री वृत्तिः ।" न्यासकार और विद्यासागर मुनि के वचनानुसार यह वृत्ति काशिका से प्राचीन है । १५ १. न्यास की भूमिका पृष्ठ ८ २. वृत्ताविति सूत्रार्थप्रधानो ग्रन्थो भट्टनल्पुरप्रभृतिभिर्विरचित...... । २० 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' का सूचीपत्र भाग ३ खण्ड १ A, पृष्ठ ३५०७, ग्रन्थाङ्क २४ε३। हस्तलेख के पाठ में 'नल्पूर' निश्चय ही 'निलू' र ' का भ्रष्ट पाठ है । 'भट्ट' शब्द निलूर का विशेषण हो सकता है, फिर भी हमारा विचार है कि 'भट्ट' सम्भवत: 'चुल्लिभट्ट' के एकदेश ' भट्टि' का भ्रष्ट पाठ है । २५ ३. न्यास की भूमिका पृष्ठ 8 । मुद्रित पाठ 'यङ लुगस्तीति' । सन्धिप्रकरण सूत्र ३३ । ४. राजशाही बंगाल मुद्रित, पृष्ठ ८७ । & Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १०. चूर्णि न्यास के सम्पादक श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य ने श्रीपतिदत्तविरचित 'कातन्त्रपरिशिष्ट' तथा जगदीश भट्टाचार्य कृत 'शब्दशक्तिप्रकाशिका' से चूणि के दो उद्धरण उद्धृत किये हैं५ मतमेतच्चूणिरप्यनुगृह्णाति' ।' 'संयोगावयवव्यञ्जनस्य सजातीयस्यैकस्य वानेकस्योच्चारणाभेद इति चूणिः' ।' ___ जगदीश भट्टाचार्य ने भर्तृहरि के नाम से एक कारिका उद्धृत की है१०. हन्तेः कर्मण्युपष्टम्भात् प्राप्तुमर्थे तु सप्तमीम् । चतुर्थो बाधिकामाहुरचूणिभागुरिवाग्भटाः ॥ इस कारिका में भी चूणि का मत उद्धृत हैं । यह कारिका भर्तृहरिकृत नहीं है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।' इन में 'संयोगावयवध्यञ्जनस्य' उद्धरण का समानार्थक पाठ १५ महाभाष्य में इस प्रकार उपलब्ध होता है 'न व्यञ्जनपरस्यैकस्यानेकस्य वा श्रवणं प्रति विशेषोऽस्ति । सम्भव है कि जगदीश भट्टाचार्य ने महाभाष्य के अभिप्राय को अपने शब्दों में लिखा हो । प्राचीन ग्रन्थकार प्रायः चूर्णि और चूर्णिकार के नाम से महाभाष्य और पतञ्जलि का उल्लेख करते हैं, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। चूणि के पूर्वोद्धृत अन्य मतों का मूल अन्वेषणीय है । हमें इस नाम की अष्टाध्यायी की कोई वृत्ति थी, इस में सन्देह है। १. कातन्त्रपरिशिष्ट णत्वप्रकरण । न्यासभूमिका पृष्ठ ८ । २. शब्दशक्तिप्रकाशिका न्यासभूमिका पृष्ठ । ३. शब्दशक्तिप्रकाशिका पृष्ठ ३८६ । ४. पृष्ठ १०७, टिप्पणी ४ । ५. महाभाष्य ६।४।२२॥ ६. पृष्ठ ३५७, ३५८ । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५०१ ११-१२ जयादित्य और वामन (सं० ६५०-७०० वि०) जयादित्य और वामन विरचित सम्मिलित वृत्ति 'काशिका' नाम से प्रसिद्ध है। सम्प्रति उपलभ्यमान पाणिनीय व्याकरण के ग्रन्थों में महाभाष्य और भर्तृहरिविरचित ग्रन्थों के अनन्तर यही वृत्ति सब से प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है । इस में बहुत से सूत्रों की वृत्ति और उदाहरण प्राचीन वृत्तियों से संगृहीत हैं।' 'काशिका' में अनेक स्थानों पर महाभाष्य का अनुकरण नहीं किया गया, इससे काशिका का गौरव अल्प नहीं होता। क्योंकि ऐसे स्थानों पर ग्रन्थकारों ने प्रायः प्राचीन वत्तियों का अनुसरण किया है। चीनी यात्री इत्सिग ने अपनी भारतयात्रा के वर्णन में जयादित्य को काशिका का रचयिता लिखा है। उसने 'वामन' का निर्दश नहीं किया। संस्कृत वाङमय में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जिन्हें दो-दो व्यक्तियों ने मिलकर लिखा है परन्तु उन को उद्धृत करनेवाले ग्रन्थकार किसी एक व्यक्ति के नाम से ही सम्पूर्ण ग्रन्थ के पाठ उद्धृत करते हैं।' यथा स्कन्द और महेश्वर ने मिलकर निरुक्त की टीका लिखी, परन्तु १५ देवराज ने समग्र ग्रन्थ के उद्धरण स्कन्द के नाम से ही उदधत किये हैं, महेश्वर का कहीं स्मरण भी नहीं किया । सम्भव है कि इसी प्रकार इत्सिग ने भी केवल जयादित्य का नाम लेना पर्याप्त समझा हो। 'भाषावृत्त्यर्थ विवृति' के रचयिता सृष्टिधराचार्य ने भी भाषावृत्ति के अन्तिम श्लोक की व्याख्या में काशिका को जयादित्य विरचित ही २० लिखा है, परन्तु ध्यान रहे कि आठवां अध्याय वामनविरचित है। २५ १ काशिका ४।२।१०० की वृत्ति महाभाष्य से विरुद्ध है। काशिकावृत्ति की पुष्टि चान्द्रसूत्र ३।२।१६ से होती है । अतः दोनों का मूल अष्टाध्यायी की कोई प्राचीत वृत्ति रही होगी। .२ इत्सिग की भारतयात्रा, पृष्ठ २६६ । ३. निरुक्त ७३१ की महेश्वरविरचित टीका को देवराज ने स्कन्द के नाम से उद्धृत किया है। देखो-निघण्टीका, पृष्ठ १६२। इसी प्रकार अन्यत्र भी। ४. काशयति प्रकाशयति सूत्रार्थमिति काशिका, जयादित्यविरचिता वृत्तिः । ८।४६॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास 'काशिका' की सब से प्राचीन व्याख्या जिनेन्द्रबुद्धि विरचित 'काशिका विवरणपञ्जिका' है । वैयाकरण-निकाय में यह 'न्यास' नाम से प्रसिद्ध है । यह व्याख्या जयादित्य और वामन की सम्मिलित वृत्ति पर है । ५०२ जयादित्य और वामन के ग्रन्थ का विभाग पं० बालशास्त्री द्वारा सम्पादित काशिका में प्रथम चार अध्यायों के अन्त में जयादित्य का नाम छपा है, और शेष चार श्रव्यायों के अन्त में वामन का । हरि दीक्षित ने 'प्रौढमनोरमा' की शब्दरत्न व्याख्या में प्रथम द्वितीय पञ्चम तथा षष्ठ अध्याय को जयादित्य१० विरचित, और शेष अध्यायों को वामनकृत लिखा है । प्राचीन ग्रन्थकारों ने जयादित्य और वामन के नाम से काशिका के जो उद्धरण दिये हैं, उन से विदित होता है कि प्रथम पांच अध्याय जयादित्यविरचित हैं, और श्रन्तिम तीन वामनकृत । जयादित्य के नाम से काशिका के उद्धरण निम्न ग्रन्थों में उपलब्ध १५ होते हैं अध्याय १ – भाषावृत्ति पृष्ठ १८, २६ । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ २५२ । भाषावृत्त्यर्थं विवृत्ति के प्रारम्भ में । अध्याय २- भाषावृत्ति पृष्ठ 8 । पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ६५२ । २० अध्याय ३ – पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ६६२ । अमरटीका सर्वस्व भाग ४, पृष्ठ १० । परिभाषावृत्ति सीरदेवकृत, पृष्ठ ८१ । अध्याय ४ – अमरटीका सर्वस्व भाग १, पृष्ठ १३८ । भाषावृत्ति - पृष्ठ २४३, २५४ । , अध्याय ५ – भाषावृत्ति पृष्ठ २६६, ३१०, ३२४, ३२८, ३३५, २५ ३४२, ३५२, ३६२, ३६६ । पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ३८६, ८९१ । अष्टाङ्गहृदय की सर्वाङ्गसुन्दरा टीका, पृष्ठ ३ । ' १. प्रथम द्वितीयपञ्जमषष्ठा जयादित्यकृतवृत्तयः इतरे वामनकृतवृत्तय भक्ताः । भाग १, पृष्ठ ५०४ । २. श्रध्यायनुवाकयोरित्यादी सूत्र विकल्पेन चायं लुगिष्यत इति जगाद - जयादित्यः । ३० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५०३ वामन के नाम से काशिका के उद्धरण अधोलिखित ग्रन्थों में मिलते हैं अध्याय ६-भाषावृत्ति पृष्ठ ४१८, ४२०, ४८२। पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ ४२, ६३२॥ अध्याय ७–सीरदेवकृत परिभाषावृत्ति पृष्ठ ८, २४ । पदमञ्जरी ५ भाग २, पृष्ठ ३८६ । अध्याय ८-भाषावृत्ति पृष्ठ ५४३, ५५६ । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ ६२४ । काशिका की शैली का सूक्ष्म दृष्टि से पर्यवेक्षण करने से भी यही , परिणाम निकलता है कि प्रथम पांच अध्याय जयादित्य की रचना है, १० और अन्तिम तीन अध्याय बामनकृत हैं । जयादित्य की अपेक्षा वामन का लेख अधिक प्रौढ़ है। जयादित्य का काल इत्सिग के लेखानुसार जयादित्य की मृत्यु वि० सं० ७१८ के लगभग हुई थी।' यदि इत्सिंग का लेख और उसकी भारतयात्रा का १५ माना हुआ काल ठीक हो, तो यह जयादित्य की, चरम सीमा होगी। काशिका १।३।२३ में भारवि का एक पद्यांश उद्धृत है। महाराज दुविनीत ने किरात के, १५ वें सर्ग की टीका लिखी थी। दुविनीत का राज्यकाल सं ५३६-५६६ वि० तक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। अतः भारवि सं० ५३६ वि० से पूर्ववर्ती है, यह निश्चय है। २० यह काशिका की पूर्व सीमा है। 10-, वामन का काल संस्कृत वाङ्मय में वामन नाम के अनेक विद्वान् प्रसिद्ध हैं । एक वमिन "विश्रान्तविद्याधर' संज्ञक जने व्याकरण का कर्ता है। दूसरा TRE १. 'इत्सिग की भारतयात्रा, 'पृष्ठ २७० । २. संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः।' तिरात ३॥१४॥ । ३. देखो पूर्व पृष्ठ ४९८ । ४. देखो-पूर्व पृष्ठ ४६१ । ५. वामनो विश्रान्तविद्याधरव्याकरणकर्ता । गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'अलङ्कारशास्त्र' का रचयिता है, और तीसरा 'लिङ्गानुशासन' का निर्माता है। ये सब पृथक्-पृथक व्यक्ति हैं। काशिका का रचयिता वामन इन सब से भिन्न व्यक्ति है । इसमें निम्न हेतु हैं भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तदेव ने काशिका मौर भागवृत्ति के अनेक पाठ साथ-साथ उधत किये हैं। उन की तुलना से व्यक्त होता है कि भागवृत्तिकार स्थान-स्थान पर काशिका का खण्डन करता है । यथा १. साहाय्यमित्यपि ब्राह्मणादित्वादिति जयादित्यः, नेति भागवृत्तिः' ।' २. 'कथमद्यश्वीनो वियोगः ? विजायत इत्यस्यानुवृत्तेरिति १. जयादित्यः । स्त्रीलिङ्गनिर्देशादुपमानस्याप्यसंभवान्नैतदिति भागवृत्तिः ' । ३. 'इह समानस्येति योगविभागः, तेन सपक्षसधर्मसजातीयाः सिद्धयन्तीति वामनवृत्तिः । अनार्षोऽयं योगविभागः, तथााव्ययानाम नेकार्थत्वात् सदृशार्थस्य सहशब्दस्यते प्रयोगाः कथंनाम समानपक्ष १५ इत्यादयोऽपि भवन्तीति भागवृत्तिः' ।' ४. दृशिग्रहणादिह पूरुषो नारक इत्यादावन्ययं दीर्घ इति वामनवृत्तिः। अनेनोत्तरपदे विधानादप्राप्तिरिति पूरुषादयो दीर्घोपदेशा एव संज्ञाशब्दा इति भागवृत्तिः । ___ इन में प्रथम दो उद्धरणों में जयादित्य का, और तृतीय चतुर्थ में वामनवृत्ति का खण्डन है। भागवृत्ति का काल विक्रम संवत् ७०२७०५ तक है. यह हम अनुपद लिखेंगे । तनुसार वामन का काल वि० सं० ७०० से पूर्व मानना होगा। 'अलङ्कारशास्त्र' और 'लिङ्गानुशासन' के प्रणेता वामन का काल विक्रम की नवम शताब्दी । 'विश्रान्तविद्याधर' का कर्ता वामन विक्रम संवत् ३७५ अथवा ५७३ २५ से पूर्वभावी है। यह हम आगे सप्रमाण लिखेंगे। प्रता काशिकाकार २० १. भाषावृत्ति, पृष्ठ ३१०। २. भाषावृत्ति, पृष्ठ ३१४ । ३. भाषावृत्ति, पृष्ठ ४२०। ४. भाषावृत्ति, पृष्ठ ४२७ । ५. कन्हैयालाल पोद्दार कृत 'संस्कृत साहित्य का इतिहास,' भाग १ पृष्ठ १५३ । तथा वामनीय लिङ्गानुशासन की भूमिका । ६. 'पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वें अध्याय में । ३० Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार वामन इन सब से भिन्न व्यक्ति है । उस का काल विक्रम की सप्तम शताब्दी है। कन्नड पञ्चतन्त्र और जयादित्य वामन ५–कन्नडभाषा में दुर्गसिंह कृत एक पञ्चतन्त्र है । उसका मूल वसुभाग भट्ट का पाठ है। उसमें निम्न पाठ है 'गुप्तवंश वसुधाधीशावली राजधानीयन् उज्जैनि-यन्नैदि ....."गुप्तान्वय जलधर मार्ग यभस्ति मालियु, वामन-जयादित्यप्रमुख मुखकमलविनिर्गत सूक्तिमुक्तावली मणी-कुण्डल-मण्डितकर्णन ......"विक्रमाङ्कनं साहसाङ्कम्' ।' इस पाठ में वामन ने जयादित्य को गुप्तवंशीय विक्रम साहसाङ्क १० का समकालिक कहा है। ए. वेङ्कट सुभिया के अनुसार यह दुर्गसिंह ईसा की ११ वों शती का' है । अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् (पाल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस) नागपुर, पृष्ठ १५१ पर के. टी. पाण्डुरंग का मल्लिनाथ कृत टीका पर एक लेख छपा है। इनका मत है कि कन्नड १५ पञ्चतन्त्र का कर्ता दुर्गसिंह 'कातन्त्र वृत्तिकार' दुर्गसिह ही है।' हमारे विचार में यह दुर्गसिंह 'कातन्त्रवृत्तिकार' नहीं हो सकता क्योंकि वह काशिकाकार से प्राचीन है, यह हम कातन्त्र के प्रकरण में सप्रमाण लिखेंगे । हां, यह 'कातन्त्र-दुर्गवृत्ति' का टीकाकार द्वितीय दुर्गसिंह हो सकता है । कातन्त्र पर लिखने वाले दो दुर्गसिंह पृथक्- २० पृथक् हैं । इसका भी हम उसी प्रकरण में प्रतिपादन करेंगे । __ कन्नड पञ्चतन्त्र में जयादित्य और वामन को गुप्तवंशीय विक्रमाङ्क साहसांङ्क का समकालिक कहा है। यह गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय है । पाश्चात्त्य मतानुसार इस का काल वि० सं० ४६७४७० तक माना जाता है। यही विक्रम संवत् का प्रवर्तक है। यदि २५ दुर्जनसन्तोष न्यास से चन्द्रगुप्त द्वितीय का पाश्चात्त्य मतानुसारी १. पाल इडिण्या अोरि० कान्फ्रेंस, मैसूर, दिसम्बर १६३५, मुद्रण सन् १९३७ । २. पं० भगवद्दत्त कृत भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २, पृष्ठ ३२४ के आधार पर। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ " as पञ्चतन्त्र में जयादित्य और वामन के द्वारा कही गई सूक्तिमुक्तावलियों की ओर संकेत है। 'सुभाषितावलि' में जयादित्य और वामन दोनों के सुभाषित संगृहीत हैं । अतः इस अंश में कन्नड पञ्चतन्त्रकार का लेख निश्चय ही प्रामाणिक है । इस आधार पर उस के द्वितीय अंश की प्रामाणिकता में सन्देह करना स्वयं सन्देहास्पद १०% हो जाता है । ५०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काल भी स्वीकार कर लिया जाय, तो भी 'काशिका' का काल विक्र माब्द की चतुर्थ शती का मध्य मानना होगा । यदि कन्नड पञ्चतन्त्र का लेखक प्रमाणान्तर से और परिपुष्ट हो जाए, तो इत्सिंग आदि चीनी यात्रियों के काले तथा वर्णन में भारी संशोधन करना होगा । २५ ३० काशिका और शिशुपालवध माघ - विरचित 'शिशुपालवध' में एक श्लोक हैC "अनुत्सूत्रपदेन्यासा सद्वृत्तिः सन्निबन्धना । शब्दविद्येव नो भाति राजनीतिरपस्पशा ॥' १५ इस श्लोक में 'सद्वृत्ति' पद से काशिका की ओर संकेत है, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है । शिशुपालवध के टीकाकार 'सद्वृत्ति' और 'न्यास' पद से काशिका और जिनेन्द्रबुद्धि विरचित न्यास का संकेत मानते हैं । उसी के आधार पर न्यास के संपादक श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य ने माघ का काल ८०० ई० ( = ८५७ वि०) माना है, वह प्रयुक्त २० है । माघ कवि के पितामह के आश्रयदाता महाराज वर्मलात का सं० ६८२ ( = सन् ६२५) का एक शिलालेख मिला है । " सीरदेव के लेखानुसार भागवृत्तिकार ने माघ के कुछ प्रयोगों को अपशब्द माना है । 'भागवृत्ति की रचना सं० ७०२-७०५ के मध्य हुई है, यह प्रायः ८ २. देखो - न्यास की भूमिका, पृष्ठ २६ । - १. २।११२ ॥ ३. देखो – वसन्तगढ़ का शिलालेख - 'द्विरशीत्यधिके काले षष्णां वर्षशतोत्तरे जगन्मातुरिदं स्थानं स्थापितं गोष्ठपुरं गवैः ॥ ११ ॥ ४ श्रत एव तत्रैव सूत्रे ( १ १/२७ ) भागवृत्तिः - पुरातनमुनेर्मु निताम् ( किरात ६ १६ ) इति पुरातनर्नदी: ( माघ १२ । ६० ) इति च प्रमादपाठावेतो गतानुगतिकतया कवयः प्रयुञ्जते, न तेषां लक्षणं चक्षुः । परिभाषावृत्ति, पृष्ठ १३७ । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अष्टाध्यायी के बुत्तिकार ५०७ निश्चित है । अतः शिशुपालवध को समय सं० ६८२-७०० वि० के मध्य मानना होगा । धातुवृत्तिकार सार्यण के मतानुसार काशिका की रचना शिशुपाल-वध से उत्तरकालीन है। अतः उसके सद्वृत्ति शब्द का संकेत काशिका की ओर नहीं है। ... ... - प्राचीनकाल में 'न्यास' नाम के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे । भर्तृ- ५ 'हरिविर चित 'महाभाष्यदीपिका' में भी एक न्यास उद्धृत है । अतः माघ ने किस न्यास की ओर संकेत किया है, यह अज्ञात है। जयादित्य और वामन की सम्पूर्ण वृत्तियां जिनेन्द्रबुद्धिविरचित 'काशिकाविरणपञ्चिका' जयादित्य और वामन विरचित सम्मिलित वृत्तियों पर है । परन्तु न्यास में जयादित्य १० और वामन के कई ऐसे पाठ उद्धृत हैं, जिनसे विदित होता है कि जयादित्य और वामन दोनों ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर पृथक्पृथक् वृत्तियां रची थीं। न्यास के जिन पाठों से ऐसी प्रतीति होती है, वे अधोलिखित हैं १. 'ग्लाजिस्थश्च (अष्टा० ३।२।१३९) इत्यत्र जयादित्यवृत्तौ १५ ग्रन्थ "। श्रय कः किति (अष्टा० ७।२।११) इत्यत्रापि जयादित्यवृत्तौ . ग्रन्थः-कारोऽप्यत्र चर्वभूतो निर्दिश्यते भूष्णुरित्यत्र यथा स्यादिति । वामनस्य त्वेतत् सर्वमनभिमतम् । तथाहि तस्यैव सूत्रस्य (अष्टा० ७।१।११) तद्विरचितायां वृत्तौ ग्रन्थः केचिदत्र। ___ इन उद्धरण में न्यासकार ने अष्टाध्यायी ७१२।११ सूत्र की जया- . दित्य और वामन विरचित दोनों वृत्तियों का पाठ उद्धृत किया है। ध्यान रहे कि जिनेन्द्रबुद्धि ने सप्तमाध्याय का न्यास वामनवृत्ति पर रचा है। :: न्यासकार ३।११३३ में पुनः लिखता है १. 'क्रमादमु नारद इत्य बोधि सः' इति माघे सकर्मकत्वं वृत्तिकारादीनाम- २५ नभिमतमेव । धातुवृत्ति, पृष्ठ'२६७ काशी संस्करण। ..... २. महाभाष्यदीपिका उद्धरणाङ्क ३६, देखो-पूर्व पृष्ठ ४१५ । --- ३. तुलना करो-न्यास ३।२।१३६॥ ४. न्यास १११॥५॥ पृष्ठ ४७, ४८' Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २. नास्ति विरोधः, भिन्नकर्तृत्वात् । इदं हि जयादित्यवचनम्, तत्पुनर्वामिनस्य । वामनवृत्तौ (३३१।३३) तासिसिचोरिकार उच्चारणार्थो नानुबन्धः पठ्यते। न्यासकार ने इस उद्धरण में अष्टाध्यायी ३॥१॥३३ की वामनवृत्ति ५ का पाठ उद्धृत किया है। ध्यान रहे तृतीयाध्याय का न्यास जयादित्यवृत्ति पर है। आगे पुनः लिखता है३. अनित्यत्वं तु प्रतिपादयिष्यते (प्र. ६।४।२२) जयादित्येन ।' ४. न्यासकार ३।११७८ पर भी जयादित्य विरचित ६।४।२३ की १० वृत्ति उद्धृत करता है। ____ इन से व्यक्त होता है कि जयादित्य को वृत्ति षष्ठाध्याय पर भी थी। ५. हरदत्तविरचित पदमञ्जरी ६।१।१३ (पृष्ठ ४२८) से विदित होता. है कि वामन ने चतुर्थ अध्याय पर वृत्ति लिखी थी। न्यासकार और हरदत्त के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जयादित्य और वामन दोनों ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर पृथक-पृथक् वृत्तियां रची थी, और न्यासकार तथा हरदत्त के काल तक वे सुप्राण्य थीं। जयादित्य और वामन की वृत्तियों का सम्मिश्रण हम पूर्व लिख चुके हैं कि वर्तमान में काशिका का जो संस्करण मिलता है, उसमें प्रथम पांच अध्याय जयादित्य विरचित हैं, और अन्तिम तीन अध्याय वामनकृत । जिनेन्द्रबुद्धि ने अपनी न्यासव्याख्या दोनों की सम्मिलित वृत्ति पर रची है। दोनों वृत्तियों का सम्मिश्रण क्यों और कब हुआ, यह अज्ञात है। 'भाषावृत्ति' आदि में 'भागवृत्ति' २५ के जो उद्धरण उपलब्ध होते हैं, उन में जयादित्य और वामन की २. न्यास ३।१।३३ पृष्ठ ५२४ । २. न्यास ३॥१॥३३॥ पृष्ठ ५२४ । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार . ५०६ संमिश्रित वृत्तियों का खण्डन उपलब्ध होता है ।' अतः यह सम्मिश्रण भागवृत्ति बनने (वि० सं० ७००) से पूर्व हो चुका था, यह निश्चित है। काशिका का रचना-स्थान काशिका के व्याख्याता हरदत्त मिश्र और रामदेव मिश्र ने लिखा ५ 'काशिका देशतोऽभिधानम्, काशीषु भवा' ।' अर्थात् 'काशिका वृत्ति' की रचना काशी में हुई थी। उज्जवल दत्त और भाषावृत्त्यर्थविवृत्तिकार सृष्टिधर का भी यही मत है । काशिका के नामान्तर काशिका के लिये एकवृत्ति और प्राचीनवृत्ति शब्दों का व्यवहार मिलता है । एकवृत्ति नाम का कारण-काशिका की प्रतिद्वन्द्विनी 'भागवृत्ति' नाम की एक वृत्ति थी (इसका अनुपद ही वर्णन किया जायगा)। उस में पाणिनीय सूत्रों को लौकिक और वैदिक दो विभागों में बांट १५ कर भागशः व्याख्या की गई थी । काशिका में पाणिनीय क्रमानुसार लौकिक वैदिक सूत्रों की यथास्थान व्याख्या की गई है। इसलिए भागवृत्ति की प्रतिद्वन्द्विता में 'काशिका' के लिए एकवृत्ति शब्द का व्यवहार होता है। १. देखो-हमारा 'भागवृत्ति संकलन' पृष्ठ २१, २३, २४ इत्यादि, २० लाहौर संस्करण। २, पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ ४ । तथा वृत्तिप्रदीप के प्रारम्भ में । ३. उणादिवृत्ति पृष्ठ १७३ ॥ ४. भाषावृत्तिटीका ८।२।६७॥ ५. अनार्ष इत्येकवृत्तावुपयुक्तम् । भाषावृत्ति १।१।१६॥ ६. गोयीचन्द्र लिखता है- प्रत एव भाषाभागे भागवृत्तिकृत्..." शे २५ इति सूत्र छन्दो भागः । विशेष द्र०-ओरियण्टल कान्फ्रेंस वाराणसी सन् १९४३-४४ के लेख-संग्रह में एस. पी. भट्टाचार्य का लेख। ७. एकवृत्तौ साधारणवृत्ती वैदिक लौकिके च विवरणे इत्यर्थः । एकवृत्ताविति काशिकायां वृत्तावित्यर्थः । सृष्टिघर । भाषावृत्ति पृष्ठ ५, टि० ८ । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काशिका-वृत्ति का महत्त्व काशिका-वृत्ति व्याकरणशास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस में निम्न विशेषताएं हैं १–काशिका से प्राचीन कुणि आदि वृत्तियों में गणपाठ नहीं ५ था।' इसमें गणपाठ का यथास्थान सन्निवेश है। २-काशिका की प्राचीन विलुप्त वृत्तियों और ग्रन्थकारों के अनेक मत इस ग्रन्थ में उद्धृत हैं, जिनका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। ३-इसमें अनेक सत्रों की व्याख्या प्राचीन वत्तियों के आधार १० पर लिखी है । अतः उनसे प्राचीन वृत्तियों के सूत्रार्थ जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है। ___ काशिका में जहां-जहां महाभाष्य से विरोध है, वहां-वहां काशिकाकार का लेख प्रायः प्राचीन वृत्तियों के अनुसार है । आधुनिक वैयाकरण महाभाष्यविरुद्ध होने से उन्हें हेय समझते हैं, यह उनकी १५ महती भूल है। ४-काशिकान्तर्गत उदारण-प्रत्युदाहरण प्रायः प्राचीन वृत्तियों के अनुसार हैं। जिन से अनेक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान होता है। ५–यह ग्रन्थ साम्प्रदायिक प्रभाव से भी मुक्त है । सारे ग्रन्थ में २० केवल २-३ उदाहरण ही ऐसे है, जिन्हें कथंचित् साम्प्रदायिक कहा जा सकता है। १. वृत्त्यन्तरेषु सूत्राण्येव व्याख्यायन्ते .....वृत्त्यन्तरेषु तु गणपाठ एव नास्ति । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ ४।। २. देखो-ओरियण्टल कालेज मेगजीन लाहौर नवम्बर १९३६ में हमारा महाभाष्य से प्राचीन अष्टाध्यायी की सूत्रवृत्तियों का स्वरूप' लेख । ३, अपचितपरिमाणः शृगाल: किखी । अप्रसिद्धोदाहरणं चिरन्तन प्रयोगात् । पदमञ्जरी २।१।५।। मुद्रित काशिका में सदृशं सख्या ससखि' पाठ है। वहां 'सदृशं किख्या सकिखि' पाठ होना चाहिए । पुनः लिखा है-अवत. प्तेनकुलस्थितं तवैतदिति चिरन्तनप्रयोगः, सस्यार्थमाह' पदमञ्जरी २१॥४७॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वत्तिकार ५११ भट्टोजि दीक्षित आदि ने जहां अपने ग्रन्थों में नये-नये उदाहरण देकर प्राचोन ऐतिहासिक निर्देशों को लोप कर दिया, वहां साथ ही साम्प्रदायिक उदाहरणों का बाहुल्येन निर्देश कर के पाणिनीय शास्त्र को भी साम्प्रदायिक रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की। काशिका का पाठ ___ काशिका के जितने संस्करण इस समय उपलब्ध है, वे सब महा अशुद्ध हैं । इतने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रामाणिक परिशुद्ध संस्करण का प्रकाशित न होना अत्यन्त दुख की बात है।' काशिका में पाठों की . अव्यवस्था प्राचीन काल से ही रही है । न्यासकार काशिका ११११५ की व्याख्या में लिखता है*." "अन् तूलरसूत्रे कणिताश्वो रणिताश्व इत्यनन्तरमनेन ग्रन्थेन भवितव्यम्, इह तु दुविन्यस्तकाकपदजनितभ्रान्तिभिः कुलेखकैलिखितमिति वर्णयन्ति'।' न्यास और पदमञ्जरी में काशिका के अनेक पाठान्तर उद्धृत किये हैं। काशिका का इस समय जो पाठ उपलब्ध होता है, वह १५ अत्यन्त भ्रष्ट है। ६।१।१७४ के प्रत्युदाहरण का पाठ इस प्रकार छपा है'हल्पूर्वादिति किम् बहुनावा ब्राह्मण्या' । इसका शुद्ध पाठ 'बाहुतितवा ब्राह्मण्या' है । काशिका में ऐसे पाठ भरे पड़े हैं । इस वृत्ति के महत्त्व को देखते हुए इसके शुद्ध संस्करण २० की महती आवश्यकता है। नवीन संस्करण-'उस्मानिया विश्वविद्यालय' हैदराबाद की 'संस्कृत परिषद्' द्वारा अनेक हस्तलेखों के आधार पर काशिका का .एक नया संस्करण छपा है। यह अपेक्षाकृत पूर्व संस्करणों से उत्तम है । तथापि सम्पादकों के वैयाकरण न होने से इस में भी बहुत स्थानों २५ पर अपपाठ विद्यमान हैं। जिस विषय के ग्रन्थ का सम्पादन करना हो, १. अभी कुछ वर्ष पूर्व 'उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद' से इसका एक नया संस्करण प्रकाशित हुआ है। उसके सम्बन्ध में आगे देखें । २. न्यास भाग १, पाठ ४६ । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र झा इतिहास उसमें यदि यथावत् गति न हो, तो ग्रन्थ कभी शुद्ध सम्पादित नहीं हो सकता । इसी प्रकार पाश्चात्त्य सम्पादन कला से अनभिज्ञ तद्विषयक विद्वान् भी यथावत् सम्पादन नहीं कर सकता । सम्पादन- कार्य के लिये दोनों बातों का सामञ्जस्य होना चाहिये । काशिका के पाठशोधन का प्रथम प्रयास - श्री बहिन प्रज्ञाकुमारी प्राचार्या 'जिज्ञासु स्मारक पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी ने 'विद्यावारिधि (पीएच डी ) की उपाधि के लिए 'काशिकायाः समीक्षात्मकम् श्रध्ययनम्' शोध-प्रबन्ध में काशिकावृत्ति के बहुतर पपाठों के संशोधन करने का प्रथमवार स्तुत्य प्रयास किया है। १० यह शोध प्रबन्ध अभी तक अप्रकाशित है । काशिकावृत्ति पर शोध-प्रबन्ध १५ काशिकावृत्ति पर अनेक व्यक्तियों ने शोध-प्रबन्ध लिखे हैं । कुछ का काशिका से सीधा सम्बन्ध है, कुछ परम्परा से । इन में जो हमें उपलब्ध हुए हैं वे इस प्रकार हैं १ - काशिकायाः समीक्षात्मकमध्ययनम् - डा० श्री प्रज्ञाकुमारी लेखनकाल सन् १६६६, प्रमुद्रित । २ - काशिका का अलोचनात्मक अध्ययन-डा० रघुवीरा वेदालंकार । सन् १९७७, मुद्रित । ३ - काशिकावृत्तिवैयाकरणसिद्धान्तकौमुदयोः तुलनात्मकमध्य२० यनम् - डा० महेशदत्त शर्मा | सन् १९७४ मुद्रित । ४ - न्यास पर्यालोचन - डा० भीमसेन शास्त्री । सन् १६७६, मुद्रित । ५ - पदमञ्जर्या पर्यालोचनम् - तीर्थराज त्रिपाठी । १९८१ मुद्रित । ६ - चन्द्रवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम् - डा० हर्षनाथ मिश्र । २५ सन् १६७४, मुद्रित । इनमें से प्रथम तीन ग्रन्थों का काशिका के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध हैं । संख्या ४-५ का काशिका की व्याख्या न्यास और पदमञ्जरी के साथ, तथा संख्या ६ का परोक्षरूप से सम्बन्ध है । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार काशिका के व्याख्याकार जयादित्य और वामन विरचित काशिकावृत्ति पर अनेक वैयाकरणों ने व्याख्याएं लिखी हैं। उनका वर्णन हम अगले अध्याय में करेंगे । ६५ ५१३ १३. भागवृत्तिकार (सं० ७०२-७०६ वि० ) अष्टाध्यायी की वृत्तियों में काशिका के अनन्तर 'भागवृत्ति' का स्थान है । यह वृत्ति इस समय अनुपलब्ध है । इसके लगभग दो सौ उद्धरण पदमञ्जरी भाषावृत्ति, दुर्घटवृत्ति और अमरटीका सर्वस्व आदि विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। पुरुषोत्तमदेव की भाषा- १० वृत्ति के अन्तिम श्लोक से ज्ञात होता है कि यह वृत्ति काशिका के समान प्रामाणिक मानी जाती थी।' बड़ोदा से प्रकाशित कवीन्द्राचार्य' के सूचीपत्र में 'भागवृत्ति' का नाम मिलता है । भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ और सिद्धान्तकौमुदी में भागवृत्ति के अनेक उद्धरण दिये हैं। इससे प्रतीत होता हैं कि १५ विक्रम की १६ वीं १७ वीं शताब्दी तक भागवृत्ति के हस्तलेख सुप्राप्य थे । भागवृत्ति का रचयिता 'भागवृत्ति' के व्याख्याता 'सृष्टिधर चक्रवर्ती' ने लिखा है १. काशिकाभागवृत्त्योश्चत् सिद्धान्तं बोद्धुमस्ति धीः । तदा विचिन्त्यतां भ्रातर्भाषावृत्तिरियं मम ॥ ३. देखो – पृष्ठ ३ । ४. सिद्धान्त कौमुदी पृष्ठ ३६६, काशी चौखम्बा, मूल संस्करण । २० २. कवीन्द्राचार्य काशी का रहनेवाला था। इसकी जन्मभूमि गोदावरी तट का कोई ग्राम था । यह परम्परागत ॠग्वेदी ब्राह्मण था । इसने वेदवेदाङ्गों का सम्यग् अभ्यास करके संन्यास ग्रहण किया था । इसने काशी और प्रयाग को मुसलमानों के जजिया कर से मुक्त कराया था । देखो - कवीन्द्राचार्य विरचित 'कवीन्द्रकल्पद्रुम,' इण्डिया अफिस लन्दन का सूचीपत्र, पृष्ठ ३६४७ । कन्द्राचार्य का समय लगभग वि० सं० १६५०-१७५० तक है । २५ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'भागवृत्तिभर्तृहरिणा श्रीधरसेननरेन्द्रादिष्टा विरचिता' ।' ___ इस उद्धरण से विदित होता है कि वलभी के राजा श्रीधरसेन की आज्ञा से भर्तृहरि ने भागवृत्ति की रचना की थी। 'कातन्त्रपरिशिष्ट' का रचयिता श्रीपतिदत्त सन्धिसूत्र १४२ पर ५ लिखता है 'तथा च भागवत्तिकृता विमलमतिनाप्येवं निपातितः।' इस से प्रतीत होता है कि भागवृत्ति के रचयिता का नाम 'विमलमति' था। पं० गुरुपद हालदार ने सृष्टिघर के वचन को अप्रामाणिक माना १० है । परन्तु हमारा विचार है कि सृष्टिधराचार्य और श्रीपतिदत्त दोनों के लेख ठीक हैं, इन में परस्पर विरोध नहीं है । यथा कविसमाज में अनेक कवियों का कालिदास औपाधिक नाम है, उसी प्रकार वैयाकरणनिकाय में अनेक उत्कृष्ट वैयाकरणों का भर्तृहरि औपाधिक नाम रहा है। विमलमति ग्रन्थकार का मुख्य नाम है, और १५ भर्तृहरि उस की औपाधिक संज्ञा है । भटि के कर्ता का भर्तृहरि औपाधिक नाम था। यह हम पूर्व पृष्ठ ३६६ पर लिख चुके हैं । विमलमति बौद्ध सम्प्रदाय का प्रसिद्ध व्यक्ति है। एस. पी. भट्टाचार्य का विचार है कि भागवत्ति का रचयिता सम्भवतः इन्दु था। हमारे मत में यह विचार चिन्त्य है । भागवृत्ति का काल सृष्टिधराचार्य ने लिखा है कि 'भागवृत्ति' की रचना महाराज श्रीधरसेन की आज्ञा से हुई थी । वलभी के राजकुल में श्रीधरसेन नाम के चार राजा हुए हैं, जिनका राज्यकाल सं० ५५७-७०५ वि० तक माना जाता है । इस ‘भागवृत्ति' में स्थान-स्थान पर काशिका का खण्डन उपलब्ध होता है । इस से स्पष्ट है कि 'भागवृत्ति' की रचना काशिका के अनन्तर हुई है । काशिका का निर्माणकाल लगभग सं० १. भाषावृत्त्यर्थविवृति ८११६७॥ २. पाल इण्डिया प्रोरियन्टल कान्फ्रेंस १९४३॥१६४४ (बनारस) में भागवृत्ति-विषयक लेख। ३. भागवृत्ति-संकलन ५॥१३२५॥२॥१३॥ ६।३।१४।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५१५ ६५०-७०० वि० तक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । चतुर्थ श्रीधरसेन का राज्यकाल सं० ७०२-७०५ तक है । अतः भागवृत्ति का निर्माण चतुर्थ श्रीधरसेन की प्राज्ञा से हुप्रा होगा। ___ न्यास के सम्मादक ने भागवृत्ति का काल सन् ६२५ ई० (सं० ६८२ वि०), और काशिका का सन् ६५० ई० (=सं० ७०७ वि०) ५ माना है,' अर्थात् भागवृत्ति का निर्माण काशिका से पूर्व स्वीकार किया है, वह ठीक नहीं है। इसी प्रकार श्री पं० गुरुपद हालदार ने भागवृत्ति की रचना नवम शताब्दी में मानी है, वह भी अशुद्ध है। वस्तुतः भागवृत्ति की रचना वि० सं० ७०२-७०५ के मध्य हुई है, यह पूर्व विवेचना से स्पष्ट है ।। ___ काशिका और भागवृत्ति हम पूर्व लिख चुके हैं कि 'भागवृत्ति' में काशिका का स्थानस्थान पर खण्डन उपलब्ध होता है। दोनों वृत्तियों में परस्पर महान् अन्तर है । इस का प्रधान कारण यह है कि काशिकाकार महाभाष्य को एकान्त प्रमाण न मानकर अनेक स्थानों में प्राचीन वृत्तिकारों के १५ मतानुसार व्याख्या करता है। अतः उसकी वृत्ति में अनेक स्थानों में महाभाष्य से विरोध उपलब्ध होता है। भागवृत्तिकार महाभाष्य को पूर्णतया प्रमाण मानता है। इस कारण वह वैयाकरण-सम्प्रदाय में अप्रसिद्ध शब्दों की कल्पना करने से भी नहीं चूकता।' __ भागवृत्ति के उद्धरण भागवृत्ति के १९८ उद्धरण अभी तक हमें ३७ ग्रन्थों में उपलब्ध हुए हैं । इन में २४ ग्रन्थ मुद्रित, ६ ग्रन्थ अमुद्रित, तथा ४ लेखसंग्रह, हस्तलेख, सूचीपत्रादि हैं । वे इस प्रकार हैं मुद्रित ग्रन्थ १. महाभाष्यप्रदीप-कैयट २. महाभाष्यप्रदीपोद्योत-नागेश २५ १. न्यास-भूमिका, पृष्ठ २६ । • २. 'लोलूय+सन्' इस अवस्था में भागवृत्ति 'लुलोलूयिषति' रूप मानता है। वह लिखता है- 'प्रनभ्यासग्रहणस्य न तु किञ्चित् प्रयोजनमुक्तम् । तत. श्चोत्तरार्थमपि तन्न भवतीति भाष्यकारस्याभिप्रायो लक्ष्यते। तेनात्र भवितव्यं द्विवंचनेन । पदमञ्जरी ६।१।६, पृष्ठ ४२६ पर उद्धृत । २० ३ . Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास ५१६ ३. पदमञ्जरी - हरदत्त ४. भाषावृत्ति - पुरुषोत्तमदेव ५. दुर्घटवृत्ति-शरणदेव ६. दैव- पुरुषकारोपेत ५ ७. परिभाषावृत्ति सीरदेव ८. परिभाषावृत्ति - पुरुषोत्तमदेव ६. उणादिवृत्ति - श्वेतवनवासी १०. उणादिवृत्ति - उज्ज्वलदत्त ११. धातुवृत्ति-सायण १५. व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि - विश्वेश्वर सूरि १६. संक्षिप्तसार - जुमरनन्दीवृत्ति १७. संक्षिप्तसार टीका १८. कातन्त्र परिशिष्ट- श्रीपतिदत्त १६. हरिनामामृतव्याकरण २०. नानार्थार्णवसंक्षेप - केशव २१. अमरटीका सर्वस्व - सर्वानन्द २२. हेतुविन्दुटी कालोक - दुर्वेक मिश्र १० १२. ज्ञापकसमुच्चय- पुरुषोत्तमदेव २३. शब्दशक्तिप्रकाशिका १३. सिद्धान्तकौमुदी - भट्टोजिदीक्षित २४. व्याकरणदर्शने रितिहास - १४. प्रक्रियाकौमुदी - सटीक गुरुपदहालदार हस्तलिखित ग्रन्थ २५. तन्त्रप्रदीप - मैत्रेय रक्षित ३०. संक्षिप्तसार परिशिष्ट १५ २६. अमरटीका - प्रज्ञातकर्तृक ३१. कातन्त्रप्रदीपव्याख्या- पुण्डरीक २७. अमरटीका-रायमुकुट विद्यासागर ३२. तत्त्वचन्द्रिका गर्दासिंह ३३. भाषावृत्त्यर्थविवृति-सृष्टिधराचार्य सहायक ग्रन्थ २० ३४. ओरियण्टल कान्फ्रेंस बनारस - लेख संग्रह ३५. इण्डिया ग्राफिस लन्दन हस्तलेख सूचीपत्र ३६. मद्रास राजकीय हस्तलेख सूचीपत्र ३७. मद्रास ओरियण्टल रिसर्च जर्नल । २८. शब्दसाम्राज्य २९. चर्करीतरहस्य भागवृत्ति को उद्धृत करनेवाले ग्रन्थों में सब से प्राचीन कैयट - २५ विरचित महाभाष्यप्रदीप है। भागवृत्ति के उद्धरणों का संकलन हमने प्रथमवार १२ मुद्रित ग्रन्थों से भागवृत्ति के उद्धरणों का संकलन करके 'भागवृत्ति संकलनम्' नाम से उनका संग्रह लाहौर की Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार 'ओरियण्टल पत्रिका' में प्रकाशित किया था । इसका परिबृंहित संस्करण संवत् २०१० वि० में सरस्वती भवन काशी की 'सारस्वती सुषमा' में प्रकाशित किया था । इसका पुनः परिबृंहित संस्करण हमने वि० सं० २०२१ में पुन: प्रकाशित किया है । भागवृत्ति व्याख्याता — श्रीधर ५१७ कृष्ण लीलाशुक मुनि ने 'दैवम्' ग्रन्थ की 'पुरुषकार' नाम्नी व्याख्या लिखी है । उसमें भागवृत्ति का उद्धरण देकर कृष्ण लीलाशुक मुनि लिखता है - 'भागवृत्तौ तु सोकृसेकृ इत्यधिकमपि पठ्यते । तच्च सीकृ सेचने इति श्रीधरो व्याकरोत् एतानष्टौ वर्जयित्वा इति चाधिक्यमेवमुक्त- १० कण्ठमुक्तवान्' ।" इस उद्धरण से व्यक्त होता है कि श्रीधर ने भागवृत्ति की व्याख्या लिखी थी । कृष्ण लीलाशुक मुनि ने श्रीधर के नाम से दो वचन और उद्धृत किये हैं । देखो - 'दैवं - पुरुषकार' पृष्ठ १४, ६० । माघवीया धातुवृत्ति में श्रीकर अथवा श्रीकार नाम से इसका निर्देश १५ मिलता है। धातुवृत्ति के जितने संस्करण प्रकाशित हुए हैं, वे सव अत्यन्त भ्रष्ट हैं । हमें श्रीकार वा श्रीकर श्रीधर नाम के ही अपभ्रंश प्रतीत होते हैं । श्रीधर नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए हैं । भागवृत्ति की व्याख्या किस श्रीधर ने रची, यह अज्ञात है । काल - कृष्ण लीलाशुक मुनि लगभग १३ वीं शताब्दी का ग्रन्थकार है । अत: उसके द्वारा उद्धृत ग्रन्थकार निश्चय ही उससे प्राचीन है । हमारा विचार है कि श्रीधर मैत्रेयरक्षित से प्राचीन है । इसका आधार 'पुरुषकार' पृष्ठ ६० में निर्दिष्ट श्रीधर और मैत्रेय दोनों के उद्धरणों की तुलना में निहित है । १. सन १९४० में 3 २. दैवम् - पुरुषकार, पृष्ठ १४, ३. देखो - हमारा संस्करण । २० २५ १५ हमारा संस्करण | ४. नृतिनन्दीति वाक्ये नाघृवर्जं नृत्यादीन् पठित्वैतान् सप्त वजत्वेति वदन् श्रीकरोऽप्यत्रैवानुकूलः । धातुवृत्ति पृष्ठ १८ । तुलना करो - ' तथा च श्रीधरो नृत्यागेन नृत्यादीन् पटित्वा एतान् सप्त वर्जयित्वा इत्याह । दैवम् ६० ॥ ३० यहां धातुवृत्ति में उद्धृत श्रीकर निश्चय ही भागवृत्ति- टीकाकार श्रीधर है । 1 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ संस्कृत व्याकरण का इतिहास भागवृत्ति जैसा प्रामाणिक ग्रन्थ और उसकी टीका दोनों ही इस समय अप्राप्य हैं । यह पाणिनीय व्याकरण के विशेष अनुशीलन के लिये दुःख का विषय है। ५ १४. भीश्वर (सं० ७८० वि० से पूर्ववर्ती) . वर्धमान सूरि अपने 'गणरत्नमहोदधि' में लिखता है'भर्बीश्वरेणापि वारणार्थानामित्यत्र पुल्लिङ्ग एव प्रयुक्तः।" अर्थात्-भीश्वर ने अष्टाध्यायी के 'वारणार्थानामोप्सितः' सूत्र की व्याख्या में 'प्रेमन्' शब्द का पुल्लिङ्ग में प्रयोग किया है। इस उद्धरण से विदित होता है कि भर्तीश्वर ने अष्टाध्यायी को कोई व्याख्या लिखी थी। भीश्वर का काल भट्ट कुमारिल प्रणीत 'मीमांसाश्लोकवार्तिक' पर भट्ट उम्बेक की व्याख्या प्रकाशित हुई है । उस में उम्बेक लिखता है_ 'तथा चाहुर्भ/श्वरादयः किं हि नित्यं प्रमाणं दृष्टम्, प्रत्यक्षादि वा यदनित्यं तस्य प्रामाण्ये कस्य विप्रतिपत्तिः, इति । ____ इस उद्धरण से ज्ञात होता है कि भ?श्वर भट्ट उम्बेक से पूर्ववर्ती है, और वह बौद्धमतानुयायी है। उम्बेक और भवभूति का ऐक्य २. भवभूतिप्रणीत 'मालतीमाधव' के एक हस्तलेख के अन्त में ग्रन्य कर्ता का नाम 'उम्बेक लिखा है, और उसे भट्ट कुमारिल का शिष्य कहा है। भवभूति 'उत्तरामचरित' और 'मालतीमाधव' को प्रस्तावना में अपने लिये पदवाक्यप्रमाणज्ञ' पद का व्यवहार करता है । पद. वाक्यप्रमाणज्ञ पद का अर्थ पदव्याकरण, वाक्य =मोमांसा, और प्रमाण=न्यायशास्त्र का ज्ञाता है। इस विशेषण से भवभूति का मीमांसकत्व व्यक्त है। दोनों के ऐक्य का उपोद्बलक एक प्रमाण और १. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २१६ । २. १.४१२७॥ ३. देखो-पृष्ठ ३८ । ४. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ३८६ । २५ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५१६ है-उम्बेकप्रणीत ‘श्लोकवातिकटीका' और 'मालतीमाधव' दोनों के प्रारम्भ में 'ये नाम केचित् प्रथयन्त्यवज्ञाम्' श्लोक समानरूप से उपलब्ध होता है। अतः उम्बेक और भवभूति दोनों एक व्यक्ति हैं। मीमांसक-सम्प्रदाय में उसकी 'उम्बेक' नाम से प्रसिद्धि है, और कविसम्प्रदाय में 'भवभूति' नाम से । मालतीमाधव में भवभूति ने अपने ५ गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' लिखा है। क्या ज्ञाननिधि भट्ट कुमारिल का नामान्तर था ? उम्बेक भट्ट कुमारिल का शिष्य हो वा न हो. परन्तु श्लोकवातिकटीका, मालतीमाधव और उत्तररामचरित के अन्तरङ्ग साक्ष्यों से सिद्ध है कि उम्बेक और भवभूति दोनों नाम एक व्यक्ति के हैं। पं० सीताराम जयराम जोशी ने अपने संस्कृत साहित्य १० के संक्षिप्त इनिहास में उम्बेक को भवभूति का नामान्तर लिखा है। परन्तु मीमांसक उम्बेक को उससे भिन्न लिखा है, यह ठीक नहीं। भवभूति का मीमांसक होना 'पदवाक्यप्रमाणज्ञ' विशेषण से विस्पष्ट है। __ महाकवि भवभूति महाराज यशोवर्मा का सभ्य था । इस कारण १५ भवभूति का काल सं०७८०-८०० वि० के लगभग माना जाता है।' प्रतः भवभूति के द्वारा स्मृत भीश्वर सं० ७८० से पूर्ववर्ती हैं । कितना पूर्ववर्ती है, यह अज्ञात है। भवभूति का व्याकरण-ग्रन्थ-दुर्घटवृत्ति ७।२।११७ में 'ज्योतिष शास्त्रम्' में वृद्धयभाव के लिए भवभूति का एक वचन उद्धृत है। २० उससे विदित होता है कि भवभूति ने कोई व्याकरण ग्रन्थ भी लिखा था। अथवा दुर्घटवृत्तिकार ने भवभूति के किसी अज्ञातग्रन्थ से यह उद्धरण दिया हो। २५ . १५. भट्ट जयन्त (सं० ८२५ वि० के लगभग) न्यायमञ्जरीकार जरन्नैयायिक भट्ट जयन्त ने पाणिनीय अष्टा १. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ३८६ । ___२. संस्कृत कविचर्चा, पृष्ठ ३१३; संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ३८६ । ३. उच्यते-संज्ञापूर्वकानित्यत्वादिति भवभूति: । पृष्ठ ११५। ४. माचार्य-पुष्पाञ्जलि वाल्यूम में पं० रामकृष्ण कवि का लेख, पृष्ठ ४७ । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास घ्यायी पर एक वत्ति लिखी थी। इसका उल्लेख जयन्त स्वयं अपने अभिनवागमाडम्बर' नामक रूपक के प्रारम्भ में किया है । उसका लेख इस प्रकार है 'अत्रभवतः शैशव एव व्याकरणविवरणकरणाद् वृत्तिकार इति ५ प्रथितापरनाम्नो भट्टजयन्तस्य कृति रभिनवागमाडम्बरनाम किमपि रूपकम् ।' परिचय भट्ट जयन्त ने न्यायमञ्जरी के अन्त में जो परिचय दिया है, उस से विदित होता है कि जयन्त के पिता का नाम 'चन्द्र' था। शास्त्रार्थों १० में जोतने के कारण वह 'जयन्त' नाम से प्रसिद्ध हुना, और इसका 'नववतिकार' नाम भी था।' जयन्त के पुत्र 'अभिनन्द' ने 'कादम्बरीकथासार' के प्रारम्भ में अपने कुल का कुछ परिचय दिया है। वह इस प्रकार है 'गोड़वंशीय भारद्वाज कुल में 'शक्ति' नाम का विद्वान् उत्पन्न १५ हुप्रा । उसका पुत्र 'मित्र', और उसका 'शक्तिस्वामो' हुा । शक्ति स्वामी कर्कोट वंश के महाराजा 'मुक्तापीड' का मन्त्री था । शक्तिस्वामी का पुत्र 'कल्याणस्वामी', और उसका 'चन्द्र' हुा । चन्द्र का पुत्र 'जयन्त' हा। उसका दूसरा नाम 'वृत्तिकार' था। वह 'वेद वेदाङ्गों का ज्ञाता, और सर्व शास्त्रार्थों का जीतनेवाला था। उसका २१ पुत्र साहित्यतत्त्वज्ञ 'अभिनन्द' हया। १. भट्टः चतुःशाखाभिज्ञः।' जगद्वर मालतीमावर की टीका के प्रारम्भ में। २. वादेवाप्तजयो जयन्त इति यः ख्यातः सतामग्रगी-रन्वर्थो नववृत्तिकार इति यं शंसन्ति नाम्ना बुधाः सूनुाप्तदिगन्तरस्य यशसा चन्द्रस्य चन्द्र त्विषा, चक्रे चन्द्रकलावचूलचरणाव्यायी सघन्यां कृतिम् ।। पृष्ठ ६५६ । ३. शक्ति मामवद् गौडो भारद्धाजकुले द्विजः । दीर्वाभिसारमासाद्य कृतदारपरिग्रहः । तस्य मित्राभिधानोऽभूदात्मनस्तेजमां निधिः। जनेन दोषोपरमप्रबुद्धेनाचितोदयः । स शक्तिस्वामिनं पुत्रमवार श्रुतिशालिनम् । राज्ञः कर्कोटवंशस्य मुक्तापीडस्य मन्त्रिणम् ।। कल्याणस्वामिनामास्य याज्ञवल्क्य इवाभवत् । तनयः शद्धयोगद्धि-निर्धूतभवकल्मषः ॥ अगाधहृदयात् तस्मात परमेश्वरमण्ड, ३० यम् । अजायत सुत: कान्तश्चन्द्रो दुग्धोदघेरिव ॥ पुत्रं कृतजन नन्दं स जयन्त Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ac अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५२१ भट्ट जयन्त नैयायिकों में जरन्नयायिक के नाम से प्रसिद्ध है।' यह व्याकरण, साहित्य, न्याय, और मीमांसाशास्त्र' का महापण्डित था। इसके पितामह कल्याणस्वामी ने ग्राम की कामना से सांग्रहणीष्टि की थी। उसके अनन्तर उन्हें 'गौरमूलक' ग्राम की प्राप्ति हुई थी।' काल जयन्त का प्रपितामह शक्तिस्वाभी कश्मीर के महाराजा मुक्तापीड का मन्त्री था। मुक्तापीड का काल विक्रम की आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। अतः भट्ट जयन्त का काल किक्रम की नवम शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये। अन्य ग्रन्थ न्यायमञ्जरी-यह न्यायदर्शन के विशेष सूत्रों की विस्तृत टीका है । इसका लेख अत्यन्त प्रौढ और रचनाशैली अत्यन्त परिष्कृत तथा प्राञ्जल हैं । न्याय के ग्रन्थों में इसका प्रमुख स्थान है। न्यायकलिका-गुणरत्न ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' की वृत्ति में इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । यह ग्रन्थ न्यायशास्त्र-विषयक है। १५ सरस्वती भवन काशी से प्रकाशित हो चुका है। पल्लव-डा० वी० राघवन् एम. ए. ने लिखा कि श्रीदेव ने स्याद्वादरत्नाकर की 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार' टीका में जयन्तविरचित 'पल्लव' ग्रन्थ के कई उद्धरण दिये हैं । डा० वी० राघवन् के मतानुसार पल्लव न्यायशास्त्र का कारिकामय ग्रन्थ था। २० मजीजनत् । व्यक्ता कवित्ववक्तृत्वफला यत्र सरस्वती ॥ वृत्तिकार इति व्यक्त द्वितीयं नाम बिभ्रतः । वेदवेदाङ्गविदुषः सर्वशास्त्रार्थवादिनः ॥ जयन्तनाम्नः सुधियः साधुसाहित्यतत्त्ववित् । सूनुः समभवत्तस्मादभिनन्द इति श्रुतः ॥ १. न्यायचिन्तामणि, उपमान खण्ड, पृष्ठ ६१, कलकत्ता सोसाइटी सं। २५ २. वेदप्रामाण्यसिद्धयर्थमित्त्यमेताः कथाः कृताः । न तु मीमांसकख्याति प्राप्तोऽस्मीत्यभिमानतः ॥ न्यायमञ्जरी, पृष्ठ २६०। ___३. तथा ह्यस्मत्पितामह एव ग्रामकामः सांग्रहणीं कृतवान्, स इष्टिसमाप्तिसमनन्तरमेव गौरमूलकं ग्राममवाप । न्यायमञ्जरी, पृष्ठ २७४ । ४. स्याद्वादरत्नाकर भाग १, पृष्ठ ६४, ३०२, तथा भाग ४, पृष्ठ ७८०। देखो-प्रेमी अभिनन्दनग्रन्थ में डा० राधवन् का लेख पृष्ठ ४३२, ४३३ । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १६. श्रुतपाल (सं० ८७० वि० से पूर्व) श्रुतपाल के व्याकरण-विषयक अनेक मत भाषावृत्ति, ललितपरिभाषा, कातन्त्रवृत्तिटीका, और जैन शाकटायन की अमोघावृत्ति में उपलब्ध होते हैं। यह हम पूर्व लिख चुके हैं। उनके अवलोकन से विदित होता है कि श्रुतपाल ने पाणिनीय शास्त्र पर कोई वृत्ति लिखी थी। काल श्रुतपाल के उद्धरण जिन ग्रन्थों में उद्धत हुए हैं, उनमें अमोघावृत्ति सबसे प्राचीन है । अमोघाकार पाल्यकीति का काल सं० ८७११० ८२४ वि० के आसपास है । यह हम आगे 'प्राचार्य पाणिनि से अर्वा चीन वैयाकरण' नामक १७ वें अध्याय में लिखेंगे। १७. केशव (सं० ११६५ वि० से पूर्व) केशव नाम के किसी वैयाकरण ने अष्टाध्यायी की एक वृत्ति १५ लिखी थी। केशववृत्ति के अनेक उद्धरण व्याकरण-ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। पुरुषोत्तमदेव भाषावृत्ति में लिखता है 'पृषोदरादित्वादिकारलोपे एकदेशविकारद्वारेण पर्षच्छब्दादपि वलजिति केशवः । 'केशववृत्तौ तु विकल्प उक्तः-हे प्रान्, हे प्राण वा' ।'' २० भाषावृत्ति का व्याख्याता सृष्टिधराचार्य केशववृत्ति का एक श्लोक उद्धृत करता है अपास्पाः पदमध्येऽपि न चैकस्मिन् पुना रविः । तस्माद्रोरीति सूत्रेऽस्मिन् पदस्येति न बध्यते ॥ २५ १, देखो-पूर्व पृष्ठ ४३०, टि० ४, ५, ६ तथा पृ० ४३१ की टि०१। २. ५।२।११२।। ३. ८४॥२०॥ ४. भाषावृत्ति, पृष्ठ ५४४ की टिप्पणी। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५२३ पं० गुरुपद हालदार के अपने व्याकरण दर्शनेर इतिहास में लिखा है___'अष्टाध्यायीर केशववृत्तिकार केशव पण्डित इहार प्रवक्ता । भाषावृत्तिते (०२।११२) पुरुषोत्तमदेव, तन्त्रप्रदीपे (१।२।६; १॥ ४।५५) मैत्रेयरक्षित, एवं हरिनामामृतव्याकरणे (५०० पृष्ठ) श्री ५ जीवगोस्वामी केशवपण्डितेर नामस्मरण करियाछेन' ।' ___ इन उद्धरणों से केशव का अष्टाध्यायी की वृत्ति लिखना सुव्यक्त है। देश-केशव की वृत्ति के जितने उद्धरण उपलब्ध हैं, वे सभी वंगदेशीय ग्रन्थकारों के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । अतः सम्भावना यही १० है कि केशव भी वंगदेशीय हो । केशव का काल केशव नाम के अनेक ग्रन्थकार हैं। उनमें से किस केशव ने अष्टाध्यायी की वृत्ति लिखी, यह अज्ञात है। पं० गुरुपद हालदार के लेख से विदित होता है कि यह वैयाकरण केशव मैत्रेयरक्षित से प्राचीन १५ है। मैत्रेयरक्षित का काल सं० ११६५ वि० के लगभग है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । अतः केशव वि० सं० ११६५ से पूर्ववर्ती है, इतना पं० गुरुपद हालदार के उद्धृत वचनानुसार निश्चित है। १८. इन्दुमित्र (सं० ११५० वि० से पूर्व) विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की प्रसादनाम्नी टीका में 'इन्दुमित्र' और 'इन्दुमती वृत्ति का बहुधा उल्लेख किया है । इन्दुमित्र ने काशिका की 'अनुन्यास' नाम्नी एक व्याख्या लिखी थी। इसका वर्णन हम अगले 'काशिका वत्ति के व्याख्याकार' नामक १५ वें अध्याय में करेंगे । यद्यपि इन्दुमित्रविरचित अष्टाध्यायीवृत्ति के कोई साक्षात् २५ उद्धरण उपलब्ध नहीं हए, तथापि विट्ठल द्वारा उद्धत उद्धरणों को देखने से प्रतीत होता है कि 'इन्दुमती वृत्ति' अष्टाध्यायी की वृत्ति थी, और इसका रचयिता इन्दुमित्र था । यथा१. देखो-पृष्ठ ४५३ । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४२४। ३. भाग १, पृष्ठ ६१०, ६८६ । भाग २, पृष्ठ १४५ । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास " एतच्च इन्दुमित्रमतेनोक्तम् । प्रत्यय इति सूत्रे प्रत्याय्यते त्रायतेऽ र्थोऽस्मादिति प्रत्ययः । 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण' इति घान्तस्य प्रत्ययशब्दस्यान्वर्थस्य निषेधो ज्ञापक इति भावः । तथा च इन्दुमत्यां वृत्तावुक्तम्- 'प्रतेस्तु व्यञ्जनव्यवहितो य इति भवति निमित्तम्' इति केषाञ्चिन्मते प्रतेरपि भवति" ।" ५ १० ५२४ अनेक ग्रन्थकार इन्दुमित्र को इन्दु नाम से स्मरण करते हैं. । एक इन्दु अमरकोष की क्षीरस्वामी की व्याख्या में भो उदधृत है । परन्तु वह वाग्भट्ट का साक्षात् शिष्य आयुर्वेदिक ग्रन्थकार पृथक् व्यक्ति है। काल सीरदेव ने अपनी परिभाषावृत्ति में अनुन्यासकार और मैत्रेय के निम्न पाठ उद्धृत किये हैं । 'अनुन्यासकार - ' प्रत्ययसूत्रे अनुन्यासकार उक्तवान् प्रतियन्त्यनेनार्थानिति प्रत्यय:, एरच् ( ३|३|५६ ) इत्यच् पुंसि संज्ञायां घः १५ प्रायेण ( ३ | ३|११८) इति वा घ इति । ' i मैत्रेय - 'मैत्रेयः पुनराह - पुंसि संज्ञायां ( ३।३।११८) इति घ एव । एरच् ( ३।३।५९ ) इत्यच् प्रत्ययस्तु करणे ल्युटा बाधितत्वान्न शक्यते कर्त्तम् न च वा सरूपविधिरस्ति, कृ ग्ल्युडित्यादिवचनात्' ।' यद्यपि विट्ठल द्वारा ऊपर उद्धृत अंश प्रतुन्यासकार 'उद्धृत वचन से पर्याप्त मिलता है, तथापि इन्दुमत्यां वृत्तौ और अनुन्यासकार रूप नामभेद से अष्टाध्यायी की वृत्ति और अनुन्यास दोनों ग्रन्थों की रचना इन्दुमित्र ने की थी, यह मानना ही उचित है । के नाम २० से पूर्वोद्धृत अनुन्यासकार और मैत्रेय दोनों के पाठों की पारस्परिक तुलना से स्पष्ट विदित होता है कि मैत्रेयरक्षित अनुन्यासकार २५ का खण्डन कर रहा है । अतः इन्दुमित्र मैत्रेयरक्षित से पूर्वभावी है । इन्दुमित्र के ग्रन्थ की 'अनुन्यास' संज्ञा से विदित होता है कि यह ग्रन्थ न्यास के अनन्तर रचा गया है । अतः इन्दुमित्र का काल वि० सं० १. प्रक्रिया कौमुदी, प्रसाद टीका भाग २, पृष्ठ १४५ । २. पृष्ठ ७६ । शरणदेव ने इन उपर्युक्त दोनों पाठों को अपने शब्दों में ३० उद्धृत किया है । देखो - दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ ६७ । 1 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५२५ ८०० से ११५० के मध्य है, इतना ही स्थूल रूप से कहा जा सकता १६. मैत्रेयरक्षित (सं० ११६५ वि० के लगभग) मैत्रेयरक्षित ने अष्टाध्यायी की एक 'दुर्घटवृत्ति' लिखी थी। वह ५ इस समय अनुपलब्ध है। उज्ज्वलदत्त ने अपनी उणादिवृत्ति में मैत्रेयरक्षित विरचित 'दुर्घटवृत्ति' के निम्न पाठ उद्धृत किये हैं 'श्रीयमित्यपि भवतीति दुर्घटे रक्षितः।' ‘कृदिकारादिति डोषि लक्ष्मीत्यपि भवतीति दुर्घटे रक्षितः' ।' मैत्रेयरक्षितविरचित 'दुर्घटवृत्ति' के इनके अतिरिक्त अन्य उद्धरण १० हमें उपलब्ध नहीं हुए। शरणदेव ने भी एक 'दुर्घटवृत्ति' लिखी है। सर्वरक्षित ने उसका संक्षेप और परिष्कार किया है । रक्षित शब्द से सर्वरक्षित का ग्रहण हो सकता है, परन्तु सर्वरक्षित द्वारा परिष्कृत दुर्घटवृत्ति में उपर्युक्त पाठ उपलब्ध नहीं होते । उज्ज्वलदत्त ने अन्य जितने उद्धरण रक्षित १५ के नाम से उद्धृत किये हैं, वे सब मैत्रेयरक्षितविरचित ग्रन्थों के हैं। अतः उज्ज्वलदत्तोद्धृत दुर्घटवृत्ति के उपर्युक्त उद्धरण भी निश्चय ही मैत्रेयरक्षितविरचित दुर्घटवृत्ति से ही लिये गये हैं, यह स्पष्ट है। मैत्रेयरक्षितविरचित 'दुर्घटवृत्ति' के विषय में हमें इससे अधिक ज्ञान नहीं है। मैत्रेयरक्षित का आनुमानिक काल लगभग वि० संवत् ११६५ २० है, यह हम पूर्व पृष्ठ ४२४ पर लिख चुके हैं । . २०. पुरुषोत्तमदेव (सं० १००० वि० से पूर्व) पुरुषोत्तमदेव ने अष्टाध्यायी की एक लघुत्ति रची है। काशिका वृत्ति से लघु होने से इसका नाम लघुवृत्ति है। इस नाम का उल्लेख २५ ग्रन्थकार ने स्वयं प्रादि में किया है। ' इसमें अष्टाध्यायी के केवल लौकिक सूत्रों की व्याख्या है। प्रत एव इसका दूसरा अन्वर्थ नाम 'भाषावृत्ति' भी है । प्रायः ग्रन्थकार १. द्र०-पृष्ठ ८०। २. द्र०—पृष्ठ १४१। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पुरुषोत्तमदेव की लघुवृत्ति के उद्धरण भाषावृत्ति के नाम से उदधृत करते हैं इस ग्रन्य में अनेक ऐसे प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण उपलब्ध होते हैं, जो सम्प्रति अप्राप्य हैं। पुरुषोत्तमदेव के काल आदि के विषय में हम पूर्व 'महाभाष्य के ५ टीकाकार' प्रकरण में लिख चुके हैं ।' दुर्घट-वृत्ति सर्वानन्द 'अमरकोषटीकासर्वस्व' में लिखता है'पुरुषोत्तमदेवेन गुर्विणीत्यस्य दुर्घटेऽसाधुत्वमुक्तम्' ।' इस पाठ से प्रतीत होता है कि पुरुषोत्तमदेव ने कोई 'दुर्घटवृत्ति' १० भी रची थी। शरणदेव ने अपनी दुर्घटवत्ति में 'गविणी' पद का साधुत्व दर्शाया है। सर्वानन्द ने टीकासवस्व वि० १२१६ में लिखा था। शरणदेवीय दुर्घटवृत्ति का रचना-काल वि० सं० १२३० है।' अतः सर्वानन्द के उद्धरण में 'पुरुषोत्तमदेवेन' पाठ अनवधानता-मूलक नहीं हो सकता । शरणदेव ने दुर्घटवृत्ति में पुरुषोत्तमदेव के नाम से १५ अनेक ऐसे पाठ उद्धृत किये हैं, जो भाषावृत्ति में उपलब्ध नहीं होते। शरणदेव ने उन पाठो को पुरुषोत्तमदेव की दुर्घटवृत्ति अथवा अन्य ग्रन्थों से उद्धृत किया होगा। भाषावृत्ति-व्याख्याता-सृष्टिधर सृष्टिधर चक्रवर्ती ने भाषावृत्ति की 'भाषावृत्त्यर्थविवृति' नाम्नी २० एक टीका लिखी है। यह व्याख्या बालकों के लिये उपयोगी है। लेखक ने कई स्थानों पर उपहासास्पद अशुद्धियां भी की हैं। चक्रवर्ती उपाधि से व्यक्त होता है कि सृष्टिधर वङ्ग प्रान्त का रहनेवाला था। ___ काल-सृष्टिधर ने ग्रन्थ ने प्राद्यन्त में अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न ग्रन्थ के निर्माणकाल का उल्लेख किया है । अतः १५ सष्टिधर का निश्चित काल अजात है । सृष्टिधर ने भाषावत्यर्थविवृत्ति में निम्न ग्रन्थों और ग्रन्थकारों को उद्धृत किया है मेदिनी कोष, सरस्वतीकण्ठाभरण (८।२।१३), मैत्रेयरक्षित केशव, केशववृत्ति, उदात्तराघव, कातन्त्र परिशिष्ट (८।२।१६), धर्म. १. देखो - पूर्व पृष्ठ ४२८-४३१ । २. भाग २, पृष्ठ २७७ । ३० ३. देखो-आगे पृष्ठ ५२७,५२८,४८४ । ४. दुर्घटवृत्ति पृष्ठ १६,२७,७१। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५२७ कीर्ति रूपावतारकृत, उपाध्यायसर्वस्व, हट्टचन्द्र (८।२।२९) कैयट भाष्यटीका (प्रदीप), कविरहस्य (७।२।४३), मुरारि, अनर्घराघव (३३२।२६), कालिदास, भारवि भट्टि, माघ, श्रीहर्ष नैषधचरितकार, वल्लभाचार्य माघकाव्यटीकाकार (३।२।११२), क्रमदीश्वर (५।१। ७८), पद्मनाभ, मंजूषा (२४१४३)।' ___ इन में मञ्जूषा के अतिरिक्त कोई ग्रन्थ अथवा ग्रन्थकार विक्रम की १४ वीं शताब्दी से अर्वाचीन नहीं है। यह मञ्जूषा नागोजी भट्ट विरचित लघमञ्जषा नहीं है। नागोजी भट्ट का काल विक्रम की अठारहवीं शताब्दी का मध्य भाग है । भाषावृत्ति के सम्पादक ने शकाब्द १६३१ और १६३६ अर्थात् वि० सं० १७६६ और १७७१ के १० भाषावृत्त्यर्थविवति के दो हस्तलेखों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि भाषावृत्त्यर्थविवृति की रचना नागोजी भट्ट से पहले हुई है। हमारा विचार है कि सृष्टिधर विक्रम की १५ वीं शताब्दी का ग्रन्थकार है। २१. शरणदेव (सं० १२३० वि०) शरणदेव ने अष्टाध्यायी पर 'दुर्घट' नाम्नी वृत्ति लिखी है। यह व्याख्या अष्टाध्यायी के विशेष सूत्रों पर है । संस्कृतभाषा के जो पद व्याकरण से साधारणतया सिद्ध नहीं होते, उन पदों के साधत्वज्ञापन के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है । अतः एव ग्रन्थकार ने इसका अन्व- २० र्थनाम 'दुर्घटवृत्ति' रक्खा हैं। ग्रन्थकार ने मङ्गलश्लोक में 'सर्वज्ञ' अपरनाम बुद्ध को नमस्कार १. भाषावृत्ति की भूमिका पृष्ठ १० । २. भाषावृत्त्यर्थविवृत्ति में उद्धृत मेदिनीकोष का काल विकम की १४ वीं शताब्दी माना जाता है, यह ठीक नहीं है । उणादिवृत्तिकार उज्ज्वलदत्त २५ वि० सं० १२५० से पूर्ववर्ती है, यह हम 'उणादि के वत्तिकार' प्रकरण में लिखेंग । उज्ज्वजदत्त ने उणादिवृत्ति १३१०१, पृष्ठ ३६ पर मेदिनीकार को उद्धृत किया है। ___३. देखो-पूर्व पृष्ठ ४६८.४६६ । ४. भाषावृत्ति की भूमिका, पृष्ठ १० की टिप्पणी। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास किया है, तथा बौद्ध ग्रन्थों के अनेक प्रयोगों का साधुत्व दर्शाया है । इससे प्रतीत होता है कि शरणदेव बौद्धमतावलम्बी था। काल-शरणदेव ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'दुर्घटवृत्ति' की रचना का समय शकाब्द १०६५ लिखा है । अर्थात् वि० सं० १२३० में यह ५ ग्रन्थ लिखा गया। प्रतिसंस्कर्ता-'दुर्घटवृत्ति के प्रारम्भ में लिखा है कि शरणदेव के कहने से श्रीसर्वरक्षित ने इस ग्रन्य का संक्षेप करके इसे प्रतिसंस्कृत किया। ग्रन्थ का वैशिष्टय-संस्कृत वाङ्मय के प्राचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त १. शतशः दुःसाध्य प्रयोगों के साधुत्वनिदर्शन के लिये इस ग्रन्थ की रचना हुई है। प्राचीन काल में इस प्रकार के अनेक ग्रन्थ थे । मैत्रेयरक्षित और पुरुषोत्तमदेव विरचित दो दुघटवृत्तियों का वर्णन हम पूर्व कर चुके हैं। सम्प्रति केवल शरणदेवीय दुर्घटवृत्ति उपलब्ध होती है। यद्यपि शब्दकौस्तुभ आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में कहीं-कहीं दुर्घटवृत्ति का १५ खण्डन उपलब्ध होता है, तथापि कृच्छसाध्य प्रयोगों के साधत्व दर्शाने के लिए इस ग्रन्थ में जिस शैली का आश्रय लिया है, उसका प्रायः अनुसरण अर्वाचीन ग्रन्थकार भी करते हैं । अतः 'गच्छतः स्खलनं क्वापि' न्याय से इसके वैशिष्टय में किञ्चन्मात्र न्यूनता नहीं पाती। इस ग्रन्थ में एक महान् वैशिष्टय और भी है। ग्रन्थकार ने इस २० ग्रन्थ में अनेक प्राचीन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के वचन उद्धत किये हैं। इन में अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकार ऐसे हैं, जिनका उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ-निर्माण का काल लिवकर महान् उपकार किया है। इसके द्वारा अनेक ग्रन्यों और ग्रन्थकारों के कालनिणय में महती सहायता मिलती है। १. नत्वा शरणदेवेन सर्वज्ञं ज्ञानहेतवे । वृहद्भदृजनाम्भोजकोशवीकासभास्वते ॥ २. शाकमहीपतिवत्सरमाने एकनभोनवपञ्चविमाने । दुर्घटवृत्तिरकारि मुदेव कण्ठविभूषणहारलतेव ।। ३. वाक्याच्छरणदेवस्य च्छायावग्रहपीडया । श्रीसर्वरक्षितेनैषा संक्षिप्य ३० प्रतिसंस्कृता॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार २२. अप्पन नैनार्य (सं० १५२०- १५७० वि० ) अप्पन नैनार्य ने पाणिनीयाष्टक पर 'प्रक्रिया - दीपिका' नाम्नी वृत्ति लिखी है । ग्रन्थकार का दूसरा नाम वैष्णवदास था । प्रक्रियादीपिका का एक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' में विद्यमान है। देखो - सूचीपत्र भाग ३ खण्ड १ A, पृष्ठ ३६०१, ५ ग्रन्थाङ्क २५४१ । इसके आद्यन्त में निम्न पाठ है ६७ आदि में - श्रप्पननैनार्येण वेङ्कटाचार्यसूनुना । प्रक्रियादीपिका सेयं कृता वात्स्येन धीमता ।। ५२६ अन्त में - श्रीमद्वात्स्यान्वयपयः पारावारसुधाकरेण वादिमत्तेभकण्ठ रिपुकण्ठलुण्टाकेन श्रीमद्वेङ्कटार्थपादकमलचञ्चरीकेण श्रीमत्पर- १० वादिमतभयङ्करमुक्ताफलेन प्रप्पननैनार्याभिधश्रीवैष्णवदासेन कृता प्रक्रियादीपिका समाप्ता । इस लेख से स्पष्ट है कि अप्पन नैनार्य के पिता का नाम वेङ्कटार्य था, और वात्स्य गोत्र था । काल – हमारे मित्र श्री पं० पद्मनाभ राव ने १०-११-१९६३ के १५ पत्र में लिखा है 'प्रांध्र प्रदेश में वैयाकरणरूप से विख्यात 'नैनार्य' पदाभिधेय एक ही है । यह नैनार्य = नयनार्य अप्पन = प्रप्पण अप्पल = प्रपळ नाम से प्रसिद्ध है । यह विजयनगर के महाराजा कृष्णदेवराय सार्वभौम (सं० १५६६- १५८६ राज्यकाल ) के अष्ट दिग्गज पण्डितों में २० श्रन्यतम तेनालि रामलिङ्ग महाकवि का व्याकरणगुरु है । यह रामलिङ्ग ने 'पाण्डुरङ्ग विजयभु' नामक महाकाव्य के आदि में लिखा है । अप्पलाचार्य का वैयाकरणत्व 'अपशब्दभयं नास्ति अप्पलाचार्य सन्निधौ' से सुस्पष्ट है ।' = इस निर्देश से सुव्यक्त है कि प्रप्पन नैनार्य का काल सं० १५२० २५ १५७० वि० के मध्य होना चाहिये । ग्रन्थ का 'प्रक्रिया -दीपिका' नाम होने से सन्देह होता है कि यह - ग्रन्थ हो, अथवा 'प्रक्रिया - कौमुदी' की टीका हो । प्रक्रिया - Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २३. अन्नम्भट्ट (सं० १५५०-१६०० वि०) महामहोपाध्याय अन्नम्भट्ट ने अष्टाध्यायी पर 'पाणिनीयमिताक्षरा' नाम्नी वृत्ति रची है । यह वृत्ति चौखम्बा संस्कृत सीरिज काशी से १० खण्डों में प्रकाशित हो चुकी है। यह वृत्ति साधारण है। ५ अन्नम्भट्ट के विषय में 'महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार' प्रकरण में हम पूर्व (पृष्ठ ४६०-४६१) लिख चुके है। अन्नम्भट्ट ने 'पाणिनीय मिताक्षरा' वृत्ति प्रदीपोद्योतन से पूर्व लिखी थी। द्र० महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि, उपोद्घात, भाग १, पृष्ठ _xvii । हमारे संग्रह में विद्यमान 'पाणिनीय-मिताक्षरा' नष्ट हो गई १. है । अतः हम को विवश होकर 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' उपो द्धात के लेखक श्री एम. एस. नरसिंहाचार्य के लेख पर अवलम्बित रहना पड़ रहा है। २४. भट्टोजि दीक्षित (सं० १५७०-१६५० वि० के मध्य) १५ भट्टोजि दीक्षित ने अष्टाध्यायी की 'शब्दकौस्तुभ' नाम्नो महती . वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति इस समय समग्र उपलब्ध नहीं होतो, केवल प्रारम्भ में ढाई अध्याय और चतुर्थ अध्याय उपलब्ध होते हैं । 'शब्दकौस्तुभ' के प्रथमाध्याय के प्रथमपाद में प्रायः पतञ्जलि कैयट और हरदत्त के ग्रन्थों का दीक्षित ने अपने शब्दों में संग्रह किया है। यह भाग अधिक विस्तार से लिखा गया है, अगले भाग में संक्षेप से काम लिया है। परिचय वंश–भट्टोजि दीक्षित महाराष्ट्रिय ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम लक्ष्मीधर और लघु भ्राता का नाम रङ्गोजि भट्ट था। इनका ३० वंशवृक्ष इस प्रकार है Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ५३१ __ लक्ष्मीधर भट्टोजि दीक्षित रङ्गोजिभट्ट कौण्डमभट्ट भानुजि दीक्षित वीरेश्वर हरि दीक्षित प्रौढ़ मनोरमा का एक हस्तलेख भण्डारकर प्राच्यविद्याशोध-प्रतिष्ठान पूना के संग्रह में विद्यमान है उसके अन्त में लिखा है इति श्रीवेदान्तप्रतिपादिताद्वैतसिद्धान्तस्थापनाचार्यलक्ष्मीधरपुत्रभट्टोजि ....."मनोरमायां कृदन्तप्रक्रिया समाप्ता।' गुरु-पण्डितराज जगन्नानाथ-कृत प्रौढमनोरमाखण्डन से प्रतीत ५ होता है कि भट्टोजि दीक्षित ने नृसिंहपुत्र शेष कृष्ण से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था। भट्टोजि दीक्षित ने भी शब्दकौस्तुभ में प्रक्रियाप्रकाशकार शेष कृष्ण के लिये गुरु शब्द का व्यवहार किया है। तत्त्वकौस्तुभ में भट्टोजि दीक्षित ने अप्पय्य दीक्षित को नमस्कार किया है। काल भट्टोजि दीक्षित जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थकार का काल भी कितना विवादास्पद है, इस का परिज्ञान कराने के लिये हम कतिपय इतिहासविद् माने जाने वाले विद्वानों के मत नीचे लिखते हैं । हम इन १. द्र०-व्याकरणविषयक सूचीपत्र (सन् १९३८) संख्या १३२, १५ ३३१/१८६५-१६०२ । २. 'इह केचित् (भट्टोजिदीक्षिताः) शेषवंशावतंसानां श्रीकृष्णपण्डितानां चिरायाचिंतयोः पादुकयोः प्रसादादासादितशब्दानुशासनास्तेषु च पारमेश्वरपदं प्रयातेषु तत्रभवद्भिल्लासितं प्रक्रियाप्रकाशं ...."दूषणः स्वनिर्मितायां मनोरमागमाकुल्यमकार्ष:।' चौखम्बा संस्कृत सीरिज काशी से सं० १९९१ में . पुस्तक प्राकार में प्रकाशित प्रौढमनोरमा भाग ३ के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ १ ।। ३. तदेतत् सकलमभिधाय प्रक्रियाप्रकाशे गुरुचरणैरुक्तम् । पृष्ठ १४५ । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्यक्तियों द्वारा खीस्ताब्द में लिखे गये काल को वैक्रमाब्द में बदल कर नीचे दे रहे हैं १. डा० वेल्वेल्कर-संवत् १६५७-१७०७ वि.।' २. डा० तालात्तीर-संवत् १५७५-१६२५ वि० ।' ३. डा० राव-संवत् १५७०-१६३५ वि० ।' ४. कीथ-विक्रम की १७ वीं शती में प्रादुर्भाव ।। ५. विण्टरनिटज-सं० १६२५ में प्रादुर्भाव । ६. डॉ० एस० पी० चतुर्वेदी-सं० १६०० में प्रादुर्भाव ।। ७-डा० पी० वी० काणे-सं० १५८०-१६३० वि०।" ये मत हम ने ब्र. धर्मवीर लिखित 'फिटसूत्राष्टाध्यायोः स्वरशास्त्राणां तुलनात्मकमध्ययनम्' शीर्षक शोध-प्रबन्ध (पृष्ठ ४०-४१, टाइप कापी) से उद्धृत किये हैं । हम इन लेखकों के मूलग्रन्थ नहीं देख सके । ___ कालनिर्णय का प्रयास-'लन्दन के इण्डिया आफिस के पुस्तकालय' १५ में विठ्ठलविरचित प्रक्रियाप्रसादनाम्नी टीका का एक हस्तलेख संगहीत है। उसके अन्त में लेखन काल सं० १५३६ लिखा है। यह प्रक्रियाप्रसाद की प्रतिलिपि का काल है। ग्रन्थ की रचना विठ्ठल ने इस से पूर्व की होगो । विट्ठल ने व्याकरण का अध्ययन शेष कृष्ण-सूनु वीरेश्वर अपरनाम रामेश्वर से किया था ।" विट्ठल के अध्ययन-काल में १. सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ४६, ४७ । २. कर्नाटक हिस्ट्री रिव्यू, सन् १९३७ । ३. पृष्ठ ३४६, एज आफ भट्टोजि दीक्षित, सन् १९३९ । ४. हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, सन् १९२८, पृष्ठ ४३० । ५. हिस्ट्री माफ दी इण्डियन लिटरेचर, भाग ३. पृष्ठ ३६४ । ६. मैसूर आफ कान्फ्रेंस प्रेसिडिंग्स, सन् १९३५, पृष्ठ ७४२ । ७. हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र, खण्ड १, पृष्ठ ७१६-७१७ । ८. सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ६७ ग्रन्याङ्क ६१६ । ६. संवत् १५३६ वर्ष माघ वदी एकादशी रवी श्रीमदानन्दपुरस्थानोत्तमे प्राभ्यन्तरनागरजातीयपण्डितअनन्तसुतपण्डितनारायणादीनां पठनार्थं कुठारीव्य. ३० वगाहितसुतेन विश्वरूपेण लिखितम् । १०. 'तमर्भकं कृष्णगुरोर्नमामि रामेश्वराचार्यगुरु गुणाब्धिम् ।' प्रक्रियाकौमुदीप्रसादान्ते । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३: अष्टाध्यायी के वृत्तिकार शेषकृष्ण का स्वर्गवास हो गया था, इसमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है । यह अधिक सम्भव है कि विट्ठल ने शेष कृष्ण को जीवित रहते हुए भी किन्हीं कारणों से वीरेश्वर से अध्ययन किया हो। हमारा विचार है कि शेष कृष्ण वृद्वावस्था में काशीवास के लिये काशी चले गये हों वहीं भट्टोज दीक्षित ने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया हो । ५ इसके साथ ही यह भी सम्भव है कि शेष कृष्ण चिरजीवी रहे हों, र उनके अन्तिम काल में भट्टोज दीक्षित ने शिष्यत्व ग्रहण किया हो । यह बात प्रमाणान्तर से परिपुष्ट हो जाये, तो भट्टोजि दीक्षित का काल वि० सं० १५७० से १६५० के मध्य उपपन्न हो सकता है, और कालविषयक कई विसंगतियां दूर हो सकती हैं। उपर्युक्त १० लेखकों में संख्या २, ३ र ७ द्वारा निर्दिष्ट काल हमारे द्वारा निश्चित काल के प्रत्यन्त समीप है । अन्य व्याकरण-ग्रन्थ दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ के अतिरिक्त 'सिद्धान्तकौमुदी' और उस की व्याख्या' प्रोढमनोरमा' लिखी है। इनका वर्णन आगे 'पाणिनीय- १५ व्याकरण के प्रक्रिया- ग्रन्थकार' नामक १६ वें अध्याय में किया जायगा । भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ को सिद्धान्तकौमुदी से पूर्व रचा था । वह उत्तर कृदन्त के अन्त में लिखता है - इत्थं लौकिकशब्दानां दिङ्मात्रमिह दर्शितम् । विस्तरस्तु यथाशास्त्रं दशितः शब्दकौस्तुभे ॥ इससे यह भी व्यक्त होता है कि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ ग्रन्थ सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर रचा था । 'तो लोपः " सूत्र की प्रौढमनोरमा और उसकी शब्दरत्न व्याख्या से इतना स्पष्ट है कि शब्दकौस्तुभ षष्ठाध्याय तक अवश्य लिखा गया था । " २० २५ आश्चर्य इस बात का है कि भट्टोज दीक्षित जिस सिद्धान्तकौमुदी के लिये दिङ्मात्रमिहदशितम लिख रहा है वही ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का प्रमुख ग्रन्थ बन गया और यथा- शास्त्र लिखित अष्टाध्यायी के वृत्तिग्रन्थ पीछे पड़ गये । १. अष्टा० ६|४|५८॥ २. विस्तरः शब्दकौस्तुभे बोध्यः । ३० Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ अन्य ग्रन्थ-भट्ठोजि दीक्षित ने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखें हैं।' दीक्षित का एक 'वेदभाष्यसार' नामक ग्रन्थ 'भारतीय. विद्याभवन बम्बई से प्रकाशित हआ है । यह ऋग्वेद के प्रथम अध्याय पर है, और यह सायणीय ऋग्भाष्य का संक्षेप है। दीक्षित लिखित अमरटीका का एक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय-हस्तलेख संग्रह' में है। द्र०-सूचोपत्र भाग ४, खण्ड १, B. पृष्ठ ५०७५, संख्या ३४११ । शब्दकौस्तुभ के टीकाकार आफेक्ट के बृहत्सूचीपत्र में शब्दकौस्तुभ के प्रथम पाद के छ: टीकाकारों का उल्लेख मिलता है। उनके नाम निम्नलिखित हैं१. नागेश - विषमपदी २. वैद्यनाथ पायगुण्ड - प्रभा ३. विद्यानाथ शुक्ल - उद्योत ४. राघवेन्द्राचार्य - प्रभा ५. कृष्णमित्र - भावप्रदीप ६. भास्करदीक्षित - शब्दकौस्तुभदूषण नागेश और वैद्यनाथ पायगुण्ड के विषय में हम पूर्व लिख चुके कृष्णमित्र का दूसरा नाम कृष्णाचार्य था। इसके पिता का नाम रामसेवक, और पितामह का नाम देवीदत्त था। रामसेवक कृत 'महाभाष्य-प्रदीपव्याख्या का उल्लेख हम पूर्व कर च के हैं। कृष्णमित्र ने सिद्धान्तकौमुदी की 'रत्नार्णव' नाम्नी टीका लिखी है। इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जायगा । कृष्णाचार्यकृत युक्तिरत्नाकर, वादचडामणि और वादसुधाकर नाम के तीन ग्रन्थ जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में विद्यमान हैं । देखो -सूचीपत्र पृष्ठ २५ ४५,४६ । शेष टीकाकारों के विषय में हमें कुछ ज्ञान नहीं है। १. वेदभाष्यसार की अंग्रेजी भूमिका पृष्ठ १, टि०३ में दीक्षित कृत ३४ ग्रन्थों का उल्लेख है। उन में एक 'धातुपाठ-निर्णय' ग्रन्थ भी है । २. द्र०—पूर्व पृष्ठ ४६७-४६६ । ३. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४६३ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५३५ कौस्तुभखण्डनकर्ता-पण्डितराज जगन्नाथ पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रौढमनोरमा-खण्डन 'मनोरमाकुचमर्दन' में लिखा है 'इत्थं च प्रोत् सूत्रगतकौस्तुभग्रन्थः सर्वोप्यसंगत इति ध्येयम् । अधिकं कौस्तुभखण्डनादवसेयम् ।' इससे स्पष्ट है कि जगन्नाथ ने शब्दकौस्तुभ के खण्डन में कोई ग्रन्थ लिखा था। यह ग्रन्थ सम्प्रति अनुपलब्ध है। भट्टोजि से विग्रह का कारण-पण्डितराज जगन्नाथ का भट्टोजि दोक्षित के साथ अहिनकुलवैर के समान जो सहज वैर उत्पन्न हो गया था, उसके विषय में एक कवि ने लिखा है-'गर्वीले द्राविड़ (अप्पय दीक्षित) के दुराग्रहरूपी भूतावेश से गुरुद्रोही भट्टोजि ने भरी सभा में विना विचारे पण्डितराज को 'म्लेच्छ' कह दिया था। उसको धैर्यनिधि पण्डितराज ने उसकी मनोरमा का कुचमर्दन करके सत्य कर दिखाया । अप्पय दीक्षितादि (भट्टोजि के समर्थक) देखते रह गये।' परिचय तथा काल पण्डितराज तैलङ्ग ब्राह्मण थे । इनका दूसरा नाम 'वेल्लनाडू था, और इनको 'त्रिशूली' भी कहते थे । इनके पिता का नाम पेरंभट्ट और माता का नाम लक्ष्मी था। पेरंभट्ट ने ज्ञानेन्द्र भिक्षु से वेदान्त, महेन्द्र से न्याय वैशेषिक, भट्टदीपिकाकार खण्डदेव से मीमांसा, और शेष से महाभाष्य का अध्ययन किया था। पण्डितराज जगन्नाथ २० दिल्ली के सम्राट शाहजहां और दाराशिकोह के प्रेमपात्र थे। शाहजहां ने इन्हें पण्डितराज की पदवी प्रदान की थी। शाहजहां वि० सं० १६८४ में गद्दी पर बैठा था। ये चित्रमीमांसाकार अप्पयदीक्षित के. १. चौखम्बा संस्कृतसीरिज काशी से सं० १९९१ में प्रकाशित प्रौढमनोरमा भाग ३ के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ २१ । २. दृप्यद् द्राविडदुर्ग्रहवशाम्लिष्टं गुरुद्रोहिणा, यन्म्लेच्छेति वचोऽविचिन्त्य सदसि प्रौढेपि भट्टोजिना । तत्सत्यापितमेव धैर्यनिधिना यत्स व्यमृद्नात् कुचम, निर्बघ्यास्य मनोरमामवशयन्नप्पयाद्यान् स्थितान् ॥ रसगंगाधर हिन्दी टोका (काशी) में उद्धृत। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास समकालिक कहे जाते हैं। परन्तु इसमें कोई दृढ़ प्रमाण नहीं है।' पण्डितराज ने शेष कृष्ण के पुत्र वीरेश्वर अपरनाम रामेश्वर से विद्याध्ययन किया था। विट्ठल ने वि० सं० १५३६ से कई वर्ष पूर्व वीरेश्वर से व्याकरण पढ़ा था, यह हम पूर्व पृष्ठ ४४० पर लिख चुके ५ हैं। इस प्रकार पण्डितराज जगन्नाथ का काल न्यूनातिन्यून वि० सं० १५७५-१६६० तक स्थिर होता है। परन्तु इतना लम्बा काल सम्भव प्रतीत नहीं होता है । हम इस कठिनाई को सुलझाने में असमर्थ हैं । भट्टोजि दीक्षित ने शेष कृष्ण से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था। भट्टोजि दीक्षित ने अपने 'शब्दकौस्तुभ और 'प्रौढमनोरमा' ग्रन्थों १० में बहत स्थानों पर शेष कृष्णविरचित प्रक्रियाप्रकाश का खण्डन किया है । अतः पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रौढमनोरमाखण्डन में भट्टोजि दीक्षित को 'गुरुद्रोही' शब्द से स्मरण किया है। प्रौढमनोरमाखण्डन के विषय में सोलहवें अध्याय में लिखेंगे। १५ २५. अप्पय्य दीक्षित (१५७५-१६५० वि० के मध्य) अप्पय्य दीक्षित ने पाणिनीय सूत्रों की 'सूत्रप्रकाश' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसका एक हस्तलेख 'अडियार के राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है । देखो-सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ७५ । परिचय अप्पय्य दीक्षित के पिता का नाम 'रङ्गराज अध्वरी' और पितामह का नाम 'प्राचार्य दीक्षित' था। कई इनका पूरा नाम 'नारायणा ० १. एक श्लोक है---'यष्ट विश्वजिता यता परिधरं सर्वे बुधा निजिता, भट्टोजिप्रमुखाः स पण्डितजगन्नाथोऽपि निस्तारितः । पूर्वघे चरमे द्विसप्ततितम स्याब्दस्य सद् विश्वजिद्, याजी यश्च चिदम्बरे स्वयमभजन् ज्योतिः सतां २५ पश्यताम् ॥ रसङ्गाधर हिन्दी टीका (काशी) में उद्घत । २. अस्मद्गुरुवीरेश्वरपण्डितानां । प्रौढमनोरमाखण्डन, पृष्ठ १ । ३. स्यति सर्व गुरुगृहाम् । प्रौढमनोरमाखण्डन, पृष्ठ १ । ४. अप्पय्य दीक्षित ने 'न्यायरक्षामार्ग' में यही नाम लिखा है-'प्राचार्य दीक्षित इति प्रथिताभिधानम् । “अस्मत्पितामहमशेषगुरु प्रपद्ये । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५३७ चार्य था ऐसा कहते हैं । इनका गोत्र भारद्वाज था। यह अपने समय में शैवमत के महान् स्तम्भ माने जाते थे । अप्पय्य दीक्षित के लघु भ्राता का नाम 'अच्चान दीक्षित' था। अचान दीक्षित के पौत्र नीलकण्ठ दीक्षित के 'शिवलीलार्णव' काव्य से ज्ञात होता कि अप्पय्य दीक्षित ७२ वर्ष की आयु तक जीवित रहे, और उन्होंने ५ लगभग १०० ग्रन्य लिखे।' काल अप्पय्य दीक्षित का काल भी बड़ा सन्दिग्ध सा है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वह वि० सं० १५५०-१७२० के मध्य विदित होता है । अतः हम इनके काल-निर्णय पर उपलब्ध सभी सामग्री १० संगृहीत कर देते हैं, जिससे भावी लेखकों को विचार करने में सुविधा १-हमने महाभाष्य के टीकाकार शेष नारायण के प्रकरण में पृष्ठ ४४० पर लिखा है कि विट्ठलकृत 'प्रक्रियाकौमुदीप्रसाद' का वि० सं० १५३६ का एक हस्तलेख लन्दन के इण्डिया प्राफिस के पुस्तकालय १५ में विद्यमान है। भट्टोजि के गुरु शेष कृष्ण ने प्रक्रियाकौमुदी पर 'प्रक्रियाप्रकाश' नाम की एक व्याख्या लिखी थी। शेष कृष्ण को चिरजीवी मानकर हमने भट्टोजि दीक्षित का काल वि० सं० १५७०-१६५० के मध्य स्वीकार किया है (द्र०-पूर्व पृष्ठ ४८६४८७) । भट्टोजि दीक्षित ने 'तत्त्वकौस्तुभ' में अप्पय्य दीक्षित को २० नमस्कार किया है। इसलिए अप्पय्य दीक्षित का काल वि० सं० १५७५-१६५० के मध्य होना चाहिए। २-अप्पय्य दीक्षित के पितामह प्राचार्य दीक्षित विजयनगराधिप कृष्णदेव राय के सभा-पण्डित थे। कृष्णदेव राय का राज्यकाल वि० सं० १५६६-१५८६ तक माना जाता है । अतः अप्पय्य दीक्षित का २५ काल वि० सं० १५५०-१६२५ तक सामान्यतया माना जा सकता है। . १. कालेन शम्भुः किल तावतापि, कलाश्चतुष्षष्टिमिता: प्रणिन्ये । द्वासप्तति प्राप्य समाः प्रबन्धाञ्छतं व्यदधादप्पयदीक्षितेन्द्रः ॥ सर्ग १॥ ७२ वर्ष की आयु के विषय में पूर्व पृष्ठ ५३६ की टि. १ में उद्धृत श्लोक भी देखें। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास ३ - अप्पय्य दीक्षित के भ्रातुष्पौत्र नीलकण्ठ के उल्लेख से विदित होता है कि अप्पस्य दीक्षित ने व्यङ्कटदेशिकं के यादवाभ्युदय की टीका बेल्लूर के राजा चिन्नतिम्म नायक की प्रेरणा से लिखी थी । चिन्नतिम्म नायक का राज्यकाल विक्रम सं० १५६६ - १६०७ पर्यन्त है । ३० ५३८ ४ - अप्पय्य दीक्षित के भ्रातुष्पीत्र नीलकण्ठ दीक्षित ने 'नीलकण्ठ चम्पू' की रचना कलि सं० ४७३८ अर्थात् वि० सं० १६६४ में की थी ।' ५ - प्रात्मकूर ( कर्मूल - श्रन्ध्र) निवासी हमारे मित्र श्री पं० पद्मनाभ राव जी ने १०-११-१९६३ के पत्र में लिखा है "अप्पय्य दीक्षित ने श्री विजयेन्द्र तीर्थ और ताताचार्य के साथ तज्जाव्वरु नायक शेवप्प नायक की सभा को अलङ्कृत किया था । शेवप्प नायक ने सं० १६३७ ( = सन् १५८०) में श्री विजयेन्द्र तीर्थं को ग्रामदान किया था । मैसूर पुरातत्व विभाग के १९१७ के संग्रह (रिपोर्ट) में निम्न श्लोक उद्धृत हैं । ताग्य इव स्पष्टं विजयोन्द्रयतीश्वरः । ताताचार्यो वैष्णवाग्रयः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ शैवाद्वैकसाम्राज्यः श्रीमान् श्रप्पयदीक्षितः । तत्सभायां मर्त स्वं स्थापयन्तस्थितास्त्रयः | इससे स्पष्ट है कि प्रत्पर्य दीक्षित का काल वि० सं० १५७५० २० १६५० के मध्य है । ६ - ' हिन्दुत्व' के लेखक रामदास गौड़ ने लिखा है कि अप्पय्य दीक्षित तिरुमल्लई (सं० १६२४ १६३१ ) ; चिन्नतिम्म (सं० १६३१ - १६४२); और वेङ्कट या पति (१६४२ - १ ) इन तीनों के सभापण्डित थे । अप्पय्य दीक्षित ने विभिन्न ग्रन्थों में इन राजाओं की २५ नाम मिर्देश किया है। उनका जैन्म से० १६०८ में हुआ था, और मृत्यु ७२ वर्ष की आयु में स० १६८० में हुई थी । १. प्रष्टात्रिंशदुपस्कृत- सप्तशताधिक चतुरसह सेषु (४७३५) ग्रथितः किल नीलकण्ठ विजयोऽयम् ॥ २. हिन्दुत्व, पृष्ठ ६२७ । ३. हिन्दुत्व, पृष्ठे ६२६ ॥ कलिवर्षेषु गतेषु Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५३६ ७ - हिन्दुत्व के लेखक ने लिखा है - ' नृसिहाश्रम की प्रेरणा से अप्पय्य दीक्षित ने 'परिमल' 'न्यायरक्षामणि' और 'सिद्धान्तलेश' आदि ग्रन्थों को रचना की थी ।" नृसिंहाश्रम विरचित 'तत्त्वविवेक' ग्रन्थ की परिसमाप्ति वि० सं० १६०४ में हुई थी, ऐसा स्वयं निर्देश किया है । नृसिहाश्रम 'प्रक्रियाप्रसादकौमुदी' के लेखक विट्ठल द्वारा स्मृत ५ गाथाश्रम का शिष्य हैं, यह हम पूर्व (पृष्ठ ४३७, टि० ५) लिख चुके हैं। ब्रिट्ठल की प्रक्रियाको मुदीटीका का एक हस्तलेख वि० सं० १५३६ का उपलब्ध है, यह भी हम पूर्व ( पृष्ठ ४४० ) लिख चुके हैं । ८ - ' संस्कृत साहित्य का इतिहास, के लेखक कन्हैयालाल पोद्दार अप्पय्य दीक्षितका का काल सन् १६५७ अर्थात् वि० सं० १७१४ १० पर्यन्त माना है । वे लिखते हैं- 'सन् १६५७ (सं० १७१४) में काशी मुक्तिमण्डप में एक सभा हुई थी, जिसमें निर्णय किया गया था कि महाराष्ट्रीय देवर्षि ( देवसखे ) ब्राह्मण पङिक्तपावन हैं। इस निर्णयपत्र पर अप्पय्य दीक्षित के भी हस्ताक्षर हैं । यह निर्णयपत्र श्री प्रिपुटकर ने 'चितले भट्ट प्रकरण' पुस्तक में मुद्रित कराया है ।' १५ निष्कर्ष - इन उपर्युक्त सभी प्रमाणों पर विचार करने के हम इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि १ - पिपुटकर द्वारा प्रकाशित निर्णयपत्र निश्चय ही बनावटी हैं, थवा यह अप्पय्य दीक्षित अन्य व्यक्ति है । क्योंकि नीलकण्ठ दीक्षित शिवलीलार्णव काव्य से विदित होता है कि उसकी रचना ( वि० २० सं० १६६४) तक अप्पय्य दीक्षित स्वर्गत हो चुके थे ।* २ – यदि 'हिन्दुत्व' के लेखक रामदास गौड़ की संख्या ६ में उद्धृत मत (सं० १६०८ - १६८०) स्वीकार किया जाए, तो संख्या ७ में निर्दिष्ट उन्हीं के लेख से (नृसिंहाश्रम ने सं० १६०४ में 'तत्त्व विवेक' लिखा ) विपरीत पड़ता है । उधर नृसिंहाश्रम के गुरु २५ जगन्नाथाश्रम प्रक्रिया कौमुदीप्रसाद के लेखक विट्ठल के समकालिक 贵片 १. हिन्दुत्व, पृष्ठ ६२६ । ३. सं० सा० इति ० भाग १, पृष्ठ २८५ । ४. द्व० - पूर्व पृष्ठ ५३८ टि० १ । १. ० - पूर्व पृष्ठ ४३७, टि० ५ । | २. हिन्दुत्व, पृष्ठ ६२४ । ३० Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३-हमारा विचार है कि अप्पय्य दीक्षित का काल सामान्यतया वि० सं० १५७५-१६५० के मध्य होना चाहिए। तभी विट्ठल, भट्टोजि दीक्षित और नीलकण्ठ दीक्षित के लेखों का समन्वय हो सकता है। संख्या ५ पर उद्धृत प्रमाण भी इसी काल को पुष्टि ५ करता है। ४- हमारा यह भी विचार है कि अप्पय्य दीक्षित नाम के सम्भवतः दो व्यक्ति हों। दाक्षिणात्य परम्परा के अनुसार अप्पय्य दीक्षित के पौत्र का भी यही नाम हो सकता है । यदि यह प्रमाणान्तर से परिज्ञात हो जाए. तो सभी कठिनाइयों का समाधान अनायास हो १० सकता है। २६. नीलकण्ठ वाजपेयी (सं० १६००-१६७५ वि०) नीलकण्ठ वाजपेयी ने अष्टाध्यायी पर 'पाणिनीयदीपिका' नाम्नी वत्ति लिखी थी। इस वत्ति का उल्लेख नीलकण्ठ ने स्वयं परिभाषा१५ वृत्ति में किया है।' यह 'पाणिनीयदीपिका' वत्ति सम्पत्ति अनुपलब्ध है । ग्रन्थकार के काल आदि के विषय में 'महाभाष्य के टीकाकार' प्रकरण में लिखा जा चुका है।' २७. विश्वेश्वर सूरि (सं० १६००-१६५० वि०) २० विश्वेश्वर सूरि ने अष्टाध्यायी पर भट्टोजि दीक्षित विरचित शब्दकौस्तुभ के आदर्श पर एक अति विस्तृत व्याख्या लिखी है। इसका नाम 'व्याकरण-सिद्धान्त-सुधानिधि' है। यह आदि के तोन अध्यायों तक ही मुद्रित हुआ। श्री दयानन्द भार्गव (अध्यक्ष संस्कृत विभाग, जोधपुर विश्व५२ विद्यालय) ने अपने १९-११-७६ के पत्र में सूचित किया है कि उन्हें 'व्याकरण-सिद्धान्त-सुधानिधि के शेष ४-८ तक पांच अध्याय भी मिल गये हैं। उन्हें ये अध्याय सन् १९७३ में जम्मू के रघुनाथ १. अस्मत्कृतपाणिनीयदीपिकायां स्पष्टंम् । पृष्ठ २६ ॥ २. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४४१-४४२ । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५४१ मन्दिर के पुस्तकालय से प्राप्त हुए। वे इस का सम्पादन कर रहे हैं । परिचय ५. विश्वेश्वर ने अपना नाममात्र परिचय दिया है। उसके अनुसार इस के पिता का नाम लक्ष्मीधर है । पर्वतीय विशेषण से स्पष्ट है कि यह पार्वत्य देश का है । ग्रन्थकार की मृत्यु ३२-३४ वर्ष के वय में हो हो गई थी । काल - ग्रन्थकार ने भट्टोजिदीक्षित का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है, परन्तु उसके पौत्र हरिदीक्षित अथवा तत्कृत पौढमनोरमाव्याख्या 'शब्दरत्न' का कहीं भी उल्लेख न होने से प्रतीत होता है कि १० विश्वेश्वर सूरि ने 'शब्दरत्न' की रचना से पूर्व अपना ग्रन्थ लिखा था।' अतः इसका काल वि० सं० १६००-१६५० के मध्य होना चाहिए । 'हिस्ट्री ग्राफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' के लेखक कृष्णमाचारिया ने इसका काल ईसा की १८ वीं शती लिखा है । ' वह चिन्त्य है | जैन लेखकों का भ्रम - 'संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा" नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १०१ में विश्वेश्वर सूरि का परिचय दिया है । और पृष्ठ १४० - १४२ तक पाणिनीय आदि व्याकरणों पर जैनाचार्यो को टीकाएं शीर्षक के अन्तर्गत संख्या ४६ पर 'व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि' के लेखक 'विश्वेश्वरसूरि' का जैनाचार्य के रूप में उल्लेख किया है । इसी प्रकार इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १०० में राघव सूरि पेरु सूरि रामकृष्ण दीक्षित सूरि श्रादि को जैनाचार्य माना है । यह महती भूल है । 'सूरि' शब्दमात्र का प्रयोग देखकर लेखक ने इन्हें जैनाचार्य मान लिया। यदि इन ग्रन्थों के मंगलाचरणों को भी लेखक ने पढ़ा होता तो वह ऐसी भूल न करता । २० २५ १. द्र० – ग्रन्थ की भूमिका | २. द्र० - पैराग्राफ ०६, पृष्ठ ७६६ । ३. इस ग्रन्थ में अनेक लेखकों के लेख संगृहीत हैं। इसे 'श्री कालूगणी जन्मशताब्दी समारोह समिति' छापर ( राजस्थान) ने फा० शु० २ सं० २०३३ में प्रकाशित किया है । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अन्य ग्रन्थ-इसके कतिपय अन्य ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं१. तर्क-कौतूहल ४. आर्यासप्तशती २. अलंकारकौस्तुभ ५. अलङ्कारकुलप्रदीप ३. रुक्मिणीपरिणय ६. रसमजरी-टीका ५ २८. गोपालकृष्ण शास्त्री (सं० १६५०-१७०० वि०) . हमने 'महाभाष्य के टीकाकार' प्रकरण (पृष्ठ ४४४) में गोपाल, कृष्ण शास्त्री विरचित 'शाब्दिकचिन्तामणि' ग्रन्थ का उल्लेख किया है। वहां हम ने लिखा है कि हमें इस ग्रन्थ के 'महाभाष्यव्याख्या' होने । में सन्देह है । यदि यह ग्रन्थ महाभाष्य की व्याख्या न हो, तो निश्चय ही यह अष्टाध्यायी की विस्तृत वृत्तिरूप होगा। २९. रामचन्द्र भट्ट तारे (सं० १७२०-११२५ वि०) नागपुर के 'श्री दत्तात्रेय काशीनाथ तारे' महोदय ने अपने १५ १७-६-१९७६ ई० के पत्र में लिखा है "मैंने मराठी में एक प्रो० भ० दा० साठे लिखित 'संस्कत व्या. करण का इतिहास' पढ़ा। उस में ऐसा लिखा है कि श्री नागेशभट्ट के शिष्य और वैद्यनाथ पाय गूण्डे अहोबल, इन के सहपाठी रामचन्द्र भट्ट तारे थे। उन्होंने 'पाणिनि-सूत्रवृत्ति' लिखी है । यो अप्रसिद्ध है। श्री २० रामचन्द्र भट्ट काशी में रहते थे और आज भी उनका भग्न गृह वहां है। मेरी ऐसी इच्छा है कि वह वृत्ति संपादित करके प्रसिद्ध करना।...... हमें रामचन्द्र भट्ट तारे और उनकी पाणिनि-सूत्रकृति की सूचना श्री दत्तात्रेय काशीनाथ तारे महोदय से मिली, उसके लिये हम उनके २५ ऋणि हैं । हमें इस वृत्ति के विषय में कुछ ज्ञात नहीं हैं । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५४३ ३० गोकुलचन्द्र (१८९७ वि०) गोकुलचन्द्र नाम के वैयाकरण ने अष्टाध्यायी की एक संक्षिप्त वृत्ति लिखी है । इसका एक हस्तलेख उपलब्ध है।' परिचय गोकुलचन्द्र ने वृत्ति के अन्त में अपना जो परिचय दिया है उसके अनुसार इसके पिता का नाम 'बुधसिंह', माता का नाम 'सुशीला', और गुरु का नाम जगन्नाथ था। इसके एक सौदर्य भ्राता का नाम गोपाल था । यह लेखक वेश्य कुल का था।' काल-इसकी रचना का समाप्ति काल संवत् १८९७ माघ १० शुक्ला अष्टमी है। पह वृत्ति अत्यन्त संक्षिप्त सूत्रोदाहरण मात्र है। ३१. ओरम्भट (सं०१६०० वि०) वैद्यनाथभट्ट विश्वरूप अपरनाम ोरम्भट्ट ने 'व्याकरणदीपिका' १५ माम्नी अष्टाध्यायी की वृत्ति बमाई है । इस वृत्ति में वृत्ति, उदाहरण तथा अन्य पंक्तियाँ प्रादि यथासम्भव सिद्धान्तकौमुदो से उद्धृत की हैं। अतः जो व्यक्ति सिद्धान्तकौमुदी की फक्किकाओं को अष्टाध्यायी के क्रम से पढ़ना-पढ़ाना चाहें, उनके लिये यह ग्रन्थ कुछ उपयोगी हो सकता है। २० श्रीरम्भ? काशी-निवासी महाराष्ट्रीय पण्डित है। यह काशी के प्रसिद्ध विद्वान बालशास्त्री के गुरु काशीनाथ शास्त्री का समकालिक है। पं० काशीनाथ शास्त्री ने वि० सं० १९१६ में काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय से अवकाश ग्रहण किया था। अत. ओरम्भट्ट का काल वि० सं० १६०० के लगभग है। ___ १. हमने इस ग्रन्थ का निर्देश किस पुस्तकालय के संग्रह से लिया, यह संकेत करना भूल गए। __२. बुधसिंहात सुशीलायां लब्धमन्मा विशांवरः । लब्धविद्यो जगन्नाथाच्छीत्रियाद् ब्रह्मनिष्ठतः ॥ लब्ध्वा सहायं सौदर्य श्रीगोपालं व्यदधादिमाम् । वृत्ति पाणिनिसूत्राणाम• गोकुलचन्द्रमाः ॥ सं० १८६७ माघ शुक्ला अष्टमी। ३० Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३२. स्वामी दयानन्द सरस्वती (सं० १९८१-१९४० वि०) __ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पाणिनीय सूत्रों की 'अष्टाध्यायोभाष्य' नाम्नी विस्तृत व्याख्या लिखी है। इसके दो खण्ड 'वैदिक पुस्तकालय अजमेर' से प्रकाशित हो चुके हैं । परिचय वंश-स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ के अन्तर्गत टंकारा नगर के औदीच्य ब्राह्मणकुल में हरा था। इनके पिता सामवेदी ब्राह्मण थे । बहुत अनुसन्धान के अनन्तर इनके पिता का नाम कर्शनजी तिवाड़ी ज्ञात हुआ है । स्वामी दयानन्द सरस्वती का १० बाल्यकाल का नाम मूलजी था। सम्भवतः इन्हें मूलशंकर भी कहते थे । मूलजी के पिता शैवमतावलम्बी थे । ये अत्यन्त धर्मनिष्ठ, दढ़चरित्र और धनधान्य से पूर्ण वैभवशाली व्यक्ति थे । ___ भाई बहन-मूलजी के दो कनिष्ठ सौदर्य भाई थे। उन में से एक का नाम बल्लभजी था। उनकी दो बहन थी, जिनमें बड़ो प्रेमाबाई १५ का विवाह मङ्गलजी लोलारावजी के साथ हुआ था । छोटी बहिन की मृत्यु वचपन में मूलजी के सामने हो गई थी। इनके वैमातृक चार भाई थे। उनके वंशज आज भी विद्यमान हैं ।' । प्रारम्भिक अध्ययन और गृहत्याग-मूलजी का पांच वर्ष की अवस्था में विद्यारम्भ, और पाठ वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार २० हया था। सामवेदी होने पर भी इनके पिता ने शैवमतावलम्बी होने के कारण मूलजी को प्रथम रुद्राध्याय और पश्चात् समग्र यजुर्वेद कण्ठान कराया था। घर में रहते हुए मूलजी ने व्याकरण आदि का भी कुछ अध्ययन किया था। वाल्यकाल में अपने चाचा और छोटी भगिनी की मृत्यु से इनके मन में वैराग्य की भावना उठी, और वह २५ उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गई। इनके पिता ने मूलजी के मन की भावना को समझ कर इनको विवाह बन्धन में बांधने का प्रयत्न किया, परन्तु मूलजी अपने संकल्प में दृढ़ थे। अत विवाह को सम्पूर्ण तैयारी हो जाने पर उन्होंने एक दिन सायंकाल अपने भौतिक संपति १. द्र०-हमारी 'महर्षि दयानन्द सरस्वती का भ्रातृवंश और स्वसवंश' ३.० पुस्तिका। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५४५ से परिपूर्ण गृह का सर्वदा के लिए परित्याग कर दिया। इस समय इनकी प्रायु लगभग २२ वर्ष की थी । यह घटना वि० संवत् १९०३ की है । गृह-परित्याग के अनन्तर योगियों के अन्वेषण और सच्चे शिव के दर्शन की लालसा से लगभग पन्द्रह वर्ष तक हिंस्र जन्तुनों से परिपूर्ण ५ भयानक वन कन्दरा और हिमालय की ऊंची-ऊंची सदा बर्फ से ढकी चोटियों पर भ्रमण करते रहे । इस काल में इन्होंने योग की विविध क्रियायों और अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया । गुरु - नर्वदा तटीय चाणोदकन्याली में मूलजी ने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण किया, और दयानन्द १० सरस्वती नाम पाया । नर्मदा स्रोत को यात्रा में इन्होंने मथुरानिवासी प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द स्वामी के पाण्डित्य की प्रशंसा सुनी । अतः उस यात्रा की परिसमाप्ति पर उन्होंने मथुरा श्राकर वि० सं० १९९७ - १९२० तक लगभग ३ वर्ष स्वामी विरजानन्द से व्याकरण आदि शास्त्रों का अध्ययन किया । स्वामी विरजानन्द व्या- १५ करणशास्त्र के श्रद्वितीय विद्वान् थे । इनकी व्याकरण के नव्य और प्राचीन सभी ग्रन्थों में अव्याहत गति थी । तात्कालिक समस्त पण्डित - समाज पर इनके व्याकरणज्ञान की धाक थी । स्वामी दयानन्द भी इन्हें 'व्याकरण का सूर्य' कहा करते थे । इन्हीं के प्रयत्न से कोमुदी आदि के पठन-पाठन से नष्टप्रायः महाभाष्य के पठन-पाठन का पुनः २० प्रवर्तन हुआ था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।' 1 काल स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म वि० सं० १८८१ में हुआ था । इनके जन्म की तिथि प्राश्विन बदि ७ कही जाती है । कई पौष में मानते हैं । इनका स्वर्गवास वि० सं० १९४० कार्तिक कृष्णा प्रमा- २५ वास्या दीपावली के दिन सायं ६ बजे हुआ था । अष्टाध्यायी भाष्य स्वामी दयानन्द के १५ अगस्त सन् १८७८ ई० ( प्राषाढ़ बदि २ सं० १९३५ वि०) के पत्र से ज्ञात होता है कि भ्रष्टाध्यायी भाष्य की १. द्र० – पूर्व पृष्ठ३७९ – ३८० । ३० Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास रचना उक्त तिथि से पूर्व प्रारम्भ हो गई थी।' एक अन्य पत्र से विदित होता है कि २४ अप्रैल सन् १८७६ तक अष्टाध्यायी-भाष्य के चार अध्याय बन चके थे। चौथे अध्याय से आगे बनने का उल्लेख उनके किसी उपलब्ध पत्र में नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द के अनेक पत्रों से विदित होता है कि पर्याप्त ग्राहक न मिलने से वे इसे अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं कर सके । स्वामीजी की मृत्यु के कितने ही वर्ष पश्चात् उनकी स्थानापन्न परोपकारिणी सभा ने इसके दो भाग प्रकाशित किये, जिनमें तीसरे अध्याय तक का भाष्य है। चौथा अध्याय अभी (सन् १९८६) तक प्रकाशित नहीं हुआ। इसके प्रथम १० भाग (अ० १११-२ तथा अ० २) का सम्पादन डा० रघुवीर एम. ए. ने किया है । तृतीय और चतुर्थ अध्याय का सम्पादन हमारे पूज्य प्राचार्य श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासू ने किया है। इसमें मैंने भी सहायक रूप से कुछ कार्य किया है। इस अष्टाध्यायी-भाष्य के विषय में हमने 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास' ग्रन्थ १५ में विस्तार से लिखा है, अतः विशेष वहीं देखें। पूज्य आचार्य श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने चौथे अध्याय की प्रेस कापी बनाकर सन १९४२ में परोपकारिणी सभा को दे दी थी, परन्तु उस ने उसे अभी तक (सन् १९८३ पर्यन्त) प्रकाशित नहीं किया। अब सुनने में आया है कि वह प्रेस कापी गुम हो गई है । २० दीर्घसूत्रिता का यही परिणाम होता है । विशेष-यहां यह ध्यान रहे कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जो अष्टाध्यायी-भाष्य छपा है, वह उसकी पाण्डुलिपि (रफ कापी) मात्र के आधार पर प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थकार उसका पुनः अवलोकन भी नहीं कर पाए थे। अतः रफकापी मात्र के आधार पर छपे प्रथम २५ भाग में यत्र-तत्र भूलें भी विद्यमान हैं। अन्य ग्रन्थ - स्वामी दयानन्द ने अपने दश वर्ष के कार्यकाल (सं० १९३११६४० वि० तक) में लगभग ५० ग्रन्थ रचे हैं। उनमें सत्यार्थप्रकाश, १. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ २०१, त० सं० । २. वही, भाग २, पूर्ण संख्या २०७ पृष्ठ २५६, तृ० सं० । ३० Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ५४७ संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेदभाष्य, यजुर्वेदभाष्य चतुर्वेदविषयसूची आदि मुख्य हैं । स्वामी दयानन्द के समस्त ग्रन्थों का वर्णन हमने 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास नामक ग्रन्थ में विस्तार से किया है। यह ग्रन्थ सन् १९५० में प्रथम वार प्रकाशित हुआ था। अभी-अभी इस का परिष्कृत तथा ५ परिवर्धित द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ है।' उणादिकोष की वृत्ति का वर्णन हमने 'उणादिसूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २४ वें अध्याय में किया है । अब हम उन वृत्तिकारों का वर्णन करते हैं, जिनका काल अज्ञात १० अज्ञातकालिक वृत्ति-ग्रन्थ ३३. नारायण सुधी नारायण सुधी विरचित 'अष्टाध्यायी-प्रदीप' अपरनाम 'शब्दभूषण' के हस्तलेख मद्रास, अडियार और तजौर के राजकीय पुस्त- १५ कालयों में विद्यमान हैं । मद्रास के राजकीय पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग ४ खण्ड A. पृष्ठ ४२७५ पर निर्दिष्ट हस्तलेख के अन्त में निम्न पाठ है 'इति श्रीगोविन्दपुरवास्तव्यनारायणसुधीविरचिते सवात्तिकाष्टाध्यायीप्रदीपे शब्दभूषणे अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः' । २० यह व्याख्या बहुत विस्तृत है । इसमें उपयोगी वार्तिकों का भी . समावेश है । तृतीयाध्याय के द्वितीय पाद के अनन्तर उणादिसूत्र और षष्ठाध्याय के द्वितीयपाद के पश्चात् फिट्सूत्र भी व्याख्यात हैं । नारायण सुधी का देश काल अज्ञात है। ३४. रुद्रधर रुद्रधरकृत अष्टाध्यायीवृत्ति का एक हस्तलेख काशी के सरस्वती १. रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) से प्राप्य । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भवन के संग्रह में विद्यमान है । देखो-संग्रह सं० १९ (पुराना) वेष्टन संख्या १३ । रुद्रधर मैथिल पण्डित है । इसका काल अज्ञात है। ५ ३५. उदयन उदयनकृत 'मितवृत्त्यर्थसंग्रह' नाम्नी वृत्ति का एक हस्तलेख जम्मू के रघुनाथमन्दिर के पुस्तकालय में है । देखो--सूचीपत्र पृष्ठ ४५ । इस वृत्ति के उक्त हस्तलेख के प्रारम्भ में निम्न श्लोक मिलता मुनित्रयमतं ज्ञात्वा वृत्तीरालोच्य यत्नतः । करोत्युदयनः साधुमितवृत्यर्थसंग्रहम् ॥ उदयन ने इस ग्रन्थ में काशिकावृत्ति का संक्षेप किया है । ग्रन्थकार का देश काल अज्ञात है। यह नैयायिक उदयन से भिन्न व्यक्ति ३६. उदयङ्कर मट्ट उदयङ्कर भट्ट नाम के किसी वैयाकरण ने 'परिभाषाप्रदीपाचि' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । उसके आदि में पाठ है कृत्वा पाणिनिसूत्राणां मितवृत्त्यर्थसंग्रहम् । परिभाषाप्रदीपाचिस्तत्रोपायो निरूप्यते ॥ इससे ज्ञात होता है कि उदयङ्कर भट्ट ने भी पाणिनीय सूत्र पर 'मितवृत्त्यर्थसंग्रह' नाम्नी कोई व्याख्या लिखी थी। 'परिभाषाप्रदीपाचि' के विषय में परिभाषा पाठ के प्रबक्ता और व्याख्याता' नामक २६ वें अध्याय में लिखेंगे। ३७. रामचन्द्र रामचन्द्र ने अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी हैं। उसमें उसने भी काशिकावृत्ति का संक्षेप किया है। इसके प्रारम्भ के श्लोक से Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५४६ विदित होता है कि रामचन्द्र ने यह नागोजी की प्रेरणा से लिखी थी।' यह नागोजी सम्भवतः प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश भट्ट हो । एक 'रामचन्द्र शेषवंशीय नागोजी भट्ट का पुत्र है । वह महाभाष्य व्याख्याकार शेष नारायण का शिष्य है । रामचन्द्र और नागोजी नाम की उभयत्र समानता होने पर भी पुत्र और प्रेरक सम्बन्ध के भिन्न होने से ये पृथक् व्यक्ति हैं, यह निर्विवाद है । यह रामचन्द्र पूर्व संख्या २६ पर निर्दिष्ट (पृष्ठ ५४२) रामचन्द्र भट्ट तारे से भिन्न व्यक्ति हैं अथवा अभिन्न, यह विचारणीय है। ५ ३८. सदानन्द नाथ सदानन्द नाथ ने अष्टाध्यायी की 'तत्वदीपिका' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इस वृत्ति का निर्देश 'योगप्रचारिणी गोरक्षा टीला काशी' से प्रकाशित श्रीनाथग्रन्थसूची के पृष्ठ १६ पर मिलता है । सूचीपत्र के अनुसार यह जोधपुर दुर्ग पुस्तकालय में संख्या २७५७।१३ पर निर्दिष्ट है, अर्थात् यह वृत्ति जोधपुर में सुरक्षित है । ३६. पाणिनीय-लघुचि यह वृत्ति श्लोकबद्ध है। देखो-ट्रिवेण्डम पुस्तकालय का सूचीपत्र भाग ५, ग्रन्थांक १०५। श्लोकबद्ध पाणिनीयसूत्रवृत्ति का एक हस्तलेख 'मैसूर के राजकीय २० पुस्तकालय' में भी है। देखो-सन् १९२२ का सूचीपत्र पृष्ठ ३१५, ग्रन्याङ्क ४७५० । ये दोनों ग्रन्थ एक ही हैं, अथवा पृथक्-पृथक् यह अज्ञात है। __पाणिनीयसूत्र-लघु [वृत्ति विवृत्ति यह पूर्वोक्त लघुवृत्ति की श्लोकबद्ध टीका है । यह टीका राम- २५ १. नागोजीविदुषा प्रोक्तो रामचन्द्रो यथामति । .. शब्दशास्त्रं समालोक्य कुर्वेऽहं वृत्तिसंग्रहम् ॥ २. इसने सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या लिखी थी। इस का वर्णन पागे, होगा। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थाङ्क ५५० . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शाली क्षेत्र निवासी किसी द्विजन्मा की रचना है । देखो-ट्रिवेण्डम के राजकीय पुस्तकालय का सूचीपत्र, भाग ६, ग्रन्थाङ्क ३४ । ___ मैसूर राजकीय पुस्तकालय के सूचीपत्र, पृष्ठ ३१५ पर 'पाणि नीयसूत्रवत्ति टिप्पणी' नामक ग्रन्थ का उल्लेख हैं। उसका कर्ता ५ 'देवसहाय' है। अष्टाध्यायी की अज्ञातकर्तृक वृत्तियां मद्रास राजकीय पुस्तकालय के नये छपे हुए बृहत् सूचीपत्र में अष्टाध्यायी की ५ वृत्तियों का उल्लेख मिलता है । वे निम्न हैं ग्रन्थनाम ४०. पाणिनीय सूत्रवृत्ति ११५७७ ४१. पाणिनीय-सूत्रविवरण ११५७८ ४२. पागिनीय-सूत्रविवृति ११५७९ ४३. पाणिनीय-सूत्रविकृति लघुत्ति कारिका ११५८० ४४. पाणिनीय-सूत्रव्याख्यान उदाहरण श्लोकसहित ११५८१ ' सम्भवतः अन्तिम ग्रन्थ वहीं है जो मद्रास गवर्नमेण्ट अोरियण्टल सीरिज में दो भागों में छप चुका है । इस का लेखक मणलूर-वीरराघवाचार्य है। इस में सिद्धान्तकौमुदी में भट्टोजि दीक्षित द्वारा उदाहृत उदाहरणों के प्रयोग निदर्शनार्थ विविध ग्रन्थों से श्लोक उदाहृत किये हैं। यदि उपरि निर्दिष्ट वही ग्रन्थ है जो मद्रास से छपा है तो वह अष्टाध्यायी की वृत्ति नहीं है। ___४५, ४६-डी० ए० वी० कालेज लाहौर के लालचन्द पुस्तकालय में पाणिनीय सूत्र की दो वृत्तियां विद्यमान हैं। देखो-ग्रन्थाङ्क ३७५०, ६२८१ । ये दोनों वृत्तियां केरल लिपि में लिखी हुई हैं । ४७–सरस्वतीभवन काशी के संग्रह में पाणिनीयाष्टक की एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति वर्तमान है। देखो-महीधर संग्रह वेष्टन सं० २८ । इस प्रकार अन्य पुस्तकालयों में भी अनेक अष्टाध्यायी-वत्तियों के हस्तलेख विद्यमान हैं । इन सब का अन्वेषण होना परमावश्यक है। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार अष्टाध्यायी की अभिनव वृत्तियां अष्टाध्यायी क्रम का पुनरुद्धार हम पूर्व (पृष्ठ ३७९ - ३८०) लिख चुके हैं कि विक्रम की १८ वीं और १६वीं शताब्दी में प्रक्रियानुसारी सिद्धान्तकौमुदी के माध्यम से पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रचार होने से महाभाष्य और अष्टाध्यायीसूत्रपाठ के क्रमानुसार पाणिनीय शास्त्र के पठन-पाठन का लोप हो गया था । पाणिनीय सूत्र-क्रम से शास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का लोप हो जाने और प्रक्रिया ग्रन्थों के प्रचार के कारण पाणिनीय व्याकरण प्रत्यन्त दुरूह बन गया था ।' विक्रम की २० वीं शती के आरम्भ में पाणिनीय व्याकरण के अध्यनाध्यापन की १० इस कठिनाई के मूल कारण और उसे दूर करने का उपाय मथुरावासी वैयाकरणमूर्धन्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती को उपज्ञात हुआ । तत्पश्चात् उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी श्रादि प्रक्रिया ग्रन्थों के अध्यापन का परित्याग कर के पाणिनीय सूत्र-क्रम से पाणिनीय व्या करण के पठन-पाठन को आरम्भ किया । उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस क्रम की महत्ता को समझ कर इसके प्रचार के लिये उन्होंने फर्रुखाबाद, मिर्जापुर, कासगंज ( एटा), छलेसर (अलीगढ़), काशी, लखनऊ और दानापुर आदि में पाठशालाएं स्थापित की और अपने सत्यार्थप्रकाश तथा संस्कारविधि आदि ग्रन्थों ग्रन्थों के पठन-पाठन की एक विशिष्ट पद्धति का उल्लेख १५ ५५१ किया ।" स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षा से अनुप्राणित प्रार्यसमाज ने २० १. इस के विस्तार से परिज्ञान के लिये श्रागे 'पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया ग्रन्थकार' नामक १७ वें अध्याय का प्रारम्भिक भाग देखें । २. द्र० – विरजानन्द प्रकाश, लेखक पं० भीमसेन शास्त्री, पृष्ठ ६०-७६ २५ - तु० सं० (सं० २०३५ वि० ) । ३. द्र० - ऋ० दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, तथा उन को लिखे गये पत्र और विज्ञापनों का अभिनव संस्करण, भाग ४, परिशिष्ट ६ ( पृष्ठ ६५५–६६४), सन् १८८३ । ४. द्र० – सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास के अन्त में; संस्कारविधि - ३० वेदारम्भ संस्कार के अन्त में । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 、 शतशः गुरुकुलों तथा विद्यालयों की स्थापना करके प्राचीन प्रार्ष-ग्रन्थों -पाठन को पुनर्जागृत किया । संस्कृत वाङ् मय के अध्ययन क्रम में व्याकरण शास्त्र को प्रथम स्थान प्राप्त हैं । अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती के निधन के समनन्तर ही पाणिनीय अष्टाध्यायी पर संस्कृत ५ तथा हिन्दी में वृत्ति-ग्रन्थों के प्रणयन का क्रम आरम्भ हो गया । अब तक अष्टाध्यायी पर अनेक वृत्ति ग्रन्थ पूर्ण वा अपूर्ण लिखे गये तथा मुद्रित हुए। रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ ( सोनीपत - हरयाणा ) के पुस्तकालय में जो कतिपय ग्रन्थ सुरक्षित है, उनका प्रति संक्षेप से नीचे उल्लेख किया जाता है । इस से पाणिनीय व्याकरण के पठन१० पाठन के क्रम में स्वामी विरजानन्द सरस्वती और उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो क्रान्ति की थी, उस का कुछ आभास पाठकों को मिल सकेगा । स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित अष्टाध्यायी भाष्य का वर्णन हम पूर्व पृष्ठ ५४४ से ५४७ पर कर चुके हैं । १. देवदत्त शास्त्री (सं० १९४३ वि० ) ' १५ हरिद्वार निवासी पं० देवदत्त शास्त्री ने अष्टाध्यायी की संस्कृत भाषा में संक्षिप्त वृत्ति लिखने का उपक्रम किया था । इस का प्रथमा ध्याय 'अष्टाध्यायी' शीर्षक से वि० सं० १९४३ में लखनऊ के कान्य कुब्जयन्त्रालय ( लीथो) में छपा उपलब्ध है।' इस के मुखपृष्ठ पर आठ अध्यायों को आठ भागों में प्रकाशित करने का निर्देश है । अगले भाग छपे वा नहीं हमें ज्ञात नहीं है । २० इस वृत्ति में सूत्र की संस्कृत में वृत्ति, उदाहरण और प्रत्युदाहरण दिये गये हैं । प्रथमाध्याय २० X २६ आठपेजी प्रकार में ४६ पृष्ठों में छपा है । २ - गोपालदत्त और गणेशदत्त (सं० १६५० वि० ) ' गोपालदत्त देवगण शर्मा तथा गणेशदत्त शर्मा द्वारा आर्यभाषा (हिन्दी) में लिखित तथा मुद्रित वृत्ति के तीन अध्याय मिलते हैं । * २५ ३० १. यह काल वृत्ति पर छपा हुआ है । २. रा० ला० क० ट्रस्ट पुस्तकालय, संख्या १३.१.२६/१३१३ । ३. यह काल वृत्ति पर छपे हुए सन् १८६३ के अनुसार है । ४. रा० ला० क० ट्रस्ट पुस्तकालय, संख्या १३.१.२७/१३१४॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५५३ इन में प्रथम दो अध्याय गोपालदत्त शर्मा लिखित हैं और तृतीय अध्याय गणेशदत्त शर्मा द्वारा । प्रत्येक अध्याय अलग-अलग छपा था। काल-इस व्याख्या के तीसरे अध्याय के भाग पर मुद्रण काल सन् १८६३ (=सं० १९५०) छपा है। अतः यह व्याख्या इसी समय ५ लिखी गई होगी। इस व्याख्या में प्रत्येक सूत्र की हिन्दी में वृत्ति और उदाहरण दिये गये हैं। यह व्याख्या ऐङ्गलो संस्कृत यन्त्रालय अनारकली लाहौर में छपी थी। इस का प्रकाशन लाला रामसहायी नरूला भूतपूर्व कोषाध्यक्ष १० आर्यसमाज लाहौर ने किया था। अगले अध्यायों की व्याख्या लिखी गई वा नहीं, छपी अथवा नहीं छपी, यह हमें ज्ञात नहीं हो सका। ३-भीमसेन शर्मा (सं० १९११-१६७४ वि०) १५ पं० भीमसेन शर्मा ने पाणिनीय अष्टक पर संस्कृत और हिन्दी भाषा में एक वृत्ति लिखी थी । इस में प्रत्येक सूत्र की पदच्छेद विभक्ति निर्देश पूर्वक संस्कृत और हिन्दी में वृत्ति प्रौर उदाहरण दिये गये हैं । यह वृत्ति पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भागों में छपी थी। हमारे संग्रह में इस के प्रथम भाग की सं० १९६१ में द्वितीय बार छपे २० प्रथम भाग की एक प्रति है।' इस से स्पष्ट है कि पं. भीमसेन शर्मा ने अष्टाध्यायी की वृत्ति सं० १९५१-१९५५ के मध्य लिखी होगी। परिचय-पं० भीमसेन का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के १. द्र० रा० ला० क० ट्र० पुस्तकालय, संख्या १३.१.२६/१३१६ ॥ २. भीमसेन शर्मा ने सं० १६५० में गणरत्नमहोदधि छपवाई थी। उसकी ५२ , पीठ पर छपी ग्रन्थ सूची में पाणिनीयाष्टक का उल्लेख नहीं है । प्रथम आवृत्ति के बिकने में भी कुछ समय लगा होगा। प्रत: सं० १९५१-१९५५ की हमने कल्पना की है। ३. प्रगला परिचय पूर्णसिंह वर्मा लिखित पं० भीमसेव शर्मा का जीवन चरित, सं० १९७५ के आधार पर दिया है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास 'लालपुर' ग्राम में सं० १९११ कार्तिक शुक्ला ५ को हुआ था । इन के पिता का नाम नेकराम शर्मा था । आप सनाढ्य ब्राह्मणवंशी थे । १२ वर्ष की अवस्था में इन का उपनयन हुआ । घर में हिन्दी उर्दू श्रौर अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मदत्त से कुछ संस्कृत अध्ययन किया ५ विशेष अध्ययन - स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रार्ष ग्रन्थों के पठन-पाठन के लिये सं० १६२६ में फर्रुखाबाद में वहां के सेठ निर्भय - राम के सहयोग से एक संस्कृत पाठशाला प्रारम्भ की। उस में सं० १९२९ को सत्रह वर्ष की अवस्था में भीमसेन उस पाठशाला में भरती हुए। यहां उन्होंने महाभाष्य पर्यन्त पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया । CID F 1758 १० " स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ पं० भीमसेन का सं० १६२९ में जो सम्पर्क हुआ, वह उन के निधन पर्यन्त विद्यमान रहा। पं० भीमसेन स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य की संस्कृत का भाषानुवाद तथा छपने वाले ग्रन्थों का संशोधन करते रहे | स्वामी जी के निधन के पश्चात् उनके द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा के १५ अधीन कार्य करते हुए स्वामी जी द्वारा लिखे गये प्रमुद्रित ऋग्वेद और यजुर्वेद भाष्य का संशोधनादि कार्य करते रहे । सं० १९५७ तक आप का स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रवर्तित प्रार्यसमाज के साथ संम्बन्ध रहा । सं० १९५५ में चूरु ( रामगढ़ - राजस्थान) में अग्निष्टोम याग कराया । इसमें पशु के स्थान में पिष्टपशु का उपयोग किया । २० इसी घटना से आर्यसमाज से आप का सम्बन्ध टूट गया । तदनन्तर आपने परम्परागत पौराणिक धर्म का मण्डन आरम्भ कर दिया । आप का स्वर्गवास ६४ वर्ष की अवस्था में सं० १९७४ चैत्र कृष्णा १२ को 'नरवर' में हुआ । ग्रन्थ निर्माण - आप ने दोनों पक्षों में रहते हुए अनेक ग्रन्थों का २५ प्रणयन किया और संस्कृत के अनेक दुर्लभ ग्रन्थों को प्रकाशित किया । इनकी सूची प्रति विस्तृत है । ४. ज्वालादत्त शर्मा ( ? ) हमारे पुस्तकालय में अष्टाध्यायी की एक छपी हुई अधूरी पुस्तक Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार .. ५५५ है जिस की संख्या १३.१.२६ १३१६ है।' यह वृत्ति प्रारम्भ से प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के ७७ वें सूत्र (अधूरी) तक है। यह २०४२६ अठपेजी आकार के १५२ पृष्ठ तक है। आद्यन्त का मुख पत्र न होने से ग्रन्थ के लेखक का नाम तथा मुद्रण काल अज्ञात है । इस वृत्ति के प्रारम्भ में लगे पृष्ठ पर पूज्य गुरुवर पं० ब्रह्मदत्त । जिज्ञासू के हाथ का लेख है-पं० ज्वालादत्त,कृत इटावा, पं० भीमसेन प्रेस । उन्होंने सम्भवतः अन्य किसी प्रति के आधार पर यह उल्लेख अपनी प्रति पर किया होगा। परिचय-ज्वालादत्त शर्मा कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने भी स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा संस्थापित फर्रुखाबाद की पाठशाला १० में अध्ययन किया था। तत्पश्चात् ये भी भीमसेन शर्मा के समान ही स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य की संस्कृत का भाषानुवाद का कार्य तथा वैदिक यन्त्रालय में रहते हुएं संशोधन को कार्य करते रहे। इस से अधिक 'इन के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। " ५. जीवाराम शर्मा (सं० १९६२ वि०) ... मुरादाबाद नगरस्थ 'बलदेव. आर्य संस्कृत पाठशाला' के प्रथम अध्यापक जीवाराम शर्मा ने अष्टाध्यायी की संस्कृत और हिन्दी में एक वृत्ति लिखी । इस वृत्ति का प्रथम संस्करण सन् १९०५ (-- सं० १९६२ वि०) में प्रकाशित हुआ। .... .... २० - इस वृत्ति में सूत्रपाठ के ऊपर ही १-२-३ आदि संख्या के निर्देश द्वारा सूत्रस्थ पदों की विभक्तियों का निर्देश किया है । तत्पश्चात संस्कृत में सूत्र की वृत्ति और उदाहरणों का उल्लेख किया है। तदनन्तर हिन्दी में सूत्र की वृत्ति लिखी है। १. पं० भीमसेन शर्मा कृत अष्टाध्यायी वृत्ति और इस मुप्ति पर भूल से २५ एक ही संख्या पड़ गई है। २. द्र० पं० लेखरामकृत स्वामी दयानन्द का जीवन चरित, हिन्दी सं०, .. ! पृष्ठ, ८०५ सं० २०२८ वि० देहली ३. यह काल ग्रन्थ के प्रथम संस्करण के सन् १९०५ के अनुसार, दिया है। . Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास जीवाराम शर्मा ने संस्कृत भाषा के प्रचार के लिये अनेक पुस्तिकाओं का प्रणयन किया । पञ्चतन्त्र में से अश्लीलांश निकाल कर भाषानुवाद सहित प्रकाशित किया । ५ ५५६ ६. गङ्गादत्त शर्मा (सं० १९२३ - १९९० ) गङ्गादत्त शर्मा ने गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) में अध्यापन करते हुए अष्टाध्यायी की संस्कृत में एक नातिलघु नातिविस्तृत मध्यम मार्गीय 'तत्त्वप्रकाशिका' नाम्नी वृत्ति का प्रणयन किया। उस का १० प्रथम भाग सं० १९३२ में और द्वितीय भाग सं० १९६४ में सद्धर्म प्रचारक यन्त्रालय जालन्धर से प्रकाशित हुआ । इस का द्वितीय संस्करण सं० २००६ में गुरुकुल मुद्रणालय, गुरुकुल कांगड़ी ( सहारनपुर) से प्रकाशित हुप्रा । परिचय - गङ्गादत्त शर्मा का जन्म 'बेलौन' ( बुलन्दशहर ) में १५ सनाढ्य ब्राह्मण कुल में संवत् १९२३ में हुआ था । आप के पिता का नाम श्री हेमराज वैद्य था । आपने सं० १९४४-४५ में मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्य उदयप्रकाश जी से प्रष्टाध्यायी पढ़ी । काशी के प्रसिद्ध विद्वान् काशीनाथ जी से नवीन व्याकरण और दर्शनों का अध्ययन किया, हरनादत्त भाष्याचार्य से महाभाष्य २० पढ़ा । सं० १९५७ से १९६२ तक गुरुकुल कांगड़ो में व्याकरण पढ़ाते रहे । सं० १९६४ में गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर का प्राचार्य पद स्वीकार किया और अन्त (सं० १९९०) तक वहीं अध्यापन करते रहे । सन् १९७२ में सीधे ब्रह्मचर्य से सन्यास की दीक्षा ग्रहण की स्वामी शुद्धबोध तीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुए । आप का स्वर्गवास २५ सं० १९६० प्राश्विन शुक्ला ७ मी भौमवार को हुआ । 1 ४. जानकी लाल माथुर ( सम्भवतः सं० १९८५) जयपुर निवासी राजकुमार माथुर के पुत्र जानकीलाल माथुर ने १. इन के विस्तृत परिचय के लिए पं० भीमसेन शास्त्री लिखित ३० विरजानन्द प्रकाश, पृष्ठ १०८ - ११२ (तृ० सं०) देखें । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' ५५७ जयपुराधीश सवाई माधवसिंह की माता रूपकुमारी की आज्ञा से अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी । इस का संशोधन पं० शिवदत्त दाधिमथ ने किया और लाहौर के 'मुफीद प्राम' प्रेस में छप कर प्रकाशित हुई । पुस्तक पाणिनीय व्याकरणाध्येताओं को विना मूल्य दी गई । पुस्तक प्रकाशन का काल मुख पत्र पर नहीं छपा है । सम्भवतः यह सन् १९२८ (वि० १९८५) में वा उस से पूर्व छपी थी। क्योंकि इस काल में अध्ययन करते हुए मैंने इस का उपयोग किया था। ___ इस वृत्ति में संस्कृत में संक्षिप्त वृत्ति, उदाहरण तथा उपयोगी वार्तिकों का भी सोदाहरण सन्निवेश है। इस की विशेषता यह है कि वैदिक और स्वर प्रकरण के सूत्रों के उदाहरण सस्वर छापे गये हैं। पाणिनीय व्याकरण का अष्टाध्यायी क्रम से व्याकरण अध्ययन करने वालों के लिये शास्त्र की प्रावृत्ति के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है। लेखक को व्याकरण शास्त्र की उपस्थिति रखने में इस वृत्ति के पाठ से बहुत सहायता मिली । वर्षों तक मैं इस वृत्ति का पारायण करता रहा। १० ८. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु (सं० १९४९-२०२१ वि०) गुरुवर श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने लगभग ४० वर्ष तक अष्टाध्यायी महाभाष्य के क्रम से शतशः छात्रों को पाणिनीय व्याकरण पढ़ाने से प्राप्त विशिष्ट अनुभव के पश्चात् सं० २०१७ में २० अष्टाध्यायी पर वृत्ति लिखने का उपक्रम किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रष्टाध्यायी की प्रथम भावृत्ति पढ़ने पढ़ाने की विधि सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार लिखी है_ "तदनन्तर ध्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ, . जैसे 'वद्धिरादेच'। फिर पदच्छेद, जैसे 'बद्धिः प्रात् ऐच वा प्रादच । २५ फिर समास-'पाच्च ऐच्च प्रादेच्' । और अर्थ जैसे 'प्रादेचां वृद्धिसंज्ञा क्रियते, अर्थात् आ, ऐ, औ की वृद्धिसंज्ञा [की जाती है । 'तः परो यस्मात्स तपरस्तादपि परस्तपरः' तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो वह तपर कहाता है । इससे पा सिद्ध हुआ, जो आकार से परे त, और त से परे ऐच दोनों तपर हैं । तपर का प्रयोजन ३० यह है कि ह्रस्व और प्लुत की वृद्धि संज्ञा न हुई। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उदाहरण- 'भागः' यहां भज' धातु से 'घन' प्रत्यय के परे 'घ, ' की इत्संज्ञा होकर लोप हो गया। पश्चात् 'भज् अ यहां जकार से पूर्व भकारोत्तर प्रकार को वृद्धिसंज्ञक प्राकार हो गया है, तो 'भाज्' पुनः 'ज्' को ग् हो प्रकार के साथ मिलके 'भागः' ऐसा प्रयोग हुआ। 'अध्यायः'. यहां अधिपूर्वक 'इङ' धातु के ह्रस्व इ के स्थान में 'घ' प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि और उसको 'पाय' हो मिलके अध्यायः। 'नायकः' यहां 'नीम्' धातु के दीर्घ ईकार के स्थान में ‘ण्वुल्' १० प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि और उसको 'प्राय' होकर मिलके 'नायकः' । और 'स्तावकः' यहां 'स्तु' धातु से ‘ण्वुल' प्रत्यय होकर ह्रस्व उकार के स्थान में 'नौ' वृद्धि [और] 'प्राव' आदेश होकर प्रकार में मिल गया, तो 'स्तावकः'। . . . __ 'कृञ्' धातु से आगे ‘ण्वुल' प्रत्यय, 'ल' की इत्संज्ञा होके लोप, १५ 'वु' के स्थान में अक प्रादेश, प्रौर. ऋकार के स्थान में 'आर' वृद्धि होकर 'कारकः' सिद्ध हुअा। ............... ___ जो-जो सूत्र आगे-पीछे के प्रयोग में लगें, उनका कार्य सब बतलाता जाय । और सिलेट अथवा लकड़ी के पट्टे पर दिखला. दिखलाके कच्चा रूप धरके, जैसे-'भज+घ+सु' इस प्रकार धेरैके प्रथम प्रकार का लोप, पश्चात् घकार को, फिर ञ् का लोप होकर 'भज्++सु' ऐसा रहा । फिर [अ को प्राकार वृद्धि और] 'ज्" के स्थान में 'ग्' होने से 'भाग्+अ+सु', पुनः प्रकार में मिल जाने से 'भाग+सु' रहा । अब उकार की इत्संज्ञा, 'स्' के स्थान में 'रु' होकर पूनः उकार की इत्संज्ञा और लोप हो जाने के पश्चात् 'भागर' ऐसा २५ रहा । अव रेक के स्थान में (:) विसजनीय होकर 'भागः' यह रूप सिद्ध हुअा। जिस-जिस सूत्र से जो-जो कार्य होता है. उस-उस को पढ़ पढ़ाके और लिखवा कर कार्य कराता जाय । इस प्रकार पढ़ने-पढ़ाने से बहुत शीघ्र दृढ़ बोध होता है।"१ __इस निर्देश के अनुसार प्राचार्यवर ने अपने अष्टाध्यायोभाष्य३० १. सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास, आर्यसमाज शताब्दी सं० २ (रा. ला० क० ट्र०), पृष्ठ १११-११२ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५५६ प्रथमावृत्ति में प्रथम संस्कृत भाषा में प्रतिसूत्र पदच्छेद, विभक्ति, समास, अनुवृत्ति, सूत्र-वृत्ति और उदाहरण देकर हिन्दी में विवरण प्रस्तुत किया है । सूत्र के उदाहरणों की सिद्धि का स्वरूप प्रत्येक भाग के अन्त में दिया है। इस से पाणिनीय सूत्रों का अभिप्राय समझने में छात्रों को अत्यन्त सुगमता होती है। इस दष्टि से यह अष्टाध्यायी- ५ भाष्य (प्रथमावृत्ति) सभी प्राचीन अर्वाचीन वृत्तियों में श्रेष्ठ है । परिचय -श्री प्राचार्यवर का जन्म जिला जालन्धर (पंजाब) के अत्तर्गत मल्लूपोता ग्राम (थाना-बंगा) में १४ अक्टूबर सन् १९६२ ई० में हया था। आप के पिता का निधन ६ वर्ष की अवस्था में हो गया था। इन का पालन इतकी विधवा बुप्रा ने किया था। प्रारम्भ १० में गांव में उर्दू पढ़ी। पश्चात् जालन्धर में हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। वहीं पढ़ते हए संस्कृत पढ़ी। पत्पश्चात् स्व० स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से अष्टाध्योयी महाभाष्य निरुक्तादि का अध्ययन किया। काशी में रहकर दर्शनों का और म० भ० चिन्नस्वामी जी शास्त्री से मीमांसा शास्त्र का अध्ययन किया। आपके द्वारा संस्कृत १५ भाषा की उन्नति और प्रचारको ध्यान में रख कर आपको १५ । अगस्त १९६३ को राष्ट्रपति-सम्मान से सम्मानित किया गया। अध्यापन कार्य-आपने सन १९७७ से अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया, विशेष कर अष्टाध्यायी महाभाष्यादि पाणिनीय व्याकरण का। यह विद्या-सत्र निधन पर्यन्त (सं० २०२१)तक चलता रहा। इस सुदीर्घ २० काल में शतशः छात्रों को विद्यादान दे कर उपकृत किया । आप की अध्यापन शैली बहुत अद्भुत थी। कठिन से कठिन विषय बड़े सरल सरस ढंग से छात्रों को हृदयंगम करा देते थे । आपकी मान्यता थीछात्र यदि समझने में असमर्थ है तो वह छात्र का दोष नहीं, अध्यापक का दोष है। आर्यसमाज के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द सेंरस्वती के निर्देशानुसार यथावत् रूप से अष्टाध्यायी-महाभाष्य आदि के पठन-पाठन को सर्व प्रथम प्रारम्भ करने का श्रेय आप कोही है । यद्यपि आर्यसमाज के क्षेत्र में अनेक गुरुकुलों में अष्टाध्यायी क्रम से पाणिनीय व्याकरण पढ़ाया जाता है, फिर भी उनके जीवन काल में तथा उसके पश्चात् ३० उनके विद्यालय में जिस प्रकार पठन-पाठन कराया जाता है वह अपने रूप में निराला है। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रन्थ का प्रणयन एवं मुद्रण -आचार्यवर ने अष्टाध्यायी भाष्य की रचना सन् १९६० में प्रारम्भ की। दिसम्बर १९६३ तक पांच अध्यायों को पाण्डुलिपि लिखी गई। दिसम्बर १९६४ को इस का प्रथम भाग मुद्रित हुप्रा । तत्पश्चात् २१-२२ दिसम्बर की मध्य रात्रि ५ के २-३० बजे आप का अचानक हृद्गत्यवरोध से निधन हो गया। ___ बहिन प्रज्ञा कुमारी का सहयोग-पूज्य गुरुवर्य की अन्तेवासिनी, इस नाते से मेरी गुरुभगिनी प्रज्ञाकुमारी का अष्टाध्यायी भाष्य के लेखन आदि आर्य में प्रारम्भ से ही सहयोग था । अतः मैंने अ० ४-५ के भाष्य की प्रेस कापी बनाने का कार्य आप को ही सौंपा। उनके १० सहयोग से दिसम्बर १९६५ को द्वितीय भाग प्रकाशित हा । तृतीय भाग का लेखन-प्रस्तुत अति महत्त्वपूर्ण अष्टाध्यायी भाष्य को पूरा करना आवश्यक था अतः शेष अध्याय ६-७-८ का भाष्य लिखने के लिये भी मैंने बहिन प्रज्ञाकुमारी से अनुरोध किया। उन्होंने मेरे अनुरोध को स्वीकार करके प्राचार्यवर के अधूरे कार्य को १५ पूरा करने का कठिन प्रयास किया। इस प्रकार जनवरी १६६८ को अष्टाध्यायी भाष्य का तोसरा भाग प्रकाशित हुआ। अन्य ग्रन्थ-आचार्यवर श्री जिज्ञासु जी ने छोटे मोटे लगभग ८-१० ग्रन्थ लिखे हैं। उन में स्वामी दयानन्द सरस्वो के यजुर्वेदभाष्य के प्रारम्भिक १५ अध्यायों का हस्तलेख से मिलान करके सम्पादन २. करना और उस पर विवरण लिखना महत्त्वपूर्ण कार्य हैं । यह दो भागों में रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) से प्रकाशित हो चुका है। हमने इस अध्याय में अष्टाध्यायी के ३६ वृत्तिकारों, ८ अज्ञातकर्तृ क वृत्तियों, और प्रसंगवश अनेक व्याख्याताओं का वर्णन किया २५ है। इस प्रकार हमने इस अध्याय में लगभग ६० पाणिनीय वैयाकरणों का वर्णन किया है। अब अगले अध्याय में काशिका के व्याख्याकारों का वर्णन किया जायगा। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्याय काशिका के व्याख्याता काशिका जैसे महत्त्वपूर्ण वृत्ति-ग्रन्थ पर अनेक विद्वानों ने टीकाएं लिखीं, उनमें से कई एक इस समय अप्राप्य हैं। बहुत से टीकाकारों के नाम भी अज्ञात हैं । हमें जितने टीकाकारों का ज्ञान हो सका, ५ उनका वर्णन इस अध्याय में करते हैं १. जिनेन्द्रबुद्धि काशिका पर जितनी व्याख्याएं उपलब्ध अथवा परिज्ञात हैं, उनमें बोधिसत्त्वदेशीय आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि विरचित 'काशिकाविवरणपञ्जिका अपरनाम 'न्यास' सब से प्राचीन है। न्यासकार का 'बोधि- १० सत्त्वदेशीय' वीरुत् होने से स्पष्ट है कि न्यासकार बौद्धमत का प्रामाणिक प्राचार्य है।' न्यासकार का काल न्यासकार ने अपना किञ्चिन्मात्र भी परिचय नहीं दिया, अतः इसका इतिवृत्त सर्वथा अन्धकार में है । हम यहां न्यासकार के काल १५ निर्णय करने का कुछ प्रयत्न करते हैं १-हरदत्त ने पदमञ्जरी ४।१।२२ में न्यासकार का नामनिर्देशपूर्वक उल्लेख किया है। हरदत्त का काल विक्रम की १२ वीं शताब्दी का प्रथम चरण अथवा उससे कुछ पूर्व है । यह हम पूर्व (पृष्ठ ४२४) लिख चुके हैं। अतः न्यासकार विक्रम की १२ वीं २० शताब्दी के प्रारम्भ से प्राचीन है। . २-महाभाष्यव्याख्याता कैयट हरदत्त से पौर्वकालिक है, यह हम ' कैयट के प्रकरण में लिख चुके हैं । कैयट और जिनेन्द्रबुद्धि के अनेक वचन परस्पर अत्यन्त मिलते हैं । जिनसे यह स्पष्ट है कि कोई एक दूसरे से सहायता अवश्य ले रहा है। परन्तु किसी ने किसी का नाम २५ निर्देश नहीं किया । इसलिये उनके पौर्वापर्य के ज्ञान के लिये हम दोनों के दो तुलनात्मक पाठ उद्धृत करते हैं १. इस विषय में विशेष न्यासकार के प्रकरण के अन्त में देखें। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास न्यास-द्वयोरिकारयोः प्रश्लेषनिर्देशः । तत्र यो द्वितीय इवर्णः स ये [विभाषा] इत्यात्त्वबाधा यथा स्यादित्येवमर्थः । ३ । १ । १११ ॥ प्रदीप-दीर्घोच्चारणे भाष्यकारेण प्रत्याख्याते केचित् प्रश्लेषनिर्देशेन द्वितीय इकारो ये विभाषा ( ६ । ४ । ४३ ) इत्यात्त्वस्य पक्षे परत्वात् प्राप्तस्य बाधनार्थ इत्याहुः । तदयुक्तम् । क्यप्सन्नियोगेन विधीयमानस्येत्त्वस्यान्तरङ्गत्वात् । ३ । १ । १११ ॥ न्यास-अनित्यता पुनरागमशासनस्य घोर्लोपो लेटि वा (७।३।७०) इत्यत्र वाग्रहणाल्लिङ्गाद् विज्ञायते । तद्धि ददत् ददाद् इत्यत्र नित्यं घोर्लोपो मा भूदित्येवमर्थ क्रियते । यदि च नित्यमागमशासनं स्याद् १० वाग्रहणमनर्थक स्यात् । भवतु नित्यो लोपः । सत्यपि तस्मिन् लेटो ऽडाटौ (३।४। ६५ ) इत्यटि कृते ददत ददादिति सिध्यत्येव । अनित्यत्वे त्वागमशासनस्याडागमाभावान्न सिध्यति, ततो वा वचनमर्थवद् भवति । ७ । ११॥ प्रदीप-केचित्त्वनित्यमागमशासनमित्यस्य ज्ञापकं वाग्रहणं वर्ण. १५ यन्ति । अनित्यत्त्वात्तस्याटयसति ददादिति न स्यादिति । तसिद्धये वाग्रहणं क्रियमाणमेनां परिभाषां ज्ञापयति । ७ । ३ । ७० ॥ ___ इन उद्धरणों की परस्पर तुलना करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि दोनों स्थानों में कैयट 'कैचित्' पद से न्यासकार का निर्देश करता है, और उसके ग्रन्थ को अपने शब्दों में उद्धृत करता है। अतः न्यासकार निश्चय ही वि० सं० १०६० से पूर्ववर्ती है। यह उसकी उत्तर सीमा है। ३-डा. याकोबी ने भविष्यत पुराण के आधार पर हरदत्त का देहावसान ८७८ ई० (=६३५ वि०) माना है।' यदि हरदत्त की यह तिथि प्रमाणान्तर से परिपुष्ट हो जाए, तो न्यासकार का काल २५ सं० ६०० वि० से पूर्व मानना होगा। ४-हेतुबिन्दु की टीका में 'अर्चट' लिखता है'यदा ह्याचार्यस्याप्येतदभिमतमिति कश्चिद् व्याख्यायते"। पृष्ठ २१८ (बड़ोदा संस्करण) इस पर पण्डित दुर्वेक मिश्र अपने आलोक में लिखता है३० १. जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई, भाग २३, पृष्ठ ३१ । २० Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५६३ कैश्चिदिति ईश्वरसेनजिनेन्द्रप्रभृतिभिः । पृष्ठ ४०५, वही संस्करण। यदि अचंट का कैश्चिद् पद से ईश्वरसेन और जिनेन्द्रबुद्धि की ओर ही संकेत हो, जैसा कि दुर्वेक मिश्र ने व्याख्यान किया है, तब न्यासकार का काल वि० सं० ७०० के लगभग होगा। क्योंकि 'अर्चट' ५ का काल ईसा की ७ वीं शती का अन्त है । ५- न्यास के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रकर्ती ने न्यासकार का काल सन् ७२५-७५० ई०, अर्थात् वि० सं० ७८२-८०७ माना है । महाकवि माघ और न्यास महाकवि माघ ने शिशुपालवध के 'अनुत्सूत्रपदन्यासा' इत्यादि १० श्लोक में श्लेषालंकार से न्यास का उल्लेख किया है। न्यास के सम्मादक ने इसी के आधार पर माघ को न्यासकार से उत्तरवर्ती लिखा है, वह अयुक्त है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' प्राचीन काल में न्यास नाम के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे। कोई न्यास ग्रन्थ भर्तहरिविरचित महाभाष्यदोपिका में भी उद्धृत है । एक न्यास मल्लवादि- १५ सरि ने वामनविरचित 'विश्रान्तविद्याधर' व्याकरण पर लिखा था। पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दी ने भी पाणिनीयाष्टक पर 'शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा था। अत: महाकवि माघ ने किस न्यास की ओर संकेत किया है, यह अज्ञात है । हां, इतना निश्चित है कि माघ के उपर्युक्त श्लोकांश में जिनेन्द्रबुद्धिविरचित न्यास का उल्लेख नहीं २० है। क्योंकि शिशुपाल वध का रचना काल सं० ६८२-७०० के मध्य भामह और न्यासकार भामह ने अपने 'अलंकारशास्त्र' में लिखा है १. द्र०—पूर्व पृष्ठ ५०६ । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४१५ पर महाभाष्यदीपिका का ३६ वां उद्धरण । ३. इसका वर्णन 'पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वें अध्याय में करेंगे। ४. देखो-पूर्व पृष्ठ ४८६ । ५. देखो-पूर्व पृष्ठ ५०७ । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ __संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा । तृचा समस्तषष्ठीकं न कथंचिदुदाहरेत् ॥ सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः । अकेन च न कुर्वीत वृत्तिस्तदगमको यथा ॥' इन श्लोकों में स्मृत न्यासकार जिनेन्द्रबुदि नहीं है। क्योंकि उसके सम्पूर्ण न्यास में कहीं पर भी 'जनिकर्तः प्रकृतिः' (अष्टा० १।४ । ३० ) के ज्ञापक से 'वृत्रहन्ताः' पद में समास का विधान नहीं किया । न्यास के सम्पादक ने उपयुक्त श्लोकों के प्राधार पर भामह का काल सन् ७७५ ई० अर्थात् सं० ८३२ वि० माना है।' यह १० ठीक नहीं। क्योंकि सं०६८७ वि० के समीपवर्ती स्कन्द-महेश्वर ने अपनी निरुक्तटीका में भामह के अलंकार ग्रन्थ का एक श्लोक उद्धृत किया है। अतः भामह निश्चय ही वि० सं० ६८७ से पूर्ववर्ती है। __हम पूर्व (पृष्ठ ५६३) लिख चुके हैं कि व्याकरण पर अनेक न्यास ग्रन्थ रचे गये थे । अतः भामह ने किस न्यासकार का उल्लेख किया है, १५ यह अज्ञात है। इसलिये केवल न्यास नाम के उल्लेख से भामह जिनेन्द्रबुद्धि से उत्तरवर्ती नहीं हो सकता। न्यास पर विशिष्ट कार्य पं० भीमसेन शास्त्री ने पीएच० डी० की उपाधि के लिये 'न्यास-पर्यालोचन' नाम का महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखा है, जो सन् २० १९७६ में प्रकाशित हुआ है । इस में शास्त्री जी ने न्यासकार और उस के न्यास ग्रन्थ के सम्बन्ध में अनेक नवीन तथ्यों का उद्घाटन किया है। मतभेद - शास्त्री जी ने बड़ी प्रबलता से न्यासकार के बौद्ध होने का खण्डन और वैदिक मतानुयायी होने का मण्डन किया है । परन्तु हमें उन की युक्तियां वा प्रमाण उनके मत को स्वीकार कराने में असमर्थ रही हैं। शास्त्री जी ने न्यासकार के वैदिक मतानुयायी होने के जितने उद्धरण दिये हैं उन से हमारे विचार में उनका मत सिद्ध नहीं १. न्यास की भूमिका, पृष्ठ २७ । २. देखो-निरुक्तटीका १० । १६ । आह-तुल्यश्रुतीनां.... तन्नि३० रुच्यते । यह भामह के अलंकारशास्त्र २ । १७ का वचन है। निरुक्तटीका क पाठ त्रुटित तथा अशुद्ध है। २५ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५६५ 1 होता । प्राचीन विद्वान् अपने मत से भिन्न मतों के सिद्धान्तों को भी भले प्रकार जानते थे । वह काल ही ऐसा था जब बौद्ध जैन और वैदिक मतानुयायियों का परस्पर संघर्ष चलता रहता था। साथ ही यह भी ध्यान में रखने योग्य बात है कि न्यास ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण पर लिखा गया है जो वेद का अङ्ग माना जाता है अत: उसके ५ व्याख्यान में तो उसे मूल ग्रन्थकार के मन्तव्यों के अनुसार ही व्याख्या करनी प्रावश्यक थी । हमारे मत में न्यासकार बौद्ध है । अत एव वैदिक प्रतीकों के व्याख्यान में विशेषकर स्वर विषय में उसने महती भूलें की हैं। ऐसी भूलें वैदिक मतानुयायी कभी नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये हम १० नीचे दो उदाहरण देते हैं १. विभाषा छन्दसि - ( १२/३६ ) सूत्र की व्याख्या में उद्धृत इषे त्वोर्जे त्वा मन्त्र जो शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद की सभी शाखाओं का आद्य मन्त्र है, की व्याख्या में न्यासकार ने इषे और ऊर्जे पदों का प्रकारान्त इह और ऊर्ज पद का सप्तम्यन्त मानकर व्या १५ ख्यान किया है। यह समस्त वैदिक परम्परा के विपरीत है । इस मन्त्र के सभी व्याख्याकारों ने इन्हें चतुर्थ्यन्त माना है । मन्त्रार्थ भी चतुर्थ्यन्त मानने पर ही उपपन्न होता है । २ - यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ् खसामसु ( ११२१३४ ) की काशिका में जप शब्द के अर्थ का जो निर्देश किया है। उस के दो पाठ हैं - जपोऽनु- २० करणमन्त्रः, जपोsकरणमन्त्रः । इन दोनों पाठों की न्यासकार ने व्याख्या की है । इन में प्रथम पाठ तो अशुद्ध हैं, द्वितीय पाठ ही शुद्ध है | वैदिक कर्मकाण्डीय परिभाषा में जप मन्त्र की व्याख्या प्रकरणो - मन्त्रः ही की जाती है । इस का अर्थ है जप मन्त्र वे कहाते हैं जिन से यज्ञ में कोई क्रिया नहीं की जाती है । २५ - न्यासकार यदि वैदिक होता तो उसे कर्मकाण्डीय जप मन्त्र की व्याख्या ज्ञात होती और वह लेखक प्रमाद से भ्रष्ट हुए जपोऽनुकरणमन्त्रः पाठ की व्याख्या न करता । इसी प्रकार जपोऽकरणमन्त्रः की जो व्याख्या न्यासकार ने की है वह भी वैदिक कर्मकाण्डीय परिभाषा से विपरीत होने से चिन्त्य है । नञ् को ईषद् प्रर्थवाचक मान कर की ३० गई ईषत् करणमुच्चारणं यस्य व्याख्या खींचातानी मात्र है । जपमन्त्र Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के उपांशु उच्चारण का अन्य नियम से विधान है। पासकार की व्याख्यानुसार तो जिन करणमन्त्रों का भी उपांशु उच्चारण का विधान किया है । उन में भी इस की अतिप्रसक्ति होगी । जैसे प्रजा पतये स्वाहा-मन्त्र का आहति का विधान होने से यह करणमन्त्र है, ५ परन्तु प्रजापतिरुपांशुः प्रयोक्तव्यः नियम से 'प्रजापतये' अंश उपांशु बोला जाता हैं। न्यास के व्याख्याता १-मैत्रेयरक्षित (सं० ११३२-११७२ वि०) मैत्रेयरक्षित ने न्यास की 'तन्त्रप्रदीप' नाम्नी महती व्याख्या रची १० है। सौभाग्य से इसका एक हस्तलेख कलकता के राजकीय पुस्तका. लय में सुरक्षित है । हस्तलेख में प्रथमाध्याय के प्रथम पाद का ग्रन्थ नहीं हैं, शेष संपूर्ण है । देखो-बंगाल गवर्नमेण्ट की आज्ञानुसार पं० राजेन्द्रलाल सम्पादित सूचीपत्र भाग ६, पृष्ठ १४०, ग्रन्थाङ्क २०७६ । विद्वत्ता-मंत्रेयरक्षित व्याकरणशास्त्र का असाधारण पण्डित १५ था। वह पाणिनीय तया इतर व्याकरण का भी अच्छा ज्ञाता था। वह अपने 'धातुप्रदीप' के अन्त में स्वयमेव लिखता है 'वृत्तिन्यासं समुद्दिश्य कृतवान् ग्रन्थविस्तरम् । नाम्ना तन्त्रप्रदीपं यो विवृतास्तेन धातवः ॥ प्राकृष्य भाष्यजलधेरथ धातुनामपारायणक्षपणपाणिनिशास्त्रवेदी। कालापचान्द्रमततत्त्वविभागदक्षो, धातुप्रदीपमकरोज्जगतो हिताय' । सीरदेव ने भी अपनी परिभाषावृत्ति में लिखा है 'तस्माद् बोद्धव्योऽयं रक्षितः, बोद्धव्याश्च विस्तरा एव रक्षित२५ ग्रन्था विद्यन्ते' । पृष्ठ ६५, परिभाषासंग्रह (पूना) पृष्ठ २१५ । देश-यह सम्भवतः बंगप्रान्तीय था।' काल-मैत्रेयरक्षित का काल वि० संवत ११४०-११६५ तक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के १. विशेष द्रष्टव्य इसी इतिहास का भाग २, पृष्ठ १०१ । ३० २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४२४ । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५६७ सम्पादक ने भी मैत्रेय रक्षित का काल सन् १०७५-११२५ ई० ( अर्थात् वि० सं० १९३२ - ११५२) माना है ।' तन्त्रप्रदीप के व्याख्याता (१) नन्दन मिश्र - नन्दन मिश्र न्यायवागीश ने तन्त्रप्रदीप की 'तन्त्रप्रदीपोद्योतन' नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । नन्दनमिश्र के पिता का नाम वाणेश्वर मिश्र हैं । इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय का एक हस्तलेख कलकत्ता के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है । देखोपं० राजेन्द्रलाल संपादित पूर्वोक्त सूचीपत्र भाग ६, पृष्ठ १५०, ग्रन्थाङ्क २०८३ । 1 पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के सम्पादक श्री दिनेशचन्द्र भट्टा- १० चार्य ने जिस हस्तलेख का वर्णन किया है, उसके अन्त में पाठ है'इति धनेश्वर मिश्रतनयभीनन्दन मिश्रविरचिते न्यासोद्दीपने ।' इस पाठ के अनुसार नन्दनमिश्र के पिता का नाम धनेश्वर मिश्र है, और ग्रन्थ का नाम है न्यासोद्दीपन । हां, दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने यह तो स्वीकार किया है कि यह तन्त्रप्रदीप की व्याख्या है ।" १५ (२) सनातन तर्काचार्य - इसने तन्त्रप्रदीप पर 'प्रभा' नाम्नी टीखा लिखी है | प्रो० कालीचरण शास्त्री हुबली का मैत्रेय रक्षित पर लेख भारतकौमुदी भाग २ में छपा है । उसमें उन्होंने इस टीका का उल्लेख किया है । 1 २० (३) तन्त्रप्रदीपालोककार - किसी अज्ञातनामा पण्डित ने तन्त्रप्रदीप पर 'आलोक' नाम्नी व्याख्या लिखी है । इसका उल्लेख भी प्रो० कालीचरण शास्त्री के उक्त लेख में है । हम इन ग्रन्थकारों के विषय में अधिक नहीं जानते । २ - रत्नमति (सं० १९९० से पूर्व ) सर्वानन्द (सं० १२१६) ने अमरटीकासर्वस्व ३ । १ । ५ पर २५ रत्नमति का निम्न पाठ उद्धृत किया है 'न तु संशयवति पुरुष इति न्यासः । श्रतः सप्तम्यर्थेबहुव्रीहिः १. द्र० - राजशाही संस्करण, भूमिका, पृष्ठ १० । २. भूमिका, पृष्ठ १८ । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास मल्लिनाथ ने न्यास की 'न्यासोद्योत' नाम्नी टीका लिखी थी । १० प्रफेक्ट ने अपने बृहत् सूचीपत्र में इसका उल्लेख किया है । मल्लिनाथ ने स्वयं किरातार्जुनीय की टीका में 'न्यासोद्योत' के पाठ उद्धृत किये हैं । २५ ५६८ संशय कर्तरि पुरुष एवेति तद्रत्नमतिः' ।' इस उद्धरण में यदि तच्छब्द से न्यास ही अभिप्र ेत हो, तो मानना होगा कि रत्नमति ने न्यास पर कोई ग्रन्थ लिखा था । गणरत्नमहोदधि में वर्धमान (सं० १९९७) लिखता है - ३० रत्नमतिना तु हरितादयो गणसमाप्ति यावदिति व्याख्यातम् ।' रत्नमति के व्याकरणविषयक अनेक उद्धरण अमरटीका सर्वस्व गणरत्नमहोदधि और धातुवृत्ति प्रादि में उद्धृत हैं ३ - मल्लिनाथ (सं० १२६४ से पूर्व ) मल्लिनाथ का काल - मल्लिनाथ का निश्चित काल प्रज्ञात है । सायण ने धातुवृत्ति में 'न्यासोद्योत' के पाठ उद्धृत किये हैं । सायण का काल संवत् १३७१-१४४४ तक माना जाता है । धातुवृत्ति का रचनाकाल सं० १४१५-१४२० के मध्य है, यह हम ' धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता ( २ ) ' नामक २१ वें अध्याय में लिखेंगे । २० अतः मल्लिनाथ का काल विक्रम की १४ वीं शताब्दी है । महिनाथ साहित्य और व्याकरण का अच्छा पण्डित था, यह उसकी काव्यटीका से भली प्रकार विदित होता है । मल्लिनाथकृत न्यासोद्योत का तन्त्रोद्योत के नाम से अमरचन्द्र सूरिविरचित बृहद्वृत्त्यवचूर्णि ग्रन्थ के पृष्ठ १५४ पर मिलता है । नन्दन मिश्र विरचित तन्त्रप्रदीपोद्योतन का भी हस्तलेख में 'न्यासो - १. भाग ४, पृष्ठ ३ ॥ २. श्र० ३, श्लोक २३८ की व्याख्या, पृष्ठ २५२ । भाबस्य, ३ः उक्तं च न्यासोद्योतेन केवलं श्रूयमाणैव क्रिया निमित्तं कारकअपि तु गम्यमानापि । २ । १७, पृष्ठ २४, निर्णयसागर संस्करण । ४. पृष्ठ ३१, २१९ काशी संस्करण । ५. तन्त्रोद्यतस्तु शतहायन शब्दस्य कालवाचकत्वाभावे 'तत्र कृत' इत्यने - नाणमेवेच्छति । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५६६ द्दीपन' नाम से निर्देश मिलता है। अतः अमर चन्द्र सूरि निर्दिष्ट तन्त्रोद्योत भी न्यासोद्योत ही है, ऐसा हमारा विचार है । यदि यह विचार ठीक हो तो मल्लिनाथ का काल वि० सं० १२६४ से पूर्व है इतना निश्चित मानना होमा । क्योंकि हैम बृहद्वृत्त्यवचूर्णि का लेखन काल वि० सं० १२६४ है।' ४-नरपति महामिश्र (सं० १४००-१४५० वि०) नरपति महामिश्र नाम के विद्वान् ने न्यास पर एक व्याख्या लिखी है, इसका नाम न्यासप्रकाश है । इसके प्रारम्भिक भाग का एक हस्तलेख जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के संग्रह में विद्यमान है । देखोसूचीपत्र, पृष्ठ ४१ । ग्रन्थकार ने स्वग्रन्थ के प्रारम्भ में इस प्रकार लिखा हैनरपतिकृतिरेषा कामिनीनन्दिनीव, गुरुतमकृततोषा नाशिताशेषदोषा। सुललितगतिबन्धा निजिताशेषतेजा, जयति जगदुपेता मालिनी जाह्नवीव ।। शिवं प्रणम्य देवेशं तथा शिवपति शिवाम् । प्रकाश: क्रियते न्यासे महामित्रेण धीमता॥ विद्यापतेः प्रेरणकारणेन, कृतो मया व्याकरणप्रकाशः । यद्यत्र किञ्चित्स्खलनं भवेन्मे, क्षन्तव्यमीषद्गुणिनां वरेस्तत् ।। इस उल्लेख से विदित होता है कि महामिश्र ने किसी विद्यापति नाम के विशिष्ट व्यक्ति की प्रेरणा से 'न्यासप्रकाश' लिखा था। पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के सम्पादक दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने महामिश्र का काल १४००-१४५० ई० माना है।' ५-पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (वि० १५ वीं शती) पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर नाम के किसी विद्वान् ने न्यास की टीका २५ १. द्र०-पृष्ठ ५६७, पं० १२ । २. संवत १२६४ वर्षे श्रावणशुदि ३ रवी श्री जयानन्द सूरिशिष्येणामरचन्द्रेणाऽऽत्मयोगाऽवचूर्णिकाया: प्रथम पुस्तिका लिखिता । हैम बृहद्वृत्त्यवचूर्णि, पृष्ठ २०७॥ ३. भूमिका, पृष्ठ १६ ॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' तच्चिन्त्यमिति न्यासटीकायां प्रपञ्चितमस्माभिः' ।' पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के सम्पादक दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ५ ने पुण्डरीकाक्ष का काल ईसा की १५ वीं शती माना है ।' ५७० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास लिखी है। इसका उल्लेख ग्रन्थकार ने स्वयं 'कातन्त्रप्रदीप' नाम्नी कान्त्रीका में किया है । वह लिखता है । पुण्डरीकाक्षे विद्यासागर ने भट्टि काव्य पर कातन्त्रप्रक्रियानुसारी एक व्याख्या लिखी है । उस के अन्त के लेख से विदित होता है कि इसके पिता का नाम श्रीकान्त था । इस टीकाका वर्णन हम इस ग्रन्थ के 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' नामक ३० वें अध्याय में करेंगे। १० २. इन्दुमित्र (सं० ११५० वि० से पूर्ववर्ती ) इन्दुमित्र नाम के वैयाकरण ने काशिका की एक 'अनुन्यास ' नाम्नी व्याख्या लिखी थी । इन्दुमित्र को अनेक ग्रन्थकार 'इन्दु' नाम से स्मरण करते हैं । इन्दु और उसके अनुन्यास के उद्धरण माधवीय १५ धातुवृत्ति, उज्ज्वलदत्त की उणादिवृत्ति, सीरदेवीय परिभाषावृत्ति, दुर्घटवृत्ति, प्रक्रिया कौमुदी की प्रसादटीका और अमरीका सर्वस्व आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । इन्दुमित्र ने अष्टाध्यायी पर पर 'इन्दुमती' नाम्नी एक वृत्ति लिखी थी, उसका उल्लेख हम पूर्व (पृष्ठ ५२३) कर चुके हैं । सीरदेव ने परिभाषावृत्ति में एक स्थान पर लिखा हैयत्तु तत्र स्वमतिमहिमप्रागल्भ्या वनुन्यासकारो व्याजहार वत्र २० २५ १. भूमिका पृष्ठ १८ । २. इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छीकान्त पण्डितात्मजश्रीपुण्डरीकाक्षविद्या - सागरभट्टाचार्यकृतायां भट्टिीकायां कलापदीपिकायाम् ३. पृष्ठ २०१ । ४. पृष्ठ १, ५५, ८६ ५. पृष्ठ ५,२८,८६ परिभाषासंग्रह ( पूना सं० ) में क्रमशः पृष्ठ १६१, १७६, २०५ । ६. पृष्ठ १२०, १२३, १२६ । ७. भाग १, पृष्ठ ६१०; ८. भाग १, पृष्ठ ६१० भाग २, पृष्ठ १४५ । भाग २, पृष्ठ ३३६ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५७१ साम-यंप्राप्तमुभयोरुपादानं स उभयंप्राप्तौ कर्मणीत्यस्य विषयः । ... तदयुक्तम् । पृष्ठं ५, परिभाषासंग्रह, पृष्ठ १६३ । फेक्ट ने अपने बृहत् सूचीपत्र में अनुन्यास के नाम से तन्त्रप्रदीप का उल्लेख किया है, ' वह चिन्त्य है । सीरदेव ने परिभाषावृत्ति में 'अनुन्यासकार और तन्त्रप्रदीपकार के शाश्वतिक विरोध का उल्लेख किया है । यथा 'एतस्मिन् वाक्ये इन्दुमैत्रेययोः शाश्वतिको विरोधः । पृष्ठ ७६ परिभाषासंग्रह पृष्ठ २०५ । 'उपदेशग्रहणानुवर्तनं प्रति रक्षितानुन्यासयोविवाद एव' । पृष्ठ २७ परिभाषासंग्रह, पृष्ठ १७६ । १० अनुन्यासकार इन्दुमित्र का काल हम पूर्व (पृष्ठ ५२४-५२५) लिख चुके हैं । तदनुसार इन्दुमित्र का काल सं० ८०० से ११५० के मध्य है । धनुन्यास - सारकार - श्रीमान शर्मा श्रीमान शर्मा नाम के विद्वान् ने सीरदेवीय परिभाषावृत्ति की १५ 'विजया' नाम्नी टिप्पणी में लिखा है अनुन्यासादिसारस्य कर्त्रा श्रीमानशर्मणा । लक्ष्मीपतिपुत्रेण विजयेयं विनिर्मिता ॥ इससे ज्ञात होता है कि श्रीमान शर्मा ने 'अनुन्याससार, नाम का कोई ग्रन्थ रचा था। यह वारेन्द्र चम्पाहट्टि कुल का था । श्रीमान २० शर्मा ने अपने 'वर्षकृत्य' ग्रन्थ के अन्त में अपने को व्याकरण तर्क सुकृत ( = कर्मकाण्ड) आगम और काव्यशास्त्र का इन्दु कहा है शिष्य - श्रीमान शर्मा का एक शिष्य पद्मनाभ मिश्र है काल - श्रीमान शर्मा का काल सं० १५००-१५५० के मध्य है। ।. । 3 ܕ ¬ ¬ ܐ ܪ ; : S १. सूचीपत्र भाग ५ । २ व्याकरणतर्कसुकृतागम काव्य वारि (शशी) न्दुनापरिसमात वर्षकृत्यम् । पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति ( राजशाही ), भूमिका पृष्ठ १७ में उद्धृतः । ३. अस्मत्प्रथमपरमगुरवः श्री श्रीमानभट्टाचार्यास्तु शब्दपरो निर्देशः :... : ४. श्रीमान शर्मा का उक्त वर्णनः पुरुषोत्तम देवीय परिभाषावृत्ति के सम्पा दक दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य के निर्देशानुसार है । द्र० भूमिका पृष्ठ १६, १७ । २५ ३० Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्रीमान शर्मा विरचित 'विजया' नाम्नी परिभाषावृत्ति टिप्पणी का वर्णन हम 'परिभाषा-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २६ वें अध्याय में करगे।' ३. महान्यासकार (सं० १२१५ वि० से पूर्ववर्ती) . किसी वैयाकरण ने काशिका पर 'महान्यास' नाम्नी टीका लिखी थी। इस के जो उद्धरण उज्ज्वलदत्त की उणादिवत्ति, और सर्वानन्दविरचित अमरटीकासर्वस्व में उपलब्ध होते हैं, वे निम्न हैं - १. टित्त्वमभ्युपगम्य गौरादित्वात् सूचीति महान्यासे ।' । २. वह्नतेः घञ्, ततष्ठन् इति महान्यासः। ३. चुल्लीति महान्यास इति उपाध्यायसर्वस्वम् । इन में प्रथम उद्धरण काशिका १।२। ५० के 'पञ्चसचिः उदाहरण की व्याख्या से उद्धृत किया है । द्वितीय उद्धरण का मूल स्थान अज्ञात है। ये दोनों उद्धरण जिनेन्द्रबुद्धिविरचित न्यास में उपलब्ध नहीं होते । अतः महान्यास उस से पृथक् है । महान्यास के कर्ता का नाम अज्ञात है । एक महान्यास क्षपणक व्याकरण पर भी था। मैत्रेय ने तन्त्रप्रदीप ४ । १ । १५५ पर उसे उद्धृत किया हैं।' महान्यास का काल-सर्वानन्द ने अमरटीकासर्वस्व की रचना शकाब्द १०८१ अर्थात् वि० सं० १२१६ में की थी। यह हम पूर्व २० लिख चुके हैं । अतः महान्यासकार का काल सं० १२१६ से प्राचीन है। महान्यास संज्ञा से प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ न्यास और अनुन्यास दोनों ग्रन्थों से पीछे बना है। १. भाग २, पृष्ठ ३१६-३१७, तृ० सं०॥ २. उज्ज्वल उणादिवृत्ति, पृष्ठ १६५ । . ३. अमरटीका० भाग २, पृष्ठ ३७६ । ४. अमरटीका० भाग ३, पृष्ठ २७७ । ५. देखो-धातुप्रदीप के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने भूमिका, पृष्ठ १ पर मैत्रेय-रक्षित विरचित तन्त्रप्रदीप में उद्धृत ग्रन्थ ग्रन्थकारों के ३० निर्देश में ४१११५५ पर क्षपणक व्याकरण महान्यास का उल्लेख किया है । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५७३ ४. विद्यासागर मुनि (१११५ वि० से पूर्व) विद्यासागर मुनि ने काशिका की 'प्रक्रियामञ्जरी' नाम्नी टीका लिखी है । यह ग्रन्थ मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय के संग्रह में विद्यमान है। देखो-सूचीपत्र भाग २ खण्ड १ A पृष्ठ ३५०७ ग्रन्थाङ्क २४९३ । इस का एक हस्तलेख ट्रिवेण्डम् में भी है । देखो- ५ सूचीपत्र भाग ३ ग्रन्थाङ्क ३३॥ इस ग्रन्थ का प्रारम्भिक लेख इस प्रकार है। 'वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्द्यान्, श्रीमद्गुरुन् श्वेतगिरीन् वरिष्ठान् । न्यासकारवचः पद्मनिकरोद्गीर्णमम्बरे गृह्णामि मधुप्रीतो विद्यासागरषट्पदः ॥ वृत्ताविति-सूत्रार्थप्रधानो ग्रन्थो भट्टनल्पूरप्रभृतिभिविरचितो वृत्ति.............। उपरिनिर्दिष्ट श्लोक से विदित होता है कि विद्यासागर के गुरु का नाम श्वेतगिरि था। 'संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा' ग्रन्थ में पृष्ठ १०३ पर प्रक्रिया मञ्जरीकार विद्यासागर मुनि का जैन ग्रन्थकार के रूप में उल्लेख किया है । यह प्रमाद है अथवा जैन लेखकों का जैनेतर लेखकों को भी जैन कहने की प्रक्रिया की विण्डम्बना है, यह लेखक ही जानें । ग्रन्थ के अन्त में निर्दिष्ट परमहंस २० परिव्राजकाचार्य निर्देश से स्पष्ट है कि विद्यासागर मुनि वैदिक मतानुयायी थे, इन के गुरु का नाम श्वेतगिरि था। यह भी इन के वेदमतानुयायी होने का बोधक है, क्योंकि गिरि पुरी सरस्वती आदि . नाम वैदिक संन्यासियों के ही होते हैं। काल पूर्व-निर्दिष्ट उद्धरण में विद्यासागर मुनि ने केवल न्यासकार का उल्लेख किया है । पदमञ्जरी अथवा उसके कर्ता हरदत्त का उल्लेख नहीं है । इस से प्रतीत होता है कि विद्यासागर हरदत्त से पूर्ववर्ती है। ग्रन्थ के अन्त में 'इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यविद्यासागरमुनीन्द्रविरचितायां.....' पाठ उपलब्ध होता है। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५. हरदत्त मिश्र (सं० १११५ वि० ) हरदत्त मिश्र ने काशिका की 'पदमञ्जरी' नाम्नी व्याख्या लिखी हैं । इस व्याख्या के अवलोकन से उसके पाण्डित्य और ग्रन्थ की प्रौढ़ता स्पष्ट प्रतीत होती है। हरदत्त केवल व्याकरण का पण्डित नहीं है । इसने श्रौत गृह्य और धर्म आदि अनेक सूत्रों की व्याख्याएं लिखी हैं। हरदत्त पण्डितराज जगन्नाथ' के सदृश अपनी प्रत्यधिक प्रशंसा करता है ।" ५ १० १५ ५७४ परिचय - - हरदत्त ने पदमञ्जरी ग्रन्थ के आरम्भ में अपना परिचय इस प्रकार दिया है 'तातं पद्मकुमाराख्यं प्रणम्याम्बां श्रियं तथा । ज्येष्ठं चाग्निकुमाराख्यमाचार्यमपराजितम् ॥' अर्थात् - हरदत्त के पिता का नाम 'पद्मकुमार' ( पाठान्तर - रुद्रकुमार), माता का नाम 'श्री', ज्येष्ठ भ्राता का नाम 'अग्निकुमार ' और गुरु का नाम 'अपराजित' था । प्रस्तुत श्लोक में 'पद्मकुमाराख्यम्' के स्थान में 'पद्मकुमाराय ' 'रुद्रकुमाराख्यं' तथा 'अग्निकुमाराख्यम्' के स्थान में 'अग्निकुमारार्यम्' पाठ भी क्वचिदुपलब्ध होता है, तथापि बहुहस्तलेखानुसार 'पद्मकुमाराख्यं' तथा 'अग्निकुमाराख्यं' पाठ ही अधिक प्रामाणिक हैं । हरदत्त ने प्रथम श्लोक में शिव को नमस्कार किया है । अतः वह शैव मतानुयायी था । २० देश - ग्रन्थ के आरम्भ में हरदत्त ने अपने को 'दक्षिण' देशवासो लिखा है ।" पदमञ्जरी भाग २ पृष्ठ ५१६ से विदित होता है कि हरदत्त द्रविड़ देशवासी था । हरदत्तकृत अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि वह चोलदेशान्तर्गत कावेरी नदी के किसी तटवर्ती ग्राम का २५ १. प्रक्रियात कंगन प्रविष्टो हृष्टमानसः । हरदत्तहरि : स्वरं विहरन् केन वार्यते । पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ ४९ ॥ २. तस्मै शिवाय परमाय दशाव्याय साम्बाय सादरमयं विहितः प्रणामः । ३. यश्चिराय हरदत्तसंज्ञया विश्रुतो दशसु दिक्षु दक्षिणः । पृष्ठ १ । ४. लेट्ाब्दस्तु वृत्तिकारदेशे जुगुप्सित:, यथात्र द्रविडदेशे निविशब्दः । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५७५ निवासी, और द्रविडभाषाभाषी था।' हमारे मित्र यन्. सी. यस्. वेङ्कटाचार्य शतावधानी सिकन्दराबाद (आन्ध्र) ने १-३-६३ के पत्र में हरदत्त के देश के सम्बन्ध में जो निर्देश किये हैं, उनका संक्षेप इस प्रकार है क-हरदत्त मिश्र का अभिजन आन्ध्र था। उसने पदमञ्जरी में : देशभाषा का अप्रामाण्य दर्शाते हुए 'कूचिमञ्चीत्यादयः' का निर्देश किया है। 'कृचिमञ्चि' यह आन्ध्र प्रदेश के एक ग्राम का नाम है, और वह ग्राम आज भी विद्यमान है । द्रविड़देशवासी के लिए आन्ध्र प्रदेश के ग्राम का निर्देश करना असंभव है। ___ ख-'तातं पद्मकुमाराख्यम्' श्लोक में 'पद्मकुमार' नाम 'ब्रह्मय्य' १० नाम का संस्कृत रूपान्तर है। इसी प्रकार 'श्रीः' 'लक्ष्मम्म" नाम, का, 'अग्निकूमार' कोमरय्य' =कोमारय्य का। नामों के संस्कृतीकरण की ऐसी रीति आन्ध्र प्रदेश में प्रचुरता से विद्यमान है । ग-पदमञ्जरी में निदिष्ट यथाऽत्र द्रविडदेशे निविशब्दः उक्ति आन्ध्र प्रदेश से द्रविड़ देश में चले जाने पर ही उपपन्न हो सकती है। १५ अन्यथा वह 'यथास्मद्देशे निविशब्दः' इस प्रकार निर्देश करता। घ-हरदत्त ने आपस्तम्ब धर्मसूत्र (२।११।१६) की व्याख्या में भी 'तत्र द्रविडाः कन्यामेषस्थे सवितरि...':आदि निर्देश किया है। १. अनुष्ठानमपि चोलदेशे प्रायेणवम् । गौतम धर्म• टीका १४ । ४४ ॥ यस्यां वसन्ति यामुपजीवन्ति । यथा तीरेण कावेरि तव । प्रापस्तम्बगृह्यटीका, २० खण्ड १४, सूत्र ६.;. तथा एकाग्निकाण्ड भाष्य, प्राश्वलायनगृह्य (अनन्तशयन, मुद्रित) । चोलेष्ववस्थितस्तथैव हिमवन्तं दिक्षेरन् । प्राप० धर्म० व्याख्या २१२३७॥ द्राविड़ा कन्यामेषस्थे सवितर्यादित्यपूजामांचरन्ति । आप० धर्म० व्याख्या २२९।१६॥ किलासः त्वग्दोषः तेमल् इति द्रविडभाषायां प्रसिद्धः । ...गौतम. धर्म० ट्रीका ११ १६॥ (द्र० गुरुवर्य श्री चिन्नस्वामी शास्त्री लिखित २५ प्रापस्तम्ब गृह्य और धर्मसूत्र, काशी मुद्रित की भूमिका। उस्मानिया वि० वि० हैदराबाद से प्रकाशित पदमञ्जरी भाग १ की भूमिका (पृष्ठ १०) में श्री रामचन्द्रड ने 'तेमल इति द्रविडभाषायां प्रसिद्धः' के स्थान में 'वंसली (वर्तली) इति द्रविड़ानां प्रसिद्धः' पाठ उद्धृत किया है। । २. 'श्री' का पुल्लिङ्ग में 'लक्ष्मय्य', और स्त्रीलिङ्ग में 'लक्ष्मम्म' प्रयोग ३० होता है। . . . . Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तात्पर्य यह है कि हरदत्त आन्ध्र प्रदेश के कूचिमञ्चि-अग्रहार का रहनेवाला था। पदमञ्जरी के उत्तरार्ध की रचना के समय वह द्रविड़ देश में चला गया, और शेष जीवन उसने चोल देश में कावेरी नदी के तीर पर विताया। श्री विद्वदर पद्मनाभ रावजी (प्रात्मकूर-प्रान्ध्र) ने भी ४ । ११॥ ६३ ई० के पत्र में श्री वेङ्कटाचार्य शतावधानी जी के कथन का अनुमोदन किया है। ___ काल-हरदत्त ने अपने ग्रन्य में ऐसी किसी घटना का उल्लेख नहीं किया, जिससे उसके काल का निश्चित ज्ञान हो । कयट के कालनिर्णय के लिये हमने कुछ ग्रन्थकारों का पौवापर्य-द्योतक चित्र दिया है। उसके अनुसार हरदत्त का काल वि० सं० १११५ के लगभग प्रतीत होता है। न्यास के संपादक ने हरदत्त और मैत्रेय दोनों का काल सन् ११०० ई० अर्थात् ११५७ वि० माना है, वह ठीक नहीं। क्योंकि मैत्रेयरक्षित विरचित 'धातुप्रदीप' पृष्ठ १३१ पर १५ धर्मकीत्तिकृत 'रूपावतार' का उल्लेख है । रूपावतार भाग २ पृष्ठ १५७ पर हरदत्त का मत उद्धृत है। अतः हरदत्त और मैत्रेय. रक्षित दोनों समकालिक नहीं हो सकते। डा० याकोबी ने भविष्यत्-पुराण के आधार पर हरदत्त का देहावसान ८७८ ई० के लगभग माना है । व्याकरण के अन्य ग्रन्थ १. महापदमञ्जरी-पदमञ्जरी १११।२० पृष्ठ ७२ से विदित होता है कि हरदत्त ने एक 'महापदमञ्जरी' संज्ञक व्याख्या रची थी। यह किस ग्रन्थ की टीका थी, यह अज्ञात है । सम्भव, है यह भी काशिका की व्याख्या हो। १. देखो -पूर्व पृष्ठ ४२४ । २. न्यास की भूमिका, पृष्ठ २६ । ३. रूपाववतारे तु णिलोषे प्रत्ययोत्सत्तेः प्रागेव कृते सत्येकाच्त्वात यङदाहृतः-चोचर्यत इति । देखो-रूपावतार भाग २, पृष्ठ २०६ ।। ४. कुशब्दे - प्रकूत इति, वेदलोकप्रयोगदर्शनाद् दीर्घान्त एवायं हरदत्ताभिमतः। ५. जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई, भाग २३,पृष्ठ ३१ । ३० . भाष्यवात्तिकविरोधस्तु महापदमजामस्माभिः प्राञ्चितः । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५७७ ५ हमारी मूल-हमने पूर्व संस्करणों (१-२-३) में लिखा था"इसकी पुष्टि "देववातिक पुरुषकार से होती है। उसमें णिचश्च (१।३।७४) सूत्रस्थ एक हरदत्तीय कारिका उद्धृत की है। वह पदमञ्जरी में नहीं मिलती।" यह ठीक नहीं है । पदमञ्जरी के सभी संस्करणों में यह कारिका पठित है। परन्तु मुद्रित संस्करणों में मुद्रण दोष से कारिका का स्वरूप नष्ट हो जाने से हमें यह भ्रान्ति हुई ।' उक्त भूल के समाहित हो जाने पर भी 'दाधाघ्वदाप्' (१।१।२०) में मुद्रित 'भाष्यवार्तिकविरोधस्तु महापदमञ्जर्यामस्माभिः प्रपञ्चितः' पाठ से महापदमञ्जरी ग्रन्थ की सत्ता तो विदित होती ही है। २. परिभाषा-प्रकरण-पदमञ्जरी भाग २ पृष्ठ ४३७ से जाना १० जाता है कि हरदत्त ने 'परिभाषाप्रकरण' नाम्नी परिभाषावृत्ति लिखी थी।' यह ग्रन्य भी इस समय अप्राप्य है। इसके अतिरिक्त हरदत्त मिश्र के निम्न ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं१. पाश्वलायन गह्य व्याख्या-अनाविला। २. गौतम धर्मसूत्र व्याख्या-मिताक्षरा । ३. आपस्तम्ब गृह्य व्याख्या-अनाकुला। ४. प्रापस्तम्ब धर्मसूत्र व्याख्या-उज्ज्वला। ५. प्रापस्तम्ब गह्य मन्त्र व्याख्या। ६. प्रापस्तम्ब परिभाषा व्याख्या। ७. एकाग्निकाण्ड व्याख्या। ८. श्रुतिसूक्तिमाला। १. हरदत्तस्तु णिचश्च (१।३।७४) इत्यत्राह–'एष विधिन........ | स्वरितेत्त्वमनार्षम् इति । पृष्ठ १०६, १०७, हमारा संस्करण। २. हमने 'मेडिकल हाल यन्त्रालय बनारस' में छपे संस्करण का उपयोग किया था। तत्पश्चात् सन् १९६५ में 'प्राच्यभारती प्रकाशन' वाराणसी से प्रकाशित न्यासपदमञ्जरी सहित काशिका के संस्करण में तथा सन् १९८१ में उस्मानिया वि० वि० हैदराबाद की संस्कृत परिषद् द्वारा प्रकाशित पदमञ्जरी में उक्त कारिका का पूर्ववत् ही प्रयुक्त मुद्रण हुआ है। किसी सम्पादक ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। ३. एतच्चास्माभिः परिभाषाप्रकरणाख्ये ग्रन्थे उपपादितम् । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कई विद्वान् इन ग्रन्थों के रचयिता हरदत्त को पदमञ्जरीकार हरदत्त से भिन्न व्यक्ति मानते हैं। परन्तु इनकी पदमञ्जरी के साथ तुलना करने से इन सब का कर्ता एक व्यक्ति ही प्रतीत होता है । पदमजाः पर्यालोचनम् डा. तीर्थराज त्रिपाठी ने पीएच० डी० उपाधि के लिये 'पदमञ्जर्याः पर्यालोचनम्' नाम का एक निबन्ध लिखा है । यह सन् १६८१ में छपकर प्रकाशित हुअा है। उस में हमारी सभी मुख्य स्थापनाएं स्वीकार की हैं। पदमञ्जरी के व्याख्याता १- रङ्गनाथ यज्वा (सं० १७४५ वि० के लगभग) चोल देश निवासी रंगनाथ यज्वा ने पदमञ्जरी की 'मञ्जरीमकरन्द' नाम्नी टीका लिखी है। इस टीका के कई हस्तलेख मद्रास, अडियार' और तजौर के राजकीय पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। अडियार के सूचीपत्र में इसका नाम 'परिमल' लिखा है। १५ परिचय-रंगनाथ यज्वा ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपना परिचय इस प्रकार दिया है'यो नारायणदीक्षितस्य नप्ता नल्लादीक्षितसूरिणस्तु पौत्रः । श्रीनारायणदीक्षितेन्द्रपुत्रो व्याख्याम्येष रङ्गनाथयज्वा' । प्रथमाध्याय के अन्त में निम्न पाठ उपलब्ध होता है 'इति श्रीसर्ववेदवेदाङ्गज्ञसर्वक्रत्वग्निचितः [नल्लादीक्षितस्य] प्रोत्रेण नारायणदीक्षिताग्निचिद्वादशाहयाजितनयेन रङ्गनाथदीक्षितेन विरचिते मञ्जरीमकरन्दे प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः' । इन प्राद्यन्त लेखों के अनुसार रङ्गनाथ यज्वा नल्ला दीक्षित का पौत्र, नारायण दीक्षित का पुत्र और नारायण दीक्षित का दोहित्र २५ है। यह कौण्डिन्य गोत्रज था। रंगनाथ का नाना नारायण दीक्षित नल्ला दीक्षित के भ्राता १. सूचीपत्र भाग ४ खण्ड १C पृष्ठ ५७०३, ग्रन्थाङ्क ३८५१ । २. सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ७२ । ३. सूचीपत्र भाग १०, पृष्ठ ४१४६, ग्रन्थाङ्क ५४६६ । २० Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५७६ धर्मराज यज्वा का शिष्य था । इसने कंयटविरचित महाभाष्य प्रदीप की टीका लिखी थी । देखो - पूर्व पृष्ठ ४६४ । I रामचन्द्र अध्वरी रंगनाथ यज्वा का चचेरा भाई था । रामचन्द्र का दूसरा नाम रामभद्र भी था । रामचन्द्र के पिता का नाम यज्ञराम • दीक्षित और पितामह का नाम नल्ला दीक्षित था । यह कुल श्रोतयज्ञों के अनुष्ठान के लिए प्रत्यन्त प्रसिद्ध रहा है । इनका पूर्ण वंश हम पृष्ठ ४६४ पर दे चुके हैं । ५ वामनाचार्य सूनु वरदराज कृत 'ऋतुवैगुण्यप्रायश्चित्त' के प्रारम्भ में रंगनाथ यज्वा को चोलदेशान्तर्गत ' करण्डमाणिक्य' ग्राम का रहनेवाला और पदमञ्जरी की 'मकरन्द' टीका तथा सिद्धान्तकौमुदी की १० 'पूर्णिमा' व्याख्या का रचयिता लिखा है ।' काल - तञ्जीर के पुस्तकालय के सूचीपत्र में रङ्गनाथ का काल १७ वीं शताब्दी लिखा है । रङ्गनाथ यज्वा के चचेरे भाई रामचन्द्र ( = रामभद्र ) यज्वा विरचित उणादिवृत्ति तथा परिभाषावृत्ति की व्याख्या से विदित होता है कि यह तञ्जौर के 'शाहजी' नामक राजा १५ का समकालिक था ।' शाहजी के राज्यकाल का प्रारम्भ सं० १७४४ से माना जाना हैं । अतः रंगनाथ यज्वा का काल भी विक्रम की १८ वीं शताब्दी का मध्य होगा । २- शिवभट्ट शिवभट्टविरचित पदमञ्जरी की 'कुकुम विकास' नाम्नी व्याख्या २० का उल्लेख प्राफेक्ट के बृहत् सूचीपत्र में उपलब्ध होता है । हमें इसका अन्यत्र उल्लेख उपलब्ध नहीं हुआ । इसका काल अज्ञात है । १. येनकरण्डमाणिक्यग्रामरत्ननिवासिना । रङ्गनाथाध्वरीन्द्रेण मकरन्दाभिधा कृता । व्याख्या हि पदमञ्जर्या: कौमुद्याः पूर्णिमा तथा ।। मद्रास राजकीय २५ हस्तलेख पुस्तकालय सूचीपत्र भाग खण्ड C पृष्ठ ८०८, ग्रन्थाङ्क ६३४ C २. भोजो राजति भोसलान्ययमणिः श्रीशाह पृथिवीपतिः । ...... रामभद्रमस्त्री तेन प्रेरितः करुणाब्धिना । तञ्जीर पुस्तकालय का सूचीपत्र, भाग १०, पृष्ठ ४२३९, ग्रन्थाङ्क ५६७५ । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६. रामदेव मिश्र (सं० १११५-१३७० वि० के मध्य) रामदेव मिश्र ने काशिका की 'वृत्तिप्रदीप' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसके हस्तलेख डी० ए० वी० कालेजान्तर्गत लालचन्द पुस्तकालय लाहोर तथा मद्रास और तजौर के राजकीय पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। कमलेश कुमार अनुसन्धाता, शिवकुमार छात्रावास कमरा नं० ६५, सं० वि० वि० वाराणसी का १६-७-७८ का एक पत्र प्राप्त हुआ है उसमें 'वृत्तिप्रदीप' के हस्तलेखों का विवरण इस प्रकार दिया "यह वृत्तिप्रदीप अभी तक दो ही जगहों में देखने को मिला है। एक प्रतिलिपि सरस्वती भवन संस्कृत वि० वि० वाराणसी में है और दूसरी प्रति गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्टस् लायब्रेरी मद्रास-५ में उपलब्ध है । संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी) की प्रतिलिपि गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज त्रिपुरीथुरा अर्णाकुलम् से मंगवाई गई है, ऐसा यहां के रजिस्टर में उल्लिखित है । लेकिन मुझे त्रिपुरीथुरा से कोई सही उत्तर नहीं प्राप्त हुआ कि यह ग्रन्थ मूल रूप से हस्तलेख में वहां प्राप्त है । होशियारपुर में मलियालम लिपि में द्वितीयाध्याय पर्यन्त सुरक्षित है । ऐसी सूचना प्राप्त हुई है । सरस्वती महल लायब्रेरी तजौर के ग्रन्थाध्यक्ष के पत्र से ज्ञात हुआ कि यह ग्रन्थ वहां नहीं है।" इस के पश्चात् कमलेश कुमार से कोई संपर्क नहीं हो सका। कमलेश कुमार ने वृत्तिप्रदीप पर कुछ कार्य किया वा नहीं, इस विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। काल-रामदेवविरचित 'वृत्तिप्रदीप' के अनेक उद्धरण माधवीया २५ धातुवृत्ति में उपलब्ध होते हैं। अतः रामदेव सायण (संवत् १३७२ १४४४) से पूर्ववर्ती है । यह इसकी उत्तर सीमा है। सायण 'धातुवृत्ति' पृष्ठ ५० में लिखता है-हरदत्तानुवादी राममिश्रोऽपि । इससे प्रतीत होता है कि रामदेव हरदत्त का उत्तरवर्ती है । रामदेव के विषय में इससे अधिक कुछ ज्ञात नहीं । ३० १. देखो-पृष्ठ ३४, ५० इत्यादि । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका के व्याख्याता ५८१ ७. वृत्तिरत्न-कार ट्रिवेण्डम के राजकीय पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग ४ ग्रन्थाङ्क ५६ पर काशिका की 'वृत्तिरत्न' नाम्नी व्याख्या का उल्लेख है । इसके कर्ता का नाम अज्ञात है। ८. चिकित्साकार आफेक्ट ने अपने बृहत्सूचीपत्र में काशिका की 'चिकित्सा' नाम्नी व्याख्या का उल्लेख किया है । इसके रचायता का नाम प्रज्ञात है। इस अध्याय में हमने काशिकावृत्ति के व्याख्याता १७ वैयाकरणों का वर्णन किया है । अगले अध्याय में पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया- १० अन्यकारों का वर्णन किया जायगा। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्याय पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार पाणिनीय व्याकरण के अनन्तर कातन्त्र प्रादि अनेक लघु व्याकरण प्रक्रियाक्रमानुसार लिखे गये। इन व्याकरणों की प्रक्रियानुसार ५ रचना होने से इनमें यह विशेषता है कि छात्र इन ग्रन्थों का जितना भाग अध्ययन करके छोड़ देता है, उसे उतने विषय का ज्ञान हो जाता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी आदि शब्दानुशासनों के सम्पूर्ण ग्रन्थ का जब तक अध्ययन न हो, तब तक किसी एक विषय का भी ज्ञान नहीं होता, क्योंकि इनमें प्रक्रियानुसार प्रकरण-रचना नहीं है। यथा १० अष्टाध्यायो में समास-प्रकरण द्वितीय अध्याय में है, परन्तु समासान्त प्रत्यय पञ्चमाध्याय में लिखे हैं । समास में पूर्वोत्तर पद को निमित मान कर होनेवाले कार्य का विधान षष्ठाध्याय के तृतीयपाद में किया है। कुछ कार्य प्रथमाध्याय के द्वितीय पाद और कुछ द्वितीयाध्याय के चतुर्थ पाद में पढ़ा है । इस प्रकार समास से सम्बन्ध रखनेवाले कार्य १५ अनेक स्थानों में बंटे हुए हैं । अतः छात्र जब तक अष्टाध्यायी के न्यून से न्यून छ: अध्याय न पढ़ले, तब तक उसे समास विषय का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए जब अल्पमेधस और लाघवप्रिय व्यक्ति पाणिनीय व्याकरण छोड़कर कातन्त्र प्रादि प्रक्रियानुसारी ध्याकरणों का अध्ययन करने लगे, तब पाणिनीय वंयाकरणों ने भी उसकी रक्षाके लिए अष्टाध्यायी की प्रक्रियाक्रम से पठन-पाठन की नई प्रणाली का आविष्कार किया । विक्रम की १६ वों शताब्दी के अनन्तर पाणिनीय व्याकरण का समस्त पठन-पाठन प्रक्रियाग्रन्थानुसार होने लगा। इस कारण सूत्रपाठक्रमानुसारी पठन-पाठन शन. शनेः उच्छिन्न हो गया। दोनों प्रणालियों से अध्ययन में गौरव लाघव यह सर्वसम्मत नियम है किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन यदि ग्रन्थकर्ता-विरचित क्रम से किया जावे, तो उसमें अत्यन्त सरलता होती है । इसी नियम के अनुसार सिद्धान्तकौमुदी आदि व्युत्क्रम ग्रन्थों की Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८३ अपेक्षा अष्टाध्यायी-क्रम से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन करने से अल्प परिश्रम और अल्पकाल में अधिक बोध होता है। और अष्टाध्यायी के क्रम से प्राप्त हुअा बोध चिरस्थायी होता है । हम उदाहरण देकर इस बात को स्पष्ट करते हैं। यथा १-सिद्धान्तकौमुदी में 'प्राद् गुणः" सूत्र अच्सन्धि में व्याख्यात ५ है । वहां इसकी वृत्ति इस प्रकार लिखी है'प्रवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण प्रादेशः स्यात् संहितायाम्' ।' इस वृत्ति में 'अचि, पूर्वपरयोः, एकः, संहितायाम्' ये पद कहां से संगृहीत हुए, इसका ज्ञान सिद्धान्तकौमुदी पढ़नेवाले छात्र को नहीं होता । अतः उसे सूत्र के साथ-साथ सूत्र से ५-६ गुनी वृत्ति भी १० कण्ठाग्र करनी पड़ती है । अष्टाध्यायी के क्रमानुसार अध्ययन करनेवाले छात्र को इन पदों की अनुवृत्तियों का सम्यक् बोध होता है, अतः उसे वृत्ति घोखने का परिश्रम नहीं करना पड़ता । उसे केवल पूर्वानुवृत्त पदों के सम्बन्धमात्र का ज्ञान करना होता है । इस प्रकार अष्टाध्यायी के क्रमानुसार पढ़नेवाले छात्र को सिद्धान्तकौमूदी की १५ अपेक्षा छठा भाग अर्थात् सूत्रमात्र कण्ठाग्र करना होता है । वह इतने महान् परिश्रम और समय की व्यर्थ हानि से बच जाता है। २-अष्टाध्यायी में 'इट्' 'द्विवचन' 'नुम्' प्रादि सव प्रकरण सूसम्बद्ध पढ़े है । यदि किसी व्यक्ति को इट वा नुम् की प्राप्ति के विषय में कहीं सन्देह उत्पन्न हो जाय, तो अष्टाध्यायी के क्रम से पढ़ा २० हुमा व्यक्ति ४,५ मिनट से सम्पूर्ण प्रकरण का पाठ करके सन्देहमुक्त हो सकता है। परन्तु कौमुदी क्रम से अध्ययन करनेवाला शीघ्र सन्देहमुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि उनमें ये प्रकरण के सूत्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। - ३-पाणिनीय व्याकरण में 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्, प्रसिद्धवद- २५ प्राभात्, पूर्वत्रासिद्धम्'५ आदि सूत्रों के अनेक कार्य ऐसे हैं, जिनमें सूत्रपाठक्रम के ज्ञान की महती आवश्यकता होती है। सूत्रपाठक्रम के विना जाने पूर्व, पर, आभात, त्रिपादी, सपादसप्ताध्यायी आदि का ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। और इसके विना शास्त्र का पूर्ण १. अष्टा० ६।१।८७॥ २. सूत्रसंख्या ६६। ३. अष्टा १।४।२॥ ३० ४. अष्टा० ६।४।२२॥ ५. अष्टा० ८।२।१॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास बोध नहीं होता। सिद्धान्तकौमुदी पढ़े हुए छात्र को सूत्रपाठ के क्रम का ज्ञान न होने से महाभाष्य पूर्णतया समझ में नहीं पाता। उसे पदे-पदे महती कठिनाई का अनुभव होता है, यह हमारा अपना अनुभव है। ४-सिद्धान्तकौमुदी आदि के क्रम से पढ़े हुए छात्र को व्याकरणशास्त्र शीघ्र विस्मत हो जाता है । अष्टाध्यायी के क्रम से व्याकरण पढ़नेवाले छात्र को सूत्रपाठ-क्रम और अनुवृत्ति के संस्कार के कारण वह शीघ्र विस्मृत नहीं होता। ____५-सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रिया ग्रन्थों के द्वारा पाणिनीय व्या१० करण का अध्ययन करनेवालों का अनेक विषयों में मिथ्या वा भ्रान्त ज्ञान होता है । यथा समर्थः पदविधिः (२०११) सूत्र सिद्धान्तकौमुदी में समास प्रकरण में पढ़ा है। अतः उसके अध्येता वा अध्यापक इस सूत्र को समास प्रकरण का ही मानते हैं । जब कि अष्टाध्यायी में यह सूत्र १५ प्राक्कडारात् समासः (२।१३) से पूर्व पठित है । भाष्यकार ने इसे परिभाषा सूत्र माना है और पूरे शास्त्र में इस की प्रवृत्ति दर्शाई है। इसी प्रकार एक शेष प्रकरण (१।२।६५-७३)के सूत्रों को सिद्धान्तकौमुदी में द्वन्द्व समास के प्रकरण में पढ़ने से इसके पढ़ने पढ़ाने वाले एकशेष को द्वन्द्व समास का भेद समझते हैं। २० सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रिया-ग्रन्यों के आधार पर पाणिनीय व्याकरण पढ़ने में अन्य अनेक दोष हैं, जिन्हें हम विस्तरभिया यहां नहीं लिखते। __ यहां यह ध्यान में रखने योग्य है कि अष्टाध्यायी-क्रम से पाणि नीय व्याकरण पढ़ने के जो लाभ ऊपर दर्शाए हैं, वे उन्हें ही प्राप्त २५ होते हैं, जिन्हें सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पूर्णतया कण्ठाग्र होती है, और महाभाष्य के अध्ययन-पर्यन्त बराबर कण्ठान रहती है। जिन्हें अष्टाध्यायी कण्ठाग्र नहीं होती, और अष्टाध्यायी के क्रम से व्याकरण पढ़ते हैं, वे न केवल उसके लाभ से वञ्चित रहते हैं, अपितु अधिक कठिनाई का अनुभव करते हैं। प्राचीन काल में प्रथम अष्टाध्यायी . कण्ठान कराने को परिपाटी थी। इत्सिग भी अपनी भारतयात्रा पुस्तक में इस ग्रन्थ का निर्देश करता है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८५ पाणिनीय-क्रम का महान् उद्धारक... विक्रम की १५ वीं शताब्दी से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन प्रक्रियाग्रन्थों के आधार पर होने लगा और अतिशीघ्र सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रवृत्त हो गया । १६ वीं शताब्दी के अनन्तर अष्टाध्यायी के क्रम से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन प्रायः लुप्त हो गया। ५ लगभग ४०० सौ वर्ष तक यही क्रम प्रवृत्त रहा । विक्रम की १६ वीं शताब्दी के अन्त में महावैयाकरण दण्डी स्वामी विरजानन्द को प्रक्रियाक्रम से पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन में होनेवाली हानियों की उपज्ञा हुई । अतः उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी के पठन-पाठन को छोड़कर अष्टाध्यायी पढ़ाना प्रारम्भ किया । तत्पश्चात् उनके शिष्य १० स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में अष्टाध्यायी के अध्ययन पर विशेष बल दिया। अब अनेक पाणितीय वयाकरण सिद्धान्तकौमुदी के क्रम को हानिकारक और अष्टाध्यायी के क्रम को लाभदायक मानने लगे हैं । इस ग्रन्थ के लेखक ने पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन अष्टा- १५ ध्यायी के क्रम से किया है । और काशी में अध्ययन करते हुए सिद्धान्तकौमुदी के पठनपाठन-क्रम का परिशीलन किया है, तथा अनेक छात्रों को सम्पूर्ण महाभाष्य-पर्यन्त व्याकरण पढ़ाया है। उससे हम भी इसी परिणाम पर पहुंचे हैं कि शब्दशास्त्र के ज्ञान के लिये पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन उसकी अष्टाध्यायी के क्रम से ही करना २० चाहिये। काशी के व्याकरणाचार्यों को सिद्धान्तकौमुदी के क्रम से व्याकरण का जितना ज्ञान १०, १२ वर्षों में होता है, उससे अधिक ज्ञान अष्टाध्यायी के क्रम से ४-५ वर्षों में हो जाता है, और वह चिरस्थायी होता है। यह हमारा वहुधा अनुभूत है । इत्यलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु । अनेक वैयाकरणों ने पाणिनीय व्याकरण पर प्रक्रिया-ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें से प्रधान-प्रधान ग्रन्थकारों का वर्णन आगे किया जाता है १. धर्मकीर्ति (सं० ११४० वि० के लगभग) अष्टाध्यायी पर जितने प्रक्रियानुसारी ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ३० सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'रूपावतार' इस समय उपलब्ध होता है। इस Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ग्रन्थ का लेखक बौद्ध विद्वान् धर्मकीति है । यह न्यायबिन्दु आदि के रचयिता प्रसिद्ध बौद्ध पण्डित धर्मकीर्ति से भिन्न व्यक्ति है। धर्मकीर्ति ने अष्टाध्यायी के प्रत्येक प्रकरणों के उपयोगी सूत्रों का संकलन करके इसकी रचना की है । धर्मकीर्ति का काल धर्मकीर्ति ने 'रूपावतार' में ग्रन्थलेखन-काल का निर्देश नहीं किया। अतः इसका निश्चित काल अज्ञात है। धर्मकीति के कालनिर्णय में जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, वे निम्न हैं १. शरणदेव ने दुर्घटवृत्ति की रचना शकाब्द १०९५ तदनुसार १० वि० सं० ५२३० में की।' शरणदेव ने रूपावतार और धर्मकीर्ति' दोनों का उल्लेख दुर्घटवृत्ति में किया है । ___२. हेमचन्द्र ने लिङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण में धर्मकीर्ति और उसके रूपावतार का नामोल्लेखपूर्वक निर्देश किया है। हेमचन्द्र ने स्वीय पञ्चाङ्ग-व्याकरण की रचना वि० सं० ११६६-११६६ के १५ मध्य की है। ३. अमरटीकासर्वस्व में असकृत् उद्धृत मैत्रेयविरचित धातुप्रदीप के पृष्ठ १३१ में नामनिर्देशपूर्वक 'रूपावतार' का उद्धरण मिलता है। मैत्रेय का काल वि० सं० ११६५ के लगभग है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । यह धर्मकीर्ति की उत्तर सीमा है। ४. धर्मकीर्ति ने 'रूपावतार' में पदमञ्जरीकार हरदत्त का उल्लेख किया है। हरदत्त का काल सं० १११५ के लगभग है। यह धर्मकीर्ति की पूर्व सीमा है । अतः 'रूपावतार' का काल इन १. देखो-पूर्व पृष्ठ ५२८ टि० २। २. द्र०—पृष्ठ ७१ । ३. द्र०-पृष्ठ ३० । २५ ४. वाः वारि रूपावतारे तु धर्मकीर्तिनास्य नपुंसकत्वमुक्तम् । लिङ्गा० स्वोपज्ञविवरण, पृष्ठ ७१, पक्ति १५ । ५. देखिए-हैम व्याकरण प्रकरण, अ० १७ । ६. रूपावतारे तु णिलोपे प्रत्ययोत्पत्तेः प्रागेव कृते सत्येकाच्त्वाद् यदाहृत। श्चोचूर्यत इति । देखो-रूपावतार भाग २, पृष्ठ २०६ ।। ३० ७. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४२४ । ८. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४२१, टि० ४। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८७ दोनों के मध्य वि० सं० ११४० के लगभग मानना चाहिये । हरदत्त का काल आनुमानिक है । यदि उसका काल कुछ पूर्व खिंच जाय, तो धर्मकीर्ति का काल भी कुछ पूर्व सरक जायगा। रूपावतारसंज्ञक अन्य ग्रन्थ जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय के सूचीपत्र पृष्ठ ४५ पर ५ 'रूपावतार' संज्ञक दो पुस्तकों का उल्लेख है । इनका ग्रन्थाङ्क ४५ और ११०६ है । सूचीपत्र में ग्रन्थाङ्क ४५ का कर्ता 'कृष्ण दीक्षित' लिखा है । ग्रन्थाङ्क ११०६ का हस्तलेख हिन्दी-भाषानुवाद सहित है। इस पर सूचीपत्र के सम्पादक स्टाईन ने टिप्पणी लिखो हैं- यह ग्रन्थ सं० ४५ से भिन्न है। विद्वानों को इन हस्तलेखों की तुलना १० करनी चाहिये । रूपावतार के टीकाकार १-शंकरराम शंकरराम ने रूपावतार की 'नीवि' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसके तीन हस्तलेख ट्रिवेण्डम् के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान १५ हैं । देखो-सूचीपत्र भाग २ ग्रन्थाङ्क ६२; भाग ४ ग्रन्थाङ्क ४६ ; भाग ६ ग्रन्याङ्क ३१ । शंकरराम का देश और वृत्त अज्ञात है। किसी शंकर के मत नारायण भट्ट ने अपने 'प्रक्रियासर्वस्व' में बहुधा उद्धत किए हैं।' यदि यह शंकर 'रूपावतार' का टीकाकार २० ही हो, तो इसका काल विक्रम की १७ वीं शती से पूर्व है, इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है । २-धातुप्रत्ययपञ्जिका-टीकाकार भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना के व्याकरण विभागीय सूचीपत्र सं० ६१, १२० A, १८८०-८१ पर 'धातुप्रत्ययपञ्जिकाटीका २५ नाम्नी रूपावतार व्याख्या का एक हस्तलेख निर्दिष्ट है । ग्रन्थकर्ता का नाम वा काल अज्ञात है। १. प्रक्रियासर्वस्व तद्धित भाग, मद्रास संस्करण, सूत्र संख्या ५६, ६३, १०२०, ११०४॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास ३- अज्ञातकर्तृक भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना के व्याकरण विभागीय सन् १९३८ के सूचीपत्र में सं० ६०, पृष्ठ ९४-९५ पर 'रूपावतार' की एक अज्ञातक' क टीका निर्दिष्ट है। इसमें शंकर कृत नौवि टोका का खण्डन मिलता है । अत: यह उससे परभावी, है, इतना स्पष्ट है । ५ ५८८ ४- श्रज्ञातनामा मद्रास राजकीय पुस्तकालय के सन् १९३७ के छपे हुए सूचीपत्र पृष्ठ १०३६८ पर 'रूपावतार' के व्याख्याग्रन्थ का उल्लेख है । इसका ग्रन्थाङ्क १५९१३ है । यह ग्रन्थ अपूर्ण है । यह बड़े आकार के ५२४ १० पृष्ठों पर लिखा हुआ है । ग्रन्थकार का नाम अज्ञात है अत एव उसके काका निर्णय भी दुष्कर है । २. प्रक्रियारत्नकार (सं० १३०० वि० से पूर्व ) १५ सायण ने अपनी धातुवृत्ति में 'प्रक्रियारत्न' नामक ग्रन्थ को बहुधा उद्धृत किया है ।' उन उद्धरणों को देखने से विदित होता है कि यह पाणिनीय सूत्रों पर प्रक्रियानुसारी व्याख्यान- ग्रन्थ है । 'दैवम्' की कृष्ण लीलाशुक मुनि विरचित पुरुषकार व्याख्या में भी 'प्रक्रियारत्न' उद्धृत है ।' ग्रन्थकार का नाम और देश काल आदि अज्ञात है । 'पुरुषकार ' २० में उद्धृत होने से इतना निश्चित है कि यह ग्रन्थकार सं० १३०० से पूर्वभावी हैं । कृष्ण लीलाशुक मुनि का काल विक्रम संवत् १२५०१३५० के मध्य है । कृष्ण लीलाशुक मुनि ने प्रक्रियारत्न को जिस ढंग से स्मरण किया है, उससे हमें सन्देह होता हैं कि इसका लेखक कृष्ण लीलाशुक २५ मुनि है । १. धातुवृत्ति, काशी संस्करण, पृष्ठ ३१, ४१६ इत्यादि । २. प्रपञ्चितं चैतत् प्रक्रियारत्ने । पृष्ठ ११० । हमारा संस्करण पृष्ठ १०२ । ३. द्र० – दैव पुरुषकार का हमारा उपोद्घात पृष्ठ ६ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८६ वोपदेव के गुरु धनेश्वर कृत प्रक्रियारत्नमणि ग्रन्थ का उल्लेख पूर्व पृष्ठ ४३४ पर कर चुके हैं। ३. विमल सरस्वती (सं० १४०० वि० से पूर्व) विमल सरस्वती ने पाणिनीय सूत्रों की प्रयोगानुसारी 'रूपमाला' ५ नाम्मी व्याख्या लिखी है । इस ग्रन्थ में समस्त पाणिनीय सूत्र व्याख्यात नहीं हैं। भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान पूना के संग्रह में इसका एक हस्तलेख सं० १५०७ का विद्यमान है । द्र० व्याकरण विभागीय सूचीपत्र, सन् १९३८, संख्या ८०, पृष्ठ ७१, ७२ । रूपमाला का काल सं० १४०० से प्राचीन माना जाता है। १० ४. रामचन्द्र (सं० १४५० वि० के लगभग) रामचन्द्राचार्य ने पाणिनीय व्याकरण पर 'प्रक्रियाकौमुदी' संज्ञक ग्रन्थ रचा है । यह धर्मकीतिविरचित रूपावतार से विस्तृत है। परन्तु इसमें भी अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का निर्देश नहीं है । पाणिनीय १५ व्याकरणशास्त्र में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों के लिये इस ग्रन्थ की रचना हुई है । अत: ग्रन्थकर्ता ने सरल ढंग और सरल शब्दों में मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया है। इस ग्रन्थ का मुख्य प्रयोजन प्रक्रियाज्ञान कराना है। • परिचय-रामचन्द्राचार्य का वंश शेषवंश कहाता है । व्याकरण- २० ज्ञान के लिये शेषवंश अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। इस वंश के अनेक वैयाकरणों ने पाणिनीय व्याकरण पर प्रौढ़ ग्रन्थ लिखे हैं । रामचन्द्र के पिता का नाम 'कृष्णाचार्य' था। रामचन्द्र के पूत्र 'नसिंह ने धर्मतत्त्वालोक के प्रारम्भ में रामचन्द्र को आठ व्याकरणों का ज्ञाता, और साहित्यरत्नाकर लिखा है।' रामचन्द्र ने अपने पिता कृष्णाचार्य २५ और ताऊ गोपालाचार्य से विद्याध्ययन किया था। रामचन्द्र के ज्येष्ठ भ्राता नसिंह का पुत्र शेष कृष्ण रामचन्द्राचार्य का शिष्य था। रामचन्द्र का वंशवृक्ष हम पूर्व दे चुके हैं ।' १. देखो-इण्डिया प्राफिस लन्दन के संग्रह का सूचीपत्र ग्रन्थाङ्क १५६६ । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४३८ । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काल - रामचन्द्र ने अपने ग्रन्थ के निर्माणकाल का उल्लेख नहीं किया । रामचन्द्र के पौत्र विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की प्रसाद नाम्नी व्याख्या लिखी है, परन्तु उसने भी ग्रन्थरचना - काल का संकेत नहीं किया । रामचन्द्र के प्रपौत्र अर्थात् विट्ठल के पुत्र के हाथ का लिखा ५ हुया प्रक्रियाकौमुदीप्रसाद का एक हस्तलेख भण्डारकर प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान पूना के पुस्तकालय में विद्यमान है । इसके अन्त में ग्रन्थ लेखनकाल सं० १५८३ लिखा है ।' प्रक्रियाकौमुदीप्रसाद का संवत् १५७६ का एक हस्तलेख विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के संग्रह में है । इस की संख्या ५३२५ है । दूसरा सं० १५६० का एक हस्तलेख १० बड़ोदा के राजकीय पुस्तकालय में वर्तमान है । इसने भी पुराना सं १५३६ का लिखा हुमा प्रक्रियाकौमुदीप्रसाद का एक हस्तलेख लन्दन के इण्डिया ग्राफिस के पुस्तकालय में सुरक्षित है । इसके अन्त का लेख इस प्रकार है ५६० 'सं० १५३६ वर्षे माघवदि एकादशी रवौ श्रीमदानन्द पुरस्थानो१५ त्तमे आभ्यन्तरनगर जातीय पण्डितप्रनन्तसुत पण्डितनारायणादीनां पठनार्थं कुठारी व्यवहितसुतेन विश्वरूपेण लिखितम्' इससे सुव्यक्त है कि प्रक्रियाकौमुदी की टीका की रचना विट्ठल ने सं० १५३६ से पूर्व अवश्य कर ली थी । भूल का निराकरण - हमने इस से पूर्व ( १-२-३ ) संस्करणों में २० भण्डारकर शोधप्रतिष्ठान के सन् १९२५ में प्रकाशित सूचीपत्र* के अनुसार संख्या ३२८ के हस्तलेख का काल वि० सं० १५१४ लिखा था । पं० महेशदत्त शर्मा ने अपने 'काशिकावृत्तिवैयाकरणसिद्धान्त १. द्र० - व्याकरण विभागीय सूचीपत्र सन् १९३८, संख्या ६५, पृष्ठ ६७ । यह प्रक्रिया के पूर्वार्ध का सुबन्तप्रकरणान्त है । अन्त का लेख है - २५ इति स्वस्ति श्री संवत् १५८३ वर्षे शाके १४४८ प्रवर्तमाने भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भौमदिने नन्दिगिरौ श्री रामचन्द्राचार्यसुत सुस्त्व ? सुतेनाखि । शुभं भवतु कल्याणं भवतु । २. देखो - प्र० कौ० के हस्तलेखों का विवरण, पृष्ठ १७ । ३. इण्डिया अफिस लन्दन के पुस्तकालय का सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ३० १६७, ग्रन्थाङ्क ६१६ । ४. हा सकता है हमारे द्वारा संवत् के निर्देश में भूल हुई हो । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५६१ कौमुद्योः तुलनात्मकमध्ययनम्' नामक शोध प्रबन्ध (पृष्ठ ५५) हमारे उक्त निर्देश का खण्डन कर के उस हस्तलेख का शुद्ध लिपिकाल १७१४ दर्शाया है। इस भूल के संशोधन के लिये उनको धन्यवाद । ___पं० महेशदत्त शर्मा ने हमारी भूल का निर्देश करते हुए भी प्रक्रियाकौमुदी के इण्डिया आफिस के सं० १५३६ के हस्तलेख का ५ भट्रोजिदीक्षित के काल निर्देश में कोई उपयोग नहीं किया। सं० १५३६ के हस्तलेख के विद्यमान रहते हुए हमारे द्वारा निर्धारित रामचन्द्र विठ्ठल और प्रक्रियाकौमुदी के वत्तिकार शेष कृष्ण के काल में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता । क्योंकि शेष कृष्ण रामचन्द्राचार्य का शिष्य था और विट्ठल शेष कृष्ण के पुत्र रामेश्वर १० (वीरेश्वर) का शिष्य था । अतः यदि विट्ठल ने प्रसाद टीका की रचना वि० सं० १५३६ से पूर्व कर ली थी तो उस के पितामह रामचन्द्र का काल वि० सं० १४५०-१५२० तक मानना उचित ही प्रक्रियाकोमुदी के सम्पादक ने लिखा है कि हेमाद्रि ने अपनी १५ रघुवंश की टीका में प्रक्रियाकौमुदी और उसकी प्रसाद टीका के दो उद्धरण दिये हैं। तदनुसार रामचन्द्र और विट्ठल का काल ईसा को १४ वीं शताब्दी है। प्रक्रियाकौमुदी के व्याख्याता १-शेषकृष्ण (सं० १४७५ वि० के लगभग) गंगा यमुना के अन्तरालवर्ती पत्रपुञ्ज के राजा कल्याण की प्राज्ञा से नृसिंह के पुत्र शेषकृष्ण ने प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रकाश' नाम्नी व्याख्या लिखी। श्रीकृष्ण कृत प्रक्रियाकौमुदी व्याख्या के एक हस्तलेख के अन्त में महाराज वीरवर कारिते लिखा। यह रामचन्द्र का १. प्र० को० भाग १, भूमिका पृष्ठ ४४, ४५ । २. कल्याणल तनद्भवस्य नृपतिः कल्याणमूर्तस्ततः कल्याणीमतिमाकलय्य विषमग्रन्थार्थसंवित्तये । कृष्णं शेषनृसिंहसूरितनयं श्रीप्रक्रियाकौमुदीटीकां कर्तुमसो विशेषविदुषां प्रीत्यै समाजिज्ञपत् ॥ प्र० को० भाग १, भूमिका पुष्ठ ४५। ___३. श्री कृष्णस्य कृता समाप्तिमगमद द्वित्वाश्रय प्रक्रिया । इति महाराज ३० वीरवर कारिते प्रक्रियाकौमुदी विवरणे वीरवरप्रकाशे सुबन्त भागः। भण्डारकर Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शिष्य और रामचन्द्र के पुत्र नृसिंह का गुरु था। प्रक्रियाकौमुदीप्रकाश का दूसरा नाम 'प्रक्रियाकौमुदी-वृत्ति' भी है । शेष कृष्ण के पुत्र रामेश्वर (वीरेश्वर) के शिष्य विट्ठल की प्रक्रियाकौमुदी प्रसाद के वि० सं० १५३६ के हस्तलेख का पूर्व उल्लेख कर चुके हैं। तदनुसार शेष कृष्ण का काल वि० सं० १४७५-१५३५ तक मानना युक्त होगा। शेष कृष्ण दीर्घायु थे। अतः उन का काल सं० १४७५-१५७५ तक भी हो सकता है। __ शेषकृष्ण पण्डित विरचित यङ लुगन्तशिरोमणि ग्रन्थ का एक हस्तलेख भण्डारकर प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान पूना के संग्रह में विद्यमान है । देखो-व्याकरणविषयक सूचीपत्र सन् १९३८, सं० २३३, ३०७/A १८७५-७६ । इस हस्तलेख में पृष्ठ मात्रा का प्रयोग है। अतः यह हस्तलेख न्यूनानिन्यून ४०० वर्ष वा इस से अधिक पुराना होगा। इस के अन्त का पाठ सूची पत्र में इस प्रकार उद्धृत है छन्दसीत्यनुवृत्त्या प्रयोगाश्च यथाभिमतं व्यवस्थास्यन्ते इति १५ काशिकाकारसम्मत्या भाषायामपि यङ्लुगस्ति । तेन केचिन्महाकवि प्रयुक्ता यङ्लुगन्ता: शिष्टप्रयोगामनुसृत्य प्रयोक्तम्या इत्यादि प्रयोगानुसारात् । चान्द्रे यङ्लुक भाषाविषये एवेत्युक्तमिति सर्वमकलङ्कम् । महाभाष्यमहापारावारपारीणबुद्धिभिः । परीक्ष्यो ग्राह्यदृष्टया चायं यङ्लुगन्तशिरोमगिः ॥१॥ श्रीभाष्यप्रमुखमहार्णवावगाहात्, लब्धोऽयं मणिरमलो हृदा निषेव्यः । क्षन्तव्यं यदकरवं विदांपुरस्तात्, प्रागल्भ्यं पितृचरणप्रसादलेशात् ॥२॥ इति शेषकृष्ण पण्डित विरचितो यङ्लुगन्तशिरोमणिः समाप्तः ॥ --विट्ठल (सं० १५२० वि० के लगभग) रामचन्द्र के पौत्र और नृसिंह के पुत्र विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी को 'प्रसाद' नाम्नी टीका लिखी है। विटल ने शेषकृष्ण के पुत्र रामेश्वर अपर नाम वीरेश्वर ने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया प्रा० शो० प्र० पूना, व्याकरण सूचीपत्र सन् १९३८, संख्या ११७, पष्ठ १०४। १. शोध कर्तामों को इस हस्तलेख पर विशेष विचार करना चाहिये । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया ग्रन्थकार ५६३ था, यह हम पूर्व पृष्ठ ५३२, ४८७, टि० १० पर लिख चुके हैं । विट्ठल की टीका का सब से पुराना हस्तलेख सं० १५३६ का है, यह भी हम पूर्व दर्शा चुके हैं । अतः इस टीका की रचना सं० १५३६ से कुछ पूर्व हुई होगी। यदि सं० १५३६ को ही प्रसाद टीका का रचना काल मानें तब भी विट्ठल का काल वि० सं० १५१५–१५६५ तक ५ निश्चित होता है। इस काल-निर्देश में तीन बाधाएं हैं। एक-मल्लिनाथ कृत न्यासोद्योत का सायण द्वारा धातुवृत्ति में स्मरण करना' । और दूसराप्रक्रियाकौमुदी के सम्पादक के मतानुसार हेमाद्रिकृत रघुवंश की टीका में प्रक्रियाकौमुदी और उसकी टीका प्रसाद का उल्लेख करना । प्रथम १० बाधा को तो दूर किया जा सकता है, क्योंकि न्यासोद्योत्त काव्यटीकाकार मल्लिनाथ विरचित है, इसमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं । इतना ही नहीं, मल्लिनाथ ने किरातार्जुनीय २०१७ की व्याख्या में 'उक्तं च न्यासोद्योते' इतना ही संकेत किया है। यदि न्यासोद्योत उसकी रचना होती, तो वह 'उक्तं चास्माभिन्यासोद्योते' इस प्रकार निर्देश करता । १५ दूसरी बाधा का समाधान हमारी समझ में नहीं आया । हेमाद्रि की मत्यु वि० सं० १३३३ (सन् १२७६) में मानी जाती है । अतः हेमाद्रि का काल सं० १२७५-१३३३ तक माना जाये, तो रामचन्द्र और विट्ठल का काल न्यूनातिन्यून सं० १३००-१३४० तक मानना होगा। उस अवस्था में व्याकरण ग्रन्थकारों की उत्तर परम्परा नहीं २० जुड़ती। उत्तर परम्परा को ध्यान से रखकर हमने जो काल रामचन्द्र और विट्ठल का माना हैं, उसका हेमाद्रि के काल के साथ विरोध आता है। ___ तीसरी बाधा है रामेश्वर (वीरेश्वर) के शिष्य मनोरमाकुचमर्दन के लेखक पण्डित जगन्नाथ का शाहजहां बादशाह का सभापति २५ होना । शाहजहां वि० सं० १६८५ (सन् १६२८) में सिंहासन पर बैठा था। इस के अनुसार जगन्नाथ का जन्म सं० १६५० के लगभग और रामेश्वर से अध्ययन सं० १६६५ में मानें तब भी रामेश्वर के सं० १५००-१५७५ काल में ६० वर्ष का अन्तर पड़ता है। इस समस्या को सुलझाने में हम असमर्थ हैं । हस्तलेखों के अन्त में ३० लिखित काल किसी एक में अशुद्ध हो सकता है, पूर्व निर्दिष्ट सभी १. द्र०-पूर्व पृष्ठ ५६८, टि० ४ । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास का अशुद्ध नहीं हो सकता। हां यह कल्पना की जा सकती है कि संवत नाम से शकाब्द का उल्लेख कर दिया हो, किन्तु जब रामचन्द्र के प्रपौत्र द्वारा लिखित प्रक्रियाकौमुदी प्रसाद के हस्तलेख के अन्त में संवत् १५८३ के साथ शाके १४४८ का स्पष्ट निर्देश होवे' तो यह कल्पना भी उपपन्न नहीं होती। विट्ठल की टीका अत्यन्त सरल है। लेखनशैली में प्रौढ़ता नहीं है। सम्भव है विट्ठल का यह प्रथम ग्रन्थ हो। विट्ठल के लेख से विदित होता है कि उसके काल तक 'प्रक्रियाकौमुदी' में पर्याप्त प्रक्षेप हो चुका था। अत एव उसने अपनी टीका का नाम 'प्रसाद' रवखा। १० प्रक्रियाप्रसाद में उदधत ग्रन्थ और ग्रन्थकार-विटठल ने प्रक्रियाप्रसाद में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों को उद्धृत किया है। जिनमें से कुछ-एक ये हैं दर्पण कवि कृत पाणिनीयमत-दर्पण-(श्लोकबद्ध)-भाग १, पृष्ठ ८, ३१८, ३४७ इत्यादि । कृष्णाचार्यकृत उपसर्गार्थसंग्रह श्लोक-भाग १, पृ० ३८ । वोपदेवकृत विचारचिन्तामणि (श्लोकबद्ध)-भाग १, पृ० १६७, १७६, २२८, २३६ इत्यादि। काव्यकामधेनु-भाग २, पृ० २७६ । मुग्धबोध -भाग १, पृ० २७६, ३७५, ४३१ इत्यादि । रामव्याकरण-भाग २, पृ० २४४, ३२८ । पदसिन्धुसेतु-(सरस्वतीकण्ठाभरणप्रक्रिया) भाग १, पृ० ३१३ । मुग्धबोधप्रदीप-भाग २, पृष्ठ १०२ । प्रबोधोदयवृत्ति-भाग २, पृष्ठ ५३ । रामकौतुक-(व्याकरणग्रन्थ) भाग १, पृ० ३६० । कारकपरीक्षा-भाग १, पृ० ३८५ । प्रपञ्चप्रदीप-(व्याकरणग्रन्थ) भाग १, पृ० ५९५ । कृष्णाचार्य-भाग १, पृ० ३४ । हेमसूरी-भाग २, पृ० १४६ ।। १. पृ० ५६० टि० १ में उद्धृत हस्तलेख का पाठ । २. तथा च पण्डितंमन्यैः प्रक्षेपैर्मलिनी कृता। भाग, पृष्ठ २ । एतच्च कुर्वे इत्यस्मात् प्रास्थितं लेखकदोषादत्र पठितं ज्ञेयम् । भाग २, पृ० २७६ । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार - ५६५ कविदर्पण-भाग १, पृ० ४३६, ६०७, ७६७ इत्यादि । शाकटायन-भाग १, पृ० ३०३, ३०६ । नरेन्द्राचार्य-भाग १, पृ०८०७ । वोपदेव-बहुत्र। ३-चक्रपाणिदत्त (सं० १५५०-१६२५) चक्रपाणिदत्त ने प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रक्रियाप्रदीप' नाम्नी व्याख्या लिखी थी। चक्रपाणिदत्त ने शेषकृष्ण के पुत्र वीरेश्वर से विद्याध्ययन किया था।' चक्रपाणिदत्त ने 'प्रौढमनोरमाखण्डन' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । उसका उपलब्ध अंश काशी से प्रकाशित हुआ है। उसके पृष्ठ ४७ में लिखा है 'तस्मादुत्तरत्रानुवृत्त्यर्थं तदित्यस्मत्कृतप्रदीपोक्त एव निष्कर्षों बोध्यः। पुनः पृष्ठ १२० पर लिखा है-'अन्यत्तु प्रक्रियाप्रदीपादवधेयम्'। 'प्रक्रियाप्रदीप' सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। चक्रपाणिदत्त वीरेश्वर का शिष्य है, अतः उसका काल सं० १५५०-१६२५ के मध्य होगा। १५ ४-अप्पन नैनार्य हमने पूर्व पृष्ठ ५२६ पर अष्टाध्यायी के वृत्तिकार के प्रसङ्ग • में अप्पन नैनार्यकृत 'प्रक्रियादीपिका' का निर्देश किया है। हमारा विचार है कि वह अष्टाध्यायो की व्याख्या नहीं हैं, अपितु प्रक्रिया- , कौमुदी की व्याख्या है। विशेष हस्तलेख देखने पर ही जाना जा २० सकता है। ५-वारणवनेश वारणवनेश ने प्रक्रियाकौमुदी की 'अमृतसृति' नाम्नी टोका लिखी है। इसका एक हस्तलेख तजौर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है । देखो-सूचीपत्र भाग १० ग्रन्थाङ्क ५७५५ । . २५ वारणवनेश का काल अज्ञात है। १. विरोधिनां तिरोभावभव्यो यद्भारतीभरः । वीरेश्वरं गुरु शेषवंशोत्तंसं भजामि तम् ।। प्रौढमनोरमाखण्डन के प्रारम्भ में । मुद्रितग्रन्थ में 'वटेश्वरं गुरु पाठ है । हमारा पाठ लन्दन के इण्डिया आफिस पुस्तकालय के हस्तलेखानुसार है। देखो-सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ६२, ग्रन्थाङ्क ७२८ । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६-विश्वकर्मा शास्त्री विश्वकर्मा नामक किसी वैयाकरण ने प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रक्रियाव्याकृति' नाम्नी व्याख्या लिखी है। विश्वकर्मा के पिता का नाम दामोदर विज्ञ, और पितामह का नाम भीमसेन था इसका काल ५ भी अज्ञात है। तजौर के सूचीपत्र में इस टीका का नाम 'प्रक्रियाप्रदीप' लिखा है। देखो-सूचीपत्र भाग १० पृष्ठ ४३०४ । ७-नृसिंह किसी नृसिंह नामा विद्वान् ने प्रक्रियाकौमुदी की 'व्याख्यान' नाम्नी टीका लिखी है। इसका एक हस्तलेख उदयपुर के राजकीय पुस्तकालय में है । देखो-सूचीपत्र पृष्ठ ८० । दूसरा हस्तलेख मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय में विद्यमान है । देखो- सूचीपत्र भाग २, खण्ड १ सी, पृष्ठ २२६३ । नृसिंह नाम के अनेक विद्वान् प्रसिद्ध हैं । यह कौनसा नृसिंह है, यह अज्ञात है। ८-निर्मलदर्पणकार किसी अज्ञातनामा विद्वान् ने प्रक्रियाकौमुदी की 'निर्मलदर्पण' नामक टीका लिखी है । इसका एक हस्तलेख मद्रास राजकीय पुस्तकालय में संगृहीत है। देखो--सूचीपत्र भाग ४, खण्ड १C. पृष्ठ ५५८६, ग्रन्थाङ्क ३७७५ ।। 8-जयन्त जयन्त ने प्रक्रियाकौमुदी की 'तत्त्वचन्द्र' नाम्नी व्याख्या लिखी है। जयन्त के पिता का नाम मधुसूदन था । वह तापती तटवर्ती 'प्रकाशपुरी' का निवासी था ।' इसके ग्रन्थ का हस्तलेख लन्दन नगरस्थ इण्डिया आफिस पुस्तकालय के संग्रह में विद्यमान है। २५ देखो-सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ १७०, ग्रन्थाङ्क ६२५ ।। जयन्त ने यह व्याख्या शेषकृष्ण-विरचित प्रक्रियाकौमुदी की टीका के आधार पर लिखी गई है।' ग्रन्थकार ने प्रक्रियाकौमुदी की किसी १. भूपीठे तापतीतटे विजयते तत्र प्रकाशा पुरी, तत्र श्रीमघुसूदनो विरुरुचे विद्वद्विभूषामणिः । तत्पुत्रेण जयन्तकेन विदुषामालोच्य सर्वं मतम्, तत्त्वे १० संकलिते समाप्तिमगमत सन्धिस्थिता व्याकृतिः ॥ २. श्रीकृष्णपण्डितवचोम्बुधिमन्थनोत्थम्, सारं निपीय फणिसम्मतयुक्तिमिष्टम् । अर्थ्यामविस्तरयुतां कुरुते जयन्तः, सत्कौमुदीविवृतिमुत्तमसंमदाय । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५६७ और टीका का उल्लेख नहीं किया । अतः सम्भवः है कि इसका काल विक्रम की १६ वीं शताब्दी का मध्यभाग हो। यह जयन्त न्यायमञ्जरीकार जयन्त से भिन्न अर्वाचीन है । १०-विद्यानाथ दीक्षित विद्यनाथ ने प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रक्रियारञ्जन' नाम्नी टीका ५ लिखी है । प्राफेक्ट ने बृहत्सूचीपत्र में इस टीका का उल्लेख किया ११-वरदराज वरदराज ने प्रक्रियाकौमुदी की 'विवरण' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इस व्याख्या का एक हस्तलेख उदयपुर के राजकीय पुस्तकालय १० में विद्यमान है। देखो-सूचीपत्र पृष्ठ ८०, ग्रन्थाङ्क ७९१ । यह वरदराज लघुकौमुदी का रचयिता है वा अन्य, यह अज्ञात है। १२-काशीनाथ काशीनाथ नामा किसी विद्वान् ने प्रक्रियाकौमुदी' पर 'प्रक्रियासार' नामक ग्रन्थ लिखा है। इसका एक हस्तलेख भण्डारकर प्राच्य- १५ विद्याप्रतिष्ठान पूना के संग्रह में विद्यमान है। देखो-व्याकरण विभागीय सूचीपत्र संख्या ११६ । २४२। १८९५-९८ । इस हस्तलेख के प्रारम्भ में निम्न पाठ है 'श्रीमन्तं सच्चिदानन्दं प्रणम्य परमेश्वरम् । प्रक्रियाकौमुदीसिन्धोः सारः संगृह्यते मया ॥' __२० अन्त में निम्म लेख है'स्त्रियां सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुवदभाव इति टापो निवृत्तिः । इति काशीनाथकृतौ प्रक्रियासारे द्विरुक्तिप्रक्रिया।' ५. भट्टोजि दीक्षित (सं० १५७०-१६५० वि० के मध्य) २ भट्टोजि दीक्षित ने पाणिनीय व्याकरण पर 'सिद्धान्तकौमुदी' नाम्नी प्रयोगक्रमानुसारी व्याख्या लिखी है । इससे पूर्व के रूपावतार, रूपमाला और प्रक्रियाकौमुदी में अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का सन्निवेश नहीं था। इस न्यूनता को पूर्ण करने के लिये भट्टोजि Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी की रचना से पूर्व 'शब्द५ कौस्तुभ' लिखा था । यह पाणिनीय व्याकरण की सूत्रपाठानुसारी विस्तृत व्याख्या है | इसका वर्णन हम 'प्रष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में कर चुके हैं ।' वंश और काल - इस विषय में हम पूर्व लिख चुके हैं । ' सिद्धान्तकौमुदी के व्याख्याता ५६८ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास दीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' ग्रन्थ रचा । सम्प्रति समस्त भारतवर्ष में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन इसी सिद्धान्तकौमुदी के आधार पर प्रचलित है । १० भट्टोज दीक्षित (सं० १५७० - १६५० वि० के मध्य ) भट्टोज दीक्षित ने स्वयं 'सिद्धान्तकौमुदी' की व्याख्या लिखी है । यह 'प्रौढमनोरमा' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रक्रियाकौमुदी र उसकी टीकाओं का स्थान-स्थान पर खण्डन किया है। भट्टोजि दीक्षित ने यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' पर बहुत बल दिया है । प्राचीन ग्रन्थकार अन्य वैयाकरणों के मतों का भी प्राय: संग्रह करते रहे हैं, परन्तु भट्टोजि दीक्षित ने इस प्रक्रिया का सर्वथा उच्छेद कर दिया । अतः आधुनिक काल के पाणिनीय वैयाकरण अर्वाचीन व्याकरणों के तुलनात्मक ज्ञान से सर्वथा वञ्चित हो गये । १५ 'प्रौढमनोरमा' का संवत् १७०८ का एक हस्तलेख पूना के २० भण्डारकर प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान में है । देखो - व्याकरण विभागीय सूचीपत्र संख्या १३२ । भट्टोज दीक्षित कृत प्रौढमनोरमा पर उनके पौत्र हरि दीक्षित ने 'बृहच्छन्दरत्न' और 'लघशब्दरत्न' दो व्याख्याएं लिखी हैं । ये दोनों टीकाएं मुद्रित हो चुकी हैं। कई विद्वानों का मत है कि लघुशब्दरत्न नागेश भट्ट ने लिखकर अपने गुरु के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। बृहच्छन्दरत्न भी प्रकाशित हुप्रा है । लघुशब्दरत्न पर अनेक वैयाकरणों ने टीकाएं लिखी हैं । २५ २ ज्ञानेन्द्र सरस्वती (सं० १५५०-१६०० ) ज्ञानेन्द्र सरस्वती ने सिद्धान्तकौमुदी की 'तत्त्वबोधिनी' नाम्नी १. द्र० – पूर्व पृष्ठ ५३० । २. द्र० - पूर्व पृष्ठ ५३० -५३३ । ३० Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्धकार ५६६ व्याख्या लिखी है । ग्रन्थकार ने प्रायः प्रौढमनोरमा का ही संक्षेप किया है । ज्ञानेन्द्र सरस्वती के गुरु का नाम वामनेन्द्र सरस्वती था। नीलकण्ठ वाजपेयी ज्ञानेन्द्र सरस्वती का शिष्य था। नीलकण्ठ ने महाभाष्य की 'भाष्यतत्त्वविवेक' नाम्नी टीका लिखी है। इसका उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं।' काल- हम पूर्व पृष्ठ ४४२ पर लिख चुके हैं कि भट्टोजि दीक्षित और ज्ञानेन्द्र सरस्वती दोनों समकालिक हैं । अतः तत्त्वबोधिनीकार का काल सं० १५५०-१६०० तक रहा होगा। ___ तत्त्वबोधिनी-व्याख्या-गूढार्थदीपिका ज्ञानेन्द्र सरस्वती के शिष्य नीलकण्ठ वाजपेयी ने तत्त्वबोधिनी की 'गूढार्थदीपिका' नाम्नी १० एक व्याख्या लिखी थी। वह स्वीय परिभाषावृत्ति में लिखता है । अस्मद्गुरुचरणकृततत्त्वबोधिनीव्याख्याने गूढार्थदीपिकाख्याने प्रपञ्चितम् । नीलकण्ठ का इतिवृत्त हम पूर्व लिख चुके हैं।' ३-नीलकण्ठ वाजपेयी (सं० १६००-१६७५ वि० के मध्य) नोलकण्ठ वाजपेयी ने सिद्धान्तकौमुदी की भी सुखबोधिनी' १५ नाम्नी व्याख्या लिखी है। वह परिभाषावृत्ति में लिखता हैविस्तरस्तु वैयाकरणसिद्धान्तरहस्याख्यास्मत्कृतसिद्धान्तकौमुदीव्याख्याने अनुसन्धेयः । इससे विदित होता है कि इस टीका एक नाम वैयाकरणसिद्धान्तरहस्य भी है। २० ४-रामानन्द (सं० १६८०-१७२० वि०) रामानन्द ने सिद्धान्तकौमुदी पर 'तत्त्वदीपिका' नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । वह इस समय हलन्त स्त्रीलिंग तक मिलती है । . परिचय तथा काल-रामानन्द सरयूपारीण ब्राह्मण था। इसके पूर्वज काशो में आकर बस गये थे। रामानन्द के पिता का नाम २५ मधुकर त्रिपाठी था। ये अपने समय के उत्कृष्ट शैव विद्वान् थे । रामानन्द का दाराशिकोह के साथ विशेष सम्बन्ध था । दाराशिकोह के कहने से रामानन्द ने 'विराडविवरण' नामक एक पुस्तक ___१. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४४१। २. परिभाषावृत्ति, पृष्ठ १० । ३. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४४१-४४२। ४. परिभाषावृत्ति, पृष्ठ २६ । ३० Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रन्थ - रामानन्द ने संस्कृत तथा हिन्दी में अनेक ग्रन्थ लिखे थे। जिनमें से लगभग ५० ग्रन्थ समग्र तथा खण्डित उपलब्ध हैं । सिद्धान्तकौमुदी की टीका के अतिरिक्त रामानन्दविरचित लिङ्गानुशासन की एक अपूर्ण टीका भी उपलब्ध होती है । टीका पाणिनीय लिङ्गानुशासन पर है।' ५ - रामकृष्ण भट्ट (सं० १७१५ वि०) रामकृष्ण भट्ट ने सिद्धान्तकौमुदी की 'रत्नाकर' नाम्नी टीका लिखी हैं । इसके पिता का नाम तिरुमल भट्ट, और पितामह का नाम वेङ्कटाद्रि भट्ट था । इसके हस्तलेख तञ्जौर के राजकीय पुस्तकालय और जम्मू के रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में विद्यमान हैं। जम्मू १५ के एक हस्तलेख का लेखनकाल सं० १७४४ हैं | देखो सूचीपत्र पृष्ठ ५० । 1 १० ६०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास रची थी। उसकी रचना संवत् १७१३ वैशाख शुक्ल पक्ष १३ शनिघार को समाप्त हुई थी । दाराशिकोह ने रामानन्द की विद्वत्ता से मुग्ध होकर उन्हें 'विविधविद्याचमत्कारपारङ्गत' की उपाधि से भूषित किया था । भण्डारकर प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान पूना के संग्रह में इस ग्रन्थ के चार हस्तलेख हैं । देखो - व्याकरणविषयक सूचीपत्र सं० १७०, १७१, १७२, १७३। सं० १७० के हस्तलेख के अन्त में निम्न पाठ २० मिलता है ३० 'इति श्रीमद्वेङ्कटाद्रिभट्टात्मज तिरुमलभात्मज रामकृष्ण भट्टकर्तृ के कौमुदी - व्याख्याने सिद्धान्तरत्नाकरे पूर्वार्धम् । चन्द्रभूषु (१७१५) वत्सरे कौवेरदिग्भाजि रवौ मधौ सिते । श्रीरामकृष्णः प्रतिपत्तिथो बुधे रत्नाकरं पूर्णमचीकरद्वरम् ॥ २५ श्रङ्कानां वामतो गतिः नियमानुसार यहां सं० ५१७१ बनता है । यह कब्द आदि किसी संवत् के अनुसार उपपन्न नहीं होता । श्रतः यह उक्त नियम का अपवाद रूप क्रमशः प्रङ्कों की गणना करने पर सं० १७१५ काल बनता है । १. रामानन्द के लिये देखो - प्राल इण्डिया ओरिएण्टल कान्फ्रेंस १२ वां अधिवेशन सन् १९४४, भाग ४, पृष्ठ ४७.५८ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ६०१ उक्त निर्देश के अनुसार रामकृष्ण .भट्ट का काल सामान्यतया सं० १६६० से १७५० तक होना चाहिये। ६-नागेश भट्ट (सं० १७३०-१८१० वि० के मध्य) नागेश भट्ट ने सिद्धान्तकौमुदी की दो व्याख्याएं लिखी हैं । इनके नाम हैं बृहच्छब्देन्दुशेखर और लघुशब्देन्दुशेखर । लघुशब्देन्दु- ५ शेखर पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं । बृहच्छब्देन्दुशेखर सं० २०१७ (सन् १९६०) में वाराणसेयं संस्कृत विश्वविद्यालय से तीन भागों में छप गया है । शब्देन्दुशेखर की रचना महाभाष्यप्रदीपोद्योत से पूर्व हुई थी।' नागेश भट्ट के काल आदि का वर्णन हम पूर्व कर चुके हैं । १० लघुशब्देन्दुशेखर की टोकाएं-लघुशब्देदुशेखर पर अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये। इन में उदयङ्कर भट्ट की ज्योत्स्ना और वैद्यनाथ पायगुण्ड की चिदस्थिमाला प्रसिद्ध एवं उपयोगी हैं। ७-रङ्गनाथ यज्वा (सं० १७४५ वि०) हमने पूर्व पृष्ठ ५७६ टि० १ पर वामनाचार्यसूनु वरदराजकृत १५ क्रतुवैगुण्यप्रायश्चित्त के श्लोक उद्धृत किये हैं। उनसे जाना जाता है कि रङ्गनाथ यज्वा ने सिद्धान्तकौमुदी की 'पूर्णिमा' नाम्नी टोका लिखी थी। रङ्गनाथ यज्वा के वंश और काल का परिचय हम पूर्व पृष्ठ ५७८-५७६ पर दे चुके हैं। ____-वासुदेव वाजपेयी (सं० १७४०-१८००) वासुदेव वाजपेयीने सिद्धान्तकौमुदी की 'बालमनोरमा'नाम्नी टीका लिखी है । यह सरल होने से छात्रों के लिये वस्तुतः बहुत उपयोगी है। बालमनोरमा के अन्तिम वचन से ज्ञात होता है कि इसके पिता का नाम महादेव वाजपेयी,माता का नाम अन्नपूर्णा, और अग्रज का नाम २५ विश्वेश्वर वाजपेयी था। वासुदेव वाजपेयी ने अपने अग्रज विश्वेश्वर से अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था। यह चोलं (तौर) देश . २० शब्देन्दुशेखरे स्पष्टं निरूपितमस्माभिः । महाभाष्यप्रदीपोद्योत २०११२२ पृष्ठ ३६८, कालम २।। २. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४६७-४६६ । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के भोसलवंशीय शाहजी, शरभजी, तुक्कोजी नामक तीन राजाओं के मन्त्री विद्वान् सार्वभौम आनन्दराय का अध्वर्यु था। शाहजो, शरभजी और तुकोजी राजाओं का राज्यकाल सन् १६८७-१७३८ अर्थात् वि० सं० १७४४-१७६३ तक माना जाता है। बालमनोरमा के अन्तिम लेख में तुक्कोजी राजा के नाम का उल्लेख है । इससे प्रतीत होता है कि 'बालमनोरमा' की रचना तुक्कोजी के काल में हई थी। अतः बालमनोरमाकार का काल सं० १७४०१८०० के मध्य मानना चाहिये। -कृष्णमित्र १० कृष्णमित्र ने सिद्धान्तकौमुदी पर 'रत्नार्णव' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसका उल्लेख आफेक्ट ने अपने बृहत्सूचीपत्र में किया है । कृष्णमित्र ने शब्दकौस्तुभ की 'भावप्रदीप' नाम्नी टीका लिखी है । इसका वर्णन हम पूर्व पृष्ठ ५३४ पर कर चुके हैं । इसने सांख्य पर तत्त्वमीमांसा नामक एक निबन्ध भी लिखा है। देखो-हमारे मित्र १५ माननीय श्री पं० उदयवीरजी शास्त्री विरचित 'सांख्यदर्शन का इतिहास' पृष्ठ ३१८ (प्रथम संस्क०)। १०-तिरुमल द्वादशाहयाजी तिरुमल द्वादशाहयाजी ने कौमुदी की 'सुमनोरमा' टीका लिखी है। तिरुमल के पिता का नाम वेङ्कट है । हम संख्या ५ पर रामः २० कृणविरचित रत्नाकर व्याख्या का उल्लेख कर चुके हैं। रामकृष्ण का पिता का नाम तिरुमल और पितामह का नाम वेङ्कटाद्रि है यदि राम: कृष्ण का पिता यही तिरुमल यज्वा हो, तो इसका काल संवत् १७०० के लगभग मानना होगा। सुमनोरमा का एक हस्तलेख तजौर के पुस्तकालय में है। २५ देखो-सूचीपत्र भाग १०, पृष्ठ ४२११, ग्रन्थाङ्क ५६४६ । ११-तोप्पल दीक्षितकृत -प्रकाश १२-अज्ञातकर्तृक -लघुमनोरमा १३- " -शब्दसागर १४-" " . -शब्दरसार्णव १५- " -सुधाञ्जन Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ६०३ सिद्धान्तकौमुदी की इन टीकाओं के हस्तलेख तञ्जोर के पुस्तकालय में विद्यमान हैं। देखो-सूचीपत्र भाग १०, ग्रन्थाङ्क ५६६०५६६३, ५६६६ । १६. लक्ष्मी नृसिंह -विलास इस टीका का एक हस्तलेख मद्रास राजकीय पुस्तकालय में है। ५ देखो-सूचीपत्र भाग २६, पृष्ठ १०५७५, ग्रन्थाङ्क १६२३४ । १७. शिवरामचन्द्र सरस्वती -रत्नाकर १८. इन्द्रदत्तोपाध्याय -फक्किकाप्रकाश १६. सारस्वत व्यूढमिश्र -बालबोध । २०. वल्लभ -मानसरञ्जनी १० इन टीकाओं का उल्लेख अाफ्रक्ट ने अपने बृहत्सूचीपत्र में किया है। संख्या १७ का शिवरामचन्द्र सरस्वती शिवरामेन्द्र सरस्वती ही है । इसने महाभाष्य की भी सिद्धान्त रत्नाकर नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । इसका उल्लेख हम पूर्व पृष्ठ ४४४-४४६ पर कर चुके हैं। संख्या १८ की इन्द्रदत्तोपाध्याय की टीका का एक हस्तलेख १५ भण्डारकर प्राच्यविद्याशोधप्रतिष्ठान पूना के संग्रह में है । वहां टीका का नाम गूढपक्किकाप्रकाश लिखा है । द्र० सन् १९३८ का व्याकरण विभागीय सूचीपत्र । सिद्धान्तकौमुदी के सम्प्रदाय में प्रौढमनोरमा, लघुशब्देन्दुशेखर और बृहच्छब्देन्दुशेखर प्रादि पर अनेक टीका-टिप्पणियां लिखी गई २० हैं। विस्तरभिया हमने उन सबका निर्देश यहां नहीं किया। प्रौढमनोरमा के खण्डनकर्ता अनेक वैयाकरणों ने भट्टोजि दीक्षित कृत प्रौढमनोरमा के खण्डन में ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें से कुछ एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के रचयिताओं का उल्लेख हम नीचे करते हैं . २५ १-शेषवीरेश्वर-पुत्र (सं० १५७५ वि० के लगभग) वीरेश्वर अपर नाम रामेश्वर के पुत्र ने 'प्रौढमनोरमा' के खण्डन पर एक ग्रन्थ लिखा था। इसका उल्लेख पण्डितराज जगन्नाथ ने 'प्रौढमनोरमाखण्डन' में किया है । वह लिखता है Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___...... शेषवंशावतंसानां श्रीकृष्णाख्यपण्डितानां चिरायाचितयोः पादुकयोः प्रसादादासादितशब्दानुशासनास्तेषु च पारमेश्वरं पदं प्रयातेषु कलिकालवशंवदी भवन्तस्तत्र भवभिल्लासितं प्रक्रिया प्रकाशमाशयानवबोधनिबन्धनैर्दूषणैः स्वयंनिमितायां मनोरमाया५ माकुल्यमकार्षः। सा च प्रक्रियाप्रकाशकृतां पौत्रैरखिलशास्त्रमहा वमन्थाचलायमानमानसानामस्मद्गुरुवीरेश्वरपण्डितानां तनयैर्दू - षिता अपि......" शेष वीरेश्वर के पुत्र और उसके ग्रन्थ का नाम अज्ञात है। उसने प्रौढमनोरमा के खण्डन में जो ग्रन्थ लिखा था, वह सम्प्रति अप्राप्य २-चक्रपाणिदत्त (सं० १५५०-१६२५ वि०) चक्रपाणिदत्त ने भट्टोजि दीक्षित विरचित प्रौढमनोरमा के खण्डन में 'परमतखण्डनम' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। चक्रपाणिदत्तकृत प्रौढमनोरमा-खण्डन इस समय सम्पूर्ण उपलब्ध नहीं होता। इसका १५ कुछ अंश लाजरस कम्पनी बनारस से प्रकाशित हुआ है । इसके दो हस्तलेख भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना के संग्रह में हैं । देखो-व्याकरणविषयक सूचीपत्र सं० १४६, १५० । इसके प्रारम्भ में निम्न श्लोक मिलता है 'दरितरिपुवक्षोऽन्त्रं सचक्रपाणि नरहरि नत्वा । विद्वन्मण्डलहृदयं तत् परमतखण्डनं तनुते' । चक्रपाणिदत्त शेष वीरेश्वर का शिष्य है । इसके विषय में हम पूर्व पृष्ठ ५६५ पर लिख चुके हैं । चक्रपाणिदत्तकृत प्रक्रियाकौमुदी की टीका का वर्णन पूर्व पृष्ठ ५९५ पर हो चुका है। ___ चक्रपाणिदत्त के खण्डन का उद्धार भट्टोजि दीक्षित के पौत्र हरि २५ दीक्षित ने प्रौढमनोरमा की शब्दरत्नव्याख्या में किया है। ३–पण्डितराज जगन्नाथ (सं० १६१७-१७३३ वि० ?) पण्डितराज जगन्नाथ ने भट्टोजिदीक्षित कृत प्रौढमनोरमा के खण्डन १. चौखम्बा सीरीज काशी से सं० १६६१ में प्रकाशित प्रौढमनोरमा भाग ३ के अन्त में मुद्रित मनोरमाखण्डन, पृष्ठ १। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार में 'कुचमर्दन' नामक ग्रन्थ लिखा है । यह ग्रन्थ सम्प्रति सम्पूर्ण उपलब्ध नहीं होता। इसका कुछ अंश चौखम्बा संस्कृत सीरीज काशी से सं० १९९१ में पुस्तकाकार (बुक साइज) प्रकाशित प्रौढमनोरमा भाग ३ के अन्त में छपा है। पण्डितराज ने भट्टोजि दीक्षित कृत 'शब्दकौस्तुभ' के खण्डन में भी एक ग्रन्थ लिखा था, उसका उल्लेख हम ५ पूर्व पृष्ठ ५३५ पर कर चुके हैं। . __ पण्डितराज जगन्नाथ के विषय में हम पूर्व पृष्ठ ५३५, ५३६ पर लिख चुके हैं। सिद्धान्त-कौमुदी अनुसारी पाणिनीयसूत्र व्याख्या-मणलूरवीरराघवाचार्य ने भट्टोजि दीक्षित विरचित सिद्धान्त कौमुदी में १० उदाहृत उदाहरणों के प्रयोग विविध ग्रन्थों में दर्शाने के लिये पाणिनीय सूत्र व्याख्या (सोदाहरण श्लोका) का संकलन किया है। यह ग्रन्थ मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरिज में दो भागों में प्रकाशित हुआ है। यद्यपि यह सिद्धान्त-कौमुदी की व्याख्या नहीं है, पुनरपि तद्गत उदाहरणों के प्रयोग-परिज्ञान के लिये उपयोगी है । इसी १५ कारण इस का यहां निर्देश किया है। ६. नारायण भट्ट (सं० १६१७-१७३३ वि०) केरल देश निवासी नारायण भट्ट ने 'प्रक्रियासर्वस्व' नाम का प्रक्रियाग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में २० प्रकरण हैं।' प्रक्रियासर्वस्व २० के अवलोकन से विदित होता है कि नारायण भट्ट ने किसी देवनारा यण नाम के भूपति की प्राज्ञा से यह ग्रन्थ लिखा था। प्रक्रियासर्बस्व के टीकाकार केरल वर्मदेव ने लिखा है कि नारायण भट्ट ने यह ग्रन्थ ६० दिनों में रचा था। इस ग्रन्थ में अष्टाध्यायी के समस्त सूत्र यथा १. इह संज्ञा परिभाषा सन्धिः कृत्तद्धिताः समासाश्च । स्त्रीप्रत्ययाः सुबर्थाः सुपां विधिश्चात्मनेपदविभागः तिङापि च लार्थविशेषाः सन्नन्तयङ्यङ्लुकश्च सुब्धातुः । न्याय्यो धातुरुणादिश्छान्दसमिति सन्तु विंशतिखण्डाः ॥ ७॥ भाग १, पृष्ठ ३। २. प्रारम्भिक श्लोक २, ४, ८ । ३............. प्रक्रियासर्वस्वं स मनीषिणामचरमः षष्टिदिननिर्ममे। भूमिका, भाग २, पृष्ठ २ पर उद्धृत । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० प्रकरण यथास्थान सन्निविष्ट हैं। प्रकरणों का विभाग और क्रम सिद्धान्तकौमुदी से भिन्न है । ग्रन्थकार ने भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण और उसकी वृत्ति से महती सहायता ली है। ग्रन्थकार का परिचय-नारायण भट्ट विरचित 'अपाणिनीय ५ प्रमाणता' के सम्पादक ई० बी० रामशर्मा ने लिखा है कि नारा यण भट्ट केरल देशान्तर्गत 'नावा' क्षेत्र के समीप 'निला' नदी तीरवर्ती 'मेल्युत्तर' ग्राम में उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम 'मातृदत्त' था। नारायण ने मीमांसक-मूर्धन्य माधवाचार्य से वेद, पिता से पूर्वमीमांसा, दामोदर से तर्कशास्त्र, और अच्युत से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था। नारायण भट्ट का काल-पण्डित ई० बी० रामशर्मा ने 'अपाणिनीयप्रमाणता' का रचनाकाल सन् १६१८-६१ ई० माना है। प्रक्रियासर्वस्व के सम्पादक साम्बशास्त्री ने नारायण का काल सन् १५६० १६७६ अर्थात् वि० सं० १६५७-१७३३ तक माना है ।' प्रक्रिया१५ सर्वस्व के टीकाकार केरल वर्मदेव ने लिखा है-'भट्रोजि दीक्षित ने नारायण से मिलने के लिये केरल की और प्रस्थान किया, परन्तु मार्ग में नारायण की मृत्यु का समाचार सुनकर वापस लौट गया।' यदि यह लेख प्रामाणिक माना जाय, तो नारायण भट्ट का काल विक्रम की १६ वीं शताब्दी मानना होगा । इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि नारायण ने अपने ग्रन्थ में भट्टोजि के ग्रन्थ से कहीं सहायता नहीं ली। प्रक्रियासर्वस्व के सम्पादक ने लिखा है कि कई लोग पूर्वोक्त घटना का विपरीत वर्णन करते हैं । अर्थात् नारायण भट भट्रोजि से मिलने के लिये केरल से चला, परन्तु मार्ग में भट्रोजि की मृत्यु सुनकर वापस लौट गया। नारायण का गुरु मोमांसक२५ मूर्धन्य माधवाचार्य यदि सायण का ज्येष्ठ भ्राता हो, तो नारायण भट्ट का काल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी मानना होगा। अतः नारायण भट्ट का काल अभी विमर्शाह है। अन्य ग्रन्थ नारायण भट्ट ने 'क्रियाक्रम, चमत्कारचिन्तामणि, धातुकाव्य, १. अंग्रेजी भूमिका भाग १, पृष्ठ ३ । २. देखो-भूमिका भाग २, पृष्ठ २ में उद्धृत श्लोक । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया - ग्रन्थकार ६०७ 'और 'पाणिनीयप्रमाणता' प्रादि ३८ ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हैं । धातुकाव्य का वर्णन 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' के प्रकरण में किया जायगा । पाणिनीय प्रमाणता - इस का वर्णन पूर्व पृष्ठ ४६ तथा १७१ पर हो चुका है । इस लघु ग्रन्थ के परम उपयोगी होने से इसे हमने ५ तृतीय भाग में प्रथम परिशिष्ट में छापा है । प्रक्रिया सर्वस्व के टीकाकार 'प्रक्रिया सर्वस्व' के सम्पादक साम्ब शास्त्री ने तीन टीकाकारों का उल्लेख किया । एक टीका वेरल - कालिदास केरल वर्मदेव ने लिखी है । केरल वर्मदेव का काल सं० १९०१ - १९७१ तक माना जाता है । १० 1 दो टीकाकारों का नाम अज्ञात है । ट्रिवेण्ड्रम से प्रकाशित प्रक्रिया - सर्वस्व के प्रथम भाग में 'प्रकाशिका' व्याख्या छपी है ।" अन्य प्रक्रिया - ग्रन्थ इसके अतिरिक्त लघुकौमुदी, मध्यकौमुदी आदि अनेक छोटे-मोटे प्रक्रियाग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण पर लिखे गये । ये सब अत्यन्त १५ साधारण र अर्वाचीन हैं । अतः इनका उल्लेख इस ग्रन्थ में नहीं किया गया । इस अध्याय में ६ प्रसिद्ध प्रक्रियाग्रन्थों के रचयिता और उनके टीकाकारों का वर्णन किया है । इस प्रकार प्रध्याय ५-१६ तक १२ अध्यायों में पाणिनि और उसकी अष्टाध्यायी के लगभग १७५ २० व्याख्याकार वैयाकरणों का संक्षेप से वर्णन किया है । अब अगले अध्याय में पाणिनि से अर्वाचीन प्रधान वैयाकरणों का वर्णन किया जायगा । xxx १. द्वितीयभाग की भूमिका, पृष्ठ १ । २. भूमिका, भाग १, पृष्ठ ४ । २५ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां अध्याय - आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण प्राचार्य पाणिनि के अनन्तर अनेक वैयाकरणों ने व्याकरणशास्त्रों की रचनाएं कीं । इन सब व्याकरणों का उपजीव्य पाणिनीय व्या५ करण है । केवल कातन्त्र एक ऐसा व्याकरण है, जिसका आधार कोई अन्य प्राचीन व्याकरण है।' पाणिनि से अर्वाचीन समस्त उपलब्ध व्याकरण-ग्रन्थों में केवल लौकिक संस्कृत के शब्दों का अन्वाख्यान है । अर्वाचीन वैयाकरणों में अधोलिखित ग्रन्थकार मुख्य हैं १-कातन्त्रकार ११-वर्धमान २–चन्द्रगोमी १२-हेमचन्द्र ३-क्षपणक १३-मलयगिरि ४-देवनन्दी १४-क्रमदीश्वर ५-वामन १५-सारस्वत-व्याकरणकार ६-पाल्यकोति १६-रामाश्रम सिद्धान्तचन्द्रिकाकार ७-शिवस्वामी १७-वोपदेव ८-भोजदेव १८-पद्मनाभ ६-बुद्धिसागर १६-विनयसागर १०-भद्रेश्वर सूरि इनके अतिरिक्त द्रुतबोध, शीघ्रबोध, शब्दबोध, हरिनामामृत १. प्रादि व्याकरणों के रचयिता अनेक वैयाकरण हए हैं, परन्त ये सब अत्यन्त अर्जाचीन हैं । इनके ग्रन्थ भी विशेष महत्त्वपर्ण नहीं हैं, और इन ग्रन्थों का प्रचार भी केवल बंगाल प्रान्त तक ही सीमित है । इसलिये इन बैयाकरणों का वर्णन इस ग्रन्थ में नहीं किया जायगा । पं० गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' नामक २५ ग्रन्ध के पृष्ठ ४४८ पर पाणिनि-परवर्ती निम्न वैयाकरणों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया हैं १. हमारे मत में कातन्त्र का उपजीव्य काशकृत्स्न तन्त्र है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ श्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण व्याघ्रपाद द्वितीय कृत यशोभद्र श्रार्यवज्रस्वामी भूतबलि इन्द्रगोमी (बौद्ध) कृत 17 वाग्भट्ट श्रीदत्त चन्द्रकीर्ति प्रभाचन्द्र धमसिंह ? सिद्धनन्दि भद्रेश्वरसूरि श्रुतपाल शिवस्वामी वा शिवयोगी बुद्धिसागर केशव "1 19 19 19 19 99 11 91 ., "1 " " 19 वाग्भट्ट (द्वितीय),, विनीतकीति विद्यानन्द 31 11 दशपादी वैयाघ्रपद्य व्याकरण जैन व्याकरण 11 " 31 ऐन्द्र व्याकरण जैन समन्तभद्र जैन " बौद्ध व्याकरण बुद्धिसागर केशवी विद्यानन्द यम वरुण सौम्य अष्टधातु " जैन दीपक " " 11 11 11 ,, 11 19 11 " 11 19 " 11 " ६०६ ܐ १५ २० इन ग्रन्थकारों का उल्लेख करके पं० गुरुपद हालदार ने अपने २५ इतिहास के पृष्ठ ४४९ पर लिखा है कि डा० कीलहानं और पं० सूर्यकान्त के मत में जैन नाम कल्पित है । हालदार महोदय इन्हें कल्पित नहीं मानते । प्राग्देवनन्दी – जैन व्याकरणकार जैनेन्द्र व्याकरण के प्रवक्ता देवनन्दी प्रपरनाम पूज्यपाद ने अपने ३० व्याकरण में भूतबलि, श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन श्रौर Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास समन्तभद्र के मत उद्धृत किये हैं ।' पाल्यकीर्ति ने इन्द्र, सिद्धनन्दी श्रीर श्रार्यवज्र के मतों का उल्लेख किया है । " श्री नाथूराम प्रेमी और प्राग्देवनन्दी - व्याकरणकार पं० नाथूराम प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ में लिखा है- 'जहां तक हम जानते हैं, इन छः (भूतबलि, श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, समन्तभद्र ) श्राचार्यों में से किसी का भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरह के शब्द प्रयोग किये गये होंगे, और उन्हीं को व्याकरण- सिद्ध करने के लिये ये सब सूत्र रखे गये हैं । शाकटायन ने भी १० इसी का अनुकरण करके तीन प्राचार्यों के मत दिये हैं । " हमारा मत प्राचीन और अर्वाचीन समस्त वैयाकरण- परम्परा के अनुशीलन से हम इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि प्राचार्य पूज्यपाद और पात्यकीर्ति ने जिन-जिन आचार्यों के मत स्वीय व्याकरणों में उद्धृत किये हैं, १५ उन्होंने स्व-स्व व्याकरणशास्त्रों का प्रवचन अवश्य किया था । श्री प्रेमीजी ने इनके विषय में जिन प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है, ठीक उसी प्रकार पाश्चात्त्य और तदनुयायी कतिपय भारतीय व्यक्ति पाणिनि द्वारा स्मृत शाकल्य प्रादि वैयाकरणों के लिये भी व्यवहार करते हैं । अर्थात् पाणिनि द्वारा स्मृत शाकल्य २० आदि आचार्यों ने भी कोई स्वीय व्याकरण-ग्रन्थ नहीं लिखे थे, ऐसा कहते हैं । किन्तु पाणिनि द्वारा स्मृत कई प्राचार्यों के प्राचीन व्याकरणसूत्रों के उपलब्ध हो जाने से जैसे पाश्चात्त्य मत निर्मूल हो गया, और उन आचार्यों का व्याकरणप्रवक्तृत्व सिद्ध हो गया, उसी प्रकार कालान्तर में प्राग्देवनन्दी जैन वैयाकरणों का व्याकरणप्रवक्तृत्व भी २५ श्रवश्य सिद्ध होगा । देवनन्दी और पाल्यकीर्ति जैसे प्रामाणिक १. यथाक्रम - राद् भूतबलेः । ३ । ४ । ८३ ॥ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् । १ । ४ । ३४ ।। कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य । २।१।६६ रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य । ४ | ३ | १८० ॥ वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५ । १ । ७ ॥ चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५ । ४ । १४० ।। ३० २. यथाक्रम — जराया ङस् इन्द्रस्याचि । १ । २ । ३७ ॥ शेषात् सिद्धनन्दिनः । २ । १ । २२६ ॥ ततः प्रागु आर्यवज्रस्य । १ । २ । १३ ॥ ३. जैन साहित्य और इतिहास, प्र० सं० पृष्ठ १२० ; द्वि० सं० पृष्ठ ४७ । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६११ श्राचार्य मिथ्या लिखेंगे, यह कल्पना करना भी पाप है । अतः इनका अन्वेषण आवश्यक है । विक्रम की १७ वीं शताब्दी में विद्यमान कवीन्द्राचार्य के पुस्त - कालय का सूचीपत्र गायकवाड़ संस्कृत सीरीज बड़ौदा से प्रकाशित हुआ है । उसमें निम्नलिखित व्याकरणों का उल्लेख मिलता है - हेमचन्द्र व्याकरण व्याकरण सारस्वत कालाप शाकटायन शाकल्य ऐन्द्र चान्द्र दौर्ग ब्रह्म 11 19 11 17 11 19 33 99 यम वायु वरुण सौम्य वैष्णव रुद्र कौमार बालभाषा शब्द तर्क 11 19 $1 11 11 6 11 39 इनमें शाकल्य और ऐन्द्र ये दो नाम प्राचीन हैं । परन्तु सूचीपत्र १५ निर्दिष्ट ग्रन्थ प्राचीन हैं वा अर्वाचीन, यह प्रज्ञात है । अब हम पूर्वनिर्दिष्ट १६ सोलह मुख्य वैयाकरणों का क्रमशः वर्णन करते हैं १० कातन्त्रकार ( २००० वि० पू० ) व्याकरण के वाङमय में 'कातन्त्र व्याकरण' का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके 'कलापक' और 'कौमार' नामान्तर हैं । साघु चरित्रसिह ने 'कातन्त्र विभ्रभावचूर्णि' के प्रारम्भ में सारस्वतसूत्रयुक्त्या' शब्द का प्रयोग किया है। इस से इस का एक नाम 'सारस्वत' भी ज्ञात होता है ।' अर्वाचीन वैयाकरण कलाप शब्द से भी इसका व्यवहार करते हैं ।' इस व्याकरण में दो भाग हैं। एक- श्राख्यातान्त, दूसरा- कृदन्त । दोनों भाग भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की रचनाएं हैं । : ५ १. पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने 'सं० प्रा० जैन व्याकरण और कोश की परम्परा' ग्रन्थ में छपे अपने लेख में लिखा है - ' इस में सारस्वत व्याकरण के सूत्रों का प्रयोग किया गया है ' ( पृष्ठ ११० ) । यह चिन्त्य है । वह ग्रन्थ सारस्वत व्याकरण नाम से प्रसिद्ध व्याकरण पर नहीं हैं । २. कालापिकास्ततोऽन्यत्रापि पठन्ति । भट्टि जयमङ्गला टीका ३ । ६ । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कातन्त्र कलापक और कौमार शब्दों का अर्थ कातन्त्र-कातन्त्रवृत्ति-टीकाकार दुर्गसिंह आदि वैयाकरण कातन्त्र शब्द का अर्थ 'लघुतन्त्र' करते हैं। उनके मतानुसार ईषत् =लघु अर्थवाची 'कु' शब्द को 'का' आदेश होता है। वृद्ध-कातन्त्र-कातन्त्र ३।३।२२ की पञ्जीटीका में वृद्धकातन्त्राः' प्रयोग मिलता है। ___ कलापक-'कलाप' शब्द से ह्रस्वार्थ में 'क' प्रत्यय होकर 'कलापक' शब्द बनता है । कातन्त्र व्याकरण काशकृत्स्न तन्त्र का संक्षेप है, यह हम आगे प्रमाणित करेंगे। काशकृत्न तन्त्र का नाम १० 'शब्द-कलाप' है, यह पूर्व लिखा जा चुका है ।' अर्वाचीन वैयाकरण कलाप शब्द से स्वार्थ में 'क' प्रत्यय मानते हैं । वे इसका वास्तविक नाम 'कलाप' समझते हैं। कातन्त्रीय वैयाकरणों में किंवदन्ती है कि महादेव के पुत्र कुमार कार्तिकेय ने सर्व प्रथम इसे मयूर की पूछ पर लिखा था, अत एव इसका नाम कलाप १५ हुआ। कई वैयाकरण 'कलापक' शब्द को स्वतन्त्र मानते है । वे इसकी व्युत्पत्ति निम्न प्रकार दर्शाते हैं। ___ आचार्य हेमचन्द्र अपने 'धातुपारायण में लिखता है- बृहत्तन्त्रात् कलाः [प्रा] पिबतीति' ।' पुनः उणादिवृत्ति में लिखता है-'प्रादिग्रहणात् बृहत्तन्त्रात् कला २० प्रापिबन्तीति कलापकाः शास्त्राणि'। हेमचन्द्र से प्राचीन माणिक्य देव दशपादी उणादि-वृत्ति में लिखता है—'सपूर्वस्यापि पा पाने भौ०, प्राङ्पूर्वः कलाशब्दपूर्वः । बहत्तन्त्रात्, कलाः [पा] पिबतीति कलापकः शास्त्रम'। हेमचन्द्र और दशपादी उणादिवृत्तिकार की व्युत्पत्तियों से इतना स्पष्ट है कि किसी बड़े ग्रन्थ से संक्षेप होने के कारण कातन्त्र का नाम 'कलापक' हुआ है। वह महातन्त्र काशकृत्स्न तन्त्र था। कौमार- वैयाकरणों में किंवदन्ती है कि कुमार कार्तिकेय की आज्ञा से शर्ववर्मा ने इस शास्त्र की रचना की है। हमारा विचार १. देखो - पूर्व पृष्ठ १२५। २. पृष्ठ ६। ३. पृष्ठ १० । ४. ३।५, पृष्ठ १३०। ५. तत्र भगवत्कुमार-प्रणीत-सूत्रानन्तरं तदाज्ञयैव श्रीशर्ववर्मणा प्रणीतं सूत्रं कथमनर्थकं भवति । वृत्तिटीका, परिशिष्ट पृष्ठ ४६६ । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन व्याकरण है कि कुमारों = बालकों को व्याकरण का साधारण ज्ञान कराने के लिये प्रारम्भ में यह ग्रन्थ पढ़ाया जाता था । अत एव इसका नाम 'कुमाराणामिदं कौमारम्' हुआ । सारस्वत - क्वचित् सरस्वती के प्रसाद से शर्ववर्मा को इस व्याकरण की प्राप्ति का उल्लेख होने से इसे 'सारस्वत' भी कहते हैं । ५ इसी कारण कातन्त्र विभ्रभावचूर्णि' के लेखक साधु चरित्रसिंह ने आरम्भ में सारस्वतसूत्रयुक्त्या पद का प्रयोग किया है । ' ६१३ मारवाड़ देश में अभी तक देशी पाठशालाओं में बालकों को ५ पाच सिधी पाटियां पढ़ायी जाती हैं । ये पांच पाटियां कातन्त्र व्याकरण के प्रारम्भिक पांच पादों का ही विकृत रूप है । हम दोनों १० की तुलना के लिये प्रथम पाटी और कातन्त्र के प्रथम पाद के सूत्रों का उल्लेख करते हैं— प्रथम सिधी पाटी सिधो वरणा समामुनायाः चत्रुचत्रुदासाः दऊसवारा: दसे समानाः तेषु दुध्या वरणाः नसीसवरणाः पुरवो हंसवा: पारो दीरघाः सरोवरणा बिणज्या नामीः इकार देणी सोंधकराणी: कादी: नीबू बिणज्योनामी: ते विरघा: पंचा पंचा विरघानाऊ प्रथमदुतीयाः संषो कातन्त्र का प्रथम पाद सिद्धो वर्णसमाम्नायः । तत्र चतुर्दशादौ स्वराः । दश समानाः । तेषां द्वौ द्वावन्योऽन्यस्य सवणौं । पूर्वो ह्रस्वः । परो दीर्घः । स्वरोऽवर्णवर्जी नामी । एकारादीनि सन्ध्यक्षराणि । कादीनि व्यञ्जनानि । ते वर्गाः पञ्च पञ्च । वर्गाणां प्रथमद्वितीयाः शषसा १५ २० १. द्र० पूर्व पृष्ठ ६११ की टि० १ । २. सन् १९४४ तक । ३. डा० कन्हैयालाल शर्मा ने 'हाड़ोती बोली और साहित्य' नामक ग्रन्थ में पाठान्तर निर्देश पूर्वक इन पांच पाटियों का पाठ मुद्रित किया है। विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के 'सिन्धिया प्राच्यशोध प्रतिष्ठान में इन पांच पाटियों का एक हस्तलेख है । उस का पाठ पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने अपने 'कातन्त्र - विमर्श' नामक शोध ग्रन्थ में पृष्ठ ५३ - ५४ पर छापा है । ३० ४. नीचे लिखा 'सीधीपाटी' का पाठ हमने सन् १९४२ में एक व्यक्ति से सुन कर संग्रहीत किया था । २५ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास ६१४ साईचा घोषा घोषपितरो रती: अनुरे श्रासकाः निनाणे नामा: संता जेरेल्लवाः ५ रुकमण संघोसाहाः श्रायती विसुरजुनीयाः कायती जिह्वामू लिया: पायती पदमानीया श्रायो प्रायो रतमसवारोः १० पूरबो फल्योरया रथोपालरेऊ ३० पदुपदुः विणज्यो नामी। सब्वरूवरणानेतू नेतकरमेयाः रासस लाकोजेतुः लेषोः पवाईडा: दुर्गणसींधीः एती: सोंधीसूत्रता: प्रथमापाटी शुभकरता श्चाघोषा घोषवन्तोऽन्ये श्रनुनासिका ङजणनमाः अन्तस्थाः यरलवाः । ऊष्माणः शषसहाः । प्रः इति विसर्जनीयः । एक इति जिह्वामूलीयः इत्युपध्मानीयः । श्रं इत्यनुस्वारः । पूर्वपरयोरर्थोपलब्ध पदम् । व्यञ्जनमस्वरं परं वर्णं नयेत् । अनतिक्रामयन् विश्लेषयेत् । लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः । इति सन्धिसूत्राणि प्रथमः पादः शुभं भूयात् । मारवाड़ में सीधी पाटी के न्यूनाधिक अन्तर से कई पाठ प्रच लित हैं । हमने एक का निर्देश किया । २० उपर्युक्त तुलना से स्पष्ट है कि मारवाड़ की देशी पाठशालाओंों में पढ़ाई जानेवाली पांच सोधी पार्टियां कातन्त्रव्याकरण के पांच सन्धिपाद हैं। इससे यह भी विस्पष्ट है कि कातन्त्र का कौमार नाम पढ़ने का कारण 'कुमाराणामिदम् ' ( बालकों का व्याकरण ) ही है । अग्निपुराण और गरुड़पुराण में किसी व्याकरण का संक्षप उपलब्च होता है ।' वह संक्षेप इनमें कुमार और स्कन्द के नाम से दिया २५ है । कई विद्वान् इनका आधार कातन्त्र व्याकरण मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है । उसमें पाणिनीय प्रत्याहारों और संज्ञात्रों का उल्लेख मिलता है | अतः हमारा विचार है कि वह संक्षेप पाणिनीय व्याकरणानुसार है । कलाप के सम्बन्ध में विशिष्ट उल्लेख मत्स्यपुराण की एक दाक्षिणात्य प्रति है । उस में पूर्व प्रोर उत्तर १. अग्निपुराण, अध्याय ३४९ - ३५६; गरुड़पुराण श्राचारकाण्ड अध्याय २०५, २०६ । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण दो खण्ड हैं (यह खण्डविभाग अन्यत्र नहीं मिलता)। उस में शिव के कलापित्व का वर्णन करते हुए कलाप का अर्थ शब्द ध्वनि सम्बन्धिशास्त्र, और कलापि का अर्थ शिव दिया है।' काशकृत्स्नतन्त्र का संक्षप कातन्त्र इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण के प्रकाशित होने के अनन्तर काश- ५ कृत्स्न धातुपाठ कन्नड टीका सहित प्रकाश में आया। कन्नड टीका में काशकृत्स्न के लगभग १३५ सूत्र भी उपलब्ध हो गये हैं। काशकृत्स्न घातुपाठ और कातन्त्र धातुपाठ की पारस्परिक तुलना करने से स्पष्ट विदित होता है कि कातन्त्र धातूपाठ काशकृत्स्न धातुपाठ का संक्षेप है। इसी प्रकार काशकृत्स्न के उपलब्ध सूत्रों की कातन्त्रसूत्रों से १० तुलना करने पर भी यही परिणाम निकलता है कि कातन्त्र काशकृत्स्नतन्त्र का ही संक्षेप है। दोनों तन्त्रों में धातुपाठ की समानानुपूर्विता (कातन्त्र की संक्षिप्तता के कारण छोड़ी गई धातुओं के अतिरिक्त), तथा दोनों तन्त्रों के सूत्रों की समानता, अनुबन्ध, और संज्ञाओं की समानता तथा विशेषकर दोनों धातुपाठों में समानरूप से पढ़ी गई छान्दस घातुएं (पाणिनीय मत में), और स्वरानुरोध से संयोजित 'न्' आदि अनुबन्ध इस मत के सुदृढ़ प्रमाण हैं कि कातन्त्र काशकृत्स्नतन्त्र का संक्षेप है। . काल कातन्त्र व्याकरण का रचनाकाल अत्यन्त विवादास्पद है। अतः २० हम उसके कालनिर्णय में जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, उन सब का क्रमशः निर्देश करते हैं २५ 3. Kalapa is Sastia Made of Sounds and Siva is called कलापिन । द्र०-वी० राघवन का An puipue two kanda version of the matsya puran. लेख, पुराण पत्रिका १।१॥ २. इनके लिये देखिए- हमारी 'काशकृत्स्न व्याकरण और उसके उपलब्ध सूत्र' पुस्तिका। ३. द्र०-हमारी 'काशकृत्स्न व्याकरण और उसके उपलब्ध सूत्र' पुस्तिका पृ०१७॥ ४. बही, काशकृत्स्न सूत्रों की व्याख्या के साथ निर्दिष्ट कातन्त्र के तुलनात्मक संकेत, तथा पृष्ठ १६ । ५. यथा मन् यन् विकरणों में। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १-कथासरित्सार में लिखा है-शर्ववर्मा ने सातवाहन नृपति को व्याकरण का बोध कराने के लिये कातन्त्र व्याकरण पढ़ाया था।' सातवाहन नृपत्ति आन्ध्रकुल का व्यक्ति है । कई ऐतिहासिक आन्ध्रकाल को विक्रम के पश्चात् जोड़ते हैं, परन्तु यह भूल है । आन्ध्रकाल वस्तुतः विक्रम से पूर्ववर्ती है।' २-शूद्रकविरचित पद्मप्राभृतक भाण में कातन्त्र का उल्लेख मिलता है। यह भाण उसी शूद्रक कवि की रचना है, जिसने मृच्छकटिक नाटक लिखा है। दोनों ग्रन्थों के प्रारम्भ में शिव की स्तुति है, और वर्णनशैली समान है । 'मृच्छकटिक' की प्रस्तावना से १० जाना जाता है कि शूद्रक नामा कवि ऋग्वेद सामवेद और अनेक विद्याओं में निष्णात, अश्वमेधयाजी, शिवभक्त महीपाल था। अनेक विद्वान् शूद्रक का काल विक्रम की पांचवीं शताब्दी मानते हैं, मह महती भूल है। महाराज शूद्रक हालनामा सातवाहन नृपति का समकालिक था, और वह विक्रम से लगभग ४००-५०० वर्ष पूर्ववर्ती १५ था। ३-चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण की स्त्रोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में लिखा है 'सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सवीयं जगतो गुरुम् ।। लघुविस्पष्टसम्पूर्णम् उच्यते शब्दलक्षणम्' । २० इस श्लोक में चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण के लिये तीन विशेषण लिखे हैं -लघु विस्पष्ट और सम्पूर्ण । कातन्त्रव्याकरण लघु और १. लम्बक १, तरङ्ग ६, ७ । २. द्र०-५० भगवद्दत्त कृत भारतवर्ष का इतिहास द्वि० संस्करण । ३. एषोऽस्मि बलिभुग्भिरिव संघातवलिभिः कातन्त्रिकरवस्कन्दित इति । २५ हन्त प्रवृत्तं काकोलूकम् । सखे दिष्ट्या त्वामलूनपक्षं पश्यामि । किं ब्रवीषि ? का चेदानीं मम वैयाकरणपारशवेषु कातन्त्रिकेष्वास्था । पृष्ठ १८ । ४. ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकी हस्तिशिक्षा, ज्ञात्वा शर्वप्रसादात् व्यपगततिमिरे चक्षुषो चोपलभ्य । राजानं वीक्ष्य पुत्रं परमसमुदयेना श्वमेधेन चेष्ट्वा, लब्ध्वा चायुः शताब्दं दशदिनसहितं शूद्रकोऽग्नि प्रविष्टः॥ ३० ५. संस्कृतकविचर्चा, पृष्ठ १५८-१६१ । ६. द्र०–६० भगवदत्त कृत भारतवर्ष का इतिहास, द्वि० संस्करण, पृष्ठ २६१-३०६ । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६१७ विस्पष्ट है, परन्तु सम्पूर्ण नहीं है । इसके मूल ग्रन्थ में कृत्प्रकरण का समावेश नहीं है,अन्यत्र भी कई आवश्यक बातें छोड़ दी हैं। पाणिनीय व्याकरण सम्पूर्ण तो है, परन्तु महान् है, लघु नहीं। हमारा विचार है कि चन्द्राचार्य ने 'सम्पूर्ण' विशेषण कातन्त्र की व्यावत्ति के लिये रखा है । चन्द्राचार्य का काल भारतीय गणनानुसार ५ न्यूनातिन्यून विक्रम से १००० वर्ष पूर्व है, यह हम पूर्व (पृष्ठ ३६८३७१) लिख चुके हैं। ४-महाभाष्य ४ । २ । ६५ में लिखा है'संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम् । इह मा भूत्-माहावातिकः, कालापकः। अर्थात्-सूत्र (ग्रन्थ) वाची ककारोपध प्रातिपदिक से 'तदधीते' तद्वेद' अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का जो लुक् विधान किया है, वह संख्याप्रकृतिवाले (=संख्यावाची शब्द से बने हुए) प्रातिपदिक से कहना चाहिये । यथा अष्टकमधीते अष्टकाः पाणिनीयाः, दशका वैयाघ्रपद्याः । यहां अष्टक और दशक शब्द संख्याप्रकृतिवाले हैं। इनमें १५ अष्ट और दश शब्द से परिमाण अर्थ में सूत्र अर्थ गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है ।' वार्तिक में संख्याप्रकृति ग्रहण करने से 'माहावार्तिकः, कालापकः' में वुन् का लुक् नहीं होता। क्योंकि ये शब्द संख्याप्रकृतिवाले नहीं हैं। __ ये दोनों प्रत्युदाहरण 'संख्याप्रकृतिः' अंश के हैं । इनमें सूत्र वाच- २० कत्व और कोपधत्व अंश का रहना आवश्यक है । अतः 'कालापकाः' प्रत्युदाहरण में निर्दिष्ट 'कलापक' निश्चय ही किसी सूत्रग्रन्थ का वाचक है, और पूर्वोद्धृत व्युत्पत्ति के अनुसार वह कातन्त्र व्याकरण का वाचक है। हरदत्त और नागेश की भूल-हरदत्त और नागेश ने महाभाष्य २५ के 'कालापकाः' प्रत्युदाहरण की व्याख्या करते हुए लिखा है-कलापी द्वारा प्रोक्त छन्द का अध्ययन करनेवाले 'कालाप' कहाते हैं । उन कालापों का प्राम्नाय 'कालापक' होगा । संख्याप्रकृति ग्रहण करने से १. तदस्य परिमाणम्, संख्याया: संज्ञासंघसूत्राध्ययनेषु । ५।१॥ ५७, ५८॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'कालापक आम्नाय का अध्ययन करने वाले' इस अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का लुक् नहीं होता ।' यह व्याख्या अशुद्ध है । क्योंकि 'चरणाद्धर्माम्नाययोः२ की व्याख्या में समस्त टीकाकार 'अाम्नाय' का अर्थ 'वेद' करते हैं। अतः कालापक आम्नाय सूत्रग्रन्थ नहीं हो सकता। सूत्रत्व अंश के न होने पर वह वार्तिक का प्रत्युदाहरण नहीं बन सकता। 'कालापकाः' के साथ पढ़े हुए ‘माहावातिकः' प्रत्युदाहरण की प्रकृति 'महावातिक' शब्द स्पष्ट सूत्रग्रन्थ का वाचक है। इस विवेचना से स्पष्ट है कि महाभाष्य में निर्दिष्ट 'कलापक' १० शब्द किसी सूत्रग्रन्थ का वाचक है, और वह कातन्त्र व्याकरण ही है। भारतीय गणना के अनुसार महाभाष्यकार पतञ्जलि का काल विक्रम से लगभग २००० वर्ष पूर्व है, हम पूर्व लिख चुके हैं। ५-महाभाष्य और वार्तिकपाठ में प्राचीन प्राचार्यों की अनेक संज्ञाएं उपलब्ध होती हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं १. कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापाः कलापिनोऽण् । नान्तस्य टिलोपे सब्रह्मचारीत्यौपसंख्या निकष्टिलोप: । ततस्तदधीते इत्यण, प्रोक्ताल्लुक । कालापकानामाम्नाय इति गोत्रचरणाद् वुञ् कालापकम् । ततस्तदधीते इत्यण तस्य लुङ् न भवति । पदमञ्जरी ४।२।६।। कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापास्तेषामाम्नायः कालापकम् । भाष्यप्रदीपोद्योत ४ । २। ६५॥ हरदत्त और नागेश की भूल 'कातन्त्रव्याकरण-विमर्श' के 'प्रास्ताविकम' (पृष्ठ 'ई') में वाराणसेय सं० वि० वि० के अनुसन्धान विभाग के अध्यक्ष भगीरथप्रलाद त्रिपाठी ने दोहराई है। २. महाभाष्य ४ । ३ १२० ॥ ३. 'कातन्त्रव्याकरण-विमर्श' के लेखक जानकीप्रसाद द्विवेद ने अपने २५ ग्रन्थ की भूमिका (पृष्ठ ७) में हमारे लेख को नाम निर्देश पुरस्सर आदरणीय माना है। इसी पृष्ठ की टि० १ के अन्त 'कातन्त्रव्याकरण-विमर्श' के प्रास्ताविकम' (पृष्ठ 'इ) में पं० भगीरथप्रसाद त्रिपाठी की जिस भूल का संकेत किया है, उस से विदित होता है कि उन्होंने जिस ग्रन्थ पर 'प्रास्ताविकम्' लिखा, उसे भी भले प्रकार नहीं देखा । विना देखे ही ३० 'प्रास्ताविकम्' लिख दिया। ठीक ही कहा है-गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । ४. देखो-पूर्व पृष्ठ ३६५-३६८ । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पानिणि से अर्वाचीन वैयाकरण प्रद्यतनी - २ । ४ । ३; ३ । २ । १० ; ६ । ४ । ११३ ॥ श्वस्तनी - ३ । ३ । १५ ।। भविष्यन्ती - ३ । २ । १२३ ; ३ | ३ | १५ ।। परोक्ष - १ । २ । २, ८ ; ३ । २ । १५ ।। समानाक्षर - १ । १ । १ : २ । २ । ३४; १ । ३ । ८ । विकरण - अनेक स्थानों में । कारित - निरु० १ । १३ ॥ कातन्त्रव्याकरण में भी इन्हीं संज्ञाओं का व्यवहार उपलब्ध होता परोक्षा ३|१|१३ है । यथा ६१ε श्रद्यतनी - ३ । १ । २२ ॥ श्वस्तनी - ३ । १ । १५ ।। भविष्यन्ती - ३ । १ । १५ ।। विकरण -- ३ | ४ | ३२ ॥ समानाक्षर - १ । १ । ३ ॥ कारित - ३ । २ । ६ ॥ इस प्रकार ह्यस्तनी, वर्तमाना, चेक्रीयित आदि अनेक प्राचीन संज्ञाओं का निर्देश कातन्त्रव्याकरण में उपलब्ध होता है । इससे प्रतीत होता है कि कातन्त्रव्याकरण पर्याप्त प्राचीन है । ६ - महाभाष्य में अनेक स्थानों पर पूर्वसूत्रों का उल्लेख है ।' १५ ६ । १ । १६३ के महाभाष्य में लिखा है (क) अथवाsकारो मत्वर्थीयः । तद्यथा - तुन्दः, घाट इति । पूर्वसूत्रनिर्देशश्च चित्त्वात् चित इति । इस पर कैयट लिखता है - यह 'चितः' निर्देश पूर्वसूत्रों के अनुसार है । पूर्वसूत्रों में जिसको किसी कार्य का विधान किया जाता है, २० उसका प्रथमा से निर्देश करते हैं ।" (ख) पुनः ८ । ४ । ७ पर कैयट लिखता है - पूर्वाचार्य जिसको कार्य करना होता है, उसका षष्ठी से निर्देश नहीं करते । पूर्वसूत्रानुसारी निर्देश पाणिनीय व्याकरण में अन्यत्र भी बहुत उपलब्ध होता है । यथा— नल्लोपोऽनः । ६ । ४ । १३४ में प्रत् का निर्देश । तिविशति । ६ । ४ । १४२ में ति का निर्देश १० १. देखो - पूर्व पृष्ठ २६० - ६१ । २. पूर्वव्याकरणे प्रथमया कार्यो निर्देश्यते । ३. पूर्वाचार्याः कार्यभाजः षष्ठ्या न निरदिक्षन्नित्यर्थः । २५ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पाणिनीय व्याख्याकार इन्हें अविभक्तिक निर्देश मानते हैं । परन्तु ये पूर्वसूत्रानुसार प्रथमान्त हैं। 'ति' निर्देश सामान्ये नपुंसकम् न्यायानुसार नपुंसक का प्रथमैकवचन है । इसी प्रकार उर्यः पाणिनीय सूत्र में ङः रूप भी ङ का प्रथमैकवचन का है । तुलना करो आगे ५ उध्रियमाण डेयः ( २ । १ । २४) कातन्त्रसूत्र के साथ । पतञ्जलि और कैयट ने जिस प्राचीन शैली की ओर संकेत किया है, वह शैली कातन्त्रव्याकरण में पूर्णतया उपलब्ध होती है। उसमें सर्वत्र कार्थी (जिसके स्थान में कार्य करना हो उस) का प्रथमा विभक्ति से ही निर्देश किया है । यथा भिस् ऐस् वा । २।१ । १८ ॥' ङसिरात् । २।१ । २१ ॥ ङस् स्य । २।१।२२ ॥ इन टा।२।१ । २३ ॥ उर्यः। २।१ । २४ ॥ (यहां 'ङ' एकारान्त प्रत्यय है) ङसिः स्मात् । २।१।२६ ॥ डिस्मिन् । २।१।२७ ।। इससे इतना स्पष्ट है कि कातन्त्र की रचनाशैली अत्यन्त प्राचीन १५ है । पाणिनि आदि ने कार्यों का निर्देश षष्ठी विभक्ति से किया है । . ७-हम इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में लिख चुके हैं कि कातन्त्र व्याकरण में 'देवेभिः पितरस्तर्पयामः, अर्वन्तौ अन्तिः, मघवन्तौ मघवन्तः, तथा दोघीङ् वेवीङ् और इन्धी धातु से निष्पन्न प्रयोगों की सिद्धि दर्शाई है। कातन्त्र ब्याकरण विशुद्ध लौकिक भाषा का व्याकरण है और वह भी अत्यन्त संक्षिप्त । अतः इस में इन प्रयोगों का विधान करना बहुत महत्त्व रखता है। महाभाष्य के अनुसार 'प्रर्वन्' 'मघवन्' प्रातिपदिक तथा दीघोङ बेवीङ और इन्धी धातु छान्दस हैं। पाणिनि इन्हें छान्दस नहीं मानता। इससे स्पष्ट है कि कातन्त्र व्याकरण की रचना उस समय हुई है जब उपर्युक्त शब्द लौकिकभाषा में प्रयुक्त होते थे। वह काल महाभाष्य से पर्याप्त प्राचीन रहा होगा। यदि कातन्त्र की रचना महाभाष्य के अनन्तर होती, तो महाभाष्य में जिन प्रातिपदिकों और धातुओं को छान्दस माना है, २५ १. इस सूत्र पर विशेष विचार पूर्व पृष्ठ ३७, ३८ पर देखो। २. देखो-पूर्व पृष्ठ ३८.४१ । ३. महाभाष्य ६।४११२७, १२८; १११।६; ११२॥६॥ ३० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६२१ उनका उल्लेख कभी न होता। इससे स्पष्ट है कि कातन्त्र महाभाष्य से प्राचीन है। ___ यदि कातन्त्र व्याकरण का वर्तमान स्वरूप इतना प्राचीन न भी होग, तब भी यह अवश्य मानना होगा कि कातन्त्र का मूल अवश्य प्राचीनतम है। कातन्त्र व्याकरण के दो पाठ-वृद्ध लघु कातन्त्र व्याकरण काशकृत्स्न व्याकरण का संक्षेप है । यह हम पूर्व (पृष्ठ ६१५) लिख चुके हैं । सम्प्रति कातन्त्र व्याकरण का जो पाठ उपलब्ध होता है वह सम्भवतः प्राचीन कातन्त्र व्याकरण का शर्ववर्मा कृत संक्षिप्त लघुरूप है । इस सम्भावना में निम्न हेतु हैं- १० १. धातुपाठ के वृद्ध-लघु पाठ-कातन्त्र व्याकरण के धातुपाठ के जो दो हस्तलेख हमारे पास हैं, उन के अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह काशकृत्स्नीय धातुपाठ का संक्षेप है । वह धातुपाठ हमारे पास श्री पं० रामअवध पाण्डेय द्वारा प्रेषित धातुपाठ की अपेक्षा पर्याप्त भिन्नता रखता है । दोनों पाठों की तुलना से विदित होता है १५ कि हमारे पास पूर्वत: विद्यमान हस्तलेखों का पाठ वृद्धपाठ है और पं० रामप्रवध पाण्डेय द्वारा प्रेषित पाठ लघपाठ है। विशेष द्रष्टव्य 'धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (३)' नामक २२ वां अध्याय । . २-वृद्धकातन्त्र-त्रिलोचनदास ने दुर्गवृत्ति पर पजी अथवा पञ्जिका नाम्नी व्याख्या लिखी है। ३।३।२२ सूत्र की पञ्जिका २० गाख्या में वृद्धकातन्त्राः नाम से प्राचीन वृद्धकातन्त्र के अध्येताओं को स्मरण किया है।' __ इस प्रकार कातन्त्रीय धातुपाठ के वृद्ध और लघु दो प्रकार के पाठ उपलब्ध होने से तथा पञ्जिका व्याख्या में स्पष्टतया वृद्धकातन्त्राः का निर्देश होने से स्पष्ट है कि कातन्त्र व्याकरण के २५ वृद्ध और लघु दो पाठ अवश्य थे । वृद्धपाठ के प्रवक्ता का नाम अज्ञात है। लघुकातन्त्र का प्रवक्ता कातन्त्र-व्याकरणोत्पत्तिप्रस्ताव-डा. वेलवाल्कर महोदय ने १. द्र०—कातन्त्रव्याकरण-विमर्श, पृष्ठ २७६ । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عر ६२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'वनमाली' नाम के किसी पण्डित द्वारा विरचित 'कातन्त्रव्याकरणो. त्पत्तिप्रस्ताव' नाम का एक ग्रन्थ उद्धृत किया है।' तदनुसार राजा सातवाहन को शीघ्र व्याकरण का ज्ञान कराने के लिये शर्ववर्मा ने शिव की आराधना की। शिवजी ने शर्ववर्मा के मनोरथ की पूर्ति के लिये कुमार कात्तिकेय को आदेश दिया । कात्तिकेय ने अपने व्याकरण सूत्र शर्ववर्मा को दिये ।। ___ कथासरित्सागर और कातन्त्रवृत्तिटीका आदि के अनुसार कातन्त्रव्याकरण के पाख्यातान्त भाग का कर्ता शर्यवर्मा है। मुसल मान यात्री अल्बेरूनी ने भी कातन्त्र को शर्ववर्मा विरचित लिखा है, १० और कथासरित्सागर में निर्दिष्ट 'मोदकं देहि' कथा का निर्देश किया है। पं० गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' में शर्ववर्मा को कातन्त्र को विस्तृत वृत्ति का रचयिता लिखा है। जरनल गङ्गानाथ झा रिसर्च इंस्टीटयू ट भाग १, अङ्ग ४ में तिब्बतीय ग्रन्थों के आधार पर एक लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें १५ लिखा है। ___ "सातवाहन के चाचा भासवर्मा ने 'शङ कु' से संक्षिप्त किया ऐन्द्र व्याकरण प्राप्त किया, जिसका प्रथम सूत्र 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' था, और वह १५ पादों में था। इसका वररुचि सस्तवर्मा ने संक्षेप किया, और इसका नाम कलापसूत्र हुा । क्योंकि जिन अनेक स्रोतों २० से इसका संकलन हुआ था, वे मोर की पूछ के सदृश पृथक्-पृथक् थे। इसमें २५ अध्याय और ४०० श्लोक थे।" १. सिस्टम्स् प्राफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ८२, टि० २। २. वही, पृष्ठ ८२, पैराग्राफ ६४। ३. लम्बक १, तरङ्ग ६, ७ । ४. तत्र भगवत्कुमारप्रणीतसूत्रानन्तरं तदाज्ञयैत्र श्रीशर्ववर्मणा प्रणीतं सूत्र कथमनर्थकं भवति । परिशिष्ट, पृष्ठ ४६६ ।। ५. अल्वेरूनी का भारत, भाग २, पृष्ठ ४१। ६. द्र०-पृष्ठ ४३७ । ७, कातन्त्र के प्राख्यातान्त भाग में १६ पाद है । क्या प्राख्यातप्रकरण के चार पाद प्रक्षिप्त हैं ? सम्भव है १९ के स्थान में १५ संख्या प्रमादजन्य हो। ८. यहां अध्याय से पादों का अभिप्राय है । कृदन्त भाग मिलाकर सम्पूर्ण ग्रन्थ में २५ पाद हैं । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६२३ इस लेख के लेखक ने टिप्पणी में लिखा है-तिब्बतीय भाषा में शर्वसर्व सप्त सस्त इस प्रकार सर्व का सस्त रूपान्तर बन सकता है। ___ हमारा विचार है कि वर्तमान कातन्त्रव्याकरण शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त किया हुआ है। इस संक्षिप्त संस्करण का काल भी विक्रम से ५ न्यूनातिन्यून ४००-५०० वर्ष प्राचीन है । इसका मूलग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन है, यह हम पूर्व प्रतिपादन कर चुके हैं। कृपकरण का प्रवक्ता-कात्यायन कातन्त्र का वृत्तिकार दुर्गसिंह कृत्प्रकरण के प्रारम्भ में लिखता वृक्षादिवदमी रूढा न कृतिना कृता कृतः । कात्यायनेन ते सृष्टा विबुधप्रतिपत्तये ॥ अर्थात् कातन्त्र का कृत्प्रकरण कात्यायन ने बनाया है। कात्यायन नामक अनेक प्राचार्य हो चुके हैं। कृत्प्रकरणरूप भाग किस कात्यायन ने बनाया, यह दुर्गसिंह के लेख से स्पष्ट नहीं होता। १५ सम्भव है कि महाराज विक्रम के पुरोहित कात्यायन गोत्रज वररुचि ने कृत्प्रकरण की रचना की हो। ___ कृत्प्रकरण का कर्ता शाकटायन-डा. वेल्वाल्कर ने जोगराज प्रणीत ‘पादप्रकरणसंगति' नाम के ग्रन्थ का उल्लेख किया है। उसमें कृत्प्रकरण का कर्ता शाकटायन को माना है।' उस का पाठ इस २० प्रकार है कृतस्तव्यादयः सोपपदानुपपदाश्च ये। लिङ्गप्रकृतिसिध्यर्थं ताजगौ शाकटायनः।' ‘कृत्प्रकरण का लेखक वररुचि कात्यायन है अथवा शाकटायन, इस विषय में कातन्त्र के प्राचीन वृत्तिकार दुर्ग के वचन को हम २५ प्रामाणिक मानते हैं। कीथ की भूल-कीथ अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में १. सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ८४, पैरा ६५,तथा अगले पृष्ठ की टि०१॥ २. कातन्त्र व्याकरणविमर्श, पृष्ठ ३७ । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास लिखता है-'मूल में उसमें चार अध्याय थे।" दुर्गसिंह के पूर्व श्लोक से स्पष्ट है कि कातन्त्र का चौया अध्याय कात्यायनकृत हैं । अतः मूल ग्रन्थ में तीन ही अध्याय थे। कीथ का मूल में चार अध्याय लिखना चिन्त्य है। कातन्त्रपरिशिष्ट का कर्ता-श्रीपतिदत्त प्राचार्य कात्यायन द्वारा कृत्प्रकरण का समावेश हो जाने पर भी कातन्त्र व्याकरण में अनेक न्यूनताएं रह गईं। उन्हें दूर करने के लिये श्रीपतिदत्त ने कातन्त्र-परिशिष्ट की रचना की । श्रीपतिदत्त का काल अज्ञात है, परन्तु वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है, १० इतना स्पष्ट है। परिशिष्ट-वृत्ति-श्रीपतिदत्त ने स्वविरचित कातन्त्र-परिशिष्ट पर वृत्ति भी लिखी है । कातन्त्रोत्तर का कर्ता-विजयानन्द (१२०७ वि० पूर्व) कातन्त्र व्याकरण की महत्ता बढ़ाने के लिये विजयानन्द ने १५ 'कातन्त्रोत्तर' नामक ग्रन्थ लिखा । इसका दूसरा नाम विद्यानन्द है।' पट्टन के जैनग्रन्थागारों के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र पृष्ठ २६१ पर 'कातन्त्रोत्तर' ग्रन्थ का निर्देश है । इस हस्तलेख के अन्त में निम्न पाठ है-- ___ 'दिनकर-शतपतिसंख्येऽष्टाधिकान्दमुक्ते श्रीमद्गोविन्दचन्द्र२० देवराज्ये जाह्नव्या दक्षिणकूले श्रीमद्विजयचन्द्रदेववडहरदेशभुज्यमाने श्रीनामदेवदत्तजह्मपुरोदिग्विभागे पुरराहूपुरस्थिते पौषमासे षष्ठयां तिथौ शौरिदिने वणिक्जल्हणेनात्मजस्यार्थे तद्धितविजयानन्दं लिखित. मिति । यादृशं दृष्टं तथा लिखितम्' । इससे इतना स्पष्ट है कि यह प्रति सं० १२०८ में लिखी गई २५ थी। अतः विजयानन्द विक्रम सं० १२०० से पूर्ववर्ती है। १. हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ ५११ ॥ २. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं. ६६ । ३. जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह में भी 'पाटण खेतरवसहीपाठकावस्थित' भाण्डागार के सं० १२०८ के लिखे कातन्त्रोत्तर के हस्तलेख का निर्देश है। ३० द्र० पृष्ठ १०६ । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६२५ कातन्त्रोत्तर-परिशिष्ट का कर्ता-त्रिलोचन कविचन्द्र विजयानन्दकृत कातन्त्रोत्तर की पूर्ति के लिये त्रिलोचन कविचन्द्र ने कातन्त्रोत्तर का परिशिष्ट लिखा । इस के पुत्र कवि कण्ठाहार ने परिभाषा टीका और चर्करीत रहस्य लिखा था । चर्करोत रहस्य की दूसरी कारिका में उसने लिखा है गुरुणा चोत्तरपरिशिष्टं यदभिहितमविरुद्धम् । यहां गुरु शब्द से स्वीय जनक कविचन्द्र का निर्देश किया है। . कातन्त्र प्रकीर्ण-विद्यानन्द कातन्त्रीय परिभाषा पाठ के वृत्तिकार भावमित्र ने ग्रन्य के प्रारम्भ में प्रकीणकर्ता विद्यानन्द को स्मरण किया है। इस पर १० कातन्त्रव्याकरणविमर्श के लेखक जानकीप्रसाद द्विवेद ने लिखा है'यह विद्यानन्द कौन है, किविषयक प्रकोर्णनाम का ग्रन्थ है यह तत्त्वतः ज्ञात नहीं होता। कातन्त्रोत्तर नाम का अन्य विद्यानन्द ने लिखा (विजयानन्द का नामान्तर विद्यानन्द भी था) और प्रकीर्ण शब्द से कातन्त्रोत्तर को स्मरण किया हो तो यह विद्यानन्द प्रणीत १५ कातन्त्रोत्तर ग्रन्थ है क्योंकि कातन्त्रोतर परिशिष्ट रूप है।" कातन्त्रछन्दःप्रक्रिया-श्रीचन्द्रकान्त श्रीचन्द्रकान्त तर्कालंकार ने कातन्त्र की पूर्ति के लिये कातन्त्रछन्दःप्रक्रिया का संकलन किया। इस के सूत्रों पर उस की वृत्ति भी उपलब्ध होती है। २० कातन्त्र व्याकरण के अनुयायियों में कातन्त्र के अधूरेपन को दूर करने के लिये कितना प्रयत्न किया, यह उक्त प्रकरण से स्पष्ट विदित हो जाता है, परन्तु इस प्रयत्न से कातन्त्र व्याकरण का मूल उद्देश्य ही लुप्त हो गया। कातन्ज्ञ का संस्कार २५ कातन्त्र व्याकरण का जो पाठ सम्प्रति उपलब्ध है उस का संस्कार वा परिष्कार दुर्गसिंह ने किया है। ऐसा पं० जानकीप्रसाद १. कातन्न व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ४४-४५ । २. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ १६६-१६७ । Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास द्विवेद का मत है। इस में उन्होंने माधवीय धातुवृत्ति, क्षीरतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों में कातन्त्र के मतों का 'दुर्ग' वा 'दौर्ग' पद से निर्देश को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है । तथा इस में पञ्जिकाकार का मत भी उद्धत किया है । कातन्त्र २।४।२७ का सूत्र है-तादर्थ्ये । इस ५ पर पञ्जिकाकार लिखता है कथमिदमुच्यते, न खल्वेतच्छर्ववर्मकृतसूत्रम् । अत्र तु वृत्तिकृता मतान्तरमादर्शितम् । इह हि प्रस्तावे चन्द्रगोमिना प्रणीतमिदम् । (पञ्जिका २।४।२७) । भारतीय वाङमय में बहत से ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका उत्तर काल में संस्कार वा परिष्कार किया गया है। इस दृष्टि से यदि कातन्त्र व्याकरण का भी दुर्गसिंह ने परिष्कार किया हो तो यह सम्भव है। तथापि कातन्त्र व्याकरण का भी दुर्ग वा दौर्ग नाम से उद्धृत होने मात्र से दुर्ग द्वारा संस्कार की सम्भावना प्रकट करना हमारे विचार में विचारार्ह है। क्योंकि बहुत्र यह देखने में आता है कि उत्तर काल १५ के लेखक मूलग्रन्थ के मतों का टीकाकार के नाम से उद्धृत करते हैं। पञ्जिका के प्रमाण से भी इतना ही विदित होता है कि दुर्गसिंह ने तादर्थ्य चान्द्रसूत्र मतान्तर निदर्शनार्थ उद्धत किया था। सम्भव है दुर्ग द्वारा उसकी व्याख्या करने के कारण उत्तरवर्ती लेखकों ने,उसे मूल ग्रन्थ का सूत्र समझ कर मूल ग्रन्थ में सन्निविष्ट कर दिया हो । २० अतः यह उद्धरण भी दुर्ग द्वारा मूलग्रन्थ के संस्कार करने के प्रमाण के लिये महत्त्वपूर्ण नहीं है। भावी लेखकों पर इस विषय में गम्भीरता से विचार करना चाहिये। कातन्त्र व्याकरण से सम्बद्ध वर्णसमाम्नाय यद्यपि मूल कातन्त्र व्याकरण में साक्षात् वर्णसमाम्नाय का निर्देश २५ नहीं मिलता है, तथापि उस के कतिपय व्याख्याकारों के अनुसार कोई वर्णसमाम्नाय प्राश्रित किया गया था । कातन्त्र व्याकरणविमर्श के लेखक ने इस विषय के तीन प्रमाण प्रस्तुत किये हैं १. वर्णसमाम्नाये कादिष्वकार उच्चारणार्थः । का० वृत्ति टोका १॥१६॥ ३० २. ननु वर्णसमाम्नायस्य क्रमसिद्धत्वात् सन्ध्यक्षरसंज्ञाऽनन्तर १. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ६ । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६२७ मेवानुस्वारविसर्जनीययोः संज्ञानिर्देशो युज्यते । तत्कथं व्यतिक्रमनिर्देशः । सत्यमनयोर प्रधानत्वात् पश्चात् निर्देशः । पञ्जिका १।१।१६ ।। ३. ननु हकारपर्यन्तमिति कथमुक्तं क्षकारस्यापि विद्यमानत्वात् । नैवं क्षकारस्योक्तवर्णेष्वेवान्तर्भावात् । कथं तर्हि वर्णसमाम्नाये तदु- ५ देश इति चेत् ? कादीनां संयोगसूचनार्थमिति न दोषः । कलाप चन्द्र कविराज सुषेण १|१| | इन उद्धरणों का निर्देश करके कातन्त्रव्याकरणविमर्श के लेखक ने लिखा है - 'वर्णसमाम्नाय का पाठ न होने पर भी कोई वर्ण समाम्नाय निश्चय ही यहां प्राचार्य ने स्वीकार किया है।' लेखक की भ्रान्ति - हमारे विचार से इन उद्धरणों से किसी विशिष्ट वर्ण समाम्नाय के श्राश्रयण की सिद्धि नहीं होती है। इनमें जिस वर्णसमाम्नाय का निर्देश है वह लोक प्रसिद्ध वर्णसमाम्नाय ही है । उसी में सन्ध्यक्षरों के पश्चात् श्रं श्रः के रूप में अनुस्वार विसर्जनीय का निर्देश अद्ययावत् मिलता है । इसी प्रकार हकार पश्चात् क्ष त्र ज्ञ का उल्लेख लौकिक वर्ण समाम्नाय में किया जाता है । कातन्त्र के प्रथम सूत्र सिद्धो वर्णसमाम्नाय से सूचित होता है कि यहां लोक सिद्ध ही वर्ण समाम्नाय स्वीकार किया गया है। प्रत्याहार-सूत्र ? के १० १५ लखनऊ नगरस्थ 'अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् के संग्रह में २० गोल्हण विरचित दुर्गसिंहीय कातन्त्र टीका पर 'चतुष्क टिप्पणिका' नाम से एक हस्तलेख विद्यमान है । यह हस्तलेख वि० सं० १४३६ का है । इस ग्रन्थ के अन्त में प्रत्याहार बोधक सूत्र तथा प्रत्याहार सूत्र पठित हैं | पाठ इस प्रकार है 1 श्रादिरन्त्येन सहेता । श्रादि वर्णेन श्रन्तेन इता अनुबन्धेन सहितः २५ मध्यपतितानां वर्णानां ग्राहको भवति । तपरस्तत्कालस्य प्रणुदितः सवर्णस्य वा प्रत्ययः । न इ उ ण् । ऋ लृ क् । ए श्रो ण् । ऐ श्रौ ड् । ल ण् । ङ ञणनम् । फन ज् । घ ढ ध ष् । ज ग प ड द श । ख फ ब ढ थ च ट त व् । क प य् । श ष स र् । हल् । इति प्रक्केडमात्रन सम्यक । PATAB ३० १. तेन पाठाभावेऽपि कश्चिद् वर्णसमाम्नायो नूनमाचार्येणाङ्गीकृत इत्यवगन्तव्यम् । कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ 8 । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० यह लेख पर्याप्त अशुद्ध है । इन प्रत्याहार सूत्रों का गोल्हण कृत चतुष्क टिप्पणिका के अन्त में निर्देश का क्या प्रयोजन है, यह हमारो समझ में नहीं आया। इसी प्रकार इन प्रत्याहार सूत्रों का किस व्या करण के साथ सम्बन्ध है, यह कहना भी कठिन है। कातन्त्र पर ५ शोध करने वाले भावी विद्वानों को इस पर विचार करना चाहिये। कातन्त्र का प्रचार कातन्त्र व्याकरण का प्रचार सम्प्रति बंगाल तक ही सीमित है । परन्तु किसी समय इसका प्रचार न केवल सम्पूर्ण भारतवष में, अपितु उससे बाहर भी था। मारवाड़ की देशी पाठशालाओं में अभी तक जो 'सीधी पाटी' पढ़ायी जाती है, वह कातन्त्र के प्रारम्भिक भाग का विकृत रूप है, यह हम पूर्व लिख चके हैं। शूद्रक-विरचित पद्मप्राभतक भाण से प्रतीत होता है कि उसके काल में कातन्त्रानुयायियों की पाणिनीयों से महती स्पर्धा थी।' ___ कीथ अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखता है-कातन्त्र १५ के कुछ भाग मध्य एशिया की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इस पर मूसियोन जरनल में एल. फिनोत ने एक लेख लिखा था। देखोउक्त जरनल सन् १९११, पृष्ठ १९२। ___ कातन्त्र के ये भाग एशिया तक निश्चय ही बौद्ध भिक्षुत्रों के द्वारा पहुंचे होंगे। कातन्त्र का धातुपाठ अभी तक उपलब्ध है। इसके २० हस्तलेख की दो प्रतियां हमारे पास हैं ।। कातन्त्र के वृत्तिकार सम्प्रति कातन्त्र व्याकरण की सब से प्राचीन वृत्ति दुर्गसिंहविरचित उपलब्ध होती है । उसमें केचित् अपरे अन्ये आदि शब्दों द्वारा अनेक प्राचीन वृत्तिकारों के मत उद्धृत हैं । अतः यह निस्स२५ न्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि दुर्गसिंह से पूर्व कातन्त्र व्याकरण के अनेक वृत्तिकार हो चुके थे, जिनका हमें कुछ भी ज्ञान नहीं है । १. देखो-पूर्व पृष्ठ ६१६ टि० ३ । २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ४३१ । ३. जर्मन की छपी क्षीरतरङ्गिणी के अन्त में शर्ववर्मा का धातुपाठ भी ३० छपा है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६२६ १-शर्ववर्मा श्री पं० गुरुपदं हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' के पृष्ठ ४३७ पर शर्ववर्मा को कातन्त्र की 'बृहद्वत्ति' का रचयिता लिखा है।' परन्तु इसके लिये उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया । सातवाहन को कातन्त्र सूत्र पढ़ाते समय उसकी वृत्ति वा व्याख्यान अवश्य ५ किया होगा। अतः शर्ववर्मा कृत वृत्ति का सद्भाव स्वयं सिद्ध है। २-वररुचि पं० गुरुपद हालदार ने अपने ग्रन्थ के पृष्ठ ३६४ और ५७६ पर वररुचि-विरचित कातन्त्रवत्ति का उल्लेख किया है । पृष्ठ ५७६ पर वररुचिकृत वत्ति का नाम चैत्रकूटी लिखा है। परन्तु कातन्त्र व्या- १० ख्यासार के लेखक हरिराम ने वररुचि विरचित वृत्ति का नाम 'दुर्घट वृत्ति' लिखा है । उसके मतानुसार दुर्गसिंह कृत कातन्त्र वृत्ति प्रारम्भ में पठित देवदेवं प्रणम्यादौ मङ्गला चरण का श्लोक भी वररुचिकृत है । वह लिखता है। ____ अथ चकारेतिकथमुच्यते ? लिलेख इति वक्तुं युज्यते । यावता १५ 'देवदेवम्' इत्यादि श्लोको वररुचिकृतदुर्घटवृत्तेरादौ दृश्यते"..। कातन्त्र व्याकरण विमर्श के लेखक पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने ये कविराज सुषेण कृत कलापचन्द्र ग्रन्थ से वाररुचवृत्ति तथा वररुचि के निम्न उद्धरण दिये हैं- १. नाग्रहणं योगविभागार्थ तेन किं स्यादित्याह-तस्मिन्नित्यादि २० वररुचिवृत्तिः । (कवि० ३।२।३८)। . २. विन्दुमात्र इति-स चार्धचन्द्राकृतिस्तिलकाकृतिश्चेति वररुचिः । ३, अर्थः पदमैन्द्राः, विभक्त्यन्तं पदमाहुरापिशलीयाः सुप्तिङन्तं पदमिति पाणिनीयाः । इहार्थोपलब्धौ पदमिति वररुचिः । . २५ ४. वाशब्दश्चापिशब्दैर्वा शब्दानां (सूत्राणां) चालमैस्तथा । . __एभिर्येऽत्र न सिद्ध्यन्ति ते साध्या लोकसम्मता: । इति . वररुचिः । १. जिनि कातन्त्रेर विस्तर वत्ति लिखिया छन तिनि सर्ववर्मार नाम करेन ना केन । ___२. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ७, टि० १ ॥ ३० Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास . १० ५. वररुचिस्तु चकारात् क्वचिदघोषेऽप्युत्वं भवति । यथा वातोऽपि तापपरितो सिञ्चति । 'द्र० १।१।६, २०, २३; ५।८ इत्यादि ।' इसी प्रकार वररुचिवृत्ति तथा वररुचि के नाम पुरस्सर मत दुर्गटीका, पञ्जिका, व्याख्यासार, कलापचन्द्र, बिल्वेश्वर टीका दुर्गवृत्ति टिप्पणी आदि में मिलते हैं । __ अहमदाबाद के 'लालभाई दलपति भाई संस्कृति विद्यामन्दिर' में वररुचिकृत कृदन्त भाग की वृत्ति का एक हस्तलेख है । उस के पञ्चम और षष्ठ पाद के अन्त में निम्न पाठ है पण्डित वररुचिविरचितायां कृद् वृत्तौ पञ्चमः पादः समाप्तः । पण्डित वररुचिविरचितायां कृवृत्तौ षष्ठः पादः समाप्तः । कातन्त्र व्याकरण विमर्श के कर्ता ने इस वृत्ति को अन्य वररुचि कृत माना है । ३-शशिदेव शशिदेव कृत 'शशिदेव वृत्ति' का उल्लेख अल्बेरूनी ने अपनी १५ भारतयात्रा विवरण में किया है । यह वृत्ति अनुपलब्ध हैं और अन्यत्र भी इस का उल्लेख नहीं मिलता है । ४-दुर्गसिंह __प्राचार्य दुर्गसिंह वा दुर्गसिंह्म विरचित कातन्त्रवृत्ति सम्प्रति उपलब्ध है । यह उपलब्ध वृत्तियों में सब से प्राचीन है। दुर्गसिंह ने अपने ग्रन्थ में अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया । अतः दुर्गसिंह का इतिवृत्त सर्वथा अज्ञात है। दुर्ग के अनेक नाम-दुर्गसिंह ने लिङ्गानुशासन की वृत्ति में अपने-अनेक नामों का उल्लेख किया है । यथा १. का० व्या० विमर्श, पृष्ठ ७ । २. का० व्या० विमर्श, परिशिष्ट २, पृष्ठ २७५ पर 'वररुचि' शब्द । ३. का. व्या० विमर्श, पृष्ठ ८ । ४. अल्बेरूनी का भारत, भाग २, पृष्ठ ४० । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण दुर्गासोऽथ दुर्गात्मा दुर्गा दुर्गप इत्यपि । यस्य नामानि तेनैव लिङ्गवृत्तिरियं कृता दुर्गसिंह का काल दुर्गसिंह के काल पर साक्षात् प्रकाश डालनेवाली कुछ भी सामग्री उपलब्ध नहीं होती । श्रतः काशकुशावलम्ब न्याय से दुर्गसिंह के काल निर्धारण का प्रयत्न करते हैं ६३१ १ - कातन्त्र के 'इन् यजादेरुभयम्' ( ३ । ५ । ४५) सूत्र की वृत्ति में दुर्गसिंह ने निम्न पद्यांश उद्धृत किये हैं 'तव दर्शनं किन्न धत्ते । कमलवनोद्घाटनं कुर्वते ये । तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।' इनके विषय में टीकाकार लिखता है 'महाकविनिबन्धाश्च प्रयोगा दृश्यन्ते । यदाह भारविः तव दर्शनं किन्न धत्त इति .... तथा मयूरोऽपि - कमलवनोद्घाटनं कुर्वते ये [ सूर्यशतक २] इति । तथा च किरातकाव्ये- तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यश: ( १ । ८ ) इति ।' इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि दुर्गसिंह भारवि और मयूर से उत्तरवर्ती है । זי १. कातन्त्र परिशिष्ट पृष्ठ ५२२ । ३. देखो पूर्व पृष्ठ ४९१ । १० हम पूर्व लिख चुके हैं कि कोंकण के महाराज दुर्विनीत ने भारविविरचित किरात के १५ वें सर्ग पर टीका लिखी थी। दुर्विनीत का राज्यकाल वि० सं० ५३६ - ५६६ तक माना जाता है । अतः २० भारवि का काल विक्रम की षष्ठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध है | महाकवि मयूर महाराज हर्षवर्धन का सभा पण्डित था । हर्षवर्धन का राज्यकाल सं० ६६३-७०५ तक है। यह दुर्गसिंह की पूर्वसीमा है । 50. २ – काशिकावृत्ति ७ । ४ । ε३ में लिखा है १५ 'अत्र केचिद् शब्दं लघुमाश्रित्य सन्वद्भावमिच्छन्ति । सर्वत्रैव २५ घोरानन्तर्यमभ्यासेन नास्तीति कृत्वा व्यवधानेऽपि वचनप्रमाण्याद् भवितव्यम् । तदसत् 1 '' २. देखो - पूर्व पृष्ठ ४६८ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ इस पाठ में वामन ने किसी ग्रन्थकार के मत का खण्डन किया है। कातन्त्र ३ । ३ । ३५ की दुर्गवृत्ति के 'कयमजोजागरत् ? अनेक. वर्णव्यवधानेऽपि लवुनि स्यादेवेति मतम्' पाठ के साथ काशिका के पूर्वोक्त पाठ को तुलना करने से विदित होता है कि वामन यहां दुर्ग ५ के मत का प्रत्याख्यान कर रहा है। धातुवृत्तिकार सायण के मत में भी काशिकाकार ने यहां दुर्गवति का खण्डन किया है।' काशिका का वर्तमान स्वरूप सं०७०० से पूर्ववर्ती है, यह हम काशिका के प्रकरण में लिख चके हैं । अतः यह दुर्गसिंह की उत्तर सोमा है । __ ५० गुरुपद हालदार ने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' में लिखा है १० कि दुगसिंह काशिका के पाठ उद्धृत करता है। हमने दुर्ग कातन्त्र वृत्ति की काशिका के साथ विशेष रूप से तुलना की, परन्तु हमें एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिला, जिससे यह सिद्ध हो सके कि दुर्ग काशिका को उद्धृत करता है। दोनों वृत्तियों के अनेक पाठ समान हैं, परन्तु उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि कौन किसको उदधत करता १५ है। ऐसी अवस्था में काशिका के पूर्व उद्धरण और सायण के साक्ष्य से यही मानना अधिक उचित है कि दुर्गसिंह की कातन्त्रवृत्ति काशिका से पूर्ववर्ती है । ___ दुर्गसिंहविरचित वृत्ति का उल्लेख प्रबन्धकोश पृष्ठ ११२ पर मिलता है। अनेक दुर्गसिंह संस्कृत वाङमय में दुर्ग अथवा दुर्गसिंह-विरचित अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । उनमें तीन ग्रन्थ प्रधान हैं-निरुक्तवृत्ति, कातन्त्रवृत्ति, और कातन्त्रवृत्ति-टीका। कातन्त्रवृत्ति और उसकी टीका का रच यिता दोनों भिन्न-भिन्न ग्रन्थकार हैं। पं० गुरुपद हालदार ने कातन्त्र२५ वृत्ति-टीकाकार का नाम दुर्गगुप्तसिंह लिखा है। उन्होंने तोन दुर्गसिंह १. यत्त कातन्त्र मतान्तरेणोक्तम-इत्यवदीर्घत्वयोः अजीजागरत इति भवतीति तदप्येवं प्रत्युक्तम् वृत्तिकारात्रेयवर्धमानादिमिरप्येतद् दूषितम् । पृष्ठ २६५। २. सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्व दुर्गसिंहेन धीमता । विसूत्रे तु कृता तेषां वास्तु ३० पालेन मन्त्रिणा ॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६३३ माने हैं । हमारा विचार है कि कातन्त्रवृत्तिकार और निरुक्तवृत्तिकार दोनों एक हैं। इसमें निम्न हेतु हैं - १. दुर्गाचार्य विरचित निरुक्तवृत्ति के अनेक हस्तलेखों के अन्त ... में दुर्गसिंह अथवा दुर्गसिंह्म नाम उपलब्ध होता है।' २. दोनों ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ को वृत्ति कहते हैं । इससे इन ५ दोनों के एक होने की संभावना होती है। ३. दोनों ग्रन्थों के रचयिताओं के लिये 'भगवत्' शब्द का व्यवः हार मिलता है। ४. दोनों ग्रन्थकारों की एकता का उपोद्वलक निम्न प्रमाण उपलब्ध होता है निरुक्त १ । १३ की वृत्ति में दुर्गाचार्य लिखता है 'पाणिनीया भूइति प्रकृतिमुपादाय लडित्येतं प्रत्ययमुपाददते ततः कृतानुबन्धलोपस्यानच्कस्य लस्य स्थाने तिबादीनादिशन्ति ।......... अपरे पुनर्वैयाकरणा लटमकृत्वैव तिबादीनेवोपावदते । तेषामपि हि . शब्दानुविधाने सा तन्त्रशैली'। . इस उद्धरण में पाणिनीय प्रक्रिया की प्रतिद्वन्द्वता में जिस प्रक्रिया का उल्लेख किया है, वह कातन्त्रव्याकरणानुसारिणी है। कातन्त्र में धातु से लट आदि प्रत्ययों का विधान न करके सीधे 'तिप' आदि प्रत्ययों का विधान किया है। उससे स्पष्ट है कि निरुक्तवृत्तिकार कातन्त्रव्याकरण से भले प्रकार परिचित था। ५. कातन्त्रवृत्तिकार दुर्गसिंह का काल सं० ६००-६८० के मध्य में है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । हरिस्वामी ने सं० ६९५ में शतपथ . २० १. डा० लक्ष्मणस्वरूप सम्पादित मूल निरुक्त की भूमिका पृष्ठ ३० । २. निरुक्तवृत्तिकार-तस्य पूर्वटीकाकारैर्बर्बरस्वामिभगवदुर्गप्रमतिभिः - निरुक्त स्कन्द टीका भाग १, पृष्ठ ४ ।...."प्राचार्यभगवद. २५ दुर्गस्य कृतौ .... (प्रत्येक अध्याय के अन्त में) । कातन्त्रवृत्तिकार-भगवान वृत्तिकारः श्लोकमेवं कृतवान् देवदेवमित्यादि । कातन्त्रवृत्तिटीका, परिशिष्ट पृष्ठ ४६५ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के प्रथमकाण्ड का भाष्य लिखा।' उसके गुरु स्कन्दस्वामी ने अपनी निरुक्तटीका में दुर्गाचार्य का उल्लेख किया हैं । अतः निरुक्तवृत्तिकार दुर्ग का काल भी सं० ६००-६८० के मध्य सिद्ध होता है । ___ यदि शतपथ भाष्यकार हरिस्वामी विक्रम का समकालिक होवे ५ (हमारा यही मन्तव्य है) तो कातन्त्रवृत्तिकार दुर्ग निरुक्तवृत्तिकार से से भिन्न होगा। यदि हमारा उपर्युक्त लेख सत्य हो तो कातन्त्रवृत्तिकार के विषय में अधिक प्रकाश पड़ सकता है । दुर्गवृत्ति के टीकाकार १० दुर्गवृत्ति पर अनेक विद्वानों ने टीकाएं लिखी हैं। उनमें से निम्न टीकाकार मुख्य हैं १-दुर्गसिंह (९ वीं शताब्दी वि. ?) कातन्त्रवृत्ति पर दुर्गसिंह ने एक टीका लिखी है। पं० गुरुपद हालदार ने टीकाकार का नाम दुर्गगुप्तसिंह लिखा है। टीकाकार १५ ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखता है 'भगवान् वृत्तिकारः श्लोकमेवं कृतवान् देवदेवमित्यादि । इससे स्पष्ट है कि टीकाकार दुर्गसिंह वृत्तिकार दुर्गसिंह से भिन्न व्यक्ति है। अन्यथा वह अपने लिये परोक्षनिर्देश करता हुआ भी 'भगवान' शब्द का व्यवहार न करता। कीथ ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखा है-दुर्गसिंह ने अपनी वत्ति पर स्वयं टीका लिखी। यही बात एस. पी. भट्टाचार्य ने आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस वाराणसी (१९४३-४४) में अपने भागवत्तिविषयक लेख में लिखी है । वस्तुतः दोनों लेख अयुक्त हैं। सम्भव है कि कीथ को दोनों के नामसादृश्य से भ्रम हुआ हो, २५ और एस. पी. भट्टाचार्य ने कीथ का ही मत उद्धृत कर दिया हो । कीथ का अनुकरण करते हुए एस० पी० भट्टाचार्य ने भी वृत्ति१. देखो-पूर्व पृष्ठ ३८८ । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ६३३ की टि० २ । ३. यह टीका बंगला अक्षरों में सम्पूर्ण छप चुकी है। ४. द्र०—पृष्ठ ४३१ (हिन्दी अनुवाद ५११)। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६३५ कार दुर्ग और टीकाकार दुर्ग को एक माना है।' दुर्गसिंह अपनी टीका में लिखता है-'नयासिकास्तु ह्रस्वत्वं विदधतेऽविशेषात् ।' टीकाकार ने यहां किस न्यास का स्मरण किया है, यह अज्ञात है। उग्रभूति ने कातन्त्रवृत्ति पर एक न्यास लिखा था। (उसका ५ उल्लेख आगे होगा)। उसका काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी है। अतः यहां उसका उल्लेख नहीं हो सकता । दुर्गसिंह ने कृत्सूत्र ४१, ३८ को वृत्तिटीका में श्रुतपाल का उल्लेख किया है।' यह श्रुतपाल देवनन्दी विरचित धातुपाठ का व्याख्याता है। कातन्त्र २ । ४ । १० की वत्तिटीका में भट्रि ८ । ७३ का १० 'श्लाघमानः परस्त्रीभ्यस्तत्रागाद् राक्षसाधिपः' चरण उद्धृत है । टीकाकार दुर्गसिंह के काल का अभी निश्चय नहीं हो सका। सम्भव है कि यह नवमी शताब्दी का ग्रन्थकार हो। २-उग्रभूति (११ वीं शताब्दी वि०) उग्रभूति ने दुर्गवृत्ति पर 'शिष्यहितन्यास" नाम्नी टीका लिखी १५ है। मुसलमान यात्री अल्बेरूनी इसका नाम 'शिष्यहिता वृत्ति' लिखता है। उसने इस ग्रन्थ के प्रचार की कथा का भी उल्लेख किया है। इस कथा के अनुसार उग्रभूति का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी है। गुरुपद हालदार ने 'शिष्यहिता न्यास' को कश्मीर में प्रचलित 'चिच्छुवृत्ति' का व्याख्यान माना है । शिष्यहितान्यास दुर्गवृत्ति पर है अथवा चिच्छु वृत्ति पर; इस का १. प्रोरियण्टल कान्फ्रेंस, सन् १९४३, ४४ (बनारस), भागवृत्तिविषय लेख। २.३ । ४ । ७१ ॥ परिशिष्ट पृष्ठ ५२८ । ३. व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ४६५।। ४. हरिभद्र कृत जैन प्रावश्यकसूत्र की टीका का नाम भी शिष्यहिता है। ५. इस का एक हस्तलेख श्रीनगरस्थ राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। ६. अल्बेरुनी का भारत, भाग २, पृष्ठ ४०, ४१ । ७. कौमार सम्प्रदाये चिच्छवृत्तिर उपरि काश्मीरक उग्रभूति शिष्यहिता- । न्यास प्रणयन करेन । व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ २६८ । ..२५ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास निर्णय ग्रन्थ के अवलोकन से ही सम्भव है। इस के उपलब्ध ग्रन्थ शारदा लिपि में हैं । अतः हम निर्णय करने में असमर्थ हैं। हमारा विचार है कि उग्रभूति ने स्वयं कातन्त्र पर शिष्यहिता वृत्ति लिखी और उस पर स्वयं ही न्यास लिखा । पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने 'अभिमतदेवतापूजापूर्विकाप्रवृत्तिरिति सतामाचारमनुपालयन् वृत्तिकृन्नमस्करोति-ॐ श्री कण्ठाय...."।' पाठ में वृत्तिकृन्नमस्करोति पद को देख कर वृत्तिकार को उग्रभूति से पृथक् माना है। संस्कृत वाङ्मय में अनेक ऐसे ग्रन्थ है जिन के व्याख्येय और व्याख्या ग्रन्थ के लेखक एक ही है। परन्तु उनमें भी व्याख्यांश में इसी प्रकार का प्रथम पुरुष के रूप में निर्देश मिलता है । यथा साहित्य दर्पण, काव्यप्रकाश काव्यानुशासन, ग्रन्थों में कारिका और उस की व्याख्या क्रमशः एक ही ग्रन्थकार विश्वनाथ मम्मट तथा हेमचन्द्राचार्य की हैं। तदनुसार शिष्यहितावृत्ति और शिष्यहिता न्यास का एक ही लेखक हो सकता है । इस में अल्बेरूनी का 'शिष्यहितावृत्ति' का लेखक रूप से उग्रभूति १५ को स्मरण करना भी प्रमाण है। ३-त्रिलोचनदास (सं० ११०० वि० ?) . त्रिलोचनदास ने दुर्गवृत्ति पर 'कातन्त्रपञ्जिका' नाम्नी बृहती व्याख्या लिखी है । यह व्याख्या बंगलाक्षरों में मुद्रित हो चुकी है। वोपदेव ने इसे उद्धृत किया है। त्रिलोचनदास का निश्चित काल २० अज्ञात है । सम्भव है कि यह ११ वीं शताब्दी का ग्रन्थकार हो । कातन्त्र पञ्जिका की विशेषता-पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने · पञ्जिका की विशेषता का वर्णन इस प्रकार किया है - __ "दुर्गसिंह कृत वृत्ति तथा टीका के विषयों का प्रौढ़ स्पष्टीकरण इस व्याख्या में देखा गया है। इस व्याख्या का स्तर कातन्त्र सम्प्रदाय २५ में वही माना जा सकता है जो कि पाणिनीय सम्प्रदाय में काशिका वृत्ति पर जिनेन्द्र बुद्धि द्वारा प्रणीत काशिका विवरण पञ्जिका (न्यास) का है । इस में जयादित्य जिनेन्द्र बुद्धि प्रभृति लगभग ४० ग्रन्थकारों तथा कुछ ग्रन्थों के मतवचनों को दिखाया गया है । बहुत से मत 'केचित्' 'अन्ये' 'इतरे' शब्दों से भी प्रस्तुत किये हैं। इन सभी ३० मतों में कुछ मतों को युक्ति संगत नही माना गया है। पञ्जिका में दर्शित मतों के प्रति कुछ प्राचार्यों ने दोष भी Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६३७ दिखाये हैं। इन दोषों का समाधान सुषेण विद्याभूषम में अपने 'कलाप चन्द्र' नामक व्याख्यान में किया है।' पञ्जिका-टीकाकार (क) त्रिविक्रम-(१३ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती) त्रिविक्रम ने त्रिलोचनदासविरचित 'पञ्जिका' पर 'उद्योत' ५ नाम्नी टीका लिखी है । त्रिविक्रम वर्धमान का शिष्य है । एक वर्धमान 'कातन्त्रविस्तर' नाम्नी टीका का लेखक है। इसका निर्देश मागे करेंगे। वर्धमान नाम के अनेक आचार्य हो चुके हैं । अतः यह किस वर्धमान का शिष्य है, यह अज्ञात है । पट्टन के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचोपत्र के पृष्ठ ३८३ पर त्रिविक्रम कृत पञ्जिका का एक हस्तलेख १० निर्दिष्ट है, उसके अन्त में निम्न लेख है'उक्तं यदालनविशीर्णवाक्यनिरर्गलं किञ्चन फल्गु पूर्वः। .. उपेक्षितं सर्वमिदं मया तत् प्रायो विचारं सहते न येन ॥ पासीदियं पञ्जरचित्रसालिकेव हि पञ्जिका। उद्योतव्यपदेशेन त्वियं पूर्णोज्ज्वली कृता॥ इति श्री वर्धमान शिष्यत्रिविक्रमकृते पञ्जिकोद्योतेऽनुषङ्गपादः । सं० १२२१ ज्येष्ठ वदि ३ शुके लिखितमिति ।' इससे स्पष्ट है कि 'त्रिविक्रम' विक्रम की १३ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ता है। (ख) श्री देशल (सं० १९६५) नन्दी पण्डित के पुत्र श्री देशल ने सं० १९६५ में त्रिलोचनदास कृत पञ्जिका पर 'प्रदीप' नाम्नी व्याख्या लिखी थी। पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। (ग) विश्वेश्वर तर्काचार्य (ङ) कुशल (घ) जिनप्रभ सूरि (च) रामचन्द्र विश्वेश्वर तर्काचार्य कृत 'पञ्जिका-व्याख्या का हस्तलेख काशी के सरस्वती भवन पुस्तकालय में है। अगले तीन लेखकों का उल्लेख २५ (च) रामचन्द्र १. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कौश की परम्परा, पृष्ठ ११५ ॥ २. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ३२ । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० डा० बेल्वाल्कर ने किया है।' पं० जानकी प्रसाद द्विवेद ने 'संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचार्यों को टीकाएं, एक अध्ययन' शोर्षक निबन्ध में त्रिलोचनदास कृत पञ्जिका पर निम्न लेखकों की व्याख्यायों का वर्णन किया है।' (छ) मणिकण्ठ भट्टाचार्य-इसने 'त्रिलोचन चन्द्रिका' नाम्नी व्याख्या की है। . पुरुषोत्तमदेव कृत महाभाष्य लघुवृत्ति पर शंकर पण्डित विरचित . व्याख्या की मणिकण्ठ ने एक टीका लिखी थी। इस का निर्देश हम पूर्व पृष्ठ ४०३ पर कर चुके हैं। हमारा विचार है कि इसी मणिकण्ठ ने 'त्रिलोचन चन्द्रिका' व्याख्या लिखी है । (ज) सीतानाथ सिद्धान्तवागीश-इसने पञ्जिका के कुछ भागों पर 'संजीवनी' नाम्नी व्याख्या लिखी थी। (झ) पीताम्बर विद्याभूषण-इसने 'पत्रिका' नाम्नी व्याख्या की रचना की थी। ४-वर्धमान (१२ वीं शताब्दी वि०) डा० बेल्वाल्कर ने वर्धमान की टोका का नाम 'कातन्वविस्तर' लिखा है। इस की रचना गुर्जराधिपति महाराज कर्णदेव के शासन काल (सन् १०८८ ई० सं० ११४५ वि०) में हुई थी। गोल्डस्टुकर इस वर्धमान को 'गणरत्नमहोदधि' का कर्ता मानता है । गुरुपद हालदार ने भी इसे गणरत्नमहोदधिकार वर्षमान की रचना माना है।' वोपदेव ने 'कविकामधेनु' कातन्त्रविस्तर को उद्धृत किया है। .. कातन्त्र-विस्तर के व्याख्याकार १-पृथ्वीघर-पृथ्वीधर नाम के विद्वान् ने वर्धमान कृत सातन्त्रविस्तर पर एक व्याख्या लिखी थी। १. पिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं० ६६ । २. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा, पृष्ठ ११५ ३. वर्धमान १९४० स्रष्टाब्वे गणरत्नमहोदधि प्रणयन करेन । "ताहार कातन्त्रविस्तर वृत्ति एकखानि प्रामाणिक ग्रन्य, एखन ओ किन्तु उहा मुद्रित • हुई नाई। व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ४५७ । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६३६ पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने कातन्त्रविस्तर पर निम्न व्याख्यानों का उल्लेख किया है' - २ - वामदेव - विद्वान् रचित 'मनोरमा' । ३- श्रीकृष्ण - विरचित 'वर्धमान संग्रह ' । ९- रघुनाथदास रचित 'वर्धमान प्रकाश' । ५ - गोविन्ददास विरचित 'वर्धमानानुसारिणी प्रक्रिया' । ६ - श्रज्ञातनामा विद्वान् विरचित 'कातन्त्र प्रक्रिया' । ५ - प्रद्युम्न सूरि (सं० १३६६ वि०) प्रद्युम्न सूरि नाम के विद्वान् ने दुर्गवृत्ति पर सं० १३६९ में एक व्याख्या लिखी । इस का परिमाण ३००० श्लोक माना जाता है । १० Satara के भण्डार में इसका हस्तलेख है । द्र० संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा, पृष्ठ १२२ । ६ - गोल्हण (वि० सं० १४३६ से पूर्व ) गोल्हण ने दुर्गसिंह विरचित कातन्त्र टीका पर 'टिप्पण' लिखा है । इसका 'चतुष्क टिप्पणिका' नाम से एक हस्तलेख लखनऊ नगरस्थ १५ अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् के संग्रह में विद्यमान है । इसकी संख्या वर्गीकरण संख्या १०५ व्याकरण, प्राप्ति नं० ६२ है । इसमें केवल २२ पत्रे हैं । प्रायः प्रत्येक दो पत्रों पर क्रमसंख्या समान है । अर्थात् एक-एक संख्या दो-दो पत्रों पर पड़ी हुई है । द्विरावृत संख्यावाले पत्रों में एक पत्रा स्थूल लेखनी से लिखा हुआ है, दूसरा २० सूक्ष्म ( पतली ) लेखनी से । संख्या की द्विरावृत्ति तथा लेखनाभेद का निश्चित कारण समयाभाव से हम निश्चित नहीं कर सके । सम्भव है स्थूल लेखनी से लिखा पाठ दुर्ग टीका का हो और सूक्ष्म लेखनीवाला गोल्हण की टीका का ( अभी निश्चेतव्य है ) । 1 'संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा' के पृष्ठ १२२ २५ पर इसके दो हस्तलेखों का उल्लेख है । एक राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान जोधपुर में है । इसके पत्रों की संख्या १५४ हैं । दूसरा अहमदाबाद में है । इस की पत्र संख्या ३४८ है । टीकाकार का देश काल प्रज्ञात है । सं० प्रा० व्या० और कोश की परम्परा ग्रन्थ (पृष्ठ १२२) में लिखा है कि इस में त्रिलोचनदास ३० १. कातन्त्र व्याकरणविमर्श, पृष्ठ २४-२५ । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कृत कातन्त्र वृत्ति पञ्जिका उद्धृत है। लेखक ने इस को १६ वीं शताब्दी का लिखा है। यह चिन्त्य है । लखनऊ के पूर्व निर्दिष्ट हस्तलेख के अन्त में लेखन काल सं० १४३६ निर्दिष्ट है यथा - 'इति पण्डितश्रीगोल्हणविरचितायां चतुष्कवृत्तिटिप्पनिकायां प्रकरण समाप्तमिति । शुभं भवतु ॥ संवत् १४३६ वर्षे मावशुदि शमामेस (?) लक्ष्मणपुरे प्रागमिकामरतिलकेन चतुष्कवृत्तिटिप्पनिका प्रात्मपठनार्थ लिखिता। अतः गोल्हण निश्चय ही सं० १४३६ से पूर्ववर्ती है। इस टिप्पण के अन्त में प्रत्याहारबोधक सूत्र तथा प्रत्याहार सूत्र १० उदधत हैं। ये किस व्याकरण के हैं,और यहां इनकी क्या आवश्यकता है, यह विचारणीय है । है-इनका पाठ पूर्व पृष्ठ ६२७ पर देखें। ७-सोमकीति आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य सोमकीर्ति ने कातन्त्र वृत्ति पर 'कातन्त्र वृत्ति पञ्जिका' नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । इस का एक ५५ हस्तलेख जैसलमेर में विद्यमान है। इस का देश काल अज्ञात है। द्र० सं० प्रा० व्या० और कोश की परम्परा, पृष्ठ १२० । ___ कातन्त्र व्याकरण का दुर्गवृत्ति सहित कलकत्ता से जो नागराक्षरों में संस्करण प्रकाशित हुअा था, उसके अन्त में दुर्गवृत्ति के निम्न टीकाकारों वा टीकाओं के कुछ कुछ पाठ उद्धृत किये गये हैं८. काशीराज १०. लघुवृत्ति ६. हरिरान ११. चतुष्टय प्रदीप इन टोकाकारों वा टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त भी दुर्गवृत्ति पर कुछ टीकाएं उपलब्ध होती हैं। विस्तरंभिया हमने उनका निर्देश नहीं किया है। ५-चिच्छुम-वृत्तिकार (१२ शताब्दी वि० से पूर्व) किसी कश्मीरदेशज विद्वान् ने कातन्त्र व्याकरण पर 'चिच्छमवृत्ति' नाम की व्याख्या लिखी थी। गुरुपद हालदार के मतानुसार - यह वृत्ति वर्धमान कृत 'कातन्त्रविस्तर' वृत्ति से पूर्वभावी है यह Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६४१ सम्प्रति अनुपलब्ध है । प्रागे हम छुच्छुक भट्ट विरचित एक वृत्ति का उल्लेख करेंगे। क्या ये दोनों वृत्ति एक हो सकती हैं ? गुरुपद हालदार के मतानुसार उग्रभूति विरचित 'शिष्यहितान्यास' चिच्छुवृत्ति पर लिखा गया था।' ६-उमापति (सं० १२०० वि०) उमापति ने भी कातन्त्र पर एक व्याख्या लिखी थी। यह उमापति लक्ष्मणसेम के सभ्यों में प्रयतम है । अतः इसका काल सामान्यतया विक्रम की १२ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।' उमापति ने 'पारिजातहरण' काव्य भी लिखा था। इसका उल्लेख ग्रियर्सन ने १० किया है। ७-जिनप्रभ सूरि (सं० १३५२ वि०) प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने कायस्थ खेतल की अभ्यर्थना पर कातन्त्र की 'कातन्त्रविभ्रम' नाम्नी टीका लिखी थी। इस टीका की रचना १५ सं० १३५२ में देहली में हुई थी। ग्रन्थकारने रचना काल तथा स्थान का निर्देश इस प्रकार किया है पक्षेषुशक्तिशशिभन्मितविक्रमाब्दे, धाङ्किते हरतियो पुरि योगिनीनाम् । कातन्त्रविभ्रम इह व्यतनिष्टटीकाम्, . २० अप्रौढधीरपि जिनप्रभसूरिरेताम् ॥ डा० बेल्वाल्कर ने इसे त्रिलोचनदास को पत्रिका की टीका माना है। १. वाररुचवृत्तर प्राय: ३०० वत्सर परे दौर्गवृत्ति एवं कश्मीरि चिच्छवृत्ति रचित हया छ। वर्वमानेर कातन्त्रविस्तर वृति चिच्छवृत्तिर परवर्ती । २५ व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ३६५।। २. विशेष द्र०-सं० व्या० इतिहास भाग २, पृष्ठ २१८-२१६ तृ० सं० । ३. जैन सिद्धान्तभास्कर भाग १३, किरण २, पृष्ठ २०५ । ४. सिस्टम्स् माफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं० ६६ । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० ६४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १ - कातन्त्रविभ्रम-प्रवचूर्णि चारित्रसिंह (सं० १६०० वि० ) चारित्रसिंह ने 'कातन्त्रविभ्रम' के कुछ दुर्ज्ञेय भाग पर 'अवचूर्ण' नाम्नी एक टीका लिखी है । ग्रन्थकार ने अन्त में निम्न पद्य लिखे हैं'बाणाविषडिन्दु (१६२५) मितिसंवति धवलक्कपुरवरे समहे । श्रीखरतगण पुष्करसु दिवा पुष्टप्रकाराणाम् ||१|| श्री जिन माणिक्याभिधसूरीणां सकलसार्वभौमानाम् । पट्टेवरे विजयिषु श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिराजेषु ||२|| गीतिः - वाचकमतिभद्रगणेः शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपारमार्थः । चारित्रसहसा धुर्व्यदधाद् श्रवचूर्णमिह सुगमाम् ||३|| यल्लिखितं मतिमान्द्यादनृतं प्रश्नोत्तरेऽत्र किञ्चिदपि । तत्सम्यक् प्राज्ञवरं शोध्यं स्वपरोपकाराय ॥४॥ PI इस से स्पष्ट है कि 'कातन्त्र विभ्रम-प्रवचूर्णि' सं० १६२५ में लिखी गयी थी । यह ग्रन्थ पत्राकार में इन्दौर से छप चुका है । १५ इस ग्रन्थ के आरम्भ में सारस्वतसूत्रयुक्त्या का निर्देश है । ग्रन्थ में सारस्वत सूत्र और सिद्धान्त चन्द्रिका ग्रन्थ का भी निर्देश है । कातन्त्र सूत्र सरस्वती के प्रसाद शर्ववर्मा ने प्राप्त किया था ऐसी किवदन्ती प्रसिद्ध होने से सारस्वतसूत्रयुक्त्या में सारस्वत सूत्र से कातन्त्र सूत्रों का ही निर्देश जानना चाहिये । ग्रन्थ भी ' कातन्त्र - २० विभ्रम' पर लिखा गया है। इस से भी यह स्पष्ट है कि इस का सम्बन्ध कातन्त्र व्याकरण के साथ है, न कि सारस्वत व्याकरण के साथ । २- कातन्त्रविभ्रमावचूर्णि - गोपालाचार्य (सं० १७०० वि०) ३० गोपालाचार्य ने भी कातन्त्र विभ्रम पर अवचूर्णि नाम की टीका २५ लिखी थी । ग्रन्थकार के पिता का नाम नागर नीलकण्ठ था । ग्रन्थकार ने ग्रन्थ लेखन का काल तथा स्वपरिचय इस प्रकार दिया है संवद्रामरसाद्रि (१७६३ । परिमिते वर्षायने दक्षिणे, पौषेमासि शुचौ तिथि प्रतिपदि प्राङ भौमवारेऽकरोत् । श्रीमन्नागर नीलकण्ठतनयो नाम्नातु गोपालकः, टीकामस्य विशुद्धरम्यसुगमां काव्यस्य दुर्गस्यवं ।।' १. संस्कृत प्राकृत जैन ब्याकरण और परम्परा, पृष्ठ १११ पर उद्धृत । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६४३ इस के अनुसार यह अवणि टीका गोपालाचार्य ने सं० १७६३ . के दक्षिणायन पौषमास शुक्लपक्ष प्रतिपदा मंगलवार को लिखी थी। । ८-जगद्धर भट्ट (सं० १३५० वि० समीपवर्ती) जगद्धर ने अपने पुत्र यशोधर को पढ़ाने के लिये कातन्त्र की ५ 'बालबोधिनी' वत्ति लिखी है। जगद्धर कश्मीर का प्रसिद्ध पण्डित है। उसने 'स्तुतिकुसुमाञ्जलि' ग्रन्थ और मालतीमाधव आदि अनेक ग्रन्थों की टीकाएं लिखी हैं । जगद्धर के पितामह गौरधर ने यजुर्वद की 'वेदविलासिनी' नाम्नी व्याख्या लिखी थो।' ___ डा० बेल्वाल्कर ने जगद्धर का काल १० वीं शताब्दी माना है, १० वह ठीक नहीं है। क्योंकि जगद्धर ने वेणीसंहार नाटक की टीका में रूपावतार को उद्धृत किया है । रूपावतार की रचना सं० ११४० . के लगभग हई है, यह हम पूर्व प्रतिपादन कर चुके हैं। जगद्धर का काल सं० १३५० के लगभग । है ___ बम्बई विश्वविद्यालय के जर्नल में 'डेट आफ जगद्धर' लेख छपा १५ है। उसके लेखक ने भी जगद्धर का काल सामान्यतया ईसा की १४ वीं शती प्रमाणित किया है । द्रष्टव्य-उक्त जर्नल सितम्बर १६४० भाग ६, पृष्ठ २। बाल बोधिनी का हस्तलेख १० जुलाई १९७३ को मेरा 'उज्जैन' (म० प्र०) जाना हुआ। वहां श्री पं० उपेन्द्रशरण जी शास्त्री (प्राचार्य, संस्कृत महाविद्यालय महाकाल मन्दिर, उज्जन) से अकस्मात् भेंट हुई । वे 'जगद्धर भट्ट' पर शोध कर रहे हैं। उन्होंने जगद्धरकृत 'बालंबोधिनी टीका' को प्रतिलिपि दिखाई । टीका वस्तुतः यथा नाम तथा गुणः के अनुरूप है। इसका मूल हस्तलेख 'कीति मन्दिर, विक्रम विश्वविद्यालय २५ उज्जैन' के संग्रह में विद्यमान है। १. वैदिक वाङमय का इतिहास भाग २, पृष्ठ ६६, सन् १९७६ का संस्करण। २. अत्र जयत्विति, अत्र यद्यपि जयतेरनभिधानादुत्वं न भवति इति रूपावतारे दृश्यते । पृष्ठ १८, निर्णयसागर संस्करण । ३. द्र०-पूर्व पृष्ठ ५८६-५८७ । ३० Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जगद्धर का अन्य ग्रन्थ-श्री उपेन्द्रशरण जी शास्त्री ने ही हमें जंगीर कृत एक अन्य ग्रन्थ की भी सूचना दी। ग्रन्थ का नाम हैअपशब्द निराकरण इसका एक हस्तलेख भण्डारकर शोधसंस्थान पूना में है। इसके पांच पत्र हैं, प्रति पृष्ठ २५ पंक्तियां हैं । इसका निर्देश सूचीपत्र में २७१ (बी) १८७५-१८७६ ग्रन्थ सं० ४२४ पर है । इस हस्तलेख के साथ चित्रकाव्य ग्रन्थ भी है। ___ यह खेद का विषय है कि कुछ वर्ष पश्चात् ही पं० उपेन्द्र शरण जी का निधन हो गया। इस कारण यह ग्रन्थ प्रकाशित होने से रह गया। बालबोधिनी का टीकाकार-राजानक शितिकण्ठ राजानक शितिकण्ठ ने जगद्धरविरचित 'बालबोधिनी' वृत्ति की व्याख्या लिखी है। राजानक शितिकण्ठ जगद्धर का 'नप्तृकन्यातनयातनूज' अर्थात् पोते की कन्या का दौहित्र था। राजनक शितिकण्ठ का काल १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। ९-पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (सं० १४५०-१५५० वि०) - पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर ने कातन्त्रव्याकरण की एक वृत्ति लिखी थी। इसका निर्देश पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के सम्पादक श्री दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने भूमिका पृष्ठ १८ पर किया है । पुण्डरीकाक्ष-विरचित न्यास टीका का उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं । इसने भट्टि काव्य पर भी एक टोका लिखी थी। उसका वर्णन 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' नामक ३० वें अध्याय में करेंगे। १०-छुच्छुक भट्ट छुच्छुक भट्ट ने कातन्त्र की एक लघुवृत्ति लिखी। इस लघुवृत्ति का ३७८ पत्रात्मक एक नागराक्षरों में लिखित हस्तलेख दिल्ली के 'प्राचीन ग्रन्थ संग्रहालय' में है । इस का प्रचलन कश्मीर में वि० के १६ शती तक रहा ऐसा उसके विवरण से ज्ञात होता है । लेखक शैव Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण मतानुयायी था । इस का मूल पाठ बङ्गीय पाठ से भिन्न है ।" हम पूर्व पृष्ठ ६४० पर एक अज्ञात नाम ग्रन्थकार की चिच्छुवृत्ति का उल्लेख कर चुके हैं । हमें नाम के कुछ सादृश्य से सन्देह होता है कि पूर्व निर्दिष्ट चिच्छुवृत्ति सम्भवतः छच्छुक भट्ट द्वारा ही लिखित होवे । ११ - कर्मघर भट्ट कर्मधर ने कातन्त्र पर ' कातन्त्र मन्त्रप्रकाश' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था । इसका द्वन्द्व समासान्त खण्ड चतुष्टयात्मक हस्तलेख अलवर के 'राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान' में विद्यमान है. द्र० ग्रन्थ संख्या ३२०३ | इस का विस्तृत वर्णन 'कातन्त्र व्याकरण - विमर्श (पृष्ठ ३४-३५ ) में देखें । १० १२- धनप्रभ सूरि धनप्रभ सूरि ने कातन्त्र की 'चतुष्क व्यवहार दुष्टिका' नाम की १५ व्याख्या लिखी थी । यह व्याख्या तद्धित पर्यन्त उपलब्ध होती है । * मुनि ईश्वर सूरि के दीपिका' नाम्नी एक उपलब्ध होती है । " १३ – मुनि श्रीहर्ष शिष्य मुनि श्रीहर्ष ने कातन्त्र पर ' कातन्त्र - व्याख्या लिखी थी । यह व्याख्या आख्यातान्त २० अन्य व्याख्याग्रन्थ १. जिनप्रबोध सूरि ने सं० १३२८ में 'दुर्गपदप्रबोध' नाम की एक टीका लिखी थी । * २- प्रबोध मूर्तिगण -- जिनेश्वर सूरि के शिष्य प्रबोध मूर्तिगणि २५ १. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ २९ । २. ३४ । " " " ६४५ 11 २५ । 91 " ४. जैन सं० प्रा० व्या० श्रौर कोश की परम्परा, पृष्ठ १२१ । در رز Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ने १४ वीं शती में 'दुर्गपद प्रबोध' नाम को व्याख्या लिखो थी। इस के प्रारम्भिक श्लोक में 'पञ्जिका' का उल्लेख है। यह पञ्जिका त्रिलोचनदास कृत है अथवा जिनेश्वर सूरि के शिष्य सोमकोति विरचित, यह अज्ञात है।' ३-कुलचन्द्र ने 'दुर्गवाक्य प्रबोध' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था।' प्रक्रिया ग्रन्थ पं० बलदेव ने बूंदी (राजस्थान) के नृपति रामसिंह की आज्ञा से सं० १९०५ में 'कलापप्रक्रिया' नाम के ग्रन्थ की रचना की थी। बलदेव के गुरु का नाम अाशानन्द था। ग्रन्थ कार ने उक्त परिचय निम्न श्लोकों में दिया है बाणाखकेन्दुमिते (१९०५) विक्रमादित्यतो गते । वर्षऽथ रामसिंहाज्ञो प्रेरितेन द्विजेन । बलदेव रचिता कातन्त्र प्रक्रिया शुभा। उपदेशाद् गुरोराशानन्दोत्थाद् भाग्ययोगतः ।। इस ग्रन्थ का एक हस्तलेख जोधपुर में विद्यमान है।' कातन्त्र सूत्रपाठ पर इनके अतिरिक्त अन्य अनेक वृत्तियां लिखो गई होंगी. परन्तु हमें उनका ज्ञान नहीं है । २. चन्द्रगोमी (सं० १००० वि० पूर्व) प्राचार्य चन्द्रगोमी ने पाणिनीय व्याकरण के आधार पर एक नए व्याकरण की रचना की। इस ग्रन्थ की रचना में चन्द्रगोमो ने पातञ्जल महाभाष्य से भी महतो सहायता ली है। परिचय वंश-चन्द्राचार्य के वंश का कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। मत--चान्द्रव्याकरण के प्रारम्भ में जो श्लोक उपलब्ध होता है, १. जैन सं० प्रा. व्या० और कोश की परम्परा पृष्ठ १२० । २. " " " " १२२ । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६४७ उससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगोमी बौद्धमतावलम्बी था।' महाभारत के टीकाकार नीलकण्ठ ने अनुशासन पर्व १७ । ७८ को व्याख्या में महादेव के पर्याय 'निशाकर' की व्याख्या करते हुए लिखा है निशाकरश्चन्द्रः, चन्द्रव्याकरणप्रणेता'। यह नीलकण्ठ को इतिहासानभिज्ञता का द्योतक हैं। देश-कल्हण के लेख से विदित होता है कि चन्द्राचार्य ने कश्मीर के महाराज अभिमन्यू की प्राज्ञा से कश्मीर में महाभाष्य का प्रचार किया था। परन्तु उसके लेख से यह विदित नहीं होता है कि चन्द्राचार्य ने भारत के किस प्रान्त में जन्म लिया था । किसी अन्य प्रमाण १० से भी इस विषय पर साक्षात् प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रगोमी के उणादिसूत्रों की अन्तरङ्ग परीक्षा करने से प्रतीत होता है कि वह बङ्ग प्रान्त का निवासी था। हम पुरुषोत्तमदेव के प्रकरण में लिख चुके हैं कि बंगवासी अन्तस्थ वकार और पवर्गीय बकार का उच्चारण एक जैसा करते हैं। उनका १५ यह उच्चारण-दोष अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है। __चन्द्राचार्य ने अपने उणादिसूत्रों की रचना वकारादि अन्त्य अक्षरक्रम से की है। वह उणादिसूत्र २।८८ तक पकारान्त शब्दों को समाप्त करके सूत्र ८६ में फकारान्त गुल्फ शब्द की सिद्धि दर्शान कर बकारान्तों के अनुक्रम में सूत्र ९०, ९१ में अन्तस्थान्त 'गर्व, शर्व, २० अश्व, लट्वा, कण्व, खट्वा' और 'विश्व' शब्दों का विधान करके सूत्र ६२ के शिवादिगण में 'शिव सर्व, उल्व, शुल्व, निम्ब, बिम्ब, शम्ब; स्तम्ब, जिह्वा, ग्रीवा' शब्दों का साधत्व दर्शाता है। इनमें अन्तस्थान्त और पवर्गीयान्त दोनों प्रकार के शब्दों का एक साथ सन्निवेश है। इससे प्रतीत होता है कि चन्द्राचार्य बंगदेशीय था । अत एव उसने २५ प्रान्तीयोच्चारण दोष की भ्रान्ति से अन्तस्थ वकारान्त पदों को भी पवर्गीय बकारान्त के प्रकरण में पढ़ दिया। १. सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सर्वीयं जगतो गुरुम् । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ३७६, टि०२। ३. देखो-पूर्व पृष्ठ ४२८ । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास ' चान्द्र व्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकनध्ययनम्' नामक शोष प्रबन्ध के लेखक पं० हर्षनाथ मिश्र ने बकारवकार के अभेदग्राहकता के हमारे हेतु का 'धुनापि प्राचीनाः पण्डिता बकारवकारयो विशिष्टे उच्चारणे लेखे च मन्दादराः प्रमाद्यन्ति रूप हेत्वाभास से निराकरण करके चन्द्राचार्य का कश्मीर देशजत्व सिद्ध करने का प्रयास किया है ( ० पृष्ठ ३-५ ) । हमारे विचार में पं० हर्षनाथ मिश्र का यह साहस मात्र है । ५ ३० ६४८ काल महान् ऐतिहासिक कल्हण के लेखानुसार चन्द्राचार्य कश्मीर के १० नृपति अभिमन्यु का समकालिक था । उसकी आज्ञा से चन्द्राचार्य ने नष्ट हुए महाभाष्य का पुनः प्रचार किया, और नये व्याकरण की रचना की ।' महाराज अभिमन्यु का काल अभी तक विवादास्पद बना हुआ है। पाश्चात्त्य विद्वान् अभिमन्यु को ४२३ ईसा पूर्व से लेकर ५०० ईसा पश्चात् तक विविध कालों में मानते हैं । कल्हण के १५ मतानुसार अभिमन्यु का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून १००० वर्ष पूर्व है | हम भारतीय कालगणना के अनुसार इसी काल को ठीक मानते हैं | चन्द्राचार्य के काल के विषय में हम महाभाष्यकार पतञ्जलि के प्रकरण में विस्तार से लिख चुके हैं । चान्द्रव्याकरण की विशेषता २० प्रत्येक ग्रन्थ में अपनी कुछ न कुछ विशेषता होती है । चान्द्रवृत्ति' और वामनीय लिङ्गानुशासन वृत्ति' में चान्द्रव्याकरण की विशेषताचन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम्' लिखी है । अर्थात् चान्द्र व्याकरण में किसी पारिभाषिक संज्ञा का विधान न करना उसकी विशेषता है । चन्द्राचार्य ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में अपने व्याकरण की २५ विशेषता इस प्रकार दर्शाई है 'लघुविस्पष्टसम्पूर्णमुच्यते शब्दलक्षणम्' अर्थात् यह व्याकरण पाणिनीय तन्त्र की अपेक्षा लघु विस्पष्ट और कातन्त्र आदि की अपेक्षा सम्पूर्ण है । पाणिनीय व्याकरण में १. देखो - पूर्व पृष्ठ ३७६ टि० २ । - २. पूर्व पृष्ठ ३६८ - ३७० ३. २ । २ । ८६ । ४. पृष्ठ ७ । Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६४६ जिन शब्दों के सावुत्व का प्रतिपादन वार्तिकों और महाभाष्य की इष्टियों से किया है, चन्द्राचार्य ने उन पदों का सन्निवेश सूत्रपाठ में कर दिया है । अत एव उसने अपने ग्रन्थ का विशेषण 'सम्पूर्ण' लिखा है। चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण को रवता में तञ्जल महाभाष्य ५ से महान लाभ उठाया है। पतञ्जलि ने पाणिनीय सूत्रों के जिस न्यासान्तर को निर्दोष बताया, चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण में प्रायः उसे ही स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार जिन पाणिनीय सूत्रों वा सूत्रांशों का पतञ्जलि ने प्रत्याख्यान कर दिया, चन्द्राचार्य ने उन्हें अपने व्याकरण में स्थान नहीं दिया। इतना होने पर भी अनेक १० स्थानों पर चन्द्राचार्य ने पतञ्जलि के व्याख्यान को प्रामाणिक न मान कर अन्य ग्रन्यकारों का प्राश्रय लिया है।' पं० विश्वनाथ मिश्र को महती भूल-'संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश को परम्परा' नामक संग्रह ग्रन्थ के अन्तर्गत 'भिक्षु शब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन' शीर्षक लेख में पं० विश्वनाथ १: मिश्र ने लिखा है-चान्द्र व्याकरण तो अाजकल उपलब्ध नहीं है (पृष्ठ १७२) । बड़े आश्चर्य की बात है कि जर्मनी और पूना से वृत्ति सहित तथा जोधपुर से मूल चान्द्रव्याकरण के संस्करणों के प्रकाशित हो जाने पर भी 'चान्द्रव्याकरण तो अाजकल मिलता नहीं है' लिखा है । इस प्रकार लिखने का साहस करना पं० विश्वनाथ मिश्र की २० अज्ञता का बोधक तो है ही शोध कार्य की असामर्थ्य का भी द्योतक है। चान्द्र-तन्त्र और स्वर-वैदिक-प्रकरण डा० बेल्वाल्कर और एस० के० दे का मत है कि चन्द्रगोमी ने बौद्ध होने के कारण स्वर तथा वेदविषयक सूत्रों को अपने व्याकरण में स्थान नहीं दिया। १. तुमो लुक् चेच्छायाम् । चान्द्र १।१। २२ । तुलना करो-महाभाष्य ३ । १।७-तुमुनन्ताद्वा तस्य लुग्वचनम् । २. यथा-एकशेष प्रकरण । ३. रङ्कोः प्राणिनि वा । चान्द्र ३।२।। की महाभाष्य ४ । २ । १०० से तुलना करो। ४. बेल्वाल्कर-सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ५६; दे- इण्डियन .. हिस्टोरिकल क्वार्टली जून १९३८, पृष्ठ २५८ । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'बेल्वाल्कर' और 'दे' की भ्रान्ति-डा० बेल्वाल्कर और एस. के. दे का चान्द्रव्याकरण सम्बन्धी उपयुक्त मत भ्रान्तिपूर्ण होने से सर्वथा मिथ्या है। प्रतीत होता है कि इन लोगों ने चान्द्रव्याकरण और उसकी उपलब्ध वृत्ति का पूरा पारायण ही नहीं किया और ५ षष्ठ अध्याय में 'समाप्तं चेदं चान्द्रव्याकरणं शुभम्' पाठ देख कर ही उक्त कल्पना कर ली। . पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह की मूलें-पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह का 'मध्यकालीन भारतना महावैयाकरण' शोर्षक एक लेख 'श्री जैन सत्यप्रकाश' के वर्ष ७ के दीपोत्सवी अंक में छपा है। उसमें १० लिखा है___ 'तेने (चन्द्र ने) पाणिनीय प्रत्याहारो काढी ने नवा मूक्या छे. तेने वैदिक व्याकरण अपने धातुपाठ काढनाख्यो छे.' ___ इस लेख में वैदिकप्रकरण के साथ धातुपाठ को निकालने, और प्रत्याहारों के बदलने का भी उल्लेख किया है। यह सर्वथा मिथ्या १५ है। चान्द्र का धातुपाठ जर्मन से छपा हुआ उपलब्ध है। वह उक्त लेख लिखने (सन् १९४१) से ३९ वर्ष पूर्व छप चुका है। प्रत्याहारों में चान्द्र ने केवल एक सूत्र में परिवर्तन करने के अतिरिक्त सभी पाणिनीय प्रत्याहार ही स्वीकार किये हैं। प्रतीत होता है कि पं० अम्बालाल जी ने वैयाकरण होते हुए भी ३६ वर्ष पूर्व छपे चान्द्र२० व्याकरण को नहीं देखा, और अन्य लेखकों के आधार पर अपना लेख लिख डाला। उपलब्ध चान्द्रतन्त्र सम्पूर्ण इस समय जो चान्द्रव्याकरण जर्मन का छपा उपलब्ध है, वह असम्पूर्ण है। यद्यपि उसके छठे अध्याय के अन्त में समाप्तं चेदं २५ चान्द्रव्याकरणं शुभम् पाठ उपलब्ध होता है, तथापि अनेक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रक्रिया-निदर्शक कोई भाग अवश्य था, जो सम्प्रति अनुपलब्ध है। जिन प्रमाणों से चान्द्र व्याकरण की असम्पूर्णता, और उसमें स्वरप्रक्रिया का सद्भाव ज्ञापित होता है, उन में से कुछ इस प्रकार हैं ३० १. द्र०-पृष्ठ ८१। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पानिणि से अर्वाचीन वैयाकरण ६५१ १–'व्याप्यात् काम्यच्" सूत्र की वृत्ति में लिखा है-'चकारः सतिशिष्टस्वरबापनार्थः-पुत्रकाम्यतीति' । सतिशिष्ट स्वर की बाधा के लिये चकारानुबन्ध करना तभी युक्त हो सकता है, जब कि उस व्याकरण में स्वरव्यवस्था का विधान हो । २-'तव्यनीयर्केलिमरः२ सूत्र की वृत्ति में 'तव्यस्य वा स्वरि- ५ त्वं वक्ष्यामः' पाठ उपलब्ध होता है। पाणिनीय शब्दानुशासन में विभिन्न स्वर की व्यवस्था के लिये 'तव्य' और 'तव्यत्' दो प्रत्यय पढ़े हैं। उनमें यथाक्रम अष्टाध्यायी ३१११३ और ६।१।१८५ से प्रत्ययाद्य. दात्तत्व तथा अन्तस्वरितत्व का विधान किया हैं। इससे विभिन्न स्वरों का विधान कैसे हो, इसके लिये वत्ति में कहा है-'तव्य का विकल्प १० स्वरों से स्वरितत्व कहेंगे'। यहां वृत्तिगत 'वक्ष्यामः' पद का निर्देश तभी उपपन्न हो सकता है, जब सूत्रपाठ में स्वरप्रक्रिया का निर्देश हो, . अन्यथा उसकी कोई आवश्यकता नहीं। ३.-चान्द्रवत्ति १।१।१०८ के 'जनविधोरिगपान्तानां च स्वरं वक्ष्यामः' पाठ में स्वरविधान करने की प्रतिज्ञा की है। १५ ४.-'प्रोद्नाट ठट्' सूत्र की वृत्ति में लिखा है-'स्वरं तु वक्ष्यामः। ५–'अमावसो वा" सूत्र की वृत्ति में 'अनौ वस इति प्रतिषेधानाद्य दात्तत्वम' पाठ उपलब्ध होता है। इसमें 'अमावस्या' शब्द में ण्यत् के अभाव में यत् होने पर आद्य दात्त स्वर की प्राप्ति होती है, २० पर इष्ट है अन्तस्वरितत्व । इसके लिये वृत्तिकार ने 'अनौ वसः' सूत्र को उद्धृत करके प्राद्य दात्त स्वर का प्रतिषेध दर्शाया है । इससे स्पष्ट है कि वृत्तिकार द्वारा उद्धृत 'अनौ वसः' सूत्र चान्द्रव्याकरण में कभी अवश्य विद्यमान था। पाणिनि ने अन्तस्वरितत्व की सिद्धि के लिये 'अमावस्या' और 'अमावास्या' दोनों पदों में एक ण्यत् प्रत्यय का २५ विधान करके वृद्धि का विकल्प किया है।' १. चान्द्रसून १।१ । २३ ॥ २. चान्द्रसूत्र १ । १ । १०५ ।। ३. चान्द्रसूत्र ३ । ४ । ६८॥ ४. चान्द्रसून १।१ । १३४ ॥ ५. अमावसोरहं ग्यतोनिपातयाम्यवृद्धिताम् । तथैकवृत्तिता तयोः स्वरश्च मे प्रसिद्धयति ॥ महाभाष्य ३ । १ । १२२ ॥ ३० Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६-'लिपो नेश्च" सूत्र की वृत्ति में 'स्वरविशेषमष्टमे वक्ष्यामः' लिखा है । इस पाठ में स्पष्ट ही अष्टमाध्याय में स्वरप्रक्रिया का विधान स्वीकार किया है। ७-चान्द्रपरिभाषापाठ में एक परिभाषा है-स्वरविवौ व्यञ्जनमविद्यमानवत् । इस परिभाषा की आवश्यकता ही तब पड़ती है, जब चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रकरण हो, अन्यथा व्यर्थ है। इन सात प्रमाणों से स्पष्ट है कि चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रक्रिया का विधान अवश्य था। षष्ठ प्रमाण से यह स्पष्ट है कि चान्द्र-तन्त्र में आठ अध्याय थे। स्वरप्रक्रिया की विशेष आवश्यकता वैदिक १० प्रयोगों में होती है। अतः प्रतीत होता है कि चान्द्रव्याकरण में वंदिकप्रक्रिया का विधान भी अवश्य था । उपयुक्त षष्ठ प्रमाणानुसार स्वरप्रक्रिया का निर्देश अष्टमाध्याय में था। अतः सम्भव है सप्तमाध्याय में वैदिक प्रक्रिया का उल्लेख हो। इसकी पुष्टि उसके धातुपाठ से भी होती है। चन्द्र ने धातुपाठ में कई वैदिक धातुएं पढ़ो पं० हर्षनाथ मिश्र ने अपने 'चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्' निबन्ध में इस विषय पर विस्तार से लिखा है। हमने तो निदर्शनार्थ कतिपय निर्देश ही संकलित किये थे ।। ____ इस प्रकार स्पष्ट है कि चान्द्रव्याकरण के वैदिक और स्वर२० प्रक्रिया-विधायक सप्तम अष्टम दो अध्याय नष्ट हो चुके हैं । विक्रम को १२ वीं शताब्दी में विद्यमान भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तमदेव से बहुत पूर्व चान्द्रव्याकरण के अन्तिम दो अध्याय नष्ट हो चुके थे । अत एव उस समय के वैयाकरण चान्द्रव्याकरण को लौकिक शब्दानुशासन ही समझते थे । इसीलिये पुरुषोत्तमदेव ने ७ । ३ । ६४ २५ की भाषावृत्ति के 'चन्द्रगोमी भाषासूत्रकारो यङो वेति सूत्रितवान' पाठ में चन्द्रगोमी को भाषासूत्रकार लिखा है । डा० बेल्वाल्कर ने भी १. चान्द्रसूत्र १।१।१४५ ॥ २० चान्द्रपरिभाषा ८६, परिभाषा संग्रह, पृष्ठ ४८ । ३. भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय में ही पहिले वैदिक ३० प्रकरण पढ़ा, तदनन्तर स्वरप्रकरण। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण चान्द्रव्याकरण को केवल लौकिक भाषा का व्याकरण माना है ।' ~ ६५३ अन्तिम अध्यायों के नष्ट होने का कारण जैसे सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रियाग्रन्थों में स्वर वैदिक प्रक्रिया का अन्त में संकलन होने से उन ग्रन्थों के अध्येता स्वरप्रक्रिया को अनावश्यक समझ कर प्रायः छोड़ देते हैं । उसी प्रकार सम्भव है कि ५ चान्द्रव्याकरण के अध्येताओं द्वारा भी उसके स्वर वैदिक प्रक्रियात्मक अन्तिम दो अध्यायों का परित्याग होने से वे शनैः-शनैः नष्ट हो गये । पाणिनि ने स्वर वैदिक प्रक्रिया का लौकिक प्रकरण के साथ-साथ ही विधान किया है, इसलिये उसके ग्रन्थ में वे भाग सुरक्षित रहे । १० अन्य ग्रन्थ १. चान्द्रवृत्ति - इस का वर्णन अनुपद होगा । २. धातुपाठ ४. उणादिसूत्र ३. गणपाठ ५. लिङ्गानुशासन इन ग्रन्थों का वर्णन इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग में यथास्थान किया जायगा । १५ ६. उपसर्गवृत्ति - इसमें २० उपसर्गों के अर्थ और उदाहरण हैं । यह केवल तिब्बती भाषा में मिलता है । ' ७. शिक्षासूत्र - इसमें वर्णोच्चारणशिक्षा सम्बन्धी ४८ सूत्र हैं । इसका विशेष विवरण 'शिक्षा शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ में लिखेंगे । इस शिक्षा का एक नागरी संस्करण हमने गत वर्ष' प्रकाशित किया २० है । १. सिस्टम्स् अफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं ० ४४ ॥ २. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा, नं० ४५ । ३. वि० सं० २००६ में । द्वितीय संस्करण सं० २०२४ में । ८. कोष — कोषग्रन्थों की विभिन्न टीकानों तथा कतिपय व्या करणग्रन्थों में चन्द्रगोमी के ऐसे पाठ उधृत हैं, जिन से प्रतीत होता है. कि चन्द्रगोमी ने कोई कोष ग्रन्थ भी रचा था । उज्ज्वलदत्त ने उणादिवृत्ति में चान्द्रकोश के अनेक उद्धरण उद्- २५ घृत किए हैं । उणादिवृत्ति में चान्द्रकोश का एक वचन निम्न प्रकार उद्धृत किया है— ३० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास 'काशाकाशदशाङ्कुशम्' इति तालव्यान्ते चन्द्रगोमी । इस उल्लेख से ध्वनित होता है कि चान्द्रकोश का संकलन मातृकानुसार वर्णान्त्यक्रम से था । उणादिसूत्रों में भी इसी क्रम को स्वीकार किया है ।' ६५४ डा० बेल्वाल्कर ने चन्द्रगोमी विरचित 'शिष्यलेखा' नामक धार्मिक कविता तथा 'लोकानन्द' नामक नाटक का भी उल्लेख किया / है ।' डा० हर्षनाथ मिश्र ने प्रार्थसाधनशतकम् ( काव्य और श्रार्यतारान्तरवलि विधि नाम के ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है । " चान्द्रवृत्ति Y निश्चय ही चान्द्रसूत्रों पर अनेक विद्वानों ने वृत्तिग्रन्थ रचे होंगे, परन्तु सम्प्रति वे अप्राप्य हैं। इस समय केवल एक वृत्ति उपलब्ध है, जो जर्मन देश में रोमन अक्षरों में मुद्रित है।* उपलब्ध वृत्ति का रचयिता यद्यपि रोमनाक्षर मुद्रित वृत्ति के कुछ कोशों में 'श्रीमदाचार्यधर्मदासस्य कृतिरियम्' पाठ उपलब्ध होता है, तथापि हमारा विवार है कि उक्त वृत्ति धर्मदास की कृति नहीं है, वह प्राचार्य चन्द्रगोमो की स्वोपज्ञवृत्ति है । हमारे इस विचार के पोषक निम्न प्रमाण हैं १ - विक्रम की १२ वीं शताब्दी का जैन ग्रन्थकार वर्धमान सूरि २० लिखता है - १. द्र० - पूर्व पृष्ठ ६४७ । २. सिस्टम्स् ग्राफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं०.४५ । ३. चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्यनम्, पृष्ठ ७ । ४. पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह ने इण्डियन एण्टीक्वेरी भाग २५, पृष्ठ १०६ के आधार पर लिखा है कि चान्द्रव्याकरण पर लगभग १५ वृत्ति व्या२५ स्थान आदि लिखे गये । श्री जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ७, दीपोत्सवी अंक (१९४९) पृष्ठ ८१ । ५. डा० ब्रुनो ने तिब्बती से इसका अनुवाद किया है। उन्होंने उसे सन् १९०२ में लिपिजिग में छपवाया है। सिस्टम्स् ग्राफ संस्कृत ग्रामर, पैरा० नं ० ४२ । ६. चान्द्रवृत्ति जर्मन संस्करण, पृष्ठ ५१३ । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६५५ 'चन्द्रस्तु सौहृदमिति हृदयस्याणि हृदादेशो न हृदुत्तरपदम्, हृद्भगेत्युत्तरपदादैजभावमाह।" चान्द्रवृत्ति ६ । १ । २९ में यह पाठ इस प्रकार है'सौहृदमिति हृदयस्याणि हृदादेशो, हृदुत्तरपदम् ।' २-वही पुनः लिखता है'मन्तूज़ - मन्तूयति मन्तूयते इति चन्द्रः । यह पाठ चान्द्रव्याकरण १ । १ । ३६ की टीका में उपलब्ध होता ३-सायणाचार्य ने भी उपर्युक्त पाठ को चन्द्र के नाम से उद्धृत किया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कई स्थानों में वर्धमान और १० सायण ने इस चान्द्रवृत्ति को चान्द्र के नाम से उद्धृत किया है ।। अथवा यह सम्भव हो सकता है कि धर्मदास ने चान्द्रवृत्ति का ही . उसी के शब्दों में संक्षेप किया हो। इस पक्ष में भी प्राचार्य चन्द्र की स्वोपज्ञवृत्ति का प्रामाण्य तद्वत् ही रहता है। ___ कश्यप भिक्षु (सं० १२५७) बौद्ध भिक्षु कश्यप ने सं० १२५७ के लगभग चान्द्र सूत्रों पर वृत्ति लिखी। इसका नाम 'बालबोधिनी' है। यह वत्ति लंका में बहत प्रसिद्ध है। डा. बेल्वाल्कर ने लिखा है कि कश्यप ने चान्द्रव्याकरण के अनुरूप बालावबोध' नामक व्याकरण लिखा, वह वरदराज की लघुकौमुदी से मिलता जुलता है। हम इस के विषय में कुछ नहीं २० जानते। चान्द्रव्याकरण के विषय जो महानुभाव विस्तार से जानना चाहें वे डा. हर्षनाथ मिश्र का 'चान्द्रव्याकरणवत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्' नामक शोध प्रबन्ध देखें। २५ - १. गणरत्नमहोदधि पृष्ठ २२७ । २. गणरत्नमहोदधि पृष्ठ २४२ । ३. धातुवृत्ति पृष्ठ/४०४। ४. कीथ विरचित 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' पृष्ठ ४३१ । ५, सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर पैराग्राफ नं० ४६ । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३. क्षपणक (वि० प्रथम शताब्दी) व्याकरण के कतिपय ग्रन्यों में कुछ उद्धरण ऐसे उपलब्ध होते हैं, जिन से क्षपणक का व्याकरण-प्रवक्तृत्व ब्यक्त होता है । यथा 'अत एव नावमात्मानं मन्यते इति विगृह्य परत्वादनेन ह्रस्वत्वं बाधित्वा अमागमे सति नावंमन्ये क्षपणकव्याकरणे दर्शितम ।" इसी प्रकार तन्त्रप्रदीप में भी क्षपणकव्याकरणे महान्यासे' उल्लेख मिलता है। इन निर्देशों से स्पष्ट है कि किसी क्षपणक नामा वैयाकरण ने कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था । परिचय तथा काल कालिदासविरचित 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक ग्रन्थ में विक्रम को सभा के नवरत्नों के नाम लिखे हैं। उन में एक अन्यतम नाम क्षपणक भी हैं। कई ऐतिहासिकों का मत है कि जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का ही दूसरा नाम क्षपणक है। सिद्धसेन दिवाकर विक्रम का समकालिक है,यह जैन ग्रन्यों में प्रसिद्ध है । सिद्धसेन अपने समय का महान् पण्डित था । जैन आचार्य देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्र नामक व्याकरण में प्राचार्य सिद्धसेन का व्याकरण विषयक एक मत उदधत किया है। उससे प्रतीत होता है कि सिद्धसेन दिवाकर ने कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था। अतः बहत सम्भव है, क्षपणक १. और सिद्धसेन दिवाकर दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हों। यदि यह ठीक हो, तो निश्चय ही क्षपणक महाराज विक्रम का समकालिक होगा। प्राचीन वैयाकरणों के अनुकरण पर क्षपणक ने भी अपने शब्दानु१. तन्त्रप्रदीप १॥ ४॥ ५५ ॥ भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६३ पर २५ उद्धृत । २. तन्त्रप्रदीप, धातुप्रदीप की भूमिका में ४।१ । १५५ संख्या निर्दिष्ट है, पुरुषोतमदेव ने परिभाषावृत्ति की भूमिका में ४ । १ । १३५ संख्या दी है । ३. धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहशङ्खुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः । ख्यातो वराहमिहरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।। २० । १० ।। ४. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० २४४ । ५. वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५।१।७॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ आचार्य पाणिनि से अचीन वैयाकरण : ६५७ शासन के धातुपाठ, उणादिसूत्र आदि अवश्य रचे होंगे। परन्तु उन का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता। उज्ज्वलदत्तविरचित उणादिवृत्ति में क्षपणक के नाम से एक ऐसा पाठ उद्धृत है, जिससे प्रतीत होता है कि क्षपणक ने उणादिसूत्रों की कोई व्याख्या रची थी। वे सूत्र निश्चय ही उसके स्व-प्रोक्त होंगे। स्वोपनवृत्ति क्षपणक-विरचित उणादिवृत्ति का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। उससे सम्भावना होती है कि क्षपणक ने अपने शब्दानुशासन पर भी कोई वृत्ति अवश्य रची होगी। मैत्रेयरक्षित ने तन्त्रप्रदीप में लिखा _ 'प्रत एव नावमात्मानं मन्यते इति विग्रहपरत्वादनेन ह्रस्वत्वं बाधित्वा प्रमागमे सति 'नावंमन्ये' इति श्रपणकव्याकरणे दर्शितम्' । ___ यह पाठ निश्चय ही किसी क्षपणक-वृत्ति से उद्धृत किया गया क्षपणक महान्यास मैत्रेयरक्षित ने तन्त्रप्रदीप ४।१। १५५ वा १३५३ में 'क्षपणक महान्यास' को उद्धृत किया है । यह ग्रन्थ किसकी रचना है, यह अज्ञात है । 'महान्यास' में लगे हुए 'महा' विशेषण से व्यक्त है कि 'क्षपणक' व्याकरण पर कोई न्यास ग्रन्थ भी रचा गया था। . क्षपणक-व्याकरण के सम्बन्ध में हमें इससे अधिक कुछ ज्ञात २० नहीं। ४. देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) आचार्य देवनन्दो अपर नाम पूज्यपाद ने 'जनेन्द्र' संज्ञक एक शब्दानुशासन रचा है । आचार्य देवनन्दी के काल आदि के विषय में २५ हम 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में विस्तार से लिख चुके हैं। १. क्षपणकवृत्ती पत्र 'इति' शब्द आद्यर्थे व्याख्यातः। पृष्ठ ६० । २. द्र०—पूर्व पृष्ठ ६५६ टि० १। ३. द्र०-पूर्व पृष्ठ ६५६, टि० २ । ४. द्र०-पूर्व पृष्ठ ४८६-४६७। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास जैनेन्द्र नाम का कारण अनुश्रुति - विनय विजय और लक्ष्मीवल्लभ आदि १८ वीं शती के जैन विद्वानों ने भगवान् महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त होने से इसका नाम जैनेन्द्र हुआ ऐसा माना हैं । डा० कीलहार्न ने भी कल्पसूत्र की समय सुन्दर कृत टीका और लक्ष्मीवल्लभ कृत उपदेश- मालाकर्णिका के आधार पर इसे महावीरप्रोक्त स्वीकार किया है।' ६५८ हमारे विचार में ये सब लेख जैनेन्द्र में बर्तमान ' इन्द्र' पद की भ्रान्ति से प्रसूत हैं । वास्तविक कारण - जैनेन्द्र का अर्थ है - जिनेन्द्रेण प्रोक्तम् ग्रर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रोक्त । जैनेन्द्र व्याकरण देवनन्दी प्रोक्त है, यह पूर्णतया प्रमाणित हो चुका है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्राचार्य देव१५ नन्दी पर नाम पूज्यपाद का एक नाम जिनेन्द्र भी था । जैनेन्द्र व्याकरण के दो संस्करण ३० हरिभद्र ने आवश्यकीय सूत्रवृत्ति में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त व्याकरण का नाम ऐन्द्र है ऐसा लिखा है । ' जैनेन्द्र व्याकरण के सम्प्रति दो संस्करण उपलब्ध होते हैं । एक प्रौदीच्य, दूसरा दाक्षिणात्य । प्रौदीच्य संस्करण में लगभग तीन 1 सहस्र सूत्र हैं, और दाक्षिणात्य संस्करण में तीन सहस्र सात सौ सूत्र २० उपलब्ध होते हैं । दाक्षिणात्य संस्करण में न केवल ७०० सूत्र ही अधिक हैं, अपितु शतश: सूत्रों में परिवर्तन और परिवर्धन भी उपलब्ध होता हैं । प्रौदीच्य संस्करण की अभयनन्दी कृत महावृत्ति में बहुत से वार्तिक मिलते हैं, परन्तु दाक्षिणात्य संस्करण में वे वार्तिक प्रायः सूत्रान्तर्गत हैं । अतः यह विचारणीय हो जाता है कि पूज्यपाद२५ विरचित मूल सूत्रपाठ कौन सा है । जैनेन्द्र का मूल सूत्रपाठ जैनेन्द्र व्याकरण के दाक्षिणात्य संस्करण के संपादक पं० श्रीलाल शास्त्री ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दाक्षिणात्य संस्करण १. 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ २२-२४ (द्वि० सं०) । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण - ६५६ । ही पूज्यपादविरचित है। उन्होंने इस विषय में जो हेतु दिये हैं, उनमें मुख्य हेतु इस प्रकार हैं___ तत्त्वार्थसूत्र ११६ की स्वविरचित सर्वार्थसिद्धि' नाम्नी व्याख्या में पूज्यपाद ने लिखा है कि प्रमाणनयरधिगमः' सूत्र में अल्पान्तर होने से नय शब्द का पूर्व प्रयोग होना चाहिये, परन्तु अहित होने से ५ बह्वच प्रमाण शब्द का पूर्व प्रयोग किया है। जैनेन्द्र व्याकरण के औदीच्य संस्करण में इस प्रकार का कोई लक्षण नहीं है, जिससे बह्वच् प्रमाण शब्द का पूर्व निपात हो सके । दाक्षिणात्य संस्करण में इस अर्थ का प्रातिपादक 'अय॑म्" सूत्र उपलब्ध होता है। अतः दाक्षिणात्य संस्करण ही पूज्यपाद विरचित है।' - पं० श्रीलालजी का यह लेख प्रमाणशून्य है । यदि दाक्षिणात्य संस्करण ही पूज्यपादविरचित होता, तो वे 'अभ्यहितत्वात्' ऐसा न लिखकर 'अय॑त्वात्' लिखते । पूज्यपाद का यह लेख ही बता रहा है कि उनकी दृष्टि में 'अय॑म्' सूत्र नहीं है। उन्होंने पाणिनीय व्याकरण के 'अभ्यहितं च' वार्तिक को दृष्टि में रखकर 'अभ्यहितत्वात्' १५ लिखा है । सर्वार्थसिद्धि में अन्यत्र भी कई स्थानों में अन्य वैयाकरणों । के लक्षण उद्धृत किये हैं । यथा १-तत्त्वार्थसूत्र ५।४ की सर्वार्थसिद्धि टीका में नित्य शब्द के निर्वचन में 'नेध्रुवे त्यः' वचन उद्धृत किया है। यह 'त्यब् नेवे वक्तव्यम्' इस कात्यायन वार्तिक का अनुवाद है। जैनेन्द्र व्याकरण २० में इस प्रकरण में 'त्य' प्रत्यय ही नहीं है। इसलिये अभयनन्दी ने 'ड्ये स्तुट च" सूत्र की व्याख्या में 'नेबुवः' उपसंख्यान करके नित्य शब्द की सिद्धि दर्शाई है। दाक्षिणात्य संस्करण में नित्य शब्द की व्युत्पति ही उपलब्ध नहीं होती। ___तत्त्वार्थसूत्र ४।२२ की सर्वार्थसिद्धिटीका में 'Qतायां तपरकरणे २५ मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम्' वचन पढ़ा है । यह पाणिनि के 'तपरस्तत्कालस्य सूत्र पर कात्यायन का वात्तिक है। अतः दाक्षिणात्य संस्करण में केवल 'अभ्यहितं च' के समानार्थक १ शब्दागवन्द्रिका १।३।१५॥ २. शब्दार्णवचन्द्रिका की भूमिका । ३. वात्तिक ४ । २ । १०४ ॥ ४.३ । २ । ८१ ॥ ५. अष्टा० ११११७०॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'अय॑म्' सूत्र की उपलब्धि होने वह पूज्यपादविरचित नहीं हो सकता। अब हम एक ऐसा प्रमाण उपस्थित करते हैं, जिससे इस विवाद का सदा के लिये अन्त हो जाता है । और स्पष्टतया सिद्ध हो जाताहै कि प्रौदीच्य संस्करण ही पूज्यपाद विरचित है, न कि दाक्षिणात्य संस्करण । यथा. 'पादावुपज्ञोपक्रम" सूत्र के दाक्षिणात्य संस्करण की शब्दार्णवचन्द्रिका टीका में 'देवोपज्ञमनेकशेषव्याकरणम्' उदाहरण उपलब्ध होता है। यह उदाहरण औदीच्य संस्करण की अभयनन्दी की महावृत्ति में भी मिलता है । इस उदाहरण से व्यक्त है कि देवनन्दी विरचित व्या१० करण में एकशेष प्रकरण नहीं था। दाक्षिणात्य संस्करण में 'चार्थे द्वन्द्वः सूत्र के अनन्तर द्वादशसूत्रात्मक एकशेष प्रकरण उपलब्ध होता है । औदीच्य संस्करण में न केवल एकशेष प्रकरण का अभाव ही है, अपितु उसकी अनावश्यकता का द्योतक सूत्र भी पड़ा है-स्वाभावि कत्वादभिधानस्यकशेषानारम्भः' । अर्थात् अर्थाभिधानशक्ति के स्वा१५ भाविक होने से एकशेष प्रकरण नहीं पढ़ा। इस प्रमाण से स्पष्ट है कि पूज्यपादविरचित मूल ग्रन्थ वही है, जिस में एकशेष प्रकरण नहीं है । और वह औदीच्य सस्करण ही है, न कि दाक्षिणात्य संस्करण । वस्तुतः दाक्षिणात्य संस्करण जैनेन्द्र व्याकरण का परिष्कृत रूपान्तर है। इसका वास्तविक नाम 'शब्दार्णव व्याकरण' है। पहले हम पूज्यपाद के मूल जैनेन्द्र व्याकरण अर्थात् औदीच्य संस्करण के विषय में लिखते हैं जैनेन्द्र व्याकरण की विशेषता - हम ऊपर लिख चुके हैं कि जैनेन्द्र के दोनों संस्करणों की टीकाओं में देवोपज्ञमनेकशेषव्याकरणम्" उदाहरण मिलता है । इस उदाहरण २० से व्यक्त होता है कि एकशेष प्रकरण से रहित व्याकरणशास्त्र की १ औदीच्य सं० ११४६७॥ दा० सं० १।४।११४॥ २. दा० सं० ११३॥६६॥ ३. औदीच्य सं० १।१।९७ सम्पादक के प्रमाद से मुद्रित ग्रन्थ में यह सूत्र वृत्त्यन्तर्गत ही छपा है । देखो पृष्ठ ५२ । ४. औ० सं० ११४६७॥ दा० स० १।४।११४॥ ३० Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण । रचना सब से पूर्व आचार्य देवनन्दी ने की है । अतः जैनेन्द्रव्याकरण की विशेषता 'एकशेष प्रकरण न रखना है' । परन्तु यह विशेषता जैनेन्द्र व्याकरण की नहीं है, और ना ही प्राचार्य पूज्यपाद की स्वो - पज्ञा है । जैनेन्द्र व्याकरण से कई शताब्दी पूर्व रचित चान्द्रव्याकरण में भी एकशेष प्रकरण नहीं है । चन्द्राचार्य को एकशेष की अना- ५ वश्यकता का ज्ञान महाभाष्य से हुआ । उसमें लिखा है - 'प्रशिष्य एकशेष एकेनोक्तत्वात् श्रर्थाभिधानं स्वाभाविकम्' ।' अर्थात् शब्द की अर्थाभिधान शक्ति के स्वाभाविक होने से एक शब्द से भी अनेक अर्थों की प्रतीत हो जाती है, अतः एकशेष प्रकरण अनावश्यक है । महाभाष्य से प्राचीन अष्टाध्यायी की माथुरी वृत्ति के अनुसार भगवान् पाणिनि ने स्वयं एकशेष की प्रशिष्यता का प्रतिपादन किया था । अतः एकशेष प्रकरण को न रखना जैनेन्द्रव्याकरण की विशेषता नहीं है, यह स्पष्ट है | प्रतीत होता है कि टीकाकारों ने प्राचीन चान्द्रव्याकरण और महाभाष्य आदि का सम्यग् अनुशीलन नहीं किया । अत एव उन्होंने जैनेन्द्र की यह विशेषता लिख दी । १० ६६१ १५ जैनेन्द्र व्याकरण की दूसरी विशेषता अल्पाक्षर संज्ञाएं कही जा सकती हैं, परन्तु यह भी प्राचार्य देवनन्दी की स्वोपज्ञा नहीं है । पाणिनीय तन्त्र में भी 'घ' 'घु' 'टि' आदि अनेक एकाच् संज्ञाएं उपलब्ध होती हैं । शास्त्र में लाघव दो प्रकार होता है - शब्दकृत और अर्थकृत । शब्दकृत लाघव की अपेक्षा अर्थकृत लाघव का महत्त्व २० विशेष है । अतः परम्परा से लोकप्रसिद्ध बह्वक्षर संज्ञानों के स्थान में नवीन अल्पाक्षर संज्ञाएं बनाने में किंचित् शब्दकृत लाघव होने पर भी प्रार्थकृत गौरव बहुत बढ़ जाता है, और शास्त्र विलष्ट हो जाता है । त एव पाणिनीय तन्त्र की अपेक्षा जैनेन्द्र व्याकरण क्लिष्ट है । पञ्चाङ्ग व्याकरण-जैनेन्द्र व्याकरण सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, १. तुलना करो - पाणिन्युपज्ञमकालकं व्याकरणम् । काशिका २।४।२१।। 'चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम् । चान्द्रवृत्ति २।२।६८ । २५ २. महाभाष्य ११२ ॥६४॥ ३. माथुर्यां तु वृत्तावशिष्यग्रहणमापादमनुवर्तते । भाषावृत्ति १ । २।५० ।। देखो पूर्व पृष्ठ ४८४ ॥ ३० ४. देखो पूर्व पृष्ठ २४६, टि०५ । . Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन सहित पांच अङ्गों से पूर्ण व्याकरण है। धातुपाठ आदि का वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा। - जैनेन्द्र व्याकरण का आधार जैनेन्द्र व्याकरण का मुख्य आधार पाणिनीय व्याकरण है, कहीं ५ कहीं पर चान्द्र व्याकरण से भी सहायता ली है। यह बात इनकी पारस्परिक तुलना से स्पष्ट हो जाती है । जैनेन्द्र व्याकरण में पूज्यपाद ने श्रीदत,' यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्रः इन ६ प्राचीन जैन आचार्यों का उल्लेख किया है। 'जैन साहित्य और इतिहास' के लेखक पं० नाथूरामजी प्रेमी का मत है कि १० इन प्राचार्यों ने कोई व्याकरणशास्त्र नहीं रचा था। हमारा विचार है कि उक्त आचार्यों ने व्याकरणग्रन्थ अवश्य रचे थे। जैनेन्द्र व्याकरण के व्याख्याता जैनेन्द्र व्याकरण पर अनेक विद्वानों ने व्याख्याएं रची। आयश्रतकीत्ति पञ्चवस्तुप्रक्रिया के अन्त में जैनेन्द्र व्याकरण की विशाल १५ राजप्रासाद से उपमा देता है। उसके लेखानुसार इस व्याकरण पर न्यास, भाष्य, वत्ति और टीका आदि अनेक व्याख्याएं लिखी गई । उनमें से सम्प्रति केवल ४, ५ व्याख्याग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। १-देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) हम 'अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में लिख चुके हैं कि २० आचार्य देवनन्दी ने अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र संज्ञक न्यास लिखा था। यह न्यास ग्रन्थ सम्प्रति अनुपलब्ध है। १. गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् । १ । ४ । ३४ ॥ २. कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य २ । १ । ६६ ॥ ३. राद् भूतबलेः । ३ । ४ । ८३ ॥ ४. रात्रैः कृति प्रभाचन्द्रस्य । ४ । ३ । १८० ॥ ५. वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५। १ । ७ ॥ ६. चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ५ । ४ । १४० ॥ ७. द्र० पूर्व पृष्ठ ६१० । ८. सूत्रस्तम्भसमुदधृतं प्रविलसन् न्यासोरूरत्नक्षितिः श्रीमद्वत्तिकपाटसंपूटयुगं भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामालमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमं प्रासाद ३० पृथु पञ्ववस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् । ६. पूर्व पृष्ठ ४६० । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६३ २-अभयनन्दी (सं० ९७४-१०३५ वि०) अभयनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण पर एक विस्तृत वृत्ति लिखी है। यह 'महावृत्ति' के नाम से प्रसिद्ध है । इस वृत्ति का परिमाण १२००० बारह सहस्र श्लोक है । ग्रन्थकार ने अपना कुछ भी परिचय स्व-ग्रन्थ में नहीं दिया। अतः अभयनन्दी का देश काल अज्ञात है। ५ पूर्वापर काल में निर्मित ग्रन्थों में निर्दिष्ट रद्धरणों के आधार पर अभयनन्दी का जो काल माना जा सकता है, उसकी उपपत्ति मीचे दर्शाते हैं । यथा १-अभयनन्दी कृत महावृत्ति ३ । २ । ५५ में 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीते' उदाहरण मिलता है । तत्त्वार्थवार्तिक भट्ट अकलङ्क की रचना १० है। अकलङ्क का काल वि० सं० ७०० के लगभग है।' यह इसकी पूर्व सीमा है। ___ २-वर्धमान ने 'गणरत्नमहोदधि' (काल ११९७ वि०) में अभयनन्दी स्वीकृत पाठ का निर्देश किया है। अतः अभयनन्दी वि० सं० ११६७ से पूर्ववर्ती है। यह इसकी उत्तर सीमा है। १५ . ३-प्रभाचन्द्राचार्य ने 'शब्दाम्भोजभास्कर-न्यास' के तृतीय अध्याय के अन्त में अभयनन्दी को नमस्कार किया है। शब्दाम्भोजभास्कर-न्यास का रचनाकाल सं० १११०-११२५ तक है, यह हम अनुपद लिखेंगे । अतः अभयनन्दी सं० १११० से पूर्ववर्ती है, यह स्पष्ट __ ४-चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्ता वीरनन्दी का काल सं० १०३५ (शकाब्द ६००) के लगभग है। वीरनन्दी की गुरुपरम्परा इस प्रकार है १. अकलङ्क चरित में प्रकलङ्क का बौद्धों के साथ महान् वाद का काल विक्रमाब्द शताब्दीय ७०० दिया है। भारतबर्ष का बृहद् इतिहास भाग १, २५ पृष्ठ १२४, द्वि० सं० । संस्कृत-साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १७३ में ई० सन् ७५० लिखा है। २. जैन अभयनन्दिस्वीकृतो पितृकमातृक शब्दावपि संगृहीतौ । ३. जैन साहित्य और इतिहास, प्र० सं० पृष्ठ १११; द्वि० सं० पृष्ठ ३८ । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्रीगणनन्दी विबुधनन्दी. अभयनन्दी वीरनन्दी .. - यदि वीरनन्दी का गुरु अभयनन्दी ही महावृत्ति का रचयिता हो, तो उसका काल सं० १०३५ से पूर्व निश्चित है । १० ५-श्री अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने अभयनन्दी का काल ई० सन् ६६० (=वि० सं० १०१७) के लगभग माना है।' ६ -डा० बेल्वाल्कर ने अभयनन्दी का काल ई० सन् ७५० (वि० सं० ८०७) स्वीकार किया है।' इन सब प्रमाणों के आधार पर हमारा विचार है कि अभयनन्दी १५ का काल सामान्यतया वि० सं० ८००-१०३५ के मध्य है। बहुत सम्भव है कि वीरनन्दी का गुरु ही महावृत्तिकार अभयनन्दी हो, उस अवस्था में अभयनन्दी का काल वि० सं० ६७५-१०३५ के मध्य युक्त होगा। 'पाल्यकीति प्रोक्त शाकटायन-तन्त्र की स्वोपज्ञ अमोघा वृत्ति का २० अभयनन्दी विरचित महावृत्ति के साथ तुलना करने से ज्ञात होता है कि अमोघावृत्ति पर जैनेन्द्र महावृत्ति का बहुत प्रभाव है । अतः अभयनन्दी का काल पाल्यकीर्ति (वि० सं० ८७१-६२४) से पूर्व होना चाहिये। .. ... महावृत्ति का नवीन संस्करण-अभयनन्दी कृत सम्पूर्ण महावृत्ति २५ का संस्करण सं० २०१३ में 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' से छपा है । सम्पादक को जैनेन्द्र व्याकरण का ज्ञान न होने से यह संस्करण बहुत्र अशुद्ध मूद्रित हुया है। द्र० इस संस्करण के प्रारम्भ में मुद्रित हमारा 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन और उस के खिलपाठ' शीर्षक लेख (पृष्ठ ५३ ५४) । इस संस्करण में सब से भारी भूल यह रही कि जैनेन्द्र के . ३० १. जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ७, दीपोत्सवी अक (१६४१) पृष्ठ ८३ । २. सिस्टम्स् श्राफ संस्कृत ग्रामर, पैरा ५० । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६५ प्रत्याहार सूत्रों का मुद्रण ही नहीं हुअा । द्र० इसी संस्करण के प्रारम्भ में मुद्रित 'दो शब्ब' पृष्ठ १४ ।। ३-प्रभाचन्द्राचार्य (सं० १०७५-११२५ वि०) प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने जैनेन्द्र व्याकरण पर 'शब्दाम्भोजभास्करन्यास' नाम्नी महती व्याख्या लिखी है । शब्दाम्भोजभास्कर की ५ पुष्पिका के लेख से विदित होता है कि प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने इस व्याख्या का प्रणयन जयदेवसिंह के राज्यकाल में किया था। प्रभाचन्द्राचार्य मालवा के धारानगरी के निवासी थे। यह व्याख्या अभयनन्दी की महावृत्ति से भी विस्तृत है । इस. का परिमाण १६०० सोलह सहस्र श्लोक माना जाता है। परन्तु इस समय समग्र उपलब्ध नहीं होती। १० इस की अ० ४, पाद ३, सूत्र २११ तक की ही हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त होती हैं । __प्रभाचन्द्र ने 'शब्दाम्भोजभास्करन्यास' के तृतीय अध्याय के अन्त में अभयनन्दी को नमस्कार किया है । अतः यह अभयनन्दी से उत्तरवर्ती है, यह स्पष्ट है। __ प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र का कर्ता भी यही प्रभाचन्द्र है, क्योंकि उसने इन दोनों ग्रन्थों में निरूपित अनेकान्त चर्चा का उल्लेख शब्दाम्भोजभास्करन्यास के प्रारम्भ में किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड के अन्तिम लेख मे. विदित होता है कि प्रभाचन्द्र ने यह १. श्रीजयदेवसिंहराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना. परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रमाणोपाजितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाषन्द्रपण्डितेन । शब्दाम्भोजभास्कर की पुष्पिका लेख । द्र०-श्री जैन सत्यप्रकाश' पत्रिका वर्ष ७ अंक १-२-३ (दीपोत्सवी मक) पृष्ठ ८३ । २. इसी पृष्ठ की टि० १-५, तथा पृष्ठ ६६६ की टि० ३। ३. सं० प्रा० जैन व्याकरण और कोश की परम्परा, पृष्ठ ५६ । । ४. वही, पृष्ठ ५६ । ५ कोऽयमनेकान्तो नामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वंसामान्यासामान्याधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावी यस्यार्थस्यासावनेकान्त: अनेकान्तात्मक इत्यर्थः.....तथा प्रपंचतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र च प्रतिमिरूपितमिह द्रष्टव्यम् । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ग्रन्थ महाराज भोज के काल में रचा है।' महाराज भोज का राज्यकाल सं० १०७८-१११० तक है। प्रभाचन्द्र ने आराधनाकयाकोश भोज के उत्तराधिकारी जयदेवसिंह के राज्यकाल में लिखा है।' शब्दाम्भोजभास्करन्यास की रचना भी महाराज जयदेवसिंह के काल ५ में ही हुई, यह उसकी पुष्पिका के लेख से विदित होता है। ... ____ इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र का काल सामान्यतया सं० १०७५-११२५ तक मानना चाहिये । ४-भाष्यकार ? (सं० १२०० वि० से पूर्व) ... आर्य श्रुतकीति अपनी पञ्चवस्तु प्रक्रिया के अन्त में लिखता - 'वृत्तिकपाटसंपुटयुगं भाष्योऽथ शय्यातलम'। इस से विदित होता है कि जैनेन्द्र व्याकरण पर कोई भाष्य नाम्नी व्याख्या लिखी गई थी। इसके लेखक का नाम अज्ञात है, और यह भाष्य भी सम्प्रति अनुपलब्ध है। १५ आर्य श्रुतकीर्ति का काल विक्रम की १२ वीं शती का प्रथम चरण है, यह हम इसी प्रकरण में अनुपद लिखेंगे । अतः उसके द्वारा स्मृत भाष्य का रचयिता वि० सं० १२०० से पूर्व भावी होगा, इतना निश्चित है। , ५-महाचन्द्र (२० वीं शताब्दी वि०) ... २० पण्डित महाचन्द्र ने लघु जैनेन्द्र नाम्नी एक वृत्ति लिखी है। यह ग्रन्थ विक्रम की २० वीं शताब्दी का है। यह वृत्ति अभयनन्दी की महावृत्ति के आधार पर लिखी गई है। १. श्रीमद्भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रमाणाजितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलकेन , श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन २५ निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति । __२ श्रीमज्जयदेवसिंहराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना ... श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः। ., ३. श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना . परापरपरमेष्ठिप्रणामोपाजितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभावचन्द्रपण्डितेनु । शब्दा३० म्भोजभास्करपुष्पिका नो लेख । 'श्री जैन सत्यप्रकाश' वर्ष ७ दीपोत्सवी अंक । पृष्ठ ८३ टि. ३४। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६७ प्रक्रियाग्रन्थकार १-प्रार्य श्रुतकीति (सं० १२२५ वि०). ___आर्य श्रुतकीर्ति ने जैनेन्द्र व्याकरण पर 'पञ्चवस्तु' नामक प्रक्रियाग्रन्थ रचा है । कन्नड़ भाषा के चन्द्रप्रभचरित के कर्ता अग्गलदेव ने श्रुतकीत्ति को अपना गुरु लिखा है । चन्द्रप्रभचरित की रचना ५ शकाब्द १०११ (वि० सं० ११४६) में हुई है। यदि अग्गलदेव का गुरु श्रुतकीर्ति ही पञ्चवस्तुप्रक्रिया ग्रन्थ का रचयिता हो, तो श्रुतिकीर्ति का काल विक्रम की १२ वीं शताब्दी का प्रथम चरण होगा । नन्दी संघ की पट्टावली में किसी श्रुतकीति को वैयाकरण भास्कर .. कहा गया है-विद्यश्रुतकीयाख्यो वैयाकरणभास्करः।' हमारे १० विचार में विद्यश्रुतकीति आर्य श्रुतकीर्ति से भिन्न उत्तर कालिक व्यक्ति है। २-वंशीधर (२० वीं शताब्दी वि०) पं० वंशीधर ने अभी हाल में जैनेन्द्रप्रक्रिया ग्रन्थ लिखा है। इसका केवल पूर्वार्ध ही प्रकाशित हुआ है। . १५ जैनेन्द्र व्याकरण का दाक्षिणात्य संस्करण - जैनेन्द्र व्याकरण का 'दाक्षिणात्य संस्करण' के नाम से जो ग्रन्थ प्रसिद्ध है, वह प्राचार्य देवनन्दी की कृति नहीं है, यह हम सप्रमाण लिख चुके हैं । इस ग्रन्थ का बास्तविक नाम 'शब्दार्णव' है। शब्दार्णव का संस्कर्ता-गुणनन्दी (सं० ९१०-९६० वि०) २० ___प्राचार्य देवनन्दी के जनेन्द्र व्याकरण में परिवर्तन और परिवर्धन करके उसे नवीन रूप में परिष्कृत करने वाला आचार्य गुणनन्दी है । इसमें निम्न हेतु हैं १-सोमदेव सूरि ने 'शब्दार्णव' पर 'चन्द्रिका' नाम्बी लघ्वी टीका लिखी है। उसके अन्त में वह अपनी टीका को गणनन्दी विर- २५ चित शब्दार्णव में प्रवेश करने के लिये नौका समान लिखता है ।' १. सं० प्रा० जैन व्या० और कोश की परम्परा- पृष्ठ ५७ । । २. श्रीसोमदेवयतिनिर्मितमादधाति या नौः प्रतीवगुणनन्दितशब्दार्णवाब्धौ । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास टीका का 'शब्दार्णवचन्द्रिका' नाम भी तभी उपपन्न होता है जब कि मूल ग्रन्थ का नाम 'शब्दार्णव' हो। २. जैनेन्द्रप्रक्रिया के नाम से प्रकाशित ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक में लिखा है-गुणनन्दी ने जिसके शरीर को विस्तृत किया है, उस शब्दा५ णव में प्रवेश करने के लिये यह प्रक्रिया साक्षात् नौका के समान है ।' इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य गुणनन्दी ने ही मूल जैनेन्द्र व्याकरण में परिवर्तन और परिवर्धन करके उसे इस रूप में सम्पादित किया है और गुणनन्दी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ का नाम 'शब्दार्णव' है। अत एव सोमदेव सूरि ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में पूज्यपाद के १० साथ गुणनन्दी को भी नमस्कार किया है। इसी प्रकार 'शब्दार्णव' के धातुपाठ में चुरादिगण के अन्त में गुणनन्दी का नामोल्लेख भी तभी सुसम्बद्ध हो सकता है, जब कि शब्दार्णव का सम्बन्ध गुणनन्दी के साथ हो। काल १५ जैन सम्प्रदाय में गुणनन्दी नाम के कई प्राचार्य हुए हैं। अतः किस गुणनन्दी ने शब्दार्णव का सम्पादन किया, यह अज्ञात है । जैन शाकटायन व्याकरण जैनेन्द्र शब्दानुशासन की अपेक्षा अधिक पूर्ण है, उस में किसी प्रकार के उपसंख्यान आदि की आवश्यकता नहीं है।' प्रतीत होता है, गुणनन्दी ने जैन शाकटायन व्याकरण की पूर्णता को देख कर ही पूज्यपाद विरचित शब्दानुशासन को पूर्ण करने का विचार किया हो और उस में परिवर्तन तथा परिवर्धन करके उसे इस रूप में सम्पादित किया हो । शाकटायन व्याकरण अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में लिखा गया है । अमोघवर्ष का राज्यकाल सं० १. सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवनिर्णय, नावस्याश्रयतां २५ विविक्षुमनसां साक्षात् स्वयं प्रक्रिया। . २. श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमावरव्रतिपूजितपादयुग्मम् । ३. शब्दब्रह्मा स जीयाद् गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीश: सुसौख्यः ।। - ४. इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यातं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने । चिन्तामणि टीका के प्रारम्भ में। ३० ५. इस के विषय में विस्तार से आगे शाकटायन के प्रकरण में लिखेंगे। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ८७१-६२४ तक है । अतः शब्दार्णव की रचना उस के अनन्तर काल की है। __ श्रवणवेल्गोल के ४२, ४३ और ४७ वें शिलालेख में किसी गुणनन्दी प्राचार्य का उल्लेख मिलता है। ये बलाकपिच्छ के शिष्य और गध्रपिच्छ के प्रशिष्य थे। इन्हें न्यास, व्याकरण और साहित्य का ५ महाविद्वान् लिखा है। अतः सम्भव है ये ही शब्दार्णव व्याकरण के सम्पादक हों। कर्नाटककविचरित के कर्ता ने गणनन्दी के प्रशिष्य और देवेन्द्र के शिष्य पम्प का जन्मकाल सं० ६५६ लिखा है । अतः गुणनन्दी का काल विक्रम की दशम शताब्दी का उत्तरार्ध है। ___ चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्ता वीरनन्दी का काल शक सं० १० ६०० (वि० सं०. १०३५) के लगभग है। वीरनन्दी गुणनन्दी की शिष्य परम्परा में तृतीय पीढ़ी मैं है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' प्रति पीढ़ी न्यूनातिन्यून २५ वर्ष का अन्तर मानकर गुणेनन्दी का काल सं० ६६० के लगभग सिद्ध होता है । अतः स्थूलतया गुणनन्दी का . काल सं० ६१०-९६० तक मानना अनुचित न होगा। ... १५ शब्दार्णव का व्याख्याता-सोमदेव सूरि (सं० ११६२) , सोमदेव सूरि ने शब्दार्णव व्याकरण की 'चन्द्रिका' नाम्नी अल्पाक्षर वृत्ति रची है । यह वृत्ति काशी की सनातन जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुकी है। ' शब्दार्णवचन्द्रिका के प्रारम्भ के द्वितीय श्लोक से विदित होता है २० कि सोमदेवसूरि ने यह वृत्ति मूलसंघीय मेघचन्द्र के शिष्य नागचन्द्र (भुजङ्गसुधारक) और उनके शिष्य हरिश्चन्द्र यति' के लिये बनाई . काल-शब्दार्णवचन्द्रिका की मुद्रित प्रति के अन्त में जो प्रशस्ति छपी है उन से ज्ञात होता है कि सोमदेव सूरि ने शिलाहार वंशज २० भोजदेव (द्वितीय) के राज्यकाल में कोल्हापुर के 'अर्जरिका' ग्राम के १. तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः, तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणः साहित्यविद्यापतिः। २. पूर्व पृष्ठ ६६४ । ३. श्रीमूलसंघजलप्रतिबोधमानोमेघेन्दुदीक्षितभुजङ्गसुधाकरस्य । राद्धान्ततोयनिधिवृद्धिकरस्य वृत्ति रेभे हरीन्दुयतये वरदीक्षिताय ॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिर में शकाब्द ११२७. (वि. सं. १२६२) में इस टीका को पूर्ण किया।' शब्दार्णवप्रक्रियाकार ... किसी अज्ञातनामा पण्डित ने शब्दार्णवचन्द्रिका के आधार पर ५ शब्दार्णवप्रक्रिया ग्रन्थ लिखा है । इस प्रक्रिया के प्रकाशक महोदय ने ग्रन्थ का नाम जैनेन्द्रप्रक्रिया और ग्रन्थकार का नाम गुणनन्दी लिखा है, ये दोनों अशुद्ध हैं । प्रतीत होता है,ग्रन्थ के अन्त में 'सैषा गुणनन्दितानितवपुः श्लोकांश देखकर प्रकाशक ने गुणनन्दी नाम की कल्पना की है। ५-वामन (सं० ३५० वा ६०० से पूर्व) । वामन ने 'विधान्तविद्याधर' नाम का व्याकरण रचा था। इस व्याकरण का उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र और वर्धमान सूरि ने अपने ग्रन्थों में किया है । वर्षमान ने गणरत्नमहोदधि में इस व्याकरण के १५ अनेक सूत्र उद्धृत किये हैं, और वामन को 'सहृश्यचक्रवर्ती' उपाधि से विभूषित किया है।' संस्कृत वाङ् मय में वामन नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए हैं । अतः - नाम के अनुरोध से कालनिर्णय करना अत्यन्त कठिन कार्य है । पुनरपि २० काशकुशावलम्ब न्याय से हम इसके कालनिर्णय का प्रयत्न करते हैं १. विक्रम की १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान प्राचार्य हेमचन्द्र ने हैमशब्दानुशासन की स्वोपज्ञटीका में विश्रान्त विद्याधर का का उल्लेख किया है। ... १. स्वस्ति श्रीकोल्हापुरदेशांतवंत्यार्जु रिकामहास्थान...... • त्रिभुवन२५ तिलकजिनालये ....... श्रीमच्छिलाहारकृलकमलमार्तण्ड ...... श्रीवीरभोज देवविजयराज्ये शकवकसहस सप्तशिति (११२७) तमक्रोधनवत्सरे ........ सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नामवृत्तिरिति । ..२. सहृदयचक्रवत्तिना वामनेन तु हेम्नः इति सूत्रेण"..। पृष्ठ १६८ । .. ३. द्र०-आगे हेमचन्द्र के प्रकरण में। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७१ २. इसी काल का वर्धमान सूरि गणरत्नमहोदधि में लिखता है दिग्वस्त्रभर्तृहरिवामनभोजमुख्या......"वामनो विधान्तविद्याघरव्याकरणकर्ता।' ३. प्रभावकचरितान्तर्गत मल्लवादी प्रबन्ध में लिखा हैशब्दशास्त्रे च विश्रान्तविद्याधरवराभिधे। .. न्यासं चक्रेऽल्पधीवृन्दबोधनाय स्फुटार्थकम् ॥ . . इस से स्पष्ट है कि मल्लवादी ने वामनप्रोक्त विश्रान्तविद्याधर व्याकरण पर 'न्यास' लिखा था। आचार्य हेमचन्द्र ने भी हैम व्याकरण की स्वोपज्ञ टीका में इस न्यास को उद्धृत किया है। इस प्रमाण के अनुसार वामन का काल निश्चय करने के लिये १० मल्लवादी का काल जानना आवश्यक है। अतः प्रथम मल्लवादी के काल का निर्णय करते हैं मल्लवादी का काल-आचार्य मल्लवादी का काल भी अनिश्चित है। अत: हम यहां उन सव प्रमाणों को उद्धृत करते हैं, जिन से मल्लवादी के काल पर प्रकाश पड़ता है। १. हेमचन्द्र अपने व्याकरण की बृहती टीका में लिखता है'अनुमल्लवादिनः ताकिकाः। - २. धर्मकीतिकृत न्यायविन्दु पर धर्मोत्तर नामक बौद्ध विद्वान् ने टीका लिखी है, उस पर प्राचार्य मल्लवादी ने धर्मोत्तरटिप्पण लिखा। है। ऐतिहासिक व्यक्ति धर्मोत्तर का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी २० मानते हैं। ..... .. ... . .. ... ३. पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास नामक ग्रन्थ में लिखा है... 'प्राचार्य हरिभद्र ने अपने 'अनेकान्तजयपताका' नामक ग्रन्थ में वादिमुख्य मल्लवादी कृत 'सन्मतिटीका' के कई अवतरण दिये हैं, २५ १. पृष्ठ १, २ । २. निर्णयसागर सं० पृष्ठ ७८ । ३. २॥२॥३६॥ ४. मोहनलाल दलीचन्द देसाईकृत 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १३६ । Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास और श्रद्धेय मुनि जिनविजयजी ने अनेकानेक प्रमाणों से हरिभद्र सूरि का समय वि० सं० ७५७ - ८२७ तक सिद्ध किया है । अतः आचार्य मल्लवादी विक्रम की आठवीं शताब्दी के पहले के विद्वान् हैं, यह निश्चय है । " हमारे विचार में हरिभद्रसूरि वि० सं० ७५७ से प्राचीन है ।" ४. राजशेखर सूरि कृत प्रबन्धकोश के अनुसार मल्लवादी वलभी के राजा शीलादित्य का समकालिक हैं । प्रबन्धकोश में लिखा हैमल्लवादी ने बौद्धों से शास्त्रार्थ करके उन्हें वहां से निकाल दिया था । वि० सं० ३७५ में म्लेच्छों के आक्रमण से वलभी का नाश हुआ १० था, और उसी में शीलादित्य की मृत्यु थी । " पट्टावलीसमुच्चय के अनुसार वीरनिर्वाण ८४५ वर्ष बीतने पर वलभीभंग हुआ । कई विद्वानों के मतानुसार बीर संवत् का आरम्भ विक्रम ४७० वर्ष पूर्व हुआ था । तदनुसार भी वलभीभंग का काल वि० सं० ३७५ स्थिर होता है । " प्रबन्धकोश के सम्पादक श्री जिनविजयजी 'विक्रमादित्य१५ भूपालात् पञ्चषत्रिकवत्सरे' का अर्थ ५७३ किया है, यह 'प्रजानां वामतो गतिः' नियमानुसार ठीक नहीं है। १. प्र० सं० पृष्ठ १६४, द्वि० सं० पृष्ठ १६९ । ऐसी जैन १६५ ) यही २० २. हरिभद्रसूरि का वि० सं० ५८५ में स्वर्गवास हुआ था, संप्रदाय में श्रुतिपरम्परा है (जैन साहित्य नो सं० इतिहास पृष्ठ काल ठीक है । हरिभद्रसूरि को सं० ७५७-६२७ तक मानने मुख्य श्राधार इत्सिंग के वचनानुसार भर्तृहरि और धर्मपाल को वि० सं० ७०० के आसपास मानना है । इन्सिंग का भर्तृहरि विषयक लेख भ्रान्तियुक्त है, यह हम पूर्व (पृष्ठ ३८७ - ४०१ तक) लिख चुके हैं । में हमारा विचार है पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्धारित चीनी यात्रियों की तिथियां भी युक्त नहीं है। उन पर पुनः विचार होना चाहिए । २५ ३. पृष्ठ २१-२२ । विक्रमादित्य भूपालात् पञ्चापत्रिक ( ३७५ ) वत्सरे जातोऽयं वलभीभङ्गो ज्ञानिनः प्रथमं ययुः । ४. अत्रान्तरे श्री वीरात् पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टशत ८४५ वर्षातिक्रमे वलभीभंग: । पृष्ठ ५० । ३० ५. पट्टावली समुच्चय में लिखा है- " श्रीवीरात् ५५० वर्ष ३८ शुन्यो वंशः " । पृष्ठ १६८ । तदनुसार वि० सं० हुआ। हमें पट्टावली का यह लेख अशुद्ध प्रतीत होता है । विक्रमवंशः, तदनु २९५ में वलभीभंग ६. पृष्ठ १०९ । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७३ 'प्रबन्धचिन्तामणि' में एक प्राकृत गाथा इस प्रकार उद्धृत हैपणसयरी वाससयं तिन्निसयाई अइक्कमेऊण । विक्कमकालाऊ तमो वलीहभंगो समुपन्नो ॥ यही गाथा पुरातनप्रबन्धसंग्रह में भी पृष्ठ ८३ पर उद्धृत है । .. इस गाथा में भी विक्रम से ३७५ वर्ष पीछे ही वलभीभंग का ५ उल्लेख है। ५. अनेकान्तजयपताका (बड़ोदा, सन् १९४०) की अंग्रेजी भूमिका पृष्ठ १८ पर एक जैन गाथा उद्धृत है वोरामो वयरो वासाण पणसए दससएण हरिभद्दो । तेहि बपभट्टी अहिं पणयाल वलहि खरो॥ इस गाथा के अनुसार भी व तभीभंग वार संवत् ८४५ (=वि० सं० ३७५) में हुआ था । ६. प्रभावकचरित में लिखा हैश्रीवीरवत्सरादथ शतादष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते। जिग्ये मल्लवादी बौद्धांस्तद् व्यन्तरांश्चापि ॥' इस के अनुसार महावीर संवत् ८८४ में मल्लवादी ने बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था । वीर संवत् के आरम्भ के विषय में जैन ग्रन्थों में अनेक मत हैं । 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' के लेखक ने विक्रम से ४७० वर्ष पूर्व वीर संवत् का प्रारम्भ मानकर वि० सं० ४१४ में मल्लवादी के शास्त्रार्थ का उल्लेख किया है। २० ___ यह काल संख्या ४, ५ के प्रमाणों से विरुद्ध है। यदि प्रबन्धकोश प्रबन्धचिन्तामणि, और पुरातनप्रबन्धकोश में दिया हया ३७५ वर्षमान महाराज विक्रम की मृत्यु के समय से गिना जाय (जिसकी श्लोक और गाथा के शब्दों से अधिक सम्भावना है) तो प्रभावकचरित का लेख उपपन्न हो जाता है। विक्रम का राजकाल लगभग .. ३६ वर्ष का था। १. निर्णयसागर संस्क० पृष्ठ ७४ । २. सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास के अन्त में विक्रम का राजकाल ६३ वर्ष लिखा है । सम्भव है, उस में वा उस के मूल में (जिसके आधार पर Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्राचीन जैन- परम्परा के अनुसार मल्लवादी सूरि का काल वि० सं० ४०० के लगभग निश्चित है । और विश्रान्तविद्याधर पर न्यास ग्रन्थ लिखनेवाला भी यही व्यक्ति है । यदि प्रबन्धकोश के सम्पादक के मतानुसार संवत् ५७३ में वलभीभंग मानें,' तब भी मल्लवादी सं० ६०० से अर्वाचीन नहीं है । तदनुसार विश्रान्तविद्याधर के कर्ता वामन का काल वि० सं० ४०० और पक्षान्तर में ६०० से प्राचीन है, इतना निश्चित है । ५ ६७४ एक कठिनाई - हमने विश्रान्तविद्याधर के रचयिता वामन का काल ऊपर निर्धारित किया है, उस में एक कठिनाई भी है । उस १० का भी हम निर्देश कर देना उचित समझते हैं, जिस से भावी लेखकों को विचार करने में सुगमता हो । वह है वर्धमान 'गणरत्नमहोदधि' में लिखता है - वामनोक्तः 'भोजमतम श्रित्य नाश्रितः । कलापिशष्पप्राच्यादिविशेषो १५ इसके अनुसार वामन सरस्वती - कण्ठाभरण से उत्तरकालिक प्रतीत होता है । परन्तु पूर्व-निर्दिष्ट सुपुष्ट प्रमाणों के आधार पर 'विश्रान्तविद्याधर' का कर्त्ता वि० सं० ६०० से उत्तरवर्ती किसी प्रकार नहीं हो सकता । अतः वर्धमान के लेख का भाव 'वामनोक्त विभाग हमने भोज के मत को आश्रय करके स्वीकार नहीं किया' ऐसा समझना २० चाहिए । विश्रान्तविद्याधर के व्याख्याता १ - वामन वर्धमानविरचित ‘गणरत्नमहोदधि' से विदित होता है कि वामन ने अपने व्याकरण पर स्वयं दो टीकाएं लिखी थीं। वह लिखता है - २५ स० प्र० में लिखा है) लेखक प्रमाद से ३९ के अंकों का विपर्यय होकर ९३ बन गया होगा । १. सम्पादक ने यह कल्पना पाश्चात्त्यों द्वारा कल्पित वलभी संवत् की अशुद्ध गणना साथ सामञ्जस्य करने के लिये की है, जो सर्वथा चिन्त्य है। २. पृष्ठ १८२ । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७५ 'वामनस्तु बृहदवृत्तौ यवमाषेति पठति ।" इस उद्धरण में 'बृहत्' विशेषण का प्रयोग करने से व्यक्त है कि वामन ने स्वयं लध्वी और बहती दो व्याख्याएं रची थीं, अन्यथा 'बृहत्' विशेषण व्यर्थ होता है । वामनकृत दोनों वृत्तियां तथा मूल सूत्र ग्रन्थ इस समय अप्राप्त हैं। २- मल्लवादी तार्किकशिरोमणि मल्लवादी ने वामनकृत विश्रान्तविद्याधर व्याकरण पर न्यास ग्रन्थ लिखा था, यह हम ऊपर लिख चुके हैं। इस न्यास का उल्लेख वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि में कई स्थानों पर किया है । हैम शब्दानुशासन की बृहती टीका में भी यह असकृत् १० उद्धृत है। ६. पाल्यकीर्ति (सं० ८७१-६२४) व्याकरण के वाङमय में शाकटायन नाम से दो व्याकरण प्रसिद्ध हैं । एक प्राचीन आर्ष और दूसरा अर्वाचीन जैन व्याकरण । प्राचीन १५ आर्ष शाकटायन व्याकरण का उल्लेख हम पूर्व कर चुके । अब अर्वाचीन जैन शाकटायन व्याकरण का वर्णन करते हैं । जैन शाकटायन तन्त्र का कर्ता उपलब्ध शाकटायन व्याकरण के कर्तृत्व के सम्बन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों के जो विचार रहे उनका निर्देश ‘भारतीय ज्ञानपीठ काशी' २० द्वारा प्रकाशित शाकटायन व्याकरण भूमिका में राबर्ट बिरवे ने किया है। प्रोपर्ट जिसने १८९३ ई० में शाकटायन व्याकरण को प्रकाशित किया, का मत है कि प्राचीन शाकटायन ही इस वर्तमान शाकटायन व्याकरण का कर्ता है । इसके विपरीत बर्नेल कीलहान बूहलर आदि १. पृष्ठ २३७ । २. पूर्व पृष्ठ ६७३ में प्रभावकचरित का श्लोक । २५ ३. विश्रान्तन्यासकृत्त असमर्थत्वाद् दण्डपामिरित्येव मन्यते । पृष्ठ ७१ । विश्रान्तन्यासस्तु किरात एव कैरातो म्लेच्छ इत्याह । पृष्ठ ६२ । ४. द्र०-पृष्ठ १७४-१८३ । Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास का मत है कि यह व्याकरण चान्द्र जैनेन्द्र और काशिका से भी अर्वाचीन है। शाकटायन व्याकरण का कर्ता-इस अभिनव शाकटायन व्याकरण का कर्ता का वास्तविक नाम 'पाल्यकोत्ति' है। वादिराजसूरि ५ ने 'पार्श्वनाथचरित' में लिखा है - कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः । । श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान् कुरुते जनान् ॥ अर्थात्-उस महातेजस्वी पाल्यकीति की शक्ति का क्या कहना जो उस के 'श्री' पद का श्रवण करते ही लोगों को वैयाकरण बना १० देती है। इस श्लोक में श्रीपदश्रवणं यस्य' का संकेत शाकटायन व्याकरण की स्वोपज्ञ अमोघा वत्ति की ओर है । अमोघावृत्ति के मङ्गलाचरण का प्रारम्भ 'श्रीवीरममतं ज्योतिः' से होता है। पार्श्वनाथचरित की पञ्जिका टीका के रचयिता शुभचन्द्र ने पूर्वोक्त श्लोक की व्याख्या में १५ लिखा है तस्य पाल्यकोर्तेमहौजसः श्रीपदश्रवणं श्रिया उपलक्षितानि पनि शाकटायनसूत्राणि, तेषां श्रवणमाकर्णनम् । इससे स्पष्ट है कि शाकटायन व्याकरण के कर्ता का नाम पाल्यकीर्ति था। शाकटायन-प्रक्रिया के मङ्गलाचरण में भी पाल्यकीर्ति को २० नमस्कार किया है। परिचय आचार्य पाल्यकीति को कुछ विद्वान् श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मानते हैं, और कुछ दिगम्बर सम्प्रदाय का। परन्तु पाल्यकीति याप नीय सम्प्रदाय के थे।' यह दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का २५ अन्तरालवर्ती सम्प्रदाय था। यापनीय सम्प्रदाय के नष्ट हो जाने से दोनों सम्प्रदाय वाले इन्हें अपना प्राचार्य मानते हैं । पाल्यकीति ने अमोघावृत्ति में छेदक सूत्र नियुक्ति और कालिक सूत्र आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों का आदर पूर्वक उल्लेख किया है। १. यापनीययतिग्रामाग्रणीः । मलयगिरिकृत नान्दीसूत्र की टीका में, पृ० ३० १५ । २. द्र०–६० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य की न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ की प्रस्तावना। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७७ ५ वंश तथा शाकटायन नाम का हेतु - पाणिनि का एक सूत्र है, गोषदादिभ्यो वुन् ( ५। २ । ६२ ) इससे गोषद् आदि से मत्वर्थ में अध्याय अथवा अनुवाक अर्थ गम्यमान होने पर वुन् प्रत्यय होता है । ' गोषद्' शब्द जिस अध्याय अथवा अनुवाक में होगा, वह 'गोष - दकः' कहलायेगा । इसी प्रकार इषेत्वक: देवस्यत्वकः श्रादि । पाल्यकीर्ति ने इस गोषदादिगणनिर्देशक सूत्र के स्थान में घोषदादेव' च्' ( ३ | ३ | १७८ ) सूत्र पढ़ा है । इस प्रकार उसने प्राचीन परम्पराप्राप्त 'गोषद्' शब्द को हटाकर 'घोषद्' का निर्देश किया है । यह विशिष्ट परिवर्तन किसी प्रतिमहत्त्वपूर्ण परिस्थिति का सूचक है । मैत्रायणी संहिता १ । १ । २ और काठक संहिता १ । २ का आदि १० मन्त्र है - गोषदसि । इसमें ' गोषद' शब्द - समूह श्रुत है । तैत्तिरीय संहिता १ । १ । २ में पाठ है- यज्ञस्य घोषदसि । इसमें 'घोषद्' शब्द श्रुत है । मन्त्रों की इस तुलना और पाणिनि तथा पाल्यकीर्ति के सूत्र - पाठों की तुलना करने से प्रतीत होता है कि पाल्यकीर्ति मूलतः तैत्तिरीय शाखा अध्येता ब्राह्मण कुल का था और इसका गोत्र 'शाक - १५ टायन' था । ब्राह्मण धर्म का परिवर्तन हो जाने पर भी पाल्यकीर्ति के लिये शाकटायन गोत्रनाम का व्यवहार होता रहा । ऐसी अवस्था में शाकटायन के लिये गोत्र-सम्बन्ध वाचक शकट- पुत्र अथवा शकटाङ्ग प्रादि पदों का प्रयोग युक्त है । काल २० 'ख्याते दृश्ये " सूत्र की अमोघा वृत्ति में 'प्ररुणद्देवः पाण्ड्यम्' और 'श्रवहदमोघवर्षोऽरातीन्' उदाहरण दिये हैं । द्वितीय उदाहरण में अमोघवर्ष ( प्रथम ) द्वारा शत्रुओं को नष्ट करने की घटना का उल्लेख है । ठीक यही वर्णन राष्ट्रकूट के शक सं० ८३२ ० ( वि० सं० ε६७) के एक शिलालेख में 'भूपालान्' कण्टकाभान् वेष्टयित्वा २५ दाह' के रूप में किया है । शिलालेख अमोघवर्ष के बहुत पश्चात् १. शाकटायन व्याकरण की प्रमोघा तथा चिन्तामणि वृत्तियों में घोषडा - देव' च् पाठ है । वह अशुद्ध है, क्योंकि 'घोषड' किसी शाखा में उपलब्ध नहीं होता है । हैम ने पाल्कीति का अनुसरण करते हुए घोषडादि का ही निर्देश किया है । २. शाकटायन ४ । ३ । २०७ ।। ३. शिलालेख का मूलपाठ (भूपालात्' है, यह प्रत्यक्ष अपपाठ है । ३० Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास · लिखा गया है । अतः उस काल में उक्त घटना का प्रत्यक्ष न होने से 'अवत' के स्थान पर 'ददाह' क्रिया का प्रयोग किया है । अमोघा वृत्ति में लङ् लकार का प्रयोग होने से विदित होता है कि पाल्य - कीर्ति अमोघवर्ष ( प्रथम ) के काल में वर्तमान था । इसका एक प्रमाण महाराज अमोघदेव के नाम पर स्वोपज्ञवृत्ति का 'अमोघ' नाम रखना भी है । सम्भव है पाल्यकीर्ति महाराज अमोघदेव का सभ्य रहा हो । महाराज अमोघदेव सं० ८७१ में सिंहासनारूढ़ हुए थे । उनका एक दानपत्र सं० ६२४ का उपलब्ध हुआ है । अतः यही समय पाल्य कीर्ति का भी है । तदनुसार निश्चय ही शाकटायन व्या१० करण और उनकी अमोघा वृत्ति की रचना सं० ८७१-९२४ के मध्य में हुई । ५ शाकटायन व्याकरण में इष्टियां पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, १५ सूत्रों से पृथक् वक्तव्य कुछ नहीं है, उपसंख्यानों की भी आवश्यकता नहीं है । इन्द्र चन्द्र आदि ग्राचार्यों ने जो शब्दलक्षण कहा है वह सब इस में है । और जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है । गणपाठ धातुपाठ लिङ्गानुशासन और उणादि इन चार के अतिरिक्त समस्त व्याकरण कार्य इस वृत्ति के अन्तर्गत है । " " २० शाकटायन तन्त्र की विशेषता इस व्याकरण का टीकाकार यक्षवर्मा लिखता है - ३० इस व्याकरण में पात्यकीर्ति ने लिङ्ग और समासान्त प्रकरण को समास प्रकरण में और एकशेष को द्वन्द्व प्रकरण में पढ़कर व्याकरण की प्रक्रियानुसारी रचना का बीज वपन कर दिया था । उत्तर काल में इस ने परिवृद्ध होकर पाणिनीय व्याकरण पर भी ऐसा याबात किया कि समस्त पाणिनीय व्याकरण ग्रन्थकर्तृ क्रम की उपेक्षा करके २५ १. इष्टिर्तेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यातं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने ॥६॥ इन्द्रश्चन्द्रादिभिः शाब्दैर्यदुक्तं शब्दलक्षणम् । तदिहास्ति समस्तं च यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ॥ १० ॥ गगवानयोगेन धातून् लिङ्गानुशासने लिङ्गगतम् । प्रौणादिकानुणादौ शेषं निश्शेषमत्र वृत्तौ विद्यात् ॥ ११ ॥ २. कटान अमोघावृत्ति की प्रस्तावना में डा० आर बिरवे ने भी शाकटायन व्याकरणको प्रक्रियानुसारी माना है ( द्र० सन्दर्भ सं० २५) । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७६ प्रक्रियानुसारी बना दिया गया। उससे पाणिनीय व्याकरण अत्यन्त दुरूह हो गया। ___ इस व्याकरण के सूत्र पाठ में आर्यवज्र (१ । २ । १३) सिद्धनन्दी (२।१।२२६) और इन्द्र (१।२।३७) नामक प्राचीन आचार्यों का उल्लेख है। अमोघावृत्ति में प्रापिशलि काशकृत्स्नि ५ (३।१ । १६६) पाणिनि वैयाघ्रपद्य (३।२ । १६१) आदि का उल्लेख भी मिलता है। अन्य ग्रन्थ १-धातुपाठ, २-उणादिसूत्र, ३-गणपाठ, ४-लिङ्गानुशासन, ५- परिभाषापाठ का निर्देश अगले अध्यायों में यथास्थान करेंगे। १० ६-उपसर्गार्थ, ७-तद्धित संग्रह इन ग्रन्थों का निर्देश राबर्ट विरवे ने शाकटायन व्याकरण की भूमिका (सन्दर्भ ५४) में किया है। ८-साहित्य विषयक-राजशेखर ने काव्यमीमांसा में पाल्यकीति का एक उद्धरण दिया है 'यथाकथा वा वस्तुनो रूपं वक्तृप्रकृतिविशेषात्तु रसवत्ता। तथा १५ च यमर्थ रक्तः स्तौति तं विरक्तो विनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्त इति पाल्यकोतिः। इस से स्पष्ट है कि पाल्यकोति ने कोई साहित्य विषयक ग्रन्थ भी रचा था। 8-स्त्री-मुक्ति, १०-केलिभक्ति-ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनसे २० विदित होता है कि पाल्यकीति बड़े तार्किक और सिद्धान्तज्ञ थे। .. शाकटायन व्याकरण के व्याख्याता १-पाल्यकोति प्राचार्य पाल्यकीर्ति ने स्वयं अपने शब्दानुशासन की वृत्ति रची है। यह पाल्यकीति के आश्रयदाता महाराज अमोघदेव के नाम पर २५ 'अमोघा' नाम से प्रसिद्ध है । अमोघा वृत्ति अत्यन्त विस्तृत है। इसका परिमाण लगभग १८००० सहस्र श्लोक है। गणरत्नमहोदधि के रचयिता वर्धमान सूरि ने शाकटायन के नाम से अनेक ऐसे उद्धरण Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास दिये हैं जो अमोघा वृत्ति में ही उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार यक्षवर्मा विरचित चिन्तामणिवृत्ति के प्रारम्भ के ६ ठे और ७ वें श्लोक की परस्पर संगति लगाने से स्पष्ट होता है कि अमोघा वृत्ति सूत्रकार ने स्वयं रची है। सर्वानन्द ने अमरटीकासर्वस्व में अमोघा वृत्ति का ५ पाठ पाल्यकीर्ति के नाम से उद्धृत किया है । 'जैन साहित्य और इतिहास' के लेखक श्री नाथूरामजी प्रेमी ने अमोघा वृत्ति का स्वोपज्ञत्व बड़े प्रपञ्च (विस्तार) से सिद्ध किया है। अमोघा वृत्ति सं० २०२८ में 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन काशी' १० से प्रकाशित हुई है । पर खेद का विषय है कि जैनेन्द्रमहावृत्ति के समान इसका सम्पादन भी प्रकाशन संस्था के महत्त्व के अनुरूप नहीं हो पाया। इसका प्रधान कारण यही है कि दोनों वृत्तियों के सम्पादकों का जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण विषयक आधिकारिक ज्ञान नहीं था । अमोघा वृत्ति का टीकाकार-प्रभाचन्द्र प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अमोघा वृत्ति पर 'न्यास' नाम्नी टीका रची है। एक प्रभाचन्द्र आचार्य का वर्णन हम पूर्व जैनेन्द्र व्याकरण के प्रकरण में कर चुके हैं। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण पर 'शब्दाम्भोज १. शाकटायनस्तु कर्णेटिरिटिरिः कर्णेचुरुचुरुरित्याह । गणरत्नमहोदधि पृष्ठ २० ८२, अमोघा वृत्ति २ । १ । ५७ ॥ शाकटायनस्तु अद्य पञ्चमी अद्य द्वितीयेत्याह । गण० पृष्ठ ६०, अमोघा २ । १ । ७६ ॥ २. इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यातं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने ॥ ६ ॥ तस्यातिमहतीं वृत्ति संहृत्येयं लघीयसी।... ॥ ७ ॥ यस्य पाल्यकीर्तेः शब्दानुशासने इष्टयादयो नैवापेक्षन्ते तस्य पाल्यकीर्तेः महती २५ वत्ति संक्षिप्येयं लघ्वी वृत्तिविधीयते इति संगतिः॥ ३. तयाहि तत्र पाल्यकीविवरणं पोटगलो बृहत्कोशः । भाग ४, पृष्ठ ७२। . ४. द्वि० सं० पृष्ठ १६१-१६५ । ५. शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः। प्रसिद्धस्य महामोघवत्तेरपि विशेषतः॥ सूत्राणां च विवृतिविख्याते च यथामति । ग्रन्थस्यास्य च ___ न्यासेति क्रियते नाम नामतः॥ जैन साहित्य और इतिहास, द्वि० सं० पृष्ठ १६० पर उद्धृत। ६. द्र०- पूर्व पृष्ठ ६६५-६६६ । Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८१. भास्करन्यास' की रचना की थी । ये दोनों ग्रन्थकार एक हैं वा पृथक्पृथक्, यह अज्ञात है । ८६ १३ वीं शताब्दी के कृष्ण लीलाशुक मुनि ने 'दैवम्' को पुरुषकार टीका में शाकटायन न्यास को उद्धृत किया है । इससे स्पष्ट है कि शाकटायन न्यास की रचना १३ वीं शताब्दी से पूर्व की है । आचार्य प्रभाचन्द्रकृत न्यास ग्रन्थ के संप्रति केवल दो अध्याय उपलब्ध हैं ।" २ - अमोघविस्तर (१४वीं शती वि० से पूर्व ) इस व्याख्या का उल्लेख माघवीय धातुवृत्ति' में उपलब्ध होता है इसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है । माघवीय धातुवृत्ति में उपलब्ध होने से इतना निश्चित है कि इसकी रचना १४ वीं शती से पूर्व अथवा उसके पूर्वार्ध में हुई होगी । ३ यक्षवर्मा यक्षवर्मा ने अमोघा वृत्ति को ही संक्षिप्त कर शाकटायन की 'चिन्तामणि' नाम्नी लघ्वी वृत्ति रची है। यह वृत्ति काशी से प्रका- ४१५ शित हो चुकी है । इस वृत्ति का ग्रन्थ- परिमाण लगभग ६ सहस्र श्लोक है। यक्षवर्मा ने अपनी वृत्ति के विषय में लिखा है कि इस वृत्ति अभ्यास से बालक और बालिकाएं भी निश्चय से एक वर्ष में समस्त वाङमय को जान लेती हैं।" राबर्ट बिरवे ने यक्षवर्मा का काल ईसा को १२ वीं शती से पूर्व माना है । चिन्तामणिवृत्ति के टीकाकार १ - अजित सेनाचार्य - आचार्य अजितसेन ने यक्षवर्मविरचित चिन्तामणि वृत्ति पर चिन्तामणिप्रकाशिका नाम्नी टीका लिखी है । इस का देश काल अज्ञात है । १. शाकटायनन्यासे तु णोपदेशो वाऽयम् । पृष्ठ ६६ | हमारा संस्क० २५ पृष्ठ ६१ । २. जैन साहित्य और इतिहास, द्वि० [सं० पृष्ठ १६० ३. धातुवृत्ति पृष्ठ ४४ ॥ . ४. बालाबलाजनोऽप्यस्या वृत्त रभ्यासवृत्तितः । समस्तं वाङ्मयं वेत्ति वर्ष - . णैकेन निश्चयात् ॥ प्रारम्भिक श्लोक १२ । ३० Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास . . २-मंगारस-मंगारस ने चिन्तामणि वृत्ति पर चिन्तामणि प्रतिपद' नाम्नी व्याख्या लिखी थी।' इस का देश काल अज्ञात है। - ३-समन्तभद्र-किसी समन्तभद्र नामक व्याख्याकार ने चिन्ता मणि वृत्ति पर 'चिन्तामणिविषमपद' टीका लिखी थी। इस का भी ५ देश काल अज्ञात है। प्रक्रिया-ग्रन्थकार १-अभयचन्द्राचार्य (१३ वीं शती वि० उत्तरार्ध) अभयचन्द्राचार्य ने शाकटायन सूत्रों के आधार पर 'प्रक्रियासंग्रह ग्रन्थ रचा है। यह ग्रन्थ शाकटायन व्याकरण में प्रवेशार्थियों के लिये लिखा गया है। अतः इसमें सम्पूर्ण सूत्र व्याख्यात नहीं हैं। बिरवे के अनुसार इसका काल ई० को १४ वीं शती का पूर्वार्द्ध है । २-भावसेन त्रैविट देव इन्होंने भी प्रक्रियानुसारी 'शाकटायनटीका' ग्रन्थ लिखा है। . इन्हें वादिपर्वतवज्र भी कहते हैं। . ३-दयालपाल मुनि (सं० १०८२ वि०) मुनि दयालपाल ने बालकों के लिये 'रूपसिद्धि' नामक लघु प्रक्रिया ग्रन्थ बनाया है। ये पार्श्वनाथचरित के कर्ता वादिराजसूरि के सधर्मा माने जाते हैं। अतः इनका काल सं० १०८२ के लगभग है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। २० ७. शिवस्वामी (सं० ९१४-९४०) शिवस्वामी महाकवि के रूप में संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं। इन का रचा हा कफ्फणाभ्युदय महाकाव्य एक उच्च कोटि का ग्रन्थ है। वैयाकरण के रूप में शिवस्वामी का उल्लेख क्षीरतरङ्गिणी' २५ १. सं० प्रा० जैन व्याकरण और कोश की परम्परा, पृष्ठ ६८ । २. वही, पृष्ठ ६८। ३. चान्तोऽयं (=सश्च) इति शिवः । १ । १२२, पृष्ठ ४१ । धून इति . इहामु शिवस्वामी दीर्घमाह । ५। १०, पृष्ठ २२६, २२७ । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८३ गणरत्नमहोदधि, कातन्त्रगणधातुवृत्ति और माधवीया धातुवृत्ति' में मिलता है। वर्धमान, पतञ्जलि और कात्यायन के साथ शिवस्वामी का प्रथम निर्देश करता है। दूसरे स्थान पर 'परः पाणिनिः, अपरः शिवस्वामी' उदाहरण देता है। इससे प्रतीत होता है कि वर्धमान की दृष्टि में शिवस्वामी पाणिनि के सदृश महावैयाकरण था । ५ काल . कल्हण ने राजतरङ्गिणी ५। ३४ में लिखा है कि शिवस्वामी कश्मीराधिपति अवन्तिवर्मा के राज्यकाल में विद्यमान था। अवन्तिवर्मा का राज्यकाल सं० ६१४-६४० तक है । अतः वही काल शिवस्वामी का है। पं० गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' (पृष्ठ ४५२) में लिखा है-'शिवस्वामी शिवयोगी बलियामो प्रसिद्ध । षड्गुरुशिष्य सम्भवतः इहाकेह छयजन गुरुर मध्ये अन्यतम बलिया स्वीकार करिया छैन ।' -- 'कफिफणाभ्युदय लिखिलेनो शिवस्वामी बौद्ध न हेन, तिनि १५ सनातनधर्मावलम्बी छिलेन । स्मार्तदेर मध्येप्रो तिनि एकथन प्रमाणपुरुष । मदनपारिजाते स्मृतिचन्द्रिकाय एवं पराशरमाधवोये ताहार मतवाद उद्धृत हईया छ ।' हालदार महोदय को भूल-पं० गुरुपद हालदार का उपर्युक्त , लेख ठीक नहीं है। शिवस्वामी और शिवयोगी भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं । शिवस्वामी का काल दशम शताब्दी का पूर्वार्ध है, यह हम ऊपर लिख चुके हैं । शिवयोगी षड्गुरुशिष्य का अन्यतम गुरु है। षड्गुरु २० . १. अत्र वृत्तिकारशिवस्वामिभ्यां भाष्योक्तमस्वस्य स्वत्वेन करणं प्रसिद्धिवशात् पाणिग्रहणविषय उपसंहृतम् । धातुवृत्ति पृष्ठ १६६ ॥ शिवस्वामिकश्यपौ । तु दीर्घान्तमाहतः । धातुवृत्ति पृष्ठ ३१६ । शिवस्वामी वकारोपधं पपाठ । २५ धातुवृत्ति पृष्ठ ३५७ । २. मुख्यशब्दस्यादिवचनत्वात् शिवस्वामिपतञ्जलिकात्यायनप्रभृतयो लभ्यन्ते । पृष्ठ २। ३. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २६ । ४. मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः । प्रथां रत्नाकरश्चागात साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः ॥ ... Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शिष्य ने अपनी ऋक्सर्वानुक्रमणी की वृत्ति सं० १२३४ में लिखी थी। शिवस्वामी बौद्धमतावलम्बी था. और शिवयोगी वैदिक धर्मावलम्बी था। अतः शिवयोगी और शिवस्वामी को एक समझना महती भूल है। प्रतीत होता है कि पं० गुरुपद हालदार को षड्गुरुशिष्य के काल का ध्यान न रहा होगा, और नामसादृश्य से उन्हें भ्रान्ति हुई होगी। शिवस्वामी का व्याकरण शिवस्वामी प्रोक्त व्याकरण ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है। इसके जो उद्धरण पूर्व उदधत किये हैं उन से विदित होता है कि १० शिवस्वामी ने अपने व्याकरण पर कोई वृत्ति भी लिखी थी और स्व-तन्त्र सम्बन्धी धातुपाठ का भी प्रवचन किया था। ८. महाराज भोजदेव (सं० १०७५-१११०) ____ महाराज भोजदेव ने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नाम का एक बृहत् १५ शब्दानुशासन रचा है । उन्होंने योगसूत्रवृत्ति के प्रारम्भ में स्वयं लिखा है 'शब्दानामनुशासनं विदधता पातञ्जले कुर्वता, वृत्ति, राजमृगाङ्कसंज्ञकमपि व्यातन्वता वैद्यके । वाक्चेतोवपुषां मलः फणिभृतां भत्रैव येनोद्धृत२० स्तस्य श्रीरणरङ्गमल्लनृपतेर्वाचो जयन्त्युज्ज्वलाः ॥ इस श्लोक के अनुसार सरस्वतीकण्ठाभरण, योगसूत्रवृत्ति और राजमृगाङ्क ग्रन्थों का रचयिता एक ही व्यक्ति है, यह स्पष्ट है । परिचय और काल भोजदेव नाम के अनेक राजा हुए हैं, किन्तु सरस्वतीकण्ठाभरण २५ आदि ग्रन्थों का रचयिता, विद्वानों का आश्रयदाता, परमारवंशीय * धाराधीश्वर ही प्रसिद्ध है । यह महाराज सिन्धुल का पुत्र और महाराज जयसिंह का पिता था। १. खगोत्यान्मेषुमायेति कल्यहर्गणने सति । सर्वानुक्रमणीवृत्तिर्जाता वेदार्थदीपिका । वेदार्थदीपिका के अन्त में । कलि के १५,३५, १३२ दिन =कलि सं० ३० ४२८८, वि० सं० १२३४ । २. द्र०-पूर्व पृष्ठ ६८३, टि०१; ६८४,टि०१-३ । Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८५ महाराज भोज का एक दानपत्र सं० १०७८ वि० का उपलब्ध हुआ है, और इनके उत्तराधिकारी जयसिंह का दानपत्र सं० १११२ मिला है। अतः भोज का राज्यकाल सामान्यतया सं० १०७५-१११० तक माना जाता है। - सौराष्ट्र की राजधानी भुजनगर (भुज) के राजा भोज (राज्य- ५ काल सं० १६८८-१७०२) की तुष्टि के लिये विनय सागर उपाध्याय ने एक अभिनव भोज-व्याकरण की रचना की थी। __संस्कृतभाषा का पुनरुद्धारक महाराज भोजदेव स्वयं महाविद्वान्, विद्यारसिक और विद्वानों का प्राश्रयदाता था। उसने लुप्तप्रायः संस्कृतभाषा का पुनः एक बार १० उद्धार किया। वल्लभदेवकृत भोजप्रबन्ध में लिखा है 'चाण्डालोऽपि भवेद्विद्वान यः स तिष्ठतु मे पुरि। विप्रोऽपि यो भवेन्मूर्खः स पुराद् बहिरस्तु मे ॥ महाराज भोज की इतनी महती उदारता के कारण इनके समय में तन्तुवाय (जुलाहे) तथा काष्ठभारवाहक (लकड़हारे) भी संस्कृत १५ भाषा के अच्छे मर्मज्ञ बन गये थे। भोजप्रबन्ध में लिखा है कि एक बार धारा नगरी में बाहर से कोई विद्वान आया। उसके निवास के लिये नगरी में कोई गृह रिक्त नहीं मिला । अतः राज्यकर्मचारियों ने एक तन्तुवाय को जाकर कहा कि तू अपना घर खाली कर दे, इसमें एक विद्वान् को ठहरावेंगे । तन्तुवाय ने राजा के पास जाकर जिन २० चमत्कारी शब्दों में अपना दुःख निवेदन किया, वे देखने योग्य हैं। तन्तुवाय ने कहा 'काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि, . यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि । भूपालमौलिमणिमण्डितपादपीठ ! हे साहसाङ्क ! कवयामि वयामि यामि ॥' एक अन्य अवसर पर भोजराज ने एक वृद्ध लकड़हारे को कहा 'भूरिभारभराकान्त ! बाघति स्कन्ध एष ते।' इसके उत्तर में उस वृद्ध लकड़हारे ने निम्न चमत्कारी उत्तरार्ष पढ़ा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'न तथा बाधते राजन् ! यथा बाघति बाधते ।' . अर्थात्-हे राजन् ! लकड़ियों का भार मुझे इतना कष्ट नहीं पहुंचा रहा है, जितना आपका 'बाधति' अपशब्द कष्ट दे रहा है। . - वस्तुतः महाराज विक्रमादित्य के अनन्तर भोजराज ने ही ऐसा ५ प्रयत्न किया, जिस से संस्कृत भाषा पुनः उस समय की जनसाधारण की भाषा बन गई । ऐसे स्तुत्य प्रयत्नों के कारण ही संस्कृत भाषा अभी तक जीवित है। जो संस्कृतभाषा मुसलमानों के सूदीर्घ राज्यकाल में नष्ट न हो सकी। वह ब्रिटिश राज्य के अल्प काल में मतप्रायः हो गई। इसका मुख्य कारण यह है कि मुसलमानों के राज्यकाल में १० आर्य राजनैतिक रूप में पराधीन हुए थे, वे मानसिक दास नहीं बने थे, उन्होंने अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ा था । परन्तु ब्रिटिश शासन ने आर्यों में मानसिक दासता का एक ऐसा बीज वो दिया कि उन्हें योरोपियन विचार, योरोपियन भाषा तथा योरोपियन सभ्यता ही सर्वोच्च प्रतीत होती है, तथा भारतीय भाषा और संस्कृति तुच्छ १५ प्रतीत होती है। भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर भी वह मानसिक दासता से मुक्त नहीं हुअा। नेता माने जाने वाले लोग अभी भी अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी सभ्यता से उसी प्रकार चिपटे हए हैं, जैसे पराधीनता के काल में थे । इसी कारण सब भाषानों की आदि जननी, समस्त संसार को ज्ञान तथा सभ्यता का पाठ पढ़ानेहारी संस्कृतभाषा २० आज अन्तिम श्वास ले रही है।' वस्तुतः भारतीय संस्कृति की रक्षा तभी हो सकेगी, जब हम अपनी प्राचीन संस्कृतभाषा का पुनरुद्धार करेंगे। क्योंकि भाषा और संस्कृति का परस्पर चोली-दामन का सम्बन्ध है । आर्यों की प्राचीन संस्कृति ज्ञान और इतिहास के समस्त ग्रन्य संस्कृत भाषा में ही हैं । अतः जब तक उन ग्रन्थों का अनुशीलन न होगा, भारतीय सभ्यता कभी जीवित नहीं रह सकती। इसलिये भारतीय सभ्यता की रक्षा का एकमात्र उपाय संस्कृत भाषा का पुनरुद्धार है। .... १. स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्त र संस्कृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन और प्रचार का जिस तेजी से ह्रास हुआ है, उसे देखते हुए सम्प्रति इस सर्वभाषा ३० जननी की रक्षा का प्रश्न अत्यन्त गम्भीर हो गया है। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८७ सरस्वतीकण्ठाभरण महाराज भोजदेव ने सरस्वतीकण्ठाभरण नाम के दो ग्रन्थ रचे थे-एक व्याकरण का, दूसरा अलंकार का। सरस्वतीकण्ठाभरण नामक शब्दानुशासन में ८ आठ बड़े-बड़े अध्याय हैं ।' प्रत्येक अध्याय ४ पादों में विभक्त है। इस की समस्त सूत्र संख्या ६४११ ५ है। हम इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में लिख चुके हैं कि प्राचीन काल से प्रत्येक शास्त्र के ग्रन्थ उत्तरोत्तर क्रमशः संक्षिप्त किये गये। इसी कारण शब्दानुशासन के अनेक महत्त्वपूर्ण भाग परिभाषापाठ, गणपाठ और उणादि सूत्र आदि शब्दानुशासन से पृथक् हो गये । इसका फल १० यह हुआ कि शब्दानुशासनमात्र का अध्ययन मुख्य हो गया और परिभाषापाठ, गणपाठ तथा उणादि सूत्र आदि महत्त्वपूर्ण भागों का अध्ययन गौण हो गया। अध्येता इन परिशिष्टरूप ग्रन्थों के अध्ययन में प्रमाद करने लगे। इस न्यूनता को दूर करने के लिये भोजराज ने अपना महत्त्वपूर्ण सरस्वतीकण्ठाभरण नामक शब्दानुशासन रचा। १५ उसने शब्दानुशासन में परिभाषा, लिङ्गानुशासन, उणादि और गण-.. पाठ का तत्तत् प्रकरणों में पुनः सन्निवेश कर दिया । इससे इस शब्दानुशासन के अध्ययन करने वाले को धातुपाठ के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं रहती। गणपाठ आदि का सूत्रों में . सन्निवेश हो जाने से उनका अध्ययन आवश्यक हो गया। इस प्रकार २० व्याकरण के वाङमय में सरस्वतीकण्ठाभरण अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रारम्भिक सात अध्यायों में लौकिक शब्दों का सन्निवेश है और आठवें अध्याय में स्वरप्रकरण तथा वैदिकशब्दों का अन्वाख्यान है। . २५ . १. दण्डनाथवृत्ति सहित सरस्वतीकण्वभरण के सम्पादक पं० साम्ब शास्त्री ने लिखा है कि इसमें सात ही अध्याय हैं । देखो-ट्रिवेण्ड्रम प्रकाशित स० के०, भाग १, भूमिका पृष्ठ १ । यह सम्पादक की महती अनवधानता है कि उसने समग्र ग्रन्थ का विना अवलोकन किये सम्पादन कार्य प्रारम्भ कर दिया। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सरस्वतीकण्ठाभरण का आधार 'सरस्वतीकण्ठाभरण' का मुख्य आधार पाणिनीय और चान्द्रव्याकरण हैं। सूत्ररचना और प्रकरणविच्छेद आदि में ग्रन्थकार ने पाणिनीय अष्टाध्यायी की अपेक्षा चान्द्रव्याकरण का आश्रय अधिक लिया है। यह इन तीनों ग्रन्थों की पारस्परिक तुलना से स्पष्ट है। पाणिनीय शब्दानुशासन के अध्ययन करनेवालों को चान्द्रव्याकरण और सरस्वतीकण्ठाभरण का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य करना चाहिये। . सरस्वतीकण्ठाभरण के व्याख्याता १० . १-भोजराज __भोजराज ने स्वयं अपने शब्दानुशासन की व्याख्या लिखी थी। इस में निम्न प्रमाण हैं- . १. गणरत्नमहोदधिकार वर्षमान लिखता है 'भोजस्तु सुखादयो दश क्यविधौ निरूपिता इत्युक्तवान्' ।' १५ वर्धमान के इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भोजराज ने स्वयं अपने ग्रन्थ की वृत्ति लिखी थी। वर्धमान ने यह उद्धरण जातिकालसुखादिभ्यश्च सूत्र की वृत्ति से लिया है । २. क्षीरस्वामी अमरकोष १।२।२४ की टीका में लिखता है'इल्वलास्तारकाः । इल्वलोऽसुर इति उणादौ श्रीभोजदेवो व्याकरोत्' । क्षीरस्वामी ने यह उद्धरण सरस्वतीकण्ठाभरणान्तर्गत 'तुल्वलेल्वलपल्वलादयः3 उणादिसूत्र की वृत्ति से लिया है। यद्यपि यह पाठ दण्डनाथ की वृत्ति में भी उपलब्ध होता है । तथापि क्षीरस्वामी ने यह पाठ भोज के ग्रन्थ से ही लिया है, यह उसके 'श्रीभोजदेवो व्याकरोत्' पदों से स्पष्ट है। . ... वर्धमान और क्षीरस्वामी ने भोज के नाम से अनेक ऐसे उद्धरण दिये हैं, जो सरस्वतीकण्ठाभरण की व्याख्या से ही उद्धृत किये जा सकते हैं । अतः प्रतीत होता है कि भोजराज ने स्वयं अपने शब्दानुशासन पर कोई वृत्ति लिखी थी। १. गणरत्नमहोदधि पृष्ठ ७ । २. सरस्वतीकण्ठाभरण ३ । ३ । १०१ ॥ ० ३. सरस्वतीकण्ठाभरण २।३ । १२२ ॥ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८६ ___ इसकी पुष्टि दण्डनाथविरचित हृदयहारिणी टीका के प्रत्येक पाद की अन्तिम पुष्पिका से भी होती है। उस का पाठ इस प्रकार है___ 'इति श्रीदण्डनायनारायणभट्टसमुद्धृतायां सरस्वतीकण्ठाभरणस्य लघुवृत्तौ हृदयहारिण्या" ....। इस पाठ में 'समुद्धृतायां और लघुवृत्तौ' पद विशेष महत्व के ५ हैं । इनसे सूचित होता है कि नारायणभट्ट ने किसी विस्तृत व्याख्या का संक्षेपमात्र किया है, अन्यथा वह ‘समुद्धृतायां' न लिखकर' विरचितायां आदि पद रखता। प्रतीत होता है कि उसने भोजदेव की स्वोपज्ञ बहदवत्ति का उसी के सब्दों में संक्षेप किया है।' अत एव क्षीर वर्धमान आदि ग्रन्थकारों के द्वारा भोज के नाम से उद्धृत वृत्ति १० के पाठ प्रायः नारायणभट्ट की वृत्ति में मिल जाते हैं। ___ भोज के अन्य ग्रन्थ -महाराज भोजदेव ने व्याकरण के अतिरिक्त योगशास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, साहित्य और कोष आदि विषयों के अनेक ग्रन्थ रचे हैं। २-दण्डनाथ नारायण भट्ट (१२ वीं शताब्दी वि०) दण्डनाथ नारायणभट्ट नामक विद्वान् ने सरस्वतीकण्ठाभरण पर 'हृदयहारिणी' नाम्नी व्याख्या लिखी है । दण्डनाथ ने अपने ग्रन्थ में अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया। अतः इसके देश काल आदि का बृत्त अज्ञात है। ' दण्डनाथ का नाम-निर्देश-पूर्वक सबसे प्राचीन उल्लेख देवराज की २० निघण्टु-व्याख्या में उपलब्ध होता है।' यह उसकी उत्तर सीमा है । देवराज सायण से पूर्ववर्ती है। सायण ने देवराज की निघण्टीका को उद्धृत किया है। देवराज का काल विक्रम की १४ वीं शताब्दी १. त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित सरस्वतीकण्ठाभरण के सम्पादक ने इस अभिप्राय को न समझकर 'समुद्धृतायां' का संबन्ध काशिकावृत्ति के साथ जोड़ा है। २५ द्र०-चतुर्थ भाग की भूमिका, पृष्ठ १२ । २. निघण्टुटीका पृष्ठ २१८, २६०, २६७ सामश्रमी संस्करण। त्रिवेन्द्रम संस्करण के चतुर्थ भाग के भूमिका लेखक के. एस. महादेव शास्त्री ने दण्डनाथ के कालनिर्णय पर लिखते हुए सायण का ही निर्देश किया है, देवराज का उल्लेख नहीं किया है । द्र०-भूमिका, भाग ४, पृष्ठ १७ । Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास का उत्तरार्ध माना जाता है।' इसलिये दण्डनाथ उससे प्राचीन है, इतना ही निश्चय से कहा जा सकता है । हृदयहारिणी व्याख्या सहित सरस्वतीकण्ठाभरण के सम्पादक साम्बशास्त्री ने 'दण्डनाथ' शब्द से कल्पना की है कि नारायणभट्ट भोजराज का सेनापति वा न्यायाधीश था। हृदयहारिणी टीका के चतुर्थ भाग के भूमिका-लेखक के. एस. महादेव शास्त्री का मत है कि दण्डनाथ मुग्धबोधकार वोपदेव से उत्तरवर्ती है । इस बात को सिद्ध करने के लिये उन्होंने कई पाठों की तुलना की है । उनके मत में दण्डनाथ का काल १३५०- १४५० १० ई. सन के मध्य है। हमें महादेव शास्त्री के निर्णय में सन्देह है। क्योंकि मुग्धबोध के साथ तुलना करते हुए जिन मतों का निर्देश किया है, वे मत मुग्धबोध से प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलते हैं। यथा निष्ठा में स्फायी को विकल्प से स्फी भाव का विधान क्षीरस्वामी कृत क्षीरतरङ्गिणी में भी उपलब्ध १५ होता है। ___ “निष्ठायां स्फायः स्फी (६ । १ । १२) स्फीतः। ईदित्त्वं स्फायेरादेशानित्यत्वे लिङ्गम्-स्फातः । १ । ३२६ ।' ३- कृष्ण लीलाशुक मुनि (सं० १२२५-१३०० वि० के मध्य) कृष्ण लीलाशुक मुनि ने सरस्वतीकण्ठाभरण पर पुरुषकार' नाम्नी २० व्याख्या लिखी है। इसका एक हस्तलेख त्रिवेण्डम के हस्तलेख संग्रह में है। देखो-सूचीपत्र भाग ६, ग्रन्थाङ्क ३५ । पं० कृष्णमाचार्य ने भी अपने 'हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' ग्रन्थ में इसका उल्लेख किया है । इस टीका में ग्रन्थकार ने पाणिनीय जाम्बवती काव्य के अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं।' २५ कृष्ण लीलाशुक वैष्णव सम्प्रदाय का प्रसिद्ध प्राचार्य है। इसका बनाया हुअा कृष्णकर्णामृत वा कृष्णलीलामृत नाम का स्तोत्र वैष्णवों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसने धातुपाठविषयक 'दैवम्' ग्रन्थ पर 'पुरुष कार' नाम्नी व्याख्या लिखी है। इससे ग्रन्थकार का व्याकरणविषयक प्रौढ़ पाण्डित्य स्पष्ट विदित होता है । ३० १. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १, खण्ड २, पृष्ठ २११ । २. द्र० - भाग १, भूमिका पृष्ठ २, ३। ३. द्र० - पृष्ठ ३३६ । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६१ कई विद्वान् कृष्ण लीलाशुक को बंगदेशीय मानते हैं, परन्तु यह चिन्त्य है । 'पुरुषकार' के अन्त में विद्यमान श्लोक से विदित होता है कि वह दाक्षिणात्य है, काञ्चीपुर का निवासी है । इसका निश्चित काल अज्ञात है । कृष्ण लीलाशुक-विरचित 'पुरुषकार' व्याख्या की कई पंक्तियां देवराज-विरचित निघण्टुटीका में उद्धृत है।' देवराज का ५ समय सं० १३५०-१४०० के मध्य माना जाता है । अतः कृष्ण लीलाशुक सं० १३५० से पूर्ववर्ती है। यह उसकी उत्तर सीमा है। पुरुषकार में आचार्य हेमचन्द्र का मत तीन बार उद्धत हैं। हेमचन्द्र का ग्रन्थलेखन काल सं० ११६६-१२२० के लगभग है । यह कृष्ण लीलाशुक्र की पूर्व सीमा है। पं० सीताराम जयराम जोशी ने 'संस्कृतसाहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में कृष्ण लीलाशुक का काले सन् ११००। ई० (वि० सं० ११५७) के लगभग माना है, वह चिन्त्य है। पुरुषकार में 'कविकामधेनु' नामक ग्रन्थ कई बार उद्धृत है। यह अमरकोष की टीका है। इस ग्रन्थ में पाणिनीय सूत्र उद्धृत हैं। ___ कृष्ण लीलाशुक के देश काल आदि के विषय में हमने स्वसम्पा- १५ दित दैवपुरुषकारवार्तिक के उपोद्घात में विस्तार से लिखा है। अतः इस विषय में वहीं (पृष्ठ ५-८) देखें । कृष्ण लीलाशुक मुनि के अन्य ग्रन्थों का भी विवरण वहीं दिया है। पिष्टपेषणभय से यहां पुन नहीं लिखते। ४-रामसिंहदेव २० रामसिंहदेव ने सरस्वतीकण्ठाभरण पर 'रत्नदर्पण' नाम्नी व्याख्या । लिखी है । ग्रन्थकार का देशकाल अज्ञात है। १. क्षुप् प्रेरणे, क्षपि क्षान्त्यामिति स्थादिषु [अ] पठितेऽपि बहुलमेतन्निदर्शनमित्यस्योदाहरणत्वेन धातुवृत्तौ पठ्यते । क्षपेः क्षपयन्ति क्षान्त्यां प्रेरणे क्षपयेत् इति दैवम् । निघण्टुटीका पृष्ठ ४३ । देखो-दैवम् पुरुषकार, पृष्ठ २५ ५८, हमारा संस्करण। २. द्र० -पृष्ठ १६, २१, २३, हमारा संस्करण । . ३. द्र०—पृष्ठ २५६ ।। ४. यथा-प्रसूनं कुसुमं सुमम् (अमर २।४। १७) इत्यत्र कविकामधेनुः षूङ प्राणिप्रसवे ।....."पृष्ठ २६, हमारा संस्क० । ५. 'स्यादारितकं हासः....... इत्यमरसिंहश्च (१।६। ३५) तच्चतत् छुर छेदने क्तः । यावादिभ्यः कन् (अष्टा० ५। ४ । २६) इति । कामधेनौ व्याख्यातम् । पृष्ठ ६४ हमारा संस्करण। . Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रक्रियाग्रन्थकार (सं० १५०० वि० से पूर्ववर्ती) प्रक्रियाकौमुदी की प्रसादटीका में लिखा है'तथा च सरस्वतीकण्ठाभरणप्रक्रियायां पदसिन्धुसेतावित्युक्तम् ।" इससे प्रतीत होता है कि सरस्वतीकण्ठाभरण पर 'पदसिन्धुसेतु' नामक कोई प्रक्रियाग्रन्थ रचा गया था। ग्रन्थकार का नाम तथा देशकाल अज्ञात है। विट्ठल द्वारा उद्धृत होने में यह ग्रन्थकार सं० १५०० से पूर्ववर्ती है, यह स्पष्ट है। ९. बुद्धिसागर सूरि (सं० १०८० वि०) आचार्य बुद्धिसागर सूरि ने 'बुद्धिसागर' अपर नाम 'पञ्चग्रन्थी' व्याकरण रचा था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वीय लिङ्गानुशासन विवरण और हैम अभिधानचिन्तामणि' की व्याख्या में इसका निर्देश किया परिचय बुद्धिसागर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का आचार्य था । यह चन्द्र कुल के वर्धमान सूरि का शिष्य और जिनेश्वर सूरि का गुरुभाई था । कुछ विद्वान् जिनेश्वर सूरि का सहोदर भाई मानते हैं। काल बुद्धिसागर व्याकरण के अन्त में एक श्लोक है'श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्र। सश्रीकजाबालिपुरे तदाद्यं दृब्धं मया सप्तसहस्रकल्पम् ॥' १. द्र०-भाग २, पृष्ठ ३१२ । २. उदरम् जाठरव्याधियुद्धानि । जठरे त्रिलिङ्गमितिः बुद्धिसागरः । पृष्ठ २० १०० । इसी प्रकार पृष्ठ ४, १०३, १३३ पर भी निर्देश मिलता है । ३. [उदरम्] त्रिलिङ्गोऽयमिति बुद्धिसागरः । पृष्ठ २४५ । ४. बुद्धिसागर सूरि का उल्लेख पुरातनप्रबन्धसंग्रह पृष्ठ ६५ के अभयदेव सूरि के प्रबन्ध में मिलता है। ५. पं० चन्द्रसागर सूरि सम्पादित सिद्धहैमशब्दानुशासन बृहद्वृत्ति प्रस्तावना, पृष्ठ 'खे'। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६३ तदनुसार बुद्धिसागर ने वि० सं० १०८० में उक्त व्याकरण की रचना की थी । श्रतः बुद्धिसागर का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है, यह स्पष्ट है । व्याकरण का परिमाण ऊपर जो श्लोक उद्धृत किया है, उसमें 'बुद्धिसागर व्याकरण' ५ का परिमाण सात सहस्र श्लोक लिखा है । प्रतीत होता है कि यह परिमाण उक्त व्याकरण के खिलपाठ और उसकी वृत्ति के सहित हैं । प्रभावकचरित में इस व्याकरण का परिमाण आठ सहस्र श्लोक लिखा है । मथा श्रीबुद्धिसागरसूरिश्वत्रे व्याकरणं नवम् । सहस्राष्टकमानं तद् श्रीबुद्धिसागराभिधम् ' ॥ मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हर्षवर्धनकृत लिङ्गानुशासन की भूमिका पृष्ठ ३४ पर सम्पादक ने बुद्धिसागरकृतः लिङ्गानुशासन का निर्देश किया है । इसके उद्धरण हेमचन्द्र ने स्वीय लिङ्गानुशासन विवरण और अभिधान चिन्तामणि की व्याख्या में दिये हैं ।' व्याकरण पद्य - बद्ध है । यह १०. भद्रेश्वर सूरि (सं० १२०० वि० से. पूर्व ) भद्रेश्वर सूरि ने 'दीपक' व्याकरण की रचना की थी । यह ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध है । गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान ने लिखा है- २० 'मेधाविनः प्रवरवीपककत्तं युक्ताः' ।" १५ इसकी व्याख्या में वह लिखता है - 'दीपककर्त्ता भद्रेश्वरसूरिः । प्रवरश्चासौ दीपककर्त्ता च प्रवरदीपककर्त्ता । प्राधान्यं चास्याधनिकवैयाकरणापेक्षा' | आगे पृष्ठ ६८ पर 'दीपक' व्याकरण का निम्न अवरण दिया है- २५ १. द्र० - पूर्व पृष्ठ ६६२, टि० २, ३ । २. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठे १ । ३. गणरत्न महोदधि, पृष्ठ २ । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ‘भद्रेश्वराचार्यस्तुकिञ्च स्वा दुर्भगा कान्ता रक्षान्ता निश्चिता समा। सचिवा चपला भक्तिर्बाल्येति स्वादयो दश ॥ इति स्वादौ वेत्यनेन विकल्पेन पुंवद्भावं मन्यते ।' इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भद्रेश्वर सूरि ने कोई शब्दानुशासन रचा था, और उसका नाम 'दीपक' था। सायणविरचित माधवीया धातूवत्ति में श्रीभद्र के नाम से व्याकरणविषयक अनेक मत उधत हैं। सम्भव है कि वे मत भद्रेश्वर सूरि के दीपक व्याकरण के हों। धातुवृत्ति पृष्ठ ३७८, ३७६ से व्यक्त होता है कि भद्रेश्वरसूरि ने अपने १० धातुपाठ पर भी कोई वृत्ति रची थी । इसका वर्णन धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (३)' नामक बाईसवें अध्याय में किया है। काल वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि की रचना वि० सं० ११९७ में की थी। उसमें भद्रेश्वर सूरि और उसके दीपक व्याकरण का उल्लेख १५ होने से इतना स्पष्ट है कि भद्रेश्वर सूरि सं० ११६७ से पूर्ववर्ती है, परन्तु उससे कितना पूर्ववर्ती है, यह कहना कठिन है। ___पं० गुरुपद हालदार ने भद्रेश्वर सूरि और उपाङ्गी भद्रबाहु सूरि की एकता का अनुमान किया है। जैन विद्वान् भद्रवाह सूरि को चन्द्रगुप्त मौर्य का समकालिक मानते हैं। अतः जब तक दोनों की २० एकता का बोधक सुदृढ़ प्रमाण न मिले, तब तक इनकी एकता का अनुमान व्यर्थ है। ११. वर्धमान (सं० ११५०.१२२५ वि०) गणरत्नमहोदधि संज्ञक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के द्वारा वर्धमान २५ वैयाकरण-निकाय में सुप्रसिद्ध है। परन्तु वर्धमान ने किसी स्वीय शब्दानुशासन का प्रवचन किया था, यह अज्ञात है। १. सप्ननवत्यधिकेष्वेकादशसु शतेष्वतीतेषु । वर्षाणां विक्रमतो गणरत्नमहोदधिविहितः ॥ पृष्ठ २५१ । २. व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ४५२ । ३. जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ३४, ३५ । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६९५. संक्षिप्तसार की गोयीचन्द्र कृत टीका में एक पाठ है चन्द्रोऽनित्यां वृद्धिमाह । भागवृत्तिकारस्तु नित्यं वृद्धयभावम् ।.. 'वौ श्रमेर्वा' इति वर्धमानः। .... इस उद्धरण से स्पष्ट है कि वर्धमान ने कोई शब्दानुशासन रचा था। और उसी के अनुरूप उसके गणपाठ को श्लोकबद्ध करके उसको ५ ब्याख्या लिखी थी। काल वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि के अन्त में उसका रचनाकाल वि० सं० ११६६ लिखा है। वर्धमान ने स्वविरचित 'सिद्धराज' वर्णन काव्य का उद्धरण गणरत्नमहोदधि (पृष्ठ १७) में दिया है। प्रारम्भ १० में तृतीय श्लोक की व्याख्या के पाठान्तर स्वशिष्यैः कुमारपालहरिपालमुनिचन्द्रप्रभृतिभिः' में कुमारपाल का वि० सं० ११५०-१२२५ तक मानना युक्त है। वर्धमान-विरचित गणरत्नमहोदधि का वर्णन दूसरे भाग में गण'पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता के प्रकरण में किया हैं। १२. हेमचन्द्र सूरि (सं० ११४५-१२२९ वि०) प्रसिद्ध जैन प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' नामक एक सांगोपाङ्ग बृहद् व्याकरण लिखा है। परिचय २० . वंश-हेमचन्द्र के पिता का नाम 'चाचिग' (अथवा 'चाच') और माता का नाम 'पाहिणी' (पाहिनी) था । पिता वैदिक मत का अनुयायी था, परन्तु माता का झुकाव जैन मत की ओर था। हेमचन्द्र का जन्म मोढवंशीय वैश्यकुल में हुआ था। जन्म-काल-हेमचन्द्र का जन्म कार्तिक पूर्णिमा सं० ११४५ में २५ हुआ था। । १. संधि प्रकरण सूत्र ६।। २. पृष्ठ २ । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ जन्म-नाम-हेमचन्द्र का जन्म-नाम 'चांगदेव' (पाठा० 'चंगदेव') था। ___ जन्म-स्थान-ऐतिहासिक विद्वानों के मतानुसार हेमचन्द्र का जन्म 'धुन्धुक' ('धुन्धुका') जिला अहमदाबाद में हुआ था। गरु-हेमचन्द्र के गुरु का नाम 'चन्द्रदेव सरि' था। इन्हें देवचन्द्र सूरि भी कहते थे । ये श्वेताम्बर सम्प्रदायान्तर्गत वज्रशाखा के आचार्य थे। दीक्षा -एक बार माता के साथ जैन मन्दिर जाते हुए चांगदेव (हेमचन्द्र) की चन्द्रदेव सूरि से भेंट हुई। चन्द्रदेव ने चांगदेव को १० विलक्षण प्रतिभाशाली होनहार बालक जानकर शिष्य बनाने के लिये उन्हें उनकी माता से मांग लिया । माता ने भी अपने पुत्र को श्रद्धा पूर्वक चन्द्रदेव मुनि को समर्पित कर दिया। इस समय चांगदेव के पिता परदेश गये हुए थे। साधु होने पर चांगदेव का नाम सोमचन्द्र रखा गया । प्रभावक-चरितकार के मतानुसार वि० सं० ११५० १५ माघसुदी १४ शनिवार के ब्राह्ममूहर्त में पांच वर्ष की वय में पार्श्व नाथ चैत्य में भागवती प्रव्रज्या दी गई।' मेरुतुगसूरि के मतानुसार वि० सं० ११५४ माघसुदी ४ शनिवार को ह वर्ष की आयु में प्रव्रज्या दी गई।' सं० ११६२ में मारवाड़ प्रदेशान्तर्गत 'नागौर' नगर में १७ वर्ष की वय में इन्हें सूरि पद मिला, और इनका नाम हेमचन्द्र हुा । .२० कई विद्वान् सूरि पद की प्राप्ति सं० ११६६ वैशाखसुदी ३ (अक्षय तृतीया), मध्याह्न समय २१ वर्ष की वय में मानते हैं।' पाण्डित्य-हेमचन्द्र जैन मत के श्वेताम्बर सम्प्रदाय का एक प्रामाणिक प्राचार्य है । इसे जैन ग्रन्थों में 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा है। जैन लेखकों में हेमचन्द्र का स्थान सर्वप्रधान है । इसने व्याकरण, २५ न्याय, छन्द, काव्य और धर्म आदि प्रायः समस्त विषयों पर ग्रन्थ रचना की है । इसके अनेक ग्रन्थ इस समय अप्राप्य हैं। ___ सहायक-गुजरात के महाराज सिद्धराज और कुमारपाल प्राचार्य हेमचन्द्र के महान भक्त थे। उनके साहाय्य से हेमचन्द्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, और जैन मत का प्रचार किया। १.श्री जैन सत्यप्रकाश' वर्ष ७, दीपोत्सवी अंक (१९४१)पृष्ठ ६३ टि० २ [१] । २. वही, पृष्ठ ६३, टि० २ [२] । ३. वही, पृष्ठ ६३, ६४ । ३ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से प्रवचीन वैयाकरण ६६७ निर्वाण – आचार्य हेमचन्द्र का निर्वाण सं० १२२९ में ८४ वर्ष Satar में हुआ । आचार्य हेमचन्द्र का उपर्युक्त परिचय हमने प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ ( पृष्ठ ८३-६५) और मुनिराज सुशीलविजयजी के ‘कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य' लेख' के अनुसार दिया है । ८८ शब्दानुशासन की रचना - हेमचन्द्र ने गुजराज के सम्राट् सिद्ध- ५ राज के आदेश से शब्दानुशासन की रचना की। सिद्धराज का जयसिंह भी नामान्तर था ।" सिद्धराज का काल सं० १९५० - १९६६ तक माना जाता है । हैप शब्दानुशासनं हेमचन्द्रविरचितं सिद्ध हैमशब्दानुशासन संस्कृत और प्राकृत दोनों १० भाषाओं का व्याकरण हैं । प्रारम्भिक ७ अध्यायों के २८ पादों में संस्कृतभाषा का व्याकरण है । इसमें ३५६६ सूत्र हैं । ग्राठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश आदि का अनुशासन है। आठवें अध्याय में समस्त १९१६ सूत्र हैं । जैन आगम की प्राकृतभाषा का अनुशासन पाणिनि के ढंग पर 'आम्' १५ कह कर समाप्त कर दिया है। इस प्रकार के अनेकविध प्राकृत भाषात्रों का व्याकरण सर्वप्रथम हेमचन्द्र ने ही लिखा है । जैनत्रसिद्धि के अनुसार हैमशब्दानुशासन की रचना में केवल एक वर्ष का समय लगा था । हैमबृहद्वृत्ति के व्याख्याकार श्री पं० चन्द्रसागर सूरि के मतानुसार हेमचन्द्राचार्य ने हैमव्याकरण को रचना संवत् १९६३ - २० ११९४ में की थी । हमारा विचार है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण की रचना सं० १९९६-१९९६ के मध्य की है । क्योंकि वर्धमान ने सं० १९९७ में गणरत्नमहोदधि लिखी है । यदि सं० १. श्री जैन सत्यप्रकाश' वर्ष ७ दीपोत्सवी श्रंक (१९४९) पृष्ठ ६१-१०६ । २. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ६० । ३. सं० १९५० पूर्व श्रीसिद्धराज जयसिंहदेवेन वर्ष ४६ राज्यं कृतम् । SP चिन्तामणि, पृष्ठ ७६ । इसका पाठान्तर भी देखें । ४. श्रीहेमचन्द्राचार्यैः श्रीसिद्धहेमाभिधानमभिनवं व्याकरणं सपादलक्षप्रमाणं संवत्सरेण रचयांचक्रे । प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ६० ॥ ५. श्री पं० चन्द्रसागर सूरि प्रकाशित हैमबृहद्वृत्तिं भार्ग 2 की भूमिका पृष्ठ 'कौ' । 25 : २५ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमव्याकरण का क्रम प्राचीन शब्दानुशासनों के सदृश नहीं है । इसकी रचना कातन्त्र के समान प्रकरणानुसारी है । इसमें यथाक्रम संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यञ्जनसन्धि, नाम, कारक, षत्व, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित प्रकरण हैं । ५ १० ६६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ११६७ से पूर्व हेमचन्द्र ने व्याकरण लिखा होता, तो वर्धमान उसका निर्देश अवश्य करता । १५ इन चारों का वर्णन अनुपद किया जायेगा । ५ - धातुपाठ और उसकी धातुपारायण नाम्नी व्याख्या । ६ - गणपाठ और उसकी वृत्ति ।' ७ – उणादिसूत्र और उसकी स्वोपज्ञा वृत्ति । ८ - लिङ्गानुशासन और उसकी वृत्ति । इन ग्रन्थों का वर्णन यथास्थान तत्तत् प्रकरणों में किया जायेगा । है व्याकरण के व्याख्याता हेमचन्द्र आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समस्त मूल ग्रन्थों की स्वयं टीकाएं रची । उसने अपने व्याकरण की तीन व्याख्याएं लिखी हैं । शास्त्र में प्रवेश करनेवाले बालकों के लिये लघ्वी वृत्ति, मध्यम बुद्धिवालों के लिए मध्य वृत्ति, और कुशाग्रमति प्रौढ़ व्यक्तियों के लिये बृहती २५ वृत्ति की रचना की है । लघ्वी वृत्ति का परिमाण लगभग ६ सहस्र श्लोक है, मध्य का १२००० सहस्र श्लोक, और बृहती का १८ सहस्र २० व्याकरण के अन्य ग्रन्थ १ - है मशब्दानुशासन की स्वोपज्ञा लघ्वी वृत्ति ( ६००० श्लोक परिमाण) । २ - मध्य वृत्ति ( १२००० श्लोक परिमाण) । ३ - बृहती वृत्ति (१८००० श्लोक परिमाण) । ४- - हैमशब्दानुशासन पर बृहन्न्यास । १. मुनिराज सुशीलविजयजी का लेख 'श्री जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ७, दीपो • त्सवी अंक, पृष्ठ ८४ । २. श्री जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ७, दीपोत्सवी प्रक, पृष्ठ ६६ ॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६६६ श्लोक | आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण पर ६० सहस्र श्लोक परिमाण का 'शब्दमहार्णव न्यास' अपर नाम 'बृहन्नयास' नामक विवरण लिखा था । यह चिर काल से अप्राप्य था । श्रीविजयलावण्यसूरिजी के महान् प्रयत्न से यह प्रारम्भ से पञ्चन ग्रध्याय तक ५ भागों में प्रकाशित हो चुका है । हैमशब्दानुशासन में स्मृति ग्रन्थकार - इस व्याकरण तथा इसकी वृत्तियों में निम्नलिखित प्राचीन प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है - पिलि, यास्क, शाकटायन, गार्ग्य, वेदमित्र, शाकल्य, इन्द्र, चन्द्र, शेषभट्टारक, पतञ्जलि, वार्तिककार, पाणिनि, देवनन्दी, जयादित्य, वामन, विश्रान्तविद्याधरकार, विश्रान्तन्यासकार ( मल्लवादी १० सूरि), जैन शाकटायन, दुर्गसिंह, श्रुतपाल, भर्तृहरि, क्षीरस्वामी, भोज, नारायणकण्ठी, सारसंग्रहकार, द्रमिल, शिक्षाकार, उत्पल उपाध्याय ( कैयट ),' क्षीरस्वामी, जयन्तीकार, न्यासकार और पारायणकार । अन्य व्याख्याकार १५ हैमव्याकरण पर अनेक विद्वानों ने टीका टिप्पणी आदि लिखे । उनके ग्रन्थ प्रायः दुष्प्राप्य श्रोर अज्ञात हैं । श्री अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने 'मध्यकालीन भारतना महावैयाकरण' शीर्षक लेख में हैम व्याकरण के निम्न व्याख्याकारों का निर्देश किया है' - १ - रामचन्द्र सूरि ( हेमचन्द्राचार्य शिष्य) २. धर्मघोष ३. देवेन्द्र (हेमचन्द्र - शिष्य) उदयसागर का शिष्य) ४. कनकप्रभ (देवेन्द्र - शिष्य ) ५. काकल (कक्कल कायस्थ ) लघुवृत्ति इसका निर्देश हेमहंसगणि के न्यायसंग्रह के न्यास में मिलता है । " ६. सौभाग्य- सागर (सं० - १५९१) हैम बृहद्वृत्ति ढुंढिका लघुन्यास ( ५३०० श्लोक) (६००० श्लोक ) 11 कतिचिद् हैम दुर्गपद व्याख्या न्यासोद्धार १. श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७, दीपोत्सवी अंक, पृष्ठ ८६ । २. वही, पृष्ठ ८६ । ३. काकलकायस्थकृतलक्षणलघुवृत्तिस्थः पृष्ठ १८७ । २५ ३० Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० عر १० Tom संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ७. विनयचन्द्र हैम (संस्कृत) ढुढिका ८. मुनिशेखर हैम लघुवृत्ति ढुढिका ६. धनचन्द्र हैम अवचूरि १०. उदय सौभाग्य (सं० १५९१) हैम चतुर्थपाद वृत्ति ११. जिन सागर हैम व्याकरणदीपिका १२. रत्नशेखर हैम व्याकरण अवचुरि १३. वल्लभ (सं० १६६१ ज्ञान विमलशिष्य) हैम दुर्गपदव्याख्या , १४. श्रीप्रभसूरि (सं० १२८०) हैम कारकसमुच्चय " , हैमवृत्ति , डा० वेल्वालकर ने 'सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर' नामक ग्रन्थ में हैम व्याकरण के ७ व्याख्याकारों का उल्लेख किया है। उनमें पूर्व सूची से निम्न नाम अधिक हैं१५. विनय विजयगणी हैम लघप्रक्रिया १५ १६. मेघविजय .. हैम कौमुदी डा० वेल्वाल्कर ने अज्ञातनामा व्यक्ति के शब्दमहार्णव न्यास का भी उल्लेख किया है, वह वस्तुतः प्राचार्य हेमचन्द्र का स्वोपन न्यास है। आचार्य हेमचन्द्र के साहित्यिक कार्य के परिचय के लिए 'श्री जैन २० सत्यप्रकाश' वर्ष ७, दीपोत्सवी अंक (१९४१) में पृष्ठ ७५-६० तक श्री अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह का 'मध्य कालीन भारतना महावैयाकरण' लेख, और पृष्ठ ६१-१०६ तक श्री मुनिराज सुशीलविजयजी का 'कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य अने तेमनु साहित्य' लेख देखना चाहिये। १३. मलयगिरि (सं० ११८८-१२५० वि०) ...जैन आचार्य मलयगिरि ने 'शब्दानुशासन' के नाम से एक सानोपाङ्ग व्याकरण लिखा है। यह शब्दानुशासन सं० २०२२ (मार्च १६६७ ई०) में प्रकाशित हुआ है । इसके सम्पादक श्री पं० बेच रदास Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०१ जीवराज दोशी ने प्राचार्य मलयगिरि का जो परिचय अंग्रेजीभाषानिबद्ध भूमिका में दिया है, प्रधानतया उसी के आधार पर हम मलयगिरि का परिचय दे रहे हैं परिचय वंश- सम्भवतः मलयगिरि प्राचार्य मूलतः वैदिक मतानुयायी ५ ब्राह्मण कुल के थे । वैदिक मतानुयायी रहते हुए ही उन्होंने १२ वर्ष की अवस्था में संन्यास लिया था। इस अनमान का आधार नाम के अन्त में प्रयु वैत गिरि शब्द है। यह ब्राह्मण संन्यासियों के दण्डी आदि १० प्रसिद्ध विभागों में अन्यतम है। संन्यास के सात वर्ष पश्चात् मलयगिरि जैन साधु बमे। इन्होंने अपने गुरु वा गच्छ आदि का १० उल्लेख किसी ग्रन्थ में नहीं किया, ना ही अन्य स्रोतों से इस विषय की जानकारी प्राप्त होती हैं। .. जन्म-काल- मलयगिरि का जन्म श्री दोशी जी ने वि० सं० ११८८ माना है। नाना हा ..... ..... . देश - मलयगिरि-विरचित जैन आगमों की टीकात्रों में प्रयुक्त १५ शब्दविशेषों के आधार पर श्री देशी जी ने इनका जन्मस्थान सौराष्ट्र स्वीकार किया है। काल-जिनमण्डनगपि ॥१५ वीं शती वि०) विरचित 'कुमारपाल-प्रबन्ध' में लिखा है कि प्राचार्य हेमचन्द्र, ने. देवेन्द्र शर्मा सूरि और मलयगिरि के साथ गौड़देश के लिये प्रस्थान किया, और वे खिल्लुर २० ग्राम में पहुंचे। शब्दानुशासन-रचनाकाल- पुराने वैयाकरणों ने स्वकाल-बोधक विशिष्ट उदाहरण जैसे अपने शब्दानुशासनों में दिये हैं, उसी प्रकार मलयगिरि ने भी स्याते श्वे (कृदन्त ३ । २३) सूत्र की वृत्ति में अदहदरातीन कुमारपालः विशिष्ट उदाहरण दिया है । इस से स्पष्ट २५ है कि मलयगिरि कुमारपाल के विसी युद्धकाल के समय विद्यमान थे। कुमारपाल ने सं० १२०७ में शाकम्भरि के राजा को पराजित किया था। उसने वि० सं० १२१७-१२२७ के मध्य मल्लिकार्जुन पर ... १. चित्तौड़ के समिद्ध श्वर मन्दिर का सं० १२०७ का शिलालेख । इसमें शाकम्भरिराज विजयवाले वर्ष में ही कुमारपाल का यहां पूजार्थ पाना लिखा ३० Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विजय प्राप्त की थी, ऐसा ऐतिहासिकों का मत है। चन्द्रावतीराज विजय इन दोनों के मध्य मानी जाती है। निश्चय ही कुमारपाल की इन तीन प्रधान विजयों में से किसी एक की ओर मलयगिरि का संकेत है, अथवा अरातीन बहवचन से यह भी सम्भावना हो सकतो है कि इस उदाहरण में कुमारपाल की तीनों प्रधान विजयों का संकेत है। इस प्रकार मलयगिरि द्वारा प्रस्तुत व्याकरण और उसकी स्वोपज्ञ टीका की रचना का काल वि० सं० १२२७ के पश्चात् स्वीकार किया जा सकता है। श्री दोशी जी ने भी लिखा है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के निर्वाण (सं० १२२६) से कुछ पूर्व मलयगिरि ने स्वीय शब्दानुशासन १० की रचना की थी। दोशी जी के इस लेख में १४ वर्ष की अवस्था में शब्दानुशासन की रचना बताई गई है। निश्चय ही यहां fourty के स्थान में fourteen शब्द का प्रयोग अनवधानतामूलक अथवा मुद्रणप्रमादजन्य है क्योंकि सं० ११८८ में जन्म मानने और आचार्य हेम चन्द्र के निर्वाणकाल सं० १२२६ से पूर्व व्याकरण-रचना स्वीकार १५ करने पर ४० वर्ष की अवस्था में ही व्याकरण-रचना सिद्ध होती है । निर्वाण - मलयगिरि का कितने वर्ष की अवस्था में कब निवाण हा, इसका कोई संकेत प्राप्त नहीं होता । मलयगिरि ने जैन आगमों तथा अन्य जैन 'ग्रन्थों पर जो लगभग दो लक्ष श्लोक परिमाण का वृत्ति-वाङमय लिखा, उसमें स्वीय शब्दानुशासन के सूत्रों का निर्देश २० होने से स्पष्ट है कि यह अति विस्तृत वृत्ति-वाङ्मय शब्दानुशासन की रचना (सं० १२२८) के पश्चात् लिखा गया है । इतने विशाल वृत्तिवाङमय को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्राचार्य मलयगिरि शब्दानुशासन की रचना (सं० १२२८) के पश्चात् २०-२५ वर्ष अवश्य जीवित रहे होंगे। अतः हमने प्राचार्य मलयगिरि का काल सं० २५ ११८८-१२५० वि० तक सामान्यरूप से माना है। शब्दानुशासन प्राचार्य मलयगिरि ने स्व शब्दानुशासन प्रक्रियाक्रमानुसार सन्धि नाम प्राख्यात कृदन्त और तद्धित ५ भागों में विभक्त करके लिखा है । प्रत्येक विभाग में पादसंज्ञक अवान्तर विभाग हैं, जिनकी गया है। नाडेल ग्राम के सं० १२१३ के शिलालेख में भी इस विजय का वर्णन मिलता है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचाय पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०३ सख्या क्रमशः ५+8+१०+६+११ है, अर्थात् ४१ पाद हैं । उपलब्ध ग्रन्थ खण्डित है, अतः सूत्र संख्या कितनी है, यह नहीं कहा जा सकता। नामान्तर-मलयगिरि-विरचित बृहत् कल्पवृत्ति की पूर्ति क्षेमकीर्ति ने की थी। उसमें इस शब्दानुशासन का उल्लेख मुष्टिव्याकरण ५ के नाम से किया है। स्वोपज्ञवृत्ति-वैयाकरण-सम्प्रदाय के अनुसार मलयगिरि ने भी अपने शब्दानुशासन पर वृत्ति लिखी है । यह शब्दानुशासन के साथ । मुद्रित हो चुकी है। परिमाण-मलयगिरि-रचित शब्दानुशासन एवं उसकी स्वोपज्ञ १० वृत्ति का परिमाण पांच सहस्र श्लोक है। - पं० विश्वनाथ मिश्र की भूल-पं० विश्वनाथ मिश्र ने जैसे अनेक वार मुद्रित चान्द्र व्याकरण की अनुपलब्धि (पूर्व पृष्ठ ६४६) लिखी है वैसे ही मलयगिरि शब्दानुशासन को भी अनुपलब्ध कहा है। यह है शोधकर्ता के परिज्ञान का एक नमूना । . अन्य ग्रन्थ ... व्याकरण-सम्बन्धी-मलयगिरि ने शब्दानुशासन से सम्बद्ध उणादि धातुपारायण गणपाठ और लिङ्गानुशासन की भी रचना की थी, परन्तु वे उपलब्ध नहीं है। इन्होंने 'प्राकृतव्याकरण' भी रचा था। सम्भव है कि आचार्य हेमचन्द्र के अनकरण पर उन्होंने संस्कृत- २० व्याकरण के अन्त में ही उसे निबद्ध किया हो । यह प्राकृत-व्याकरण भो सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। __ जैनमत-सम्बन्धी-मलयगिरि ने जैनमत के ६ आगमों, तथा हरिभद्रसदृश आचार्यों के ग्रन्थों पर भी वृत्तियां लिखी हैं । ये वृत्तियां अति विस्तीर्ण और प्रौढ़ हैं । इन वृत्तियों का परिमाण लगभग दो .२५ लक्ष श्लोक है। . प्रागम लेखन से पूर्व शम्दानुशासन की रचना-मलयगिरि ने अपनी जैनागमों की वृत्तियों में स्वीय शब्दानुशासन के सूत्र ही उद्धृत किये हैं । इससे स्पष्ट है कि मलयगिरि ने इतने विशाल वृत्ति-वाङमय । की रचना से पूर्व ही शब्दानुशासन की रचना कर ली थी। ३० Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अत्पकालिक वैयाकरण ___ आचार्य हेमचन्द्र और प्राचार्य मलयगिरि संस्कृत-शब्दानुशासन के अन्तिम रचयिता हैं। इनके साथ ही उत्तर भारत में संस्कृत के उत्कृष्ट मौलिक ग्रन्थों का रचनाकाल समाप्त हो जाता है। उसके अनन्तर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण और आधिपत्य से भारत की प्राचीन धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थानों में भारी उथल-पुथल हुई। जनता को विविध असह्य यातनाएं सहनी पड़ी। ऐसे भयंकर काल में नये उत्कृष्ट वाङमय की रचना सर्वथा असम्भव थी। उस काल में भारतीय विद्वानों के सामने प्राचीन वाङमय की १० रक्षा की ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या उत्पन्न हो गयी थी। अधिकतर आर्य राज्यों के नष्ट हो जाने से विद्वानों को सदा से प्राप्त होनेवाला राज्याश्रय भी प्राप्त होना दुर्लभ हो गया था। अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हए भी तात्कालिक विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों की रक्षार्थ उन पर टीका-टिप्पणी लिखने का क्रम बराबर प्रचलित रक्खा । उसी १५ काल में संस्कृतभाषा के प्रचार को जीवित-जागत रखने के लिये तत्कालीन वैयाकरणों ने अनेक नये लघुकाय व्याकरण ग्रन्थों की रचनाएं की। इस काल के कई व्याकरण-ग्रन्थों में साम्प्रदायिक मनोवृत्ति भी परिलक्षित होती है । इस अर्वाचीन काल में जितने व्याकरण वने, उनमें निम्न व्याकरण कुछ महत्त्वपूर्ण हैं - २० १-जौमर २-सारस्वत ३-मुग्धबोध ४-सुपद्म ५-भोज व्याकरण' ६-भट्ट अकलङ्क कृत अब हम इनका नामोद्देशमात्र से वर्णन करते हैं २५ १४. क्रमदीश्वर (सं० १३०० वि० से पूर्व) क्रपदीश्वर ने 'संक्षिप्तसार' नामक एक व्याकरण रचा है। यह सम्प्रति उसके परिष्कर्ता जुमरनन्दी के नाम पर 'जोमर' नाम से प्रसिद्ध है । क्रमदीश्वर ने स्वीय व्याकरण पर रसवती नाम्नी एक वृत्ति भी रची थी। उसी वृत्ति का जुमरनन्दी ने परिष्कार किया। १. भोज व्याकरण विनयसागर उपाध्याय कृत है । २. सम्भवतः हेमचन्द्राचार्य और वोपदेव के मध्य ।। Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०५ इसीलिये अनेक हस्तलेखों के अन्त में निम्न पाठ उपलब्ध होता है' इति वादीन्द्रचक्रचूडामणिमहापण्डितश्री क्रमदीश्वरकृतौ संक्षिप्तसारे महाराजाधिराजजुमरनन्दिशोषितायां वृत्तौ रसवत्यां । ८६ देश – पश्चिम बङ्ग प्रदेश में भागीरथी का दक्षिण प्रदेश क्रमदीश्वर की जन्म भूमि थी । यह प्रदेश 'वाघा' नाम से प्रसिद्ध है । इसी ५ प्रदेश में क्रमदीश्वर व्याकरण प्रचलित रहा । ' परिष्कर्त्ता - जुमरनन्दी उपर्युक्त उद्धरण से राजा था । कई लोग जुमर चिन्त्य है | व्यक्त है कि जुमरनन्दी किसी प्रदेश का शब्द का संबन्ध जुलाहा से लगाते हैं, यह परिशिष्टकार - गोयीचन्द्र गोयीचन्द्र प्रत्यासनिक ने सूत्रपाठ, उणादि और परिभाषापाठ पर टीकाएं लिखीं, और उसने जौमर व्याकरण के परिशिष्टों की रचना की । इण्डिया अफिस लन्दन के पुस्तकालय में ८३६ संख्या का एक हस्तलेख है, उस पर 'गोयीचन्द कृत जौमर व्याकरण परिशिष्ट' १५ लिखा है । गोयचन्द्र- टीका के व्याख्याकार १ - न्यायपञ्चानन - विद्यविनोद के पुत्र न्यायपञ्चानन ने सं० १७६६ में गोयीचन्द्र की टीका पर एक व्याख्या लिखी है । २ - तारकपञ्चानन - तारक पञ्चानन ने दुर्घटोद्घाट नाम्नी २० व्याख्या लिखी है । उसके अन्त में लिखा है 'गोयीऋद्रमतं सम्यगबुद्ध्वा दूषितं तु यत् । - अन्यथा विवृतं यद्वा तन्मया प्रकटीकृतम् ॥' ३ - चन्द्रशेखर विद्यालंकार ५ - हरिराम ४ - वंशीवादन इन का काल अज्ञात है । ६ - गोपाल चक्रवर्ती - इसका उल्लेख कोलब्रुक ने किया है १० १. सत्यनारायणवर्मा का क्रमदीवर व्याकरणविषयको विमर्शः लेख, परमार्थ सुधा, वर्ष ५, अंक ३, सं० २०३८, पृष्ठ १० 31 1 २५ ( Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गोयीचन्द्र टीका के व्याख्याकारों का निर्देश हमने डा० बेल्वाल्कर के 'सिस्टम्स् ओफ संस्कृत ग्रामर' के आधार पर किया हैं। इस व्याकरण का प्रचलनः सम्प्रति पश्चिमी बंगाल तक सीमित १५. सारस्वत-व्याकरणकार (सं० १२५० वि० के लगभग) सारस्वत व्याकरण के विषय में प्रसिद्ध है कि अनुभूतिस्वरूपाचार्य के मुख से वृद्धावस्था के कारण दन्तविहीन होने से किसी विद्वत्सभा में पुंसु के स्थान पर पुक्षु अपशब्द निकल गया । विद्वानों द्वारा अपशब्द के प्रयोग पर उपहास होने पर अनुभूतिस्वरूप ने उक्त अपशब्द के साधुत्व ज्ञापन के लिये घर पर आकर सरस्वती देवी से प्रार्थना की। उसने प्रसन्न होकर ७०० सूत्र दिये। उन्हीं के आधार पर अनभूतिस्वरूप ने इस व्याकरण की रचना की। किन्हीं के मत में सरस्वती देवी के द्वारा मूल सूत्रों का आगम होने से इस का 'सारस्वत' नाम १५ हुआ। २० इस किंवदन्ती में कहां तक सत्यता है, यह कहना कठिन है। पुनरपि इस किंवदन्ती से इतना स्पष्ट है कि मध्यकालीन विद्वान् असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिये भी तत्पर हो जाते थे। वस्तुतः ऑर्ष और अनार्ष ग्रन्थों की रचना में प्रमुख भेद है। इसीलिये श्रीदण्डी स्वामी विरजानन्द और उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन एवं अनार्ष ग्रन्थों के परित्याग पर विशेष बल दिया है।' यद्यपि सारस्वत व्याकरण के अन्त में प्रायः 'अनुभूतिस्वरूपाचार्य: विरचिते' पाठ मिलता है, तथापि उसके प्रारम्भिक श्लोक 'प्रणम्य परमात्मानं बालधीवृद्धिसिद्धये। सरस्वतीमृजु कुर्वे प्रक्रियां नातिविस्तराम् ॥' से विदित होता है कि अनुभूतिस्वरूपाचार्य इस व्याकरण का मूल लेखक नहीं है । वह तो उसकी प्रक्रिया को सरल करनेवाला है । १. द्र०-सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ३, पठन-पाठन विधि, पृष्ठ ६६-१०६ ३० (रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्करण) । विशेष द्र०-पृष्ठ ६६ । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०७ ___सारस्वत सूत्रों का रचयिता .. क्षेमेन्द्र अपनी सारस्वतप्रक्रिया के अन्त में लिखता है'इति श्रीनरेन्द्राचार्यकृते सारस्वते क्षेमेन्द्रटिप्पनं समाप्तम् ।' . इससे प्रतीत होता है कि सारस्वत सूत्रों का मूल रचयिता . 'नरेन्द्राचार्य' नामक वैयाकरण है। अमरभारती नामक एक अन्य ५ टीकाकार भी लिखता है। 'यन्नरेन्द्रनगरिप्रभाषितं यच्च वैमलसरस्वतीरितम् । ...... तन्मयात्र लिखितं तथाधिकं किञ्चिदेव कलितं स्वया धिया ॥ विठ्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की टीका में नरेन्द्राचार्य को असकृत् । उद्धृत किया है। एक नरेन्द्रसेन वैयाकरण 'प्रमाणप्रमेयकलिका' का कर्ता है । इस के गुरु का नाम कनकसेन, और उसके गुरु का नाम अजितसेन था। नरेन्द्रसेन का चान्द्र, कातन्त्र, जैनेन्द्र और पाणिनीय तन्त्र पर पूरा अधिकार था । इसका काल शकाब्द ६७५ अर्थात् वि० सं० १११० है। यद्यपि नरेन्द्राचार्य और नरेन्द्रसेन की एकता का कोई उपोद्वलक १५ प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ, तथापि हमास विचार है कि ये दोनों एक हैं। उपर्युक्त प्रमाणों से इतना स्पष्ट है कि नरेन्द्र या नरेन्द्राचार्य ने कोई सारस्वत व्याकरण अवश्य रचा था, जो अभी तक मूल रूप में प्राप्त नहीं हुअा । इस विषय में भी ध्यान रखने योग्य बात है कि २० वर्तमान सारस्वत-व्याकरण की प्रथम वृत्ति तद्धितभाग पर्यन्त है। इस में किंवदन्ती में प्रसिद्ध ७०० सूत्रसंख्या पूर्ण हो जाती है । अत: इन ७०० सूत्रों का रचयिता नरेन्द्राचार्य हो सकता है। .. इस संभावना में यह उपोद्बलक एक प्रमाण और भी है कि सारस्वत व्याकरण की प्रथम वृत्ति के अन्त में अनुभूतिस्वरूप का नाम ४ नहीं मिलता। द्वितीय और तृतीय वत्ति के अन्त में 'इति...... । अनुभूतिस्वरूपाचार्यविरचितायां......"समाप्तः' पाठ मिलता है। अत यह सम्भावना अधिक युक्त प्रतीत होती है कि सारस्वत व्याकरण का प्रथम ७०० सूत्रात्मक भाग नरेन्द्राचार्य.विरचित हो, और शेष भाग अनुभूतिस्वरूपाचार्य विरचित । संस्कृत वाङमय में ३० Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके लेखक दो-दो व्यक्ति हैं । परन्तु पूरा ग्रन्थ उनमें से किसी एक के नाम पर ही प्रसिद्ध हो जाता है । यथा— स्कन्द और महेश्वरविरचित निरुक्त टीका स्कन्द के नाम से, बाण और उसके पुत्र द्वारा विरंचित कादम्बरी बाण के नाम से, शर्ववर्मा और वररुचि विरचित कातन्त्र शर्ववर्मा के नाम से ही प्रसिद्ध है । ७०८ सारस्वत के दो पाठ - जैसे जैनेन्द्र व्याकरण का मूल पाठ प्राचार्य देवनन्दी प्रोक्त है, और उसका दूसरा शब्दार्णव के नाम से प्रसिद्ध पाठ गुणनन्दी द्वारा परिबृंहित पाठ है, उसी प्रकार सारस्वत व्याकरण के भी दो पाठ हैं । इसका दूसरा परिबृंहित पाठ सिद्धान्तचन्द्रिका १० नाम से प्रसिद्ध है । इस का परिबृंहण रामाश्रम भट्ट ने किया है । दोनों पाठों में लगभग ८०० सूत्रों का न्यूनाधिक्य है । इसके साथ ही प्रक्रियांश में भी कहीं-कहीं भेद है । इन दोनों के उणादिपाठ में भी अन्तर हैं । सारस्वत में उणादिसूत्रों की संख्या केवल ३३ है, परन्तु सिद्धान्तचन्द्रिका में उणादिसूत्रों की संख्या ३७० हो गई हैं । कई १५ विद्वान् दोनों व्याकरणों के वैषम्य को देखकर 'सिद्धान्तचन्द्रिका' को . २५ स्वतन्त्र व्याकरण मानते हैं, परन्तु हमारे विचार में उसे सारस्वत का परिबृंहित रूप ही मानना अधिक युक्त है । सारस्वत के टीकाकार २० सारस्वत व्याकरण पर अनेक वैयाकरणों ने टीकाएं रचीं। उनमें से जिनकी टीकाएं प्राप्य वा ज्ञात है, उनके नाम इस प्रकार हैं १ - क्षेमेन्द्र (सं० १२६० वि० १.) मेन्द्र ने सारस्वत पर 'टिप्पण' नाम से एक लघु व्याख्यान लिखा है । यह हरिभट्ट वा हरिभद्र के पुत्र कृष्णशर्मा का शिष्य था । अतः यह स्पष्ट है कि यह कश्मीर देशज महाकवि क्षेमेन्द्र से भिन्न है । २ - धनेश्वर (सं० १२७५ वि० ) धनेश्वर ने सारस्वत पर 'क्षेमेन्द्र - टिप्पण-खण्डन' लिखा है । यह धनेश्वर प्रसिद्ध वैयाकरण वोपदेव का गुरु था । इसने तद्धित प्रकरण १. अगला टीकाकारों का संक्षिप्त वर्णन हमने प्रधानतया डा० वेल्वाल्कर के ‘सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर के आधार पर किया है, परन्तु क्रम और ३० काल-निर्देश हमने अपने मतानुसार दिया है । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०६ के अन्त में अपनी प्रशस्ति में पांच श्लोक लिखे हैं। उनसे ज्ञात होता है कि धनेश्वर ने महाभाष्य पर 'चिन्तामणि' नामक टीका, 'प्रक्रियामणि' नामक नया व्याकरण, और पद्मपुराण के एक स्तोत्र पर टीका लिखी थी । महाभाष्यटीका का वर्णन हम पूर्व कर चुके हैं ।' ३ - अनुभूतिस्वरूप (सं० १३०० वि० ) अनुभूतिस्वरूप आचार्य ने सारस्वत - प्रक्रिया लिखी है । ४ - श्रमृतभारती (सं० १५५० वि० से पूर्व ) अमृतभारती ने सारस्वत पर 'सुबोधिनी' नाम्नी टीका लिखी . है । यह अमल सरस्वती का शिष्य था । १० इसके हस्तलेखों में विविध पाठों के कारण लेखक और उसके गुरु के नामों में सन्देह उत्पन्न होता है। कुछ श्रद्वय सरस्वती के शिष्य विश्वेश्वराब्धि का उल्लेख करते हैं, कुछ ब्रह्मसागर मुनि के शिष्य सत्यप्रबोध भट्टारक का निर्देश करते हैं । इस टीका का सब से पुराना हस्तलेख सं० १५५४ का है । इस का निर्माण 'क्षेत्रे व्यधायि पुरुषोत्तमसंज्ञकेऽस्मिन् ' के अनुसार पुरुषोत्तम क्षेत्र में हुआ था । ५ - पुञ्जराज (सं० १५५० वि० ) १५ पुञ्जराज ने सारस्वत पर 'प्रक्रिया' नाम्नी व्याख्या लिखी है । यह मालवा के श्रीमाल परिवार का था । इसने जिससे शिक्षा ग्रहण की, वह मालवा के बादशाह गयासुद्दीन खिलजी का अर्थ मन्त्री था । गयासुद्दीन का काल वि० सं० १५२६- १५५७ तक है। २० नासिरुद्दीन द्वारा पुञ्जराज की हत्या - गयासुद्दीन खिलजी का लड़का नासिरुद्दीन बड़ा कामी (ऐयाश) था । वह राज्य के धन का अपव्यय करता था। पुञ्जराज ने इस अपव्यय की सूचना गयासुद्दीन को दी । इस कारण नासिरुद्दीन पुञ्जराज का शत्रु बन गया । उसने एक दिन अवसर पाकर घर पर लौटते हुए पुञ्जराज को मरवा २५ दिया । गयासुद्दीन अपने लड़के के इस कुकृत्य पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । इससे भयभीत होकर नासिरुद्दीन राज्य छोड़कर चला गया। दो तीन वर्ष पश्चात् सैन्य-संग्रह करके 'माण्डू' पर चढ़ाई कर अपने पिता को कैद करके माण्डू का अधिकारी बना । १. द्र० - पूर्व पृष्ठ ४३४ ॥ ३० Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - अन्य ग्रन्थ-पुञ्जराज ने अलंकार पर शिशु-प्रबोध ओर ध्वनिप्रबोध दो ग्रन्थ लिखे हैं। ६-सत्यप्रबोध (सं० १५५६ वि० से पूर्व) सत्यप्रबोध ने सारस्वत पर एक दीपिका लिखी है। इसका सब से ५ पुराना हस्तलेख सं० १५५६ का है। डा० बेल्वाल्कर ने इसका निर्देश नहीं किया है। ७-माधव (सं० १५६१ वि० से पूर्व) ' माधव ने सिद्धान्तरत्नावली नामक टीका लिखी है। इसके पिता का नाम काहनू और गुरु का नाम श्रीरङ्ग था । इस टीका का सब से १० पुराना हस्तलेख सं० १५६१ का है। .. ___-चन्द्रकोति सूरि (सं० १६०० वि० ?) चन्द्रकीति सूरि ने सुबोधिका वा दीपिका नाम्नी व्याख्या लिखी है । इसे ग्रन्थकार के नाम पर चन्द्रकीर्ति टीका भी कहते हैं। ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति के अनुसार इसका लेखक जैन मतानुयायी १५ था, और नागपुर के बृहद् गच्छ (तपागच्छ)' से सम्बन्ध रखता था । प्रशस्ति में लिखा है- .... .. 'श्रीमत्साहिसलेमभूपतिना सम्मानितः सादरम्। सूरिः सर्वकलिन्दि का कलितधीः श्रीचन्द्रकीतिः प्रभः ॥३॥ देहली के बादशाह शाही सलीम सूर का राज्यकाल सं० १६०२२० १६१० (सन् १५४५-१५५३) है । अतः चन्द्रकीतिसूरि ने इसी समय में सुबोधिका व्याख्या लिखी । - चन्द्रकीति सूरि विरचित सारस्वत दीपिका का एक हस्तलेख 'कलकत्ता संस्कृत कालेज' के पुस्तकालय में है। उसके अन्त में निम्न पाठ है___ 'इति श्रीमन्नागपुरीयतपागच्छाधीशराजभट्टारक वन्द्रकोतिसूरिविरचितायां सारस्वतव्याकरणस्य दीपिकायां सम्पूर्णाः । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु सं० १३६५ वर्षे ।' द्र०-सूचीपत्र भाग ८, व्याकरण हस्तलेख संख्या १११ । सं० १३६५ को शक संवत् मानने पर भी वि० सं० १५३० होता है, वह ३० १. 'श्रमग' पत्रिका, वर्ष ३०; अंक १२ (अक्टूबर १९७०) पृष्ठ ३७ । २. वही, पृष्ठ २७ । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७११ भी संभव नहीं है । अतः हमारे विचार में हस्तलेख में जो संवत् दिया है, उसमें लेखक प्रसाद से अशुद्धि हो गई है। यहां सम्भवतः सं० १५६५ देना चाहिए था। दीपिकायां सम्पूर्णाः पाठं से भी प्रतीत होता है कि लेखक विशेष पठित नहीं था। चन्द्रकीति सूरि नागपुरीय बृहद् गच्छ के संस्थापक देवसूरि से १५ वीं पीढी में थे। देवसूरि का काल संवत् १.१७४ है। अतः चन्द्रकीर्ति का काल १६ वीं शती का अन्त और १७ वीं शती का प्रारम्भ मानना अधिक युक्त प्रतीत होता है। चन्द्रकीर्ति के शिष्य हर्षकीत्ति सूरि ने सारस्वत व्याकरण से संबद्ध धातुपाठ की रचना की और उस पर 'धातु तरङ्गिणी; नाम्नी वृत्ति १० लिखी थी। इस का उल्लेख 'धातू पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (३)' नामक बाईसवें अध्याय में करेंगे। . ........ ____- रघुनाथ (सं० १६०० वि० के लगभग) रघुनाथ ने पातञ्जल महाभाष्य के अनुकरण पर सारस्वत सूत्रों पर लघु भाष्य रचा। इसके पिता का नाम विनायक था। यह प्रसिद्ध १५ वैयाकरण भट्टोजि दीक्षित का शिष्य था । भट्टोजि दीक्षित का काल अधिक से अधिक वि० सं० १५७०-१६५० माना जा सकता है। (द्र०-पूर्व पृष्ठ. ५३१-५३३) । अतः रघुनाथ ने सं० १६०० के लगभग यह भाष्य लिखा होगा। डा० बेल्वाल्कर ने इसका काल ईसा की १७ वीं शती का मध्य माना है, वह चिन्त्य है। ....... २० १०- मेघरत्न (सं० १६१४ वि० से पूर्व) __मेघरत्न ने ढुंढिका अथवा दीपिका नाम्नी व्याख्या लिखी है। यह जैन मत के बृहत् खरतर गच्छं से संबद्ध श्रीविनयसुन्दर का शिष्य था। 'इस व्याख्या का हस्तलेख सं० १६१४ का मिलता है। .. ११-मण्डन (सं० १६३२ वि० से पूर्व) २५ मण्डन ने सारस्वत की एक टीका लिखी है । इसके पिता का नाम 'वाहद' का 'वाहद का एक भाई पदम था। वह मालवा के अलपशाही वा अलाम का मन्त्री था, और वाहद एक संघेश्वर वा संघपति था। यह संकेत ग्रन्थकार ने स्वयं टीका में किया है। इसका सब से पुराना हस्तलेख सं० १६३२ का उपलब्ध है। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १२-वासुदेवभट्ट (सं० १६३४ वि०) वासुदेवभट्ट ने प्रसाद नाम की एक व्याख्या लिखी थी । यह चण्डीश्वर का शिष्य था। वासुदेव ने ग्रन्थरचना-काल इस प्रकार दिया है - ५ संवत्सरे वेदवह्निरसभूमिसमन्विते । शवौ कृष्ण द्वितीयायां प्रसादोऽयं निरूपितः' ॥ इस श्लोक के अनुसार सं० १६३४ आषाढ़ कृष्णा द्वितीया को सारस्वत प्रसाद' टीका समाप्त हुई । १३ रामभट्ट (सं० १६५० वि० के लगभग) १० रामभट्ट ने विद्वत्-प्रबोधिनी नाम्नी टीका लिखी है । इसने अपने ग्रन्य में अपना और अपने परिवार का पर्याप्त वर्णन किया है। रामभट्ट के पिता का नाम 'नरसिंह' था, और माता का 'कामा' । यह मूलतः तैलङ्ग देश का निवासी था, संभवतः वारङ्गल का। वहां से यह आंध्र में आकर बस गया था। उन दिनों वहां का शासक १५ प्रत. रुद्र था। इसके दो पुत्र थे-लक्ष्मीधर और जनार्दन । उनका विवाह करके ७७ वर्ष की वय में वह तीर्थाटन को निकला। इस यात्रा में ही उसने यह व्याख्या लिखी। इस कृति का मुख्य लक्ष्य हैपवित्र तीर्थों का वर्णन । प्रत्येक प्रकरण के अन्त में किसी न किसी तीर्थ का वर्णन मिलता है । यद्यपि यात्रा का पूर्ण वर्णन नहीं है, २० तथापि आज से ३५० वर्ष पूर्व के समाज का चित्र अच्छे प्रकार चित्रित है। इसने रत्नाकर नारायण भारती क्षेमंकर प्रौर महीधर आदि का उल्लेख किया है। १४-काशीनाथ भट्ट (सं० १६७२ वि० से पूर्व) काशीनाथ भट ने भाष्य नामक एक टीका लिखी है। परन्तु यह २५ नाम के अनुरूप नहीं है । यह सम्भवतः सं० १६६७ से पूर्व विद्यमान था। इस संवत् में बुरहानपुर में इस टीका की एक प्रतिलिपि की गई थी। द्र०-भण्डारकर इंस्टीटयू ट पूंना संन् १८८०-८१ के संग्रह का २६२ संख्या का हस्तलेख। १५-भट्ट गोपाल (सं० १६७२ वि० से पूर्व) ३० भट्ट गोपाल की 'सारस्वत व्याख्या' का एक हस्तलेख सं० १६७२ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १० . आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण :७१३ का मिलता है। उससे ग्रन्थकार के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता । . . : . .१६-सहजकीति (सं० १६८१ वि०) सहजकीति ने प्रक्रियावातिक नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । यह जैन मतावलम्बी था, और खरतर गच्छ के हेमनन्दनगणि का शिष्य ५ . था। लेखक ने ग्रन्थलेखनकाल स्वयं लिखा है'वत्सरे भूमसिद्धयङ्गकाश्यपीप्रमितिश्रिते। माघस्य शुक्लपञ्चम्यां दिवसे पूर्णतामगात् ॥' अर्थात् सं० १६८१ माघ शुक्ला पञ्चमी को ग्रन्थ पूरा हुआ। १७-हंसविजयगणि (सं० १७०८ वि०). ‘ हंसविजयगणि ने शब्दार्थचन्द्रिका नाम्नी व्याख्या लिखी है। यह जैन मतावलम्बी था, और विजयानन्द का शिष्य था। यह सं० १७०८ में विद्यमान था। यह टीका अति साधारण है। १८-जगन्नाथ (?) ... जगन्नाथ का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । इस का निर्देश धनेन्द्र नामक , टीकाकार ने किया हैं । इस टीका का नाम 'सारप्रदीपिका' है। ... इन टीकात्रों के अतिरिक्त सारस्वत व्याकरण के साथ दूरतः सम्बन्ध रखनेवाली कुछ व्याख्याएं और भी हैं । परन्तु वे वस्तुतः सारस्वतः के रूपान्तर को उपस्थित करती हैं । और कुछ में तो वह रूपान्तर. इतना हो गया है कि वह स्वतन्त्र व्याकरण बन गया है, यथा रामचन्द्राश्रम की सिद्धान्तचन्द्रिका।.............. --सारस्वत के रूपान्तरकार अब हम सारस्वत के रूपान्तरों को उपस्थित करनेवाली व्याख्याओं का उल्लेख करते हैं १-तर्कतिलक भट्टाचार्य (सं० १६७२ वि०) तर्कतिलक भट्टाचार्य ने सारस्वत का एक रूपान्तर किया, और उस पर स्वयं व्याख्या लिखी। यह द्वारिका बा द्वारिकादास का पुत्र था। इसका बड़ा भाई मोहन मधुसूदन था। इसने अपने रूपान्तर के के लिए लिखा है Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'इदं परमहंसश्रीमदनुभूतिलिखने क्षीरे नीरमिव प्रक्षिप्तम्।' अर्थात् मैंने अनुभूतिस्वरूप के क्षीररूपी ग्रन्थ में नीर के समान प्रक्षेप किया है । अर्थात् जैसे क्षीर नीर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, वैसे ही यह ग्रन्थ भी बन गया है । ग्रन्थकार ने वृत्तिलेखन का काल इस प्रकार प्रकट किया हैनयनमुनिक्षितिपांके (१६७२) वर्षे नगरे च होडाख्ये। वृत्तिरियं संसिद्धा क्षिति भवति श्रीजहांगीरे ॥ अर्थात् -जहांगीर के राज्यकाल में सं० १६७२ में 'होडा' नगर . में यह वृत्ति पूरित हुई। २-रामाश्रम (सं० १७४१ वि० से पूर्व) रामाश्रम ने भी सारस्वत का रूपान्तर करके उस पर सिद्धान्तचन्द्रिका नाम्नी व्याख्या लिखी है। रामचन्द्र का इतिवृत्त अज्ञात है। कुछ विद्वानों के मत में भट्टोजि दीक्षित के पुत्र भानुजि दीक्षित का ही रामाश्रम वा रामचन्द्राश्रम १५ नाम है । इस पर लोकेशकर ने सं० १७४१ में टीका लिखी है । अतः यह उससे पूर्वभावी है, इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है। इसने अपनी टीका का एक संक्षेप 'लघुसिद्धान्तचन्द्रिका' भी लिखी है। सिद्धान्त-चन्द्रिका के टीकाकार (१) लोकेशकर-लोकेशकर ने सिद्धान्तचन्द्रिका पर तत्त्व२० दीपिका-नाम्नी टीका लिखी है। यह रामकर का पौत्र और क्षेमकर का पुत्र था। ग्रन्थलेखनकाल अन्त में इस प्रकार दिया है चन्द्रवेदहयभूमिसंयुते वत्सरे नभसि मासे शोभने । शुक्लपक्षदशमोतियावियं दीपिका बुधप्रदीपिका कृता॥ अर्थात् सं० १७४१ श्रावण शुक्लपक्ष दशमी को दीपिका पूर्ण हुई। २५ (२) सदानन्द-सदानन्द ने सिद्धान्तचन्द्रिका पर सुबोधिनी टीका लिखी है। इसने टीका का रचनाकाल निधिनन्दार्वभूवर्षे (१७६६) लिखा है। (३) व्युपत्तिसारकार-हमारे पास सिद्धान्तचन्द्रिका के उणादि प्रकरण पर लिखे गए 'व्युत्पत्तिसार' नामक ग्रन्थ के हस्तलेख Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७१५ हैं । ग्रन्थकार का नाम अज्ञात है । इसने सम्पूर्ण सिद्धान्तचन्द्रिका की टीका की वा उणादि भाग की ही, यह अज्ञात है । इस का विशेष वर्णन हम 'उणादिसूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २४वें अध्याय में करेंगे । ३ - जिनेन्द्र वा जिनरत्न जिनेन्द्र वा जिनरत्न ने सिद्धान्तरत्न टीका लिखी है । यह बहुत अर्वाचीन है । निबन्ध-ग्रन्थ डा० बेल्वाल्कर ने सारस्वत - प्रकरण के अन्त में निम्न ग्रन्थकारों के ग्रन्थों का और निर्देश किया है - १० १ - हर्षकीर्तिकृत तरङ्गिणी - यह चन्द्रकीर्ति का शिष्य था । हर्षकीर्ति ने सं० १७१७ में तरङ्गिणी लिखी है । सम्भवतः यह हर्षकीर्ति विरचित सारस्वत धातुपाठ की 'धातुतरङ्गिणी' नामक व्याख्या हो चन्द्रकीर्ति सूरि का काल सं० १६०० के लगभग है । अतः उस के शिष्य हर्षकीर्ति द्वारा सं० १७१७ में तरङ्गिणी लिखना १५ सम्भवः नहीं । सम्भवतः डा० वेल्वाल्कर ने किसी हस्तलेख पर सं० १७१७ का उल्लेख देख कर ही उसे ग्रन्थरचना का काल समझ लिया होगा । २ - ज्ञानतीर्थ - इसने कृत तद्धित और उणादि के उदाहरण दिए हैं । इसका एक हस्तलेख सं० १७०४ का मिला है । ३ - माध्व - इसने सारस्वत के शब्दों के विषय में एक ग्रन्थ लिखा है, सम्भवतः सं० ० १६८० में 1 डा० बेल्वाल्कर की भूल - डाक्टर बेल्वाल्कर ने इसी प्रकरण में लिखा है कि सारस्वत के उणादि परिभाषापाठ और धातुपाठ पर टीकाएं नहीं है । यह लेख चिन्त्य है । परिभाषाठ के अतिरिक्त धातुपाठ और उणादिपाठ की टीकाओं का वर्णन हम द्वितीय भाग में यथास्थान करेंगे । २५ 1 २० १६. वोपदेव (सं० १२८७ - १३५० वि० ) वोपदेव ने 'मुग्धबोध' नाम के लघु व्याकरण की रचना की थी । ३० Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इस का प्रचार यद्यपि बङ्गाल तक ही सीमित है तथापि यह वैयाकरण निकाय में बहत प्रतिष्ठित हा । इस के उद्धरण प्रक्रियाकौमुदी तथा उसकी प्रसाद टीका में बहुतायत से मिलते हैं। उत्तरवर्ती भट्टोजि दीक्षित आदि ने बहुत्र इस के मत उद्धृत किये हैं। २. परिचय'-वोपदेव के पिता का नाम 'केशव' था। यह अपने समय का प्रसिद्ध भिषक् था। पितामह का नाम 'महादेव' था। वोपदेव के गुरु का नाम 'धनेश' था । यदि इसी धनेश का ही धनेश्वर भी नाम होवे तो मानना होगा कि इसने महाभाष्य की 'चिन्तामणि' नाम की एक व्याख्या लिखी थी। धनेश ने वैद्यक का 'चिन्तामणि' संज्ञक १० ग्रन्थ लिखा था, यह सर्वप्रसिद्ध है। धनेश और धनेश्वर नाम की अर्थ साम्यता और दोनों ग्रन्थों की चिन्तामणि नाम की साम्यता से हमारा मत यही है कि वोपदेव के गुरु धनेश ने ही महाभाष्य की 'चिन्तामणि' नाम्नी व्याख्या लिखी थी। इस का उल्लेख हम पूर्व पृष्ठ (४३४) पर कर चुके हैं। अनेक आधुनिक विद्वान् महाभाष्य १५ की चिन्तामणि व्याख्या के लेखक धनेश्वर का काल विक्रम की १६वीं शती मानते हैं। ___ वोपदेव ने अपने ग्रन्थों में 'वेदपद' 'वेदपदोक' 'वेदपदास्पद' आदि का निर्देश किया है । कविकल्पद्रुम के अन्त में तेन वेदपदस्थेन वोपदेवद्विजेन यः निर्देश मिलता है । इस के आधार पर अनेक विद्वान् २० वोपदेव को वेदपद नामक ग्राम वा नगर का निवासी मानते हैं। ...' बाररुच संग्रह की नारायण कृत दीपप्रभा टीका के अन्त में वेदोनाम महत्पदं जनपदो यत्र द्विजानां ततिः वचन में वेदपद नामक जनपद का उल्लेख हैं। इस की तुलना से वोपदेव का जनपद वेदपद होना चाहिये न कि ग्राम वा नगर । मुग्धबोध के अन्त में उल्लिखित वोप२५ देवश्चकारेदं विप्रो वेदपदास्पदम् वचन में वेदपदास्पद ग्रन्थ का वोधक है। अथवा यहां वेदपदास्पदः शुद्ध पाठ मानना चाहिये । प्राधनिक विद्वान् 'वेदपद' की तुलना 'वेदोद' नाम से करते हैं । यह जिला आदिलाबाद में है। ___ वोपदेव हेमाद्रि से पोषित था । हेमाद्रि देवगिरि (वर्तमान ३०१ यह परिचय डा० शन्नोदेवी के 'वोपदेव का संस्कृत व्याकरण को .., : योगदान' नामक शोधप्रबन्ध के आधार पर लिखा है। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७१७ दौलताबाद) के महादेव और राम नामक यादव राजाओं का सचिव था । वोपदेव ने हेमाद्रि सचिव के कहने से उस के लिये भागवत पुराण की 'हरिलीलामृत' नाम्नी सूची का निबन्धन किया था । हेमाद्रि की मृत्यु सं० १३३३ (सन् १२७६ ) में हुई थी ।' अतः वोपदेव का काल सं० १२८७ - १३५० तक माना जा सकता है। मल्लिनाथ ने ५ कुमार संभव की टीका में वोपदेव को उद्धृत किया है। मल्लिनाथ का काल सामान्य रूप से वि० सं० १४०० माना जाता है । १० हम ने पूर्व (पृष्ठ ५६८) लिखा है कि अमरचन्द्र सूरि विरचित वृहद् वृत्त्यवचूर्णि (लेखन काल १२६४ ) ने पृष्ठ १५४ पर मल्लिनाथ विरचित 'न्यासोद्योत को तन्त्रोद्योत के नाम से उद्धृत किया है । यदि हमारा पूर्व लेख ठीक हो तो वोपदेव का काल कुछ पूर्व मानना होगा । अथवा अमरचन्द्रसूरि विरचित बृहद् वृत्त्यवचूर्णि में उद्धृत तन्त्रोद्योत ग्रन्थान्तर होगा । अन्य ग्रन्थ - वोपदेव ने 'कविकल्पद्रुम' के नाम से धातुपाठ का संग्रह किया है और उस पर 'कामधेनु' नाम्नी संक्षिप्त व्याख्या लिखी १५ हे । इस के अतिरिक्त 'मुक्ताफल', 'हरिलीलामृत' शतश्लोकी' ( वैद्यक ग्रन्थ) और हेमाद्रि नाम का धर्मशास्त्र पर एक निबन्ध लिखा 1 शेष अङ्ग और उनके पूरक व्याकरण शास्त्र पञ्चाङ्ग माना जाता है। सूत्र पाठ के प्रति - २० रिक्त धातुपाठ गणपाठ उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन नाम के ग्रन्थ उस के श्रृङ्ग माने जाते हैं । वोपदेव ने केवल सूत्रपाठ और धातुपाठ का ही प्रवचन किया था । शेष अङ्गों की पूर्ति निम्न विद्वानों ने की - गणपाठ - यद्यपि वोपदेव ने सूत्रों में 'आदि' पद के द्वारा गणों का निर्देश किया है, परन्तु उस के द्वारा संगृहीत गणपाठ का उल्लेख २५ नहीं मिलता । 'संस्कृत साहित्ये वांगलार दान' ग्रन्थ में वन्द्योपाध्याय सुरेश चन्द्र ने गङ्गाधर कृत मुग्धबोधानुसारी गणपाठ का निर्देश किया है।" उणादिपाठ- 'वोपदेव का संस्कृत व्याकरण को योगदान' नामक . १. वोपदेव का सं० व्य० को योगदान, टाइपकापी, पृष्ठ ३७ १ २. वोपदेव का सं० व्या० को योगदान, टाइप कापी, पृष्ठ ४६ ३० Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासन - मुग्धबोध में प्राप्त लिङ्गनिर्देशों तथा प्रयोगों १० के आधार पर गिरीशचन्द्र विद्यारत्न ने लिङ्गानुशासन से सम्बद्ध कुछ सूत्रों का संकलन किया ।' ७१८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शोध प्रबन्ध में डा० शन्नो देवी ने लिखा है - "बेल्वाल्कर के मत में रामतर्क वागीश ने मुग्धबोध से संबद्ध उणादिकोश की रचना की । हरप्रसाद शास्त्री के मत में रामशर्मा ने पद्यरूप में उणादि की रचना की, जिस पर तर्कवागीश ने टीका लिखी । रामशर्मा का यह कोश पाणिनि कात्यायन और पतञ्जलि के मत पर आधारित है । उसने अपनी यह रचना मुग्धबोध के 'नान्ये तिक् च' सूत्र की टीका के आधार पर की । वस्तुत: यह पाणिनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ है, जिसे तर्कवागीश ने मुग्धबोध से जोड़ा ।”” परिशिष्टकार to बेल्वाल्कर के मतानुसार मुग्धबोध-सम्प्रदाय की पूर्णता के लिये कुछ विद्वानों ने मुग्धबोध व्याकरण से सम्बद्ध कुछ परिशिष्टों को १५ रचना की । २० २५ १ - नन्दकिशोर भट्ट - नन्दकिशोर भट्ट ने 'गगननयनका लक्ष्मा' मित शक संवत्सर ( १३२० - वि० सं० १४५५ ) में मुग्धबोध पर परिशिष्ट लिखे तथा मुग्धबोध पर व्याख्या भी लिखी ।* २ - काशीश्वर ३ - रामतर्क वागीश रामतर्क वागीश ने उणादिपाठ की रचना की थी यह हम पूर्व लिख चुके हैं । ४ - रामचन्द्र विद्याभूषण ने शक सं० १६१० (= १७४५ वि० सं०) में परिभाषा वृत्ति लिखी थी। मुग्धबोध के टीकाकार १ - नन्द किशोर भट्ट (सं० १४५५ वि० ) इस के विषय में हम ऊपर लिख चुके हैं । १. वोपदेव का सं० व्या० को योग दान पृष्ठ ४३६ । २. वही, ४४० । ३. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैराग्राफ ८५ । ४. इण्डिया आफिस के संस्कृत हस्तलेखों की सूची, संख्या ८७२ । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७१६ २-प्रदीपकार (सं० १५२० वि० से पूर्व) विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी-प्रसाद (भाग २, पृष्ठ १०२) में मुग्धबोध प्रदीप नाम्नी किसी व्याख्या को उद्धृत किया है। यह व्याख्या नन्द किशोर कृत है अथवा अन्य कृत, यह अज्ञात है । यदि अन्यकृत हो, तो इसका काल सं०. १५२० से पूर्व होगा क्योंकि विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की प्रसाद टीका सं० १५२० के लगभग लिखी थी। यह पूर्व (पृष्ठ ५६२-५६३) लिख चुके हैं। ३-रामानन्द ४-देवीदास चक्रवर्ती ५-काशीश्वर ६-विद्यावागीश ७-रामभद्र विद्यालङ्कार ८-भोलानाथ इन टीकाकारों का उल्लेख दुर्गादास ने अपनी मुग्धबोध की टीका १० में किया है, ऐसा डा० बेल्वाल्कर ने 'सिटस्म्स् आफ संस्कृत ग्रामर' (पैरा ८४) में लिखा है। ___ इन में रामानन्द देवीदास रामभद्र और भोलानाथ की व्याख्याओं के हस्तलेख इण्डिया आफिस लन्दन के हस्तलेख-संग्रह में विद्यमान हैं। द्र०-सूचीपत्र हस्तलेख संख्या क्रमशः ८५२, ८५१, १५ ८६१, ८७० । उक्त सूचीपत्र में भोलानाथ की टीका का नाम सन्दर्भामततोषिणी लिखा है। रामभद्र ही संम्भवतः रामचन्द्रतर्कालं. कार है । इस की टीका का नाम प्रबोध है । -विद्यानिवास (सं० १६४५) विद्यानिवास कृत मुग्धबोध टीका का उल्लेख दुर्गादास ने प्रारम्भ २० में ही नामोल्लेखपूर्वक किया है। डा० बेल्वाल्कर ने इस नाम का निर्देश क्यों नहीं किया, यह अज्ञात हैं। १०-दुर्गादास विद्यावागीश (सं० १६६६ वि०).. ___ दुर्गादास विद्यावागीश की सुबोधा टीका प्रसिद्ध है । दुर्गादास के पिता का नाम वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य है । डा० बेल्वाल्कर ने २५ दुर्गादास का काल ई० सन् १६३६ (वि० सं० १६९६) लिखा है। ____इन के अतिरिक्त इण्डिया आफिस के सूचीपत्र में निम्न व्याख्याकारों के हस्तलेख और विद्यमान हैं नाम टीकाकार काल.. टीकाकानाम हस्तलेखसंख्या ११-श्रीरामशर्मा... ? .... ? ८५३ ३० । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नाम टीकाकार .. काल टीकाकानाम हस्तलेख संख्या १२-श्रीकाशीश ?- ? ८५६ १३-गोविन्दशर्मा ... ? शब्ददीपिका . ८५७ १४-श्रीवल्लभविद्यावागीश? .. बालबोधिनी ८६१ ५. १५-कातिकेय सिद्धान्तमित्र ? - सुबोधा ८६२ १६-मधुसूदन ? मधुमती ८६९ . इनमें संख्या १२ का श्रीकाशीश पूर्वनिर्दिष्ट काशीश्वर (संख्या ५) से भिन्न व्यक्ति हैं, अथवा अभिन्न यह अज्ञात है । ... 'वोपदेव का सं० व्या० को योगदान' नामक शोधप्रबन्ध में १० गोविन्द शर्मा का नाम गोविन्द विद्याशिरोमणि लिखा है । उपरि निर्दिष्ट टीकात्रों के अतिरिक्त उक्त शोधप्रबन्ध में पृष्ठ ६४-६६ (टाइप कापी) पर निम्न नाम और मिलते हैं . नाम टीका का नाम १७-वृषवदन चन्द्र तर्कालंकार प्रबोध . १८-गंगाधर तर्कवागीश सेतूसंग्रह १९-राधावल्लभ पञ्चानन सूबोधिनी २०-रत्तिकान्त तर्कवागीश ? २१-माधव तर्क सिद्धान्त . मुग्धबोध प्रदीप रूपान्तरकार इन व्याख्याकारों ने मुग्धबोध के यथावस्थित पाठ पर ही व्याख्या - की, अथवा उसमें कुछ रूपान्तर भी किया यह अज्ञात है। डा० बेल्वाल्कर ने अपने सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर' में लिखा है 'इसने (रामतर्क वागीश ने) कुछ स्वतन्त्रतापूर्वक मुग्धबोध में परिवृद्धि और परित्याग किया।' पैराग्राफ ८४। . २० २५ . १७. पद्मनाभदत्त (सं० १४०० वि०) पद्मनाभदत्त ने सुपद्म नामक एक संक्षिप्त व्याकरण लिखा था। इस की उणादिवृत्ति में सुपद्मनाभ नाम मिलता है।' १. सुपद्मनाभेन सुपद्मसम्मतं, विधः समग्रः सुगमं समस्यते। इण्डिया आफिस पुस्तकालय लन्दन का सूचीपत्र, ग्रन्थांक ८६१ । द्र०सं० व्या० इतिहास भाग २, पृष्ठ २७० (सं० २०४१ का संस्क०) । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण . ७२१ पद्मनाभ के पिता का नाम दामोदरदत्त और पितामह का नाम श्रीदत्त था। काल-पद्मनाथ ने पृषोदरादि-वृत्ति शक सं० १२६२ (वि० सं० १४२७) में लिखी है। अन्य ग्रन्थ . पद्मनाभदत्त ने स्वीय परिभाषावृत्ति में जिन स्वविरचित ग्रन्थों का उल्लेख किया है, वे निम्न हैं १-सुपमपञ्जिका ७-मानन्दलहरी टीका २-प्रयोगदीपिका (मय पर) ३-उणादिवृत्ति ८-छन्दोरत्न ४--धातुकौमुदी -प्राचारचन्द्रिका ५-यङलुग्वृत्ति १०-भूरिप्रयोग कोश ६-गोपालचरित ११-परिभाषावृत्ति इनमें व्याकरण-ग्रन्थों का वर्णन यथास्थान किया जायगा। . सुपद्म के टीकाकार . .. १५ १-पद्मनाभदत्त-पद्मनाभ ने अपने व्याकरण पर स्वयं पञ्जिका नाम्नी टीका लिखी है। २-विष्णुमिश्र - ४-श्रीधर चक्रवर्ती ३-रामचन्द्र ५-काशीश्वर .. इन विद्वानों ने भी सुपन पर टीकाएं लिखी हैं । इन में विष्णु- २० मिश्र की सुपद्यमकरन्द टीका सर्वश्रेष्ठ है। . इस व्याकरण का प्रचार बंगाल के कुछ जिलों तक ही सीमित है। १८-विनयसागर उपाध्याय (सं० १६५०. १७००).. अंचलगच्छाधिराज कल्याणसागर सूरीश्वर के शिष्य विनय-५२५ १ सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैराग्राफ ६१। .... २. द्र० - इसी (सं० व्या० इति०) ग्रन्थ के भाग.२, पृष्ठ ३४२ (सं० २०४१ का संस्क०.) में उद्धृत श्लोक । . .. . Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास सागर उपाध्याय ने अपने प्रश्रय दाता भुजनगर (भुज) के स्वामी भारमल्ल के पुत्र राजा भोज की तुष्टि के लिये 'भोज - व्याकरण' के नाम से एक संस्कृत भाषा का व्याकरण लिखा था।' इस राजा भोज का वि० सं० १६८८ से १७०२ तक सौराष्ट्र पर शासन था । स्व-रचित भोजव्याकरण की विशिष्टता का संकेत विनयसागर उपाध्याय ने निम्न पद्य में किया है । सकल-समीहित-तरणं हरणं दुःखस्य कोविदाभरणम् । श्रीभोज व्याकरणं पठन्तु तस्मात् प्रयत्नेन ॥ [द्र० श्री पं० बलदेव उपाध्याय विरचित 'संस्कृत शास्त्रों का १० इतिहास' पृष्ठ ६०८, प्र० सं०, सन् १९६६ ] १९ - भट्ट अकलङ्क (वि० की १७ वीं शती) मैंने व्याकरण शास्त्र के इतिहास ग्रन्थ में व्याकरण प्रवक्ता भट्ट कलङ्क को वामन और पात्यकीर्ति के मध्य में संख्या ६ पर रखा १५ था । और साथ ही इसे बौद्धों के साथ शास्त्रार्थंकर्त्ता भट्ट प्रकलङ्क समझ कर इस का काल सं० ७००-८०० लिखा था । इसे पढ़ कर हसन (कर्नाटक) के राजकीय कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष मा० देवे गौड एम० ए० ने २६ - ८- ७६ को मुझे एक पत्र लिखा । 6.00. २५ मुझे प्राप से यही निवेदन करना है कि मंजरी - मकरन्द २० टीका लिखने वाला भट्ट प्रकलङ्क देव वि० सं० १७ वीं सदी का है । इस के गुरु का नाम अकलङ्कदेव है । भट्ट अकलङ्कदेव ने 'कर्णाटक- शब्दानुशासनम्' नामक कन्नड़ व्याकरण संस्कृत सूत्रों में लिखा है। चार पाद तथा ५६२ सूत्र हैं । " इसी व्याकरण पर लेखक ने मञ्जरी - मकरन्द नामक विस्तृत टीका १. श्री भारमल्लतनयो भुवि भोजराजो 7 राज्यं प्रशास्ति रिपुवजत मिन्द्रवन्द्यः । तस्याज्ञया विनयसागर - पाठकेन सत्यप्रबन्धरचिता सुतृतीयवृत्तिः । ग्रन्थ के हस्तलेख का अन्तिम पद्य । Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७२३ . भी लिखी है। उसे महाभाष्य के समान मानते हैं। मञ्जरीमकरन्द छपा है । मेरे पास एक कापी है । इस लेख के अनुसार भट्ट अकलङ्क ने कन्नड़ भाषा का व्याकरण लिखा था। अतः उसका यहां निर्देश नहीं होना चाहिये । पुनरपि हमने जैसी भूल की वैसी भूल अन्य लेखक न करें इस दृष्टि से यहां ५ भट्ट अकलङ्क के व्याकरण और उसकी व्याख्या मञ्जरीमकरन्द का निर्देश कर दिया है। इस से हमारी भूले सुधार करने हारे मा० देवे गौड के उपकार को प्रकट करने तथा धन्यवाद करने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। अन्य व्याकरणकार पाणिनि से अर्वाचीन उपर्युक्त वैयाकरणों के अतिरिक्त कुछ और भी वैयाकरण हुए हैं, जिन्होंने अपने-अपने व्याकरणों की रचना की है। उनमें से निम्न वैयाकरणों के व्याकरण सम्प्रति उपलब्ध हैं१-शुभचन्द्र चिन्तामणि' व्याकरण ६-............"चैतन्यामृत व्याकरण २-भरतसेन · द्रुतबोध , १०-बालराम पञ्चानन प्रबोधप्रकाश ,, १५ ३-रामकिंकर आशुबोध , ११-विज्जलभूपति प्रबोधचन्द्रिका , ४-रामेश्वर शुद्धाशुबोध , १२-क्लियसुन्दर भोज ५-शिवप्रसाद शीघ्रबोध , १३-विनायक भावसिंहप्रक्रिया ,, ६-काशीश्वर ज्ञानामृत , १४-चिद्र पाश्रम दीप । ७-रूपगोस्वामी हरिनामामृत ,, १५-नारायण सुरनन्द कारिकावली, २० ८-जीवगोस्वामी हरिनामामृत,, १६-नरहरि बालबोध , ये ग्रन्थ नाममात्र के व्याकरण हैं, और इनका प्रचार भी नहीं है। इसलिये हमने इनका वर्णन इस ग्रन्थ में नहीं किया। . . हमने 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' के इस प्रथम भाग में पाणिनि से प्राचीन २६ और अर्वाचीन १६ व्याकरणकार प्राचार्यो २५ तथा उनके शब्दानुशासनों पर विविध व्याख्याएं रचनेवाले लगभम २८० वैयाकरणों का संक्षिप्त वर्णन किया है। इसके दूसरे भाग में व्याकरणशास्त्र के खिलपाठ (अर्थात् धातुपाठ, गणपाठ, उणादि, १. इसका उल्लेख शुभचन्द्र ने पाण्डवपुराण के अन्त में किया है। द्र०जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह, पृष्ठ ५०, श्लोक १७६ । . Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास लिङ्गानुशासन), फिट-सूत्र और प्रातिशाख्यों के प्रवक्ता तथा व्याख्यातायों का वर्णन होगा। ग्रन्थ के अन्त में व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थों और व्याकरणप्रधान काव्यों के रचयिताओं का भी उल्लेख किया जायगा। ५ इत्यजयमेरु (अजमेर) मण्डलान्तर्गत विरञ्च्यावासाभिजनेन श्रीयमुनादेवी-गौरीलालाचार्ययोर् आत्मजेन पद-वाक्य-प्रमाणज्ञ-महावैयाकरणानां श्रीब्रह्मदत्ताचार्याणामन्तेवासिना भारद्वाजगोत्रेण त्रिप्रवरेण माध्यन्दिनिना युधिष्ठिर मीमांसकेन विरचिते संस्कृत-व्याकरणशास्त्रेतिहासे प्रथमो भागः पूर्तिमगात् शुभं भवतु लेखकपाठकयोः। लेखन-काल ] पुनः शोधन-काल । पुनः परिवर्धन काल सं० २००३, सं० २००६ । सं० २०१६५ पुनः परिष्कार वा परिवर्धनकाल वि० सं० २०२६४ . अन्तिम परिष्कार वा परिवर्धन काल वि० सं० २०४१ १. इसके अनुसार संवत् २००३ के अन्त में लाहौर में ग्रन्थ का छपना ... आरम्भ हुआ था। १५२ पृष्ठ तक छप पाया था कि देश-विभाजन के कारण छपा हुआ ग्रन्थ वहीं नष्ट हो गया। २. यह प्रथम संस्करण का काल है। २५ ' ३. यह द्वितीय संस्करण का काल है। . ___४. यह तृतीय संस्करण का काल है। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित वा प्रसारित प्रामाणिक ग्रन्थ वेद-विषयक ग्रन्थ १. ऋग्वेदभाष्य--(संस्कृत हिन्दी; ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित)प्रतिभाग सहस्राधिक टिप्पणियां, १०-११ प्रकार के परिशिष्ट व सूची। प्रथम भाग ३५-००, द्वितीय भाग ३०-००, तृतीय भाग ३५-०० । .. २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण-ऋषि दयानन्दकृत भाष्य पर पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु कृत विवरण । प्रथम भाग २०४३० अठपेजी आकार के ११००पृष्ठ सुन्दर पक्की जिल्द । मुल्य १००-००, द्वितीय भाग मूल्य २५-०० । ३. तैत्तिरीय-संहिता- मूलमात्र, मन्त्र-सूची-सहित । मूल्य ४०-०० ४. अथर्ववेदभाष्य-श्री पं० विश्वनाथ जी वेदोपाध्याय कृत । १११३ काण्ड ३०-००; १४-१७ काण्ड २४-००; १८-१६ काण्ड २०-००; वीसवां काण्ड २०-००।। .:. ५. ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका-पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा सम्पादित एवं शतशः टिप्पणियों से युक्त। . . मूल्य २५-०० : ६. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-परिशिष्ट-भूमिका पर किये गए अाक्षेपों के ग्रन्थकार द्वारा दिये गए उत्तर। २-५० ७. माध्यन्दिन (यजुर्वेद) पदपाठ-शुद्ध संस्करण। २५-०० . . ८. गोपथ ब्राह्मण (मूल)-सम्पादक श्री डा. विजयपाल जी विद्या- . वारिधि । अव तक प्रकाशित सभी संस्करणों से अधिक शुद्ध और सुन्दर संस्करण। ४०-०० ६. ऋक्सर्वानक्रमणी (कात्यायनमुनिकृत) - षड्गुरु शिष्य की समग्रवत्ति सहित प्रथम बार छापी जा रही है। मूल्य..." १०. ऋग्वेदानुक्रमणी-वेङ्कटमाधवकृत । इस ग्रन्थ में स्वर छन्द आदि अाठ वैदिक विषयों पर गम्भीर विचार किया है। व्याख्याकार-श्री डा० विजयपाल जी विद्यावारिधि । उत्तम-संस्करण ३०-०० ; साधारण २०-०० Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ऋग्वेद की ऋक्संख्या-युधिष्ठिर मीमांसक मूल्य २.०० १२. वेदसंज्ञा-मीमांसा - युधिष्ठिर मीमांसको मूल्य १.०० १३. वैदिक-छन्दोमीमांसा-युधिष्ठिर मीमांसक । नया संस्करण १५-०० १४. वेदों का महत्त्व तथा उनके प्रचार के उपाय; वेदार्थ की विविध प्रक्रियाओं को ऐतिहासिक मीमांसा (संस्कृत-हिन्दी) यु० मी० ५.०० १५. देवापि और शन्तनु के पाख्यान का वास्तविक स्वरूप-लेखकश्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु । मूल्य १-०० १६. वेद और निरुक्त-श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु। .. २.०० १७. निरुक्तकार और वेद में इतिहास-, , १-०० १८. स्वाष्ट्री सरण्य की वैदिक कथा का वास्तविक स्वरूप-लेखक - श्री पं० धर्मदेव जी निरुक्ताचार्च। . १६. शिवशङ्करीय-लघुग्रन्थ पञ्चक-इसमें श्री पं० शिवशङ्कर जी काव्यतीर्थ लिखित वेदविषयक चतुर्दश-भुवन, वसिष्ठ-नन्दिनी, वैदिकविज्ञान, वैदिक-सिद्धान्त और ईश्वरीय पुस्तक कौन? नाम के पांच विशिष्ट निबन्ध हैं। २०. यजुर्वेद का स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ समीक्षा-लेखक पं० विश्वनाथ जी वेदोपाध्याय। बढ़िया जिल्द २०-००, साधारण १६-०० २१. वैदिक-पीयूष-धारा-लेखक श्री देवेन्द्रकुमार जी कपूर । चुने हए ५० मन्त्रों की प्रतिमन्त्र पदार्थ पूर्वक विस्तृत व्याख्या, अन्त में भावपूर्ण गीतों से युक्त । उत्तम जिल्द १५-००; साधारण १०-०० । २२. उरु-ज्योति --डा० श्री वासुदेवशरण अग्रवाल लिखित वेदविषयक स्वाध्याय योग्य निबन्धों का संग्रह। सुन्दर छपाई पक्की जिल्द १६-०० २३. वेदों की प्रामाणिकता डा० श्री निवास शास्त्री। १-५० २४. ANTHOLOGY OF VEDIC HYMNS-Swami Bhumananda Sarasvati. कर्मकाण्ड-विषयक ग्रन्थ - २५. बौधायन-श्रौत-सूत्रम् (दर्शपूर्णमास प्रकरण)-भवस्वामी तथा सायण कृत भाष्य सहित (संस्कृत) ४०-०० २६. दर्शपूर्णमास-पद्धति-पं० भीमसेन कृत, भाषार्थ सहित २५-०० ५०-०० Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) २७. कात्यायनग ह्यसूत्रम् - ( मूलमात्र ) अनेक हस्तलेखों के आधार पर हमने इसे प्रथम बार छापा है । मूल्य २०-०० २८. श्रौतपदार्थनिर्वचनम् - (संस्कृत) श्रौत यज्ञों के पदार्थों का परिचय देने वाला ग्रन्थ | ... मूल्य ... २६. संस्कार - विधि - शताब्दी संस्करण, ४६० पृष्ठ, सहस्राधिक टिप्पणियां, १२ परिशिष्ट । मूल्य लागतमात्र १२-००, राज-संस्करण . १५-०० ॥ सस्ता संस्करण मूल्य ५ - २५, अच्छा कागज सजिल्द ७-५० । ३०. संस्कारविधि - मण्डनम् — संस्कारविधि की व्याख्या । लेखक - वैद्य श्री रामगोपाल जी शास्त्री । अजिल्द मूल्य १०-००, सजिल्द मूल्य १४-०० ३१. वैदिक-नित्यकर्म - विधि - सन्ध्यादि पांचों महायज्ञ तथा बृहद् हवन के मन्त्रों की पदार्थ तथा भावार्थ व्याख्या सहित । यु०मी० ३ -०० सजिल्द ४ -०० ३२. वैदिक - नित्यकर्म विधि - ( मूलमात्र ) सन्ध्या तथा स्वस्तिवाचनादि बृहद् हवन के मन्त्रों सहित । मूल्य ०-७५ ३-०० ३३. पञ्चमहायज्ञ-प्रदीप - श्री पं० मदनमोहन विद्यासागर ३४. हवनमन्त्र – स्वस्तिवाचनादि सहित । ३५. सन्ध्योपासनविधि - भाषार्थ सहित | ३६. सन्ध्योपासनविधि - भाषार्थ तथा दैनिक यज्ञ सहित । शिक्षा निरुक्त-व्याकरण-विषयक ग्रन्थ ३७. वर्णोच्चारण- शिक्षा - ऋषि दयानन्द कृत हिन्दी व्याख्या | ०-६० ३८. शिक्षासूत्राणि - श्रपिशल - पाणिनीय - चान्द्र शिक्षा - सूत्र । " ०-५० श्रप्राप्य ०-५० मूल्य ६-००; सजिल्द ८-०० ३६. शिक्षाशास्त्रम् - (संस्कृत) जगदीशाचार्य | ४०. अरबी-शिक्षाशास्त्रम् -,, ७-५० ७-५० ४१. निरुक्त - श्लोकवात्तिकम् - केरलदेशीय नीलकण्ठ गार्ग्य विरचित । एक मात्र मलयालम लिपि में ताडपत्र पर लिखित दुर्लभ प्रति के आधार पर मुद्रित । आरम्भ में उपोद्घात रूप में निरुक्त-शास्त्र विषयक संक्षिप्त ऐतिह्य दिया गया हैं (संस्कृत) । सम्पादक - डा० विजयपाल विद्यावारिधिः । उत्तम कागज, शुद्ध छपाई तथा सुन्दर जिल्द सहित । १००-०० ४२. निरुक्त-समुच्चय - प्राचार्य वररुचि विरचित (संस्कृत) । सं०युधिष्ठिर मीमांसक । मूल्य १५-०० Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. अष्टाध्यायी-(मूल) शुद्ध संस्करण । मूल्य ३-०० ४४. अष्टाध्यायी-भाष्य-(संस्कृत तथा हिन्दी)श्री पं०ब्रह्मदत्त जिज्ञासु कृत । प्रथम भाग २४-००, द्वितीय भाग २०-००, तृतीय भाग २०-०० । ४५. धातुपाठ-धात्वादिसूची सहित, सुन्दर शुद्ध संस्करण। ३-०० ४६. वामनीयं लिङ्गानुशासनम्-स्वोपज्ञ व्याख्यासहितम् । ५-०० ४७. संस्कृत पठन-पाठन की अनभूत सरलतम विधि-लेखक-श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु । प्रथम भाग १०-००, द्वितीय भाग (यु०मी०) १०-०० । । ४८. The Tested Fasiest Method of Lerning and Teaching Sanskrit (First Book)-यह पुस्तक श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु कृत 'विना रटे संस्कृत पठन-पाठन को अनुभत सरलतम विधि' भाग एक का अंग्रेजी अनुवाद है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पाणिनीय व्याकरण में प्रवेश करने वालों के लिये यह आधिकारिक पुस्तक है। कागज और छपाई सुन्दर, सजिल्द २५-००।। - ४६. महाभाष्य -हिन्दी व्याख्या (द्वितीय अध्याय पर्यन्तं)पं० यु०मी० । . प्रथम भाग ५०-००, द्वितीय भाग २५-००, तृतीय भाग २५-०० । :५०. उणादिकोष-ऋ० द० स० कृत व्याख्या, तथा पं० य० मी० कृत टिप्पणियों, एवं ११ सूचियों सहित । अजिल्द १०-००, सजिल्द १२-०० ५१. दैवम् पुरुषकारवात्तिकोपेतम्-लीलाशुक मुनि कृत १०.०० ५२. भागवृत्तिसंकलनम् -अष्टाध्यायी की प्राचीन वृत्ति ६-०० ५३. काशकृत्स्न-धातु-व्याख्यानम्-संस्कृत रूपान्तर । यु०मी० १५-०० ५४. काशकृत्स्न-व्याकरणम्-सम्पादक य० मी०। ६०० ५५. शब्दरूपावली विना रटे शब्द रूपों का ज्ञान कराने वाली २-०० ५६. संस्कृत-धातुकोश-पाणिनीय धातुओं का हिन्दी में अर्थ निर्देश । सम्पादक युधिष्ठिर मीमांसक । .. मूल्य १०-०० - ५७. अष्टाध्यायी-शुक्लयजःप्रातिशाख्ययोर्मतविमर्शः-डा० विजयपाल विरचित पीएच० डी० का महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध (संस्कृत) । सुन्दर छपाई उतम कागज बढ़िया जिल्द सहित। मूल्य ५०-०० अध्यात्म-विषयक ग्रन्थ ५८. तत्त्वमसि-अद्वैतमीमांसा -स्वा० विद्यानन्द सरस्वती मूल्य ४०-०० ५६. ईष-केन-कठ-उपनिषद्-श्री वैद्य रामगोपाल शास्त्री कृत हिन्दी अंग्रेजी व्याख्या सहित । मूल्य-ईशो० १-५०; केनों० १-५०; कठो०३-५० Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ६०. ध्यानयोग - प्रकाश - स्वामी दयानन्द सरस्वती के योग-विद्या के बढ़िया पक्की जिल्द, मूल्य १६ -०० शिष्य स्वामी लक्ष्मणानन्द कृत । ६१. अनासक्तियोग - लेखक पं० जगन्नाथ पथिक । १५-०० ६२. प्रार्याभिविनय (हिन्दी) - स्वामी दयानन्द । गुटका सजिल्द ४-०० 3. Aryabhivinaya-English translation and notes ( स्वामी भूमानन्द) दोरङ्गी छपाई । अजिल्द ४००, सजिल्द ६-०० ६४. वैदिक ईश्वरोपासना । मूल्य १-०० ६५. विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् (सत्यभाष्य - सहितम् ) - पं० सत्यदेव वासिष्ठ कृत आध्यात्मिक वैदिक भाष्य ( ४ भाग ) । प्रति भाग १५-०० अप्राप्य ६६. श्रीमद्भगवद् गीता भाष्यम् - श्री पं० तुलसीराम स्वामी ६-०० ६७. हंसगीता - महाभारत का एक आध्यात्मिक प्रसंग । ६८. अगम्य पन्थ के यात्री को श्रात्मदर्शन- चंचल बहिन | ३-०० ६६. मानवता की नोर - श्री शान्तिस्वरूप कपूर के विविध विचारो - त्तेजक सरल भाषा में लिखे गये लेखों का संग्रह | ४-०० नीतिशास्त्र इतिहास विषयक ग्रन्थ ७०. वाल्मीकि रामायण - श्री पं० अखिलानन्द जी कृत हिन्दी अनुवाद सहित । अप्राप्य । अरण्य - प - किष्किन्धा काण्ड १०-००, युद्ध काण्ड १०-५० । ७१. शुक्रनीतिसार - व्याख्याकार श्री स्वा० जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती । विस्तृत विषय सूची तथा श्लोक-पूची सहित उत्तम कागज सुन्दर छपाई तथा जिल्द सहित । मूल्य ४५-०० ७२. विदुर नीति - युधिष्ठिर मीमांसक कृत प्रतिपद पदार्थ और व्याख्या सहित । बढ़िया कागज, पक्की सुन्दर जिल्द । मूल्य ३५-०० ७३. . सत्याग्रह - नीति- काव्य - प्रा०स० सत्याग्रह १९३७ ई० में हैदराबाद जेल में पं० सत्यदेव वासिष्ठ द्वारा विरचित | हिन्दी व्याख्या सहित | मूल्य ५-०० ७४. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास - युधिष्ठिर मीमांसक कृत । नया परिष्कृत परिवर्धित चतुर्थ संस्करण तीनों भाग । १२.५-०० पाणिनि - सजिल्द १५-०० + ७५. संस्कृत व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य लेखक - डा० कपिलदेव शास्त्री एम० ए० । Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन-इस बार इस में ऋषि दयानन्द में अलेक नये उपलब्ध पत्र और विज्ञापन संग्रहीत किए गये हैं। इस बार यह संग्रह चार भागों में छपा हैं। प्रथम दो भागों में ऋ० द० के पत्र और विज्ञापन आदि संग्रहीत हैं। तीसरे और चौथे भाग में विविध व्यक्तियों द्वारा ऋ० द० को भेजे गये पत्रों का संग्रह है। प्रथम भाग३५-००, द्वितीय भाग ३५-००, तृतीय भाग ३५-००, चौथा भाग ३५-०० ७७. विरजानन्द-प्रकाश-लेखक-पं० भीमसेन शास्त्री एम० ए० । नया परिवर्धित और शुद्ध संस्करण। मूल्य ३-०० ७८. ऋषि दयानन्द सरस्वती का स्वलिखित और स्वकथित प्रात्मचरित-सम्पादक पं० भगवद्दत। मूल्य १-०० ७६. ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की संस्कृत-साहित्य को देनलेखक-डा० भवानीलाल भारतीय एम० ए०। सजिल्द १५-०० दशन-आयुर्वेद विषयक ग्रन्थ ८०. मीमांसा-शाबर-भाष्य-आर्षमतविमर्शिनी हिन्दी व्याख्या सहित । व्याख्याकार-युधिष्ठिर मीमांसक। प्रथम भाग ४०-००; द्वितीय भाग ३०-०० ; राज संस्करण ४०-००; तृतीय भाग ५०-००; चतुर्थ भाग ४०-०० ८१. नाड़ी-तत्त्वदर्शनम्-श्री पं० सत्यदेवजी वासिष्ठ । मूल्य ३०-०० ८२. षट्कर्मशास्त्रम् - (संस्कृत) जगदीशाचार्य। अजिल्द ८-०० ८३. परमाणु-दर्शनम् - (संस्कृत) जगदीशाचार्य। अजिल्द ८-०० प्रकीर्ण ग्रन्थ ८४. सत्यार्थप्रकाश- (आर्यसमाज-शताब्दी-संस्करण)-१३ परिशिष्ट ३५-०० टिप्पणियां, तथा सन् १८७५ के प्रथम संस्करण के विशिष्ट उद्धरणों सहित । राजसंस्करण मूल्य ३५-००- साधारण संस्करण ३०-०० । ८५. दयानन्दीय लघुग्रन्थ-संग्रह-१४ ग्रन्थ,सटिप्पण, अनेक परिशिष्टों और सूचियों के सहित। लागतमात्र २५-०० Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मीमांसक। ८६. भागवत-खण्डनम्-ऋ० द० की प्रथम कृति । अनु० युधिष्ठिर मूल्य ३-०० ८७. ऋषि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन- इस में पौराणिक विद्वानों तथा ईसाई मुसलमानों के साथ ऋषि दयानन्द के अत्यन्त प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण शास्त्रार्थ दिये गये हैं। अनन्तर पूना में सन् १८७५ तथा बम्बई में सन १८८२ में दिए गए व्याख्यानों का संग्रह है। इस संस्करण से पूर्व के छपे पूना के व्याख्यानों में अनुवादकों ने मन माना घटाया-बढ़ाया है। हमने सन् १८७५ में व्यारयान काल में छपे हुए मूल मराठी भाषा में प्रकाशित ट्रैक्टों के अनुसार नया प्रामाणिक अनुवाद दिया है । बम्बई के २४ प्रवचनों का सारांश तो इसमें प्रथम वार प्रकाशित हुआ है। साथ में ८-१० विशिष्ट परिशिष्ट दिये हैं । सुन्दर सुदृढ़ कागज, पूरे कपड़े की सुन्दर जिल्द, मूल्य लागत-मात्र ३०-०० ८८. दयानन्द-शास्त्रार्थ-संग्रह-संख्या ८७ के ग्रन्थ से पृथक स्वतन्त्र रूप से छपा है । सं० डा० भवानीलाल भारतीय । सस्ता संस्करण १०-०० ८६. दयानन्द-प्रवचन-संग्रह- (पूना-बम्बई-प्रवचन)। पूर्ववत् स्वतन्त्र रूप में छपा है । अनुवादक और सम्पादक पं० युधिष्ठिर मीमांसक । सस्ता संस्करण। मूल्यं १००० ____०. ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास-लेखक-युधिष्ठिर मामांसक । नया परिशोधित परिवर्धित संस्करण। मूल्य ४०-०० ६१. ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से सम्बन्ध कतिपय महत्त्वपूर्ण अभिलेख-इसमें ऋ०द० के नये उपलब्ध पत्र,बम्बई आर्यसमाज के आदिम २८ नियमों की ऋ० द० कृत व्याख्या पं० गोपालराव हरि देशमुख लिहित दयानन्दचरित मराठी का हिन्दी रूपान्तर, आर्यसमाज काकड़वाड़ी बम्बई की पुरानी गुजराती में लिखित कार्यवाही (सन् १८८२ में जब ऋ० द० बम्बई में थे) का हिन्दी रूपान्तर आदि । _ . मूल्य ८-०० ६२. व्यवहारभानु- ऋषि दयानन्द कृत। १-०० ६३. पार्योद्देश्यरत्नमाला-ऋषि दयानन्द कृत। ६४. अष्टोत्तरशतनाममालिका -सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास की सुन्दर प्रामाणिक विस्तृत व्याख्या । लेखक पं० विद्यासागर शास्त्री। ६-०० ०-५० Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) ६५. कन्योपनयन-विधि-अर्थात् 'कन्योपनयन-प्रतिषत'ग्रंथ का खण्डन । श्री पं० महाराणीशंकर । अपने विषय की सुन्दर प्रामाणिक पुस्तक । मूल्य ४-००; सजिल्द ६-०० ___९६: जगद्ग रु दयानन्द का संसार पर जादू-श्री मेहता जैमिनि बी० ए० (स्व० विज्ञानानन्द सरस्वती) । ५८ वर्ष पश्चात् यह उपयोगी पुस्तक पुनः छापी गयी है। मूल्य १-०० ६७. प्राय-मन्तव्य-प्रकाश–महामहोपाध्याय पं० आर्यमुनि । प्रथम भाग ५-०० द्वितीय भाग ५-०० । ६८. दयानन्द अङ्क(वेदवाणी का विशेषांक)--इसमें ऋ०द० के जीवन से सम्बद्ध अभी तक अज्ञात और प्रकाशित विशिष्ट घटनाओं तथा ऋ० द. की यात्रा का विवरण तिथि संवत्, तारीख, वार, सन् सहित । १०-०० शीघ्र प्रकाशित होगावेदोक्त-संस्कार-प्रकाश-पं० विट्ठल गांवस्कर द्वारा लिखित (संस्कारविधि का आधारभूत) महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ । वेदवाणी ४ रामलाल कपूर ट्रस्ट की ओर से वेद-ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिये "वेदवाणी" नाम्नी एक मासिक पत्रिका ३५ वर्ष से निरन्तर ४ विना नागा निकल रही है। प्रति वर्ष एक बृहत्काय विशेषाङ्क प्रका-४ शित किया जाता है। 8 वार्षिक चन्दा, भारत में १२-००; विदेश में २५-००; आजीवन 8 सदस्यता शुल्क २५१-०० । पुस्तक प्राप्ति स्थान रामलाल कपूर ट्रस्ट १-बहालगढ़, जिला -सोनीपत (हरयाणा) १३.१०२१ २-रामलाल कपूर एण्ड संस, पेपर मर्चेण्ट, नई सड़क देहली। .. Page #770 -------------------------------------------------------------------------- _