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________________ ३ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास १७ १०. बृहस्पतिवार के लिये उर्दू में प्रयुक्त 'वीफे' शब्द 'बृहस्पति' के एक देश 'बृहः' का अपभ्रंश है। ११. हिन्दी का 'जीभ' शब्द जिह्वा=जीह' जीभ क्रम से निष्पन्न हुआ है । प्राकृत में 'जीह' 'जीहा' शब्द प्रयुक्त है। जिह्वा= जिव्हा=जिम्भा=जिम्भा-इस प्रकार क्रम से हकार को भ और ५ बकार को बकार तदनन्तर बकार को भकार हुआ है। १२. संस्कृत की नह (णह बन्धने) धातु से हिन्दी का 'नाधना' . (=पशु की नाक में रस्सी डालना) शब्द बना है। १३. 'दुहितृ' के प्राद्यन्त का लोप होकर अवशिष्ट 'हि' भाग से पञ्जाबी का पुत्री-वाचक 'धो' शब्द बना है । और फारसी में प्रयुक्त १० 'दुख्तर' शब्द भी 'संस्कृत के 'दुहितृ' का ही अपभ्रंश है। १४. संस्कृत के कथनार्थक 'आह' धातु' (द्र०–अष्टा० ३।४। ४८) से पञ्जाबी में व्यवहृत 'पाख' क्रिया बनी है। ___ ये कुछ उदाहरण दिये हैं । इनसे पाश्चात्य भाषाविज्ञान के नियमों का अधूरापन स्पष्ट प्रतीत होता है । अतः ऐसे अधूरे नियमों १५ के आधार पर किसी बात का निर्णय करना अपने आप को धोखे में डालना है। भारतीय शब्दशास्त्री पाणिनि और यास्क अनेक शब्दों में 'ह' को घढ,ध,भ आदेश मानते हैं । अष्टाध्यायी ८।४।६२ के अनुसार सन्धि में झय् से उत्तर हकार को घ,झ,ढ, ध और भ आदेश होते हैं। संसार में भाषा की प्रवृत्ति कैसे हुई, इस विषय में आधुनिक २० १. 'एक जीह गुण कवन बखाने, सहस्र फणी सेस अन्त न जाने' । गुरुग्रन्थ साहब, सोलहे माहल्ल ५। २. वैयाकरणों द्वारा आदेश रूप में विहित धातुयें किसी समय में मूल घातुयें थीं । लोपागमणविकार आदि से निष्पन्न धातु अथवा नामरूप अतिप्राचीन काल में स्वतन्त्ररूप में प्रयुक्त होते थे । द्र०—इसी ग्रन्थ के अन्त में २५ दूसरा परिशिष्ट 'पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या' तथा ऋषि दयानन्द की पदप्रयोग शैली', पृष्ठ ६-१७ । '३. चक्षवाचक 'आंख' शब्द का सम्बन्ध भी कथनार्थक आह =ाख रूप से प्रतीत होता है । यथा चक्ष-चक्षुः । कई लोग अक्षि पर्याय 'अक्ष' से इस का सम्बन्ध मानते हैं-अक्ष=अक्ख=प्रांख।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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