________________
महाभाष्यकार पतञ्जलि
४२७
१-एनच्च 'प्रातो लोप इटि च' (अष्टा० ६ । ४ । ६४) इत्यत्र 'टित प्रात्मनेपदानां टेरे(अष्टा० ३ । ४ । ७९) इत्यत्र च भाष्यव्याख्यानं रक्षितेनोक्तम् । परि० पृ० ७१ ।'
२-एतच्च ‘सर्वस्य द्वे' (अष्टा० ८ । १ । १) इत्यत्र भाष्यव्याख्यानं रक्षितेनोक्तम् । परि० पृष्ठ ५१ । परिभाषासंग्रह पृष्ठ १८६ ५ १-तत्रतस्मिन् भाष्ये रक्षितेनोक्तम् । परि० पृष्ठ ७१ ।
परिभाषा संग्रह पृष्ठ २०१ ४-अत एव 'नाग्लोपिशास्वृदिताम्' (अष्टा० ७ । ४ । २) इत्यत्र रक्षितेनोक्तम्-हलचोरादेशो न स्थानिवदिति, यदि हि स्यात्...। इह पुनरलोपिग्रहणसामर्थ्यात् समुदायलोपीत्याश्रीयते । केवलाग्लोपे १० प्रतिषेषस्यानर्थक्यादिति भाष्यटोकायां निरूपितम् ।
परि० पृष्ठ १५४ । परिभाषासंग्रह पृष्ठ २५० । इन उद्धरणों में 'भाष्यव्याख्यान' और भाष्यटीका शब्दों का निर्देश महत्त्वपूर्ण है। परन्तु चतुर्थ उद्धरणस्य 'अग्लोपिग्रहण' से लेकर 'प्रतिषेधस्यानीक्यात्' पाठ के कैयट की प्रदीप टीका (७।४।२) १५ में उपलब्ध होने से यह उद्धरण सांशयिक हैं ।
देश-मैत्रेय रक्षित सम्भवतः बंग देश का निवासी है। इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के 'धातु-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २१ वें अध्याय में मैत्रय रक्षित विरचित 'घातप्रदीप' के प्रकरण में प्रकाश डाला है।
काल-मैत्रेय रक्षित का निश्चित समय अज्ञात हैं । कैयट के काल-निर्देश में हमने मैत्रेय रक्षित के 'धातप्रदीप' का आनुमानिक रचनाकाल संवत् ११६५ वि० लिखा है (द्र०—पृष्ठ ४२४) । तदनुसार मैत्रेय रक्षित का काल सं० ११४५-११७५ वि० के आसपास माना जा सकता है।
अन्य ग्रन्थ मैत्रेय रक्षित ने न्यास की 'तन्त्रप्रदीप' नाम्नी महती टीका,
१. यहां परिभाषावृत्ति (काशी सं०)की पृष्ठ संख्या देने में भूले हुई है । पुनरावलोकन के समय उक्त पृष्ठ पर यह पाठ नहीं मिला।