________________
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के उपांशु उच्चारण का अन्य नियम से विधान है। पासकार की व्याख्यानुसार तो जिन करणमन्त्रों का भी उपांशु उच्चारण का विधान किया है । उन में भी इस की अतिप्रसक्ति होगी । जैसे प्रजा
पतये स्वाहा-मन्त्र का आहति का विधान होने से यह करणमन्त्र है, ५ परन्तु प्रजापतिरुपांशुः प्रयोक्तव्यः नियम से 'प्रजापतये' अंश उपांशु बोला जाता हैं।
न्यास के व्याख्याता १-मैत्रेयरक्षित (सं० ११३२-११७२ वि०) मैत्रेयरक्षित ने न्यास की 'तन्त्रप्रदीप' नाम्नी महती व्याख्या रची १० है। सौभाग्य से इसका एक हस्तलेख कलकता के राजकीय पुस्तका.
लय में सुरक्षित है । हस्तलेख में प्रथमाध्याय के प्रथम पाद का ग्रन्थ नहीं हैं, शेष संपूर्ण है । देखो-बंगाल गवर्नमेण्ट की आज्ञानुसार पं० राजेन्द्रलाल सम्पादित सूचीपत्र भाग ६, पृष्ठ १४०, ग्रन्थाङ्क २०७६ ।
विद्वत्ता-मंत्रेयरक्षित व्याकरणशास्त्र का असाधारण पण्डित १५ था। वह पाणिनीय तया इतर व्याकरण का भी अच्छा ज्ञाता था। वह अपने 'धातुप्रदीप' के अन्त में स्वयमेव लिखता है
'वृत्तिन्यासं समुद्दिश्य कृतवान् ग्रन्थविस्तरम् । नाम्ना तन्त्रप्रदीपं यो विवृतास्तेन धातवः ॥ प्राकृष्य भाष्यजलधेरथ धातुनामपारायणक्षपणपाणिनिशास्त्रवेदी। कालापचान्द्रमततत्त्वविभागदक्षो,
धातुप्रदीपमकरोज्जगतो हिताय' । सीरदेव ने भी अपनी परिभाषावृत्ति में लिखा है
'तस्माद् बोद्धव्योऽयं रक्षितः, बोद्धव्याश्च विस्तरा एव रक्षित२५ ग्रन्था विद्यन्ते' । पृष्ठ ६५, परिभाषासंग्रह (पूना) पृष्ठ २१५ ।
देश-यह सम्भवतः बंगप्रान्तीय था।'
काल-मैत्रेयरक्षित का काल वि० संवत ११४०-११६५ तक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के
१. विशेष द्रष्टव्य इसी इतिहास का भाग २, पृष्ठ १०१ । ३० २. देखो-पूर्व पृष्ठ ४२४ ।