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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
निर्णय ग्रन्थ के अवलोकन से ही सम्भव है। इस के उपलब्ध ग्रन्थ शारदा लिपि में हैं । अतः हम निर्णय करने में असमर्थ हैं। हमारा विचार है कि उग्रभूति ने स्वयं कातन्त्र पर शिष्यहिता वृत्ति लिखी
और उस पर स्वयं ही न्यास लिखा । पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने 'अभिमतदेवतापूजापूर्विकाप्रवृत्तिरिति सतामाचारमनुपालयन् वृत्तिकृन्नमस्करोति-ॐ श्री कण्ठाय...."।' पाठ में वृत्तिकृन्नमस्करोति पद को देख कर वृत्तिकार को उग्रभूति से पृथक् माना है। संस्कृत वाङ्मय में अनेक ऐसे ग्रन्थ है जिन के व्याख्येय और व्याख्या ग्रन्थ के लेखक एक ही है। परन्तु उनमें भी व्याख्यांश में इसी प्रकार का प्रथम पुरुष के रूप में निर्देश मिलता है । यथा साहित्य दर्पण, काव्यप्रकाश काव्यानुशासन, ग्रन्थों में कारिका और उस की व्याख्या क्रमशः एक ही ग्रन्थकार विश्वनाथ मम्मट तथा हेमचन्द्राचार्य की हैं। तदनुसार शिष्यहितावृत्ति और शिष्यहिता न्यास का एक ही लेखक हो सकता
है । इस में अल्बेरूनी का 'शिष्यहितावृत्ति' का लेखक रूप से उग्रभूति १५ को स्मरण करना भी प्रमाण है।
३-त्रिलोचनदास (सं० ११०० वि० ?) . त्रिलोचनदास ने दुर्गवृत्ति पर 'कातन्त्रपञ्जिका' नाम्नी बृहती व्याख्या लिखी है । यह व्याख्या बंगलाक्षरों में मुद्रित हो चुकी है।
वोपदेव ने इसे उद्धृत किया है। त्रिलोचनदास का निश्चित काल २० अज्ञात है । सम्भव है कि यह ११ वीं शताब्दी का ग्रन्थकार हो ।
कातन्त्र पञ्जिका की विशेषता-पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने · पञ्जिका की विशेषता का वर्णन इस प्रकार किया है -
__ "दुर्गसिंह कृत वृत्ति तथा टीका के विषयों का प्रौढ़ स्पष्टीकरण
इस व्याख्या में देखा गया है। इस व्याख्या का स्तर कातन्त्र सम्प्रदाय २५ में वही माना जा सकता है जो कि पाणिनीय सम्प्रदाय में काशिका
वृत्ति पर जिनेन्द्र बुद्धि द्वारा प्रणीत काशिका विवरण पञ्जिका (न्यास) का है । इस में जयादित्य जिनेन्द्र बुद्धि प्रभृति लगभग ४० ग्रन्थकारों तथा कुछ ग्रन्थों के मतवचनों को दिखाया गया है । बहुत
से मत 'केचित्' 'अन्ये' 'इतरे' शब्दों से भी प्रस्तुत किये हैं। इन सभी ३० मतों में कुछ मतों को युक्ति संगत नही माना गया है।
पञ्जिका में दर्शित मतों के प्रति कुछ प्राचार्यों ने दोष भी