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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६३७ दिखाये हैं। इन दोषों का समाधान सुषेण विद्याभूषम में अपने 'कलाप चन्द्र' नामक व्याख्यान में किया है।'
पञ्जिका-टीकाकार (क) त्रिविक्रम-(१३ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती)
त्रिविक्रम ने त्रिलोचनदासविरचित 'पञ्जिका' पर 'उद्योत' ५ नाम्नी टीका लिखी है । त्रिविक्रम वर्धमान का शिष्य है । एक वर्धमान 'कातन्त्रविस्तर' नाम्नी टीका का लेखक है। इसका निर्देश मागे करेंगे। वर्धमान नाम के अनेक आचार्य हो चुके हैं । अतः यह किस वर्धमान का शिष्य है, यह अज्ञात है । पट्टन के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचोपत्र के पृष्ठ ३८३ पर त्रिविक्रम कृत पञ्जिका का एक हस्तलेख १० निर्दिष्ट है, उसके अन्त में निम्न लेख है'उक्तं यदालनविशीर्णवाक्यनिरर्गलं किञ्चन फल्गु पूर्वः। .. उपेक्षितं सर्वमिदं मया तत् प्रायो विचारं सहते न येन ॥ पासीदियं पञ्जरचित्रसालिकेव हि पञ्जिका।
उद्योतव्यपदेशेन त्वियं पूर्णोज्ज्वली कृता॥ इति श्री वर्धमान शिष्यत्रिविक्रमकृते पञ्जिकोद्योतेऽनुषङ्गपादः । सं० १२२१ ज्येष्ठ वदि ३ शुके लिखितमिति ।'
इससे स्पष्ट है कि 'त्रिविक्रम' विक्रम की १३ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ता है।
(ख) श्री देशल (सं० १९६५)
नन्दी पण्डित के पुत्र श्री देशल ने सं० १९६५ में त्रिलोचनदास कृत पञ्जिका पर 'प्रदीप' नाम्नी व्याख्या लिखी थी। पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।
(ग) विश्वेश्वर तर्काचार्य (ङ) कुशल (घ) जिनप्रभ सूरि
(च) रामचन्द्र विश्वेश्वर तर्काचार्य कृत 'पञ्जिका-व्याख्या का हस्तलेख काशी के सरस्वती भवन पुस्तकालय में है। अगले तीन लेखकों का उल्लेख
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(च) रामचन्द्र
१. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कौश की परम्परा, पृष्ठ ११५ ॥ २. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ३२ ।