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________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७५ 'वामनस्तु बृहदवृत्तौ यवमाषेति पठति ।" इस उद्धरण में 'बृहत्' विशेषण का प्रयोग करने से व्यक्त है कि वामन ने स्वयं लध्वी और बहती दो व्याख्याएं रची थीं, अन्यथा 'बृहत्' विशेषण व्यर्थ होता है । वामनकृत दोनों वृत्तियां तथा मूल सूत्र ग्रन्थ इस समय अप्राप्त हैं। २- मल्लवादी तार्किकशिरोमणि मल्लवादी ने वामनकृत विश्रान्तविद्याधर व्याकरण पर न्यास ग्रन्थ लिखा था, यह हम ऊपर लिख चुके हैं। इस न्यास का उल्लेख वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि में कई स्थानों पर किया है । हैम शब्दानुशासन की बृहती टीका में भी यह असकृत् १० उद्धृत है। ६. पाल्यकीर्ति (सं० ८७१-६२४) व्याकरण के वाङमय में शाकटायन नाम से दो व्याकरण प्रसिद्ध हैं । एक प्राचीन आर्ष और दूसरा अर्वाचीन जैन व्याकरण । प्राचीन १५ आर्ष शाकटायन व्याकरण का उल्लेख हम पूर्व कर चुके । अब अर्वाचीन जैन शाकटायन व्याकरण का वर्णन करते हैं । जैन शाकटायन तन्त्र का कर्ता उपलब्ध शाकटायन व्याकरण के कर्तृत्व के सम्बन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों के जो विचार रहे उनका निर्देश ‘भारतीय ज्ञानपीठ काशी' २० द्वारा प्रकाशित शाकटायन व्याकरण भूमिका में राबर्ट बिरवे ने किया है। प्रोपर्ट जिसने १८९३ ई० में शाकटायन व्याकरण को प्रकाशित किया, का मत है कि प्राचीन शाकटायन ही इस वर्तमान शाकटायन व्याकरण का कर्ता है । इसके विपरीत बर्नेल कीलहान बूहलर आदि १. पृष्ठ २३७ । २. पूर्व पृष्ठ ६७३ में प्रभावकचरित का श्लोक । २५ ३. विश्रान्तन्यासकृत्त असमर्थत्वाद् दण्डपामिरित्येव मन्यते । पृष्ठ ७१ । विश्रान्तन्यासस्तु किरात एव कैरातो म्लेच्छ इत्याह । पृष्ठ ६२ । ४. द्र०-पृष्ठ १७४-१८३ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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