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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्राचीन जैन- परम्परा के अनुसार मल्लवादी सूरि का काल वि० सं० ४०० के लगभग निश्चित है । और विश्रान्तविद्याधर पर न्यास ग्रन्थ लिखनेवाला भी यही व्यक्ति है । यदि प्रबन्धकोश के सम्पादक के मतानुसार संवत् ५७३ में वलभीभंग मानें,' तब भी मल्लवादी सं० ६०० से अर्वाचीन नहीं है । तदनुसार विश्रान्तविद्याधर के कर्ता वामन का काल वि० सं० ४०० और पक्षान्तर में ६०० से प्राचीन है, इतना निश्चित है ।
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एक कठिनाई - हमने विश्रान्तविद्याधर के रचयिता वामन का काल ऊपर निर्धारित किया है, उस में एक कठिनाई भी है । उस १० का भी हम निर्देश कर देना उचित समझते हैं, जिस से भावी लेखकों को विचार करने में सुगमता हो । वह है
वर्धमान 'गणरत्नमहोदधि' में लिखता है -
वामनोक्तः
'भोजमतम श्रित्य
नाश्रितः ।
कलापिशष्पप्राच्यादिविशेषो
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इसके अनुसार वामन सरस्वती - कण्ठाभरण से उत्तरकालिक प्रतीत होता है । परन्तु पूर्व-निर्दिष्ट सुपुष्ट प्रमाणों के आधार पर 'विश्रान्तविद्याधर' का कर्त्ता वि० सं० ६०० से उत्तरवर्ती किसी प्रकार नहीं हो सकता । अतः वर्धमान के लेख का भाव 'वामनोक्त विभाग हमने भोज के मत को आश्रय करके स्वीकार नहीं किया' ऐसा समझना २० चाहिए ।
विश्रान्तविद्याधर के व्याख्याता
१ - वामन
वर्धमानविरचित ‘गणरत्नमहोदधि' से विदित होता है कि वामन ने अपने व्याकरण पर स्वयं दो टीकाएं लिखी थीं। वह लिखता है -
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स० प्र० में लिखा है) लेखक प्रमाद से ३९ के अंकों का विपर्यय होकर ९३ बन गया होगा ।
१. सम्पादक ने यह कल्पना पाश्चात्त्यों द्वारा कल्पित वलभी संवत् की अशुद्ध गणना साथ सामञ्जस्य करने के लिये की है, जो सर्वथा चिन्त्य है। २. पृष्ठ १८२ ।