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भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी की रचना से पूर्व 'शब्द५ कौस्तुभ' लिखा था । यह पाणिनीय व्याकरण की सूत्रपाठानुसारी विस्तृत व्याख्या है | इसका वर्णन हम 'प्रष्टाध्यायी के वृत्तिकार' प्रकरण में कर चुके हैं ।'
वंश और काल - इस विषय में हम पूर्व लिख चुके हैं । ' सिद्धान्तकौमुदी के व्याख्याता
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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
दीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' ग्रन्थ रचा । सम्प्रति समस्त भारतवर्ष में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन इसी सिद्धान्तकौमुदी के आधार पर प्रचलित है ।
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भट्टोज दीक्षित (सं० १५७० - १६५० वि० के मध्य ) भट्टोज दीक्षित ने स्वयं 'सिद्धान्तकौमुदी' की व्याख्या लिखी है । यह 'प्रौढमनोरमा' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रक्रियाकौमुदी र उसकी टीकाओं का स्थान-स्थान पर खण्डन किया है। भट्टोजि दीक्षित ने यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' पर बहुत बल दिया है । प्राचीन ग्रन्थकार अन्य वैयाकरणों के मतों का भी प्राय: संग्रह करते रहे हैं, परन्तु भट्टोजि दीक्षित ने इस प्रक्रिया का सर्वथा उच्छेद कर दिया । अतः आधुनिक काल के पाणिनीय वैयाकरण अर्वाचीन व्याकरणों के तुलनात्मक ज्ञान से सर्वथा वञ्चित हो गये ।
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'प्रौढमनोरमा' का संवत् १७०८ का एक हस्तलेख पूना के २० भण्डारकर प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान में है । देखो - व्याकरण विभागीय सूचीपत्र संख्या १३२ ।
भट्टोज दीक्षित कृत प्रौढमनोरमा पर उनके पौत्र हरि दीक्षित ने 'बृहच्छन्दरत्न' और 'लघशब्दरत्न' दो व्याख्याएं लिखी हैं । ये दोनों टीकाएं मुद्रित हो चुकी हैं। कई विद्वानों का मत है कि लघुशब्दरत्न नागेश भट्ट ने लिखकर अपने गुरु के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। बृहच्छन्दरत्न भी प्रकाशित हुप्रा है । लघुशब्दरत्न पर अनेक वैयाकरणों ने टीकाएं लिखी हैं ।
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२ ज्ञानेन्द्र सरस्वती (सं० १५५०-१६०० ) ज्ञानेन्द्र सरस्वती ने सिद्धान्तकौमुदी की 'तत्त्वबोधिनी' नाम्नी १. द्र० – पूर्व पृष्ठ ५३० । २. द्र० - पूर्व पृष्ठ ५३० -५३३ ।
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