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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र
का इतिहास
पहला अध्याय संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास समस्त प्राचीन भारतीय वैदिक ऋषि-मुनि तथा आचार्य इस विषय में सहमत हैं कि वेद अपौरुषेय तथा नित्य हैं । परम कृपालु भगवान् प्रति कल्प के प्रारम्भ में ऋषियों को, जिस का आदि और निधन (=अन्त) नहीं है, ऐसी नित्या वाग्वे द का ज्ञान देता है, और उसी वैदिक-ज्ञान से लोक का समस्त व्यवहार प्रचलित होता है । भारतीय इतिहास के अद्वितीय ज्ञाता परम ब्रह्मिष्ठ कृष्ण द्वैपायन व्यास ने लिखा है--
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।
प्रादौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥' पाश्चात्य तथा तदनुगामी कतिपय एतद्देशीय विद्वान् इस भारतीय ऐतिह्यसिद्ध सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । उनका मत है 'मनुष्य
१. द्रष्टव्य-"अनादीति श्लोकस्य उत्तरार्धम् 'प्रादौ वेदमयी दिव्याय तः सर्वा प्रवृत्तयः' इति ज्ञेयम्, क्वचिददर्शनेऽपि शारीरकसूत्रभाष्यादौ (द्र० ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, १।३।२८) पुस्तकान्तरेषु च दर्शनात्” इति नीलकण्ठः । महाभारत टीका, शान्तिपर्व २३२।२४ (चित्रशाला प्रेस पूना संस्करण, शकाब्द १८५४) राय श्री प्रतापचन्द्र (कलकत्ता) के शकाब्द १८११ के संस्करण में शान्ति० २३११५६ पर मिलता है । वेदान्त शाङ्करभाष्य १।३।२८ में उद्धृत है।
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