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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्रारम्भ में साधारण पशु के समान था । शनैः शनैः उसके ज्ञान का विकास हुआ, और सहस्रों वर्षों के पश्चात् वह इस समुन्नत अवस्था तक पहुंचा' । विकासवाद का यह मन्तव्य सर्वथा कल्पना की भित्ति पर खड़ा है। अनेक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य के स्वाभाविक ज्ञान में नैमित्तिक ज्ञान के सहयोग के विना कोई उन्नति नहीं होती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण संसार की अवनति को प्राप्त वे जङ्गली जातियां हैं, जिनका बाह्य समुन्नत जातियों से देर से संसर्ग नहीं हुआ । वे आज भी ठीक वैसा ही पशु-सदृश जीवन बिता रही हैं, जैसा सैकड़ों वर्ष पूर्व था । बहुविध परीक्षणों से विकासवाद का १० मन्तव्य अब प्रामाणिक सिद्ध हो चुका है । अनेक पाश्चात्य विद्वान् भी शनैः शनैः इस मन्तव्य को छोड़ रहे हैं, और प्रारम्भ में किसी नैमित्तिक ज्ञान की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं । अतः यहां विकासवाद की विशेष विवेचना करने की न तो आवश्यकता है, और न ही हमारे विषय से सम्बद्ध है ।'
लौकिक संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति
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आरम्भ में भाषा की प्रवृत्ति और उसका विकास लोक में किस प्रकार हुआ, इसका विकासवादियों के पास कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं है । भारतीय वाङ्मय के अनुसार लौकिक - भाषा का विकास वेद से हुआ । स्वायम्भुव मनु ने भारत-युद्ध से सहस्रों वर्ष २० पूर्व' लिखा
१. विकासवाद और उस की आलोचना के लिये पं० रघुनन्दन शर्मा कृत 'वैदिक - सम्पत्ति' पृष्ठ १४६ - २३३ (संस्करण २, सं० १९९६) देखिये ।
२. द्र०—पं० भगवद्दत्त कृत 'भाषा का इतिहास' पृष्ठ २-४ (संस्क० २ ) । पाश्चात्य भाषाविदों को विकासवाद के मतानुसार जब भाषा की उत्पत्ति का परिज्ञान न हुआ, तब उन्होंने कहना आरम्भ कर दिया कि - ' भाषा की उत्पत्ति की समस्या का भाषा - विज्ञान के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । ( द्र०जे० वैण्ड्रिएस कृत 'लेंग्वेज' ग्रन्थ, पृष्ठ ५, सन् १९५२) ।
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३. प्रक्षिप्तांश छोड़कर वर्त्तमान मनुस्मृति निश्चय ही भारत युद्धकाल से बहुत पूर्व की है । जो लोग इसे विक्रम की द्वितीय शताब्दी की रचना मानते हैं, उन्होंने इस पर सर्वाङ्गरूप से विचार नहीं किया ।
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