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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशन्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥' अर्थात्-ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में सब पदार्थों की संज्ञाएं, शब्दों के पृथक्-पृथक् कर्म=अर्थ' और शब्दों की संस्था =रचनाविशेष सब विभक्ति वचनों के रूप, ये सब वेद के शब्दों से निर्धारित ५ किये।
वेद में शतशः शब्दों की निरुक्तियों और पदान्तरों के सान्निध्य से बहुविध अर्थों का निर्देश उपलब्ध होता है। उन्हीं के आधार पर लोक में पदार्थों की संज्ञाएं रक्खी गईं। यद्यपि वेद में समस्त नाम और धातुओं के प्रयोग उपलब्ध नहीं होते, और न उनके सब १०
१. मनु ११२१॥ तुलना करो-महाभारत शान्ति० २३२।२५,२६॥ मनु के श्लोक का मूल-ऋग्वेद ६॥६५२ तथा १०७१।१ है ।
२. निरुक्त में कर्म-शब्द अर्थ का वाचक है । यथा-'एतावन्तः समानकर्माणो धातवः' (१।२०) इत्यादि । __३. मनुस्मृति के टीकाकार कर्म और संस्था शब्द की व्याख्या विभिन्न १५ प्रकार से करते हैं। कुल्लूकभट्ट-'कर्माणि ब्राह्मणस्याध्ययनादीनि, क्षत्रियस्य प्रजारक्षादीनि,"पृथक् संस्थाश्चेति.. कुलालस्य घटनिर्माणं कुविन्दस्य पटनिर्माणमित्यादिविभागेन'। मेधातिथि- 'कर्माणि च निर्ममे, धर्माधर्माख्यानि अदृष्टार्थानि अग्निहोत्रादीनि च,.."संस्था व्यवस्थाश्चकार, इदं कर्म ब्राह्मणेनैव कर्तव्यम्, काले अमुष्य फलाय च ॥' टीकाकारों की व्याख्या परस्पर विरुद्ध २० है । श्लोक के उपक्रम और उपसंहार की दृष्टि से हमारा अर्थ युक्त है।
४. यहूदी पुरानी बाइबल में आदम को प्राणियों, पक्षियों और अन्य वस्तुओं का नाम रखने वाला कहा है । उस के बहुत काल पश्चात् नोह का जलप्लावन वर्णित है । यहूदी लोगों ने ब्रह्मा को आदम (=पादिम) कहा है,
और उन का नोह वैवस्वत मनु है । (द्र०-स्वामी दयानन्द सरस्वती का २५ १३-७-१८७५ का पूना का पांचवां व्याख्यान, दयानन्द-प्रवचन-संग्रह पृष्ठ ६६, पं० १, रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्करण २)।
५. देखो इस ग्रन्थ के द्वितीयाध्याय का प्रारम्भ ।
६. पाणिनीय अष्टाध्यायों की रचना व्यावहारिक संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति के बहुत अनन्तर हुई हैं । पाणिनीय व्याकरण मुख्यतया लौकिक-भाषा का व्या- ..