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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २६१ ३. पूर्वसूत्रनिर्देशो वापिशलमधीत इति । पूर्वसूत्रनिदेशो वा पुनरयं द्रष्टव्यः । सूत्रेऽप्रधानस्योपसर्जनमिति संज्ञा क्रियते।'
४. पूर्वसूत्रनिर्देशश्च । चित्त्वान् चित इति ।
५. अथवा पूर्वसूत्रनिर्देशोऽयं, पूर्वसूत्रेषु च येऽनुबन्धा न तैरिहेकार्याणि क्रियन्ते । निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् ।' ६. पूर्वसूत्रनिर्देशश्च ।
महाभाष्य के इन ६ उद्धरणों में से केवल प्रथम उद्धरण पूर्वपाणिनीय के 'अक्षराणि वर्णाः'५ सूत्र के साथ मिलता है। भर्तृहरि ने महाभाष्यदीपिका में महाभाष्योक्त पूर्वसूत्र का पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है
एवं ह्यन्ये पठन्ति–'वर्णा अक्षराणि' इति ।
इस से प्रतीत होता है कि ये पूर्वपाणिनीय सूत्र भर्तृहरि के समय विद्यमान नहीं थे। अन्यथा वह 'वर्णा अक्षराणि' के स्थान पर 'अक्षराणि वर्णाः' ऐसा पाठ उद्धृत करता।
पूर्वपाणिनीय का शब्दार्थ-पूर्वपाणिनीय के सम्पादक को भ्रांति १५ होने का एक कारण इसके शब्दार्थ को ठोक न समझना है। उन्होंने पूर्वपाणिनीय नाम देखकर इसे पाणिनीय समझ लिया। वस्तुतः इस का अर्थ है-'पाणिनीयस्य पूर्व एकदेशः पूर्वपाणिनीयम्'; अर्थात् पाणिनीय शास्त्र का पूर्व भाग । पूर्वोत्तर भाग के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह एक व्यक्ति की रचना हो और समान काल की हो। २० विभिन्न रचयिता और विभिन्न काल की रचना होने पर भी पूर्वोत्तर विभाग माने जाते हैं। जैसे-पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा । कातन्त्र के भी इसी प्रकार दो भाग हैं ।
पूर्वपाणिनीय की प्राचीनता-पूर्वपाणिनीय के सम्पादक ने इस
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१. महा० ४१११४॥ पृष्ठ २०५ (कीलहान सं०)। २. ६।१।१६३॥ पृष्ठ १०४ (वही)।
३. ७।१।१८॥ पृष्ठ २४७ (वही)। - ४. ८।४।७॥ पृष्ठ ४५५ (वही)। ५. पूर्वपाणिनीय सूत्र २२ ।
६. महाभाष्यदीपिका, हस्तलेख, पृष्ठ ११६ । पूना सं० पृ० ६२ का पाठ है-'एवं ह्यन्यैर्वा पठयते वर्णा अक्षराणोति' ।