________________
२०
१०
इस श्लोक से प्रतीत होता है कि गणपाठ में क्षत्रविद्या के स्थान में नक्षत्रविद्या पाठ उपयुक्त होगा । परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् ७१७ में क्षत्रविद्या के साथ-साथ नक्षत्रविद्या का भी निर्देश है । सम्भव है गणपाठ में 'क्षत्रविद्या' नक्षत्रविद्या' दोनों पाठ रहे हों, और समता के कारण लिपिकर दोष से 'नक्षत्रविद्या' पाठ नष्ट हो गया हो । २१ - २५. सर्पविद्या, वायस विद्या, धर्मविद्या, गोलक्षण, श्रश्वलक्षण- महाभाष्य ४ २ ६० में सपविद्या, वायस विद्या, धर्मविद्या, गोलक्षण और अश्वलक्षण के अध्येता और वेत्तानों का उल्लेख है | अतः उस समय इन विद्याओं के ग्रन्थ अवश्य विद्यमान रहे होगे । १५ वायस विद्या का अभिप्राय पक्षि-शास्त्र है । इसे बयोविद्या भी कहा
जाता है ।
२५
२६०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उल्लेख है | मनुस्मृति ६।५० के पूर्वार्ध में इसी गणपाठ में पठित अन्य शब्दों के साथ नक्षत्रविद्या का उल्लेख मिलता है | मनु का वचन इस प्रकार है
३०
न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्गविद्यया । नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत् कर्हिचित् ॥'
छान्दोग्य उपनिषद् ७19 में पित्र्य, राशि, देव, विधि, वाकोवाक्य, एकायन, देव, ब्रह्म, भूत, क्षत्र, नक्षत्र, सर्पदेवजन आदि विद्यानों का भी निर्देश मिलता है |
३. उपज्ञात
'उपज्ञात' वह कहता है, जो ग्रन्थकार की अपनी सूझ हो । काशिका आदि वृत्तिग्रन्थों में 'उपज्ञाते" के निम्न उदाहरण दिये हैंपाणिनीयमकालकं व्याकरणण् । काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । श्रापिशलं पुष्करणम् ।
पज्ञं
काशिका ६।२।१४ में - 'प्रापिशल्युपज्ञं गुरुलाघवम्, व्याड्य प दुष्करणम्' उदाहरण दिये हैं ।
सरस्वतीकण्ठाभरण (४।३।२५५, २५४ ) की हृदयहारिणी वृत्ति में— ' चान्द्रमसंज्ञकं व्याकरणम्, काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्, प्रापिशलमान्तःकरणम्' पाठ मिलता है ।
१. वासिष्ठ धर्मसूत्र १०।२१ भी देखें 1
२. अष्टा० ४|४|११५ ॥