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३७ प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २८६ महाभाष्य १।४।८४ में शाकल्यकृत [पद] संहिता का निर्देश किया
___ महाभारत शान्तिपर्व ३४२ । १०३, १०४ से ज्ञात होता है कि प्राचार्य गालव ने वेद की किसी संहिता का सर्वप्रथम क्रमपाठ रचा था। ऋक्प्रातिशाख्य ११।६५ में इसे बाभ्रव्य पाञ्चाल के नाम से ५ स्मरण किया है। वात्स्यायन कामसूत्र १११।१० में इसे कामशास्त्रप्रणेता कहा है। गालवप्रोक्त शिक्षा, व्याकरण, और निरुक्त का निर्देश हम पूर्व कर चुके हैं । सम्भव है सभी संहिताओं के पदपाठ एवं क्रमपाठ पाणिनि से प्राचीन रहे हों।
१७-२०. वास्तुविद्या, अङ्गविद्या, क्षत्रविद्या [नक्षत्रविद्या], १. उत्पाद (उत्पात), निमित्त विद्याओं के व्याख्यानग्रन्थों का ज्ञान गणपाठ ४।३।७३ से होता है।
वास्तुविधा- इस के अन्तर्गत प्रासाद-भवन तथा नगर आदि निर्माण के निर्देशक ग्रन्थों का अन्तर्भाव होता है। मत्स्यपुराण अ० २५१ में अठारह वास्तुशास्त्रोपदेशकों का वर्णन मिलता है। ये सभी १५ पाणिनि से पूर्ववर्ती हैं। ___ अङ्गविद्या- इसे सामुद्रिकशास्त्र भी कहते हैं । शतपथ ८।५।४।३ में पुण्यलक्ष्मीक का निर्देश मिलता है । लक्षणे जायापत्योष्टक (३।२।५२) पाणिनीय सूत्र के महाभाष्य में जायाघ्न तिलकालक और पतिघ्नी पाणिरेखा का निर्देश है । कौटिल्य अर्थशास्त्र १११,१२ २० में अङ्गविद्या में निपुण गूढ पुरुषों का उल्लेख किया है। मनु ६ । ५० में अङ्गविद्या से जीविकार्जन का निषेध किया है। ___ क्षत्रविद्या [नक्षत्रविद्या] -गणपाठ ४।३।७३ में क्षत्रविद्या पाठ है। छान्दोग्य उपनिषद् ७७ में भूतविद्या के साथ क्षत्रविद्या का भो
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१. शाकल्येन सुकृतां संहितामनुनिशम्य देव: प्रावर्षत् । २. पूर्व पृष्ठ १६६, टि० २। ३. पूर्व पृष्ठ १६७, टि०५॥ ४. पूर्व पृष्ठ १६८ टि० ३। ५. पूर्व पृष्ठ १६७ । ६. पूर्व पृष्ठ १६७ ।
७. पूर्व पृष्ठ १६८ । ८. तस्य निमित्तं संयोगोत्पाती । अष्टा० ५।११३८॥ ६. द्र०-आगे उध्रियमाण मनुवचन ।