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________________ प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २९१ इन उदाहरणों में पाणिनि, काशकृत्स्न, आपिशलि, व्याडि और चन्द्रगोमी के व्याकरणों का उल्लेख है। चन्द्रोपज्ञ व्याकरण पाणिनि से अर्वाचीन है । उपर्युक्त उदाहरणों की पारस्परिक तुलना से व्यक्त है कि इन का पाठ प्रशद्ध है। पाणिनि के विषय में सब का मत एक जैसा हैं । इस से स्पष्ट है कि पाणिनि ने सब से पूर्व स्वमति के काल- ५ परिभाषारहित व्याकरण रचा था।' इन व्याकरणों में अकालकत्व आदि अंश ही पाणिनि आदि के स्वोपज्ञ अंश हैं। इन व्याकरणों के अतिरिक्त और भी बहुत से उपज्ञात ग्रन्थ पाणिनि के काल में विद्यमान रहे होगे। ४. कृत कृत ग्रन्थों का उल्लेख पाणिनि ने दो स्थानों पर किया है'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' और 'कृते ग्रन्थे । प्रथम सूत्र के उदाहरण काशिकाकार ने 'सौभद्रः, गौरिमित्रः, यायातः' दिये हैं। इन का अर्थ है-सुभद्रा गौरिमित्र और ययाति के विषय में लिखे गए ग्रन्थ । महाभाष्यकार ने 'यवक्रीत, प्रियङ गु' और 'ययाति' के विषय में १५ लिखे गए 'यावक्रीत प्रेयङ्गव यायातिक पाख्यानग्रन्थों का उल्लेख किया है । पाणिनि ने 'शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्रजननादिभ्यश्छः५ में शिशुक्रन्द =बच्चों का रोना, यमसभा, द्वन्द्वमास=अग्निकाश्यप, श्येनकपोत और इन्द्रजनन =इन्द्र की उत्पत्ति, तथा आदि शब्द से प्रद्युम्नागमन आदि विषयों के ग्रन्थों का निर्देश किया है । वार्तिक- २० कार ने 'लुबाख्यायिकाभ्यो बहलम्' और 'देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधः'६ वार्तिकों से अनेक कृत ग्रन्थों की ओर संकेत किया है । पतञ्जलि ने १. विशेष विचार पृष्ठ २४२-२४३ पर किया है।। २. अष्टा० ४।३।८७॥ ३. अष्टा० ४।३।११६॥ ४. यावक्रीत और यायात प्राख्यान महाभारत में भी है। ५. अष्टा० ४।३।८८॥ ६. सर्वत्र 'शिशूनां क्रन्दनम्' बहुवचन से निर्देश होने से विदित होता है कि यह बालकों के रोगजनित विविध प्रकार के रोदन को लक्ष में रखकर लिखा गया 'शिशक्रन्दीय' ग्रन्थ का निर्देशक है । ७. श्येनकपोतीय आख्यान महाभारत वनपर्व अ० १३१ में द्रष्टव्य । ८. महाभाष्य ४।३।८७॥ ६. महाभाष्य ४।३।१८॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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