________________
१२०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अर्थात्-कशापूर्वक 'कृती छेदने' धातु से क्स्न प्रत्यय और आकार को ह्रस्व होता है।
प्राचार्य-नाम-तत्त्वरत्नाकर ग्रन्थ में भट्ट पराशर ने काशकृत्स्न को बादरायण का शिष्य कहा है।' बादरायण कृष्ण द्वैपायन का हो ५ नाम है, ऐसा भारतीय ऐतिहासिकों का मत है ।
शिष्य-काशिका-वृत्ति (६।२।१०४) में उदाहरण है-पूर्वकाशकृत्स्ना, अपरकाशकृत्स्नाः । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न के अनेक शिष्य थे, और वे पूर्व तथा अपर दो विभागों में विभक्त
माने जाते थे। किस सीमा को मान कर पूर्व और अपर का भेद १० किया जाता था, यह अज्ञात है।
- जिस प्रकार पाणिनि ने कुछ शिष्यों को अष्टाध्यायी का लघपाठ पढ़ाया और कुछ को महापाठ, और वे क्रमशः पूर्वपाणिनीय तथा अपरपाणिनीय-नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी प्रकार सम्भव है काश
कृत्स्न ने भी अपने शास्त्र का दो रूपों से प्रवचन किया हो । निरुक्त १५ आदि अनेक प्राचीन शास्त्रों के लघु और महत दो-दो प्रकार के प्रवचन उपलब्ध होते हैं ।
देश-काशकृत्स्न प्राचार्य कहां का निवासो था, यह अज्ञात है । पाणिनि अरीहणादि गण (४।२।८०) में काशकृत्स्न पद पढ़ता है ।
वर्धमान यहां कशकृत्स्न का निर्देश करता है। तदनुसार, काशकृत्स्न २० अथवा कशकृत्स्न से निमित अथवा जहां इनका निवास था, वह नगर
अथवा देश काशकृत्स्नक कहलाता था, इतना निश्चित है। पर इस नगर अथवा देश की स्थिति कहां थी, यह अज्ञात है।
काशकृत्स्न उत्तरभारतीय-दैवं ग्रन्थ का व्याख्याता कृष्णलीला
१. ग्यारहवीं अखिल भारतीय ओरियण्टल कान्फ्रेंस हैदराबाद १८४१ के २५ लेखों का संक्षेप, पृष्ठ ८५, ८६ ।
२. श्री पं० भगवद्दत्तजी रचित वैदिक वाङ्मय का इतिहास, ब्राह्मण और आरण्यक भाग, पृष्ठ ८५ ।
३. इसी ग्रन्थ का पाणिनि और उसका शब्दानुशासन' अध्याय का अन्तिम भाग।
४. द्र०—इसी पृष्ठ की टिप्पणी ३ । ५. डा. वासुदेवशरणजी अग्रवाल ने 'काशकृत्स्न' शुद्ध पाठ माना है'पाणिनिकालीन भारतवर्ष,' पृष्ठ ४८८ ।