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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन, प्राचार्य ११६ तत्त्वरत्नाकर ग्रन्थ में संकर्ष काण्ड (मीमांसा अ० १३-१६) को काशकृत्स्न-प्रोक्त कहा है।' भट्टभास्कर ने रुद्राध्याय के भाष्य में काशकृत्स्न का यजुःसम्बन्धी एक मत उद्धृत किया है।' बौधायन गृह्य में काशकृत्स्न का मत निर्दिष्ट है । वेदान्त-सूत्र में काशकृत्स्न का मत स्मृत है। आपस्तम्ब श्रौत के मैसर संस्करण के सम्पादक सो० ५ नरसिंहाचार्य ने भाग १ की भूमिका पृष्ठ ५५ तथा ५७ में संकर्षकाण्ड को काशकृत्स्न-प्रभव माना है। __ दोनों एक ही व्यक्ति-उपर्युक्त ग्रन्थों में स्मृत काशकृत्स्न और काशकृत्स्नि दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं, यह हम पूर्व प्रतिपादित कर चुके हैं। तथा उपर्युक्त उद्धरणों में जहां-जहां काशकृत्स्न और १० काशकृत्स्नि का स्मरण है, वहां सर्वत्र एक ही व्यक्ति स्मृत है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं।
वंश–बौधायन श्रौतसूत्र के प्रवराध्याय (३) में लिखा है
भगृणामेवादितो व्याख्यास्यामः पैङ्गलायनाः वैहोनरयः, काशकृत्स्नाः, पाणिनिर्वाल्मीकिः..."प्रापिशलयः ।
इस वचन से स्पष्ट है कि काशकृत्स्न-गोत्र भृगुवंश का है । अत: काशकृत्स्न आचार्य भार्गव है।
पितृ-नाम -काशकृत्स्नि और काशकृत्स्न में निर्दिष्ट तद्धितप्रत्यय के अनुसार इन नामों का मूल शब्द कशकृत्स्न था। वर्धमान के गणरत्नमहोदधि में कशकृत्स्न शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार लिखी है- २० ___कशाभिः कृन्तन्ति 'कृते स्ने याट्त्वे च ह्रस्वश्च बहुलम्" इत्यनेन ह्रस्वत्वे कशकृत्स्नः ।
१. तत्त्वरत्नाकराख्ये भट्टपराशरग्रन्थे संकर्षाख्यश्चतुर्लक्षणात्मको मध्यकाण्डः काशकृत्स्नकृत इत्युच्यते । अधिकरणसारावली-प्रकाशिका में उद्धृत । ६०-मद्रास राजकीय हस्तलेख सूची, भाग ४, खण्ड १ बी नं० ३५५०, २५ पृष्ठ ५२८१।
२. अष्टौ अनुवाका अष्टौ यजूषि इति काशकृत्स्नः । पूना संस्क० पृष्ठ २६॥
३. आधारं प्रकृति प्राह दविहोमस्य बादरिः । प्राग्निहोत्रिकं तथात्रेयः काशकृत्स्नस्त्वपूर्वताम् ॥ १॥४॥
४. अवस्थितेरिति काशकृत्स्न: । ११४॥२२॥ ५. इस सूत्र का मूल अन्वेषणीय है। ६. द्र०-पृष्ठ ३६ टि० १।