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________________ १६ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १२१ शुकमुनि पुरुषकार पृष्ठ ६१ पर लिखता है धनपालस्तु तमेव प्रस्तुत्याह- वर्नु घटादिषु पठन्ति द्रमिडाः । तेषां (नित्यं) मित्सज्ञा-वनयति । प्रार्यास्तु विभाषा मित्त्वमिच्छन्ति । तेषां वानर्यात वनयति । अर्थात –धनपाल कहता है कि द्रमिड वनु धातु का 'वनयति' रूप ५ मानते हैं, और आर्य 'वानयति' तथा 'वनयति' दो रूप मानते हैं। काशकृत्स्न-धातुपाठ के ग्लास्नावनुवमश्वनकम्यमिचमः' सूत्रानुसार 'वन' धातु की विकल्प से मित्-संज्ञा होती है, और वनयति, वनयति दो रूप निष्पन्न होते हैं । इस से सम्भावना होती है कि काशकृत्स्न उत्तरदेशीय हो। सम्भवतः बङ्गीय-काशकृत्स्न धातुसूत्र ११२०३ में पवर्गीय वान्त प्रकरण में अन्तस्थ वकारान्त 'गर्व' आदि धातुएं पढ़ी हैं । बंग प्रान्तीय चन्द्र-कातन्त्र प्रादि वैयाकरणों की भी ऐसो ही प्रवृत्ति देखी जाती है। इस से सम्भावना होती है कि काशकृत्स्न बंगदेशीय हो । काल-हमारे स्वर्गीय मित्र पं० श्री क्षितीशचन्द्रजी चट्टोपाध्याय १५ (कलकत्ता) का विचार है कि काशकृत्स्न पाणिनि से उत्तरवर्ती है, परन्तु उन्होंने इस विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया । पाणिनि से पूर्ववर्ती-काशकृत्स्न निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती है। इस में निम्नलिखित प्रमाण हैं १. पाणिनीय गणपाठ के अन्तर्गत उपकादि गण (२।४।६६) में २० कशकृत्स्न' और अरीहणादि गण (४।२।८७) में काशकृत्स्न शब्द शब्द पठित है। १. काशकृत्स्न-धातुव्याख्यान । ११६२४ ॥ • २. टेक्निकल टर्स आफ् संस्कृत-ग्रामर, पृष्ठ २, ७७ । ३. काशिका, चान्द्रवृत्ति और जैनेन्द्रमहावृत्ति में 'काशकृत्स्न' पाठ मिलता २५ है, वह अशुद्ध है । भोज और वर्धमान ने 'कशकृत्स्न' पाठ माना है। देखो क्रमश: सरस्वतीकण्ठाभरण ४।१।१६४ तथा गणरत्नमहोदघि श्लोक ३०, पृष्ठ ३३, ३४ । वर्धमान ने विश्रान्तविद्याधर व्याकरण के कर्ता वामन के मत में 'कसकृत्स्न' पाठ दर्शाया है। ग० म० पृष्ठ ३४ । वर्धमान द्वारा यहां काशकृत्स्न पाठान्तर का उल्लेख न होने से व्यक्त है कि उसके समय में काशिकादि ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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