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________________ Ae ६ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ४१ इन उद्धरणों से व्यक्त है कि संस्कृत-भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिन का पहले लोक में निर्वाध प्रयोग होता था। परन्तु कालान्तर में उन का लोक-भाषा से प्रायः उच्छेद हो गया, और अधिकतर प्राचीन आर्ष-वाङमय में उन का प्रयोग सीमित रह गया । अतः उत्तरवर्ती वैयाकरण उन्हें केवल छान्दस मानने लग गये। १४. पाणिनि के उत्तरवर्ती महाकवि भास के नाटकों में पचासों ऐसे प्रयोग मिलते हैं, जो पाणिनि-व्याकरण-सम्मत नहीं हैं। उन्हें सहसा अपशब्द नहीं कह सकते । अवश्य वे प्रयोग किसी प्राचीन व्याकरणानुसार साधु रहे होंगे। यहां हम उस के केवल दो प्रयोगों का निर्देश करते हैं__राजन्-उत्तरपद के नकारान्त के प्रयोग पाणिनीय व्याकरण के अनुसार साधु नहीं हैं। उन से अष्टाध्यायी ५४६१ के नियम से टच् प्रत्यय होकर वे अकारान्त बन जाते हैं । यथा काशीराजः महाराजः । परन्तु भास के नाटकों की संस्कृत और प्राकृत दोनों में नकारान्त उत्तरपद के प्रयोग मिलते हैं । यथा__ काशिराज्ञे। सर्वराज्ञः। महाराजानम् । महाराण्णा (= महाराज्ञा)। ये प्रयोग निस्सन्देह प्राचीन हैं। वैदिक-साहित्य में तो इन का प्रयोग होता ही है, परन्तु महाभारत आदि में भी ऐसे अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं। यथा-सर्वराज्ञाम् -प्रादिपर्व १।१५०; १६३।६; २० नागराजः-पादिपर्व १८।१४; शल्यपर्व २०।२७; मत्स्यराज्ञाआदिपर्व १।१७१; विराटपर्व ३०॥४॥ वस्तुतः नकारान्त राजन् और अकारान्त राज दो स्वतन्त्र शब्द हैं । जब समास के विना प्रकारान्त राज के और तत्पुरुष समास में नकारान्त राजन् उत्तरपद के प्रयोग विरल हो गये, तब वैयाकरणों २५ १. देखो भासनाटकचक्र, परिशिष्ट B, पृष्ठ ५६८-५७३ । २. भासनाटकचक्र पृष्ठ १८७ । ३. भासनाटकचन 3 ४४५ । ४.' यज्ञफलनाटक पृष्ठ २८, ६६ । ५. यज्ञफलनाटक पृष्ठ ५० । ६. यानि देवराज्ञां सामानि...."यानि मनुष्यराज्ञाम् ...... । ताण्ड्य बा० १८।१०॥५॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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