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४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ने नष्टाश्वदग्धरथ न्याय' से दोनों को परस्पर में सम्बद्ध कर दिया। अकारान्त राज शब्द का प्रयोग महाभारत में उपलब्ध भी होता है।' इसी प्रकार अकारान्त अह शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है। कुण्डोनी घटोनी आदि प्रयोगों की सिद्धि के लिये पाणिनि द्वारा ऊधसोऽनङ सूत्र' से 'ऊधस्' को अनङ् आदेश करके निष्पन्न किया गया नकारान्त ऊधन् शब्द के वेद में बहुधा स्वतन्त्र प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यथा___ ऊधन (ऋ० १।१५२।६); ऊधनि (ऋ० ११५२।३); ऊधभिः
(ऋ० ८।६।१६); ऊनः (ऋ० ४।२२।६) । १० हमारा तो मन्तव्य है कि पाणिनि ने जहां-जहां लोप आगम वर्ण
विकार द्वारा रूपान्तर का प्रतिपादन किया है, वे रूप प्राचीनकाल में संस्कृत-भाषा में स्वतन्त्र रूप से लब्धप्रचार थे। उन का लोक में अप्रयोग हो जाने पर पाणिनि आदि ने उनसे निष्पन्न व्यावहारिक
भाषा में अवशिष्ट शब्दों का अन्वाख्यान करने के लिये लोप पागम १५ वर्णविकार आदि की कल्पना की है।
१५. भास के अभिषेक नाटक में विंशति' के अर्थ में "विंशत्' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। यह पाणिनीय व्याकरणानुसार असाधु है। पुराणों में अनेक स्थानों पर 'विंशत्' शब्द का प्रयोग मिलता है । यथा
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१. तवाश्वो नष्टः, ममापि रथं दग्धम्, इत्युभौ संप्रयुज्यावहे । महाभाष्य १११॥५०॥
२. राजाय प्रयतेमहि । आदि० ६४।४४ ॥
३. अष्टा० ५।४।१३१॥ ____४. इस प्रकार की व्याख्या के लिये देखिये - इसी ग्रन्थ के अन्त में द्वितीय २५ परिशिष्ट-पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या', 'आदिभाषायां प्रयुज्य
मानानाम् अपाणिनीयप्रयोगाणां साधुत्वविचारः' पुस्तिका तथा 'ऋषि दयानन्द की पद-प्रयोगशैली' पृष्ठ ४-१७ । हमने समस्त पाणिनीय तन्त्र की इस प्रकार की सोदाहरण वैज्ञानिक व्याख्या लिखने के लिये सामग्री संकलित कर ली है,
परन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण इस का लिखा जाना संदिग्ध है । ३० ५. विश्वलोकविजयविख्यातविंशद्बाहुशालिनि । भासनाटकचक्र पृ० ३५९ ।