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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ४३ ऐक्ष्वाकवश्चतुर्विशत् पाञ्चालाः सप्तविंशतिः । काशेयास्तु चतुर्विशद् अष्टाविंशतिहहयः ॥' नारद मनुस्मृति में भी 'चतुविशद्' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। त्रिगर्त की एक प्राचीन वंशावली का पाठ है-'लक्ष्मीचन्द्रपूर्वतोऽभूत् पञ्चविंशत्तमो नृपः । यह वंशावली श्री पं० भगवद्दत जी को ५ ज्वालामुखी से प्राप्त हुई थी। __वस्तुतः प्राचीन-काल में संस्कृत-भाषा में विंशति-विंशत्; त्रिशति-त्रिंशत् चत्वारिंशति-चत्वारिंशत्' आदि दो-दो प्रकार के शब्द थे। त्रिशति और चत्वारिंशति के निम्न प्रयोग दर्शनीय हैं. द्वात्रिंशतिः । पार्जिटर द्वारा संपा० कलिराजवंश, पृष्ठ १६,३२ । १०
रागाः षट्त्रिंशतिः । पञ्चतन्त्र ५१५३ । काशी संस्करण । .वर्णाः षट्त्रिंशतिः । पञ्चतन्त्र ५।४१, पूर्णभद्रपाठ। - वैमानिकगतिवैचित्र्यादिद्वात्रिंशतिक्रियायोगे "स्फोटायनाचार्यः । भारद्वाजीय विमानशास्त्र ।
षत्रिंशति त्रयाणाम् । वाराहगृह्य ६।२६, लाहौर संस्करण । १५ अष्टाचत्वारिंशति सर्वेषाम् । वाराहगृह्य ६।२६, लाहौर संस्करण ।
संस्कृत-भाषा के इन द्विविध प्रयोगों में से त्रिंशति चत्वारिंशति आदि 'ति' अन्त वाले शब्दों के अपभ्रंश अंग्रेजी आदि भाषाओं में टि फोटि फिफ्टी आदि रूपों में व्यवहृत होते हैं ।
महाकवि भास के नाटकों को देखने से विदित होता है कि उसने २० पाणिनीय व्याकरण के नियमों का पूर्ण अनुसरण नहीं किया। अतएव
१. पार्जिटर सम्पादित कलिराजवंश पृष्ठ २३ । पूना संस्करण का पाठ इस प्रकार है-कालकास्तु चतुर्विंशच्चतुर्विशत्तु हैहयः । ६६।३२२ ।। ___ २. चतुर्विशत् समाख्यातं भूमेस्तु परिकल्पनम् । दिव्य प्रकरण श्लोक १३, पृष्ठ १६५ । . ३. वैदिक वाङ्मय का इतिहास' भाग १, पृष्ठ १२० (द्वि० संस्करण) ।
४. हार्डवर्ड ओरियण्टल सीरिज में प्रकाशित । ' ५. 'शिल्प-संसार' १६ फरवरी १६५५ के अङ्क में पृष्ठ १२२ पर । अब इस ग्रन्थ का बहुत सा अंश स्वामी ब्रह्ममुनिजी के उद्योग से स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित हो गया है ।