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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
महाराजाधिराज समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित' में भास के संबन्ध में लिखा है--
अयं च नान्वयात् पूर्ण दाक्षिपुत्रपदक्रमम् ॥६॥
सम्भव है, भास अति प्राचीन कवि हो, और उस के समय में तत्प्रयुक्त अपाणिनीय शब्द लोक-भाषा में प्रयुक्त रहें हों, अथवा उसने किसी प्राचीन व्याकरण के अनुसार इन का प्रयोग किया हो।
१६. लौकिक-संस्कृत के ऐसे अनेक प्रयोग हैं, जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध होते हैं, परन्तु पतञ्जलि के काल में उन का भाषा से प्रयोग लुप्त हो गया था। यथा - - प्रियाष्टनौ प्रियाष्टानः', एनछितक', कोः', उ.', कर्तृचा कर्तृचे, उत्पुद, पयसिष्ठ, द्वः।
इन प्रयोगों के विषय में पतञ्जलि कहता है-'यथालक्षणमप्रयुक्त।" यदि इस वचन का अर्थ माना जाये कि ये शब्द भाषा में
-- १. इस ग्रन्थ का कुछ अंश उपलब्ध हुआ है । वह गोंडल (काठियावाड़) १५ में छपा है । इस ग्रन्थ से पाश्चात्य मतानुयायियों की अनेक कल्पनाओं का
उन्मूलन हो जाता है । कई विद्वान् इसे जाल रचना बतलाते हैं । पं० भगवद्दत ने इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता भले प्रकार दर्शाई है। देखो, भारतवर्ष का इतिहास, द्वितीय संस्क० पृष्ठ ३५३, भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग २,
पृष्ठ ३४६ ॥ २० २. महाभाष्य १।१।२४ ॥ प्रियाष्टो; प्रियाष्टानौ; प्रियाष्टाः, प्रियाष्टान: (उभयथापि दृश्यते) । हैम बृहद्वृत्ति २०१७ ॥
३. महाभाष्य २।४।३४॥
४. महाभाष्य ६।११६८ ॥ हैम बृहद्वृत्ति २।१।६० के कनकप्रभसूरि कृत न्याससार (लघु-यास) तथा अमरचन्द्र-विरचित अवचूणि में महाभाष्य का पाठ अन्यथा उद्धृत किया है-'अत्र भाष्यम्-लोके प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यानम् । लोके च 'कीत्' इत्येव दृश्यते, न 'कीर्' इति । ५. महाभाष्य ६।१८६॥ .६. महाभाष्य ६।४।२ ॥
७. महाभाष्य ६।४।१६ ॥ ८. महाभाष्य ६।४।१६३ ॥
६. महाभाष्य ७।२।१०६ ॥ १०. महाभाष्य १११।२४; २।४।३४; ६।१।६८, ८६; ६।४।२, १६, ३० १६३; ७।२।१०६ ॥