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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सूत्रों में इन धातुत्रों का उल्लेख मिलता है । प्रथम सूत्र की वृत्ति में दुर्गसिंह ने लिखा है - 'छान्दसावेतौ धातु इत्येके' ।' इस पर त्रिलोचन - दास लिखता है -
छान्दसाविति । शर्ववर्मणस्तु वचनाद् भाषायामप्यवसीयते । ५ नायं छान्दसान् शब्दान् व्युत्पादयतीति ।'
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आचार्य चन्द्रगोमी ने अपने व्याकरण के लौकिक भाग में लिटीन्धिश्रन्यग्रन्याम्" सूत्र में इन्धी धातु का निर्देश किया है, और स्वोपज्ञ वृत्ति में 'समोधे' आदि प्रयोग दर्शाये हैं । अतः उस के मत में 'इन्धी' का प्रयोग भाषा में अवश्य होता है ।
पात्यकीर्ति विरचित जैन शाकटायन व्याकरण केवल लौकिक१५ संस्कृत भाषा का है, परन्तु उस में भी इन्धी से विकल्प से प्राम् का विधान किया । "
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अर्थात् - भाष्यकार के मत में दीधीङ वेवीङ छान्दस धातुएं हैं, परन्तु शर्ववर्मा के वचन से इन का लौकिक संस्कृत में भी प्रयोग निश्चित होता है । क्यों कि शर्ववर्मा छान्दस शब्दों का व्युत्पादन नहीं करता है ।
इसी प्रकार महाभाष्यकार द्वारा छान्दस मानी गई वश कान्तौ धातु का भी लोक में व्यवहार देखा जाता है ।"
१. कातन्त्रवृत्ति ३ | ५ | १५॥
२. कातन्त्रवृत्ति परिशिष्ट पृष्ठ ५३० ।
३. स्वादिगण के अन्त में पठित ग्रह दघ चमु ऋक्षि आदि धातुत्रों को पाणिनि ने छान्दस माना है । काशकृत्स्न और उसके अनुयायी कातन्त्रकार तथा चन्द्र ने इन्हें छान्दस नहीं माना। द्र० - क्षीरतरङ्गिणी पृष्ठ २३१ टि० २ का उत्तरार्ध ( हमारा संस्करण) ।
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४. चान्द्र व्याकरण में स्वरप्रक्रिया भी थी। इसके अनेक प्रमाण उसकी स्वोपज्ञवृत्ति (१।१।२३, १०५, १०८ इत्यादि) में उपलब्ध होते हैं । इसकी विशेष विवेचना इसी ग्रन्थ के ' चान्द्र - व्याकरण - प्रकरण' में की है ।
५. चान्द्र व्या० ३।५।२५।।
६. जाग्रुषसमिन्धे वा । १।४।८४ ॥
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७. 'वष्टि भागुरिरल्लोपम्' में तथा यजुर्भाष्य ७८ के अन्वय में 'त्वां चाह वश्मि' (स्वामी दयानन्द सरस्वती) ।