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________________ ४२१ महाभाष्य के टीकाकार स्मरण करता है-कज्जटस्तु कार्तिक्याः प्रभृतीति भाष्यकारवचनादेवंविषिविषये पञ्चमी भवतीति मन्यते ।' ३-मैत्रेयरक्षित अपने तन्त्रप्रदोप' और धातुप्रदीप में धर्मकीर्ति तथा तद्रचित रूपावतार को उद्धृत करना है । ४--धर्मकीति रूपावतार में पदमञ्जरीकार हरदत्त का उल्लेख ५ करता है। ५--हरदत्तविरचित पदमञ्जरी और कैयटविरचित महाभाष्यप्रदीप की तुलना करने से विदित होता कि अनेक स्थानों में दोनों ग्रन्थ अक्षरशः समान हैं । इससे सिद्ध होता है कि दोनों में से कोई एक दूसरे के ग्रम्प की प्रतिलिपि करता है । यद्यपि किसी ने किसी के १० नाम का निर्देश नहीं किया, तथापि निम्न पाठों की तुलना करने से प्रतीत होता है कि कैयट हरदत्त से प्राचीन है। कयट--यद्वा प्रतिपरसमनुभ्योऽक्ष्ण इति टच् समासान्तः । स च यद्यप्यव्योभावे विधीयते, तथापि परशब्दस्याक्षिशब्देनाव्ययीभावासंभवात् समासान्तरे विज्ञायते । हरदत्त-अन्ये तु प्रतिपरसमनुभ्योऽक्षण इति शरत्प्रभृतिषु पाठात् टच् सामासान्त इत्याहुः। स च यद्यप्यव्ययीभावे विधीयते, तथापि परशब्देनाव्ययीभावासंभवात् समासान्तरे विज्ञायते । एवं तु क्रियायां परोक्षायामितिभाष्यप्रयोगे टिल्लक्षणो डोष प्राप्नोति, तस्मादजन्त एवायम् । कयट-ऊध्वं दमाच्चेति-दमशब्दे उत्तरपदे ठसन्नियोगेनोर्ध्वशम्बस्य मकारान्तत्वं निपात्यते।' १५ १. भारतकोमुदी भाग २, पृष्ठ ८६३ की टिप्पणी मै उद्धृत । २. अविनीतकीर्तिना [धर्म] कीर्तिना त्वाहोपुरुषिकया लिखितम्-- तनिपतिदरिद्रातिभ्यो वेड् वाच्य इत्यनार्षमिति । तन्त्रप्रदीप ॥२॥४६) धातु- २५ प्रदीप की भूमिका पृष्ठ ३ में उद्धृत। ३. रूपावतारे बु णिलोपे प्रत्ययो त्पत्तेः प्रागेव कृते सत्येकाच्त्वात् यदाहृत: चोचूर्यत इति । धातुप्रदीप पृष्ठ १३१॥ ४: दीर्घान्त एवायं हरदत्ताभिमतः । रूपावतार भाग २, पृष्ठ १५७ । ५. प्रदीप ३॥२॥११॥ ६. पदमञ्जरी ३१२।११५॥ ७. प्रदीप ४।३६०॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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