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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हरदत्त-ऊवंशब्देन समालार्थ ऊर्ध्वं शब्द इति, स चैतवृत्तिविषय एव । अपर आह-ठसन्नियोगेन दमशब्द उत्तरपदे ऊर्वशब्दस्यैव मान्तत्वं निपात्यत इति । कैयट-गुणो वृद्धिगुणो वृद्धिः प्रतिषेधो विकल्पनम् ।
पुनर्वद्धिनिषेधश्च यापूर्वाः प्राप्तयो नव ।। इति संग्रहश्लोकः।' हरदत्त-आह च
गुणो वृद्धिगुणो वृद्धिः प्रतिषेधो विकल्पनम् ।
पुनर्वृद्धिनिषेधश्च यापूर्वाः प्राप्तयो नव ॥' १० इनमें प्रथम उद्धरण में हरदत्त 'अन्ये..."आहुः' शब्दों से कैयट
के मत का अनुवाद करके उसका खण्डन करता है। द्वितीय में 'अपर' पाह' और तृतीय में 'प्राह च' लिखकर कैयट के पाठ को उदधत करता है। इन पाठों से स्पष्ट होता है कि कैयट हरदत्त से प्राचीन है,
और हरदत्त कैयट के पाठों की प्रतिलिपि करता है। १५ अब हम हरदत्त का एक ऐसा वचन उद्धृत करते हैं, जिसमें
हरदत्त स्पष्टरूप से कयट कृत महाभाष्य-व्याख्या को उद्धृत करता है। यथा
अन्ये तु 'हे प्विति प्राप्ते हे पो इति भवतीति भाष्यं व्याचक्षाणा नित्यमेव गुणमिच्छन्ति । पदमञ्जरी ७।१॥७२॥ २० तुलना करो महाभाष्यप्रदोप-हे त्रपु हे पो इति-हे पु इति
प्राप्ते हे पो इति भवतीत्यर्थः । ७।१।७२॥ 'भाष्यव्याख्याप्रपञकार भी हरदत्त को कैयटानुसारी लिखता
- पदमजरी और महाभाष्यप्रदीप में एक स्थल ऐसा भी है, २५ जिससे प्रतीत होता है कि प्रदीपकार कैयट हरदत्त के पाठ को उद्धृत
करता है । यथा
। १. पदमञ्जरी ४।३।६०॥
२. प्रदीप ७।२॥५॥ ३. पदमजरी ७।२।५॥ ४. प्राचीनवृत्तिटीकायां कज्जटमतानुसारिणा हरिमिश्रेणापि .....। पत्रा ३६ क ।