________________
७०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
गोयीचन्द्र टीका के व्याख्याकारों का निर्देश हमने डा० बेल्वाल्कर के 'सिस्टम्स् ओफ संस्कृत ग्रामर' के आधार पर किया हैं।
इस व्याकरण का प्रचलनः सम्प्रति पश्चिमी बंगाल तक सीमित
१५. सारस्वत-व्याकरणकार (सं० १२५० वि० के लगभग)
सारस्वत व्याकरण के विषय में प्रसिद्ध है कि अनुभूतिस्वरूपाचार्य के मुख से वृद्धावस्था के कारण दन्तविहीन होने से किसी विद्वत्सभा में पुंसु के स्थान पर पुक्षु अपशब्द निकल गया । विद्वानों द्वारा अपशब्द के प्रयोग पर उपहास होने पर अनुभूतिस्वरूप ने उक्त अपशब्द के साधुत्व ज्ञापन के लिये घर पर आकर सरस्वती देवी से प्रार्थना की। उसने प्रसन्न होकर ७०० सूत्र दिये। उन्हीं के आधार पर अनभूतिस्वरूप ने इस व्याकरण की रचना की। किन्हीं के मत में सरस्वती देवी के द्वारा मूल सूत्रों का आगम होने से इस का 'सारस्वत' नाम
१५ हुआ।
२०
इस किंवदन्ती में कहां तक सत्यता है, यह कहना कठिन है। पुनरपि इस किंवदन्ती से इतना स्पष्ट है कि मध्यकालीन विद्वान् असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिये भी तत्पर हो जाते थे। वस्तुतः ऑर्ष और अनार्ष ग्रन्थों की रचना में प्रमुख भेद है। इसीलिये श्रीदण्डी स्वामी विरजानन्द और उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन एवं अनार्ष ग्रन्थों के परित्याग पर विशेष बल दिया है।'
यद्यपि सारस्वत व्याकरण के अन्त में प्रायः 'अनुभूतिस्वरूपाचार्य: विरचिते' पाठ मिलता है, तथापि उसके प्रारम्भिक श्लोक
'प्रणम्य परमात्मानं बालधीवृद्धिसिद्धये।
सरस्वतीमृजु कुर्वे प्रक्रियां नातिविस्तराम् ॥' से विदित होता है कि अनुभूतिस्वरूपाचार्य इस व्याकरण का मूल लेखक नहीं है । वह तो उसकी प्रक्रिया को सरल करनेवाला है ।
१. द्र०-सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ३, पठन-पाठन विधि, पृष्ठ ६६-१०६ ३० (रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्करण) । विशेष द्र०-पृष्ठ ६६ ।