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महाभाष्यकार पतञ्जलि
३७३ हुआ । अतः केवल मौर्यपद का उल्लेख होने से विशेष परिणाम नहीं निकाला जा सकता । महाभाष्य के टीकाकारों के मत में मौर्य शब्द शिल्पिवाचक है।'
६-'अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम' में किसी यवन राजविशेष का साक्षात उल्लेख नहीं है । इतना ही नहीं, ५ कालयवन नामक अति प्राचीन यवन सम्राट् ने भारत के एक बड़े भाग पर आक्रमण किया था, और इस देश पर भारी अत्याचार किये थे। इसे श्रीकृष्ण ने मारा था। भारतीय आर्य बहुत प्राचीन काल से यवनों से परिचित थे। रामायण-महाभारत आदि में यवनों का बहुधा उल्लेख उपलब्ध होता है। अतः केवल इतने निर्दश से कालविशेष १० की सिद्धि नहीं हो सकती।
७-भर्तृहरि और कल्हण के प्रमाण से हम पूर्व लिख चुके हैं कि चन्द्राचार्य ने नष्ट हुये महाभाष्य का पुनरुद्धार किया था। महान् प्रयत्न करने पर उसे दक्षिण से एकमात्र प्रति उपलब्ध हुई थी। बहुत सम्भव है चन्द्राचार्य ने नष्ट हुये महाभाष्य का उसी प्रकार परिष्कार १५ किया हो, जैसे नष्ट हुई अग्निवेश-संहिता का चरक और दृढबल ने, तथा काश्यप-संहिता का जीवक ने परिष्कार किया था।
समुद्रगुप्तकृत कृष्णचरित का संकेत समुद्रगुप्त-विरचित 'कृष्णचरित' का जो अंश उपलब्ध हुआ है, उसमें मुनिकवियों और राजकवियों का जो भी वर्णन किया गया है, २० वह कालक्रमानुसार है । यह बात दोनों प्रकार के कविवर्णनों से स्पष्टः है। समुद्रगुप्त ने पतञ्जलि का वर्णन देवल के पश्चात और भास स पूर्व किया है।
यद्यपि भास का काल भी विवादास्पद ही है, तथापि भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण नाटक के एक श्लोक का निर्देश कौटल्य अर्थ- ५ शास्त्र में होने से इतना स्पष्ट है कि भास आचार्य चाणक्य से अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्वभावी है। अधिक सम्भावना यही है कि वह
• १. मौर्याः-विक्रेतु प्रतिमाशिल्पवन्तः । नागेश, भाष्यप्रदीपोद्योत । ५३६६॥
२. द्र०-पूर्व पृ० २१०, टि०३ । ३. नवं शरावं सलिलस्य पूर्ण.........। १० यौ० ४।२। अर्थशास्त्र १०॥३॥ ३०