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________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता ऋग्वेद-कल्पद्रुम में यामलाष्टक तन्त्र निर्दिष्ट निम्न आठ व्याकरण उद्धृत हैं ब्राह्म, चान्द्र, याम्य, रौद्र, वायव्य, वारुण, सौम्य, वैष्णव । बोपदेव ने अपने कविकल्पद्रुम ग्रन्थ के प्रारम्भ में निम्न आठ वैयाकरणों का उल्लेख किया है-- इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।। इन में शाकटायन पद से आर्वाचीन जैन शाकटायन अभिप्रेत है, वा प्राचीन वैदिक शाकटायन, यह अस्पष्ट है । भोजविरचित सरस्वतीकण्ठाभरण की एक टीका में भी 'अष्ट व्याकरण' का उल्लेख १० है। भास्कराचार्यप्रणीत लीलावती के किसी-किसी हस्तलेख के अन्त में पाठ व्याकरण पढ़ने का उल्लेख उपलब्ध होता है। विक्रम की षष्ठ-शताब्दी वा उससे पूर्वभावी निरुक्तवृत्तिकार दुर्गाचार्य 'व्याकरणमष्टप्रभेदम्" इतना ही संकेत करता है । उस के मत में ये पाठ व्याकरण कौन से थे, यह अज्ञात है । पूर्वोक्त इन्द्र, चन्द्र, काश- १५ कृत्स्न, प्रापिशलि, पाणिनि, अमर और जैनेन्द्र (=पूज्यपाद=देवनन्दी) विरचित ये सात व्याकरण उस के मत में भी माने जा सकते हैं । पाठवां यदि शाकटायन को मानें, तो निश्चय ही वह पाणिनि से पूर्वभावी वैदिक शाकटायन होगा, क्योंकि अर्वाचीन जैन शाकटायन १. हमारा हस्तलेख, पृष्ठ ११४ । २. सरस्वतीकण्ठाभरण दूजा प्रकरण प्रारम्भ'"सा च पाणिन्यादि अष्टव्याकरणोदित । भारतीय विद्या, वर्ष ३, अङ्क १, पृष्ठ २३२ में उद्धृत । ३. अष्टौ व्याकरणानि षट् च भिषजां व्याचष्ट ताः संहिता:........। ४. प्रानन्दाश्रम संस्क० पृष्ठ ७४ । .५. पं० सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे ने शतपथ भाष्यकार हरिस्वामी को २५ वैक्रसाब्द प्रवर्तक विक्रमादित्य का समकालिक सिद्ध किया है। देखो ग्वालियर से प्रकाशित विक्रम-द्विसहस्राब्दी स्मारक ग्रन्थ । तदनुनार आचार्य दुर्ग को विक्रम पूर्व मानना होगा। क्योंकि हरिस्वामी के गुरु स्कन्दस्वामी ने अपनी निरुक्तटीका के प्रारम्भ में दुर्गाचार्य का आदरपूर्वक स्मरण किया है। ऐसी अवस्था में दुर्गाचार्य ने किन अाठ व्याकरणों की ओर संकेत किया है, यह ३० बताना कठिन है।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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