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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
हमने इस लेख में पाणिनीय शब्दानुशासन के आधार पर जितने ग्रन्थों के नाम सङ्कलित किए हैं, वे उस उस विषय के उदाहरणमात्र हैं । इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्रन्थ भी उस समय विद्यमान थे, जिन का पाणिनीय शब्दानुशासन में साक्षात् उल्लेख नहीं है । इतने ५ से अनुमान किया जा सकता है कि पाणिनि के समय में संस्कृत का वाङ् मय कितना विशाल था ।
प्रो० बलदेव उपाध्याय की भूले
प्रो० बलदेव आध्याय एम० ए०, हिन्दु विश्वविद्यालय काशी, का इसी विषय का एक लेख 'प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ' के पृष्ठ ३७२१० ३७६ तक छपा है । उस में अनेक भूलें हैं, जिन में से कतिपय भूलों का दिग्दर्शन हम नीचे कराते हैं
१. पृष्ठ ३७४ में निखा है - 'पाणिनि ने ग्रन्थ अर्थ में उपनिषद् शब्द का व्यवहार नहीं किया ।'
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उपनिषद् शब्द ग्रन्थविशेष के अर्थ में 'ऋगयनादिभ्यश्च" सूत्र के ऋगयनादि गण में पढ़ा है। वहां 'तस्य व्याख्यान:' का प्रकरण होने से पाणिनि ने न केवल उपनिषद् का उल्लेख किया है, अपितु उनके व्याख्यान = टीकाग्रन्थों का भी निदश किया है ।
२. पृष्ठ ३७५ में लिखा है - 'पाणिनि के फुफेरे भाई संग्रहकार २० व्याडि ......।'
महाभाष्य १।१।२० में पाणिनि को 'दाक्षीपुत्र' कहा है, अतः दाक्षायण अर्थात् व्याडि पाणिनि के मामा का पुत्र ( ममेरा भाई ) हो सकता है, न कि फफेरा । वस्तुतः दाक्षायण व्याडि पाणिनि का मामा था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।
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३. पृष्ठ ३७६ में सिखा है - 'इन में ऋक्प्रातिशाख्य के रचयिता शाकल्य का नाम प्रति प्रसिद्ध है ।'
उपलब्ध ऋक्प्रातिशाख्य का रचयिता शाकल्य नहीं है, अपितु आचार्य शौनक है । शाकल्य प्रातिशाख्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में वाणित भी नहीं है ।
४. पृष्ठ ३७६ में 'सुनाग' को शौनग लिखा है ।
१. अष्टा० ४।३।७३॥