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३८ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय २९७
५. पृष्ठ ३७६ में लिखा है-'पतञ्जलि ने" कुणि का उल्लेख किया है।'
महाभाष्य में कुणि का नाम कहीं नहीं मिलता। हां; महाभाष्य १२११७५ के 'एङ् प्राचां देशे शैषिकेषु' वार्तिक पर कैयट ने लिखा है-'भाष्यकारस्तु कुणिदर्शनमशिश्रियत्' । अर्थात् भाष्यकार ने कुणि ५ के मत का प्राश्रयण किया है।
६. पृष्ठ ३७६ में लिखा है-'४।२।६५ के ऊपर काशिका वृत्ति से व्याघ्रपद और काशकृत्स्न नामक व्याकरण के प्राचार्यों का पता चलता है।' . काशिका ४।२०६५ में 'उदाहरण है-"दशका वैयाघ्रपदीयाः।' १० इस में वर्णित वैयाघ्रपदीय व्याकरण के प्रवक्ता का नाम 'वैयाघ्रपद्य' था, व्याघ्रपद नहीं । व्याघ्रपद से प्रोक्त अर्थ में तद्धित प्रत्यय होकर वैयाघ्रपदीय शब्द उपपन्न नहीं होता, व्याघ्रपदीय होगा।
प्रो० बलदेव उपाध्याय के लेख की कुछ भूलें हमने ऊपर दर्शाई हैं । इसी प्रकार की अनेक भूलें लेख में विद्यमान हैं।
अगले अध्याय में हम संग्रहकार व्याडि का वर्णन करेंगे।