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आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय
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अष्टाध्यायी में साक्षात् उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु पूर्वनिर्दिष्ट 'श्रधिकृत्य कृते ग्रन्थे " सूत्र तथा 'लुबाख्यायिकाभ्यो बहुलम्', 'देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधः ", और 'प्राख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च ४ वार्तिकों में इन विषयों के अनेक ग्रन्थों को ओर संकेत विद्यमान हैं । काश्यपप्रोक्त पुराणसंहिता का निर्देश हम पूर्व कर चुके हैं।' 'कथा - ५ दिभ्यष्ठक् " सूत्र में कथासंबन्धी ग्रन्थों की ओर संकेत है । उसके अनुसार कथा में चतुर व्यक्ति के लिए 'कथिक' शब्द का व्यवहार होता है । जैन कथाएं प्रायः इन्हीं प्राचीन कथा -ग्रन्थों के अनुकरण पर रची गई हैं ।
व्याख्यान
पाणिनि की अष्टाध्यायी ४ | ३ |६६-७३ में 'तस्य व्याख्यान:' का प्रकरण है । इन प्रकरण में अनेक व्याख्यानग्रन्थों का निर्देश है । हम काशिकावृत्ति में दिये गए उदाहरण नीचे उद्धृत करते हैं
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सूत्र ४ । ३ । ६६,६७ – सौपः, तैङः, षात्वणत्विकम्, नाताननिकम् । सूत्र ४ | ३ | ६८ - प्राग्निष्टोमिकः, वाजपेयिकः राजसूयिकः, १५ पाकयज्ञिकः, नावयज्ञिकः, पाञ्चौदनिकः, दाशौदनिकः ।
सूत्र ४ | ३ |७० - पौरोडाशिक:, पुरोडाशिकः । सूत्र ४।३।७२ - ऐष्टिक, पाशुकः, चातुर्होमिकः पाञ्चहोतृकः, ब्राह्मणिकः, श्राचिकः (ब्राह्मण और ऋचाओं के व्याख्यान), प्राथमिकः, श्राध्वरिकः, पौरश्चरणिकः ।
सूत्र ४ | ३ | ७३ में - ऋगयनादि गण पढ़ा है । उस में निम्न शब्द हैं, जिनसे व्याख्यान अर्थ में प्रत्यय होता है—
ऋगयन, पदव्याख्यान, छन्दोमान, छन्दोभाषा, छन्दो विचिति, न्यास, पुनरुक्त, व्याकरण, निगम, वास्तुविद्या, क्षत्रविद्य [ नक्षत्रविद्या ], उत्पात, उत्पाद, संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त, उपनिषद्, शिक्षा ।
इस गण से स्पष्ट है कि पाणिनि के काल में इन विषयों के व्याख्यान ग्रन्थ अवश्य विद्यमान थे ।
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१. श्रष्टा० ४ | ३ | ८७ ।
३. महाभाष्य ४ | ३ |८८ || ५. पूर्व पृष्ठ १६० ।
२०
२५
२. महाभाष्य ४ | ३ |८७ ||
४. महाभाष्भ ४/२/६०॥
६. भ्रष्टा० ४ । ४ । १०२ ।। ३०