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१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कामीन की मूल प्रकृति कन्या नहीं है,कनीना है।' कुमारार्थक 'कनीन' प्रातिपदिक का प्रयोग वेद में बहुधा मिलता है।' पारसियों की धर्मपुस्तक 'अवेस्ता' में कन्या के लिये कइनीन' शब्द का व्यवहार
मिलता है। यह स्पष्टतया वैदिक 'कनीना' का अपभ्रंश है। इससे ५ स्पष्ट होता है कि कभी ईरान में कन्या अर्थ में 'कनीना' शब्द का प्रयोग होता था, और उसी का अपभ्रंश 'कइनीन' बना।
२. फारसी-भाषा में तारा अर्थ में 'सितारा' शब्द का प्रयोग होता है, अंग्रेजी में 'स्टार' और गाथिक में 'स्टेयों। इन दोनों का
सम्बन्ध लौकिक-संस्कृत में प्रयुज्यमान 'तारा' शब्द से नहीं है । वेद में १० इनकी मूल-प्रकृति का प्रयोग मिलता है, वह है-'स्तृ' शब्द । ऋग्वेद
में अनेक स्थानों पर तृतीया-बहुचनान्त 'स्तृभिः' पद का व्यवहार तारा अर्थ में मिलता है। जैसे 'पेतर' (लैटिन), 'पातेर' (ग्रीक), 'फादेर' (गाथिक), 'फादर' (अंग्रेजी) का मूल 'पितृ' शब्द का बहुवचनान्त
१. कनीन का स्त्रीलिङ्ग 'कनीनी' शब्द भी है। (द्र० ते० प्रा० १५ १।२७।६–'कुमारीषु कनीनीषु' । कनीनी शब्द भी कनीना के समान मध्योदात्त
है। सायण ने 'कानीनी' के अर्थ में 'कनीनी' का प्रयोग मानकर 'कनीनीषु कुमार्याः पुत्रीषु' अर्थ किया है। यह स्वरानुरोध से तथा वृद्धयभाव के दर्शन से चिन्त्य है । यदि 'प्रथाप्यस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवनिगमा भवन्ति' (निरुक्त २।४)
नियम से सायण का अपत्यार्थ में तद्धितोत्पत्ति के विना ताद्धित अर्थ दर्शाना २० स्वीकार करें तो कथंचिदुपपन्न हो सकता है। हमारे विचार में दोनों समानार्थक
शब्दों में सूक्ष्म अर्थ-भेद दर्शाना उचित होगा। - २. ऋ० ३।४८।१; ८।६६।१४॥ द्र०—'कनीनकेव विध्रधे' (ऋ० ४। ३२।२३); 'कनीनके कन्यके' (निरु० ४।१५); 'जारः कनीनां पतिर्जनीनाम्'
(ऋ० ११६६।४) आदि में प्रयुक्त 'कनी' स्वतन्त्र शब्द है । इस का लौकिक २५ संस्कृत में भी प्रयोग देखा जाता है । यथा-'वासुके: पुत्री दिव्यरूपा कमी वसुदत्तिर्नाम' । (प्रबन्धकोष, पृष्ठ ८६) ।
३. ह ओ मा तास-चित् या कइनीनो (संस्कृत छाया—सोमः ताश्चित याः कनीनाः) । ह प्रोम यश्त ६।२३।। (लाहौर संस्करण पृष्ठ ५८) ।
४. Stairno । एफ. बांप कृत कम्पेरेटिव ग्रामर, भाग, १, पृ० ६४ । ३० ५. ऋ० ११६८।५; ११८७।१।१।१६३।११ इत्यादि ।