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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास
: 'शवतिगतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाव्यते । .... विकारमस्यार्येषु भावन्ते शव इति । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु । दात्रमुदीच्येषु । "
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१.१.
इन प्रमाणों से सिद्ध है कि किसी समय संस्कृत भाषा का प्रयोगक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था । यदि संसार की समस्त भाषात्रों के नवीन और प्राचीन स्वरूपों की तुलना की जाय, तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि ५ संसार की सब भाषाओं का आदि मूल संस्कृत भाषा है । इन भाषाओं के नये स्वरूप की अपेक्षा इन का प्राचीन स्वरूप संस्कृतभाषा के अधिक समीप था ।
अब हम प्राचीन प्राचार्यों द्वारा प्रदर्शित उपर्युक्त सिद्धान्त ( संस्कृत का प्रयोग-क्षेत्र सप्तद्वीपा वसुमती था) की पुष्टि में चार १० प्रमाण देते हैं
१. पाणिनीय व्याकरण में 'कानीन' शब्द की व्युत्पत्ति 'कन्या' शब्द से की है और कन्या को ' कनीन' प्रदेश कहा है । वस्तुतः
१. कम्बोज की आधुनिक बोलियों में 'शवति' के 'शुद-पुत-शुई' आदि विभिन्न अपभ्रंश शब्द गति अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । द्र० - भारतीय इतिहास की रूप रेखा, द्वि० सं०, भाग १, पृष्ठ ५३३ ।
२. निरुक्त २|२|| तुलना करो - 'एतस्मिश्चातिमहति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते । तद्यथा शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति, विकार एनमार्या भाषन्ते शव इति । हम्मतिः सुराष्ट्रेषु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु गमिमेव त्वार्याः प्रयुञ्जते । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु ।' महाभाष्य १।१ । श्र० १ ॥
नागेश ने इस वचन की व्याख्या में 'दातिः' को क्तिन्नन्त अथवा तिजन्त लिखा है । यह अशुद्ध है । प्रकरणानुसार 'दातिः' शब्द धातुनिर्देशक 'रितप्’ प्रत्मान्त है । निरुक्त और महाभाष्य के पाठ में धातु और उस से निष्पन्न शब्दों का विभिन्न प्रदेशों में प्रयोग दर्शाया है ।
१३. 'वैदिकसम्पत्ति' (संस्क० २ ) पृष्ठ २६९ - ३०३ || वेदवाणी ( वाराणसी) का सं० २०१७ का वेदाङ्क ( वर्ष १३ अङ्क १३ अङ्क १-२ ) पृष्ठ ५० - ५८ 'भाषाविज्ञान और ऋषि दयानन्द' शीर्षक लेख 1
४. 'कन्यायाः कनीन च' । अष्टा० ४|१|११६ ॥
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