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________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उपलब्ध ग्रन्थ तत्तद्विषयों के अत्यन्त संक्षिप्त संस्करण हैं।' अतः यह आपाततः मानना होगा कि वर्तमान काल की अपेक्षा प्राचीन, प्राचीनतर और प्राचीनतम काल में संस्कृत-भाषा विस्तृत, विस्तृतर और विस्तृततम थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्य नसांग लिखता है-'प्राचीन ५ काल के प्रारम्भ में शब्द-भण्डार बहुत था। शब्दशास्त्र के प्रामाणिक प्राचार्य पतञ्जलि १५०० वि०पू०) ने संस्कृत-भाषा के प्रयोगविषय का उल्लेख करते हुये लिखा है___'सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरे प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः । सण्त१० द्वीपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुधा भिन्नाः एकशतमध्वर्यु शाखाः, सहस्रव िसामवेदः, एकविंशतिधा बाहवृच्यं नवधाथर्वणो वेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहासः, पुराणम् इत्येताबाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः । पतञ्जलि से प्राचीन प्राचार्य 'यास्क' ने लिखा है-- १५ १. भारतीय वाङमय के उपलभ्यमान कतिपय संक्षिप्त ग्रन्थों को देख कर ही पाश्चात्य विद्वानों को आश्चर्य होता है । यदि आज संस्कृत वाङ्मय के अतिप्राचीन विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध होते, तो निश्चय ही पाश्चात्य विद्वानों की अनेक भ्रमपूर्ण मिथ्या-कल्पनात्रों का निराकरण अनायास हो जाता । पाणिनीय व्याकरण के विषय में पाश्चात्य विद्वानों की क्या धारणा है, इस का उल्लेख २० हम पाणिनि के प्रकरण (अध्याय ५ ) में करेंगे ।। २. ह्यू नसाङ्ग, भाग प्रथम, वार्ट्स का अनुवाद, पृष्ठ २२१ । ३. पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने ऐतरेयालोचन पृष्ठ १२७ मे 'सहस्रवर्मा' का अर्थ सहस्र प्रकार का सामगान किया है, और 'सहस्रशाखा' अर्थ को अशुद्ध कहा है । यह उन की भूल है । भाष्यपाठ में ऋग् और अथर्व के साथ प्रकारार्थक 'धा' प्रत्यय का प्रयोग है। यजुः के साथ शाखा शब्द प्रयुक्त है। उपक्रम में स्पष्ट 'बहुधा भिन्नाः' कहा है । अतः ‘सहस्रवा सामवेदः' का अर्थ 'सहस्र प्रकार का सामवेद' करना चाहिये । अन्यथा वाक्य का सामञ्जस्य ठीक नहीं बनेगा । महाभारत (शान्तिपर्व ३४२।६७) में सामवेद की सहस्र शाखायें स्पष्ट लिखी हैं—'सहस्रशाखं यत्साम ।' कूर्म पुराण में भी लिखा है-'सामवेदं ३० सहस्रेण शाखानां प्रबिभेद सः' । पू० ५२।२० ॥ ४. महाभाष्य अ० १ । पा० १ । प्रा० १॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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