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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
पं० भगवद्दत्त जी ने सबसे प्रथम विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है ।'
वृषल शब्द का अर्थ - सम्प्रति 'वृषल' शब्द का अर्थ शूद्र समझा जाता है । विश्वप्रकाश - कोश में वृषल का अर्थ शूद्र, चन्द्रगुप्त मौर अश्व लिखा है । वस्तुतः वृषल शब्द देवानांप्रियः " के समान द्वयर्थक ५ है । उसका एक अर्थ है पापी, और दूसरा धर्मात्मा । निरुक्त ३|१६ में 'वृषल' शब्द का अर्थ लिखा है
ब्राह्मणवद् वृषलवद् । ब्राह्मण इव, वृषल इव । वृषलो वृषशीलो भवति, वृषाशीलो वा ।
अर्थात् वृषल का अर्थ वृष = धर्म * + शील और वृष = धर्मं + १० प्रशील है । द्वितीय अर्थ में शकन्धु' के समान प्रकार का पररूप
होगा ।
इन्हीं दो प्रथों में वृषलशब्द की दो व्युत्पत्तियां भी उपलब्ध होती हैं । एक वृषं - धर्मं लाति प्रादत्ते इति वृषलः है । इसी में 'वृषादिभ्यश्चित्' । इस उणादिसूत्र से वृष धातु से कर्त्ता में कल १५ प्रत्यय होने पर 'वर्षतीति' वृषलः' व्युत्पत्ति होती है । दूसरा अर्थ मनुस्मृति में लिखा है—
वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् । वृषलं तं विदुर्दवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ॥
इन्हीं विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्तों को दर्शाने के लिए निरुक्तकार २० ने दो निर्वचन दर्शाये हैं । अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने मौर्य चन्द्रगुप्त के लिये वृषल शब्द का प्रयोग देखकर 'मुरा' नाम्नी शूद्र स्त्री से चन्द्रगुप्त के उत्पन्न होने की कल्पना की है । यह कल्पना ऐतिह्य - विरुद्ध
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१. भारतवर्ष का इतिहास पृष्ठ २६३, २७४ द्वितीय संस्करण ।
२. वृषलः कथितः शूद्रे चन्द्रगुप्ते च वाजिनि । पृष्ठ १५६, श्लोक ० । 'वाजिनि' के स्थान पर 'राजनि' पाठ युक्त प्रतीत होता है ।
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३. देवताओं का प्यारा और मूर्ख । इसको न समझकर भट्टोजि दीक्षित ने 'देवानां प्रिय इति चोपसंख्यानम्' ( महाभाष्य ६ । ३ । २१ ) वार्तिक में 'भूख' पद का प्रक्षेप कर दिया । सि० कौ० सूत्रसंख्या ६७६ ।
४. वृषो हि भगवान् धर्मः । मनु० ८ | १६ ||
५. शक + अन्धुः =शकन्धुः । शकन्ध्वादिषु च । वार्तिक ६।१।९४।। ६. पञ्च० उणा० १।१०१ ॥ दश० उणा० ८।१०६ ।। ७. मनु० ८ १६ ॥