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महाभाष्यकार पतञ्जलि
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काल पतञ्जलि का इतिवृत्त अन्धकारावृत है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। पतञ्जलि के काल-निर्णय में जो सहायक सामग्री महाभाष्य में उपलब्ध होती है, वह इस प्रकार है--
१. अनुशोणं पाटलिपुत्रम् । २।१।१५॥ २. जेयो वृषलः । ॥१॥५०॥ ३. काण्डीभूतं वृषलकुलम् । कुड्यीभूतं वृषलकुलम् । ६।३।६१॥ ४. मौर्ये हिरण्यार्थिभिरर्चाः प्रकल्पिताः । ५॥३॥६६॥ ५. परगद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् ।
३।२।१११॥ १० ६. पुष्यमित्रसभा, चन्द्रगुप्तसभा। १।१६८।।
७. महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्यमाणवाः । एष प्रयोग उपपन्नो भवति । ७।२।२३॥ . ८. इह पुष्यमित्रं याजयामः । ३।२।१२३॥
६. पुष्यमित्रो यजते, याजका याजयन्ति । ३।१।२६ ।
२०. यदा भवद्विधः क्षत्रियं याजयेत् । यदि भवद्विधः क्षत्रियं याजयेत् । ३।३।१४७॥
इन उद्धरणों से निम्न परिणाम निकलते हैं
१-प्रथम उद्धरण में पाटलिपुत्र का उल्लेख है। महाभाष्य में पाटलिपुत्र का नाम अनेक बार आया है वायु पुराण ६६।३१८ के २० अनुसार महाराज उदयी (उदायी) ने गंगा के दक्षिण कल पर कुसुमपुर बसाया था।' साम्प्रतिक ऐतिहासिकों का मत है कि कुसुमपुर पाटलिपुत्र का ही नामान्तर है । अतः उनके मत में महाभाष्यकार महाराज उदयी से अर्वाचीन है। . २-संख्या २, ३ में वषल और वषलकूल का निर्देश है। संख्या २५ २ में वृषल को 'जीतने योग्य' कहा । संख्या ३ में किसी महान् वृषलकुल के कुड्य के सदृश अतिसंकीर्ण होने का संकेत है । यह वृषलकुल मौर्यकल है। मुद्राराक्षस में चाणक्य चन्द्रगुप्त को प्रायः 'वृषल' नाम से संबोधित करता है। महाभाष्य के इन दो उद्धरणों की ओर श्री
१. उदायी भविता यस्मात् त्रयस्त्रिशत्समा नृपः । स वै पुरवरं राजा ३० पृथिव्यां कुसुमाह्वयम् । गङ्गाया दक्षिणे कूले चतुर्थेऽब्दे करिष्यति ॥