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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
चारायण, काशकृत्स्न, शन्तनु, वैयाघ्रपद्य, माध्यन्दिनि, रौढि, शौनकि, गोतम और व्याडि, इन सोलह प्राचार्यों का उल्लेख अन्यत्र मिलता
प्रातिशाख्य आदि रैदिक व्याकरणप्रवक्ता' प्रातिशाख्य-यद्यपि प्रातिशाख्य तत्-तत्-चरणों के व्याकरण हैं, तथापि उन में मन्त्रों के संहितापाठ में होनेवाले विकारों का प्रधानतया उल्लेख है। जिससे पदपाठस्थ मूल पदों के परिज्ञान में सुविधा होवे । इसी प्रकार इन में पदपाठ एवं क्रमपाठ सम्बन्धी आवश्यक
नियमों का निर्देश है । यास्क के मतानुसार संहिता के मूल पदपाठ १० को आधार बनाकर सब चरणों के प्रातिशाख्यों की प्रवृत्ति हुई है।'
प्रकृति-प्रत्यय-विभाग द्वारा पदसाधुत्व के अनुशासन की उन में आवश्यकता ही नहीं पड़ी । अतः उनकी गणना प्रधानतया शब्दानुशासन ग्रन्थों में नहीं की जा सकती। इस समय निम्न प्रातिशाख्य
ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं१५ १. ऋक्प्रातिशाख्य-शौनककृत।
२. वाजसनेयप्रातिशाख्य-कात्यायनकृत । ३. सामप्रातिशाख्य (पुष्प या फुल्ल सूत्र)-वररुचिकृत' ? ४, अथर्वप्रातिशाख्य.........। ५: तैत्तिरीयप्रातिशाख्य –.........। ६. मैत्रायणीयप्रातिशाख्य-........।"
इन के अतिरिक्त चार प्रातिशाख्यों के नाम प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं
२५ ।
१. प्रातिशाख्य आदि के विषय में इस ग्रन्थ के २८वें अध्याय में विस्तार से लिखा है, वहां देखना चाहिए।
२. पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । निरु० १ । १७ ॥
३. वन्दे वररुचि नित्यमूहाब्धेः पारदृश्वनम् । पोतो विनिर्मितो येन फुल्लसूत्रशतैरलम् । हरदत्तविरचित सामवेदसर्वानुक्रमणी, ऋक्तन्त्र के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ ७ ।
४. द्र० मैत्रायणी संहिता की प्रस्तावना, पृष्ठ १६ (ौंध-संस्करण) ।