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आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८७
सरस्वतीकण्ठाभरण महाराज भोजदेव ने सरस्वतीकण्ठाभरण नाम के दो ग्रन्थ रचे थे-एक व्याकरण का, दूसरा अलंकार का। सरस्वतीकण्ठाभरण नामक शब्दानुशासन में ८ आठ बड़े-बड़े अध्याय हैं ।' प्रत्येक अध्याय ४ पादों में विभक्त है। इस की समस्त सूत्र संख्या ६४११ ५
है।
हम इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में लिख चुके हैं कि प्राचीन काल से प्रत्येक शास्त्र के ग्रन्थ उत्तरोत्तर क्रमशः संक्षिप्त किये गये। इसी कारण शब्दानुशासन के अनेक महत्त्वपूर्ण भाग परिभाषापाठ, गणपाठ और उणादि सूत्र आदि शब्दानुशासन से पृथक् हो गये । इसका फल १० यह हुआ कि शब्दानुशासनमात्र का अध्ययन मुख्य हो गया और परिभाषापाठ, गणपाठ तथा उणादि सूत्र आदि महत्त्वपूर्ण भागों का अध्ययन गौण हो गया। अध्येता इन परिशिष्टरूप ग्रन्थों के अध्ययन में प्रमाद करने लगे। इस न्यूनता को दूर करने के लिये भोजराज ने अपना महत्त्वपूर्ण सरस्वतीकण्ठाभरण नामक शब्दानुशासन रचा। १५ उसने शब्दानुशासन में परिभाषा, लिङ्गानुशासन, उणादि और गण-.. पाठ का तत्तत् प्रकरणों में पुनः सन्निवेश कर दिया । इससे इस शब्दानुशासन के अध्ययन करने वाले को धातुपाठ के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं रहती। गणपाठ आदि का सूत्रों में . सन्निवेश हो जाने से उनका अध्ययन आवश्यक हो गया। इस प्रकार २० व्याकरण के वाङमय में सरस्वतीकण्ठाभरण अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रारम्भिक सात अध्यायों में लौकिक शब्दों का सन्निवेश है और आठवें अध्याय में स्वरप्रकरण तथा वैदिकशब्दों का अन्वाख्यान है।
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. १. दण्डनाथवृत्ति सहित सरस्वतीकण्वभरण के सम्पादक पं० साम्ब शास्त्री ने लिखा है कि इसमें सात ही अध्याय हैं । देखो-ट्रिवेण्ड्रम प्रकाशित स० के०, भाग १, भूमिका पृष्ठ १ । यह सम्पादक की महती अनवधानता है कि उसने समग्र ग्रन्थ का विना अवलोकन किये सम्पादन कार्य प्रारम्भ कर दिया।