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पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य
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है । उत्तर भारत में वाराणसी पर्यन्त व-ब का भेद स्पष्ट रहता है। उससे प्राग्देशों में सांकर्य बढ़ते-बढ़ते 'व' 'ब' रूप में परिणत हो जाता है। आगे पृष्ठ १५४ पर उद्धत व-ब के बोधक सं० ४ के प्रमाण से संभावना हो सकती है कि आपिशलि प्राग्देशीय रहा हो।
काल पाणिनीय अष्टक में आपिशलि का साक्षात् उल्लेख होने से इतना निश्चित है कि यह पाणिनि से प्राचीन है। पदमञ्जरीकार हरदत्त के लेख से प्रतीत होता है कि प्रापिशलि पाणिनि से कुछ ही वर्ष प्राचीन है । वह लिखता है___ कथं पुनरिदमाचार्यण पानिनिनाऽवगतमेते साधव इति ? आपि- १० शलेन पूर्वव्याकरणेन, प्रापिलिना तहि केनावगतम् ? ततः पूर्वण व्याकरणेन ॥
पाणिनिरपि स्वकाले शब्दान् प्रत्यक्षयन्नापिशलादिना पूर्वस्मिन्नपि काले सत्तामनुसन्धत्ते, एवमापिलिः ॥
पाणिनि विक्रम से लगभग ३१०० सौ वर्ष प्राचीन है, यह हम १५ पाणिनि के प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध करेंगे।
बौधायन श्रौत के प्रवराध्याय में भृगवंश में आपिशलि गोत्र का उल्लेख मिलता है । मत्स्य पुराण १९४।४१ में भी भृगुवंश्य प्रापिशलि का निर्देश उपलब्ध होता है। पं० गुरुपद हालदार ने आपिशलि को याज्ञवल्क्य का श्वसुर लिखा है, परन्तु कोई प्रमाण नहीं दिया। २० याज्ञवल्क्य ने शतपथ का प्रवचन विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व किया था, यह हम पूर्व लिख चके हैं। प्रापिशली शिक्षा में सात्यमुग्री और राणायनीय शाखा के अध्येताओं का उल्लेख है । १. पदमञ्जरी (अथशब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ६ । २. पदमञ्जरी (अथशब्दानुशासनम् ) भाग १, पृष्ठ ६।
२५ ३. भगणामेवादितो व्याख्यास्यामः........ पैङ्गलायना:. वहीनरयः... "काशकृत्स्ना:....."पाणिनिर्वाल्मीकिः ...."प्रापिशलयः । ४. व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ५१६ ।
५. छन्दोगानां सात्यमुनिराणायनीया ह्रस्वानि पठन्ति । ६ । ६ ॥ तुलना करो–छन्दोगानां सात्यमुनिराणायनीया अर्धमेकारमर्षमोकारं चाधीयते । महा- ३० भाष्य, एप्रोङ् सूत्र।