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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महान् शब्दस्य प्रयोगविषयः। सप्तद्वीपा वसुमतो " । एतस्मिश्चातिमहति प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते ।' । यद्यपि महाभाष्यकार के समय में संस्कृत-भाषा का प्रचार समस्त भूमण्डल में नहीं था, तथापि वह पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध होने वाले शब्दों का प्रयोगक्षेत्र सप्तद्वीपा वसुमती लिखता है, और उनकी उपलब्धि के लिये प्रेरणा करता है । इससे स्पष्ट है कि वह अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से मानता है, और उनके द्वारा संस्कृत
भाषा से लुप्त हुये प्रयोगों की उपलब्धि के लिये प्रेरणा करता है । १० सम्भवतः महाभाष्यकार के उक्त वचन के अनुसार भट्र कुमारिल
ब्याकरण-शास्त्र के साहाय्य से लोक में उत्पन्न हई मूल शब्दराशि के परिज्ञान की प्रेरणा देता है। वह लिखता है-'यावांश्चाकृतको विनष्टः शब्दराशिस्तस्य व्याकरणमेवैकमुपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि
च। तन्त्रवात्तिक १।३।१२, पृ० २३६ (पूना संस्क० शावरभाष्य १५ भाग १)।
अतः संस्कृत-भाषा से शब्दों का लोप तथा भाषा का संकोच किस प्रकार हुआ, इसका व्याकरण शास्त्र के आधार पर अतिसंक्षिप्त सप्रमाण निदर्शन आगे कराते हैं
१. भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तमदेव ने ६।१७७ की वृत्ति में एक २० वात्तिक लिखा है- 'इकां यभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोरिति वक्त
व्यम्' । तदनुसार व्याडि और गालव प्राचार्यों के मत में 'दध्यत्र' मध्वत्र' प्रयोग विषय में 'दधियत्र मधुवत्र' प्रयोग भी होते थे। पुरुषोत्तमदेव से प्राचीन जैनेन्द्र व्याकरण के व्याख्याता अभयनन्दी ने 'संग्रह' के नाम से इस मत का उल्लेख किया है। हेमचन्द्र ने स्वोपज्ञ
१. महाभाष्य । अ० १ । पा० १ । अ० १ ॥
२. इको यभिर्व्यवधानमेकेषामिति संग्रहः । जैनेन्द्र महावृत्ति ।।२॥१॥ पं० क्षितीशचन्द्र चटर्जी ने 'टेकनीकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' के पृष्ठ ७१ के टिप्पण में निम्न पाठ उद्धृत किया है
'भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यभिर्वायुवम्बर३० योरिव' ॥