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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २७ यास्कीय निरुक्त और पातञ्जल महाभाष्य से विदित होता है कि इस अतिमहती संस्कृत-भाषा का प्रयोग विभिन्न देशों में बंटा हुआ था । यथा -आर्यावर्तदेशवासी गमन अर्थ में 'गम्लु' धातु का प्रयोग करते थे, सुराष्ट्रवासी 'हम्म" का, प्राच्य तथा मध्यदेशवासी 'रंह' का, और काम्बोज 'शव' का । पार्यों में 'शव' धातु के आख्यात का प्रयोग ५ नहीं होता । वे लोग उसके निष्पन्न केवल 'शव'कृदन्त शब्द का प्रयोग करते हैं। लवन काटना अर्थ में 'दा' धातु के 'दाति आदि आख्यात पदों का प्रयोग प्रारदेश में होता था, और ष्ट्रन्-प्रत्ययान्त 'दात्र' शब्द उदीच्य देश में बोला जाता था। आजकल भी पंजाबी भाषा में 'दात्र' के स्त्रीलिङ्ग 'दात्री' शब्द का व्यवहार होता है । अतएव यास्क १० ने निर्वचन के नियमों का उपसंहार करते हुये लिखा है-इस प्रकार देशभेद में बंटे हुये प्रयोगों को ध्यान में रखकर शब्दों का निर्वचन करना चाहिये। अर्थात् किसी देश में प्रयुक्त शब्द की व्युत्पत्ति उसी प्रदेश में प्रयुक्त असम्बद्ध धातु से करने की चेष्टा न करके देशान्तर में प्रयुक्त मूल धातु से करनी चाहिये ।
१५ ____इस लेख से यह सुस्पष्ट है कि संस्कृत-भाषा के विभिन्न शब्दों का प्रयोग विभिन्न देशों में बंटा हुआ था। पुनः उन देशों में ज्यों-ज्यों म्लेच्छता की वृद्धि होती गई, त्यों-त्यों वहां से संस्कृत-भाषा का लोप होता गया, और उन-उन देशों में प्रयुक्त संस्कृत भाषा के विशिष्ट प्रयोग लुप्त हो गये। इस प्रकार संस्कृत-भाषा के प्रचार-क्षेत्र के २० संकोच के साथ-साथ भाषा का भी महान् संकोच हो गया। यदि आज भी संसार की समस्त भाषाओं का इस दृष्टि से अध्ययन किया जाय, तो संस्कृत-भाषा के शतशः लुप्त प्रयोगों का पुनरुद्धार हो सकता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि भाषा के संकोच और विकार के इस सिद्धान्त से भले प्रकार विज्ञ था। वह लिखता है'सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते ।।
१. पहम्मतीति पाठे हम्मतिः कम्बोजेषु प्रसिद्धः इति । गउडवाह टीका पृष्ठ २४५ । महाभाष्य से विरुद्ध होने के कारण टीकाकार का लेख अशुद्ध है।
२. अथापि प्रकृतय एवैकेषु भाष्यन्ते, विकृतय एकेषु । शवतिर्गतिकर्मा कम्बो जेष्वेव भाष्यते ।.....विकारमस्यार्येषु भाषन्ते शव इति । दातिर्लवनार्थे ३० प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु । निरुक्त २।२॥ तथा पृष्ठ ११, टि० २ में महाभाष्य का उद्धरण।
३. एवमेकपदानि निबूं यात् । निरुक्त २।२॥