SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३११ संग्रहकार व्याडि २१. श्रोंकारश्चाथ शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुराः । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तेन मांगलिकावुभौ ॥' इनमें से अन्तिम उद्धरण व्याडि के कोषग्रन्थ का प्रतीत होता है । संग्रह के उपर्युक्त वचनों से विदित होता है कि संग्रह में गद्य, पद्य दोनों थे 1 इनके अतिरिक्त न्यास, महाभाष्यप्रदीप, पदमञ्जरी, योगव्यासभाष्य श्रादि में संग्रह नाम से कुछ वचन उपलब्ध होते हैं । श्री डा० सत्यकाम वर्मा की भूल वर्माजी ने 'भाषातत्त्व और वाक्यपदीय' में सं० १० के वचन का अर्थ 'शब्दों की प्रकृति अपभ्रंश शब्द है' लिखा है | यह व्याख्या संग्रहवचन के उद्धर्त्ता भर्तृहरि की १० व्याख्या के तथा वैयाकरण मत के विपरीत है । उन्होंने पाश्चात्य मत के साथ तुलना के लिये उक्त व्याख्या की है । वस्तुत: इस वचन का अर्थ है - अपभ्रंशों की प्रकृति साधु शब्द हैं। शब्दप्रकृति में बहुव्रीहि समास है - शब्द: प्रकृतिरस्य । षष्ठीसमास 'शब्दानां प्रकृति:' मान कर डाक्टर जी ने भूल की है । न्यास और संग्रह - न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि ने पांच वचन संग्रह के नाम से उद्धृत किए हैं। वे महाभाष्य में उपलब्ध होते हैं । न्यास के पाठ में संग्रह का अर्थ संक्षेपवचन हो सकता है । महाभाष्याप्रदीप और संग्रह - कैट ने महाभाष्य में पठित कई श्लोकों के विषय में 'पूर्वात्तार्थसंग्रहश्लोकाः " लिखा है । इस वाक्य २० के दो अथ हो सकते हैं । - 13 १. महाभाष्य में पूर्व प्रतिपादित अर्थ की पुष्टि में संग्रह ग्रन्थ के श्लोक | २. पूर्व में विस्तार से प्रतिपादित अर्थ को संग्रह = संक्षेप से कहने वाले श्लोक | २५ पुरुषोक्तम देवीय परिभाषावृत्ति प्रादि के अन्त में पृष्ठ १२५ । इस उद्धरण की उत्थानिका -- ' अत एव व्याडि: - ज्ञानं १५ १. भाष्यव्याख्याप्रपञ्च । वही संस्क०, पृष्ठ १२५ । इस उद्धरण का अन्त्य पाठ —— 'नोंकारश्च वुभौ ॥ इति व्याडिलिखनात् ।' २. ४२८, पृष्ठ ६३० ४।२६, पृष्ठ ६३१ ६ १ ६८, पृष्ठ २४३; ८।१।६६, पृष्ठ ४१; ८|२| १०८, पृष्ठ १०३० ।। ३. ५।२।४८ ।।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy