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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन आचार्य
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प्रतीकाराद्यर्थकाच्च कितः, स्वार्थे सनो विधिः । इति भागुरिस्मृतेः । ' ७. अपादान सम्प्रदान करणाधारकर्मणाम् ।
कर्तु श्चान्योऽन्यसंदेहे परमेकं प्रवर्तते ।। इति भागुरिवचनमेव शरणम् ।'
हमारा विचार है ये छ: श्लोक भागुरि के स्ववचन ही हैं । सम्भव है भागुरि ने ऋक्प्रातिशाख्यवत् छन्दोबद्ध सूत्र रचना की हो । उस काल में शास्त्रीय ग्रन्थ श्लोकबद्ध रचने की परिपाटी थी ।
भागुरि के व्याकरणविषयक मतनिदर्शक निम्न दो वचन और उपलब्ध होते हैं८. वष्टि
भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
ग्रापं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥ " B. हन्तेः कर्मण्युपष्टम्भात् प्राप्तुमर्थे तु सप्तमीम् । चतुर्थी बाधिकामाहुइचूर्णिभागुरिवाग्भटाः ॥" १०. स्यान्मतम्, करोतीति कारणम् । यथोक्तम् । ष्टिव सिव्योयुं ट्परयोर्दीर्घत्वं वष्टि भागुरिः । करोते कर्तृभावे च सौनागाः प्रचक्षतेः ॥ भागुरि के अन्य ग्रन्थ
१. संहिता - प्रपञ्चहृदय, चरणव्यूहटीका, जैमिनीय गृह्य और गोभिल गृह्यप्रकाशिका आदि अनेक ग्रन्थों से विदित होता है कि
१. पृष्ठ ४४७ काशी संस्करण ।
२. भाष्यव्याख्याप्रपञ्च, पृष्ठ १२६ । पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषा वृत्ति, राजशाही संस्क० ।
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बड़ोदा
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३. देखो पूर्व पृष्ठ १०४, टि० १ । भट्टिटीका में उत्तरार्ध इस प्रकार है'धाकृञोस्तनिनह्योश्च बहुलत्वेन शौनकि: ।' निर्णयसागर, पृष्ठ ६६ ॥
४. शब्दशक्तिप्रकाशिका पृष्ठ ३८६ में इसे भर्तृहरि का बचन लिखा है । २५ यह ठीक नहीं । वाक्यपदीय के कारक - प्रकरण में यह वचन नहीं मिलता । भर्तृ - हरि वाग्भट्ट से प्राचीन है, यह हम भर्तृहरिविरचित महाभाष्यदीपिका के प्रकरण में लिखेंगे । इस श्लोक में वाग्भट का निर्देश है
५. मल्लवादि कृत द्वादशारनयचक्र की सिंहसूरिगणि कृत टीका, संस्करण भाग १, पृष्ठ ४१ ।
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