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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन . १२ वीं शताब्दी का ऋग्वेद का भाष्यकार वेङ्कटमाधव लिखता है-शाकल्यः पाणिनिर्यास्क इत्यूगर्थपरास्त्रयः ।' अर्थात् ऋग्वेद के ज्ञाता तीन हैं -शाकल्य, पाणिनि और यास्क । वेङ्कटमाधव का यह लेख सर्वदा सत्य है। वेदार्थ में स्वरज्ञान सब से प्रधान साधन है । पाणिनि ने स्वरशास्त्र के सूक्ष्मविवेचन की दष्टि से न केवल प्रत्येक प्रत्यय तथा आदेश के नित्, नित्, चित्, आदि अनुबन्धों पर विशेष ध्यान रक्खा है अपितु लगभग ४०० सूत्र केवल स्वर-विशेष के परिज्ञान के लिये ही रचे । इससे पाणिनि की वेदज्ञता विस्पष्ट है।
पाणिनीय व्याकरण और माहेश्वर सम्प्रदाय--शिव महेश्वर ने भी वेदाङ्गों का प्रवचन किया था, यह हम पूर्व (पृष्ठ ६७ में) लिख १० चुके हैं। पाणिनीय व्याकरण का सम्बन्ध शैव--माहेश्वर सम्प्रदाय के साथ है । यह बात प्रत्याहार सूत्रों को माहेश्वर सूत्र कहने से ही स्पष्ट है। अङ्कोरवत् के शिलालेख में भी एक शैवव्याकरण का निर्देश मिलता है। यहां भारत के समान यह किंवदन्तो भी प्रसिद्ध हैं कि शिवजी के डमरू बजाते ही व्याकरण के शिवसूत्र प्रकट हो १५ गये । द्र०-बृहत्तर भारत पृष्ठ ३३२ ।
पाणिनीय व्याकरण और पाश्चात्त्य अब हम पाणिनीय व्याकरण के विषय में आधुनिक पाश्चात्त्य विद्वानों का मत दर्शाते हैं । -
१. इङ्गलैण्ड देश का प्रो० मोनियर विलियम्स कहता है- २० 'संस्कृत व्याकरण उस मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है, जिसे किसी देश ने अब तक सामने नहीं रक्खा'।
२. जर्मन देशज प्रो० मैक्समूलर लिखता है-'हिन्दुओं के व्याकरण अन्वय की योग्यता संसार की किसी जाति के व्याकरण साहित्य से चढ़ बढ़ कर हैं। ___३. कोलबुक का मत है-'व्याकरण के नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये थे, और उन की शैली अत्यन्त प्रतिभापूर्ण थी'
१. मन्त्रार्थानुक्रमणी, ऋग्भाष्य ८, १ के प्रारम्भ में ।
२. हम ने अगले चार उद्धरण 'महान् भारत' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १४६, १५० से उद्धृत किये हैं।