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प्रथात्-- दर्भपवित्रपाणि प्रामाणिक आचार्य ने शुद्ध एकान्त स्थान में प्राङमुख बैठकर एकाग्रचित होकर बहुत प्रयत्नपूर्वक सूत्रों का प्रणयन' = प्रकरण विशेष स्थापन किया है । अतः उस में एक वर्ण भी अनर्थक नहीं हो सकता, इतने बड़े सूत्र के प्रानर्थक्य का तो क्या कहना ?
पुनः लिखा है
सामर्थ्ययोगान्नहि किचिदस्मिन् पश्यामि शास्त्रे यवनर्थकं स्यात् । " अर्थात् — सूत्रों के पारस्परिक सम्बन्धरूपी सामर्थ्य से मैं इस शास्त्र में कुछ भी अनर्थक नहीं देखता ।
संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
प्रमाणभूत प्राचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचाववकाशे प्राङ्मुख उपविश्य महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितुम्, किं पुनरियता सूत्रेण ।"
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शेषशेमुषी सम्पन्न तर्कप्रवण पतञ्जलि का पाणिनीय शास्त्र के विषय में उक्त लेख उसकी अत्यन्त महत्ता को प्रकट करता है । जयादित्य 'उदक् च विपाशः " सूत्र की वृत्ति में लिखता है - महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य ।
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प्रसिद्ध चीनो यात्री ह्यूनसांग लिखता है -- ऋषि ने पूर्ण मन से २० शब्दभण्डार से शब्द चुनने प्रारम्भ किये, और १००० दोहों में सारी व्युत्पत्ति रची। प्रत्येक दोहा ३२ अक्षरों का था । इसमें प्राचीन तथा नवीन सम्पूर्ण लिखित ज्ञान समाप्त हो गया । शब्द और अक्षर विषयक कोई भी बात छूटने नहीं पाई ।
अर्थात् - सूत्रकार की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म है । वह साधारण से स्वर की भी उपेक्षा नहीं करता ।
१. महाभाष्य १।१।१, पृष्ठ ३६ ।
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२. तुलना करो - 'अग्नि प्रणयति' 'अपः प्रणयन्' प्रादि श्रोतप्रयोग । इसी दृष्टि से पतञ्जलि ने 'पाणिनीयं महत् सुविहितम्' का उल्लेख किया है (महा ४।२०६६) । ३. ६।१।७७।। ४. अष्टा० ४।२|७४॥
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५. ह्य नसांग के लेख से यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिये कि पाणिनीय ग्रन्थ पहिले छन्दोबद्ध था । ग्रन्थपरिमाण दर्शाने की यह प्राचीन शैली है ।
६. ह्य नसांग वाटर्स का अनुवाद, भाग १, पृष्ठ २२१ ॥