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३८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः ।
कौमुदी यद्यकण्ठस्था वथा भाष्ये परिश्रमः ॥' पहिले दो वार आचार्य चन्द्र और क्षीर ने महाभाष्य का उद्धार तात्कालिक सम्राटों की सहायता से किया, परन्तु इस वार महाभाष्य का उद्धार कौपीनमात्रधारी परमहंस दण्डी स्वामी विरजानन्द और उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया। श्री स्वामी विरजानन्द ने तात्कालिक पण्डितों की पूर्वोक्त धारणा के विपरीत घोषणा की थी
अष्टाध्यायीमहाभाष्ये द्वे व्याकरणपुस्तके ।
ततोऽन्यत् पुस्तकं यत्तु तत्सर्व धूर्तचेष्टितम् ॥ आज भारतवर्ष में यत्र-तत्र जो कुछ थोड़ा-बहुत महाभाष्य का पठन-पाठन उपलब्ध होता है, उसका श्रेय इन्हीं दोनों गुरु-शिष्यों को
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महाभाष्य के पाठ की अव्यवस्था १५ हमारे पूर्व लेख से स्पष्ट है कि महाभाष्य के पठन-पाठन का
अनेक वार उच्छेद हुआ है । इस उच्छेद के कारण महाभाष्य के पाठों में बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है। भर्तृहरि, कैयट और नागेश श्रादि टीकाकार अनेक स्थानों पर पाठान्तरों को उधत करते हैं।
नागेश कई स्थानों में महाभाष्य के अपपाठों का निदर्शन कराता है। २० अनेक स्थानों में महाभाष्य का पाठ पूर्वापर व्यस्त हो गया है ।
टीकाकारों ने कहीं-कहीं उसका निर्देश किया है, कई स्थान विना निर्देश किये छोड़ दिये हैं । सम्भव है टीकाकारों के समय वे पाठ ठीक रहे हों, और पीछे से मूल तथा टीका का पाठ व्यस्त हो
गया हो। इसी प्रकार अनेक स्थानों में महाभाष्य के पाठ नष्ट हो २५ गये हैं। हम उनमें से कुछ स्थलों का निर्देश करते हैं
१-अष्टाध्यायी के 'अव्ययीभावश्च" सूत्र के भाष्य में लिखा है१. इसका एक पाठान्तर इस प्रकार है
कौमुदी यदि नायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः। कौमुदी यदि चायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः॥
भाव दोनों का एक ही है। २. अष्टा० १३१॥४१॥