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________________ महाभाष्यकार पतञ्जलि यः पतञ्जलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागमः । काले स दाक्षिणात्येषु ग्रन्थमात्रे व्यवस्थितः || पर्वतादागमं लब्ध्वा भाष्यबीजानुसारिभिः । स नीतो बहुशाखत्वं चन्द्राचार्यादिभिः पुनः ॥' ३७९ कल्हण ने लिखा है कि चन्द्राचार्य ने महाराज अभिमन्यु के प्रदेश ५ से महाभाष्य का उद्धार किया था । द्वितीय वार - कल्हण की राजतरङ्गिणी से ज्ञात होता है कि विक्रम की ८ वीं शताब्दी में महाभाष्य का प्रचार पुनः नष्ट हो गया था । कश्मीर के महाराज जयापीड ने देशान्तर से 'क्षीर' संज्ञक शब्द - विद्योपाध्याय को बुलाकर विच्छिन्न महाभाष्य का प्रचार पुनः १० कराया । कल्हण का लेख इस प्रकार हैं देशान्तरादागमय्याथ व्याचक्षाणान् क्षमापतिः । प्रावर्तयत विच्छिन्नं महाभाष्यं स्वमण्डले । क्षोराभिधानाच्छन्दविद्योपाध्यायात् संभृतश्रुतः । बुधैः सह ययौ वृद्धिं स जयापीड पण्डितः ॥ १५ महाराज जयापीड का शासन काल विक्रम सं० ८०८ - ८३९ तक है । एक वैयाकरण क्षीरस्वामी क्षीरतरङ्गिणी, अमरकोशटीका आदि अनेक ग्रन्थों का रचयिता है। कल्हण द्वारा स्मृत ' क्षीर' इस क्षीरस्वामी से भिन्न व्यक्ति है । क्षीरस्वामी अपने ग्रन्थों में महाराज भोज और उसके सरस्वतीकण्ठाभरण को बहुधा उद्धृत करता है । अतः २० इस क्षीरस्वामी का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । * तृतीय वार - विक्रम की १८वीं और १६वीं शताब्दी में सिद्धान्तकौमुदी और लघुशब्देन्दुशेखर आदि अर्वाचीन ग्रन्थों के अत्यधिक प्रचार के कारण महाभाष्य का पठन-पाठन प्रायः लुप्त हो गया था । काशी के अनेक वैयाकरणों की अभी तक धारणा है १. वाक्यपदीय २४८७, ४८८, ४८६ ॥ २. चन्द्राचार्यादिभिर्लब्ध्वादेशं तस्मात्तदागमम् । प्रवर्तितं महाभाष्यं स्वं च व्याकरणं कृतम् ॥ राजतरङ्गिणी १।१७६ ॥ ३. राजतरङ्गिणी ११४८८, ४८६॥ ४. क्षीरतरङ्गिणी की रचना जयसिंह के राज्यकाल ( वि० सं० १९८५ - १९९५) में हुई । द्र० – पाणिनीय धातुपाठ व्याख्याता, श्र० २१ । ३०.
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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