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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
भाषा की सरलता, प्राञ्जलता, स्वाभाविकता, और विषय प्रतिपादन - शैली की उत्कृष्टता आदि की दृष्टि से यह ग्रन्थ समस्त संस्कृतवाङ्मय में प्रार्दशभूत है ।
महाभाष्य की महत्ता
महाभाष्य व्याकरणशास्त्र का अत्यन्त प्रमाणिक ग्रन्थ है । क्या प्राचीन क्या नवीन समस्त पाणिनीय वैयाकरण महाभाष्य के सन्मुख नतमस्तक हैं । महामुनि पतञ्जलि के काल में पाणिनीय और अन्य प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों की महती ग्रन्थराशि विद्यमान थी । पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त १० ग्रन्थों का सारसंग्रह कर दिया । महाभाष्य में उल्लिखित प्राचीन आचार्यों का निर्देश हम वार्तिककार के प्रकरण में कर चुके हैं । इसी प्रकार महाभाष्य में अन्य प्राचीन व्याकरण-ग्रन्थों से उद्घृत कतिपय वचनों का उल्लेख भी पूर्व हो चुका है । महाभाष्य का सूक्ष्म पर्यालोचन करने से विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल व्याकरणशास्त्र १५ का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु समस्त विद्याओं का प्राकरग्रन्थ है । अत एव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ( २२४६६ ) में लिखा है - कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदशना । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥
महाभाष्य का अनेक बार लुप्त होना
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उपर्युक्त लेख से स्पष्ट है कि पातञ्जल महाभाष्य बहुत प्राचीन ग्रन्थ है | इतने सुदीर्घ काल में महाभाष्य के पठन-पाठन का श्रनेक वारा उच्छेद हुआ । इतिहास से विदित होता है कि महाभाष्य का लोप न्यूनातिन्यून तीन वार अवश्य हुआ । यथा
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प्रथम वार - भर्तृहरि के लेख से विदित होता है कि बैजि सौभव २५ और हर्यक्ष प्रादि शुष्क तार्किकों ने महाभाष्य का प्रचार नष्ट कर दिया था | चन्द्राचार्य ने महान् परिश्रम करके दक्षिण के किसी पार्वत्य प्रदेश से एक हस्तलेख प्राप्त कर उसका पुनः प्रचार किया । भर्तृहरि का लेख इस प्रकार है
बैजिसौभव हर्यक्षः शुष्कतर्कानुसारिभिः । श्रार्षे विप्लाविते ग्रन्थे संग्रहप्रतिकञ्चुके ||