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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्रादाय तत्सकलमेव ततोऽन्नभाण्डं
जम्बीरजातरसयोजनया विपक्वम् । घृष्टं ततो मृदुतनकृतपिण्डमूलैः ____कुर्यात् यथेष्टमनुमौक्तिकमाशु विद्धम् ॥३५।। मुल्लिप्तमत्स्यपुटमध्यगतं तु कृत्वा
पश्चात् पचेत् तनु ततश्च विधानपत्या। दुग्धे ततः पयसि तं विपचेत् सुधायां
पक्वं ततोऽपि पयसा शुचिचिक्कणेन ॥३६॥ शुद्धं ततो विमलवस्त्रनिघर्षणेन
स्यान्मौक्तिकं विपुलसद्गुणकान्तियुक्तम् । व्याडिर्जगाद जगतां हि महाप्रभाव
सिद्धो विदग्धहिततत्परया कृपालुः ॥३७॥ - यहां ३५ वें श्लोक के रसयोजनया शब्द स्पष्ट है । ३७ वें में
महाप्रभावसिद्ध शब्द भी रसशास्त्र का परिभाषिक पद है। १५ उपर्युक्त निर्देशों से स्पष्ट है कि प्राचार्य व्यादि रस पारद
शास्त्र का विशिष्ट प्रवक्ता था। ___ नागागुर्जन रसशास्त्र का उपजाता नहीं-लोक में किंवदन्ती है कि अौषधरूप में रसपारद के व्यवहार का उपज्ञाता बौद्ध विद्वान
नागार्जुन है। वस्तुतः यह मिथ्या भ्रम है । रसचिकित्सा भी उतनी २० ही प्राचीन है, जितनी प्रोद्भिजचिकित्सा । चरक अोर सुश्रुत मुख्यतया
प्रौद्धिज और शल्यचिकित्सा के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं । इसलिये उन में रसचिकित्सा का विशेष उल्लेख नहीं मिलता । अग्निवेश आदि रसचिकित्सा से परिचित नहीं थे, यह धारणा मिथ्या है। चरक चिकित्सास्थान अध्याय ७ में लिखा है- .
श्रेष्ठं गन्धकसंयोगात् सुवर्णमाक्षिकप्रयोगाद्वा ।।
सर्वव्याधिविनाशमनद्यात् कुष्ठी रसं च निगृहीतम् ॥ चरक में इस के अतिरिक्त अन्य रसों का भी उल्लेख है। प्रो० दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी ने रसरत्नसमुच्चयटीका की भूमिका पृष्ठ
२. ३ पर अन्य रसों का भी वर्णन दर्शाया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र १. अध्याय ३४ में सुवर्ण का एक भेद 'रसविद्ध' =पारद निर्मित
बताया है।